बैंक की स्टाफ़-ट्रांसफ़र नीति के तहत उनका ट्रांसफ़र हमारी ब्रांच में हो गया था। पहली मुलाकात ट्रेन में ही हो गई लेकिन तब औपचारिक परिचय नहीं हुआ था। हुआ यूँ कि हम ताश खेल रहे थे, वो मेरे पास ही आकर बैठ गये। मौका देखकर उन्होंने पूछा कि फ़लां स्टेशन पर गाड़ी कितने बजे पहुँचती है? उन्होंने उंगली पकड़ाई, हमने पहुँचा पकड़ लिया। तब भी ऐसे मौकों पर नैतिक शिक्षा के सब पाठ याद आ जाते थे। जब बिना हाथ पैर हिलाये हुये सिर्फ़ जबान चलाने से किसी की मदद होती हो तो परोपकार थोड़ा भी मुश्किल नहीं लगता, आजमाकर देख सकते हैं। हम ताश खेलते रहे और उनके इस छोटे से सवाल का जवाब देने में कम से कम दो तीन स्टेशन निकाल दिये। टाईम-टेबल में गाड़ी का उस स्टेशन पर पहुँचने का समय, वास्तव में पहुँचने का औसत समय, अब तक का बेस्ट अराईवल\वर्स्ट अराईवल सब विस्तार में बता दिये। उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव से समझ आ गया कि जनाब नये नये डेली पैसेंजर हैं और ऐसा भी दिख गया कि जरूर बैंक में ही काम करते होंगे। अपना अनुभव यही बताता है कि दूसरे महकमों के कर्मचारी सुबह के समय थोड़ी बहुत देर सवेर की चिंता नहीं करते, उनके दिल बहुत बड़े होते हैं। वैसे इसमें भी कोई हैरानी नहीं अगर दूसरे महकमे वाले बैंकवालों के बारे में भी ऐसे विचार रखते हों क्योंकि दूसरे की आँख के तिनके को शहतीर समझने के फ़ोबिया से हम सभी पीड़ित हैं।
उस दिन स्टेशन पर उतरे तो वो जनाब भी हमारे साथ ही ट्रेन से उतरे। हमारे पिछले शानदार रेस्पोंस से उत्साहित होकर अब उन्होंने अपनी मंजिल के बारे में पूछा तो मजबूरन गौर से उन्हें निहारना पड़ा। जिस ब्रांच में मैं काम करता था, उसी के बारे में पूछ रहे थे। मैंने कहा कि चलते रहिये, मैं बता दूँगा। यूँ ही हल्के-फ़ुल्के सवाल-जवाब करते हुये हम लोग ब्रांच पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर तो उन्हें पता चलना ही था कि हम स्टाफ़ हैं, बड़े स्टाईल से गर्दन हिलाते हुये बोले, "छुपे रुस्तम हो, पहले नहीं बताया कि स्टाफ़ मेंबर ही हो।" फ़िर हाथ मिलाकर हुआ औपचारिक परिचय, मि. बहल और आपके मो सम कौन का। वो उम्र में पचपन थे और हम लगभग बचपन में ही थे। जितनी मेरी उम्र, उतने साल की तो उनकी नौकरी हो चुकी थी। वो अधिकारी, हम बाबू। थोड़ा सा हँसी-मजाक भी हुआ, प्रभुजी तुम चंदन हम पानी, तुम अधिकारी हम किरानी। उन्होंने हँसते हुये गले लगा लिया, हम चाचा-भतीजा बन गये। पहले दिन से ही वो बुलाते अनेजा साहब, मैं बुलाता चाचा बहल। कभी कभी जल्दबाजी में पंजाबी स्टाईल में ’चाच्चा बैल’ भी कह देता था और फ़िर सॉरी कहने पर वो मुस्कुराकर कह देते, "काके, तुम्हारा चाचा तो बचपन से ही बैल बना हुआ है और मरते दम तक बैल रहेगा।" धीरे-धीरे मि. बहल अब ’चाचा बहल’ कहलाये जाने लगे।
