मंगलवार, फ़रवरी 11, 2014

बंद आँखों का सुकून

हमेशा की तरह मैं खिड़की वाली सीट पर बैठा था और पंकज मेरे साथ। वो अपने ऑफ़िस की बातें बता रहा था और मैं हमेशा की तरह उल्टी-सीधी सलाह दे रहा था। मेट्रो में और गाड़ी में सफ़र करते समय यदि बैठने की सीट मिल जाये तो उस्तादजी की बात अब मानने लगा हूँ, सीट मिलते ही आँखें बंद कर लेता हूँ। उस्तादजी ने सिखाया था कि   सारा झंझट ही खुली आँखों का है। आँखें खुली रखोगे तो किसी बुजुर्ग या महिला को सीट देनी पड़ेगी, इसलिये सीट मिलते ही आंखें मूंद लेनी चाहियें। पंकज जैसा साथी मिल गया तो और भी आसानी हो गई क्योंकि स्टेशन आने पर वो ही बता देता है कि स्टेशन आ गया है और अब आँख खोलने में कोई दिक्कत नहीं।

आवाजों से सुनाई पड़ा कि बीच के किसी स्टेशन से शायद फ़रीदाबाद से एक बूढ़ा-बुढ़िया और उनका लड़का हमारे साथ वाली सीट पर बैठे हैं। लड़का पिछले साल से दिल्ली में रह रहा है और किसी सेठ के यहाँ ड्राईविंग करता है, माँ-बाप पहली बार उससे मिलने आये थे और आज लौट रहे हैं। लड़का उन्हें ट्रेन में छोड़ने जा रहा था, उसकी पहचान का किशन नाम का कोई लड़का गाँव जा रहा था और नई दिल्ली स्टेशन से आगे गाँव तक वो इन्हें ले जायेगा। गाड़ी में चढ़ते ही बुढ़िया ने लड़के को समझाईश देनी शुरू की थीं, हर माँ के लिये उसके बच्चे हमेशा छोटे ही रहते हैं। गाड़ी अभी फ़रीदाबाद से चली ही थी कि लड़के के मोबाईल पर उसके मालिक का फ़ोन आ गया कि कहीं अर्जेंट जाना है, अभी के अभी वापिस लौटने का हुक्म हुआ। लड़के ने दो तीन घंटे की मोहलत भी मांगी कि अकेले बूढ़े माँ-बाप दिल्ली की भीड़ में दुखी हो जायेंगे और वो गाड़ी चलने तक नही रुकेगा बल्कि अपनी पहचान के लड़के तक माँ-बाप को पहुँचाकर फ़ौरन लौट आयेगा लेकिन इजाजत नहीं मिली। फ़ोन कट गया, आवाज से पता चल रहा था कि लड़का गुस्से में है। विवशता वाला गुस्सा भी अजीब सा होता है, जवान लड़के की आवाज रुँआसी सी लग रही थी और बूढ़ों की आवाज सांत्वन देती सी। लड़का बार-बार फ़ोन मिलाने लगता था कि ऐसी नौकरी गई भाड़ में, दो चार दिन में कहीं और नौकरी मिल जायेगी और बूढ़े माँ-बाप उसे अर्थ का शास्त्र समझा रहे थे और भरोसा दिला रहे थे कि उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी, वो किसी से पूछकर सही प्लेटफ़ार्म तक पहुँच जायेंगे। लड़के के पास तर्क थे उनको दिल्ली से अनजान मानने के और माँ-बाप के पास अनुभव वाले तर्क थे अपने लड़के को जिन्दगी से अनजान मानने के। समझा बुझाकर तुगलकाबाद आते तक लड़के को वापिस भेज दिया गया। गाड़ी चलने तक दोनों पक्ष एक दूसरे को निर्देश देते रहे कि ऐसे करना और वैसे मत करना।

पंकज और मेरी बातें इस बीच रुकी हुई थीं। पंकज ने उन लोगों से बातचीत करना शुरु कर दिया, हर तरह की बात  जिसमें लड़के की मजबूरी की बात भी थी और उसके सेठ की संभावित मजबूरी की बात भी, गाड़ी की बात भी और सवारी की बात भी। बहुत बोलता है यार ये पंकज, उस्तादजी इसे जानते होते तो कान बंद रखने की सलाह भी दे चुके होते।

