(चित्र गूगल से साभार)
"सबके सामने कमिश्नर साहब ने मुझे इतना डाँटा, सिर्फ़ आपकी लापरवाही के कारण। फ़ाईलों का गट्ठर साथ रख लिया लेकिन उन्होंने मौके पर जो रिपोर्ट माँगी, वही साथ लेकर नहीं गये।"
बड़े बाबू ने मिमियाते हुये कहा, "साहब, मीटिंग की तैयारियों का जायजा लेते हुये आपने ही कहा था कि ये सब फ़ालतू की रद्दी यहीं रख दो। मैंने तो कहा भी था कि कमिश्नर साहब मीटिंग के अजेंडे से बाहर भी कुछ पूछ सकते हैं। आपने ही कहा था कि मीटिंग है कोई इंटरव्यू.."
"चुप रहिये आप। मैं कह दूँ कि कल से दफ़्तर आना बंद कर दीजिये तो ऐसे ही मान लेंगे न आप? रिटायरमेंट सिर पर खड़ी है और सरकारी कामकाज का शऊर नहीं आया। पहली बार इस तरह भरी मीटिंग में मेरी बेइज्जती हुई है। अरे हाँ, आपकी सेवा-विस्तार वाली फ़ाईल कई दिन से संस्तुति के लिये पेंडिंग रखी है न? आज निबटाता हूँ उसे, जाईये आप अपनी सीट पर।" कई दिन से पेंडिंग रखी फ़ाईल पर साहब नोट लिखने लगे, ’कार्य भार में निरंतर बढ़ोतरी के चलते विभाग को ऊर्जावान कर्मचारियों की महती आवश्यकता है..’
शादी की उम्र पार करती लड़की का चेहरा, पढ़-लिखकर भी बेरोजगार दोनों लड़कों के चेहरे, टी.बी. की मरीज बीबी का चेहरा सब एक दूसरे में गड्डमगड्ड होकर सवालिया निशान बनाते हुये बड़े बाबू की आँखों के सामने चमकने लगे। दो साल का एक्सटेंशन मिल जाता तो शायद..। लेकिन नहीं, बड़े बाबू के पहले से झुके कंधे थोड़े और झुक गये। फ़ाईलों में लिखा सब धुँधलाता सा दिखने लगा था।
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"बड़े बाबू, मेरी छुट्टी के आवेदन का क्या हुआ? कुछ नाजायज तो नहीं माँगा मैंने, अपने हक की छुट्टी ही लेना चाहता हूँ। साहब से बात करके हाँ करवाओ ताकि रिजर्वेशन करवा सकूँ, परिवार के साथ गाँव जाना है। और कहे देता हूँ कल तक मेरा फ़ैसला न करवाया तो मैं कमीशन में उत्पीड़न की शिकायत कर दूँगा, फ़िर मत कहना।" छोटे बाबू बमक रहे थे।
"हाँ भैया, करवाता हूँ तुम्हारा जुगाड़ कल तक। रिज़र्वेशन की परेशानी, हम्म्म्म। उत्पीड़न तो खैर तुम्हारा मैं गरीब क्या कर सकता हूँ, सेवा-नियम जैसा निर्देशित करेंगे, वही होगा।" छोटे बाबू की छुट्टी वाले आवेदन पत्र पर बड़े बाबू नोट लिखने लगे - ’आगामी माह में संभावित बाढ़ के मद्देनजर विभाग का कार्य बहुत अधिक होगा..’
