सोमवार, नवंबर 14, 2016

नाम खुमारी

आज फिर से फ़िल्म 'नमक हराम' की बात से शुरू करते हैं । 'नमकहराम' फिल्म में विक्की सेठ(अमिताभ) के सोनू(राजेश) से यह पूछने पर कि ये लोग कई साल से मेरे नौकर हैं और तुम्हें यहाँ आए अभी कुछ दिन हुए हैं लेकिन ये तुम्हें मुझसे ज्यादा क्यों चाहते हैं, सोनू पलटकर विक्की से उसके माली/ड्राईवर का नाम पूछता है जो विक्की नहीं बता पाता। सोनू कहता है कि आज इन लोगों को उनके नाम से पुकारना और देखना वो कैसे तुम्हारे लिए जान देने को तैयार हो जाएंगे। वो तो खैर फ़िल्म थी, कुछ ज्यादा ही हो गया लेकिन बात में दम है। व्यवहार में मैंने भी यह देखा है, यह बात प्रभावी है। खासतौर पर तब, जब सामने वाला आपको अपने से कहीं बहुत ऊंचा मानता हो।
एक कहावत भी है कि सबसे कर्णप्रिय आवाज 'अपना नाम' है।
कहने को शेक्सपियर ने भी कहा बताते हैं कि नाम में कुछ नहीं रखा है लेकिन उसके सामने कोई यही बात किसी और के नाम से क्वोट कर देता तो पक्की बात है शेकूआ उससे गुत्थमगुत्था हो जाता
अक्सर फेसबुक पर भी देखा है कि कोई कहानी या कविता किसी अखबार या कवि सम्मेलन में छपती या पढी जाती है तो बाद में रौलारप्पा हो जाता है। खैर, यह भी सम्वाद का एक तरीका ही है। प्रसिद्धि के लिए तो लोग कपड़े तक उतार लेते हैं और कई अपने कपड़े फाड़कर भी नाम जरूर कमाना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर भी बहुत उदाहरण मिल जाते हैं, लोग बहुत कुछ सिद्ध कर लेते हैं।
मैं अक्सर बहक जाता हूँ। सोचता कुछ हूँ, लिखना कुछ और चाहता हूँ और लिख कुछ और जाता हूँ।
सिखों के प्रथम गुरु श्री नानक देव जी की आज जयन्ती है। उन्हें प्रणाम करने लगा तो उनका कहा 'नाम खुमारी नानका, चढी रहे दिन रात' याद आ गया मन में सवाल ये आयाकि गुरु नानक देव जी ने जब यह उचारा तो वो किस नाम की खुमारी की बात कर रहे थे?
गुरु नानक देवजी द्वारा की गई यात्रायें 'चार उदासियों'  के नाम से जानी जाती हैं। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान वो सिद्धों के इलाके(आज तारीख में तराई का इलाका) में पहुँचे। अपने वर्चस्व वाले इलाके में एक नये साधु का आना सुनकर उन्होंने एक बर्तन भेजा, जो लबालब दूध से भरा हुआ था।  लाने वाले ने वो बर्तन पेश किया और चुपचाप खड़ा हो गया, गुरू साहब ने उस बर्तन में गुलाब के फ़ूल की पंखुडियाँ डाल दीं जो दूध के ऊपर तैरने लगीं। इन यात्राओं में बाला और मरदाना उनके सहायक के रूप में शामिल थे। ये माजरा उन्हें समझ नहीं आया तो फ़िर गुरू नानक देव जी ने उन्हें समझाया कि सिद्धों ने उस दूध भरे बर्तन के माध्यम से यह संदेश भेजा था कि यहाँ पहले से ही साधुओं की बहुतायत है, और गुंजाईश नहीं है। गुरूजी ने गुलाब की पंखुडि़यों के माध्यम से यह संदेश दिया कि  इन पंखडि़यों की तरह दूध को बिना गिराये अपनी खुशबू उसमें शामिल हो जायेगी, अत: निश्चिंत रहा जाये। उसके बाद दोनों पक्षों में प्रश्नोत्तर भी हुये। 
 सिद्धों ने एक प्रश्न किया था कि आप ध्यान के लिये किन वस्तुओं का प्रयोग करते हैं? 
उत्तर देते हुये गुरू नानक देव जी ने कहा था, "नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात"  कि प्रभु नाम सिमरन की ये खुमारी दूसरे नशों की तरह नहीं कि घड़ी दो घड़ी के बाद उतर जाये। ये तो वो नशा है जो एक बार चढ़ जाये तो दिन रात का साथी बन जाता है।
अपना या अपनों का ही नहीं, सबका सुख यानी 'सरबत दा भला' माँगता ये गीत सुनिए - 


शुक्रवार, अक्तूबर 21, 2016

हैलो हैलो...

"हैलो"
"हाँ जी, कूण बोल रहे हो?"
"अबे बावले, मैं हूँ ....। बोल के बात थी?"
"नमस्ते ... साब, मैं नूं कहूँ था जी अक आज मैं आऊँ के न आऊँ। मैंने सोची फोन पे.."
"लै भाई, मैं किस तरयां बता दूं कि तू आ या न आ?"
"जी मेरा मतबल था कि बेरा तो होना चाहिए न? म्हारे अफसर हो आप।"
"भाई, तू देख ये तो।"
"न जी, वो बात न है। देखणा तो मन्ने ही है पर फोन करना तो मेरा बने ही था न कि आज आऊं के न आऊं?"
"अरे बावले, फेर वाई बात। मैं कह दूं कि आ जा और तैने न आना हो तो? और मैं कहूँ कि न आ और तैने आना हो, फेर? तूए देख ये।"
"आप समझो तो हो न बात को, शुरू हो जाओ हो। भड़क जाओ हो तावले सी।"
"लै! मैं के न्यूए भड़क गया? बाउली बात पूछेगा तो तेरे गीत गाऊंगा?"
"मन्ने के पूछ ली आपते? मैं तो नूं कह रा था कि आज मेरा ड्यूटी पे आण का पक्का न है। आ भी सकूँ हूँ और न भी आ सकूँ हूँ। कैश में किसी को बैठा दियो आप, कदे मेरीए बाट देखे जाओ।"
"सच में बावली ... है, शुरुए में न कह देता ये बात?"
"और के कहण खातर फोन करया था? न्यौता देऊँ था के? यही तो कहण लग रया हूँ सुरु से कि आज आऊँ के न आऊँ"
"अच्छा छोड़ बाउली बात, नूं बता के आएगा ड्यूटी पे अक नहीं?"
"ह्ह्ह्ह, जी आ भी सकूँ हूँ और हो सके न भी आऊँ।"
.................
मोबाइल पीढी को इस लैण्डलाईनिया वार्ता को समझना शायद पकाऊ काम लगे, पर अपनी ऐसी कई यादें लैंडलाइन से जुडी हैं।
एक पुराना पोलिटिकली करेक्ट वार्तालाप अचानक याद आ गया।

शनिवार, अक्तूबर 15, 2016

सबको मालूम है....

