"आपने सिगरेट पीना छोड़ा नहीं न अब तक? ये अच्छी चीज नहीं है, आपसे कितनी बार तो कह चुका हूँ।" कश्यप बोला।
"अरे यार, दिमाग खराब मत कर। है तो यहीं हापुड़ का और आप-आप कहकर बात करता है जैसे लखनऊ की पैदाइश हो तेरी। बराबर के दोस्त और फ़िर एक ही बेल्ट के बंदों से आप-जनाब वाली भाषा अपने से होती नहीं। फ़िर पैस्सिव स्मोकिंग से इतनी परेशानी है तो आने से पहले टेलीग्राम भेज दिया कर, हम कमरे से बाहर ही मिल लिया करेंगे। अब काम की बात बता, क्यों आया है?"
"नाराज हो जाते हो। पहले एक बात बताओ, मैं सिगरेट के लिये मना करता हूँ तो इसमें मेरा क्या फ़ायदा है? मैं तो दस बीस दिन में एक बार मिलता हूँ, अब तो वैसे भी...। छोड़ दोगे तो खुद का ही फ़ायदा होगा न?"
"हाँ यार, ये बात तो सही है।"
"गुड। अब बताता हूँ कि क्यों आया हूँ। मेरा सेलेक्शन स्टेट बैंक पी.ओ. में हो गया है। अगले ही सप्ताह ज्वायनिंग है लेकिन उन्होंने कहा है कि पिछले एम्प्लायर से सैटिस्फ़ैक्शन लेटर लेकर जाना होगा। ब्रांच मैनेजर कहता है कि अब फ़ँसा हूँ मैं उसके पंजे में, अभी पिछली बात भूला नहीं है।"
अब पिछली बात आप भला क्या जानें? लेकिन, मैं हूँ न। बस थोड़ा पीछे चलिये मेरे साथ। एक ही बैच के थे हम, फ़ाईनल पोस्टिंग अलग अलग जगह हुई थी। मैं प्रशासनिक कार्यालय में और वो एक ग्रामीण शाखा में। हम यारी दोस्ती में उलझ गये, उसका शुरू से ही सपना था कि प्रोबेशनरी ओफ़िसर बनना है। वो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में उलझा रहता था। न दोस्ती, न फ़ालतू की बातें और न फ़ालतू के शौक। ब्रांच में काम के मामले में अक्सर ब्रांच मैनेजर से उसकी कहासुनी हो जाती थी। उसका कहना था कि उसे दूसरी परीक्षायें पास करनी हैं तो काम का लोड न डाला जाये, ब्रांच मैनेजर का यह कहना होता था कि आप यहाँ तन्ख्वाह ले रहे हो तो काम करना ही पड़ेगा। हम प्रशासनिक कार्यालय में थे तो खबरें मिलती ही रहती थीं। ऐसे ही एक बार कुछ कहासुनी हुई तो भावुक होकर उसने सुसाईड करने की बात कह दी। घोटालों के अलावा भी दफ़्तरों में बहुत कुछ होता है, उनसे प्राय: पब्लिक अनभिज्ञ रहती है।
जिस दिन यह बात हुई थी, उस रात हमेशा की तरह उसके दूसरे दो साथी अपने कमरे में इंतजार कर रहे थे कि कश्यप आये और फ़िर वो लोग उस गाँव के एकमात्र भोजनालय में रात का खाना खाने जायें। वो नहीं आया तो उन्होंने सोचा कि शायद सो गया होगा, हम ही उसे आवाज लगा लेंगे। उसके रूम पर गये तो दरवाजा बाहर से बंद था हालाँकि ताला नहीं लगा था। कश्यप के मकान मालिक जो कि बाहर ही कुर्सी पर बैठे थे, उन्होंने बताया कि वो अभी अभी रेलवे लाईन की तरफ़ गया है। सुनते ही दोनों साथी रेलवे लाईन की तरफ़ भाग लिये। रेलवे स्टेशन के विपरीत दिशा में एकाध किलोमीटर दूर पटरी पर लेटे हुये कश्यप को वो दोनों लगभग घसीटते हुये, गालियाँ देते-खाते कमरे पर लाये।
