शनिवार, दिसंबर 15, 2012

ये आना भी कोई आना है फ़त्तू?....

फ़त्तू और उसके उस्ताद जी जाने कितने दिनों से बीहड़ जंगल में घूम रहे थे। चलते चलते उस्तादजी थक जाते तो दोनों बैठ जाते, उस्तादजी को भूख लगती तो उनके समझाये अनुसार फ़त्तू पेड़ों से कोई फ़ल तोड़ लाता और उस्तादजी को खिलाने के बाद खुद खा लेता। ऐसे ही प्यास लगती(उस्तादजी को ही यार, समझ जाया करो) तो पत्तों का दोना बनाकर पानी भर लाता। गरज ये कि उस्तादजी का अनुभव और  फ़त्तू की जवानी वाली मिलीजुली सरकार निर्जन में भी ठाठ से चल रही थी। बाकी सब ठीक चल रहा था, बस कपड़े तार तार हुये जाते थे लेकिन खुद को दिलासा देते थे कि यहाँ कोई  देख तो  रहा नहीं  है। यूँ ही साथ चलते चलते बहुत दिन हो गये तो पेड़ बूटे उन्हें अब बोझिल से लगने लगे। फ़ैसला हुआ, चलो गाँव की ओर।

चलते चलते एक शाम उन्हें एक खाली झोंपड़ी दिख गई, जिसे उन्होंने राजमहल से कम नहीं समझा। डिनर विनर तो बाहर ही किया लेकिन तय किया कि मालिक की आज्ञा मिली तो आज की रात इस झोंपड़ी में बिताई जायेगी। रात हो गई लेकिन मालिक नहीं लौटा तो उस्तादजी ने कोई पुराना शेर सुनाया, फ़िर उसका कुछ ऐसा मतलब बताया कि जिसका कोई नहीं उसके मालिक बन जाने में कोई बांदा नहीं है, वैसे भी सुबह तो हमने चले ही जाना है। लब्बोलुबाब ये कि फ़त्तू हमेशा की तरह उस्तादजी से कन्विंस हो गया और रात भर के लिये झोंपड़ी पर कब्जा जमा लिया।

झोंपड़ी का सरसरी तौर पर मुआयना करने लगे तो एक लालटेन दिखी। आदतन उस्तादजी ने इशारा किया और फ़त्तू ने रोशनी की। जब प्रकाश फ़ैल ही गया तो उस्तादजी के आदेश पर फ़त्तू झोंपड़ी का सघन मुआयना करने लगा। झोंपड़ी ही थी कोई मुकेश भाई का Antilia तो था नहीं कि हैलीपैड भी होगा, स्विमिंग पूल भी होगा, होम थियेटर भी होगा, जिम भी होगा वगैरह वगैरह। भई, हमारे ज्यादा लिखे को कम समझा करें आप लोग।  सर्च जल्दी ही पूरी हो भी जाती अगर उस्तादजी इंकम टैक्स वालों के छापेमारों की तरह सख्त न होते लेकिन उस्तादजी ठहरे मेहनत से जी न चुराने वाले, सो उन्होंने गहन जाँच करवाने में कोई कोताही नहीं बरती (कृपया करवाने पर पूरा गौर करें, वरना आप किस्से के सबक से हाथ धो सकते हैं)। 

संतन को सीकरी से बेशक काम न रहा हो, लेकिन एक कोने में रखे सुई-धागे  से अपने इन संतों को जरूर काम हो सकता था। जब्त सुई धागे को अपनी  मेहनत का फ़ल बताकर उस्तादजी ने फ़त्तू का हौंसला बढ़ाया। साथ ही बताया कि बहुत दिनों के बाद अब झोंपड़ी मिली है, आगे गाँव भी मिलेगा। सुई धागा मिलने से सपने रंगीन हो गये कि अब तार तार हुये कपड़े फ़िर से सिले जा सकते हैं जोकि आगे के सफ़र में खुद के लिये और दूसरों के लिये भी सुविधाजनक होंगे।

उस्तादजी पढ़े हुये बेशक कम थे लेकिन कढ़े  हुये पूरे थे। फ़त्तू के हावभाव में पलने लगी अवज्ञा को उन्होंने चीकन पात की तरह पहचान लिया था। प्रबंधन कला में सिद्धहस्त उस्तादजी ने फ़त्तू को फ़िर से शाबाशी दी और ऐलान किया कि बहुत काम करवा लिया फ़त्तू से, अब उनकी बारी है। फ़त्तू अब खुद पर शर्मिंदा हो रहा था। तो साहेबान, अब ऐलान कर ही दिया तो फ़िर उस्तादजी पीछे हटने वाले नहीं थे, उन्होंने बेशक खाँसते हुये ही सही(ये बुढ़ापा बहुत खतरनाक चीज है) फ़िर से ऐलान किया और अपने इरादों का खुलासा किया कि सुई में धागा वो डालेंगे। आज्ञाकारी फ़त्तू ने शिष्टाचार दिखाते हुये कहा भी कि उस्तादजी तकलीफ़ न करें लेकिन उस्तादजी की ज़ुबान मर्द(बेशक अब चुके हुये)  की ज़ुबान थी। फ़िर भी उन्होंने दयानतदारी दिखाते हुये सुई में धागा डालने के बाद की क्रिया का मौका फ़त्तू को अग्रिम अता किया। 

अब चूँकि रात भी हो चुकी थी और ये काम दोनों हाथों से करने का था और मौका-ए-वारदात पर हम और आप मदद करने को थे नहीं, उस्तादजी के आदेशानुसार लालटेन फ़त्तू के हाथ में थी। आँखों, हाथों, मुँह के सर्वोत्तम संयोजनों का प्रदर्शन करते हुये उस्तादजी सुई में धागा डालने का प्रयास करने लगे। बुढ़ापा तो खैर एक बहाना ही बना होगा, लेकिन होनी कुछ ऐसी हुई कि बार बार प्रयास करते रहने पर भी धागा सुई में जाने को तैयार नहीं हुआ। हो जाता है ऐसा, बहुत बार गॉड ऑफ़ क्रिकेट के प्रयास भी तो निष्फ़ल जाते हैं इसलिये उस्तादजी को कोई दोष नहीं। उस्तादजी ने हिम्मत नहीं हारी, प्रयास करते रहे और हर प्रयास के साथ जोश में आकर(जितना आ सकते थे) फ़त्तू को आदेश देते थे, ’लालटेन थोड़ी ऊपर करो’  ’अभी लालटेन थोड़ा बाँये करो’ ’लालटेन नजदीक लाओ’.....        आदेशों की ये लिस्ट संपूर्ण नहीं है, ऊपर के साथ नीचे, दायें, दूर, ये कोण, वो कोण सब तरह के संभव आदेश दिये गये थे। दोनों पूरी तन्मयता से लगे हुये थे लेकिन हाय रे दैव, उस्तादजी से सुई में धागा नहीं पिरोया जाना था तो नहीं ही हुआ। दोनों पसीने से भीग गये थे, उस्तादजी ने सुई को उसकी माँ की गाली  और धागे को उसके भाई का गाला देते हुये शापित करार दे दिया और फ़त्तू को उसके हिस्से का काम करने का आदेश। इस प्रकार वो जेंडर डिस्क्रिमिनेन के आरोप से भी बच गये और चलती गाड़ी के आगे रोड़ा भी नहीं बने।

फ़त्तू ने बालसुलभ जिज्ञासा प्रदर्शित करते हुये पूछा, "मुझे तो आज्ञा मिली थी कि धागा डालने के बाद का काम करना है?"
उस्तादजी ने फ़िर कोई शेर पढ़कर सुनाया और उसका मतलब कुछ ऐसा बताया कि उस्ताद की रहमत से ही शागिर्द की किस्मत चमकती है। फ़त्तू जवाब और सवाल के कनेक्शन में आधा फ़्यूज़\कन्फ़्यूज़ हो रहा था कि उस्तादजी ने लालटेन उसके हाथ से अपने हाथ में ले ली और चेले को ललकारा मानो कह रहे हों, "उठो पार्थ, गांडीव संभालो।" इस अप्रत्याशित कदम से फ़त्तू आधे से पूरा कन्फ़्यूज़ हो गया और मानो सम्मोहित होकर गांडीव संभाल लिया, मेरा मतलब है सुई धागा। परिस्थितियाँ बदल गई थीं, फ़त्तू के हाथ में था सुई-धागा और उस्तादजी के हाथ में लालटेन। उस्तादजी ने कहा, "डालो’ और मानो चमत्कार हो गया, सुई में धागा पिरोया जा चुका था।

फ़त्तू के सब भ्रम दूर हो गये और चेहरे पर असीम आनंद छा गया। उस्तादजी ने स्वस्ति का अनुभव करवाने के लिये फ़त्तू से पूछा, "डल गया धागा?"
फ़त्तू ने चहकते हुये कहा, "जी उस्तादजी, डल गया।"
उस्तादजी ने इतराते हुये, इठलाते हुये और उससे भी ज्यादा रौब दिखाते हुये कहा, "देखा? ऐसे पकड़ी जाती है लालटेन।"

सबक:    सबको अपने उस्तादजी पर और उनकी लालटेन-पकड़ पर विश्वास रखना चाहिये :)

                                                             (चित्र गूगल से साभार)                                                      

एक ब्लॉग पर देखी एक तस्वीर ’गांधीजी की लालटेन’ ने  इस रिमिक्स की ओर प्रेरित किया।  प्रतिष्ठित अखबारों में बहुप्रतिष्ठित लेखकों- पत्रकारों को,  24X7 न्यूज़ चैनल्स पर सूटेडो-बूटेड एन्कर्स को, त्यागमूर्ति राजनेताओं को, धुरंधर व्लॉगर्स और लाल-नीले-हरे-केसरिया फ़ेसबुकियों को जब तब लिखते बोलते पढ़ते सुनता हूँ  तब फ़त्तू की नकल करते हुये अपनी मुंडी खुद ब खुद ऊपर नीचे हिलने लगती है - "मान गये उस्तादजी, क्या लालटेन पकड़ी है आपने। आपका आभार कैसे व्यक्त किया जाये?" 

नमूनों की कमी नहीं है लेकिन समय की कमी जरूर रहती है(आपको हमेशा और हमें कभी-कभी),  फ़िलहाल एकाध लालटेनिया नमूना पेश हैं - 


कथा समापत होत है, अब आप सब मिलकर नारा लगाईये 
’उस्तादजी की लालटेन
 जिंदाबाद जिंदाबाद’  






शुक्रवार, दिसंबर 07, 2012

अकहानी.

                                                                  (चित्र गूगल से साभार)              
                                                                                                                   
"सबके सामने कमिश्नर साहब ने मुझे इतना डाँटा, सिर्फ़ आपकी लापरवाही के कारण। फ़ाईलों का गट्ठर साथ रख लिया  लेकिन उन्होंने मौके पर जो रिपोर्ट माँगी, वही साथ लेकर नहीं गये।"

बड़े बाबू ने मिमियाते हुये कहा, "साहब, मीटिंग की तैयारियों का जायजा लेते हुये आपने ही कहा था कि ये सब फ़ालतू की रद्दी यहीं रख दो। मैंने तो कहा भी था कि कमिश्नर साहब मीटिंग  के अजेंडे से बाहर भी कुछ पूछ सकते हैं। आपने ही कहा था कि मीटिंग है कोई इंटरव्यू.."