ब्रांच में FD receipts खत्म होने वाली थीं। यह   ’ सिक्योरिटी स्टेशनरी’ श्रेणी में आती हैं। शाखायें अपने स्तर पर प्रिंट नहीं करवा सकतीं बल्कि बैंक स्वयं इनकी प्रिंटिंग करवाकर शाखाओं को उनकी आवश्यकतानुसार  जारी करता है ताकि इनका दुरुपयोग न हो सके। मैंने स्टाफ़ में पूछा कि बताओ भाई कौन लेने जाना चाहेगा? (दिल्ली के ऑफ़िस से लानी थी, आम तौर पर देखा है कि स्टाफ़ में टीए बिल वगैरह का उत्साह रहता है। ’अंधे की मक्खी राम उड़ाये’ चरितार्थ हो रही थी, एक भी स्टाफ़ वैसा नहीं निकला जैसा लोग बताते थे। एक सुर में सबने कहा कि आप का घर दिल्ली में है, कल आराम से वहाँ से FD कलेक्ट करिये। लखनवी नवाबों वाली बात हो गई, मैं उन्हें कहूँ कि आपस में सलाह करके कोई एक चला जाये और वो सब मुझे कहें कि रोज भागमभाग करते हो तो एक दिन ऑन ड्यूटी आराम करिये। पूरे दिन के आराम के बदले बड़े ऑफ़िस में जाकर सबको नमस्ते करना अपने को सस्ता सौदा नहीं लगा। कोई निर्णय नहीं हो पाया।
थोड़ी देर में फ़रीदाबाद ब्रांच के हमारे चीफ़ मैनेजर साहब का किसी काम से फ़ोन आया। चौधरी साहब आयु, पद दोनों पैमानों पर अपने से बहुत सीनियर बैठते थे और सबसे बड़ी बात उनका आपसी व्यवहार, अपने से छोटों को भी हमेशा सम्मान देकर बुलाते। एक और मजे की आदत, मुझे हमेशा ’चौधरी साहब’ या ’छोटे भाई’ कहकर बुलाते थे और ”चौधरी’ बुलाने पर मेरे प्रतिवाद करने पर कहते, "बता मोहे, कहाँ लिखा है कि चौधरी सिर्फ़ हम गुज्जर या जाट ही होंगे?"  बातों-बातों में  मैंने पूछा कि इमरजेंसी स्टॉक में से कुछ FD दे सकेंगे क्या?
"अरे ले लो चौधरी साब, हैं तो हमारे पास भी कम ही लेकिन आपका काम तो चल ही जायेगा। मैं अगले  हफ़्ते किसी को भेजकर अपने लिये और मंगा लूँगा।" चलो जी, समस्या सुलझ गई। शाम को प्रतिदिन वाले समय से एक घंटा पहले निकलकर मैं चौधरी साहब की ब्रांच में पहुँच गया। हमेशा की तरह बहुत प्यार से गले मिले, सफ़ाई कर्मचारी को आवाज लगाई, "ओ जिज्जी, दो गिलास पानी ला ठंडा। और जूस बोल दे, छोटा भाई आया है बहुत दिन के बाद।" पानी आ गया, जूस के लिए जिज्जी को मैं मना करता रहा लेकिन चीफ़ साहब की बात का मोल ज्यादा होना ही था। साधारण बातचीत होती रही, जूस आ गया और पी लिया। अब काम की बात करनी थी क्योंकि बैंक बंद होने का समय भी हो रहा था। चौधरी साहब घंटी बजाने लगे, उनकी शाखा के FD इंचार्ज का नाम लेकर बोले, "फ़लाने को कह दूँ आपको FD recipts दे देग।" मैंने डिमांड लेटर पर     उनकी  स्वीकृति लेते हुए कहा, "जी,  बुलाने की क्या जरुरत है? एक बार बात सुनने आयेगा, फ़िर सामान देने आयेगा। मैं ही जाकर ले लेता हूँ।" और फ़लाने साहब के पास पहुँच गया। फ़लाने साहब से मुलाकात पहली थी लेकिन फ़ोन पर अच्छा परिचय हो चुका था, किसी पेंशनर द्वारा उनकी शिकायत होने पर चौधरी साहब ने मेरे ही कान पकड़कर मामला खत्म करवाया था तो फ़ोन पर ये भी कई बार आभार प्रकट कर चुके थे। मैंने जाकर अपना परिचय दिया और चौधरी साहब द्वारा FD receipts जारी करने की परमीशन वाला लेटर उन्हें दिया। एक और ग्राहक भी उनकी टेबल पर शायद मेरे आगे आगे पहुँचा ही था। लेटर हाथ में लेकर इंचार्ज साहब कहने लगे, "FD receipt तो मेरे पास भी खत्म ही होने वाली हैं। वेरी सॉरी, मेरी भी खत्म हो ही गई थीं। मैं उस ब्रांच में गया तो उन्होंने नहीं दी फ़िर दूसरी ब्रांच में गया तो बहुत रिक्वेस्ट करने के बाद थोड़ी सी दी हैं। ये है, वो है, ऐसा है, वैसा है। सॉरी सर।" 
"ओके, कोई बात नहीं।" मैं मुड़ा तो उन्होंने आवाज लगाकर रोका।
"एक मिनट, सर"
"हाँ, जी?"
"एक बात पूछूँ आपसे?"
"पूछो न"
कुछ रुककर कहने लगा, "आप एक गलती करके आये हो। मैं सही कह रहा हूँ न?"
अब मेरा माथा थोड़ा सा ठनकने लगा, "होश संभालने के बाद मैंने गलतियाँ ही की हैं। आप किस गलती की पूछ रहे हो, सीधे से पूछोगे तो हाँ या न बताऊँ, मुझसे गोलमोल बातें ज्यादा देर होती नहीं।"
"आप सीधे अपनी ब्रांच से आ रहे हैं, आपने ड्रिंक कर रखी है न?"
".... जी, मैंने किसी जन्म में इतनी पी थी कि इस जन्म में मरते दम तक भी न पियूँगा तो काम चल जायेगा।"
"ये बता दो सरजी, मैं ठीक कह रहा था न?"
कोई अच्छा सा जवाब ही दिया होगा मैंने भी, क्योंकि वो मुझे अब याद नहीं।    मैं चौधरी साहब के केबिन में आ बैठा। चौधरी साहब फ़ाईलों में उलझे थे, मुझे देखा तो पूछा, "मिल गईं चौधरी साब?"
मैंने हँसते हुए कहा, "FD तो नहीं मिलीं, खत्म हो रही बताते हैं लेकिन एक सर्टिफ़िकेट जरूर मिल गया।"
"कैसा सर्टिफ़िकेट? क्या बात हुई?"
मैं अपनी दिल्ली की पुरानी ब्रांच में फ़ोन कर रहा था। मित्र अभी बैंक में ही था, उसे बोला कि थोड़ी सी FD चाहियें, निकलवाकर रख लेना। मैं अभी और लेट हो जाऊंगा, आकर साईन कर दूँगा।
चौधरी साहब फ़ाईल साईड में रखकर बैठे थे। "क्या बात हुई, वहाँ क्यों तंग कर रहे हो उन्हें?" १ घंटा और बैठना पड़ेगा उन लोगों को भी।"
मैंने बताया कि एक घंटा नहीं, कम से कम दो घंटे और बैठना पड़ेगा मेरे दोस्तों को। मेरे काम से जा रहा हूँ तो भी बिना कुछ खिलाये-पिलाये नहीं जाने देंगे :)
अब चौधरी साहब मेरे पीछे पड़ गये, "कौन से सर्टिफ़िकेट की बात कर रहे थे। मुझे बात बताओ पूरी।"  
बतानी पड़ी, ये भी बताया कि हो सकता है जिज्जी जो जूस लाई थी उसीमें कुछ मिला हो :) 
सुनते ही चौधरी साहब ने घंटी बजाई, "इसकी तो @^#%$   ^& @&^,  हिम्मत कैसे हो गई उसकी?" 
जिज्जी उन फ़लाने साहब को बुलाने गई और फ़ौरन ही लौट भी आई। "साहब, उनसे गलती हो गई थी। आपके आने के बाद वो बहुत पछता रहे थे। मैं वहीं सफ़ाई कर रही थी उस समय जब आपसे उनकी बात हो रही थी। वो एक और कस्टमर और आप दोनों एक साथ ही उनकी टेबल पर पहुँचे थे, उसने पी रखी थी।" फ़िर चीफ़ साहब से बोली, "साहब जी, डाँटियो मत ज्यादा। अभी महीने भर की छुट्टी से आया है बीमारी के बाद, हार्ट का पेशेंट वैसे है। सच में उसे गलती लग गई, आपके बुलाने से पहले ही बहुत परेशान हो रहा था।"
तब तक वो खुद भी आ गया और कुछ कहे जाने से पहले ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बहुत शर्मिंदा होते हुए वही सब बताने लगा, "उस कस्टमर के कारण मुझसे बेवकूफ़ी हो गई। मैंने उसे भगा दिया, ऐसा हुआ वैसा हुआ।"
चौधरी साहब को मैंने ही रिक्वेस्ट करके शांत किया, "जाने दो चौधरी साहब, इनकी गलती न है। मेरी शक्ल ही ऐसी है।"
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फ़ेसबुक पर एक प्यारा सा शरारती मित्र बना। कुछ दिन पहले कभी मिलने की बात हो रही थी तो बोला, "सर, एक बार आपके साथ बैठकर पीनी है।" 
क्या कहता मैं? 
यही कहा, "ठीक है भाई, मेरे साथ बैठके पी लियो।" 
गलती तेरी न है, मेरी शक्ल ही ऐसी है:) 




गुरुवार, अगस्त 25, 2016

मुफ़्तिये भगत

जून माह में निंदक जी और छत्तीसगढ़ वाले ललित शर्मा जी के साथ कुमाऊं जाने का अवसर मिला। पह्ले दिन का ठहराव हुआ रानीखेत से लगभग ४ किमी बाहर एक रिसोर्ट में। अगले दिन सुबह हम कुकुछीना नामक स्थान के लिये चल दिये। रास्ते में द्रोणागिरी मंदिर आया जिसकी स्थानीय निवासियों में बहुत मान्यता है। यह मंदिर सड़क से लगभग १ किलोमीटर अंदर ऊंचाई पर स्थित है। हमारी गाड़ी एक बार पंचर हो चुकी थी तो उस समय की भरपाई हमने सड़क से ही मस्तक नवाकर कर ली, विश्वास रहता है कि हमारे देव बहुत दयालु हैं J
रानीखेत से द्वाराहाट होते हुये कुकुछीना की दूरी लगभग ५५ किलोमीटर है। बहुत छोटी सी एक बस्ती जिसमें प्रवेश करते ही एक गेस्ट हाउस, तय था कि हमें यहीं रुकना है। सामान कमरे में पटककर भोजन किया और बाबाजी की गुफ़ा में जाने के लिये तैयार हो गये। लगभग डेढ किलोमीटर एक बहुत संकरा मार्ग है जहाँ तक कार जा सकती है उसके आगे गुफ़ा तक जाने के लिए खड़ी चढ़ाई है। जहाँ तक कार जा सकती थी गये और फ़िर उतरकर हम तीनों मलंग पैदल चल दिये।
अब तक इस छोटे से रास्ते में न कोई वाहन दिखा था और न कोई मनुष्य। अनुमान से एक तरफ़ चढ़ाई शुरु की तो दूर से एक महिला ने चिल्लाकर हमें सचेत किया कि गुफ़ा के लिए जाना है तो उस रास्ते से मत जाओ, इधर से जाओ। हम उधर चल दिये तो उन महिला ने रास्ते की निशानी बताई और वहीं अपनी झोपड़ीनुमा मकान के बाहर रखी लकड़ियों में से छड़ी जैसी निकालकर दी कि ये ले जाओ, चढ़ाई में काम आयेगी। अकेला परिवार वहाँ पहाड़ की तलहटी में रह रहा था, आदमी बैठा था और महिला कपड़े धोकर सुखाने वाली थी कि उसकी नजर हमपर पड़ी थी और उसने आवाज लगाई। मकान के दरवाजे पर ’यहाँ चाय मिलती है’ लिखा था, चायपान का कार्यक्रम वापिसी के लिये सोचकर और लौटते समय छड़ी लौटाने की कहकर हम चलने लगे।