इस बीच मकानमालिक साहब भी गाँव में ही किरायेदार के तौर पर रह रहे ब्रांच मैनेजर को बुला लाये थे। कमरे में मेज पर एक चिट्ठी रखी थी जिसमें ब्रांच मैनेजर साहब का स्तुतिगान कर रखा था। बताते हैं कि सबसे अजीब हालत उन्हीं साहब की थी, एक पल में शुक्र मनाते थे कि ये भी बच गया और वो भी बच गये और दूसरे ही पल इसको सबक सिखाने की बात करते थे। अगले दिन उनके प्रशासनिक कार्यालय पहुँचने से पहले ही फ़ोन पर सब किस्सा हम तक पहुँच गया था। उधर रात को ही फ़ोन पर कश्यप के दोस्तों ने उसकी माताजी को सूचना देकर हैड ओफ़िस पहुंचने के लिये कह दिया था। दिन भर खासी गहमागहमी रही और मामला कहीं दर्ज होने की बजाय सुसाईड नोट और फ़िर उसका एक काऊंटर माफ़ीनामा लिखवाकर और पंचों के हस्ताक्षर करवाकर सुरक्षित हाथों में सौंप दिया गया। दुनिया, देश, बैंक, ब्रांच और जिन्दगी फ़िर से डगर-मगर चलने लगे।
ये थी पिछली बहुत सी बातों में से फ़िलहाल मतलब की बात, ब्रांच मैनेजर साहब के पैर के नीचे अब कश्यपजी की पूँछ आ गई थी। विस्तार से पूछने पर पता चला कि ब्रांच मैनेजर साहब ने वैकल्पिक शर्त जो रखी है, वो है अपना पेंडिंग काम निबटाने की। पेंडिंग काम में अब एक कोई काम ऐसा था जिसमें कश्यप का हाथ तंग था। चांस की बात है, वो काम मुझे बहुत इंट्रेस्टिंग लगता था और मुझे मालूम था कि मैं वो काम तीन चार घंटे में निबटा भी सकता हूँ लेकिन मेरी पोस्टिंग अलग जगह थी, उसकी अलग जगह। जब हमने पूछा कि ब्रांच में किसी और की मदद ले ले तो वो कहने लगा कि अब कोई मदद नहीं करता। सबको मालूम है कि ये जाने वाला है तो फ़िर जिस मैनेजर के साथ अभी दो तीन साल काम करना है, इसके लिये उससे पंगा क्यों लिया जाये?
मजेदार समस्या थी। हैड ओफ़िस में होने के नाते हमसे उसकी अपेक्षा थी कि मैनेजर साहब को किसी उच्चाधिकारी से कहला सुनवाकर उसका काम हो जाये। दिल से मैं भी चाहता था कि उसका काम हो जाये लेकिन उसके मैनेजर साहब ने जो पेंडेंसी खत्म करने का विकल्प दे रखा था वो गलत भी नहीं लग रहा था। खैर, उसे विदा किया कि जा भाई अपनी गाड़ी पकड़ और अपना बैग बिस्तर बांधना शुरू कर, भली करेंगे राम।
उसे भेजकर फ़िर से फ़िक्र को धुंये में उड़ाया गया। बातों बातों में कश्यप ने बताया था कि अगले दिन उसके ब्रांच मैनेजर छुट्टी पर थे। एल्लो, निकल आया हल। हम मैनेजर नहीं हैं तो ना सही, छुट्टी तो हम भी ले सकते हैं। चार में से दो उस आईडिये से खुश थे और दो नाराज थे कि क्यो छुट्टी ली जाये? फ़िर उन्हें समझाया गया कि जहाँ तीस दिन की विदाऊट पे चल रही है, वहाँ इकतीस दिन की होने में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। सबको खुश करना वैसे भी मुश्किल है।