हमेशा की तरह पंकज ने तान लगाई, ’जागो मोहन प्यारे’ और प्यारे मोहन जान गये कि ट्रेन नई दिल्ली पहुँच गई है। हमेशा हम इकट्ठे ही मेट्रो स्टेशन तक जाते हैं, आज मैंने पूछा, ’चलें मेट्रो?’ वो कहने लगा, "सर, आप चलो। मुझे कुछ काम है।" मुझे पहले ही पता चल चुका था कि आज इसे मेरे साथ नहीं जाना। "कोई बात नहीं भाई, आज मुझे भी जल्दी नहीं तो मैं तुम्हारे साथ ही चलूँगा। एक काम करते हैं कि पहले इन लोगों को इनके किशन तक पहुँचा देते हैं।" तब तक पंकज के साथ बातचीत करके सहज हो चुके बूढ़े-बुढ़िया के चेहरे पर राहत दिखी और पंकज के चेहरे पर वही मुस्कान, जिसपर उसके दोस्त फ़िदा होते हैं।  उतरते समय पंकज ने एक हाथ में बुढ़िया का हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ में उसका बैग, इधर उधर से पूछा और सही प्लेटफ़ार्म पर किशन तक सवारियों को पहुँचा दिया। 

चलने की सोच रहे थे कि बुढ़िया ने किशन से अपने लड़के को फ़ोन लगाने को कहा ताकि वो भी निश्चिंत हो जाये। किशन ने फ़ोन लगाया और बताया कि माँ-पिताजी उसे बहुत आराम से मिल गये हैं, हमारे बारे में भी इशारा किया।  फ़िर स्पीकर ऑन करके फ़ोन उसने बुढ़िया को पकड़ा दिया। हर माँ की तरह बुढ़िया ने अपने लड़के को खूब आशीर्वाद दिये और फ़िर पंकज के बारे में बताया कि कैसे उसके कारण उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। लड़के की आवाज सुनाई दी, "ए माई, बैग का सामान और पॉकेट अच्छे से जाँच लेअब। ई दिल्ली के मनई बहुत खराब बा।" 

अगले दिन लौटते समय ट्रेन में सीट पर बैठे तो मैंने पंकज को छेड़ा, "ओ दिल्ली के खराब मनई, दोबारा वैसी नेकी करेगा?" 

वो चेहरे पर वही मुस्कान लाकर बोला, "अपना अपना नजरिया है सरजी। आपको लड़के की बात याद रही और मुझे आते समय उस बुढ़िया के हाथ का वो स्पर्श, बिल्कुल मेरी अपनी माँ के हाथ के स्पर्श जैसा।" 

सौ सूरज भी इतना नहीं चमकते होंगे, जितनी एक अच्छे आदमी की मुस्कान। उस्तादजी सही कहते थे, ऐसे मौके पर आँखें बंद कर लेनी चाहियें। कसम से, बंद आँखों से बहुत सुकून मिलता है।

64 टिप्‍पणियां:

  1. सौ सूरज भी इतना नहीं चमकते होंगे, जितनी एक अच्छे आदमी की मुस्कान।
    ...बिल्कुल सच कहा है....

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  2. अपना अपना नजरिया है सरजी...


    और क्‍या कहें... :)

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  3. सबसे पहले तो पँकज की पीठ हमारी तरफ से ठोक दीजियेगा और कहियेगा ऐसा ही अच्छा बना रहे वो सारी उम्र ।

    दूसरी बड़ी ही अच्छी बात कही आपने 'सौ सूरज भी इतना नहीं चमकते होंगे, जितनी एक अच्छे आदमी की मुस्कान- इसलिए कभी-कभी मुस्कुराना भी चाहिए :)।