इस यात्रा का कार्यक्रम अचानक ही बना था। असल में इन दिनों में ललित जी को मोटरसाईकिल पर लेह-लद्दाख जाना था लेकिन अचानक स्वास्थ्य संबंधी कुछ समस्याओं के कारण उन्हें वो कार्यक्रम छोड़ना पड़ा था। वहाँ नहीं जा पाये तो उन्होंने निंदक जी से फ़ोन पर बात की, निंदक जी ने अपने पास बुला लिया कि आप बस गाजियाबाद तक आ जाओ तो आपकी यात्रा की हुड़क मैं पूरी करवा दूँगा। भीतर की बात ये थी कि निंदक जी कई बार मुझे कह चुके थे कि पहली बार ऐसा हुआ है कि पहाड़ों पर जाने में मुझे इतना गैप हो गया, मैं तो इस समय बुरी तरह बेचैन हो रहा हूँ। ऐसे में ललित जी ने जब फ़ोन पर अपनी पीड़ा बताई तो वही बात हो गई कि ’इधर से तो बुआ के मन में जाने की थी और उधर से फ़ूफ़ा लिवाने आ गया।’ अच्छा, मेरा कोई प्रोग्राम था नहीं लेकिन बाद में बुआ कौन और फ़ूफ़ा कौन वाला विवाद न हो इसलिये जनहित में मैं भी साथ में टँग लिया था, मेरे लिये तो भई दोनों ही अग्रज आदरणीय ठहरे।
तो अब पेंच ये फ़ँसा कि जब योगी जी की गुफ़ा के लिए चढ़ाई शुरु करने लगे तो ललित जी को लगने लगा कि तबियत ठीक नहीं है। उन्होंने तय किया कि वो वहीं बैठेंगे, चाय पियेंगे और उन लोगों से गपशप करेंगे। निंदक जी और मैं गुफ़ा की ओर चल दिए। बहुत छोटा सा ट्रैक है लेकिन रास्ता बहुत मनोरम। गुफ़ा तक जाने में रास्ते में दो ग्रुप मिले जो वापिस आ रहे थे। कुछ देर में गुफ़ा तक पहुँच गये, योगदा ट्रस्ट वालों ने उस गुफ़ा को अब एक छोटे कमरे का रूप दे रखा है। हम वहाँ पहुँचे तो अंदर कोई अनुष्ठान चल रहा था, शायद ५-६ तमिल भाषी लोग बैठे थे और मंत्रोच्चारण और पूजा चल रही थी।


गेस्ट हाऊस से चले तो गुफ़ा तक ही आने की सोचकर आये थे क्योंकि दोपहर के बाद खाना खाकर तो हम चले ही थे और हमें यही बताया था कि गुफ़ा और टॉप दोनों जगह जाने का प्रचलित रास्ता अलग अलग है। गुफ़ा के बाहर पूजा करवा रहे लोगों का ड्राईवर बैठा था, उसने कहा कि अगर बहुत थकान न हो रही हो तो शार्टकट से ऊपर भी जा सकते हैं, पहाड़ की टॉप ’पांडुखोली’ या ’पांडवखोली’ कहलाती है और वहाँ एक घास का मैदान और मंदिर भी है। ऐसा माना जाता है कि पाँडव अपने अज्ञातवास के दौरान वहाँ रुके थे। हम ऊपर की ओर चल दिये।
 फ़िर वही वीराना पहाड़ी रास्ता, कहीं कहीं छोटी सी पगडंडी, बीच बीच में पत्थरों पर पेंट का निशान ताकि जाने वाले रास्ता न भटकें। मौसम बता रहा था कि कभी भी बारिश हो सकती है। निंदक जी सरकारी सेवा से निवृत्त हो चुके हैं लेकिन पहाड़ी रास्तों पर चलने के अभ्यस्त हैं और जवानों से भी ज्यादा फ़िट। वो आगे थे, रास्ता पहचानते थे और मैं लक्ष्मण की तरह उनके पैरों को देखकर पीछे घिसटता रहा।

एकदम कैजुअल मूड में हम चढ़ते जा रहे थे, एकाध बार बूँदाबांदी भी हो चुकी थी। बिना रुके चल रहे थे, अब पसीना भी बहुत आने लगा था। ऊपर से उतर रहे एक दो सन्यासी मिले, अभिवादन होता और वो हमारा उत्साह  बढ़ाते हुए उतरते गये, ’बहुत अच्छे, बस पहुँच ही गये।“ हम टॉप पर पहुँच गये, सामने बड़ा सा घास का मैदान। बहुत से फ़ूल उगे हुये, पृष्ठभूमि में मंदिर और चढ़ाई चढ़ पाने की संतुष्टि, सब अच्छा ही अच्छा लगने लगा। दूर मंदिर में एक ऊँचे स्थान पर खड़े एक साधु की आकृति भी दिख रही थी, वो भी इधर ही देख रहे थे।




अब हम रुककर आराम से वो नजारा देखने लगे, किसी डेकोरेटिड पार्क में घास फ़ूल अलग तरह के होते हैं और प्राकृतिक जगहों पर अलग तरह के। एक में ब्यूटी पार्लर वाली चमक दमक और एक में नैसर्गिक सौन्दर्य। इतने में जोर से बारिश होने लगी, शाम भी कुछ देर में ढलने को ही थी। मैदान के पार मंदिर और नीचे चाय सुड़कते ललित जी, हमें अपेक्षा से अधिक समय लग गया था तो वो चिंतित न हो रहे हों, हम दोनों तरफ़ सोच रहे थे। अब ध्यान आया कि छोटा हैंडबैग तो ललित जी के पास ही है, हम तो एकदम कैजुअल मूड और ड्रेस में थे। टीशर्ट में जेब नहीं और ट्रैक पैंट में मोबाईल भी मुश्किल से फ़ँसाया था। इतनी दूर तक आये हैं और जेब में एक पैसा भी नहीं कि मंदिर में कुछ चढ़ा भी सकें। मैं तो ठहरा पलायनवादी आदमी, निंदक जी को सुझाव दिया कि पहाड़ पर ही तो चढ़ना था सो चढ़ लिये। चैलेंज पूरा हुआ, बाकी अपने भगवान जी तो सर्वव्यापक हैं उन्हें यहीं से प्रणाम करके लौटते हैं। निंदक जी बोले, “भगवान की तो कोई बात नहीं लेकिन उन बाबा ने हमें देखा है और हम यहाँ तक आकर बिना मंदिर गये लौट जायेंगे तो वो क्या सोचेंगे? चलो, देखते हैं।“ हम मंदिर की ओर चल दिये।
मंदिर परिसर अच्छा खासा बड़ा है, पहुँचे तो वहाँ एक स्थानीय युवा ने आकर अभिवादन किया और हम कहाँ से आये हैं आदि बात करने लगा। बहुत सभ्य लड़का था, मंदिर का सेवादार ही था। फ़ौरन दो गिलास पानी लाया, “पानी पीजिये, आप थक गये होंगे क्योंकि यह रास्ता थोड़ा कठिन है, लोग दूसरे रास्ते से आते हैं जो थोड़ा लंबा है लेकिन अपेक्षाकृत सरल है।“ हमने पानी पीकर लड़के का धन्यवाद दिया और हँसकर बताया कि हम तो बाहर से लौटने वाले थे। कारण जानकर वो भी हँसने लगा और पैसे न होने के कारण मंदिर से बाहर से ही लौट जाने वाली हमारी सोच की मीठी निंदा की(निंदा यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रही J ) बल्कि यह जानकर कि मलंग बिल्कुल खाली हाथ हैं, उसने विशेष आग्रह किया कि आप दर्शन कर लें तब तक मंदिर की रसोई में आपके लिये चाय बनवा रहा हूँ। एक तरह से यह आग्रह जबरदस्ती वाला था, दर्शन के पश्चात रसोई में जाकर चूल्हे पर बनी चाय पी। मंदिर के सेवादार अपनी रात की रसोई की तैयारी कर रहे थे, चाय पीने के बाद जब उन लोगों को धन्यवाद दिया तो उनकी तरफ़ से भोजन का भी आग्रह किया गया और रात को सोने का प्रबंध होने का भी। फ़िर कभी दोबारा आने की कहकर हमने उन लोगों से विदा ली।