अगले दिन मैं और राजीव ग्यारह बजे कश्यप की ब्रांच में पहुँच गये। हमें देखकर वो हैरान हो गया और सिगरेट पीते देखकर हमेशा की तरह परेशान भी। मुश्किल से दो घंटे लगे होंगे हमें, उसकी सारी पेंडेंसी खत्म कर दी। बहुत खुश था वो उस दिन और हम भी। भावुक होकर बार बार कह रहा था, "मैं आप लोगों का कैसे धन्यवाद व्यक्त करूँ?" मैंने माहौल को हल्का करने के लिये कहा, "मेरे लिये एक सिगरेट मंगवाकर।" उस दिन उसने सिगरेट के दोष नहीं बताये, खुद भागकर गया और सिगरेट लेकर आया। बाहर जाकर हम लोगों ने एक साथ लंच किया, हमारी तरफ़ से फ़ेयरवैल ट्रीट। स्टेशन पर हमें गाड़ी तक छोड़ने आया। गाड़ी में अभी टाईम था, हम प्लेटफ़ार्म पर टहल रहे थे तो मुझे बहुत हँसी आई, जब फ़िर से मेरे लिये सिगरेट लेकर आया। हम लौट आये, कुछ दिन के बाद वो दूसरे बैंक में प्रोबेशनरी ओफ़िसर बनकर चला गया।
आसपास की शाखाओं में एक नया किस्सा प्रचलित हो गया कि हिन्दुस्तान में मजदूरी बहुत सस्ती है। लोग एक सिगरेट तक में बिक जाते हैं। हैड ओफ़िस में हमेशा की तरह ऐसी खबरें भी पहुंच जाती रहीं। लोग चटखारे ले लेकर हमसे पूछते थे कि क्या ये सच है और मैं और राजीव एक दूसरे को देखते थे और जोर से हँस देते थे। बाकायदा ऑफ़र आते थे कि फ़लाँ काम पेंडिंग है, आ जाओ किसी दिन। बहुत छेड़ा हम लोगों को जालिम लोगों ने।
हाँ, याद आया, आज पूरी बात ही पढ़ लो। शायद दो साल के बाद कश्यप की शादी में जाना हुआ था। तब तक हम सब इधर ट्रांसफ़र होकर आ चुके थे, एक तरह से उसकी शादी को हम उस दौर के बैचमेट्स का रि-यूनियन समझ लीजिये। उसकी शादी से ज्यादा क्रेज़ सबको एक दूसरे से मिलने का था। खाने-पीने का दौर चला, पिछली बातें निकलीं तो ये बात भी निकल आई। उस दिन पहली बार ऐसा हुआ कि ये एक सिगरेट में बिकने वाला किस्सा उस समय दुहराया गया जब दोनों पक्ष मौजूद थे। किस्सा कहने के बाद जब सच्चाई पूछी गई तो मैं और राजीव फ़िर से एक दूसरे को देखकर जोर से हँस दिये। कश्यप जरूर जोर से बोला, "बकवास है सब।" हम जानते थे कि वो ज्यादा घुमाफ़िराकर बातें नहीं करता, मजाक भी नहीं समझता, टु द प्वाईंट रहने वाला आदमी है। और कोई मौका होता तो हम भी सबके साथ मिलकर उसे खींचते लेकिन उस समय तो उसी की शादी में गये हुये थे इसलिये उसे शांत रहने की कहने लगे।
वो बोला, "बकवास है ये एक सिगरेट में बिकने वाली बात और आप भी खंडन नहीं करते। आप से ऐसी आशा नहीं थी। चुप रहना भी झूठ को बढ़ावा देना है। दो सिगरेट पिलाईं थी आपको, स्टेशन वाली क्यों भूलते हैं आप?"
