बचपन का समय और गर्मियों की छुट्टियों के दिन रात, यानि सोने पर सुहागा। सारा दिन कोई काम नहीं होता था लेकिन इतनी व्यस्तता कि पूछिये मत। न खाने का कोई तय समय था और न सोने का, नियत समय तो खेलने का भी नहीं था लेकिन वो मैनेज कर ही लेते थे और मन फ़िर भी नहीं भरता था। ऐसे ही एक दिन सुबह-सुबह पार्क में थे और एक दोस्त ने घास से कोई बड़ा सा कीड़ा अपनी मुट्ठी में लिया और बड़े प्यार से आकर ’जीते’ की जेब में डाल दिया। पिछली रात देर तक किये धमाल के चलते ’जीता’ अभी पूरी तरह से चैतन्य नहीं था लेकिन चूँकि ये पाकेटभराई की ही इस तरह से गई थी कि उसे पता चल जाये तो अनमने से होकर जब उसने जेब में हाथ डालकर उस कीड़े को बाहर निकाला तो उसकी नींद कोसों दूर भाग गई। जोर से उछलते हुये उस दोस्त को और कीड़े को एक तगड़ी सी गाली दी। कीड़े ने तो कोई प्रतिक्रिया दी नहीं, चुपके से खिसक लिया लेकिन दोस्तों ने बात को नहीं छोड़ा। दो ग्रुप बन गये, एक का कहना था कि छोटा सा मजाक ही था और गाली देकर ’जीते’ ने गलत किया है। दूसरे ग्रुप ने उस कीड़े को उस समय की हमारी कल्पनाओं की उड़ान में सबसे खतरनाक कीड़ा सिद्ध करके ’जीते’ को विक्टिम और उसकी गाली को विरोध प्रकट करती एक सामान्य प्रतिक्रिया सिद्ध कर दिया। बहरहाल नूरा कुश्ती में टाईम बढ़िया पास हो गया और लुच्चा-पार्टी लौटकर घर को आ गई। इस सब घटनाक्रम में उस कीड़े का नामकरण हुआ, ’भुड़’..
आने वाले कुछ दिनों में कभी न कभी उस ’भुड़’ की बात छिड़ ही जाती थी। हमारा ’जीता’ ज्यादा चलता-पुर्जा लड़का नहीं था तो जब भी उस ’भुड़’ के खतरे बताये जाते थे, वो थोड़ा गंभीर होकर सुनने लगता था। बात काफ़ी पुरानी है, घरों में एसी तो क्या कूलर भी नहीं होते थे। इन्वर्टर का सवाल ही नहीं तो सरकारी वाली बिजली आये या जाये, परवाह नहीं। ले देकर पूरी गली में सिर्फ़ एक कार थी, वो भी बेचारी कितनी जगह घेरती? मतलब मौका भी होता था और दस्तूर भी, खासकर छुट्टियों में बच्चा-पार्टी देर रात तक गली में कभी कबड़ी, खो-खो, घोड़ी(छोटी घोड़ी और वड्डी घोड़ी, लगभग एक ही खेल के दो अलग अलग फ़ार्मेट) खेला करते, खूब हो-हल्ला मचता, झगड़े होते, चोटें भी लगतीं लेकिन ’शो मस्ट गो-ऒन’ होता रहता। थक हारकर घरों के बाहर बिछाई चारपाईयों पर गिरते और सो जाते थे क्योंकि अगली सुबह फ़िर जल्दी से उठकर किसी खेल के मैदान या पार्क में जाना होता था।
ऐसी ही एक रात थी, ’जीता’ सो गया था लेकिन शेष दोस्त सब जाग रहे थे। उसी भुड़ वाले दोस्त को जैसे कुछ याद आ गया हो, जाकर उसने सोते हुये जीते को झिंझोड़ कर उठाया और उसके कान में बोला, "जीते, तेरी बनियान में भुड़" हड़बड़ाया हुआ जीता कूदकर खाट से उठा और बनियान उतारकर बाजू उठाकर कभी इधर और कभी उधर उस ’भुड़’ को ढूँढ़्ता रहा जो कहीं थी ही नहीं। हममें से दो-चार वालंटियर भी मौका देखकर हाथ साफ़ कर गये और चली गई, चली गई का नारा भी लग गया। फ़िर से दो ग्रुप बन गये, एक ग्रुप कह्ता था कि बेचारे ’जीते’ की नींद खराब कर दी जबकि कोई ’भुड़’ थी ही नहीं और दूसरा ग्रुप बताता कि ’भुड़’ बिल्कुल थी, वो तो समय पर लिये गये एक्शन के चलते भगा दी गई, इसलिये थोड़ी सी नींद खराबी कोई महंगा सौदा नहीं है। जो ग्रुप कह रहा होता