पर्सनल्टी के मामले में ऐसे शानदार चरित्र मैंने बहुत कम देखे हैं। उम्र के अनुसार बाल सफ़ेद हो गये थे, बहल साहब उन्हें रंगते नहीं थे और न ही सफ़ेदी के डर से मूँछें उड़ा रखी थीं। लाली लिये हुये खूब गोरा रंग, रौबदार मूँछें, सलीकेदार कपड़े, एकदम चमकते हुये जूते और गरिमा भरी चाल के साथ साथ नपी तुली बात करना उनके व्यक्तित्व को बहुत शानदार बना देता था। उन दिनों में ही वो एकदम फ़ौजी अफ़सर लगते थे, जवानी में तो वाकई बिजलियाँ गिराईं होंगी। अपने घर से डेली अप-डाऊन करते थे और दिल्ली स्टेशन तक हमारा साथ रहता था। शाम को स्टेशन पर गाड़ी का इंतज़ार करते हुये एक दिन बताने लगे कि जब उनकी शादी हुई थी तो उनके ससुर साहब यहीं स्टेशन मास्टर थे। बुढ़ापे में एक तरफ़ ढाई घंटे की पैसेंजरी से उकताये हुये थे, कहने लगे, "भैंचो, पता नहीं था पैंतीस साल बाद फ़िर इस शहर में धक्के खाने पड़ेंगे। हार्ट-पेशेंट हूँ, कल का भरोसा नहीं और सुबह शाम पाँच घंटे गाड़ी में धक्के खाने पड़ते हैं। दाना-पानी ही तो है अनेजा साहब।"
दिखने में ही नहीं, व्यवहार में भी आदमी एकदम डिसीप्लिन्ड थे। बंधा हुआ रूटीन था, सुबह बैंक पहुँचते और चपरासी को इशारा कर देते। थोड़ी देर में एक कप चाय आ जाती। शाम को चाय वाला बूढ़ा हिसाब करने आता, वो भी अपनी तरह का एक आईटम ही था। दिन में हममें से कोई भी जाकर चार-पांच चाय बोल आता और नाम किसी दूसरे का लिखवा देता, पेमेंट के समय रोज शाम को चकल्लस मचा रहता था। कुछ दिन में गौर किया कि बहल साहब का कोई चाय-खाता नहीं था। बूढ़े से पूछा तो कहने लगा, "पेज क्यूँकर खराब करना? रोज की एक ही चाय होती है उनकी तो।" लड़कों ने बात पकड़ ली, किसी न किसी बहाने से रोज जाकर चाचा बहल से चाय की फ़रमायश होती और वो मुस्कुराकर सिर हिला देते। समझ आज तक नहीं आई कि वो सिर हाँ का हिलाते थे या न का, अलबत्ता उनके खाते से चाय किसी को नसीब न हुई। चाचा बहल का एक और नाम ’मूँजी चाचा’ चल निकला, बस ये नाम उनकी गैरहाजिरी में उनका जिक्र करने के लिये इस्तेमाल होता था।
दूसरे सरकारी महकमों में सुनते हैं कि टीए बिल, मेडिकल बिल वगैरह पास करवाने के लिये स्टाफ़ को भी चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है लेकिन हमारे बैंक इस मामले में साफ़ सुथरे हैं। चाचा बहल की चाय के चक्कर में एक दिन हमारा एक साथी जो स्टाफ़ बिल वगैरह देखता था उसे हम लोगों ने चढ़ा दिया। शुक्रवार का दिन था और बहल साहब ने एक अच्छा खासा टीए बिल पेश कर रखा था। दिन में कई बार चाचा ने बिल पास करने वाले भतीजे को नमस्ते बुलाई, हाल चाल पूछे और भतीजा भी बदस्तूर सलामती के जवाब देता रहा। सीधे से बिल की बात न चाचा ने की और भतीजे ने तो खैर क्या करनी थी।
लौटते समय चाचा ट्रेन में बहुत विचारमग्न थे, ऐसे ही अगले दिन सुबह भी। महसूस मैं भी कर रहा था लेकिन मुझे तो कहानी पता ही थी सो मैं चुपचाप देखता रहा। जब ट्रेन से उतरे तो मेरा हाथ पकड़कर चाचा बहल ने पूछा, "अनेजा साहब, बात समझ नहीं आई। कल मैंने चार पांच बार उसे इशारा किया लेकिन उसने मेरा बिल पास नहीं करवाया।कहानी समझ नहीं आई, किसी बात से नाराज तो नहीं है स्टाफ़ के लोग?" दो नाव में सवारी करने वाला मैं धर्मसंकट में फ़ँस गया। मुझे हँसी आ गई, चाचा ने नब्ज पकड़ ली और मेरे पीछे पड़ गया कि भेद खोलूँ। मैंने बता दिया कि लड़कों ने कसम खा ली है कि चाचा से चाय पीनी है।