लौटते समय हम एक जगह गलत मोड़ पर मुड़ गये, अच्छा खासा लंबा रास्ता चलना पड़ा लेकिन लक्ष्य मालूम था तो कोई समस्या नहीं हुई। सही रास्ते से थोड़ा सा विचलन लक्ष्य तक पहुँचने में विलंब कर देता है।तब तक ललित जी उस पहाड़ी परिवार से स्थानीय विषयों की जानकारी लेते रहे। हम लोगों ने चाय पी और गेस्ट हाऊस के लिये चल दिये। यहाँ भी मजे की बात ये हुई कि वो परिवार चाय के पैसे लेने को तैयार नहीं हो रहे थे, एक तरह से जबरन ही देने पड़े। जब उन्हें याद दिलाया कि टी-स्टाल लिख रखा है इसलिए पैसे लेने में संकोच तो बिल्कुल नहीं करना चाहिये, महिला ने बताया कि टी-स्टाल का पोस्टर मंदिर के बाबाजी ने जोर देकर लगवाया था कि आगंतुकों की सहायता तो तुम लोग वैसे भी करते ही हो। 
समाज वही है, जहाँ परस्पर हित की भावना हो।
मंदिरों के पास बहुत धन संपत्ति है, समाज के लिये उसका कुछ उपयोग नहीं होता आदि आदि जैसे प्रलाप सुनकर मुझे आत्मग्लानि नहीं होती बल्कि ’हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ’ वाला मुहावरा याद आता है। श्रद्धालुओं द्वारा दान या चढ़ावा धार्मिक भावना से धर्म के कार्य के लिये प्रयुक्त किये जाने के लिये किया जाता है लेकिन वो पैसा किस मद में खर्च होगा ये श्रद्धालु तय नहीं कर सकते क्योंकि बहुसंख्यक समाज के बड़े मंदिरों का स्वामित्व सरकार के हाथ में है। यह राशि सरकारी खजाने का हिस्सा बनती है और सरकारी संसाधनों पर पहला हक उस  वर्ग का नहीं जिसका इसे भरने में सबसे ज्यादा योगदान है।

शुक्रवार, जुलाई 22, 2016

नजरबंदी

कुछ दिन पहले इस विषय में श्रीमान आनंद राजाध्यक्षा जी ने पोस्ट लिखकर विचार माँगे थे हालाँकि वहाँ परिपेक्ष्य कुछ अलग था, उन्होंने inter religion marriage/लव जेहाद से जोड़कर पोस्ट लिखी थी। मेरे परिचय में ऐसी तीन घटनायें सामने आ चुकी हैं, जिनमें से नवीनतम घटना कल की है। पहले वही घटना बता देता हूँ, जैसी जानकारी मिली।
हमारे पड़ौस में एक अंकलजी रहते हैं, ’होर वड़ो’ वाला बयान जिनका था, वही। आयु ७०+ है लेकिन शारीरिक रूप से बहुत अच्छी तरह सक्रिय हैं। सुबह ५ बजे से पहले उठकर नंगे पाँव पैदल चलकर ही गुरुद्वारे जाते हैं, वहाँ से लौटकर संयुक्त परिवार के लिये फ़ल, सब्जियाँ लेने जाते हैं। फ़िर लौटकर कुछ और फ़ुटकर काम के लिये इधर उधर जाना मतलब जब देखो मूवमेंट करते ही दिखते हैं। दोपहर खाना लेकर बच्चों के पास दुकान पर चले जाते हैं, वहाँ से फ़िर किसी बच्चे के साथ दुकान के लिये खरीद्दारी करने। सुबह से लेकर रात तक वो ऐसे ही व्यस्त रहते हैं।
कल दिन में दस बजे के करीब ऐसे ही बिजली का बिल जमा करवाने जा रहे थे। घर से कुछ दूर ही एक आदमी ने उन्हें रोका और कहा कि उसके साहब उन्हें बुला रहे हैं, कोई वारदात हो गई है और इस बारे में पूछताछ करनी है। कुछ कदम चलकर वो उसके साथ आये तो तथाकथित साहब अपनी मोटरसाईकिल खड़ी करके उसका सहारा लेकर खड़े थे। अभिवादन के बाद पूछा गया कि आप यहीं रहते हैं, नाम वगैरह। फ़िर उसने कहा कि यहाँ कुछ देर पहले कोई अपराध हुआ है, इसलिये आपसे कुछ जानकारी लेनी है। बताया कि जीप थोड़ी दूर खड़ी है, वहाँ तक चलना होगा। और इतने में बोला कि अरे, ये कड़ा आपने पहना है क्या सोने का है? इसे उतारकर जेब में रख लीजिये। यह बातचीत चल रही थी तो एक और आदमी के साथ उसका दूसरा साथी यही सब बात कर रहा था और उसने अपनी सोने की चैन उतारकर जेब में रख ली। हमारे सिंह साहब अंकल ने भी उसे चैन उतारते देखकर अपना कड़ा उतार दिया। उन लोगों ने अखबार में लपेट कर जेब में रखने का सुझाव दिया और खुद ही इस काम में मदद करने लगे। अखबार में लिपटा कड़ा जेब में रखवा दिया और उसके बाद सिंह साहब चले गये बिल जमा करवाने और वो दोनों लोग अपनी मोटरसाईकिल पर बैठकर गये अपने रास्ते। सिंह अंकल बिल जमा करवाकर घर आ गये, इस सब में करीब एक डेढ घंटा बीत गया था। दुकान पर जाने लगे तो जेब से पुड़िया निकालकर कड़ा डालने लगे तो अखबार मेंं से एक आर्टिफ़िशियल कड़ा निकला, वैसे तो उसपर कई चमकीले शोख से नग लगे हुये थे और लेकिन वो सरदार जी का ५ तोले का कड़ा नहीं था। इस बार ’होर वड़ो’ हमारे अंकल जी के साथ ही हो गई है।
दिन दिहाड़े और अच्छी भीड़ भाड़ वाली सड़क पर वो भी अपने परिचित इलाके में यह सब हो गया। इसी तरह की दो घटनायें पहले भी परिचितों के साथ हो चुकी हैं हालाँकि वो कुछ पुरानी बात हैं और इस एरिया से दूर घटित हुई थीं। घटनाक्रम ऐसा ही, कोई अचानक से आकर किसी बहाने से बात करता है और उसके बाद आप वही करते जाते हैं जैसा आपको कहा जाये। एक मित्र की माताजी के शरीर से सब गहने उन्होंने स्वयं ऐसे ही एक एक करके उतारकर दे दिये थे, दूसरे मामले में लड़के ने अपना महंगा सा फ़ोन। आंखें खुली रहती हैं लेकिन चैतन्य होते हैं घंटे दो घंटे में।
अब कुछ लोग इसे हिप्नोटिज़्म बता रहे हैं, कुछ का कहना है कि इस तरह की सिद्धि या शिफ़ा कुछ लोगों के पास होती है। ताजा घटना तो एक सीसीटीवी फ़ुटेज में भी आई हैं और उनमें किसी तरह की जोर जबरदस्ती जैसा कुछ नहीं दिख रहा। मैं अब भी इसे ऐसा कुछ न मानकर चालाकी से किसी कैमिकल वगैरह के प्रयोग से प्रभावित करने वाला मामला मान रहा हूँ लेकिन सच तो ये है कि मैं अल्पमत में हूँ। मेरे पास अपनी बात के पक्ष में सिर्फ़ एक ही दलील है कि ऐसी सिद्धि जिसके पास हो वो ऐसे सड़कों पर अपनी सिद्धियों को व्यर्थ नहीं कर सकते, वो बहुत बड़े काम कर सकते हैं।
इस तरह की कुछ हजार या लाख रुपये की ठगी में सम्मोहित करने वाली बात या ऐसी किसी आलौकिक शक्तियों के प्रयोग पर आपको विश्वास आता है?

शनिवार, जुलाई 16, 2016

कुमारिल भट्ट


हो सकता है यह कहानी आपने न सुनी हो, हो सकता है कि सुन रखी हो। ऐसा भी हो सकता है कि किसी और रूप में सुन रखी हो। यह सब महत्वपूर्ण नहीं, महत्व इस बात का होना चाहिये कि किसी कहानी से आप पाना क्या चाहते हैं और पाते क्या हैं। मनोरंजन, ज्ञान, प्रेरणा, अवसाद या ऐसा ही कुछ और भाव। महत्व इस बात का भी है कि इससे आप कितना प्रभावित होते हैं। इस भूमिका से सुधीजन समझ ही गये होंगे कि कुछ ऐसी बात पढ़ने को मिलेगी जिसे रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब आदि मान्यताप्राप्त और स्थापित ’कारों के रचे इतिहास में ढूँढने जायेंगे तो निश्चित ही निराशा हाथ लगेगी। आप सोच सकते हैं कि फ़िर ऐसी बातों को कोई लिखे भी क्यों और पढ़े भी क्यों? मेरे लिखने और आपके पढ़ने के पीछे एक विश्वास होगा। विश्वास मात्र लेखक पर नहीं, अपनी चेतना और अपने विवेक पर कि इसके सत्य होने की संभावना बनती भी है या नहीं। मानना या न मानना अपने हाथ में है, यह सनातन की भूमि है जिसपर विरोधी मत भी न सिर्फ़ सुने गये बल्कि उन्हें एक भिन्न शाखा के रूप में मान्यता भी मिली है। यहाँ अपनी बात मनवाने के लिये गर्दन पर तलवार नहीं रखी जाती। 