कि ’जीते’ बेचारे को क्यों परेशान करते हो, वो बुरा बना और जो ग्रुप मजे ले रहा था, ’जीते’ की सहानुभूति और निष्ठा उसी ग्रुप के साथ ज्यादा रही। हम तब बच्चे थे, उसकी हालत देखकर हम हँस-हँसकर दोहरे होते जाते थे। फ़िर गाली-पुराण शुरू हुआ, हम सब उसका श्रवण करते रहे और इस तरह अपनी छुट्टियों का सदुपयोग करते रहे। मजे की बात ये थी कि हर चार-पांच दिन के बाद ये सब दोहराया जाता, ’भुड़’ ने एकाध बार तो अपनी जगह भी बद्ली और ’जीते’ के पाजामें में घुसपैठ कर गई। मुझे तो लगता है कि उस दिन हमारे सीधे-सरल मित्र के पाजामे का नाड़ा खुलने में हुई देर के चलते ही दुनिया में पाजामे में इलास्टिक लगाने का चलन शुरू हुआ होगा।
अब हम हो गये हैं बड़े, बाबे दी फ़ुल्ल किरपा है हमारे ऊपर इसलिये वो सब लुच्ची हरकतें नहीं करते। हमारे बच्चे अब गली में नहीं खेलते। खेलने की जगह भी नहीं और खेलने वाले भी नहीं और अगर हों भी तो हम नहीं खेलने देंगे। मैं तो डर ले मारे उन्हें ये किस्से भी नहीं सुनाता कि कहीं मुझे एकदम से टुच्चा या लुच्चा न समझ बैठें। ’भुड़’ नाम ही कितना अजीब सा लगता है, अल्पज्ञानी तो इसे गाली ही समझ सकते हैं इसलिए न तो इसका नाम आज तक बच्चों के सामने बोला है और न ही आगे कभी बोलना है। मान लेने को दिल करता है कि जमाना बदल गया है, तरीके बदल गये हैं, तकनीकें बदल गई हैं।
अब कहीं कोई शरारती बच्चा किसी सीधे-सादे दोस्त को सोते से यह कहकर नहीं जगाता होगा कि तेरी बनियान में ’भुड़’। लेकिन अपने इस कुटिल दिल का कुछ नहीं कर सकता जो देखता है और भाँप लेता है कि अगला कदम क्या होगा जब बच्चे नहीं बल्कि बड़े नामी नेता/ठेकेदार किसी एक ’जीते’ को नहीं बल्कि जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को झिंझोड़कर किसी एक पार्टी या नेता का नाम लेकर डरा रहे होते हैं कि वो आ गया तो ऐसा हो जायेगा और वैसा हो जायेगा। वोट बैंक का वो हिस्सा जैसे नींद से जागकर अपेक्षित क्रियायें करता है और फ़िर दो गुट बन जाते हैं, एक कह रहा होता है कि बेकार में बेचारे को क्यों डराते हो और दूसरा गुट कह रहा होता है कि हमने समय पर चौकन्ना कर दिया, इसलिये बच गया नहीं तो...। ये देखकर मुझे अपने बचपन का ये किस्सा याद आ जाता है, ’जीते’ को हम चिल्लाकर उठा रहे हैं, "जीते, तेरी कमीज में भुड़"
सच है कि अब के बच्चे ’भुड़’ वाली शरारतें नहीं करते, ये टुच्ची हरकतें हम जैसे लोग ही कर सकते हैं।
जब तक लोग कौवा कान ले गया सुनते ही सब काम छोडकर कौवे के पीछे दौड़ने की आदत बनाए रखेंगे भुड़भुड़ाने वाले अपना काम बनाते रहेंगे।
जवाब देंहटाएंबच्चे ऐसी हरकतें करें तो उनका बचपना समझ आता है लेकिन बड़े ऐसी हरकतें करें तो उनकी मक्कारी समझनी चाहिये। बिना सोचे समझे दौड़ पड़ने वाले भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने दौड़ाने वाले। ठीक कह रहा हूँ न सरजी?
हटाएंबिलकुल ठीक कह रहे हैं। सुना है बनारस का चुनाव सम्पन्न होने के बाद वहाँ की जनता द्वारा रिजैक्ट किए गए लोग जेलरोद की आवाजाही पूरी तरह बंद किए हुए हैं।
हटाएंआजकल ब्लाग पर मेरी आवाजाही कम हो पा रही है, काफी समय बाद कोई पोस्ट पढ़ा, आपकी पुरानी कई पोस्ट याद आ गई, यह और इसके तेवर तो जानदार हैं ही.