"चुप रहिये आप। मैं कह दूँ कि कल से दफ़्तर आना बंद कर दीजिये तो ऐसे ही मान लेंगे न आप? रिटायरमेंट सिर पर खड़ी है और सरकारी कामकाज का शऊर नहीं आया। पहली बार इस तरह भरी मीटिंग में मेरी बेइज्जती हुई है। अरे हाँ, आपकी सेवा-विस्तार वाली फ़ाईल कई दिन से संस्तुति के लिये पेंडिंग रखी है न? आज निबटाता हूँ उसे, जाईये आप अपनी सीट पर।"  कई दिन से पेंडिंग रखी फ़ाईल पर साहब नोट लिखने लगे, ’कार्य भार में निरंतर बढ़ोतरी के चलते विभाग को ऊर्जावान कर्मचारियों की महती आवश्यकता है..’

शादी की उम्र पार करती लड़की का चेहरा, पढ़-लिखकर भी बेरोजगार दोनों लड़कों के चेहरे, टी.बी. की मरीज बीबी का चेहरा सब एक दूसरे में गड्डमगड्ड होकर सवालिया निशान बनाते हुये बड़े बाबू की आँखों के सामने चमकने लगे। दो साल का एक्सटेंशन मिल जाता तो शायद..। लेकिन नहीं, बड़े बाबू के पहले से झुके कंधे थोड़े और झुक गये।  फ़ाईलों में लिखा सब धुँधलाता सा दिखने लगा था।

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"बड़े बाबू, मेरी छुट्टी के आवेदन का क्या हुआ? कुछ नाजायज तो नहीं माँगा मैंने, अपने हक की छुट्टी ही लेना चाहता हूँ। साहब से बात करके हाँ करवाओ ताकि रिजर्वेशन करवा सकूँ, परिवार के साथ गाँव जाना है। और कहे देता हूँ कल तक मेरा फ़ैसला न करवाया तो मैं कमीशन में उत्पीड़न की शिकायत कर दूँगा, फ़िर मत कहना।" छोटे बाबू बमक रहे थे।

"हाँ भैया, करवाता हूँ तुम्हारा जुगाड़ कल तक। रिज़र्वेशन की परेशानी, हम्म्म्म।   उत्पीड़न तो खैर तुम्हारा मैं गरीब क्या कर सकता हूँ,  सेवा-नियम जैसा निर्देशित करेंगे, वही होगा।" छोटे बाबू की छुट्टी वाले आवेदन पत्र पर बड़े बाबू  नोट लिखने लगे - ’आगामी माह में संभावित बाढ़ के मद्देनजर विभाग का कार्य बहुत अधिक होगा..’

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"छोटे बाबू,  पगार पर ले लेना लेकिन अभी एक हजार रुपया दे दो। बच्चे की ट्यूशन की फ़ीस देनी है। सरकारी स्कूल में फ़ीस कम है तो बिना ट्यूशन पढ़े गुजारा नहीं।" विभाग का चपड़ासी छोटे बाबू की तरफ़ अपेक्षा की नजर से देख रहा है।"

पीढ़ियों के शोषण की भड़ास छोटे बाबू ने चपड़ासी पर निकाली, "तेरे खेत गिरवी रख रहा हैं न मेरे पास कि हजार रुपया दे दूँ? ट्यूशन पढ़ाकर डी.एम. कलैक्टर बनायेगा अपने बच्चे को, घर नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने। पिछले पैसे कैसे निकाले हैं, मैं जानता हूँ और अब तुझे और पैसे चाहियें। न मिली होती सरकारी नौकरी तो दिहाड़ी कर रहा होता कहीं,  वो भी एक दिन मिलती और दो दिन नागा। साहब बहादुर को हजार रुपये चाहियें, शक्ल देखी है अपनी?"

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चपड़ासी शाम को घर पहुँचा तो बीबी ने पैसों के इंतजाम के बारे में पूछा और बदले में अपने मायके वालों के द्वारा  दहेज में रियासतें दिये जाने के, खुद के बारे में पैसे न संभाल सकने के  ताने सुने और बोनस में गालियाँ खाईं।

ये सब देखकर सहमे हुये बच्चे ने जब अपनी माँ से कहा, "माँ, मेरी ट्यूशन की फ़ीस...." तो उसकी बात बीच में कट गई। माँ ने अपने मायके और ससुराल वालों की गरीबी का गुस्सा उस मासूम के गाल पर चाँटा लगाकर जाहिर किया। "कल से सब जने अपनी रोटी, कपड़े का काम खुद करेंगे"  की जोरदार आवाज के बीच बच्चे की सहमी सी आवाज कि उसकी ट्यूशन की फ़ीस की चिंता न करें, गहरे में कहीं दब गई।

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अभी भोर नहीं हुई थी, बच्चे ने अपनी बाँह माँ की गरदन में डाल दी। अचकचाई सी माँ ने आँखें खोलकर देखा तो बच्चा डबडबाई आँखों से उसे देखता हुआ बोला, "माँ, मुझे ट्यूशन नहीं पढ़नी। मैं और मेहनत करूँगा और तुम देखना पहले से भी अच्छे से पढ़ाई करूँगा।" माँ ने बेटे को जोर से अपने कलेजे से भींच लिया लेकिन सिर्फ़ एक पल के लिये, अगले पल वो पिछली रात के अपना काम सब खुद करेंगे वाली बात को भूलकर रोज की  अपनी बिना वेतन वाली ड्यूटी में जुट गई।
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अगले दिन शाम होते होते बड़े बाबू की फ़ाईल में साहब की फ़ाईनल नोटिंग कुछ इस तरह थी - ’कार्य भार में निरंतर बढ़ोतरी के चलते विभाग को ऊर्जावान कर्मचारियों की महती आवश्यकता है, इसे ध्यान में रखते हुये श्री .................,  पदनाम ...........’ को दो वर्ष का सेवा-विस्तार दिया जाना हर प्रकार से उचित है। सेवा-विस्तार संस्तुतित।’

बड़े बाबू की फ़ाईल तो खैर मैंने देखी ही थी।  मुझे लगता है कि छोटे बाबू की छुट्टियाँ भी मंजूर हो गई होंगी, चपड़ासी को छोटे बाबू से  पैसे भी उधार मिल गये होंगे, बच्चा भी ढंग से पढ़ाई कर पाया होगा। आपका क्या ख्याल है? ऐसा होता है या हो सकता है कि नहीं?  विचार\भावनायें\आस्थायें ऐसे ही दूसरों के विचारों या भावनाओं को प्रभावित करते हैं, असर बढ़ता जाता है फ़िर किसी एक बिंदु से टकराकर उनकी दिशा बदलती है और फ़िर से वही प्रक्रिया शुरू हो जाती है। और ये नाटक यूँ ही बस चलता रहता है।


बुधवार, नवंबर 28, 2012

ये बात तो सही है...

"आपने सिगरेट पीना छोड़ा नहीं न अब तक? ये अच्छी चीज नहीं है, आपसे कितनी बार तो कह चुका हूँ।" कश्यप बोला।

"अरे यार, दिमाग खराब मत कर। है तो यहीं हापुड़ का और आप-आप कहकर बात करता है जैसे लखनऊ की पैदाइश हो तेरी।   बराबर के दोस्त और फ़िर एक ही बेल्ट के बंदों से आप-जनाब वाली भाषा अपने से होती नहीं।  फ़िर पैस्सिव स्मोकिंग से इतनी परेशानी है तो आने से पहले टेलीग्राम भेज दिया कर, हम कमरे से बाहर ही मिल लिया करेंगे। अब काम की बात बता, क्यों आया है?"

"नाराज हो जाते हो। पहले एक बात बताओ, मैं सिगरेट के लिये मना करता हूँ तो इसमें मेरा क्या फ़ायदा है? मैं तो दस बीस दिन में एक बार मिलता हूँ,  अब तो वैसे भी...।  छोड़ दोगे तो खुद का ही फ़ायदा होगा न?"

"हाँ यार, ये बात तो सही है।"

"गुड। अब बताता हूँ कि क्यों आया हूँ। मेरा सेलेक्शन स्टेट बैंक पी.ओ. में हो गया है। अगले ही सप्ताह ज्वायनिंग है लेकिन उन्होंने कहा है कि पिछले एम्प्लायर से सैटिस्फ़ैक्शन लेटर लेकर जाना होगा। ब्रांच मैनेजर कहता है कि अब फ़ँसा हूँ मैं उसके पंजे में, अभी पिछली बात भूला नहीं है।"

अब  पिछली बात आप भला  क्या जानें? लेकिन, मैं हूँ न। बस थोड़ा पीछे चलिये मेरे साथ। एक ही बैच के थे हम, फ़ाईनल पोस्टिंग अलग अलग जगह हुई थी। मैं प्रशासनिक कार्यालय में और वो एक ग्रामीण शाखा में। हम यारी दोस्ती में उलझ गये, उसका शुरू से ही सपना था कि प्रोबेशनरी ओफ़िसर बनना है। वो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में उलझा रहता था। न दोस्ती, न फ़ालतू की बातें और न फ़ालतू के शौक। ब्रांच में काम के मामले में अक्सर ब्रांच मैनेजर से उसकी  कहासुनी हो जाती थी। उसका कहना था कि उसे दूसरी परीक्षायें पास करनी हैं तो काम का लोड न डाला जाये, ब्रांच मैनेजर का यह कहना होता था कि आप यहाँ तन्ख्वाह ले रहे हो तो काम करना ही पड़ेगा।  हम प्रशासनिक कार्यालय में थे तो खबरें मिलती ही रहती थीं।  ऐसे ही एक बार कुछ कहासुनी हुई तो भावुक होकर उसने सुसाईड करने की बात कह दी।  घोटालों के अलावा भी दफ़्तरों में बहुत कुछ होता है, उनसे प्राय:  पब्लिक अनभिज्ञ रहती है।

जिस दिन यह बात हुई थी, उस रात हमेशा की तरह उसके दूसरे दो साथी अपने कमरे में  इंतजार कर रहे थे कि कश्यप आये और फ़िर वो लोग उस गाँव के एकमात्र भोजनालय में रात का खाना खाने जायें। वो नहीं आया तो उन्होंने सोचा कि शायद सो गया होगा, हम ही उसे आवाज लगा लेंगे। उसके रूम पर गये तो दरवाजा बाहर से बंद था हालाँकि ताला नहीं लगा था। कश्यप के मकान मालिक जो कि बाहर ही कुर्सी पर बैठे थे, उन्होंने बताया कि वो अभी अभी रेलवे लाईन की तरफ़ गया है। सुनते ही दोनों साथी रेलवे लाईन की तरफ़ भाग लिये।  रेलवे स्टेशन के विपरीत दिशा में एकाध किलोमीटर दूर पटरी पर लेटे हुये कश्यप को वो दोनों लगभग घसीटते हुये, गालियाँ देते-खाते  कमरे पर लाये।

इस बीच मकानमालिक साहब भी गाँव में ही किरायेदार के तौर पर रह रहे ब्रांच मैनेजर को बुला लाये थे। कमरे में मेज पर एक चिट्ठी रखी थी जिसमें ब्रांच मैनेजर साहब का स्तुतिगान कर रखा था। बताते हैं कि सबसे अजीब हालत उन्हीं साहब की थी, एक पल में शुक्र मनाते थे कि ये भी बच गया और वो भी बच गये और दूसरे ही पल इसको सबक सिखाने की बात करते थे। अगले दिन उनके प्रशासनिक कार्यालय पहुँचने से पहले ही फ़ोन पर सब किस्सा हम तक पहुँच गया था। उधर रात को ही फ़ोन पर कश्यप के दोस्तों ने उसकी माताजी को सूचना देकर हैड ओफ़िस पहुंचने के लिये कह दिया था। दिन भर खासी गहमागहमी रही और मामला कहीं दर्ज होने की बजाय सुसाईड नोट और फ़िर उसका एक काऊंटर माफ़ीनामा लिखवाकर और पंचों के हस्ताक्षर करवाकर सुरक्षित हाथों में सौंप दिया गया। दुनिया, देश, बैंक, ब्रांच और जिन्दगी फ़िर से डगर-मगर चलने लगे।

ये थी पिछली बहुत सी बातों में से फ़िलहाल मतलब की बात, ब्रांच मैनेजर साहब के पैर के नीचे अब कश्यपजी की पूँछ आ गई थी। विस्तार से पूछने पर पता चला कि ब्रांच मैनेजर साहब ने वैकल्पिक शर्त जो रखी है, वो है अपना पेंडिंग काम निबटाने की। पेंडिंग काम में अब  एक कोई काम ऐसा था जिसमें कश्यप का हाथ तंग था। चांस की बात है, वो काम मुझे बहुत इंट्रेस्टिंग लगता था और मुझे मालूम था कि मैं वो काम तीन चार घंटे में निबटा भी सकता हूँ  लेकिन मेरी पोस्टिंग अलग जगह थी, उसकी अलग जगह। जब हमने पूछा कि ब्रांच में किसी और की मदद ले ले तो वो कहने लगा कि अब कोई मदद नहीं करता।  सबको मालूम है कि ये जाने वाला है तो फ़िर जिस मैनेजर के साथ अभी दो तीन साल काम करना है, इसके लिये उससे पंगा क्यों लिया जाये? 