    'उस्तादजी सही कहते थे, ऐसे मौके पर आँखें बंद कर लेनी चाहियें। कसम से, बंद आँखों से बहुत सुकून मिलता है।'
    वैसे आप, आपके उस्ताद जी की बातों की हिमायत करते हुए, अपनी सीट को सुरक्षित रखने के लिए आँखें बंद करने की बात कर रहे हैं या कि सौ सूरज की चमक लिए हुए मुस्कुराते चेहरे को आँखों के रास्ते मन में उतार लेने के बाद सुकून पाने के लिए आँखें बंद करने की बात कर रहे हैं । हम थोड़े कन्फ्यूजिया गए हैं :)

    तीसरी बात, आपकी प्रस्तुति बहुत ही अच्छी लगी, बस दो शब्द मुझे खटक गए, दिल तो नहीं कर रहा कि हम कुछो भी कहें, काहे से कि 'तिल का ताड़' बन जाता है लेकिन फिर भी हम ठहरे थोड़े ढीठ किसिम के इंसान, इसलिए कह ही देते हैं, वो शब्द हैं 'बूढ़ा-बुढ़िया', अकाट्य सत्य होते हुए भी, आहत करते हैं, मुझे मेरे माँ-बाबा याद आ गए, जब वो दोनों (अकेले) कैनेडा आ रहे थे, कोई उनके बारे में लिखे और ……… :(
    (हो सकता है हम ऐंवे ही बात को तूल दे रहे हों, अगर मेरी बात बुरी लगी है तो करवद्ध क्षमा माँगते हैं, ये न सजा है न सज़ा )

    अब चौथी और फाईनल बात, आपके ब्लॉग की शक्ल सचमुच कुछ बदल गई है या मेरी आँखें कमज़ोर हो गईं हैं ?

    बाक़ी आप धन्यवाद के पात्र हैं हीं, एक बहुत ही अच्छी चीज़ पढ़ने को मिली ।

    सदैव आभारी !

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    1. वैसे तो पीठ ठोकते ही रहते हैं, फ़िर ठोक देंगे।

      दूसरी बात में हमारा प्वाईंट ये है कि ये बहुत टेढ़ा काम है, काहे से कि मुस्कुराने से फ़िर वो याद आ जाता है - ’तु इतना जो मुस्कुरा रहे हो...........’ :)

      वैरी सिंपुल, हम आंखें बंद करके पाने वाले सुकून की बात कर रहे हैं।

      तीसरी और सबसे अहम बात, आपकी बात सौ फ़ीसदी ठीक है। ’बूढ़ा-बुढ़िया’ शब्द खटकने वाले ही हैं लेकिन जिस अंचल में मैं इस समय हूँ वहाँ ये शब्द बहुत प्रचलित हैं। शुरू में मुझे भी सुनकर बहुत अटपटा लगता था जब कोई कहता था कि बूढ़िया के साईन करवा लो जी, बाहर गाड़ी में बैठी है। मैंने एक दो को टोका भी कि ऐसे क्यूँ कह रहे हो और सामने वाला हैरान हो जाता था कि इसमें क्या गलत है? कुछ समय में यह समझ आया कि ये संबोधन यहाँ हरियाणा में किसी अवज्ञा या अवमानना के तौर पर प्रयुक्त नहीं किये जाते। लिखते समय भी स्थानीय घटनाओं के साथ जोड़कर लिखते हुये ये शब्द ऐसे ही लिखे गये, स्वीकार किया मैंने। इसी बारे में एक स्वीकारोक्ति और भी है, हमारी तरफ़ एक कहावत है -
      परसु, परसा, परसराम
      माया तेरे तीन नाम।
      घटना के पात्र सूटेड-बूटेड होते तो मैं भी परसु को परसरामजी कह गया होता, इसी समाज का हिस्सा हूँ न।
      बुरा लगने की कोई बात ही नहीं, अच्छा लगता है कि इतने ध्यान से पढ़ा जाता हूँ। और भी अच्छा लगता है जब गलती पर टोका जाता हूँ, सारा अच्छा लगता है जब इस बहाने से अपनी बात को और स्पष्ट करने का अवसर मिल जाता है।

      चौथी (लेकिन नेवर फ़ाईनल) बात - 19-21 बदलाव तो है, बहुत बारीक देख लेती हैं आप:)