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"छोटे बाबू, पगार पर ले लेना लेकिन अभी एक हजार रुपया दे दो। बच्चे की ट्यूशन की फ़ीस देनी है। सरकारी स्कूल में फ़ीस कम है तो बिना ट्यूशन पढ़े गुजारा नहीं।" विभाग का चपड़ासी छोटे बाबू की तरफ़ अपेक्षा की नजर से देख रहा है।"
पीढ़ियों के शोषण की भड़ास छोटे बाबू ने चपड़ासी पर निकाली, "तेरे खेत गिरवी रख रहा हैं न मेरे पास कि हजार रुपया दे दूँ? ट्यूशन पढ़ाकर डी.एम. कलैक्टर बनायेगा अपने बच्चे को, घर नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने। पिछले पैसे कैसे निकाले हैं, मैं जानता हूँ और अब तुझे और पैसे चाहियें। न मिली होती सरकारी नौकरी तो दिहाड़ी कर रहा होता कहीं, वो भी एक दिन मिलती और दो दिन नागा। साहब बहादुर को हजार रुपये चाहियें, शक्ल देखी है अपनी?"
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चपड़ासी शाम को घर पहुँचा तो बीबी ने पैसों के इंतजाम के बारे में पूछा और बदले में अपने मायके वालों के द्वारा दहेज में रियासतें दिये जाने के, खुद के बारे में पैसे न संभाल सकने के ताने सुने और बोनस में गालियाँ खाईं।
ये सब देखकर सहमे हुये बच्चे ने जब अपनी माँ से कहा, "माँ, मेरी ट्यूशन की फ़ीस...." तो उसकी बात बीच में कट गई। माँ ने अपने मायके और ससुराल वालों की गरीबी का गुस्सा उस मासूम के गाल पर चाँटा लगाकर जाहिर किया। "कल से सब जने अपनी रोटी, कपड़े का काम खुद करेंगे" की जोरदार आवाज के बीच बच्चे की सहमी सी आवाज कि उसकी ट्यूशन की फ़ीस की चिंता न करें, गहरे में कहीं दब गई।
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अभी भोर नहीं हुई थी, बच्चे ने अपनी बाँह माँ की गरदन में डाल दी। अचकचाई सी माँ ने आँखें खोलकर देखा तो बच्चा डबडबाई आँखों से उसे देखता हुआ बोला, "माँ, मुझे ट्यूशन नहीं पढ़नी। मैं और मेहनत करूँगा और तुम देखना पहले से भी अच्छे से पढ़ाई करूँगा।" माँ ने बेटे को जोर से अपने कलेजे से भींच लिया लेकिन सिर्फ़ एक पल के लिये, अगले पल वो पिछली रात के अपना काम सब खुद करेंगे वाली बात को भूलकर रोज की अपनी बिना वेतन वाली ड्यूटी में जुट गई।
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अगले दिन शाम होते होते बड़े बाबू की फ़ाईल में साहब की फ़ाईनल नोटिंग कुछ इस तरह थी - ’कार्य भार में निरंतर बढ़ोतरी के चलते विभाग को ऊर्जावान कर्मचारियों की महती आवश्यकता है, इसे ध्यान में रखते हुये श्री ................., पदनाम ...........’ को दो वर्ष का सेवा-विस्तार दिया जाना हर प्रकार से उचित है। सेवा-विस्तार संस्तुतित।’
बड़े बाबू की फ़ाईल तो खैर मैंने देखी ही थी। मुझे लगता है कि छोटे बाबू की छुट्टियाँ भी मंजूर हो गई होंगी, चपड़ासी को छोटे बाबू से पैसे भी उधार मिल गये होंगे, बच्चा भी ढंग से पढ़ाई कर पाया होगा। आपका क्या ख्याल है? ऐसा होता है या हो सकता है कि नहीं? विचार\भावनायें\आस्थायें ऐसे ही दूसरों के विचारों या भावनाओं को प्रभावित करते हैं, असर बढ़ता जाता है फ़िर किसी एक बिंदु से टकराकर उनकी दिशा बदलती है और फ़िर से वही प्रक्रिया शुरू हो जाती है। और ये नाटक यूँ ही बस चलता रहता है।
... हमारे यहां कहा जाता है कि गृहणी को खाना बनाते समय सद्विचार रखने चाहिए क्योंकि इनका संचार भोजन के द्वारा उसे ग्रहण करने वालों में होता है. Positive aura बस यूं ही पढ़ने लिखने की ही बात भर नहीं है....