"हद हो गई यार और आपसे तो मुझे ये उम्मीद नहीं ही थी। एक बार वो कह देता या कोई भी कह देता तो मैं क्या मना करता? और आपको भी बात का पता न होता तो कोई बात नहीं थी लेकिन पता होने के बाद भी सारा दिन चुप रहे, हद कर दी यार।" जाते ही सब लड़कों के लिये चाय का आर्डर हुआ, चाय वाला बूढ़ा चाय देने से पहले आर्डर की सत्यता जाँचने आया क्योंकि चाचा बहल को आये हुये कई महीने हो गये थे लेकिन उनका ग्राफ़ एक चाय एक दिन से ऊपर कभी नहीं गया था। चाय के कप हाथ में लेकर सबने चीयर्स बोला, उस महंगी-महंगी चाय को हमने जितना एंजाय किया शायद चाय के किसी शौकीन ने कभी नहीं किया होगा।
पन्द्रह साल से ज्यादा बीत गये, अब भी याद है वो शनिवार का दिन था। बारह बजे पब्लिक डीलिंग खत्म हुई और साढ़े बारह बजे एकदम ब्रांच में भगदड़ मच गई, चाचा बहल को छाती में दर्द शुरू हुआ था और वो सीट से गिर गये थे। आनन फ़ानन में उन्हें शहर के एकमात्र हार्ट स्पेशलिस्ट के क्लीनिक/अस्पताल लेकर गये। अंदर डाक्टर और उनकी टीम अपना काम कर रहे थे और बाहर खड़े हम एक दूसरे को दबी जबान में कोस रहे थे।
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हटाएंइंतज़ार कीजिये :)
हटाएंदद्दा बहुत ही बढ़िया चाच्चा...गजब
हटाएंचाचा की चाय चालू रही कि नहीं ...
जवाब देंहटाएंअगले ऐपिसोड में पढ़ेंगे हम लोग
कहीं ऐसा तो नहीं कि चाय के चक्कर में चाच्चा जी को जूस पिलाना पड़ा हो वो भी कई दिनों तक.
जवाब देंहटाएं......अगली पोस्ट का इंतजार है।
जवाब देंहटाएंवाकई ये चाय का चक्कर है ही बुरा फ़िर भले ही वह कौन सा भी ऑफ़िस हो.. अगले एपीसोड का इंतजार रहेगा ..
जवाब देंहटाएंचाचा अच्छे होंगे।
जवाब देंहटाएंउत्सुकता है अगले एपीसोड की !
जब बिना हाथ पैर हिलाये हुये सिर्फ़ जबान चलाने से किसी की मदद होती हो तो परोपकार थोड़ा भी मुश्किल नहीं लगता, आजमाकर देख सकते हैं.… सच में !
बम्बैया सीरियल बना दिया अंत में स्टॉप लगाकार महाराज :(
जवाब देंहटाएंअगली पोस्ट का बेताबी से इंतज़ार है ,
चचा अमर रहें ..
बड़े भाई,बम्बैया असर जाते जाते ही जायेगा।
हटाएंबचपन + पन्द्रह + ज्यादा , कुल मिलाकर अब कितनी उम्र हुई है आपकी :)
जवाब देंहटाएंउम्र तो अली साहब लगभग राहुल बाबा के बराबर की है, बस हम थोड़ा साधारण परिवार से हैं इसलिये जन्मदिन नहीं मनाया जाता :)
हटाएंउम्र तो हमें उस असाधारण परिवार वाले की भी नहीं मालूम :)
हटाएंओह, यहाँ भी गूगल बाबा की दरकार है.... :)
हटाएंबहुत सादगी से आपने अपनी बात रखी है यद्यपि इसमें कोई विशेष आकर्षण नहीं है पर भावनात्मक सम्बन्ध भी जीवन के पडाव की किताबें हैं जो हमारे जीवन शैली को परिपुष्ट करती है और हमें जीना सिखाती है । " मैं तो निरा माटी का लोंदा था उसने मुझे छूकर मूरत बना दिया ।" वस्तुतः ऐसे ही अपेक्षा-रहित सम्बन्धों की वज़ह से आदमी इन्सान बन जाता है । प्राञ्जल प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंअपेक्षा अस्वाभाविक नहीं लेकिन मजबूती अपेक्षा-रहित संबंधों में ही ज्यादा रहती है।
हटाएंआभार आपका।
झटका तो लगना ही था, "एक" से सीधा पूरे स्टाफ के लिये
जवाब देंहटाएंये तो ग्राफ की खडी चोट हो गई
प्रणाम
पड़े ग्राफ़ पर खड़ी चोट!!