      धन्यवाद की पात्रता प्रदान करने हेतु त्वाडा विशेष आभार।

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    2. दूसरी बात में हमारा प्वाईंट ये है कि ये बहुत टेढ़ा काम है, काहे से कि मुस्कुराने से फ़िर वो याद आ जाता है - ’तु इतना जो मुस्कुरा रहे हो...........’ :)

      हो सकता है, कि आप भी हमारे मनमोहना की तरह ही पॉपुलर होंगे जिनकी एक मुस्कान के लिए लोग-बाग़ कैमेरा लिए लैस रहते हैं, कि कब ऊ मुस्काये और हम फ़लैश चलायें :)
      अगर ऐसा ही है कि ई गजलवा के डर से आप नहीं मुस्कियाते हैं तो मत मुस्कियाईयेगा। हम नहीं चाहते हैं कि ई ग़ज़ल अपना हॉंटिंग पना छोड़ दे :)

      बाकी जो बात आप कहे हैं कि 'घटना के पात्र सूटेड-बूटेड होते तो मैं भी परसु को परसरामजी कह गया होता' तात्पर्य यह कि क्योंकि वो सूटेड-बूटेड नहीं थे इसलिए शायद वो बुजुर्ग दंपत्ति, आदरसूचक शब्दों से सम्बोधित करने के योग्य नहीं लगे होंगे आपको :)
      अब सच कहें हम तो ई बात हमरे गले से तो नहीं ही उतरी, काहे से कि हम तो किसी को भी सिर्फ कपडे देख कर सम्मान नहीं देते, चाहे वो किसी भी परिधान या वेश-भूषा में हो, हमारे लिए बड़े-बुज़ुर्ग हर हाल में सम्मान योग्य हैं । बाकी हो सकता है हरियाणा-दिल्ली में ऐसा ही होता होगा, फिर सौ बात की एक बात तो है ही 'अपना अपना नजरिया है सरजी... ' :):)

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  4. बंद आँखों का अपना ही आनंद है भाई !! मंगलकामनाएं !!

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    1. मंगलकामनाओं के लिये बहुत धन्यवाद सतीश भाईजी।

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  5. "अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
    परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्॥"

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    1. आपकी टिप्पणी प्रसाद रूप में ग्रहण करता हूँ, आभार।

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  6. बहुत अच्‍छा काम किया, शुभकामनाएं।

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  7. ई दिल्ली के मनई बहुत खराब बा।"

    bachba ke baat dil pe na lel jai ho bhaiji............

    bakiya, pankaj bhai ko ek 'sallute' hamare taraf se nagad raha........

    pranam.

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    1. ये बातें बल्कि प्रेरित करती हैं नामराशि, कितना कुछ है करने को।

      सैल्यूट सही जगह पर फ़ारवर्ड हो जायेगा :)

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  8. गुस्‍से से पढ़ना शुरु किया और समाप्ति तक पुरसूकुन मिला।

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  9. भाई पंकज जी स्वनामधन्य हुए... कीचड़ में जाकर खिले हुए कमल की तरह मुस्कुराते हुए बाहर आए! और कीचड़ में से अस्पृश्य निकल भी जाए तो कलजुग में कुछ छींटे तो पड़ ही जाते हैं... बेचारा दूध का जला रहा होगा इसीलिये छाछ फूँककर पी रहा होगा! परोक्ष में भी था!! जो आँखें देख लेती हैं, वो मोबाइल कहाँ देख पाता है या फिर मातृत्व का स्पर्श अगर मोबाइल से महसूस किया जा सकता, तो मेरी स्थिति मैं रोया परदेस में वाली नहीं होती!!
    पंकज जी को मेरा सादर प्रणाम!