मजेदार समस्या थी। हैड ओफ़िस में होने के नाते हमसे उसकी अपेक्षा थी कि मैनेजर साहब को किसी उच्चाधिकारी से कहला सुनवाकर उसका काम हो जाये। दिल से मैं भी चाहता था कि उसका काम हो जाये लेकिन उसके मैनेजर साहब ने जो पेंडेंसी खत्म करने का विकल्प दे रखा था वो गलत भी नहीं लग रहा था। खैर, उसे विदा किया कि जा भाई अपनी गाड़ी पकड़ और  अपना बैग बिस्तर बांधना शुरू  कर, भली करेंगे राम।

उसे भेजकर फ़िर से फ़िक्र को धुंये में उड़ाया गया। बातों बातों में कश्यप ने बताया था कि अगले दिन उसके ब्रांच मैनेजर छुट्टी पर थे। एल्लो, निकल आया हल। हम मैनेजर नहीं हैं तो ना सही, छुट्टी तो हम भी ले सकते हैं। चार में से दो उस आईडिये से खुश थे और दो नाराज थे कि क्यो छुट्टी ली जाये? फ़िर उन्हें समझाया गया कि जहाँ तीस दिन की विदाऊट पे चल रही है, वहाँ इकतीस दिन की होने में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। सबको खुश करना वैसे भी मुश्किल है। 

अगले दिन मैं और राजीव ग्यारह बजे कश्यप की ब्रांच में पहुँच गये। हमें देखकर वो हैरान हो गया और सिगरेट पीते देखकर हमेशा की तरह परेशान भी। मुश्किल से दो घंटे लगे होंगे हमें, उसकी सारी पेंडेंसी खत्म कर दी। बहुत खुश था वो उस दिन और हम भी। भावुक होकर बार बार कह रहा था, "मैं आप लोगों का कैसे धन्यवाद व्यक्त करूँ?"  मैंने माहौल को हल्का करने के लिये कहा, "मेरे लिये एक सिगरेट मंगवाकर।"  उस दिन उसने सिगरेट के दोष नहीं बताये, खुद भागकर गया और सिगरेट लेकर आया। बाहर जाकर हम लोगों ने  एक साथ लंच किया,  हमारी तरफ़ से फ़ेयरवैल ट्रीट।  स्टेशन पर हमें गाड़ी तक छोड़ने आया।  गाड़ी में अभी टाईम था, हम प्लेटफ़ार्म पर  टहल रहे थे तो मुझे बहुत हँसी आई, जब फ़िर से मेरे लिये सिगरेट लेकर आया। हम लौट आये, कुछ दिन के बाद  वो दूसरे बैंक में प्रोबेशनरी ओफ़िसर बनकर चला गया।

आसपास की शाखाओं में एक नया किस्सा प्रचलित हो गया कि हिन्दुस्तान में मजदूरी बहुत सस्ती है। लोग एक सिगरेट तक में बिक जाते हैं। हैड ओफ़िस में हमेशा की तरह ऐसी खबरें भी पहुंच जाती रहीं। लोग चटखारे ले लेकर हमसे पूछते थे कि क्या ये सच है और मैं और राजीव एक दूसरे को देखते थे और जोर से हँस देते थे। बाकायदा ऑफ़र आते थे कि  फ़लाँ काम पेंडिंग है, आ जाओ किसी दिन। बहुत छेड़ा हम लोगों को जालिम लोगों  ने। 

हाँ, याद आया, आज पूरी बात ही पढ़ लो। शायद दो साल के बाद कश्यप की शादी में जाना हुआ था। तब तक हम सब इधर ट्रांसफ़र होकर आ चुके थे, एक तरह से उसकी शादी को हम उस दौर के बैचमेट्स का  रि-यूनियन समझ लीजिये। उसकी शादी से ज्यादा क्रेज़ सबको एक दूसरे से मिलने का था। खाने-पीने का दौर चला, पिछली बातें निकलीं तो ये बात भी निकल आई। उस दिन पहली बार ऐसा हुआ कि ये एक सिगरेट में बिकने वाला किस्सा उस समय दुहराया गया जब दोनों पक्ष मौजूद थे। किस्सा कहने के बाद जब सच्चाई पूछी गई तो मैं और राजीव फ़िर से एक दूसरे को देखकर जोर से हँस दिये। कश्यप जरूर जोर से बोला, "बकवास है सब।" हम जानते थे कि वो ज्यादा घुमाफ़िराकर बातें नहीं करता, मजाक भी नहीं समझता,  टु द प्वाईंट रहने वाला आदमी है। और कोई मौका होता तो हम भी सबके साथ मिलकर उसे खींचते लेकिन उस समय तो उसी की शादी में गये हुये थे इसलिये उसे शांत रहने की कहने लगे।

वो बोला, "बकवास है ये एक सिगरेट में बिकने वाली बात और आप भी खंडन नहीं करते। आप से ऐसी आशा नहीं थी। चुप रहना भी झूठ को बढ़ावा देना है। दो सिगरेट पिलाईं थी आपको, स्टेशन वाली क्यों भूलते हैं आप?"

राजीव और मैंने दोनों ने एक साथ  कहा, "हाँ यार, ये बात तो सही है।"

क्या कहते हैं आप? गाड्डी पटरी पे ही है न अब :)

(पात्रों के नाम बदले गये हैं)
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पिछले दिनों एक सामूहिक ब्लॉग पर कुछ असहमतियाँ हुई थीं। फ़िर पता चला कि हम  लोगों  ने फ़र्जी ईमेल आई.डी. और ब्लॉग वगैरह बना रखे हैं ताकि दूसरों को गालियाँ दी जा सकें। अलग से पोस्ट लिखकर या जवाब  देने की बजाय यही कहना सही लगता है कि  "हाँ यार, ये बात तो सही है।"       :)

रविवार, नवंबर 18, 2012

फ़िर वही ...

वृद्ध नगरसेठ ने महात्माजी के आगे हाथ जोड़कर निवेदन किया, "बाबा, मेरे इकलौते युवा पुत्र को सन्यास की दीक्षा देने की हामी भरकर आपने तो मेरे बुढ़ापे की लाठी छीन ली है। बिनती करता हूँ कि उसे  अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी संभालने की आज्ञा दें।"
महात्माजी कहने लगे, "भगतजी, मैंने तो उसे उतावलेपन में ऐसा निर्णय लेने से बहुत मना किया था लेकिन उसकी रुचि और उसके संस्कार देखकर मुझे उसे दीक्षा देना ही उचित लगा।"
सेठ की आँखों के सामने उसका व्यापार, वैभव निराधार होता दिखा और उसने दूसरा दाँव चला, "आप इतने धर्मज्ञ हैं फ़िर भी आप के हाथों धर्म विरुद्ध कार्य हो रहा है। शास्त्रों में भी लिखा है कि सन्यास तो जीवन के चौथे चरण के लिये उचित है।"
महात्माजी मुस्कुराते हुये कहने लगे, "ठीक कहते हो। एक रास्ता है, सन्यास के लिये तुम्हारी आयु उपयुक्त है। तुम सन्यास लेने को तैयार हो जाओ।  इसी शास्त्रोक्त  युक्ति से तुम्हारे पुत्र को मैं गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिये समझाता हूँ।
सेठजी एकदम से सकपका गये और कहने लगे, "शास्त्रों में जो लिखा है, वो सब कुछ सही थोड़े ही होता है महाराज।"

हम सब उसी नगरसेठ की तरह व्यवहार करते हैं।  

पिछली एक पोस्ट पर आई टिप्पणियों के बाद उचित लगा कि इस बात को थोड़ा और आगे बढ़ाया जाये। कुछ मित्र कर्मफ़ल और जीवन-मरण के  चक्र वाली थ्योरी से सहमत दिखे, कुछ असहमत। अधिकतर मित्रों का यह मानना था कि कर्मों का असर इसी जीवन तक है। अपने अपने विचार रखने को सभी स्वतंत्र है,  राय देने वाले सभी दोस्तों का धन्यवाद। एक आपत्ति जिसकी मुझे सबसे ज्यादा आशंका थी, वो मुखर रूप से किसी की तरफ़ से नहीं आई कि  कर्मफ़ल वाली थ्योरी उसमें विश्वास रखनेवालों को अकर्मण्य बनाने में सहायक होती है। आपको ऐसा लगता हो या नहीं लेकिन मुझे जरूर ऐसा लगता है।

 गरीबी, अपंगता या ऐसे ही किसी अन्य दुर्भाग्य  को दैव मानकर अपना आत्मसम्मान खो देनेवालों की   कमी नही। वहीं दूसरी तरफ़ अमीरी, सुंदरता, शक्ति आदि सुखद परिस्थितियों को अपने अच्छे कर्मों का फ़ल मानकर आगे के लिये  निश्चिंत होने वालों की भी कमी नहीं। मेरी बातें विरोधाभासी लग सकती हैं कि  एक पल में किसी सिद्धाँत को मानने की बात करता हूँ और दूसरे पल उसी की कमी बताने लगता हूँ, लेकिन यह अपनी तरफ़ से सिक्के के दोनों पक्ष देखने जैसी बात है। मन में ऐसे विचार आते रहे  हैं कि जब सब पूर्वनिर्धारित है ही तो फ़िर क्यूँ किसी खटराग में पड़ना? यह विचार एक मार्ग अवरोधक के समान लगता है, जो ठिठक गया वो अटक गया और जो इस अवरोध को पार कर गया वो मंजिल तक देर सवेर पहुँच ही जायेगा। 

शायद यह बाधा ही रही हो जिसने कभी  ’चार्वाक’ विचारधारा को प्रसिद्धि दिलवाई और कभी ’अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम’ जैसे कथन  को अपने करणीय कर्मों से  विमुख होने का साधन बना लिया। ध्यान दें, कभी भी ये विचारधारायें बहुमत की जीवन शैली का पर्याय नहीं बनी बल्कि सुविधानुसार हम लोग इनका उद्घोष करते रहे। 'जो जस कीन्ह सो तस फ़ल चाखा’ और ’उद्यमेन ही सिद्धयंति कार्याणि न मनोरथै’ भी तो हममें से कुछ  ने पढ़े ही हैं।