यह वो समय था जब विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक कारणों के चलते सनातन से विमुख होकर आमजन नये धर्म की तरफ़ जा रहा था। ईश्वर को जानने और उसे पाने की पुरानी रीति-विधियों और नये तरीकों के बीच एक प्रतियोगिता रूपी संघर्ष चल रहा था। परिवारों में विमर्श का यह एक ज्वलंत विषय था, कुछ सदस्य अपने धर्म को त्यागना सही नहीं मानते थे वहीं कुछ सदस्य इसे केंचुली की तरह उतारने को तत्पर थे। नए धर्म को राज्याश्रय का लाभ भी था फ़लस्वरूप सनातनियों की संख्या कम हो रही थी। 
उस समय के प्रचलन के अनुसार किसी सनातनी गुरुकुल में विद्याध्ययन कर रहा एक युवा भिक्षाटन के लिये नगर में निकला हुआ था। अचानक उसके हाथ पर कुछ उष्ण तरल पदार्थ की बूँदें गिरीं, युवक ने सिर उठाकर देखा तो गवाक्ष में खड़ी कोई स्त्री रो रही थी और उसीकी आँखों से गिरे आँसू ही थे जिन्होंने युवा का ध्यानाकृष्ट किया था।(अलग अलग मान्यताओं के अनुसार वह स्त्री नगर की रानी या गणिका बताई जाती है)
"हे देवी, आपको क्या कष्ट है?"
स्त्री ने रूंधे गले से कहा, "हमारे धर्म की रक्षा कौन करेगा?"
जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जो जीवन की दिशा को गति दे देते हैं और कई बार दिशा बदल भी देते हैं। कई बार हम अनिर्णय की स्थिति में लंबा समय निकाल देते हैं लेकिन कोई एक क्षण ऐसा आता है जब आर या पार का निर्णय लेने में किंचित मात्र भी विलंब नहीं होता। युवक के जीवन में संभवत: वही क्षण आ पहुँचा था। स्त्री के शब्द "हमारे धर्म की रक्षा कौन करेगा?" सुनकर युवक सहसा बोल उठा, "मैं करूंगा।" उसके जीवन की दिशा भावी द्वारा निर्धारित हो चुकी थी।
उस युवा ब्राह्मण का नाम था ’कुमारिल भट्ट’और वह वर्तमान के आसाम से विद्याध्ययन करने वाराणसी आया हुआ था। कुछ लोग इन्हें दक्षिण भारत से आया भी मानते हैं। उसी क्षण से कुमारिल भट्ट का मनन चिंतन इस समस्या के कारण-निवारण में लग गया। उसने अनुभव किया कि सनातन से पलायन के पीछे सनातन के विरुद्ध किये जा रहे नकारात्मक प्रचार की मुख्य भूमिका थी। जीवन का अच्छा खासा समय सनातन में बिताने के बाद जब कोई विपक्ष में जाता था तो उसके पास अपने पूर्व धर्म की अच्छाई-बुराई की भरपूर जानकारी होती थी। जिस घर में हम रहते हैं, उसका कौन सा कोना निरापद है और कौन सा कमजोर, कहाँ धूप बहुत आती है और कहाँ सीलन, ये हम अच्छे से जानते हैं। अराजकताप्रधान समाज तब भी नहीं था तो विवाद आदि या तो शास्त्रार्थ से सुलझाये जाते थे या प्रचलित न्याय नियमों के अनुसार। ऐसी स्थिति आने पर सनातन की कमियों को निर्ममता से उजागर किया जाता था और परिणाम यह होता था कि लोगों को अपने धर्म में कमियाँ ही कमियाँ दिखती थीं। साधारण शब्दों में ये समझिये कि सारी लड़ाई हमारी ही जमीन पर होती थी, वो जीत गये तो हमारी जमीन पायेंगे और हम अपनी जमीन बचा लेने को ही अपनी जीत मानने को बाध्य थे।
कुमारिल भट्ट ने निर्णय किया कि उन्हें टक्कर देने के लिये मुझे भी बौद्ध धर्म और उसकी पुस्तकों को समझना होगा। कुमारिल भट्ट बौद्ध बन गये, दत्तचित्त होकर शिक्षा प्राप्त की और उस दर्शन में पारंगत हुए। पुन: हिन्दु धर्म में प्रवेश किया और शास्त्रार्थ के क्षेत्र में पुन: सनातन की कीर्ति पताका फ़हराई। कुमारिल भट्ट का समय आदि शंकराचार्य और वाचस्पति मिश्र से पहले का है। भवभूति, मंडन मिश्र आदि उनके शिष्य रहे।
कुमारिल के दर्शन का तीन मुख्य भागों में अध्ययन किया जा सकता है- ज्ञानमीमांसा, तत्वमीमांसा और आचारमीमांसा। उस सब में जिन्हें रुचि हो वो पैठ सकते हैं। पहले भी कह चुका कि सहमत होना या न होने की स्वतंत्रता है। मेरी रुचि इस बात में है कि स्थापित इतिहासकारों ने भले ही भारत के सामाजिक जीवन में स्त्रियों की दशा आदि के बारे में कुछ भी लिख रखा हो, इस धरती की स्त्रियाँ कठिन समय में समाज को और धर्म को प्रेरणा देने में और हमारे पूर्वज चुनौतियों का सामना करने में सक्षम थे।
प्रस्तुत पोस्ट बहुत पहले पढ़ी किसी रचना और लोकजीवन में सुनी बातों के आधार पर लिखी है। कुमारिल भट्ट के बारे में बहुत अधिक विवरण उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि जिनके जिम्मे यह सब काम थे, उन्हें इतिहास लिखना नहीं बल्कि बनाना था। उनके हित कुछ वंशों का ही गौरवगान करने से सधने थे। उदाहरण के लिये मुगल साम्राज्य को हमारे इतिहास में आवश्यकता से अधिक ग्लोरीफ़ाई किया गया जबकि विजयनगर साम्राज्य के बारे में न्यूनतम बताया गया है।
अंत में यही कहूँगा कि किसी घटना के वर्णन या कहानी में महत्व इस बात का है कि इससे आप कितना प्रभावित होते हैं।

बुधवार, जुलाई 13, 2016

सजन रे झूठ मत बोलो

अनुभव बताता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गाना गाने वाले ही असली असहिष्णु हैं। देश या धर्म से संबंधित विवाद खड़े करने हों या इनकी अस्मिता पर प्रहार करना हो, लोक मत को काऊंटर करने के लिये अगर-मगर लगाकर और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम लेकर यह लॉबी अपना कार्य करती रहती है। इसका प्रतिदान इन्हें किस रुप में मिलता है, यह अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं। फ़ेलोशिप, विभिन्न अवार्ड, देशी और विदेशी कांफ़्रेंसों में भाग लेने के और रिटायरमेंट के बाद मानवाधिकार या ऐसे ही किसी अन्य सफ़ेद हाथी पर सवारी करने के अवसर किसी से छुपे नहीं हैं। वहीं ये काम किनके इशारे पर और किन्हें लाभ पहुँचाने के लिये होते हैं, यह समझना भी बहुत मुश्किल नहीं है।
कश्मीर के एक आतंकवादी के हथियार उठाये हुये और भड़काऊ भाषण देते वीडियो उसीके सोशल मीडिया एकाऊंट पर उपलब्ध हैं। उसके स्तर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुठभेड़ में सेना द्वारा इस आतंकवादी को मार दिये जाने के बाद कई दिन तक घाटी बंद और कर्फ़्यू लगा है, हिंसा हुई है और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का अधिकृत संदेश जारी हुआ कि बुरहान वानी के मरने से उन्हें सदमा पहुँचा है। इस प्रकरण से सबक लेने की बात कहते हुये हमारे ही देश के  सरकारी विश्वविद्यालय में एक हिन्दी के प्रोफ़ेसर साहब उसे हर तरह से क्लीनचिट दे रहे हैं। यह तो हुई उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जब उन्हें बेशर्मी से झूठ बोलने की बात कही जाये तो वो टिप्पणी डिलीट हो जाती है।
धर्म और भगवान को मानना कामरेडों के लिये वर्जित होता है इसलिये ’खुदा के पास जाना है’ की याद दिलाना तो नाहक ही होगा लेकिन एक अंतरात्मा तो इनकी भी होती होगी। वो भी ऐसी बात कहने से नहीं कचोटती तो यकीन मानो, अंतरात्मा जरूर बेच खाई होगी।


 

रविवार, जुलाई 03, 2016

पार्थ फ़िर गाँडीव में टंकार को पैदा करो.