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    1. ऐसे मौकों पर साहिर की बात याद आती है सलिल भैया. ’दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में...’ मुझे लड़के की बात में बिल्कुल बुराई नहीं दिखी बल्कि अपने मां-बाप की परवाह अच्छी ही लगी। पंकज ऐसा ही है, तभी तो उसे छेड़ता रहता हूँ लेकिन छोड़ता नहीं हूँ:) लेकिन एक पैराडॉक्स और है जो रोज नई दिल्ली स्टेशन पर आने जाने के कारण दिखता है - बाहर निकलते ही सवारी का पहला वास्ता ऑटो वालों से पड़ता है और लूटने लुटने वाले सब एक ही दिखते हैं, उस समय प्रांतीयता बहुत पीछे रह जाती है। नाम आता है शहर का - दिल्ली बहुत खराब है या दिल्लीवाले बहुत खराब है। बहुत संभावना ये है कि जो आज लुट रहा है, कल मौका लगने पर यही व्यवहार वो दूसरों के साथ करेगा। शोषित ही मौका लगने पर शोषक बन जाता है, विषय विस्तार मांगता है, अलग से भी लिखूँगा।
      सादर प्रणाम नहीं बल्कि पंकज तो बड़ों के आशीर्वाद के योग्य है।

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    2. संजय बाउजी! टिप्पणी के जवाब में अमूमन मैं टिप्पणी तभी देता हूँ जब कोई बखेड़ा खड़ा होता है.. लेकिन आज आपकी बात ने एक दुखती रग पर नश्तर रख दिया..
      "लेकिन एक पैराडॉक्स और है जो रोज नई दिल्ली स्टेशन पर आने जाने के कारण दिखता है - बाहर निकलते ही सवारी का पहला वास्ता ऑटो वालों से पड़ता है और लूटने लुटने वाले सब एक ही दिखते हैं, उस समय प्रांतीयता बहुत पीछे रह जाती है। नाम आता है शहर का - दिल्ली बहुत खराब है या दिल्लीवाले बहुत खराब है।"
      किसी शख्स का चप्पल चोरी हो गया था, गया स्टेशन पर और उसने भरी महफ़िल में (शादी की) चप्पल की कीमत से भी ज़्यादा बार चिल्ला-चिल्ला कर ये कह दिया कि सारे बिहारी चोर होते हैं. जबकि मैं यह कह्ने की कोशिश करता रहा कि यह बिहार या दिल्ली की बात नहीं है यह रेलवे स्टेशन का कल्चर है.. और रेलवे स्टेशन शहर नहीं होता है.
      मगर जनाब पे तो बिहारियों को चोर बताने का नशा सवार हो चुका था.. जवाब में जब उनके अंचल विशेष के दस जगतप्रसिद्ध लुटेरों/हत्यारों के नाम मैंने गिना दिए (उनके एक चप्पल चोर बिहारी के मुक़ाबले) तो अगले दिन मेरा ट्रांसफर हो गया!
      उन बूढे बुढी के बच्चे की बात का बुरा नहीं लगा मुझे.. और पंकज को भी नहीं लगा होगा... क्योंकि बोलने वाला एक बेटा था जो माँ-बाप की चिंता कर रहा था और जिसके बारे में बोला जा रहा था वो पंकज के अलावा कोई भी हो सकता था!!
      बेवज़ह बहुत ज़्यादा लिख गया!!

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    3. सुनने की आदत डाल लेते भाई तो न आपके ट्रांसफ़र होते न मेरे :)

      बेवज़ह लगता हो तो डिलीट ऑप्शन है न, अब तो EVM में भी आ गया है NOTA :)

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    4. सत्य वचन (बहुवचन)

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    5. एकम सत(वचन),
      विप्रा: बहु(चचनम) वदन्ति !!

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  10. मुझे हमेशा से भरोसा रहा है कि पकंज जी जैसे इंसान एक नहीं कई हैं ....एक अभी याद आ गई .....बताऊँगी बात होने पर .....