सिर्फ़ ब्लॉग चर्चा के आधार पर तो नहीं, इससे बाहर के अपने  व्यक्तिगत अनुभव के भी  आधार पर कह सकता हूँ कि  बहुत बार  कर्म को प्रधान मानने वाले  को हम  भाग्यवादी मात्र  मान लेते हैं। ऐसा है नहीं, रणक्षेत्र में अर्जुन को  गीता उपदेश देते समय योगेश्वर कृष्ण ने ’कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन:’ की सीख देकर जीवन जीने का एक  रास्ता बताया।  सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी का कहना कि ’तेरा भाणा मीठा लागे’ कर्म से पलायनवाद नहीं बल्कि कर्मशील रहते हुये भी प्रारब्ध को सहजता से स्वीकार करना है वहीं दशम गुरू ने शक्ति रूपा देवी की स्तुति करते हुये  ’शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं’ कहा। मेरी अल्प समझ में  यही श्रेष्ठ मार्ग है और यही सर्वश्रेष्ठ। 

हमें सुविधाओं की आदत हो चुकी है और हम शारीरिक श्रम तो क्या थोड़ा सा  मानसिक श्रम भी नहीं करना चाहते। जो चीज हमें रेडीमेड परोस दी जाती है, शुरू  में शौकिया और फ़िर आदत के चलते वो हमारी जिन्दगी का हिस्सा बन जाती है। ज्ञान के साथ भी ऐसा ही है,  खुद मनन पाठन  किये बिना जो परोस दिया गया वही ग्राह्य हो गया। 

हमारे देश की विशालता केवल भौगोलिक नहीं है।  आर्थिक, सामाजिक तथा शिक्षा जैसी  अन्य विविधताओं के आधार पर भी देखें तो जनमानस अलग अलग स्तर पर स्थित दिखता है। एक विशाल स्टेडियम की कल्पना कीजिये, बीच में मैदान है और चारों तरफ़ सीढि़यों पर दर्शक खेल का आनंद लेने के लिये अवस्थित हैं। जो सबसे नीचे की सीढ़ी पर बैठे हैं और जो ऊपर की सीढ़ियों पर अवस्थित हैं, क्या उनको दिखने वाले दृश्य, खेल की बारीकियाँ  और उस पर उनकी प्रतिक्रियायें एक जैसी होती होंगी? मुझे नहीं लगता। शायद ऐसा ही इस दुनिया के साथ है। यहाँ फ़र्क ये है कि हम सब सिर्फ़  दर्शक ही नहीं, खिलाड़ी भी हैं। अन्य विविधताओं के साथ  अब  कालक्रम को और जोड़ देखिये। आज से सौ साल पहले जो स्थितियाँ  थीं, आज एकदम से बदल चुकी हैं तो जबसे मानव सभ्यता का उदगम आप मानें तब से जीवन कितना बदल चुका होगा? 

बौद्धिकता के अलग अलग स्तरों पर जी रहे अलग अलग लोगों के मानने के लिये कितने विकल्प और फ़िर उन्हें अपनाने, नकारने या सुधारने  की कितनी स्वतंत्रता, मुझे गर्व है जैसा भी हूँ आखिर इस संस्कृति का हिस्सा हूँ।   शायद पिछले जन्मों के सुकर्म ही हैं  :)) 

चलिये नारा लगाईये आप भी, ’क्या कुटिल जी,  फ़िर वही संकीर्ण विचारधारा?’ :)


                                                       

रविवार, नवंबर 11, 2012

शनिवार, नवंबर 03, 2012

जिन्दगी मिलेगी दोबारा..


1. देर रात गये राजा को माँस खाने की इच्छा हुई, फ़ौरन ही आदेश पालन की तैयारी होने लगी। माँस उपलब्ध करवाने वाले ने सोचा कि बकरे के शरीर से बाहर लटकते अंडकोष को काटने मात्र से  ही अभी का काम चल जायेगा और यह सोचकर छुरी हाथ में लेकर आगे बढ़ा। बकरा हो हो करके हँसने लगा। चकित वधिक मुँह बाये उसकी ओर देखने लगा तो बकरे के मुँह से आवाज आई, "जाने कितने जन्मों से मैं तेरा  और तू मेरा गला काटते आये हैं, तेरे इरादे जानकर मुझे  हँसी इसलिये आई कि आज से  तू नया हिसाब शुरू करने जा रहा है।" वधिक ने छुरी फ़ेंक दी और अपनी जिंदगी के असली उद्देश्य की तलाश में लग गया।

2. एक सहकर्मी मित्र  है, पारिवारिक परिचय भी है। वो और उसका दो साल  छोटा भाई शिक्षा के मामले में एकदम समान हैं। एक ही स्कूल में  पढ़े, फ़िर एक ही कॉलेज में,  कोर्स भी एक ही और यहाँ तक कि प्राप्ताँक भी बराबर। दोस्त हमारा शराब को छूता भी नहीं और उसका भाई एक भी मौका छोड़ता नहीं, एक के न पीने की और दूसरे की पीने की वजह पूछी तो जवाब भी उनकी शिक्षा की तरह एक ही आया, "बचपन से पिताजी को हमेशा ही शराब पिए हुये देखा, इसलिये...।

3. अपनी छोटी सी बच्ची का एकाऊंट खुलवाने के बारे में जानकारी ले रही एक महिला ग्राहक ने पूछा  कि आई.डी. प्रूफ़ के रूप में बच्ची का पासपोर्ट वैध डाक्युमेंट है न? इतनी छोटी सी बच्ची का पासपोर्ट? वो बताने  लगीं कि इसका पहला जन्मदिन सेलिब्रेट करने वो लोग दो तीन महीने पहले बैंकाक गये थे। और मैं सुबह शाम देखता हूँ पुल के नीचे उस गंधाते बज़बज़ाते नाले के किनारे मानव और पशु मल-मूत्र, हड्डियों और लोथड़ों, कूड़े  के बीच जाने कौन सा  खजाना तलाशते दो साल से लेकर चौदह-पन्द्रह साल तक के बच्चे।  इनका पटाया बीच यही है,  पोस्टल एड्रेस गंदानाला, बारापुला।

बकरे वाली कहानी सच है या गलत, नहीं मालूम क्योंकि इन कहानियों को तर्क की कसौटी पर कसा ही नहीं जा सकता।
दोस्त जरूर सही है जो कहता है कि पिताजी इतनी पीते थे कि मेरी पीने की इच्छा ही नहीं हुई और छोटा  भाई भी सही है जो कहता है कि पिताजी इतनी पीते थे कि देखादेखी मैं भी पीने लगा।
उस प्यारी सी महंगी सी बच्ची को नजर न लगे, जिसे उसके माँ बाप, दादा दादी और नाना नानी पहला जन्मदिन मनाने विदेश लेकर गये और इन लोकल पटाया बीच वाले बच्चों को तो नजर भी कौन लगायेगा, मस्तराम मस्ती में और आग लगे बस्ती में।

क्या चीज है जो दो जीवों के प्राप्य में इतना अंतर डाल देती है? एक जीव अपनी तन की भूख या मन की मौज पूरी करने के लिये दूसरे जीव के प्राण लेने में सक्षम और दूसरा अपने निरीह, सुंदर या उपयोगी होने की कीमत अपना जीवन देकर चुकाने को विवश, बहुत बार तो बचने के लिये विवश आँखों  से देखने के अलावा कुछ और कर सकने में अक्षम। समान अवसर, समान संस्कार  और समान उपलब्धियों के बावजूद किसी विषय पर एकदम विरोधी परिणामों का  निकलना।  एक ही जैविक तरीके से इस दुनिया में  आने वालों के जीवन में इतना वैषम्य कि एक के हाथ में छुरी और दूसरे की गर्दन पर छुरी ?

कॉलेज समय में पढ़ते हुये दोस्तों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने के इरादे से बैंक में भर्ती के या दूसरी सरकारी नौकरी के फ़ार्म भर दिया करता था, कभी सीरियसली तैयारी  नहीं की क्योंकि अपने इरादे कुछ और ही थे। नतीजा आता तो पता चलता कि जिन्होंने खूब तैयारी की थी, वो रह गये और मैं पास हो गया। दिल के बहलाने को खुद के उन सबसे ज्यादा स्मार्ट होने का मुगालता पाला जा सकता है लेकिन अपनी सच्चाई खुद को  तो मालूम ही है।  हम सब दोस्त लगभग एक ही लेवल के थे, फ़िर  ऐसा क्यों होता था?

इन सब क्यों और  कैसे जैसे सवालों के बारे में मुझे जो सबसे उपयुक्त जवाब लगता है वो है, कर्मफ़ल। यही सटीक लगता है कि इस दुनिया के चलते रहने के लिये यह माया महाठगिनी आवश्यक ही  रही होगी। हर कर्म का तदनुरूप फ़ल, अच्छा कर्म तो उसका अच्छा फ़ल और बुरा कर्म तो उसका बुरा फ़ल। बुरे परिणाम भुगतते समय तो ज्ञानबोध वैसे ही खत्म हुआ रहता है,  अच्छा फ़ल मिलने पर प्रमादवश तामसिक कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं  जिनके परिणाम भुगतने के लिये फ़िर से इसी चक्र में उलझे रहना पड़ता है। और एकाऊंटिंग सिस्टम इतना चौकस  कि हर बारीक से बारीक कर्म का लेखा हाथोंहाथ अपडेट। एक जीवन तो क्या जाने कितने जीवन और कितनी योनियों तक ये चलता रहता है, आते हैं पिछला भुगतने और नये खाते और शुरू हो जाते हैं। ’जिन्दगी न मिलेगी दोबारा’ पर  किसी तरह यकीन कर लूँ तो फ़िर शायद ’सकल पदारथ है जग माहीं’ हो भी जाये, फ़िलहाल तो इस करमहीन नर को इस बात की ज्यादा चिंता  है कि ’जिन्दगी मिलती रहेगी दोबारा’ :( 

 चलिये, फ़िलहाल समेटता हूँ खुद को नहीं तो लोग पूछेंगे कि सिरीमान जी, तबियत तो ठीक है न? :) 

इधर आने का ईनाम चाहिये? क्लिक करिये-
एकदम से कोई भूला बिसरा गीत याद आ जाता है और हम उसे मन ही मन गुनगुनाने लगते हैं, अचानक ही आप पाते हैं कि वही गीत रेडियो पर बज रहा है। आपके साथ कभी ऐसा हुआ है? मेरे साथ बहुत बार होता रहा है। अभी तीन चार दिन पहले पुनर्जन्म और कर्मफ़ल विषय पर मित्रों की प्रतिक्रिया जानने की इच्छा से एक छोटी सी पोस्ट लिखी थी, पब्लिश नहीं की। वही रेडियो वाली बात हो गई।इस पोस्ट का लिंक अपनी पोस्ट(जब पब्लिश हुई) में देना चाहूँगा। 

रविवार, अक्तूबर 21, 2012

छोटी सी ये दुनिया....

उस शाम घर वापिसी के लिये स्टेशन पहँचे  तो पहले से स्टेशन पर पहुँचा साहनी बहुत खुश दिखाई  दिया। हम सब चिंता में डूब गये|  जिस दिन साहनी खुश दिख जाता था उस दिन या उससे अगले दिन जरूर हम लोगों में झगड़ा होता था। डरते डरते वजह पूछी तो पता चला कि सर्दियों के चलते कोई एक्सप्रेस गाड़ी अपने निर्धारित समय से घंटों देर से चल रही थी और आज हमारी रोज वाली पैसेंजर गाड़ी के टाईम पर वही आ रही है।  चहकते हुये उसने समीकरण बताया  - आज पैसेंजर ट्रेन की जगह एक्सप्रेस में सफ़र करने को मिलेगा + दिल्ली पहँचकर गाड़ी बदलने का झंझट नहीं रहेगा = घर पहँचने के रोज के टाईम से कम से कम डेढ़ घंटा पहले घर पहँचेगा यानि कि  हुण मौजां ही मौजां। मैंने खुद को अगले दिन होने वाली लानत-मलानत के लिये तैयार करना शुरू  कर दिया।

अगला दिन, समय वही और जगह भी वही। हम  सब भी वही,  बस हमारा साहनी अपनी स्वाभाविक मुद्रा से भी ज्यादा स्वाभाविक रूप से रौद्र दिख रहा था। ट्रेन में बैठे, पत्ते बँटने शुरू हुये कि शर्मा ने मुझे इशारा किया और हम शुरू हो गये।

पत्ते बाँटते बाँटते मैंने पूछा, "साहनी साहब, कल तो जरूर भाभी ने पकौड़े बनाकर  खिलाये होंगे?"