हटाएंभैया उदीयमान ब्लॉगर जी, बधाई हो :)
संजय बाबु राम राम लगत है की एकता कपूर का असर आ रहा है .....अगली कड़ी अब आगे देखिये ....
जवाब देंहटाएंजय बाबा
हम पर ही उनका असर आयेगा, उनपर हमारा असर कहाँ से आयेगा कौशल भाई? वो वड्डे लोग हैं।
हटाएंचच्चा की चिंता है, अगली पोस्ट का इंतजार करते हैं, आभार.
जवाब देंहटाएंरामराम.
मे बी... मे बी नॉट...ये तो 'तू है मेरी किरण' वाला हाल हो गया है. अब सरकार ये न पूछियेगा कि ये कहा किसने और ये किरण कोण है...
जवाब देंहटाएंसादर
ललित
नहीं पूछेंगे भाई कि कहा किसनी और ये किरण कौन है, लेकिन ये तो पूछ सकते हैं न कि कहाँ है और कैसी है?
हटाएंअगली कड़ी की प्रतीक्षा है, चाचा का क्या हुआ।
जवाब देंहटाएंयह कोई जगह है ब्रेक देने की?
जवाब देंहटाएंअगली बार आपकी पोस्ट में पहले एंड देखेंगे। यदि continued हुआ तो अगली पोस्ट आने के बाद ही पिछली पढ़ेंगे।
चाचा जी ठीक हुए न? जल्दी लिखिए अगला भाग।
ऐसा हुआ कि डॉ ने कहा कि ज्यादा चाय से एसिडिटी हो गयी है।?
हटाएंजल्दी ही लिखेंगे जी, तब तक होल्ड करिये :)
हटाएंब्रेक देने की जगह तो एकदम सही है,अंदाजा लगाईये कि क्या हुआ होगा फ़िर हम सरप्राईज़ देंगे। निश्चिंत रहिये अबकी बार continued नहीं होगा, सिमट जायेगा चचा पुराण।
हटाएंकभी - कभी एक पल भी उम्र के लिए भारी हो जाता है ...
जवाब देंहटाएंचचा स्ट्रांग हैं, आगे पढ़ते हैं।
जवाब देंहटाएंऔर ये नहीं may be/may not be नहीं चलेगा, will be लगाइए।
may be\may not be तो सस्पेंस फ़ैक्टर के चक्कर में लिखा है वरना तो will be ही है(between the lines) :)
हटाएंभाई, तुम भी अपने व्लॉग पर इतना अंतराल मत डालना अब। तुम्हारी पोस्ट देखकर कितनी खुशी हुई, बता नहीं सकता।
सोच रही हूँ की कुछ और खरी खोटी कह कर ,अब क्या बच्चे की जान लू , ऊपर सभी लोगो ने अच्छी आप की खबर ली है , आप की जरी की आरी का , मै तो ध्यान देती थी लेकिन आज नहीं देखा ये जारी वाला पढ़ लिया , अब भलाई इसी में है की कल के कल अगली पोस्ट दे दे , लो जी जो टिपण्णी देनी थी वो भी नहीं दे सकती अब तो अगली किस्त के बाद ही दूंगी :(
जवाब देंहटाएंयोर ऑनर, इतनी मोहलत देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। लोग तो कहते हैं कि कल कभी नहीं आता, आपने मुल्जिम की दिमागी हालत का लिहाज करते हुये कल के कल तक की छूट दी। भगवान ने चाहा तो कल के कल ही अगली पोस्ट आयेगी :)
हटाएंएक मूरख मैं कि आये दिन स्टाफ को चाय पिलाता हूँ मगर किसी का पीता नहीं -उसूल की बात है !
जवाब देंहटाएंसही सिद्धांत है आपका अरविंद जी।
हटाएंलगभग हम सबके जीवन में भी नित्य यही सब होता है.
जवाब देंहटाएंरोजमर्रा के कार्यकलाप को अपने अनूठे प्रस्तुतिकरण के बल पर आपने बेहद दिलचस्प बना दिया.
