फ़त्तू और उसके उस्ताद जी जाने कितने दिनों से बीहड़ जंगल में घूम
रहे थे। चलते चलते उस्तादजी थक जाते तो दोनों बैठ जाते, उस्तादजी को भूख
लगती तो उनके समझाये अनुसार फ़त्तू पेड़ों से कोई फ़ल तोड़ लाता और उस्तादजी को
खिलाने के बाद खुद खा लेता। ऐसे ही प्यास लगती(उस्तादजी को ही यार, समझ जाया करो)
तो पत्तों का दोना बनाकर पानी भर लाता। गरज ये कि उस्तादजी का अनुभव और
फ़त्तू की जवानी वाली मिलीजुली सरकार निर्जन में भी ठाठ से चल रही थी। बाकी
सब ठीक चल रहा था, बस कपड़े तार तार हुये जाते थे लेकिन खुद को दिलासा देते
थे कि यहाँ कोई देख तो रहा नहीं है। यूँ ही साथ चलते चलते बहुत दिन हो गये तो पेड़ बूटे उन्हें
अब बोझिल से लगने लगे। फ़ैसला हुआ, चलो गाँव की ओर।
चलते चलते एक शाम उन्हें एक खाली झोंपड़ी दिख गई,
जिसे उन्होंने राजमहल से कम नहीं समझा। डिनर विनर तो बाहर ही किया लेकिन तय
किया कि मालिक की आज्ञा मिली तो आज की रात इस झोंपड़ी में बिताई जायेगी।
रात हो गई लेकिन मालिक नहीं लौटा तो उस्तादजी ने कोई पुराना शेर सुनाया,
फ़िर उसका कुछ ऐसा मतलब बताया कि जिसका कोई नहीं उसके मालिक बन जाने में कोई
बांदा नहीं है, वैसे भी सुबह तो हमने चले ही जाना है। लब्बोलुबाब ये कि
फ़त्तू हमेशा की तरह उस्तादजी से कन्विंस हो गया और रात भर के लिये झोंपड़ी पर कब्जा जमा लिया।
झोंपड़ी का सरसरी तौर पर मुआयना
करने लगे तो एक लालटेन दिखी। आदतन उस्तादजी ने इशारा किया और फ़त्तू ने
रोशनी की। जब प्रकाश फ़ैल ही गया तो उस्तादजी के आदेश पर फ़त्तू झोंपड़ी का सघन
मुआयना करने लगा। झोंपड़ी ही थी कोई मुकेश भाई का Antilia तो था नहीं कि
हैलीपैड भी होगा, स्विमिंग पूल भी होगा, होम थियेटर भी होगा, जिम भी होगा
वगैरह वगैरह। भई, हमारे ज्यादा लिखे को कम समझा करें आप लोग। सर्च जल्दी
ही पूरी हो भी जाती अगर उस्तादजी इंकम टैक्स वालों के छापेमारों की तरह
सख्त न होते लेकिन उस्तादजी ठहरे मेहनत से जी न चुराने वाले, सो उन्होंने
गहन जाँच करवाने में कोई कोताही नहीं बरती (कृपया करवाने पर पूरा गौर करें,
वरना आप किस्से के सबक से हाथ धो सकते हैं)।
संतन को सीकरी से बेशक काम न
रहा हो, लेकिन एक कोने में रखे सुई-धागे से अपने इन संतों को जरूर काम हो
सकता था। जब्त सुई धागे को अपनी मेहनत का फ़ल बताकर उस्तादजी ने फ़त्तू का
हौंसला बढ़ाया। साथ ही बताया कि बहुत दिनों के बाद अब झोंपड़ी मिली है, आगे
गाँव भी मिलेगा। सुई धागा मिलने से सपने रंगीन हो गये कि अब तार तार हुये
कपड़े फ़िर से सिले जा सकते हैं जोकि आगे के सफ़र में खुद के लिये और दूसरों
के लिये भी सुविधाजनक होंगे।
उस्तादजी पढ़े हुये बेशक कम थे लेकिन
कढ़े हुये पूरे थे। फ़त्तू के हावभाव में पलने लगी अवज्ञा को उन्होंने चीकन पात की तरह पहचान
लिया था। प्रबंधन कला में सिद्धहस्त उस्तादजी ने फ़त्तू को फ़िर से शाबाशी
दी और ऐलान किया कि बहुत काम करवा लिया फ़त्तू से, अब उनकी बारी है। फ़त्तू
अब खुद पर शर्मिंदा हो रहा था। तो साहेबान, अब ऐलान कर ही दिया तो फ़िर
उस्तादजी पीछे हटने वाले नहीं थे, उन्होंने बेशक खाँसते हुये ही सही(ये
बुढ़ापा बहुत खतरनाक चीज है) फ़िर से ऐलान किया और अपने इरादों का खुलासा
किया कि सुई में धागा वो डालेंगे। आज्ञाकारी फ़त्तू ने शिष्टाचार दिखाते
हुये कहा भी कि उस्तादजी तकलीफ़ न करें लेकिन उस्तादजी की ज़ुबान मर्द(बेशक
अब चुके हुये) की ज़ुबान थी। फ़िर भी उन्होंने दयानतदारी दिखाते हुये सुई
में धागा डालने के बाद की क्रिया का मौका फ़त्तू को अग्रिम अता किया।