राजीव और मैंने दोनों ने एक साथ कहा, "हाँ यार, ये बात तो सही है।"
क्या कहते हैं आप? गाड्डी पटरी पे ही है न अब :)
(पात्रों के नाम बदले गये हैं)
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पिछले दिनों एक सामूहिक ब्लॉग पर कुछ असहमतियाँ हुई थीं। फ़िर पता चला कि हम लोगों ने फ़र्जी ईमेल आई.डी. और ब्लॉग वगैरह बना रखे हैं ताकि दूसरों को गालियाँ दी जा सकें। अलग से पोस्ट लिखकर या जवाब देने की बजाय यही कहना सही लगता है कि "हाँ यार, ये बात तो सही है।" :)
आजकल ऐसे मतलबी दोस्त कई मिल जाते है, जो काम करवाने के लिये सब कुछ करने को तैयार रहते है बाद भी बीच सडक पर पहचानते भी नहीं। शुक्र रहा कि आपके दोस्त उनमें से नहीं निकले,
जवाब देंहटाएंरही पिछले कुछ दिनों की बात दोगले लोग अपनी हरकतों से बाज नहीं आते जब तक उनकी ठीक से मरम्मत ना हो जाये।
वैसे सही कहा सिगरेट एक कहाँ दो थी। हा हा हा हा
दोस्त अपने को वाकई बहुत बढ़िया मिले हैं संदीप।
हटाएंजब ठेकेदार ही उद्घाटित करे कि एक नही दो थी तो मुकादम को स्वीकार कर ही लेना चाहिए....."हाँ, ये बात भी सही है।"
जवाब देंहटाएंहम तो मान ही जाते हैं सुज्ञ जी, मनाने वाला चाहिये:)
हटाएंहाँ तो फिर और क्या ?? जब फैसला हो ही गया है - तो मान ही लें की "ये बात तो सही है" :)
हटाएंसफाई देने से क्या लाभ ? :)
एक दोस्त ही दोस्त के काम आता है ... अब भले ही उसके पीछे एक - दो सिगरेट का लालच ही क्यूँ न हो ... ;-)
जवाब देंहटाएंनानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाने सरबत दा भला - ब्लॉग बुलेटिन "आज गुरु नानक देव जी का प्रकाश पर्व और कार्तिक पूर्णिमा है , आप सब को मेरी और पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से गुरुपर्व की और कार्तिक पूर्णिमा की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और मंगलकामनाएँ !”आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
हटाएंधन्यवाद शिवम जी, आपको भी मंगलकामनायें।
संजय बाउजी... आज फिर ये कमबख्त एपिसोड टकरा गया.. फर्क यह है कि आपने अपने बैंक वाले के लिए मदद में जाकर काम किया और मैंने स्टेट बैंक वाले के लिए.. आपने छुट्टी लेकर और मैंने ऑफिस के बाद देर रात तक बैठकर.. आपने दो सिगरेट के बदले, मैंने "सिर्फ" दोस्ती में.. आप सिगरेट में बिके हम दिल से लाचार होकर.. आपके दोस्त ने याद रखा, मेरा भूल गया... कुछ सालों के बाद मिला तो पहचाना नहीं.. हम भी ठहरे मस्त मौला.. सिगरेट नहीं पीता मगर धुंए में उडाता चला गया!!
जवाब देंहटाएंऔर हाँ.. आख़िरी वाला पुनश्च टाइप का नोट समझ में नहीं आया, सो उसपर चुप्पी स्वीकारें!!
हटाएंअरे भाई साहब, ये एपिसोड टकराते रहते हैं तो नई पुरानी बातें याद आती रहती हैं।
जो न समझ आया, उसका न समझ आना ही बेह्तर। ये पुनश्च उन्हीं के समझने के लिये है।
सही कहा आपने संजय जी, "हाँ यार, ये बात तो सही है।" :)
जवाब देंहटाएंशायद थोड़ा विषय से परे जा रहा हूँ लेकिन, सिगरेट होती बड़े 'काम' की चीज़ है और सिगरेट वाली दोस्ती तो... क्या कहने... मेरा तो यही अनुभव रहा हैकि सिगरेट भले ही सेहत पे बुरा असर डालती हो, लेकिन अटके काम भी जल्दी निकलवा देती है... अधिकांशतः.