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    1. पंकज जैसे लोग अभी विलुप्त नहीं हुये और न होंगे। लिख डालिये आप भी एक पोस्ट, विषय सुझा ही दिया है:)

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  11. बंद आँखों से मन भी नहीं भटकता है, नहीं तो कहाँ से इतनी बातें याद रहती आपको।

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    1. मन तो बहुत भटकता है प्रवीण जी, तभी तो याद रह जाती हैं :)

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  12. वाकई अपना अपना नज़रिया है...:)

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  13. पंकज जी की तरह ही सबको सोचना चाहिए। नेकी कर और कुएं में डाल

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  14. मान देने के लिये आभार, हर्षवर्धन जी।

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  15. कोई अच्‍छा काम करने पर मन में जो प्रफुल्‍लता उठती है, उसे शब्‍दों में बयान करना मुश्किल है।

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  16. भाईजी क्या कहें...तारीफ के शब्द कम पड़ जाते हैं...पकंज को शाबासी...रह गए आप....अगर पकंज न होता और आपके कान में ये बातें पड़ती तो शायद आप भी पूरी कोशिस करते कि इन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ दें...अगर बुजुर्गों का गंतव्य आपके गंतव्य के पास होता तो फिर आप जरुर छोड़ते...अगर नहीं छोड़ पाते तो आसमान के चांद की तरह ये एक और बात हो जाती जो आपको हांटेंड करती....तंग करती....हां नहीं तो...वैसे भी आंखे बंद कर लेने से कान तो बंद नहीं होते...और आपके कान तो सोते हुए भी आसपास के शब्द खड़कें तो पकड़ने लगते हैं...क्यों कुछ गलत कहा क्या?

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    1. हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर अब भी याद आता है,
      वो हर इक बात पर कहना कि ये होता तो क्या होता ।

      सही फ़ँसाते हो गुरू !!

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  17. बाकी रह गई बूढ़ा-बूढ़ी ..ये शब्द अक्सर हरियाणा में बोला जाता है इसलिए अपन को अजीब नहीं लगता...अजीब तब लगता है जब हरियाणा की आम बोलचाल की भाषा की आड़ में बाकी दूसरे राज्य वाले बूढ़ा-बूढ़ी शब्द का इस्तेमाल करने लगते हैं...और इसी बहाने अपने से बड़े लोगो की तौहिन करने लगते हैं।

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    1. तौहीन कोई नहीं करता, यही बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि हर कोई पहले अपनी लोकल भाषा में सोचता है। वैसा ही बोल या लिख देने में अपने माईंडसेट के कारण उसे ये बहुत साधारण बात लगती है और दूसरे को तौहीन लग सकती है। हरियाणा वालों को यूपी बिहार वालों का खुद को ’हम’ कहना अजीब लग सकता है, उस समय वो ये नहीं सोचते कि ये बंदे सामने वाले को भी तो ’आप’ कहकर बुलाते हैं।

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    2. हम भी भुक्त-भोगी हैं इस 'विनम्रता' के.…
      मेरे बाबा को अच्छा ख़ासा समय लग गया था इस 'विनम्रता' को झेलने में...
      जब-जब वो ये विनम्र वाणी सुनते थे उनका चेहरा कानों तक लाल हो जाता था, 'ओ जी अंकल जी, आप कहाँ रहते हो जी, ये ले लो जी, यहाँ बैठो जी, वहाँ चलो जी, आप बोलो जी :):)

      आदर के साथ लात मारना शायद इसे ही कहते हैं :)

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    3. हो सकता है, यह आदर के साथ लात मारना ही कहलाता हो।
      कुछ बातों का कोई ईलाज नहीं हो सकदा जी :)

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    4. चलिए आपने माना तो सही कि मर्ज़ है और वो लाईलाज़ है :)

      एक और बड़ी लाईलाज़ बिमारी है वहाँ, हर वाक्य में कोमा, सेमीकोलन की तरह 'बहन' की ईज्जत अफ़ज़ाई करना :):)

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    5. कोई बात तो मान ही लेनी चाहिये न, इसलिये माना :)

      @एक और बड़ी लाईलाज़ बिमारी है वहाँ - one can't help it.