"क्यों,  बारात आनी थी उसकी? पत्ते बाँट चुपचाप।"

"अरे, कल तुम्हें  डेढ़ घंटा पहले घर पहुँचा देखकर खुश हो गई होगी, इसलिये पूछा। तुम तो यार ऐसे गरम हो रहे हो जैसे ..।"

भाई का पारा चढ़ने लगा था, "मुझे पता था उंगली किये बिना मानना नहीं है तूने। खेल में ध्यान नहीं लगा सकता क्या? खाना खाते समय और ताश खेलते समय बोलना नहीं चाहिये।"

"अच्छा यार, मैं नहीं बोलता। बिगड़ तो ऐसे रहा है जैसे पता नहीं क्या पर्सनल अटैक कर दिया हो। अच्छा, ये तो बता दे कि कल घर किस समय पहुँचा था?"

":रोज वाले टाईम पर, साढ़े आठ बजे। नहीं बोलूँगा कहकर भी सवाल पूछे जा रहा है। अब मत पूछियो कुछ।"

"बोलने से मना किया था तुमने, पूछने से नहीं।  कल तो एक्सप्रेस गाड़ी थी, फ़िर भी रोज वाले टाईम पर? कहाँ चला गया था?"

"मुझे गुस्सा मत दिला यार, चुपचाप पत्ता फ़ेंक।"

"कभी बोलने से मना करता है तो कभी पूछने से। चल ठीक है यार, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जहाँ और जितना दिल करे, उतने धक्के खा।"

"मैं क्यों धक्के खाऊँगा?  हमारे स्टेशन पर बेंच नहीं है क्या? या उस पर मैं थोड़ी देर बैठूँगा तो रेलमंत्री के पेट में दर्द हो जायेगी? ले, सुन ले सारी बात। सात बजे उतर गया था तेरी उस एक्सप्रेस वाली  गाड़ी से, फ़िर सोचा जल्दी घर पहुँच गया तो बेकार में वो सौ तरह के सवाल पूछेगी इसलिये वहीं बैठ गया। फ़िर जब रोज वाली ट्रेन आई तो मैं भी उठकर अपने घर चला गया। तुम खेलो यार, मेरा मूड नहीं है अब खेलने का।" सबने बहुत समझाया लेकिन साहनी अपनी जबान का पक्का था, उस दिन नहीं ही खेला। अगले दिन से धीरे धीरे उसे फ़िर पटरी पर ले आये।

इस बात से साल भर पहले हमारी भाभीजी ने एक बार अपने लिये चप्पल मँगवाई थी। शाम को लौटते समय साहनी ने कहा कि मेरे साथ बाजार चलो, सात नंबर की लेडीज़ चप्पल लानी है। शर्मा कहने लगा, "कौन सी कंपनी का सात नंबर? हर कंपनी का अपना अपना स्केल होता है, बाटा का सात अलग होता है और लखानी का अलग। मुझे तो कभी  चप्पल खरीदनी होती है तो नंबर की बजाय हाथ से अपनी मिसेज के पैर का साईज़ नाप लाता हूँ। एकदम सही साईज़ मिलता है फ़िर, नंबर का झमेला ही नहीं।" साहनी को बात जम गई  और चप्पल खरीद एक दिन के लिये मुल्तवी हो गई। अगले दिन बाँया हाथ-दायां हाथ का कन्फ़्यूज़न हुआ, पैमाईश का नया फ़ार्मूला धागे वाला निकला और शॉपिंग एक दिन और टल गई। तीसरे दिन  हम पाँच बंदे एक जोड़ी चप्पल खरीदने गये। दुकानदार को धागा दिखाकर साईज़ समझा दिया गया और साथ ही सिफ़ारिश भी कर दी गई कि रेट बेशक अपनी मर्जी का लगाये लेकिन चप्पल ऐसी होनी चाहिये कि जोर से भी लगे तो आवाज कम  से कम आये। दुकानदार ने वताया  कि आजकल  ऐसी लेडीज़ चप्पल ही ज्यादा बिकती हैं, ज्यादा आवाज और कम चोट वाली तो जेन्ट्स चप्पल आती हैं।  पुरुषत्व के सुपीरियरीटी कॉम्प्लेक्स के चलते  साहनी  समेत हम सब बहुत खुश हुये। साहनी भी खुश हुआ था नतीजतन हमेशा की तरह अगले दिन फ़िर हम लोग किसी बेकार सी बात पर बहुत उलझे।

ये तो हुई भूमिका, अब आते हैं मुख्य घटना पर।  एक दिन शाम को स्टेशन पर पहुँचे और गाड़ी के आने का सिग्नल भी हो चुका था। दूर से गाड़ी आती दिखने लगी। स्टेशन से थोड़ा पहले ही हार्न बजाती हुई गाड़ी रुक गई और देखते देखते इंजिन के पास भीड़ इकट्ठे होने लगी। हम प्लेटफ़ार्म पर ही ताश खेलने में मस्त रहे, साहनी भीड़ का हिस्सा बनने चला गया। काफ़ी देर के बाद लौटा, जैसा कि अंदेशा था उसने बताया कि कोई बेचारा गाड़ी के नीचे आकर मर गया है। कोई जवान लड़का था, सामने से रेल आते देखकर भी जल्दबाजी में साईकिल लेकर पटरी पार करने लगा और...।  साहनी बता रहा था कि एकदम नई साईकिल थी बेचारे की। हमें अफ़सोस हुआ लेकिन उतना ही, जितना अखबार में ऐसी कोई खबर पढ़कर होता है। ट्रेन आई और सब फ़िर से  महती कर्म में जुट  गये। साहनी ने फ़िर से उस लड़के की बात छेड़ी, "बेचारा जवान लड़का था। घर से पता नहीं किस काम से निकला होगा लेकिन मौत पर किसी का बस नहीं  चलता है। साईकिल भी एकदम नई थी जैसे अभी ही खरीद कर लाया हो।"  एक बार फ़िर से सबने दुख प्रकट किया। साहनी चूँकि मौके पर देखकर आया था वो उस मंजर को भुला नहीं पा रहा होगा, कुछ देर बाद  फ़िर से उसने वही बात छेड़ी और साथ ही नई साईकिल की बात भी। बेध्यानी में मैं कह उठा, "यार, तू ऐसा कर कि अगले स्टेशन पर उतर जा और दूसरी ट्रेन से वापिस चला जा। साईकिल वहीं रखी होगी, तेरा ध्यान उस साईकिल में ही फ़ँसा है तो ले आ जाकर।" साथी लोग जोर जोर से हँसने लगे, साहनी सन्न रह गया और मैं ...।

अगला स्टेशन आने पर  उसने अपना बैग उठाया और कोच से उतर गया। उस दिन के बाद उसने हम लोगों के साथ आना जाना, बोलना खेलना सब छोड़ दिया। शुरू में दो चार दिन हम लोगों ने उसे साईकिल का नाम लेकर उकसाने की कोशिश भी की लेकिन वो चुपचाप वहाँ से चला जाता। फ़िर धीरे धीरे उसके और हमारे रास्ते अलग अलग हो गये।  जिन्दगी अपनी रफ़्तार से उसकी भी चलती रही और अपनी भी,  लेकिन एक बोझ सा सीने पर रहा ही। 

पिछले सप्ताह मेट्रो से उतरकर बैंक जा रहा था तो "अबे, संजय है क्या?" कहकर उसने आवाज लगाई तो एक बार तो मैं भी पहचान नहीं पाया। शायद पन्द्रह साल बाद मिले होंगे, दुनिया सच में बहुत छोटी हो गई है।  पांच सात मिनट वहीं बस स्टैंड पर खड़े खड़े ही बातचीत हुई। मैंने कहा कि यार उस दिन मुझसे गलती हुई, मुझे ऐसा नहीं बोलना चाहिये था तो वो मुस्कुराने लगा।    

हालचाल पूछने के बाद बताने लगा,  "आज ड्यूटी से छुट्टी कर रखी है। नया स्कूटर खरीदने जा रहा हूँ।" 

मन तो किया कि कह दूँ, "क्या फ़ायदा होगा  तेरे नया स्कूटर खरीदने से?  घर तो वही पुराने टाईम पर जायेगा।" लेकिन हाथ मिलाकर इतना ही कह पाया, "यार, ध्यान से चलाना, ट्रैफ़िक बहुत है आजकल।" 

सैकड़ों हजारों पत्थरों में से एक पत्थर और उतरा, चलो कुछ तो बोझ कम हुआ। सौ टके का सवाल ये है कि बेशक  छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं, क्या ऊपरवाला हमेशा और हर बार इतनी मोहलत देता है कि अपनी गलती मान सकें? जवाब अगर हाँ है  तो कीप मिस्टेकिंग  को कीप इट अप रखेंगे और अगर जवाब न में है तो क्विट। 

हमने ये भी सोचा कि अपने मुँह मियाँ मिट्ठू तो आप सबके सामने इतनी बार बन चुके, एक अध्याय ऐसा भी सही। :)

गाना सुनो यार, बहुत दिन हो गये उल्टा सीधा लिखते पढ़ते हुये..
                                                                          
                                   
                                                             

मंगलवार, अक्तूबर 09, 2012

का बरखा जब.....

छोटे से एक प्रदेश में एक महीने में ग्यारह बलात्कार के ज्ञात केस, परफ़ार्मेंस  देखकर समझ नहीं आता कि गर्दन नीची होनी चाहिये  या छाती चौड़ी?

ताजातरीन मामले  में सोलह साल की एक लड़की ने उसके साथ हुये बलात्कार के बाद आत्महत्या कर ली। पीड़िता एक दलित परिवार से संबंध रखती थी। पूरी कहानी अभी सामने आई नहीं और शायद आयेगी भी नहीं।

टीवी पर अभी अभी यू.पी.ए. अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गाँधी के पीडि़त परिवार के घर पर किये गये दौरे का  लाईव प्रसारण  देखकर हटा हूँ। उनके साथ हरियाणा के मुख्यमन्त्री श्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और केन्द्रीय मन्त्री सुश्री शैलजा थीं। संवेदनायें जीवित होतीं तो यकीनन मान लेता कि पीड़ित परिवार, समाज और सभ्यता के जख्मों पर मरहम लग गया होगा लेकिन अपने ऊपर वाले माले में  कुछ कैमिकल लोचा जरूर  है, हर चीज में कुछ हटकर लगता है।  ऐसा लगता है जैसे किसी शहीद की मजार पर मेला लगा हुआ था, पुलिस-मीडिया-प्रशासन चाक-चौबंद था। साँस्कृतिक मामलों की  मन्त्री साथ थीं और सूबे के मुख्यमन्त्री महोदय भी साथ थे जिनके अपने कुछ दिन पहले तक के गृहमन्त्री  ऐसा ही एक मामला पहले से  भुगत रहे हैं।

रिपोर्टर बता रहे थे कि प्रशासन पूरी तरह से इस दौरे के लिये तैयार था। सड़क साफ़ करवा दी गई थी क्योंकि सोनियाजी आने वाली थीं। रात दस बजे उस घर में बिजली का कनैक्शन दे दिया गया था क्योंकि सुबह सोनियाजी आने वाली थीं। उस छोटे से घर में गद्दे, दरियाँ तक बिछवा दिये थे प्रशासन ने, क्योंकि..। वैलडन प्रशासन, अगली बार भी ऐसे ही तैयार रहना बल्कि उचित लगे तो एक अलग विभाग ही इस काम के लिये बना देना जो इन दरियों और गद्दों को मैनेज करे, एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा दे।

हमेशा की तरह स्टूडियो से सवाल पूछे जा रहे थे, ’वहाँ  कैसा माहौल है? क्या लगता है वहाँ की जनता को? प्रशासन कुछ सबक लेगा? सोनियाजी के दौरे से इन घटनाओं पर कुछ असर होगा कि नहीं?’ और हमेशा की तरह जनता अपने बयान दे रही थी। बाद में यही लोग इन बाईट्स के स्टिल्स फ़्रेम में सजाकर रखेंगे।

लगता है वो दिन भी दूर नहीं जब मेडिको-टूरिज़्म की तरह सेक्सुअल असाल्टो-टूरिज़्म भी शुरू हो जायेगा। सरकारजी, आईडिया पकड़ो फ़टाफ़ट। तीन दिन और दो रात का पैकेज इतने का और पांच दिन और चार रात का पैकेज इतने का।   डॉलर आयेंगे भाई, जी.डी.पी. बढ़ेगी, देश-प्रदेश  का लोहा-लक्कड़ सारी दुनिया मानेगी। फ़िर इसमें भी विदेशी निवेश आमन्त्रित कर देना। Come on, be a part of the game. Peel the feel, feel the feel by yourself.