जहाँ तक बात है गालियों की तो मैने देखा हैकि गालियाँ कमजोर, बेचारे और निरीह लोगों का सहारा होतीं हैं और उनका पहला और अंतिम हथियार भी. गाँव में दो लोगों के बीच मार-पीट हो गयी... मजबूत ने पकड़ के धो दिया कमजोर को और कमजोर... गाली देता रहा... देता रहा... बहुत देर बाद कोई बोला कि वो तो तुमको तो पीट के चला गया, अब क्या और किसको गाली दे रहे हो? बंदे ने बड़ी हीं मासूमियत पर रोनी सी आवाज़ मे कहा-- ऊ हमके मरलस तो हम ओके गरियहूं से गईंनी..
बाकी, "हाँ यार, ये बात तो सही है।" :)
ललित, बातें तो आपकी भी सही ही है:)
हटाएंWaise to kahte hain,seekh na deeje wanara.....!
जवाब देंहटाएं:)
हटाएंअपनी तो गई भैंस पानी में.. मतलब काला अक्षर भैंस बराबर है अपने लिए और जो भैंस इतनी मेहनत से यहाँ जमाई थी वो गयी स्पैम के पानी में!! :(
जवाब देंहटाएंइस भैंस की चिंता मत करो जी आप, ये पानी में जाने से नहीं मानने वाली और हम इस निकालने से नहीं मानने वाले।
हटाएं- हाँ तो ? बात तो सही है न ? आप नहीं जानते कि आपकी फर्जी आई डी है ? एल्लो - अब यह भी चर्चाकारों को बताना पड़ेगा आपको ? :)
जवाब देंहटाएंवैसे पोस्ट पढ़ कर कह नहीं पा रही क्या कहूं ... इतनी सारी अलग अलग बातें हैं इस पोस्ट में - और एंड में आकर आपने पूरी बात ही बदल दी - तो पोस्ट पर टिप करने लायक ही न रहा मन ...
जब हमें कोई चीज नहीं मालूम तो निस्वार्थ भाव से काम करने वाले ही तो बतायेंगे, कौन सा अहसान करेंगे? :)
हटाएंतो और क्या फिर ??
हटाएंफिर वे ठहरे "निस्वार्थ" , आप ठहरे "कुटिल" :) :) उन्होंने आपको इतनी महत्वपूर्ण बात बताई कि आपकी फर्जी आयडी हैं - और आप इतने कुटिल निकले कि आपने उनका आभार भी नहीं किया ? :)
बढ़िया प्रस्तुति के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद श्रीवास्तव जी।
हटाएंये बात तो सही है,,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया साकेत, लंबे समय के बाद देखकर बहुत अच्छा लगा।
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जवाब देंहटाएंअजी आपके सुसाटों का क्या मुकाबला? लोकहित में, जनहित में एक कोचिंग इंस्टीच्यूट ही काहे नहीं खोल लेतीं आप? हाँ नहीं तो..!!
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हटाएंiska chinta aap kyon karen......bare nahi to chote sahi.....
हटाएंpranam.
swapna ji - enrollment form kidhar koo uplabdh hai ji ? :) ham ban jaate hain ishtudent :)
हटाएंपहिला इश्टूडेंट और हम? हम तो न बनें कभी।
हटाएंहम तो सामने टक्कर पे खोलेंगे अपना इंस्टीच्यूट जिसमें बार बार जिन्दगी जीने के गुर सिखाये जायेंगे और वो भी बाजार से सस्ती दरों पर, हाँ नहीं तो..!! :)
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हटाएं"kutil" hain ji - poore "kutil khal" hain :)
हटाएंप्रस्तावक तो थे ही, अब समर्थन भी हो गया और अनुमोदन भी हो गया, अब हमें क्या मात्र वोट ही डालना है :)
हटाएंbas maje le kar padhte rahe lekin ab yahi kahungi aisi dosti ke kya kahne..