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  18. यह संस्मरण (या आपबीती या लघुकथा जो भी हो) दिल को छू लेती है. एक छोटी और अत्यंत साधारण सी घटना को आपने अपने शब्दों से इतना प्रभावशाली बना दिया. आपकी लेखनी को प्रणाम. :)

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    1. सोमेश, अपने पास कोई विशिष्ट ज्ञान होता तो वो शेयर करते। साधारण व्यक्ति हैं तो छोटी और रोजमर्रा की एकाध घटना दिख जाती है सो उसे ही यहाँ बाँट लेते हैं। माल मालिकों का और मशहूरी कंपनी की :)
      लेखनी को प्रणाम के उत्तर में ब्लॉगर का आशीर्वाद पहुंचे।

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  19. अच्छाई आप और पकंज भाई जैसे लोगों के बूते जिन्दा रहती है, अन्यथा किंचित अहं के कारण दम तोड देती है।

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    1. अच्छाई हमारे ही बूते जिन्दा!! अबके मुंबई आया तो अच्छी सी मिठाई का डिब्बा लेकर आता हूँ बड़े भाई :)

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  20. ई भी शोध का विषय कि दिल्ली में खराब मनई रहते हैं या दिल्ली आके मनई खराब हो जाते हैं। सचमुच अगर साल में एकाध अइसे खराब मनई बनने का मौका मिल जाए तो दिल्लियो खराब न रही जाए।

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    1. रात हम तो पिये ही थे लेकिन आपकी आँख भी शराबी थी,
      फ़िर हमारे खराब होने में, आप ही कहिये क्या खराबी थी।


      भैये, दिल्ली में तो पानी तक ऊपी-हरियाणे से आता है। खराब या खरी, दिल्ली का कौनो कसूर नहीं।

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    2. और ऊपी-हरियाणा में गंगोत्री-यमुनोत्री से :)
      सारा क़सूर ही इस हिमालय का है जी :)

      एक फिलम देखी थी जिसमें हीरोइनी कहती है 'मांगे के कपड़ों में मैं हमेशा ही अच्छी लगती हूँ' :)

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    3. मेरी राय में तो सबका सम्मिलित दोष है।

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  21. 'अपना अपना नजरिया ' - सचमुच इंसान का दृष्टिकोण ही उसकी सही पहचान है ,सँजो कर रखने योग्य अनुभव !

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    1. यह किस्से सामने आते रहने चाहिए। टूटते विश्वासों को मजबूत कंधों की ज़रूरत हमेशा रहती है।

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  22. अमूमन मैं पोस्ट पढ़कर अपना कमेंट करता हूँ फिर कहीं दूसरों के विचार पढ़ता हूँ लेकिन आपके ब्लॉग में कमेंट इतने अच्छे आते हैं कि पोस्ट पढ़कर कमेंट पढ़ने लगता हूँ और खुद क्या लिखने की सोचा था वही भूल जाता हूँ।

    संस्मरण की शैली हमेशा की तरह रोचक ही नहीं लाज़वाब है। ऐसी घटनाएँ मेरे साथ कई बार हो चुकी हैं लेकिन जिस अंदाज से आपने लिखा है वह बेहतरीन है। खासकर अंतिम पंक्तियों का पंच तो पाठक को धऱाशायी कर देता है... ऐसे मौके पर आँखें बंद कर लेनी चाहियें। कसम से, बंद आँखों से बहुत सुकून मिलता है। यही पंक्ति पढ़कर पहले पाठक झटके से आगे बढ़ता है और भी यही पंक्ति पढ़कर दिल धक से हो जाता है ! इस शब्द चमत्कार के लिए आपको नमन और बहुत बधाई।

    बुढ़वा-बुढ़िया यह हमारे यहाँ भी आपस में उनके बारे में बात करते समय प्रचलित शब्द हैं। प्रयोग करने वाला किस भाव से प्रयोग करता है आदर-अनादर उस भाव पर निर्भर करता है। हाँ, उन्हे पुकारते समय कोई बुढ़वा, बुढ़िया नहीं कहता ...का दादा!..का दादी! कहकर ही संबोधित करता है। मुझे आपका प्रयोग बिलकुल नहीं खला। जहाँ बुढ़िया का प्रयोग माँ के साथ किया जा रहा हो वहाँ तो कत्तई नहीं।..बाकी अपना-अपना नज़रिया है।

    विलंब से पढ़ा, अच्छा पढ़ा..आभार।

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