स्तब्ध, हतप्रभ,  किंकर्तव्यमूढ़, ठगे हुये जैसा महसूस नहीं कर रहे आप? मैं करता हूँ। चुप रहा नहीं जाता और कुछ कहा भी नहीं जाता। 

दोष किसे देना चाहिये?

नेताओं को?  जो हँसकर कहते हैं कि जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है और वो कुछ दिन में सब भूल जाती है...
या फ़िर  कानून को? जो वो डंडा है जो सबल के हाथ में  निर्बल के लिये है........
बदलती शिक्षा व्यवस्था को? जो परसेंटाईल मूल्य तो सिखाती है लेकिन जीवन के मूल्य आऊट ओफ़ सिलेबस बताकर  स्किप कर जाती है,,,
या खुद को?  जो ये  देखते हैं कि जुल्म के  भागीदार कौन है और उसके बाद ही अपना पक्ष तय करते हैं...
या फ़िर व्यवस्था को? जिसके हम सब पुर्जे हैं...

अजीब अजीब बयान और अजीब अजीब ब्रेकिंग न्यूज़ हैं - ग्यारह  मामलों में से ज्यादातर मामले दलितों से संबंधित बताये जा रहे हैं,  अगर संबंधित दलितों के मामलों की  प्रतिशत कुल जनसंख्या में उनकी आबादी के प्रतिशत के अनुरूप होती तो कोई बात नहीं थी?    

दिमाग भन्नाया रहता है ये सब देख सुनकर। जब दूर बैठे हम लोगों का ऐसा हाल हो सकता है तो जिन पर ये सब बीत रहा है, वो कैसा महसूस कर  रहे होंगे? 

सभी पीड़ित पक्षों और उनके परिवारों के साथ सहानुभूति रखते हुये यही कामना है कि सबको  न्याय मिले और  भविष्य में  ये सब कवायद करने की जरूरत न ही पड़े तो अच्छा। अपराध हो जाये और उसके बाद चाहे UPA अध्यक्षा मरहम लगाने पहुंचे या UNO का जनरल सेक्रेटरी, जो चला गया वो लौटता नहीं।

बुधवार, सितंबर 19, 2012

मुरारी लाल ...?

कश्मीरी गेट स्टेशन पर हमेशा की तरह भीड़ थी| इंटरचेंजिंग  स्टेशन होने के नाते पीक ऑवर्स में भीड़ का न होना अस्वाभाविक लगता है, भीड़-भाड़ देखकर  ही  नार्मल्सी का अहसास होता है| बहुधा अपना नंबर दूसरी ट्रेन में ही आता है, यानी कि हमारे लाईन में लगने के बाद आने वाली दूसरी मेट्रो में| धक्का मुक्की करने की आदत कभी रही नहीं और वैसे भी 'लीक छोड़ तीनों चलें' में से अपन वन-टू-थ्री कुछ भी नहीं| कैस्ट्रोल की विज्ञापन फिल्म अपने को आईडियल लगती  है, चाहे पाखाने की लाईन में लगे हों,  कोई ज्यादा जल्दी वाला आ जाए तो उसे   'पहले आप' कह ही देते हैं| अपना नंबर आते आते पहली मेट्रो भर चुकी होती है, कुछ देर के लिए नंबर वन का अहसास हम भी ले लेते हैं| हमेशा की तरह दूसरी मेट्रो आई तो अपन लाईन में सबसे आगे थे|  फिर  भी   गेट  खुलते खुलते चढ़ने वाले कई वीर बहादुर लोग अपने से पहले ही आरोहण कर चुके थे| जल्दी वाले भागकर सीट पर कब्जा करते हैं, अपन एंट्री मारकर अपना कोना पकड़ लेते हैं| लॉजिक ये है कि उधर वाला दरवाजा केन्द्रीय सचिवालय स्टेशन पर ही खुलता है तो उतरने में  ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती|

गेट के एक कोने पर राड पकड़कर  मैं खडा था और उसी गेट के दूसरे किनारे पर नजर गई तो अपने से एक दो इंच ऊंचा एक छः  फुटा जवान बन्दा भी बिलकुल उसी मुद्रा में अपने हिस्से की राड पकडे खडा था|  संयोग से हमारे बीच जो  चार पांच लोग खड़े थे, सब औसत या फिर औसत से कम कद के थे| खाली दिमाग तो आप सब जानते ही हैं, शैतान का घर होता है| अमर चित्रकथा में कभी देखा भगवान के द्वारपाल जय-विजय का चित्र ध्यान आ गया|  दोनों ऐसे खड़े थे जैसे सच में किसी राजमहल के द्वारपाल हों|  दिमागी खुराफात बढ़ने लगी, मैं अपने सह द्वारपाल के चेहरे का जायजा लेने लगा| कद में तो मुझसे ऊंचा था ही, सेहत में भी मुझसे इक्कीस| उम्र मुझसे चार पांच साल कम रही होगी, कसरती बदन, टीशर्ट में एकदम किसी हीरो के माफिक लग रहा था|  सुदर्शन व्यक्तित्व बार बार ध्यान खींच रहा था और मैं द्वारपालों वाली कल्पना से भी अब तक छुटकारा नहीं पा पाया  था|  

बन्दे ने बहुत करीने से मूंछें बढ़ा रखी थी, अभी तक हमारी तरह सफेदी झलकनी शुरू हुई नहीं थी| मूंछों के भी तो  कितने स्टाईल हैं आजकल| इस बन्दे ने मूछों को नीचे की तरफ विस्तार दे रखा था, एकदम होंठों से नीचे तक जा रही थीं| एक हमारी मूंछ है, दो महीने में सिर्फ एक बार सही सेट होती है जब सैलून  में हजामत-शेव  बनवाते हैं वरना तो कभी ऊंची-नीची और कभी एकदम से बेतरतीब| मेट्रो चल रही थी, साथ साथ मेरे विचार भी| बार बार उसकी तरफ देखता था और ये  पाया कि वो भी शायद कुछ समझ रहा है क्योंकि जब भी देखा, उसे भी इधर ही देखते पाया| फिर मैं दूसरी तरफ देखकर सोचने लगा कि  टाईम बहुत बदल गया है, ऐसा न हो कि वो कुछ उल्टा सीधा समझ ले| बहुत हो गयी कल्पना, कहीं अगले बन्दे ने मुझे  दोस्ताना टाईप वाला  समझ लिया तो जवाब देते न बनेगा| इससे अच्छा तो चंचल को थोड़ा मोडीफाई  करके याद कर लेते हैं -  मैं नहीं देखना, मैं नहीं देखना| 

मन ने कहा, देखना नहीं है तो सोचने में क्या हर्जा है? सोच तो सकते ही हैं| बन्दे ने मूंछें ऐसी क्यों रखी होंगी? इन्हें थोड़ा ऊपर की तरफ उमेठ लेता तो एकदम 'मेरा गाँव मेरा देश' वाले  विनोद खन्ना जैसा लगता|  धीरे से नजर उठाकर देखा तो जाए कि अगर मूछें ऊपर की तरफ हों तो कैसा लगे?  येस्स, परफेक्ट एकदम विनोद खन्ना| लेकिन यार, अब तुम क्यों इधर देख रहे हो? भाई मेरे, मेरी नीयत बिलकुल ठीक  है| ले यार, मैं ही फिर से नजर दूसरी तरफ कर लेता हूँ| बड़ा खराब टाईम आ गया है| 

अच्छा ये जो पुलिस कई बार पोस्टर चिपका देती है कि अपने आसपास देखिये, कहीं कोई आतंकवादी तो नहीं? अलग अलग भेष में एक ही चेहरे, इतना फर्क पड़ जाता है दाढी मूंछों को इधर उधर या ऊपर नीचे करने से? इसी बन्दे ने अगर दाढी भी बढ़ा रखी होती तो कैसा लगता? देखूं  ज़रा| हाँ, सच में चेहरा मोहरा बदल तो जाता है| अबे यार, दो मिनट उधर  नहीं देखता रह सकता क्या? चल मान ले कि बार बार मैं देख ही रहा हूँ तुम्हें तो कुछ ले लिया क्या? बाईगोड लोग बहुत असहिष्णु हो गए हैं, आदमी भी सेल्फ कान्शियस होने लगे हैं | जा यार, अब सच में नहीं झांकना तेरी तरफ| होगा मिस्टर इंडिया, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला| 

ये मेट्रो  वाले भी जान बूझकर ऐसी अनाऊँसमेंट  लगाते हैं, 'माइंड द गैप'| अबे सालों,  गैप में माइंड लगा दिया तो बाकी कामों में तुम्हारे फूफाजी आयेंगे माईंड लगाने? गाडी में चार डिब्बे फालतू लगा नहीं सकते, चले हैं हमें सिखाने| खुद को कुछ आता जाता नहीं है पैसा कमाने के सिवा और बात करते हैं| नहीं देखना यार तेरी तरफ अब, वैसे भी हमारा स्टेशन आने वाला है| फिर से  वही धक्कापरेड करनी है, एक और मेट्रो|  घर से दफ्तर तक सीधी एक मेट्रो होती तो मजा आ जाता| एक जगह से बनकर चलती और दूसरी जगह टर्मीनेट होती चाहे डिसमिस होती| ठाठ से हम भी  सीट पर बैठकर आते, न गेट पर खडा होना पड़ता और न ऐसे  द्वारपाल बनना पड़ता|

एक बात तो है, बन्दे की पर्सनेल्टी है जबरदस्त| मूंछे नीची रखने का मतलब है कि समझदार भी है| कुछ समय पहले तक घर में घुसते समय लोग मूंछें नीची कर लेते थे, आजकल बाहर भी नीची रखने में ही समझदारी है| या तो रखो ही नहीं, या फिर इसकी तरह रखो| वापिसी में कहीं नीची करनी भूल गए तो पता चला कि लेने के देने पड़ गए|  खैर, जो भी हो, हमारा बन्दा है एकदम मॉडल या हीरो के जैसा| लगता है ये  भी इसी स्टेशन पर उतरेगा| एक काम करता हूँ, उतरकर इसको बता देता हूँ कि मैं बार बार इसलिय देख रहा था कि अगर  मूछें ऊपर की तरफ उठाकर रखे तो इसकी शक्ल और पर्सनैल्टी एकदम विनोद खन्ना से मिलती है और अब भी  ट्राई  करे तो किसी फिल्म या सीरियल में हीरो का रोल मिल सकता है|   हो सकता है इसके मन में कोई मेरे बारे में कोई गलतफहमी आ रही हो, दूर हो जायेगी| जितनी  बार मैंने उसकी तरफ देखा, वो भी  बार बार मेरी तरफ देखता था| वैसे तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन गलतफहमी ख़त्म ही हो जाए तो अच्छा है|