अब चूँकि रात
भी हो चुकी थी और ये काम दोनों हाथों से करने का था और मौका-ए-वारदात पर हम
और आप मदद करने को थे नहीं, उस्तादजी के आदेशानुसार लालटेन फ़त्तू के हाथ
में थी। आँखों, हाथों, मुँह के सर्वोत्तम संयोजनों का प्रदर्शन करते हुये
उस्तादजी सुई में धागा डालने का प्रयास करने लगे। बुढ़ापा तो खैर एक बहाना
ही बना होगा, लेकिन होनी कुछ ऐसी हुई कि बार बार प्रयास करते रहने पर भी
धागा सुई में जाने को तैयार नहीं हुआ। हो जाता है ऐसा, बहुत बार गॉड ऑफ़
क्रिकेट के प्रयास भी तो निष्फ़ल जाते हैं इसलिये उस्तादजी को कोई दोष नहीं।
उस्तादजी ने हिम्मत नहीं हारी, प्रयास करते रहे और हर प्रयास के साथ जोश
में आकर(जितना आ सकते थे) फ़त्तू को आदेश देते थे, ’लालटेन थोड़ी ऊपर करो’
’अभी लालटेन थोड़ा बाँये करो’ ’लालटेन नजदीक लाओ’..... आदेशों की ये
लिस्ट संपूर्ण नहीं है, ऊपर के साथ नीचे, दायें, दूर, ये कोण, वो कोण सब
तरह के संभव आदेश दिये गये थे। दोनों पूरी तन्मयता से लगे हुये थे लेकिन
हाय रे दैव, उस्तादजी से सुई में धागा नहीं पिरोया जाना था तो नहीं ही हुआ।
दोनों पसीने से भीग गये थे, उस्तादजी ने सुई को उसकी माँ की गाली और धागे को उसके भाई का
गाला देते हुये शापित करार दे दिया और फ़त्तू को उसके हिस्से का काम करने का
आदेश। इस प्रकार वो जेंडर डिस्क्रिमिनेन के आरोप से भी बच गये और चलती गाड़ी के आगे रोड़ा भी नहीं बने।
फ़त्तू ने बालसुलभ जिज्ञासा प्रदर्शित करते हुये पूछा, "मुझे तो आज्ञा मिली थी कि धागा डालने के बाद का काम करना है?"
उस्तादजी
ने फ़िर कोई शेर पढ़कर सुनाया और उसका मतलब कुछ ऐसा बताया कि उस्ताद की रहमत
से ही शागिर्द की किस्मत चमकती है। फ़त्तू जवाब और सवाल के कनेक्शन में आधा
फ़्यूज़\कन्फ़्यूज़ हो रहा था कि उस्तादजी ने लालटेन उसके हाथ से अपने हाथ में
ले ली और चेले को ललकारा मानो कह रहे हों, "उठो पार्थ, गांडीव संभालो।" इस
अप्रत्याशित कदम से फ़त्तू आधे से पूरा कन्फ़्यूज़ हो गया और मानो सम्मोहित
होकर गांडीव संभाल लिया, मेरा मतलब है सुई धागा। परिस्थितियाँ बदल गई थीं,
फ़त्तू के हाथ में था सुई-धागा और उस्तादजी के हाथ में लालटेन। उस्तादजी ने
कहा, "डालो’ और मानो चमत्कार हो गया, सुई में धागा पिरोया जा चुका था।
फ़त्तू के सब भ्रम दूर हो गये और चेहरे पर असीम आनंद छा गया। उस्तादजी ने स्वस्ति का अनुभव करवाने के लिये फ़त्तू से पूछा, "डल गया धागा?"
फ़त्तू ने चहकते हुये कहा, "जी उस्तादजी, डल गया।"
उस्तादजी ने इतराते हुये, इठलाते हुये और उससे भी ज्यादा रौब दिखाते हुये कहा, "देखा? ऐसे पकड़ी जाती है लालटेन।"
सबक: सबको अपने उस्तादजी पर और उनकी लालटेन-पकड़ पर विश्वास रखना चाहिये :)
(चित्र गूगल से साभार)
एक ब्लॉग पर देखी एक तस्वीर ’गांधीजी की लालटेन’ ने इस रिमिक्स की ओर प्रेरित किया। प्रतिष्ठित अखबारों में बहुप्रतिष्ठित लेखकों- पत्रकारों को, 24X7 न्यूज़ चैनल्स पर सूटेडो-बूटेड एन्कर्स को, त्यागमूर्ति राजनेताओं को, धुरंधर व्लॉगर्स और लाल-नीले-हरे-केसरिया फ़ेसबुकियों को जब तब लिखते बोलते पढ़ते सुनता हूँ तब फ़त्तू की नकल करते हुये अपनी मुंडी खुद ब खुद ऊपर नीचे हिलने लगती है - "मान गये उस्तादजी, क्या लालटेन पकड़ी है आपने। आपका आभार कैसे व्यक्त किया जाये?"
नमूनों की कमी नहीं है लेकिन समय की कमी जरूर रहती है(आपको हमेशा और हमें कभी-कभी), फ़िलहाल एकाध लालटेनिया नमूना पेश हैं -
कथा समापत होत है, अब आप सब मिलकर नारा लगाईये
’उस्तादजी की लालटेन
जिंदाबाद जिंदाबाद’