आज अपना लिखा कुछ नहीं, दो फ़ेसबुक मित्रों की कही बात। 

हमारा अधिष्ठान सनातन है, हम उसी के उत्तराधिकारी है, यह साहस और सत्यता से कहे इसका पुरुषार्थ निरन्तरता का आग्रह रखता है। जो हम करेंगे ही।
हम तो सनातन के साधक है, साधक सदैव विद्यार्थी होता है, सीखना स्वाध्याय सब साथ चलता है। सगुण और निर्गुण भक्ति की धारा सदैव साथ साथ चली है।
पारदर्शिता का प्रश्न आस्था पर चोट लगने से उपजता है। धर्म से इतर, कूटनीति उसी आस्था पर चोट करना है। चोट हुई तो आस्था हिली, और पारदर्शिता की मांग उठी।
यह गीता की भूमि है, योग वाशिष्ठ की भूमि है , यह नचिकेता की भूमि है, यह कबीर दास जी की भूमि है, यह मीरा जी, दादु जी, पीपा जी, रैदास जी, नवल जी महाराज की भूमि है। यहाँ उठाये गए प्रश्नो के उत्तर देने पड़ेंगे, कोई नहीं बच पाया, कोई नहीं बच सकता है।
यहाँ तो स्वयं नारायण ने उत्तर दिया है। जिनकी कठौतीयो में गंगा माँ विराजती है वो भारत है मेरा, प्रश्नो से कोई नहीं भाग सकेगा यहाँ!!
भारत की आत्मा लोकअधिष्ठित है, लोकपोषित है, लोकसंरक्षित है, लोकोन्मुखी है, लोकसंस्कारित है लोकाश्रयी है, जब मेरे रामऔर कृष्ण महलो को छोड़ वन, अरण्य नदी पर्वत लोक के हो विचरते है तो, उनकी देवत्व कीर्ति सहस्त्रो सूर्यो की भांति लोक के आलोक में देदीप्यमान होती है।मेरे महादेव तो है ही, लोक की भस्म में रमे हुए। गंगा जी जब कांवड़ में बैठ बोल बम बोल बम के साथ चलती है तब लोक का साक्षताकार है। तुलसी की रामायण के बीच में निर्गुण राम के उपासक कबीरदासजी के घट घट के राम अक्षर ब्रह्म से प्रकट होते है उसे लोक की थाती ही सहेजती है।
दादू पीपा रैदास साक्षात् भगवत्स्वरूप हो यहाँ लोक में ही अधिष्ठित है, कुम्भ के मेलो ठेलो से लेकर खांडोबा विठोबा की यात्राओं में जो लोक है, वही तो शिवरामकृष्ण का ध्येय है, लोक!!
यह लोक की ही क्षमता सामर्थ्य है जो धर्म के धारण किये हुए है। मैं इसी लोक का अविभाज्य अंश हूँ। मेरा लोक यदि भद्र अभिजात्य नहीं है तो ऐसा भद्र अभिजात्य मुझे नहीं बनना। मेरे अलौकिक के साक्षात्कार के मार्ग की प्रत्येक गली वीथिका इसी लोक के से होकर जाती है और इसी में समाती है। लोक् देवता से लेकर लोक संत सभी लोक को अलौकिक की यात्रा में सबको साथ लेकर चलने का संस्कारित पुरुषार्थ कर देवत्व का संधान कर रहे है। मुझ से यह सब छुड़ा दे ऐसा मुझे भद्र नहीं बनना है। हम राम जी के वानर ही भले... जय श्री राम
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मैं एक बात बोलता हूँ। मैं किसी से प्रभावित हो कर नहीं लिखता। मैं मट्ठा बेचने वालों का कूढ़मगज वैचारिक मानस पुत्र नहीं हूँ। मैं संघी, नव संघी, पुरातन संघी कुछ भी नहीं हूँ। हाँ, महापुरुषों से सीखना मेरे संस्कार हैं। इसके अलावा मेरे विचार मेरे अपने होते हैं जो मेरे अध्ययन पर आधारित होते हैं। मेरा अभिप्राय यह है कि हिन्दू समाज शक्ति और एकता का 'मात्र' प्रदर्शन ही न करे। शक्ति का अर्थ है ऐसी क्षमता जो कुछ ऐसा करने पर मजबूर कर दे जो अन्यथा सम्भव न हो। यदि भारत सरकार के हस्तक्षेप से तीन तलाक का शरई कानून बदलवाया जा सका तो यह बहुत बड़ी जीत होगी। प्रयोग बहुत हो चुके। सदियां बीत गयीं। मुसलमान कभी भी इफ्तार साथ खाने का मर्म नहीं समझेगा। हम भइया मुन्ना करते सर पटक कर देख चुके हैं। एक बात बताता हूँ। पिछले वर्ष तारेक फतह की किताब का लोकार्पण हुआ। उसमें आरिफ मोहम्मद खान साहब भी आये थे। उन्होंने तारेक फतह से साफ़ कहा कि आपकी किताब कोई पढ़ेगा नहीं क्योंकि मुसलमान अपने दिमाग का इस्तेमाल करना बन्द कर चुका है। आज के समय में कड़ा राजनीतिक हस्तक्षेप जो न्याय सम्मत हो वह करने की आवश्यकता है। जो समाज ISIS के लड़ाकों को अपना हीरो मानने लगा हो उनके साथ आप कब तक इफ्तार खाएंगे साहब?

सोमवार, मई 09, 2016

अगड़म बगड़म


                                                                        
(चित्र गूगल से साभार)

मैं और श्रीमति जी किसी परिचित की गाड़ी में एक विवाह समारोह से लौट रहे थे। एक और वयोवृद्ध परिचित साथ में थे जिन्हें रास्ते में उनके किसी रिश्तेदार के घर ड्रॉप करना था। जहाँ इन वृद्ध रिश्तेदार को छोड़ना था, वो घर नदी के दूसरी तरफ़ था। हम दूर से आ रहे थे, ड्राईव कर रहे परिचित कुछ थकान महसूस कर रहे थे तो तय किया गया कि वो नदी के इस तरफ़ ही किसी टी-स्टॉल पर रुककर चाय पियेंगे और थकान मिटा लेंगे। मैं गाड़ी चलाकर पुल के रास्ते नदी पार करके वृद्ध परिचित को उनके गंतव्य तक पहुँचा आऊँगा। यही किया गया, अब गाड़ी में रह गये तीन व्यक्ति। ड्राईविंग में बहुत एक्सपर्ट नहीं हूँ, आराम से गाड़ी चलाता हुआ पुल पार करके बताये गये पते वाली कालोनी में पहुँच गया हूँ। उम्मीद के खिलाफ़ भीड़भाड़ वाला इलाका है। दिल्ली साली दिल्ली नहीं रह गई है, हर नई कालोनी बिहार, बंगाल और बंगलादेश की कोई कालोनी लगती है। संभलकर गाड़ी चलाते हुये लगभग उस एड्रेस पर पहुँच गये हम। वृद्ध आदमी को घर तक पहुँचाये बिना लौट नहीं सकते, गाड़ी अंदर तक जा नहीं सकती, पार्किंग है नहीं। एक रेस्त्रां वाले से कुछ देर गाड़ी करने की पूछी, उम्मीद नहीं थी लेकिन उसने सड़क घेरकर रखी गई कुर्सी मेज इधर-उधर करके अपने रेस्त्रां के बाहर गाड़ी की जगह बना दी। मैं चकित रह गया, "कोई प्रोब्लम तो नहीं होगी न आपको?" 
"अरे नहीं सर, फ़ोर्मैलिटी के लिये अपनी इस बिल बुक में आपका नाम लिख देता हूँ। ज्यादा देर मत लगाईयेगा बस।"
लौटते-लौटते फ़िर भी आधा घंटा लग ही गया। इन कालोनियों की गलियाँ भी भूल भुलैया ही होती हैं, लौटते समय संयोगवश उसी रेस्त्रां वाली गली में ही लौटे। मेन दरवाजे तक जाने की बजाय हम साईड वाले दरवाजे से ही अंदर घुसे, सोचा कि भले आदमी का थैंक्यू तो करता जाऊँ। रास्ते में श्रीमती जी को को टैटू डिज़ाईन बनाने वाली दुकान दिखी तो वो अपनी फ़रमाईश करने लगी थी। और मेरा दिमाग हो जाता है इन बातों पर खराब, अक्ल तो घुटनों से ऊपर आएगी नहीं कभी। पहले जमाने में गोदना करवाने का प्रचलन था तो वो औरतों को पशु समझने की पुरुषों की चाल थी? और आज टैटू सबको करवाना है क्योंकि फ़िल्मों वाले भांड ये करवा रहे हैं? मेरी बड़बड़ और उनकी भुनभुन दोनों चालू थी। खैर, काऊंटर पर पहुँचे और भाई का धन्यवाद किया तो उसने आठ सौ कुछ रुपये का बिल थमा दिया। ढाई सौ रुपये प्रति व्यक्ति दो लोगों के खाने के, ढाई सौ रुपये पार्किंग और १५% सर्विस टैक्स। समझ आ गई बदमाशी, आसपास वाले भी सब इसी की सपोर्ट करेंगे। श्रीमती पर आ रहा गुस्सा सब उस लड़के पर उतर गया, "तेरी माँ का ...", खैर यहीं रुक गया। याद आया आज ही मदर्स डे था तो माँ की गाली नहीं देनी। "साले, ऐसे करोगे भलाई का ड्रामा? नाम बता क्या है तेरा, अभी तो तेरा बिल चुका कर जाऊँगा फ़िर इसे छोड़कर आता हूँ तेरी ऐसी तैसी करने।" लड़के ने पता नहीं क्या सोचकर सिर्फ़ सर्विस टैक्स वाले पैसे लिये। मुझे तो ये भी चुभ रहे थे, लॉजिक समझ नहीं आ रहा था कि जब सर्विस कोई नहीं तो सर्विस टैक्स किस बात का? ज्यादा नहीं सोचने का मैन। बह्त सी बातों का लॉजिक नहीं समझ आता, एक और सही। एक सौ बीस रुपये काऊंटर पर फ़ैंके और श्रीमती को लेकर बाहर आ गया।
बाहर आकर देखा तो गाड़ी गायब थी। उसकी जगह कोई पुराना सा स्कूटर खड़ा था। अब तक मुझे गुस्सा आ रहा था, अब पसीने छूट गये। अपनी गाड़ी होती तो फ़िर दूसरी बात थी, गाड़ी किसी परिचित की थी। उनके नुकसान का जिम्मेदार मैं? और वो वहाँ बैठे चाय फ़ूँक रहे होंगे..
मेरी आँख खुल गई। मोबाईल समय बता रहा है २.२७ pm. मतलब भोर का सपना तो नहीं ही था। कमरे में एसी चल रहा था लेकिन मुझे सच में पसीने आये हुये थे। सही समय पर नींद खुल गई, परिचित की गाड़ी बचने की बहुत खुशी हुई। सोच लिया कि अगली बार ऐसे सपने में गाड़ी अधिकृत पार्किंग में ही रखी जायेगी। ख्वाम्ख्वाह टें बुल जाती।
सात साल हो गये नेट चलाते हुये, कल पहली बार कोई फ़िल्म डाऊनलोड की। यही सोचा था कि आज यहीं सो जाता हूँ, नींद खुलेगी तो फ़िल्म की प्रोग्रैस चैक कर लूँगा। इतनी सी देर में ये सब ड्रामा हो गया। एक बार तो उसी समय सोचा कि लिख दूँ, सुबह तक शायद भूल ही न जाऊँ क्योंकि ऐसा कहते हैं कि हर इंसान सपने देखता है लेकिन ९०% भूल जाते हैं। विचित्र संसार है ये सपनों का भी, कुछ बातें जो हम सोचते रहते हैं वो सपनों में दिखती हैं और कुछ बातें जो हमने कभी सोची भी नहीं होती। टैटू वाली बात कल सोच रहा था और नेट पर कुछ पढ़ा भी था इस बारे में, बिना खाये बिल देने वाली बात एक बार ब्लॉग पर लिखी थी और एक बार बहुत पहले घर से चोरी एक रेस्त्रां में गया था तो आपबीती भी थी। मोदिया के बारे में तो खैर सोचते ही रहते हैं 
smile emoticon
 कोई कहता है कि सपनों का पेट से सीधा संबंध है, इसका मतलब कल पेट में क्या गया था ये भी याद करना पड़ेगा। बोत लफ़ड़े हैं भाई जिंदगी में।
फ़िर से मिट्टी के लोटे में भरा पानी पीकर संतुष्ट हुआ।