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल होता है, यही ख्याल है जी
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट की आखिरी पंक्ति में लिखे विचार/भावनायें/आस्थायें हमारे विचारों को प्रभावित करेंगी और टिप्पणियां गिन लेना धनात्मक ज्यादा होंगी।
मेरा मानना है कि हर क्रिया से एक लहर/वाईब्रेशन निकलती है और एक-दूसरे को प्रभावित करती जाती है।
प्रणाम
ये अकहानी ऐसे ही नहीं बन गई होगी ...विचार /भावनाएँ/आस्थाएँ कहीं से प्रभावित हुई होंगी,असर बढ़ा होगा,किसी बिंदू से टकरा कर दिशा बदली और प्रक्रिया शुरू....
जवाब देंहटाएंसच कह रहे हैं - यही होता रहा है, हो रहा है, होता रहेगा ....
जवाब देंहटाएंऔर बच्चे अपना बदला कब निकालेंगे ? जब माता पिता बूढ़े और वे कमाऊ हो जायेंगे ...
और नीचे मातहत बदला कब निकालेंगे - जब नए रुल आयेंगे उत्पीडन के ... :(
thanks god that "किसी बिंदू से टकरा कर दिशा बदली और प्रक्रिया शुरू...."
यह कैसे अकहानी है -पूरी यथार्थ और मौलिक कथा है और प्रेक्षण जनित एक विचार प्रक्रिया की देन है-हमारे सभी के साथ हर दिन यही सब हो रहा है -कर भला सो हो भला का सिद्धांत कभी कभी बहुत अपील करता है मगर सरकारी सिस्टम में हरामखोरों की भी कमी नहीं है !
जवाब देंहटाएंएक बार एस . पी. नाराज़ हुआ ए. एस . पी.पर वह नाराज़ हो गया , एस .डी. ओ.पी.पर, इसने झापड़ जड़ दिया थानेदार को . थानेदार ने मारा लट्ठ हवालदार को. हवालदार पिल पड़ा रिक्सावाला पर .उसने तन दी लात घरवाली को बच्चा भूखे पेट स्कुल से लौटा था बेचारे को मर पड़ गई अम्मा से . यह सब स्थानातरण की क्रिया बन जाती है . ऐसा प्रतीत होता है.
जवाब देंहटाएंकभी कहीं पढ़ा था। कुछ ऐसा था...भले आदमी की पहचान करनी हो तो यह मत देखो कि वह आपके साथ कैसा व्यवहार करता है, यह देखो कि वह अपने से कमजोर के साथ कैसा व्यवहार करता है!.. इस अकहानी जैसे समाज की चेन कोई भला आदमी ही तोड़ सकता है।
जवाब देंहटाएंफलैश् बैक में बैक , पीढी दर पीढी का शोषण
जवाब देंहटाएंक्योंकि सास भी कभी बहु थी , ये सब जो आपने लिखा है रोज होता है सबके साथ होता है किसी ना किसी रूप में । हद तो ये हो गयी है कि आपने इसे ऐसे शब्दो में उतारा है कि फिल्म सी चलने लगी दिमाग में
पंडित जी की अंतिम पंक्ति को मेरी प्रारंभिक पंक्ति मानते हुए मुझे खुशी है कि मैंने वो सरकारी 'गज़टेड अफसर' वाली नौकरी सिर्फ इसलिए छोड़ दी थी कि मुझसे किसी ने कह दिया था कि इसमें बहुत पैसा है - स्टाफ के पी.एफ. का पैसा सैंक्शन करने से लेकर, उनकी छुट्टियाँ मजूर करने तक में.. और ठेकेदारों की तो बात ही अलग है!! उनसे तो ब्रीफ केस भरकर माल मिलता है.
जवाब देंहटाएंफाड़ कर फेंक दिया नियुक्ति-पत्र. (माँ कहती थी कि नौकरी छोड़ दी कहने से कोई नहीं मानेगा, त्याग देने के लिए प्राप्त करना आवश्यक है. इसलिए पहले पाया फिर त्याग दिया!!)