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हटाएंजी, हम सब आजकल ब्लॉग पर कम आते जाते हैं। आपको पुरानी पोस्ट याद रहीं/आईं तो इस वाली का स्तर अच्छा ही मानना पड़ेगा!! आपका आना हमेशा उत्साहवर्धक रहता है, विशेष आभार।
बहुत बार ये बात कहता आ रहा था पर हकीकत ये है कि जिते को भी उनकी ही बात समझ में आती है जो उसकी बनियान में भुड कहते हैं इसीलिये जिते को सब डरा रहे हैं
जवाब देंहटाएंमनु भाई, डराने वाले समझते हैं कि वो मजे ले रहे हैं जबकि सामने वाला डरता दिखकर अपना स्वार्थ साधता है।
हटाएंवाह आप बीते समय बख़ूबी लौटा ले जाते हैं. हमारे यहां इसका उच्चरण 'भूंड' करते हैं. पंजाबी/डोगरी में 'भ' का उच्चारण हिंदी के उच्चारण से भिन्न होता है :)
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हटाएंभूँड’ पर ये भी ध्यान आया कि ’भोला’ जो कि खुद डोगरा था, हमारे एक दुबले पतले से सहकर्मी को ’भूंड भ्रा’ कहकर बुलाता था। ’भ’ और ’घ’ दोनों के उच्चारण प्रचलित उच्चारण से अलग होते हैं।
इसके अलावा बैंक लोन के समय गारंटर को लेकर एक किस्सा प्रचलित है ’भूंड भाई’ वाला, वो कभी होली के मौके पर :)
गुजारा जमाना याद आया ...! तरह तरह के लोक खेलों की समृद्ध दुनिया थी वह! घर के खेल, गली मुहल्ले के, मैदान के खेल। किसी कारोबारी को आयडिया आए, तो आज ही पेटेंट करा ले!
जवाब देंहटाएंअब आपका भुड, आज का भुड- यानि ई. सी. का भुड आपकी बंड़ी में । आप एक खास पार्टी के ब्लोगस की कमेन्ट-बॉक्स भराई कर रहे हैं, इसलिए ई. सी. से आपकी शिकायत कर दी है!
संजय मो सम का ट्रेड मार्का लेख....!
’हमीं से मोहब्बत, हमीं की शिकायत’
हटाएंकबूल है प्रोफ़ेसर साहब, किसी से हमारा जिक्र तो किया आपने :)
" ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी ।
जवाब देंहटाएंमगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो क़ागज़ की क़श्ती वो बारिश का पानी॥"
इसे जगजीत सिंह ने गाया है । पता नहीं क़लाम किसका है ?
हटाएंजनाब ’सुदर्शन फ़ाकिर’ साहब का कलाम है - www.kavitakosh.org/kk/ये_दौलत_भी_ले_लो_/_सुदर्शन_फ़ाकिर#.U3iHdtIW2a8
बहुत सी बचपन की पेंचदार गलियों से होती हुई बात 2014 तक पहुँची... अब तो बस भुड़ है कि नहीं या कहाँ छिपा है वह तो हफ्ते भर की ही बात है!!
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हटाएंआ गया सलिल भाई, भड़भड़ा गया बड़ों-बड़ों को :)
वाह भुड कथा बडी रोचक थी। बचपन और शरारत ना करे हो ही नही सकता।
जवाब देंहटाएंशकुन्तला जी शायद गुलज़ार जी का है कलाम।
हटाएंआदरणीया, सुदर्शन फ़ाकिर साहब की कलम का कमाल है, लिंक www.kavitakosh.org/kk/ये_दौलत_भी_ले_लो_/_सुदर्शन_फ़ाकिर#.U3iHdtIW2a8
आज के बच्चे शरारतें नहीं करते . हमने , टीवी , इन्टरनेट, प्रतियोगी माहौल ने उनकी मासूम शरारतें छीन ली हैं , मगर बड़े करते हैं ये बदस्तूर कुटिलता के साथ !!