जवाब देंहटाएंदोस्ती खट्टे मीठे किस्सों से गुलजार रहती है, शुक्रिया कविता जी।
हटाएंअच्छा है। रोचक रहा मामला एक सिगरेट में बिकने का।
जवाब देंहटाएंफ़र्जी ब्लॉग, टिप्पणी वाला मामला किधर हुआ जी?
क्यूँ हमारे 2G का 1G कर रहे हैं महाराज? दो सिगरेट में बिके थे हम न कि एक में।
हटाएंदूसरा मामला छ्ड्डो जी, बुरा मत देखो, बुरा मत पढ़ो:)
यहाँ भावनाओं का बाजार बड़ा ही अस्थिर है, थोड़ी सी मुस्कान में सब बिक जाता है।
जवाब देंहटाएंभावनाओं की ही तो असली बात है प्रवीण जी।
हटाएंचलिए अब कहेंगे कि दो सिगरेट में बिक गए। बहुत अच्छा संस्मरण।
जवाब देंहटाएंदो सिगरेट का रेट ठीक है:)
हटाएंदुनिया में क्या विषैले लोग कम हैं जो इस आभासी दुनिया में भी इनको यही काम है छोडो इन पर ध्यान देना अपने आप बंद हो जायेंगें
जवाब देंहटाएंक्या करें मनु भाई, अपना ध्यान ही पहले इधर जाता है:)
हटाएंbara idhar-udhar bhagaya aapne ......... balak kankh gaya.......aisi baton ko saath rakha jai par dhuyen me urakar....
जवाब देंहटाएंhamesha ke tarah lajwaw......
aur gaddi patri pe hi hai....
फ़र्जी ब्लॉग, टिप्पणी वाला मामला किधर हुआ जी? ....... ye hamme bhi yaad nahi...aap bhi bhool hi jayen......badde logon ki baten hain chote log kya kha-pikar yaad rakhenge....
ant me ek vyktigat appeel.......profile photu pichle wala kar den..bindas bande ka gentle(ab ka) photu janch nai raha......
pranam.
इधर उधर भगाया लेकिन अंत में तो बिल में सीधे ही लेकर गये न? इस एपीसोड का यही चार्म लगा मुझे, अंत एकदम ट्विस्टिंग।
हटाएंअरे राज्जा, अपने छुटपन में ही मस्त हैं। बरोबर बोले एकदम, ऐसी बातें भुलाना सही।
व्यक्तिगत अपील - सिर माथे पर:)
सारी बातें सही है ..........:)
जवाब देंहटाएंअपनी बातें सही ही होती हैं, पता बाद में चलती हैं बस्स :)
हटाएंसिगरेट वाली बात पर एक बात याद आयी, यूपी रोडवेज के बस से उत्तराखंड जा रहा था, तब मैं एक स्टूडेंट था ! बस खचाखच भरी थी, मै ड्राइवर के बगल में बोनट से सैट कर खड़ा था हाथ का बैंग मैंने बोनट पर रखा तो ड्राइवर साहब कड़ककर बोले, इस इ यहाँ मत रखो ! बोनट पर सामान रखना और बैठना एलाऊ नहीं है ! रूडकी के आस-पास एक सज्जन चढ़े। और आगे ड्राइवर की सीट के पीछे खड़े हो गए, कुछ दरेर बाद ड्राइवर से बातों में मशगूल हो गए क्योंकि भाषा के हिसाब से दोनों पश्चमी उत्तर प्रदेश के ही लग रहे थे। उस सज्जन से दो सिगरेट सुलगाई, एक ड्राइवर को पकड़ाई और एक खुद पीने लगे। ड्राइवर ने इशारे से उन्हें अपने बगल से बोनट पर बैठने को कहा और वे बैठ गए। मैं बस यही सोच रहा था कि यह ड्राइवर जो अभी कुछ देर पहले कायदे क़ानून की बात कर रहा था, एक सिगरेट में ही फिसल गया।
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हटाएंकायदा कानून सबके लिये एक सा थोड़े ही होता है:)
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हटाएंओह!! तभी तो कहूँ बहुतेरे रॉकेट अपने लक्ष्य पर न जाकर समुद्र मेँ क्यो गरकाव होते थे, चचा नाव मेँ बैठ कर हुक्का जो दिखाते थे :)
हटाएंऐसा हमने भी कई बार किया है ट्रेन में, तब जब कि स्मोकिंग परमिटेड था.