सोचता हूँ लगा रहता तो इन कामों के भी पैसे बना लेता जिनका ज़िक्र आपने किया और आज उन लोगों में मेरा भी नाम शामिल होता, जिनका ज़िक्र पंडित जी ने अंतिम पंक्तियों में किया है और उनसे उधार लेकर मैंने आरंभिक पंक्तियों में!!
बड़ी मछली छोटी को घायल करने का अधिकार कैसे खो दे? ज़मानों से यही दस्तूर चला आया है। जहाँ तक कमिश्नर साहब के डाँटने की बात है तो मेरा अनुभव यह है कि कलेक्टर और कमिश्नर किसी दूसरे ग्रह के प्राणियों जैसा बरताव करते हैं। इन्हें यदि किसी भिन्न प्रजाति में रखा जाय तो इन पर पृथक से अध्ययन करने में सुविधा होगी, यह आवश्यक होता जा रहा है। अब बहुत गम्भीरता से यह चिंतन का समय आ गया है कि क्या भारत में अब भी रिवेन्यू कलेक्ट करने के लिये किसी कलेक्टर की ज़रूरत है? मुझे लगता है कि यह पद समाप्त कर देना चाहिये। अधिकारियों में आतंक फैलाने और अनावश्यक मीटिंग्स में समय की बर्बादी से अभी तक देश का कितना कल्याण हो सका है ...यह विचारणीय है।
जवाब देंहटाएंतंत्र-व्यवस्था के चलते रहने और प्रभावी बने रहने का राज.
जवाब देंहटाएंअंत भला तो सब भला ...
जवाब देंहटाएंकभी ख़ुशी कभी गम ...बनता काम बिगड़ जाए , रुका काम बन जाए , जीवन में यह क्रम अनवरत चलता है ...
जवाब देंहटाएंजीवन के प्रति आश्वस्त करती अच्छी अकहानी !
कहत कहानी कह दियों, अन्तरमन के भाव,
जवाब देंहटाएंआपाधापी जगत की, कबहुँ न लागे चाव।
कहानी सतत प्रवाह में बह रही है, रचना में बहुत ही कशिश है जो गहरे उतर जाती है, बहुत शानदार.
जवाब देंहटाएंरामराम
सलाम संजय, बड़े बाबू, छोटे बाबू के चक्कर में आज कहीं प्रेमचंद याद आये गए यार.
जवाब देंहटाएंबढिया लगा बहुत ही बढिया, तुम जानते हो, मेरे पास अपने अरमानो को, दिल से निकले वाक्यों को लिखने के लिए शब्दों का टोटा रहता है, वो आज फिर महसूस कर रहा हूँ.
बाकि कहानी कहीं न कहीं टच करती है गर दिल रखते हो तो.
अकहानी बहुत कुछ कह गयी .... गुस्सा कमजोर पर ही निकलता है ... सब लोग परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढालते हैं ... किसी का बुरा न हो और काम चलता रहे ये भी क्या कम है ...
जवाब देंहटाएंगुस्सा निकालने की भी चेन है, बस एक से दूसरे पर निकलता ही रहता है। बढिया।
जवाब देंहटाएंहम पोस्टों को आंकते नहीं , बांटते भर हैं , सो आज भी बांटी हैं कुछ पोस्टें , एक आपकी भी है , लिंक पर चटका लगा दें आप पहुंच जाएंगे , आज की बुलेटिन पोस्ट पर
जवाब देंहटाएं............
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pranam.
yahi asli bharat ki tasveer hai....
जवाब देंहटाएंjai baba banaras....
बिल्कुल एसे ही चलता है सब। कभी कभी धागा टूट भी जाता है तो गांठ लगा कर काम चलता चला जाता है।
जवाब देंहटाएंउफ्फ!! यह निर्भरताएँ!!
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जवाब देंहटाएं:)
साइक्लिक प्रोसेस है। सही में फंस गया तो सब सही. उल्टा फंसा तो...
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