'अगला स्टेशन केन्द्रीय सचिवालय है| यहाँ से वायलेट लाईन के लिए बदलें|'  क्यों भाई, कोई जबरदस्ती है? हमें सूट  न करती होती तो बिलकुल न बदलते| कभी वायलेट लाईन के लिए बदलो, कभी पीली रेखा से पीछे रहें|    ***या समझा है हमें?  पीली रेखा को समझा ले  न  कि आगे रहे हमसे, सारे उपदेश हमारे लिए ही हैं| एक दिन  तुम्हारी भी क्लास लेनी है| हिन्दी अंगरेजी की ऐसी तैसी करके रख दी है तुमने| 

' हाँजी सर, धक्का मत दो| उतरना है यहीं पर,  वरना मुझे शौक थोड़े ही है दरबानी करने का जो  पंद्रह मिनट से गेटकीपर बनके खडा हूँ|  ओ पहलवान, उतरने देगा हमें, तभी तो चढ़ पायेगा| ऐसे जोर लगाने से कोई फायदा नहीं| पता नहीं कब कामनसेंस आयेगी लोगों को| घर से पता  नहीं  क्या खाकर आते हैं, चढ़ना है तब धक्के मारेंगे और उतरना है तब धक्का मारेंगे| अभी यमदूत आ जाएँ न तो फिर बैकसाईड  से  धक्के लगाने लगोगे, न जी हमें नहीं जाना, हमें जल्दी नहीं है| जाहिल लोग कहीं के|'

उतरकर बैग,पाकेट रोज  चैक करने पड़ते हैं जी, पता चले कि इतनी भीड़ में मोबाईल या वैलेट निकाल लिया किसी हाथ के जादूगर ने| जेबकतरे भी हाई प्रोफाईल हो गए हैं आजकल, मेट्रो में सफ़र करते हैं| हाँ, सब ठीक है| अरे वो कहाँ गया मेरा यार विनोद खन्ना, जालिम सफाई तो देने देता| अब यहाँ तो छह फुटे और पांच फुटे  सब बराबर हैं, सामने अपनी मेट्रो खड़ी  है, उसे देखूं या अपने उस हमसफ़र को? मिल जाता तो उसे बता देता कि क्यों बार बार उसे देख रहा था| वो पता नहीं क्या क्या समझ रहा होगा क्योंकि वो भी बार बार घूर रहा था, समझ नहीं आया|  ये भीड़ भी न एकदम निकम्मी  है, खो गया न बन्दा| चलो यार संजय कुमार, जाने दो उसे,  गलत समझेगा तो हमारा क्या लेगा? वो भी तो घूर रहा था| 

'क़ुतुब मीनार को जाने वाली मेट्रो....'      मैं अभी उसी प्लेटफार्म पर ही था, चलने को हुआ कि  कंधे पर हाथ रखकर किसी ने मेरा ध्यान खींचा, देखा तो थोड़ा हटकर वही खड़ा था| 

मुझसे कहने लगा, 'बॉस, एक बात बोलूँ?'   

बोलने की तो मैं सोच रहा था, समझ गया कि उसे एक आदमी द्वारा बार  घूरना और बार बार देखना खला होगा| तुम बोल लो यार, मैं फिर अपना पक्ष रख लूंगा| 'हाँ भाई, बोलो?' मेरे मुंह से फिलहाल इतना ही निकला|

'आप अगर अपनी मूंछ  को थोड़ा सा ..'  मेट्रो के गेट खुल चुके थे और उतरने वाली भीड़ धक्के मारती हुई हम दोनों को अलग अलग दिशा में ले गयी| जाहिल लोगों ने पूरी बात भी नहीं सुनने दी और न मुझे कुछ कहने दिया|  समझ नहीं पाया कि क्या कहना चाह  रहा था वो...|
                                                                     

रविवार, सितंबर 09, 2012

होता है. होता है...

ट्रेन में डेली पैसेंजरी का जिक्र कई बार कर चुका हूँ, ऐसे ही एक सफ़र की बात है - कोई त्यौहार का दिन था| उस दिन सभी स्कूल, सभी कार्यालय बंद थे लेकिन बैंक खुले थे| लौटते में हमारे ग्रुप में सिर्फ दो मेंबर थे, एक मैं और एक शेर सिंह जी|  एक सहकारी बैंक में मुलाजिम थे और रिटायरमेंट के नजदीक थे, प्यार-दुलार में सब उन्हें 'बड़े मियाँ' बुलाते थे|  हम तो हैं बगुला भगत टाईप के, आसपास कुछ न हो तो आँख बंद करके भगतई का ड्रामा कर लेते हैं जो आगे पीछे काम आ जाता है लेकिन 'बड़े मियाँ'  बिना ताश खेले  जल बिन मछला  हुआ जाते  थे| कोच में बैठे एक एक  बन्दे  से पूछते थे 'सीप खेलनी आती है?' एक पार्टनर मिल गया, एक और की दरकार थी| अगला स्टेशन आया, फिर वही  कवायद    हुई लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ| 

इसी तरह दो तीन स्टेशन गुजर गए आखिरकार उनकी तलाश पूरी हुई  और बाजी जम गई|  ताश का पार्टनर मिलने की जो खुशी उनक चेहरे से छलक रही  थी, इतनी तो  वांछित बहुमत प्राप्त करवा देने वाला पार्टनर दल मिलने  पर  गठबंधन सरकार के मुख्य  घटक दल को भी शायद न मिलती हो| 

बार बार मुझसे कहते थे, 'देखा,  कोशिश की तो मिल गया न खिलाड़ी? नहीं तो सारा रास्ता बोर होते जाते|'  
मैंने कहा, 'ये  तो है| वैसे आधा रास्ता तो कट ही गया था, बाकी आधा भी कट ही जाता|' 
बड़े मियाँ ने अकर्मण्य, सुस्त, कामचोर, निरुत्साही, जाहिल  आदि आदि ढेरों सर्टिफिकेट जारी कर दिए| बहुत प्यार करते थे न हमसे| 


खैर, पत्ते बाँट दिए गए और खेल शुरू हो गया और जिसको वो इतनी शिद्दत से ढूंढकर लाये थे, उस भले आदमी ने इतनी देर में  पत्ते पलट कर रख दिए, "मेरा तो स्टेशन आ गया जी, मैं तो अब उतरूंगा|" 

बड़े मियाँ के चेहरे की ट्यूबलाईट बुझ गयी, पोपले मुंह से अपनी जनाना सी आवाज में बोले, 'धत मेरे यार, अभी तो खेल का मजा आना शुरू हुआ था और तू उतर भी रहा है|'  आसपास जितने बैठे थे और उनकी व्यग्रता का आनंद ले रहे थे, खूब हँसे| 

जुलाई २०११ के लास्ट में पंजाब से ट्रांसफर होकर आया था| एकदम नया माहौल, नयी तरह के ग्राहक, यूं कहिये सब कुछ एकदम नया नया सा, अपरिचित सा था| हमें तो आदत थी गाँव-कस्बों की ब्रांचों की, यहाँ पर आकर  हर चीज को या तो टुकुर टुकुर देखते रहता  था या फिर वही आँख बंद कर लेते थे| अब जाकर धीरे धीरे कुछ पंजे जमने शुरू हुए थे कि अचानक बड़े मियाँ वाला किस्सा याद आ गया, याद दिला दिया गया|  To Cut A Long Story Short , हिस्टरी ने फिर से खुद को रिपीटा|

सफ़र बढ़ गया है जी, दो घंटा रोज| हो सकता है पोस्ट लिखने  की और टिप्पणियों की नियमितता कुछ  प्रभावित हो लेकिन अभी पीछा नहीं छूटेगा आपका,  क्योंकि 'यही कहेंगे हम सदा कि  दिल अभी भरा नहीं|'| 

हाजिर होते रहेंगे नए पुराने किस्सों के साथ, तब तक जय राम जी की|

गुरुवार, अगस्त 23, 2012

विचार-विमर्श


                                                                          
                                                              (चित्र गूगल से साभार)

अचानक ही अमृतसर जाने का प्रोग्राम बन गया था, रिज़र्वेशन  करवाने   का समय  भी  नहीं था और तब ओनलाईन रिज़र्वेशन होते भी नहीं थे| यानी कि  यानी कि  समझ गए न?   फिर वही  कोई पुरानी बात!!   

1991, बैंक का इंटरव्यू दिया ही था,  उसके फ़ौरन बाद की बात है| अमेरिका ने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी कि ये संजय कुमार बेरोजगार रह जाए वरना क्या जरूरी था उसे हमारे इंटरव्यू से एक दिन पहले ही ईराक पर हमला करने की? एक तो वैसे ही बंधी बंधाई पढाई  करने में हमारा दिमाग दिक्कत मानता था, फिर जो तैयारी की थी तो उस हमले के बाद एक बार तो लगा कि गया भैसा पानी में, बस तबसे ही हमें अमेरिका नापसंद हो गया| आप भी कहोगे  अजीब आदमी है ये, अमृतसर जाने की बात करके ईराक और अमेरिका की सुना रहा है  लेकिन मित्रों बैकग्राऊंड मजबूत हो तो अच्छा रहता है|  

Anyway, let us come to the point,  बिना आरक्षण के जाना पड़ रहा था, गनीमत ये थी कि साथ में कोई औरत या बुजुर्ग नहीं थे| एक मैं और एक मेरा प्यारा सा हमउम्र सा चाचाजानी|  सुबह सुबह   घर से परौंठे खाके और लस्सी पीके नई दिल्ली से शान-ए-पंजाब पकड़ने चल दिए| वो हमें और हम उन्हें दिलासा दे रहे थे कि दो जनों को एक भी सीट मिल गई तो कल्लेंगे  फिफ्टी -फिफ्टी| पहुंचे तो देखा कि खूब भीड़ थी, सीट का नो-चांस| अब दिलासे का प्रकार बदल गया, कोई बात नहीं यार जवान बन्दे हैगे, रास्ते में सीट मिल गई तो ठीक न मिली तो भी ठीक| बैठने की जगह तो दूर थी, खड़े होने की जगह के भी लाले पड़ गए| जगह मिली कोच के गेट के पास| 

गाडी चल दी तो धीरे धीरे सब सामान्य सा होने लगा|  समय बिताने का सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ शगल ये है कि किसी भी और हर किसी मुद्दे पर बहस छेड़ दी जाए, वही हुआ| तुसी कित्थे जाना है? से शुरू होकर  गाड़ियों में बढ़ती भीड़ से  होकर बात वहीं आ पहुँची जहां उसे आना था, यानी ईराक पर अमेरिका का हमला| सारी सवारियां दो हिस्सों में बाँट गयी और शुरू हो गए दुनिया के मसले सुलझाने| हर जगह की तरह वहां भी दो गुट बन  गए अमेरिका समर्थक और ईराक समर्थक|  पानीपत आते आते मुद्दा व्यक्तिगत हो गया, बुश Vs सद्दाम|  अम्बाला तक आते आते रह गया सद्दाम हुसैन,  हममें से आधे वार्ताकार सद्दाम हुसैन की तारीफ़ कर रहे थे और आधे  उसका विरोध| सब  पूरी सक्रियता से अपने अपने तर्क पेश कर रहे थे, वहीं भीड़ में खड़े थे एक सरदारजी| छः फुटा कद, पर्सनल्टी नहीं पूरा पर्सनैलटा  था उनका| रात में शायद नींद पूरी नहीं हुई थी, सो खड़े खड़े ही श्रीमानजी अपनी नींद पूरी कर रहे थे| जब गाडी को कभी जोर से झटका लगे तब या जब इधर बहस गरम हो जाती थी तब, धीरे से आँख खोलते और जायजा लेकर धीरे से वाहेगुरू वाहेगुरू बुदबुदाते और फिर से आँखें बंद| 