वाकई आप सम कौन......
आभार शर्मा जी।
हटाएंबैंककर्मी को जब चाय की तलब लगी तब प्रभु ने बैंक अधिकारी का निर्माण किया। उसी प्रभु की कृपा से चाचा सलामत होंगे, यही दुआ है ...
जवाब देंहटाएंऔर उन बैंक अधिकारियों में से कुछ इतने अवज्ञ निकले कि चाय पिलाने के अपने कर्तव्य से बचने के लिय बैंक और यहाँ तक कि देश से भी दूर निकल लिये। प्रभु से प्रार्थना है कि ऐसे पूर्व बैंक अधिकारियों को परदेश में अपने मातहतों को चाय पिलाते रहने की प्रेरणा और शक्ति दें :)
हटाएंकिस्मत लिखने वाले ने क्यों खाली रक्खे किसके हाथ
हटाएंमहल अटारी क्या समझेंगे, बंजारों के दिल की बात
chacha ko pata hai .......... ke, bhatija is-mat hain..........
जवाब देंहटाएंpranam.
संजय भाई,
जवाब देंहटाएंनमस्ते!
चच्चा च्च्च च्च्च चा! उम्मीद है चचा की कहानी कोई ऐसा नया सदमा न देदे जो हम जैसे कमज़ोर दिल वाले भतीजे बर्दाश्त न कर पायें! खुदा खैर करे!
एक अवधी का शेर शेयर करने का दिल कर रहा है आपके साथ मैं ने नहीं लिखा है अल्बत्ता :
"मोबाईल और दुलार से यू हादिसा भवा,
अब भाग गईं धन्नो तो परधान का करे।"
होई है वही जो राम रचि राखा, इत्मीनान रखें
हटाएंकुश भाई और प्रधान, सलाह दोनों को समान :)
एक कप चाय का बोझा ढोने वाला बैल चच्चा क्या 10 कप का बोझा ढो पाएगा?, छाती का दर्द हटेगा या बढेगा?, डॉक्टर आकर सन्नाटा तोडेगा? बूढा चाय वाला पथराई आखोँ से कप थामें खडा ही रहेगा? लडके क्या चाय का कर्ज़ चुकाएँगे? देखते है आगे क्या होता है..... :)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन यादें और अगली कड़ी का इंतजार
जवाब देंहटाएंहरि अनंत ते हरि कथा अनंता..
जवाब देंहटाएंकई बार ऑफिस में यादगार पल बीत जाते है वो अच्छी भली फिल्मों के सीन से बेहतर लगते हैं.
पुरानी बात है, बचपन की. पड़ोस में ओबरॉय अंकल रहते थे. और गाँव में बहल साहेब.
उन्होंने अपनी पंजाबी टोन में पूछा बहल का घर किधर है. कुछ तो मैं वैसे मस्तोरा, और कुछ उन्होंने अपने तरीके से पूछा, मेरा सिरिअसली जवाब था.
"अंकल, बैल का कोई घर थोड़े होता है, कहीं भी दिख जाएगा."
अब उनकी हद थी,कि मुझे कुछ ज्यादा सिरिअस लिया, बोले नहीं यार बैएल साब का घर पता कर, यहीं कहीं रहते हैं.
अब सब साब लगाया तो माथा ठनका... फिर शर्म से उनको ये भी बताया की मैं कौन सा बैएल समझ रहा था... :)
माफ़ करना कुछ ज्यादा ही बक गया.
येSSS अच्छी बात नईं है ...
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हटाएंमजेदार किस्सा बाबाजी।
और ये ’माफ़ करना’? लखनऊ गेड़ा मार के आये हो क्या महाराज? हम तो वही हैं जो बाबाजी के चौबारे पर चटाई बिछाकर मखौल किया करते थे। फ़िर आना पड़ेगा किसी दिन..
उपर के प्रश्नोत्तर से पता लग रहा है कि चच्चा जी ठीक हो गए थे....आप दुख सह सकते हैं..उसका माखौल उड़ा सकते हैं....परंतु दुख का संस्पेंस नहीं बनाते....उस सीधे ही बयान कर देते हैं...चाहे जितनी बड़ी बात हो..तो उस सरप्राइज का इंतजार रहेगा...क्यों?
जवाब देंहटाएंसही पकड़ा है :)
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