मंगलवार, फ़रवरी 23, 2016

अपराध

एक लड़का अनेक वर्ष से एकाधिक राज्यों में मोस्ट वांटेड अपराधी था। राजनैतिक और धार्मिक कारणों के चलते निवर्तमान मुख्यमंत्री को मारने की सुपारी उसी लड़के को दिये जाने की अफ़वाह फ़ैल गई। पत्रकारों ने मुख्यमंत्री से पूछा, "हमने सुना है कि आपकी हत्या की सुपारी .......... को दे दी गई है?" नेताजी भी अपने समय के दबंग ही थे, पलटकर बोले, "जाको राखे साईयां मार सकै न कोय" अगले दिन की अखबारों में पहले पन्ने पर मुख्यमंत्री जी का यह इंटरव्यू था। और उससे अगले दिन उसी अखबार में फ़्रंटपेज पर खबर थी -  ’पुलिस के साथ मुठभेड़ में कई वर्षों से फ़रार चल रहा कुख्यात अपराधी ..............  मारा गया’
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एक हाई सिक्योरिटी जेल से कुछ अपराधी सुरंग के रास्ते फ़रार हो गये। सुरक्षा एवं जाँच एजेंसियों के लिये यह जेल और वहाँ का स्टाफ़ प्रतिष्ठा का विषय था। लेकिन फ़रारी हुई है तो कोई तो भीतर का आदमी मिला हुआ होगा ही। जाँच कमेटी अपना काम करती रही, नये कैदी आते रहे और पुराने सजा काटकर जाते रहे। कुछ महीनों के बाद फ़िर से वही कारनामा दोहराया गया, सुरंग के रास्ते फ़रारी। लेकिन इस बार कोई जाँच कमेटी नहीं बनी, फ़रारी के अगले दिन रुटीन पूछताछ हुई और जेल  सुरक्षा में तैनात कुछ सेलेक्टेड कर्मियों को अलग निकाल लिया गया। पता चला कि जिन दो कैदियों को उन्होंने फ़रार होने में मदद की थी वो गुप्तचर विभाग के अधिकारी थे जो मामले की तह तक पहुँचने के लिये कैदी बनकर जेल पहुँचे थे।
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एक कुख्यात वन्य तस्कर व शिकारी कहीं दिल्ली में छुपा है। उस पर अधिकाँश मामले राजस्थान में चल रहे थे। जानकारी थी कि वो अखबार पढ़ने में रुचि रखता है। उंगलियों पर गिनी जा सकने वाले राजस्थान के समाचारपत्र नियमित रूप से दिल्ली में बिक्री के लिये आते थे। अलग-अलग टीमें बनाई गईं और रेकी की गई। छंटनी होते होते ऐसे एक पाठक पर शक गहराने लगा। एक बच्चा आया, उसने अखबार खरीदी और कमीज के अंदर खोंसकर चल दिया। उसके पीछे-पीछे सादी वर्दी में पुलिस। बच्चा पार्क में गया तो फ़ॉलो करने वाला उसके पीछे, किसी दुकान से लेकर बिस्कुट खा रहा है तो उसके पीछे। बच्चा मंदिर में गया तो बाहर खड़े होकर उसका इंतजार, बच्चा फ़िर किसी तरफ़ निकल गया तो उसके पीछे। दोपहर तक यही चलता रहा, गौर किया तो पाया कि अखबार बच्चे के पास नहीं है।
अगले दिन फ़िर वही रुटीन, इस बार मंदिर से आकर बच्चा चला तो किसीने उसका पीछा नहीं किया। पीछा हुआ उसका जो मंदिर में बच्चे द्वारा छोड़ी गई अखबार को उठाकर असली पाठक तक ले जा रहा था। अगले दिन अखबार में वर्षों से फ़रार चल रहे शिकारी और वन्य तस्कर की गिरफ़्तारी की खबर थी।
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पुलिस पार्टी भेष बदलकर तैयार है। आने जाने वालों/वालियों पर पैनी नजर है। इंतजार की ऐसी घड़ियाँ महबूबा के इंतजार की घड़ियों जैसी रुमानी नहीं होतीं। वहाँ ताजमहल बनाने और आसमान से तारे तोड़ लाने की BC करके बिगड़े काम बन जाते  हैं, यहाँ   एक error of judgement आपका कैरियर बिगाड़ भी सकता है और भूत बनने की संभाव्यता अलग। एकदम से चौकस निगाहों ने एक बुर्कानशीन को देखा और साथी को आँखों में इशारा ........................आप भी कहेंगे क्या साहब फ़िल्म गंगाजल का सीन बता रहे हो, हमने भी फ़िल्म देख रखी है। 
नहीं साहब, ये फ़िल्मी दृश्य नहीं बता रहा। राजधानी के एक भीड़ भरे बस स्टॉप पर जब एक सादी वर्दी में पुलिस वाले ने किसी के चेहरे से नकाब उलटा था तो सोच देखिये कि उस नकाब के नीचे ब्लैकमेलिंग के सबसे बड़े मामले के मुजरिम की जगह कोई मोहतरमा निकलती और नकाब उलटने वाले की जगह आप होते तो क्या होता?
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ये चंद उदाहरण हैं कि कैसे हमारे समाज के अपराधियों को पकड़ने में पुलिस और गुप्तचर एजेंसियाँ जी जान लगा देती हैं। सोचिये, एक छोटी सी चूक और सारी मेहनत खराब, एक झूठा इल्जाम और बरसों मुकदमेबाजी में खुद अभियुक्त बनकर जलालत झेलनी पड़ती होगी। मानवधिक्कार वाले अलग से दबाव बनाये रहते हैं।     प्रतिभा, निष्ठा की कोई कमी नहीं है, आवश्यकता होती है शासन की इच्छाशक्ति की।  सही और गलत हर विभाग में हैं, यहाँ भी होंगे। हो सके तो जो सही है उसकी प्रशंसा करें, गलत को बढ़ावा न दें।
वर्दी के दुरुपयोग की बातें तो अखबार वाले और चैनल वाले आपको बताते ही रहते हैं, आज सोचा कि कुछ अच्छा अच्छा मैं बता दूँ। विश्वास बेशक न करियेगा क्योंकि ये कहानियाँ अकल्पनीय ही लगती हैं, यहाँ तक कि इनमें से कुछ प्रकरण विकीपीडिया पर भी दूसरे तरीकों से अंकित हैं।