हटाएंडेली पासिंजर तो हमारे हियाँ 'अपने बाप की' गाड़ी होती थी. बारात जाने के टाइम, आने के टाइम और बेटी के बिदाई के टाइम, गाड़ी का कम-स-कम घंटे भर रुकना तय था. स्टेशन मास्टर साहब अपने, डरईबर साब अपने, गारड साब अपने तो... गडिया रुकी काहें ना... अब ऊ अपने बीड़ी-सिगरेट से होते थे कि कैसे, ई हमें ना पता जी...बहुत नही, फिर भी बच्चे थे जी हम
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हटाएंमेट्रो रेल वाले अपना प्रोजैक्ट इसीलिये तो बिहार झारखंड से शुरू नहीं किये, पता चलता कि सारी फ़ॉरेन टैक्नोलोजी कटहल-कोबी, बीड़ी-सिगरेट, हुक्का-तंबाकू की भेंट चढ़ गई :(
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हटाएंमेट्रो खाली दिल्ली, कलकत्ता अउर बंगलोर में है... मदरास में अभी ई दूर की कौड़ी है बाकिर होवे के तो ई हर जगह चाही, का सासाराम और का नागपट्टनम...
हटाएंवही तो हमने भी कहा कि जहाँ कोबी-कटहल का कोई लेना देना नहीं, शुरुआत वहीं से हुई:)
हटाएंएक बीड़ी दिखा कर ट्रेन रोकने का सुख तुम क्या जानो रमेश, आई मीन सुरेश, आई मीन संज ....:):)
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वो ज्यादा घुमाफ़िराकर बातें नहीं करता, मजाक भी नहीं समझता, टु द प्वाईंट रहने वाला आदमी है।
और उसने प्वायंट क्लीयर कर ही दिया... :)
...
और क्या, प्रूव कर दिया कि हमारा रेट प्रचलित रेट से डबल है:)
हटाएंबात सही है जी. :P
जवाब देंहटाएंथैंक्यू जी:)
हटाएंअब क्या कमेन्ट करूँ? अच्छा फर्जी आई डी किसने किसने बनायी ?
जवाब देंहटाएंजवाब कौन देगा? :)
हटाएंअरे, बस हुकुम दीजिए संजय जी, जवाब हम दिए देते हैं... :)
हटाएंशांत गदाधारी भीम, शांत, बहुत मौके आयेंगे अभी :)
हटाएंफरजंदों को इतना तो बताना था कि फर्जी में भी फर्ज़ छिपा है
जवाब देंहटाएंप्यादे से फर्जी भयो टेढ़ों टेढ़ों जाय ... (~अब्दुर्रहीम खानखाना)
खानखाना ने कह्यो है तो ठीक ही हैगो फ़िर तो..