जवाब देंहटाएंसरलता को संरक्षण की जरूरत होती है, कुटिलता तो खुद ही पनप जाती है।
हटाएंसमय सचमुच बदल गया है । मुस्कराकर घात भी करलो तो वह सभ्यता है और गधा शब्द को गाली मान कर एक बडा मुद्दा बनाना जीतने का गुर है ।
जवाब देंहटाएंसमय हमेशा से परिवर्तनशील है और उसके साथ ही तौर-तरीके भी बदलते रहते हैं, हम चाहें या न चाहें। अच्छे के लिये प्रयास हमेशा करते रहना चाहिये, वही अपने हाथ में है।
हटाएंभुड कथा बचपन के दिन याद दिलाते हैं। तब और अब के वे खेल वह मस्ती -शरारत भरे दिन अब कहीं नहीँ दिखती!!
जवाब देंहटाएं....बहुत बढ़िया
हटाएंधन्यवाद कविता जी, बचपन वाकई खो गया है।
भाई आजकल बच्चों को भविष्य के प्रति अति संजीदा कर दिया गया है...गर्मियों की रात पुरे मोहल्ले का छतों पर सोना...और भूतों के किस्से...अतीत बन के रह गये हैं...हम खुशनसीब थे जो इनका लुफ्त उठा सके...बकौल गुलज़ार भाई...
जवाब देंहटाएंया गर्मियों की रात जो पुरवाइयां चलें
ठंडी सफ़ेद चादरों पर जागें देर तक
तारों को देखते रहे छत पर पड़े हुए...
मैं खुद इस बात पर अफ़सोस करता हूँ कि हमारे बच्चे ये सब नहीं देख महसूस कर पाये लेकिन सबको सब कुछ नहीं ही मिलता, जो इनके पास है वो शायद हमारे पास नहीं था। चलता है, चलता रहेगा।
हटाएंआपका धन्यवाद, आभार।
जवाब देंहटाएं@अब हम हो गये हैं बड़े,
जवाब देंहटाएंस्पेलिंग मिश्टेक हो गया आपसे साइद आईसा बुझाता है, आप लिखना चाहते होंगे
बड़े=बूढ़े :)
@बाबे दी फ़ुल्ल किरपा है हमारे ऊपर
लो कल्लो बात अब एक बाबा दूसरे बाबा पर फुल्ल किरपा नहीं करेंगे तो और का करेंगे :)
@इसलिये वो सब लुच्ची हरकतें नहीं करते।
ऐसे ही मौक़ों पर तो चचा जान याद आते है, वो फरमाते हैं …'दिल को……:)
करने को तो अब भी काम वही हो रहा, बस प्रोफाईल ज़रा हाई है और ब्रैंड नेम बदल गया है, इन्ही का तो नया नामकरण है, फेसबुक स्टेट्स, टिपण्णी, आपत्ति, असहमति, विचार-विमर्श या फिर कुल मिलकर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, जिसका फुल्ल उपयोग हम यहां कर रही हूँ :)
बहरहाल पोस्ट पढ़ कर एकबारगी मन गा उठा, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे पल छिन।
बाकी आपको दिल से बधाई, लड्डू खाने के दिन आ गए :)
@स्पेलिंग मिश्टेक - हमसे कोई स्पेलिंग मिश्टेक मिशेज़टेक नहीं हुआ। हम बच्चे से बड़े हो गये हैं लेकिन बूढ़े नहीं हुए। अभी तो हम दिग्विजय सिंह जी से पूरे तेईस साल यंगर हैं, आप अपनी फ़िक्र कीजिये ;)
हटाएं@फ़ुल्ल किरपा - खुद को याद दिलाने के लिये फ़ुल्ल किरपा वाला रेकार्ड यदा-कदा बजाना जरूरी है।
@लुच्ची हरकतें - ये तो हमीं लिख दिए हैं कि ’जमाना बदल गया है, तरीके बदल गये हैं, तकनीकें बदल गई हैं’ और हम स्वघोषित वाले पहले दिन से ही हैं!
आपकी आवाज में गाना सुने बहुत दिन हो गये, एक फ़रमाईश तो मेरी भी उधार है। चुका भी डालिये अब मेरा कर्जा.
अरे वाह!! बताईये फ़िर, कब खिला रही हैं लड्डू? :)
बुड्ढे तो आप हो ही गए हैं, माने या न माने। हाल ही में एक स्टेटस पढ़ा था कि आप असुर, सॉरी सॉरी ससुर बन गए हैं :)
हटाएंगाना तो हम गा ही देंगे बस थोड़ा सा नखरा और दिखा लेने दीजिये :)
और ये क्या बात हुई, बधाई भी हमहीं देवें और लड्डू भी हमहीं खिलावें ??
वाह
जवाब देंहटाएंवाह वाह
हटाएंवाह वाह वाह :)
हटाएंजय हो,जय हो,जय हो
हटाएंजय जय जय जय हो :)
बहुत बढ़िया...बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)