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2016

बसंत पंचमी - हकीकत

अपनी कुशाग्र बुद्धि, मेधा और संस्कारित व्यवहार के कारण जहाँ वह मदरसे के अपने सहपाठियों व शिक्षकों में लोकप्रिय था, वहीं हिन्दु होने के कारण बहुतों की आँखों में खटकता भी था। एक दिन उसके साथ पढ़ने वाले बच्चों ने हिन्दुओं की आराध्या ’दुर्गा’ के बारे में अपशब्द कहे और मजाक उड़ाया। उस बालक ने आपत्ति की तो मानना तो दूर रहा, उसे चिढ़ाने के लिये सब उन्हीं अपशब्दों को बार-बार  दोहराने लगे। उत्तेजित होकर उसने कहा, "ऐसी ही बातें अगर तुम्हारे पैगंबर की बेटी के बारे में कही जायें तो कैसा लगेगा?" उसके यह कहते ही ईस्लाम की तौहीन हो गई। मदरसे के उस्ताद तक बात पहुँची और वहाँ से इंसाफ़ की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई शहर काजी तक। एक काफ़िर के द्वारा पैगंबर की बेटी की तौहीन कैसे बर्दाश्त की जा सकती थी? विकल्प दो ही थे - गुनाहगार ईमान लाये और जिन्दा रहे या सिर कलम। जबरन मुसलमान बनने से उसने साफ़ इंकार कर दिया तो शरीयत के मुताबिक सबके सामने उसका सिर कलम कर दिया गया।
किसी न्यूज़ चैनल पर यह समाचार आपको नहीं दिखेगा, फ़िर मैं ये सब क्यों लिख रहा हूँ?
इसका उत्तर ये है कि जिस समय की यह बात है, उस समय यह भाँड चैनल नहीं हुआ करते थे।(अब ये मत पूछियेगा कि मालदा के समय ये चैनल थे तो इन्होंने क्या किया?) 
यह घटना लगभग १७४० ईस्वी की है। वीर बालक का नाम हकीकत राय था, घटना लाहौर की है।
आप सोच सकते हैं कि आज यह सब क्यों लिख रहा हूँ?
उत्तर ये है कि वीर बालक हकीकत राय का सिर कलम बसंत पंचमी के दिन ही किया गया था।
आप सोच सकते हैं कि ३०० साल पहले के जख्मों को कुरेदने की क्या जरूरत है?
उत्तर ये है कि रेत में मुँह गाड़ने से तूफ़ान आने बंद नहीं होते। आज भी देवी दुर्गा को अपमानजनक विशेषणों से पुकारने का काम खत्म नहीं हुआ, सरकारी ग्रांट पर पल रहे जे एन यू जैसे संस्थान के किसी छात्र से बात करके देखियेगा, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसे काम धड़ल्ले से चल रहे हैं। हममें से किसी ने पलटकर जवाब दिया तो असहिष्णुता, असुरक्षा, भय का माहौल हो जाता है।   मालदा, पूर्णिया, बिजनौर, इंदौर के भीड़ एकत्रीकरण और दंगों की थोड़ी सी तह में जाने की कोशिश करेंगे तो पता चल जायेगा कि दूसरे धर्म की तौहीन हो जाती है।  न पैटर्न बदला है और न नीयत, न उनकी और न हमारी। बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा करने की परंपरा रही है। मध्य प्रदेश के धार स्थित भोजशाला में सरस्वती पूजा की जाती थी, बसंत पंचमी कभी-कभी शुक्रवार को आ जाती है इसलिये पूजा पर रोक लग जाती है। हम सोच लेंगे कि वहाँ नहीं तो कहीं और कर लेंगे, भगवान तो कण-कण में व्याप्त है। दस-बीस साल बाद सिमटते सिमटते घर में करने लगेंते तो अगरबत्ती का धुँआ और फ़ूलों की खुशबू से भावनायें आहत होंगी। तूफ़ान आने बंद नहीं होंगे।
पिछले साल बसंत पंचमी के दिन फ़ेसबुक पर एक मित्र ने दुखी होते हुये कहा था कि वीर हकीकत राय को हमने भुला दिया। उनकी भावुकता से सहमत होते हुये भी मैंने कहा था, "न भूले हैं और न भूलने देंगे।" 
बसंत पंचमी के अवसर पर  बलिदानी वीर हकीकत राय को नमन।

शनिवार, जनवरी 23, 2016

करनी-भरनी

दीपावली के आसपास की बात है, बाजार में पूरी रौनक थी। दुकानें तो सजी ही थीं, फ़ुटपाथ पर भी सजावटी सामान, पोस्टर वगैरह वालों ने रौनक लगा रखी थी।  बैंक मुख्य सड़क पर ही था तो चहलपहल का अनुमान सहज ही लग जाता था। हमारा एक स्टाफ़ था बिल्कुल शोले फ़िल्म के हरिराम नाई के जैसा। जेलर साब मेरा मतलब मैनेजर साहब को एक-एक स्टाफ़ की गतिविधियों की जानकारी देता था, वो भी नमक-मिर्च लगाकर। स्टाफ़ बहुत था तो कोई न कोई गतिविधि चलती ही रहती थी, कोई दिन खाली नहीं जाता था जब शिकायत न होती हो, फ़िर लिखापढ़ी या वाद विवाद न होते हों। ऐसी स्थिति में आप फ़ँसे हों तो धीरे-धीरे आप का जुड़ाव या सहानुभूति भी किसी एक पक्ष के साथ हो जाती है, किसके साथ अंतरंगता महसूस करनी है ये आपकी अपनी सोच पर निर्भर करेगा। तो एक हमारा ग्रुप था जिसमें स्मार्ट लोग लगभग न के बराबर थे लेकिन जो भी थे वो विश्वासयोग्य और दूसरा ग्रुप स्मार्टों, स्मार्टरों और स्मार्टेस्टों से भरा हुआ था। संक्षेप में ये कि बड़ी हैप्पनिंग नौकरी चल रही थी। 
आपको बता रहा था अपने हरिराम नाई की,  किसी चौपाई का उदाहरण दूंगा तो मित्र लोग मुझ भले आदमी को कट्टर हिन्दू मान लेंगे, इसलिये एक फ़िल्मी गाना याद दिलाता हूँ ’चोरों को सारे नजर आते हैं चोर’  हरिराम चूँकि खुद हर समय चुगलखोरी के चक्कर में रहता था तो मैंने अनुभव किया कि जब भी कोई दो लोग आपस में बात करते हुये उसकी तरफ़ देख लेते थे, वो समझता था कि उसके खिलाफ़ साजिश की जा रही है। किसी न किसी बहाने से वहाँ चक्कर काटने लगता, एकदम खोजी कुत्ते की तरह। जब ये बात अपने ग्रुप के लोगों को बताई तो मजे लेने के अवसर एकदम से बढ़ गये। हम साधारण बातचीत करते हुये भी प्लानिंग से एकदम से उसकी तरफ़ देखते और पहले से भी धीमी आवाज में बातें करने लगते। हरिराम की त्यौरियाँ चढ़ जातीं, वहीं चक्कर काटने लगता और हम अब सच में हँसने लगते। ये लगभग प्रतिदिन का काम हो गया, हरिराम की नर्वसनेस बढ़ने लगी।
उन्हीं दीवाली के आसपास के दिनों की बात है, स्टाफ़ के एक परिचित बेरोजगार लड़के को बैंक के बाहर ही पटरी पर पोस्टर बिक्री के लिये उसी स्टाफ़ ने जेब से फ़ाईनांस कर दिया। अब बाकी काम के साथ यह भी सबका एक काम हो गया कि जब भी मौका मिले, जाकर देखते कि दुकानदारी कैसी चल रही है। एक साथी ने आकर कान में कुछ कहा और हमने हरिराम की तरफ़ देखा। अकेला होते ही हरिराम आया और मुझसे पूछने लगा कि फ़लाना क्या कह रहा था। मैंने झूठमूठ की टालमटोल की लेकिन वो बार-बार पूछता रहा। मैंने कहा, "वो बाहर पोस्टर वाली दुकान की बात कर रहा था।" उसको विश्वास इसलिये नहीं हो रहा था कि इसमें उसकी तरफ़ देखने की कोई बात नहीं थी। फ़िर वही सवाल, मैंने आवाज लगाई और बोला वो पोस्टर लेकर आ जिसके बारे में बता रहा था। पोस्टर आ गया साहब। पोस्टर का शीर्षक था ’करनी-भरनी’ और किस कर्म की क्या सजा भुगतनी होती है इसके चित्र बने हुये थे। हमने कहा कि इस पोस्टर की तारीफ़ कर रहे थे, इस बार दीवाली पर हम सब ये लेकर जायेंगे। कायदे से तो हरिराम की शंका मिट जानी चाहिये थी लेकिन असल में था क्या कि उस पोस्टर के केन्द्र में जो करनी-भरनी का चित्र था वो था चुगलखोरी का। अब साहब, चोरों को सारे नजर आने लगे चोर। हरिराम ने ’भाण...द मैं किसी से बात नहीं करता फ़िर भी सब मेरे पीछे पड़े रहते हैं’ ’एकाध मर जाओगा मेरे हाथ’ और हममें से कोई न कोई उसके हर उद्गार पर किसी न किसी चित्र पर हाथ रख देता। अच्छा हंगामा हुआ, जेलर साब तक शिकायत पहुँची। निकला बैंगण। किसी पर कोई चार्ज प्रूव नहीं हुआ और कई दिन तक ब्रांच में ये ड्रामा चलता रहा - ’अरे पानी पिला दे न तो देख्या था न करनी भरनी में?’   ’अरे सारा काम मुझ पर ही लाद दोगे, देख्या न था करनी-भरनी में?’   हरिराम उबलता रहता, भड़कता रहता लेकिन हम मारते थे पुलिसिया मार - दर्द हो लेकिन चोट न दिखे।
बहुत हँसी-मजाक करते थे हम। कोई सीनियर कभी कह भी देता था कि यार सीरियस भी रहा करो कभी। फ़ालतू की हँसी बाद में बहुत महंगी पड़ती है। हम लोग हाँ में हाँ मिला देते, "जी सर, करनी-भरनी यहीं है।" हम तो मजाक में ही कहते थे लेकिन बात सच्ची है, जो करते हैं वो हम भरते भी हैं। 
कल छोटे वाले बालक का आधार कार्ड देखा, पिता का नाम वाला कालम रिक्त स्थान। देखते ही ध्यान आया कि कुछ दिन पहले किसी को फ़ेसबुक पर कमेंट किया था कि कुछ प्रजातियाँ ऐसी हैं जो शायद सरकारी रिकार्ड में बाप का नाम डीएनए टेस्ट करवाने के बाद ही लिखते होंगे। हो गई न जी करनी-भरनी? इतने पर ही बस नहीं हो गई, आदतवश लौंडे से पूछ लिया कि डीएनए टेस्ट करवाने के बाद ही बापू का नाम लिखवायेगा? रूठ गया है लड़का, एक और करनी-भरनी। बड़ी मुश्किल से माना है जब उसके फ़ेवरेट अक्षय कुमार की एयरलिफ़्ट मूवी देखने के लिये गाँधी का हरा नोट दिया है। 
खैर, ये तो छोटी वाली करनी थी जो पाँच सौ में भरी गई,  और जाने कितनी ऐसी करनी हो चुकी होंगी जो पैसे रुपये में भरी भी न जायेंगी। खैर, झेलेंगे उन्हें भी। और रास्ता भी क्या है? .... देखी जायेगी।