हटाएंवैसे यह जो "दो सिगरेट" में बिकने वाली बात है - एक कहानी याद आ गयी हमें । तो झेलिये अब - इत्ती बड़ी पोस्ट झेलते हैं हम आपकी :) आप इत्ती बड़ी टिपण्णी झेलिये :)
जवाब देंहटाएंएक बार सत्यभामा जी कृष्ण को सोने से तौलने का प्रयास कर रही थीं , और वे थीं भी तो बड़ी धनवान । तो बैठ गये कान्हा जी तराजू के पलड़े में -और दूजे में सत्यभामा जी ने सोना रखना शुर किया ।
सोना ख़त्म हो गया - पर कृष्ण का पलड़ा कैसे नीचे हो ? फिर रुक्मिणी जी ने बहन की सहायता की - कि तुम एक तुलसीदल ,प्रेम से उनका नाम लेकर, इस पलड़े में रख दो ।
बस । वह प्रेममय तुलसीदल रखा - तो तराजू झुक गया ।
तो जी - आप दो सिगरेट ही में बिके थे ? या मित्र के प्रेम का तुलसीदल था उस पलड़े में ? :)))
विद प्लैज़र झेलेंगे जी, अहोभाग्य हमारे।
हटाएंकान्हा जी के बारे में एक अच्छी सी बात अपने बताई तो एक अच्छी सी बात हम भी याद दिलाते हैं। हस्तिनापुर आये थे तो दुर्योधन के राजसी व्यंजन जीमने की जगह विदुरजी के घर के रूखे सूखे को ज्यादा तरजीह दी थी। प्रेम और भाव ही ज्यादा महत्व रखते हैं भगवान के लिये।
बाकी हमारा क्या है, हम तो अब एक-दो पान में बिकने वाले ही ठहरे :)
ab eee hui na kauno baat -
हटाएंvaise, aap n paan me bikenge, na cigarette me - aap to mitr prem me sab karenge - aur jab vahi kahenge ki bik gaye - to aap kahenge - haan - baat to sahi hai ....
haan nahi to ....
shilpa
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जवाब देंहटाएंसंजय जी पहले तो बहुत ही बढ़िया कहानी के लिए बधाई स्वीकार करें... हमेशा की तरह रोचकता लिए हुए.
जवाब देंहटाएंये ब्लॉग जगत में बड़ी राजनीती हो रही नहीं हैं, अपने को कोई खबर ही नहीं रहती, क्या चुनाव उनाव आने वाले हैं, कि लोगों ने फर्जी आईडी बना लिए हैं. कुछ तो बताओ साहब, सार्वजानिक मंच पर न सही ऑफ़ द रिकॉर्ड बता दीजिये. मेरा ईमेल पता और फ़ोन नंबर सब उपलब्ध है आपके पास...
आप मुझे सब बतायेंगे तो 4 सिगरेट पिलाऊंगा पक्का वादा रहा... :)
भाई, कहानी नहीं सच्ची घटना है। अपने साथ ट्रैजेडी ये है कि कभी कोई कहानी सी सोचकर लिखी तो यारे-प्यारे मुझ पर घटी घटना बता कर मजे लेत हैं और सच्ची घटना थोड़ी सी मिर्च-मसाला लगाकर लिख दी तो कहानी बताकर मजे लेते हैं:(
हटाएंऑन-द-रिकार्ड या ऑफ़-द-रिकार्ड वाली कोई बात नही, आप के मतलब का मामला ही नहीं। आप यूँ भी सार्थक काम करने वाले बंदे हैं, क्षुद्र बातों में आपको क्या उलझाना? वो तो हमने भी इसलिये लिख दिया था कि जख्म खुले रहें :)
कदरदानी के लिये शुक्रिया, आंकड़ा ४ तक तो पहुँचा:)
हा हा हा ...मतलब दो सिगरेट में बिके थे , खाली फ़ोकट ही रेट घटा रखी थी !!
जवाब देंहटाएंवैधानिक चेतावनी के साथ सावधान करना चाहते थे मगर याद आ गया कि इसे पीने वाले अच्छी खासी सेहत के साथ उम्रदराज़ भी हुए हैं , बिना कुछ खाए पिए जाने कितने बीमार भी :)
सही है, सेफ़ गेम:)
हटाएंwah wah :)
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंBahut khoob !
जवाब देंहटाएंaapne bataya nahee jo mazaa ek sigret par bikne me hai vo do sigret me nahee........:)
missing Fattu .
सही बिके
जवाब देंहटाएं