बहसते बहसते लुधियाना और जालंधर भी पीछे छोड़ दिए, जैसे मोमबत्ती बुझने से पहले जोर से भभकती है हम लोगों की बहस भी जोरों से भड़क गयी|   गाडी अमृतसर के आऊटर सिग्नल पर पहुंचकर झटके से रुक गयी| सरदारजी की आँख खुली, बाहर झांककर देखा और अबकी बार  उन्होंने  आँखें दोबारा बंद नहीं  की | बहस की तरफ ध्यान देने लगे, हम लोगों को भी जैसे एक निष्पक्ष निर्णायक की प्रतीक्षा थी, असली बात ये थी कि स्टेशन पास आ चुका था|  

एक बोला, 'सद्दाम की हिम्मत तो माननी पड़ेगी कि ये जानते हुए भी कि अमेरिका से जीत नहीं सकता, उसने हार नहीं मानी|'  
दूसरी पार्टी में से एक प्रखर वक्ता बोला, 'यही बात है तो सद्दाम की क्या हिम्मत है? हिम्मत तो उसके सिपाहियों की है जो मैदान में लड़ रहे थे|'  इस पार्टी वाले  निरुत्तर, एकदम से इस तर्क का जवाब नहीं सूझा| 
अपने सरदार जी बोले, 'वीरे, तेरी गल्ल सई  है लेकिन इसी गल्ल नूं  अग्गे वधाईये ते असली हिम्मत तां बम्बां दी हैगी जेड़े लड़ाई दे मैदान विच फट रये सी|(भाई, तेरी बात सही है लेकिन तेरी सही बात को ही आगे बढायें तो असली हिम्मत तो बमों की है जो मैदान में फट रहे थे)| चलो भाई, आ गयी गुरू  दी   नगरी, जो बोले सो निहाल,  सत श्री अकाल| ' तर्क में तुक  थी या नहीं थी, लेकिन तेली के सर में कोल्हू वाली बात करके सरदारजी ने हम  सबको अमृतसर पहुंचा दिया|  

थ्योरी में तो  हमारे पिताजी भी कई बार समझा चुके कि बेटा बहस में कोई न कोई जीतेगा ही, ये जरूरी नहीं लेकिन कोई न कोई हारता जरूर है और कभी कभी दोनों भी हार जाते हैं|  कभी हमें भी बहुत शौक चढ़ा था अपना ज्ञान झाड़ने का फिर अपने साथ एक दो वाकये ऐसे हुए कि हम बहस करना भूल गए| समझ गए कि हम बहस करने के लिए नहीं बने, ईश्वर सबको सब गुण नहीं देता| इसका ये मतलब भी नहीं कि बहस विमर्श करते लोगों को  किसी तरह से कमतर समझ   
लिया जाए, इन लोगों में बदलाव की इच्छा तो है| कम से कम इन्होने दुष्यंत जी को पढ़ा तो है 'आग जला तो रखी है' that is great. 


साड्डी दिल्ली के उस्ताद ज़ौक साहब के कलाम की पंक्ति अपने को बहुत पसंद है -
अए ज़ौक  किसको चश्म-ए-हिकारत से देखिये,
सब हमसे हैं ज़ियादा,   कोई हमसे कम नहीं|

विमर्श देखने पढने का आनंद मैं भी भरपूर लेता हूँ|   ब्लॉग पर भी जरूरी-जरूरी बहसें चलती रहती हैं| एक सुझाव या अनुरोध करना चाहता हूँ कि बहस के समापन पर निष्कर्ष  क्या निकला, ये जानकारी जरूर दी जाए|

रविवार, अगस्त 19, 2012

किस्सा\किस्से

ऑफिस से स्वतंत्रता दिवस के बाद दो दिन का अवकाश ले रखा था, कुछ जरूरी काम थे|  ये ऐंवे ही  आपको बता रहा हूँ, कहीं इसे प्रार्थी का निवेदन   न समझ लीजियेगा :-)          हुआ ये कि गैस एजेंसी का एक स्टाफ कुछ दिन पहले  KYC compliance    (Know Your Customer कम्प्लायेंस )  का  एक  फ़ार्म दे गया था मय एक मीठी  सी  चेतावनी,  कि इसके  जमा न करने पर कंपनी की तरफ से गैस सप्लाई बंद करने के आदेश हैं| अब हम ठहरे महासुस्त आदमी, ये सोचा कि अगली सप्लाई न देंगे इस डर से अपनी  इस मानव  देह जिसे पाने के लिय देवता भी वोटिंग लिस्ट में रहते हैं, को क्यों परेशान किया जाए?  जो सिलेंडर इस्तेमाल में है, उसे थोड़े ही न उखाड कर ले जायेंगे कंपनी वाले? तो उस फ़ार्म को  'रेफर टू  ड्राअर' करके सुस्ताते रहे|  यूं भी बैंकर होने के नाते KYC अपनी जानी पहचानी चीज थी  और जानियों पह्चानियों चीजों  को हम हल्के-फुल्के तरीके से नहीं लेते, हैंडल विद केयर करने की कोशिश करते हैं|    इस तरह के दो तीन काम इकट्ठे हो गए तो फिर पाला बदलकर सोचने लगे कि कंपनी ने सचमुच सप्लाई रोक दी तो रोटी के लाले इस मानव देह को ही पड़ने हैं, देवताओं का कुछ आना जाना नहीं है| हमने अवकाश लेकर गैस एजेंसी जाने का निर्णय कर  लिया|

कागज़ पत्तर इकट्ठे करके जब जाने लगा तो देखा माताश्री अन्य सब्जियों  के साथ साथ करेलों का भी  कलेजा काटने को तत्पर हैं| अब करेला उन चुनिन्दा कड़वी चीजों में से एक हैं, जिन्हें देखकर हमारे मुंह में पानी  आ जाता है और मेरे घर में सिर्फ मैं ही हूँ जो करेला बड़े शौक से खाता हूँ|  समझ गया कि हमारी छुट्टी को स्पेशल बनाने का यह  माताश्री की तरफ से प्रयास है| कहने लगीं, "देख ज़रा, कितना वजन होगा इनका अंदाजे से?"   मैंने पूछा, " क्या हुआ?"   कहने लगीं, "दस रुपये के ढाई सौ ग्राम  बता रहा था, लेकिन वजन कम लग रहा है| उस समय तो सारी सब्जियां  उसने एक ही थैली में डाल दीं,  ये ढाई सौ  ग्राम तो नहीं लगते|" अपन तो फुर्सत में थे ही, दुकान से वजन करवाया, निकले 180 ग्राम| माताजी सब्जीवाले को लक्ष्य करके बार बार यही कह रही हैं, "पन्द्रह रुपये के ढाई सौ ग्राम देता, लेकिन तौल तो सही रखना चाहिए था|" सब्जीवाला तो कब का जा चुका था, मैं सुन रहा था बल्कि मैं भी कहाँ सुन रहा था? मैं तो हिसाब लगा रहा था -
a. 28% की हेराफेरी 
b. वजन के हिसाब से देखें तो सिर्फ 70 ग्राम की ठगी
c. रुपयों में गिने तो कुल दो रुपये अस्सी पैसे की हेराफेरी
d. करने वाला गरीब आदमी 
e. हम ही कौन सा बहुत ईमानदार हैं. 

कौन सा विकल्प सबसे सही है
a/b/c/d/e/none of these/all of these ?

गैस एजेंसी पहुंचा और काऊंटर पर फ़ार्म जमा कर रहा था कि ग्राहकों की भीड़ को जल्दी निबटाने के लिए वहाँ के मैनेजर\मालिक काऊंटर पर आये और कुछ कस्टमर्स को अपने साथ ले गए|  उन्होंने KYC वाला  फ़ार्म ले लिया तो मैंने उनसे कहा कि मैंने नैट पर चैक किया है कि मेरे नाम पर DBC कनेक्शन जारी दिखाया जा रहा है|  मैं आपकी एजेंसी की तत्परता, ग्राहक सेवा वगैरह का शुक्रगुजार होना चाहता हूँ, आजतक से भी तेज, सबसे तेज| मेरे मन में अभी ये DBC वाला विचार आया ही था और आपने उसे  इम्प्लीमेंट   भी कर दिया, 'वाह  ताज|' बस मुझे वो कागज़ देखने हैं कि कब मुझे DBC अलोट हुई थी?"   शुरू में तो मालिक साहब ने इसका श्रेय मुझे ही दिया कि मैंने अप्लाई किया होगा और सिलेंडर लिया होगा, तभी रिकार्ड DBC दिखा रहा है  या फिर ये कि आपका एकाऊंट तो कहीं और से ट्रांसफर होकर आया होगा, वगैरह वगैरह वरना उनके एजेंसी इतने भी तेज नहीं है| लेकिन फिर धीरे धीरे धरती पर लैंड कर गए कि भाई साहब, आज  शुक्रवार है और अलविदा की  नमाज है| माहौल थोड़ा ठीक नहीं है, इसीलिये मैं आधे कस्टमर्स को खुद अटेंड कर रहा हूँ| मुझे थोड़ा सा वक्त दीजिए,  हम फिर किसी दिन  बैठकर बात कर लेंगे|" जिस दिन जाऊंगा, यकीन है कि बात हो जायेगी और मुझे सिलेंडर मिल जाएगा| लेकिन  मेरे साथ या औरों के साथ जो हो चुका या होता रहता ........................ विकल्प दूं फिर से ?

अभी आज की ही बात है, बाईक में पेट्रोल डलवाना था| एक पम्प पर दो अटेंडेंट आपस में बातों में मस्त थे लेकिन इशारा करके मुझे बुला लिया| दो सौ रुपये का पेट्रोल डलवाना था, मेरे बताने के बाद उन्होंने टंकी में पाईप रख दिया और फिर मीटर में अमाऊंट सेट करने लगा,  बल्कि  ज्यादा देर लगाकर और  ख्वामख्वाह की झल्लाहट दिखाते हुए अपसेट करने लगा|   अब बातों में मुझे भी शामिल करने लगे, 'सर ये दस दस के नोट दीजियेगा न, हमारे काम आ जायेंगे|'  बिना मतलब की बेसिरपैर की बातें,  और उसके बाद उनमें से पहला  दूसरे से पूछने लगा, 'मशीन कितने पर रुकी थी, पचास पर?'  दूसरे  ने हामी भरी, 'हाँ, पचास पर रुक गई थी|  अब डेढ़ सौ का और डाल  दे|'  पचास रुपये का चूना?  माँगा था पेट्रोल, लगाते  चूना:)   लेकिन बंदे थे बड़े शरीफ cum ईमानदार,  जल्दी ही पटरी पर आ गए|  पहली ही घुडकी के बाद  हामी भरने वाला प्रश्वाचक मुद्रा में आ गया, 'अच्छा, मशीन चली ही नहीं थी?'  पूछने वाला डांटक मुद्रा में आ गया उस पर, 'तूने अच्छे से  देखा नहीं था फिर बोलता क्यूं है?'   कल्लो बात, हमने तो जैसे  ऐसी नूरा कुश्ती कभी देखी ही न  हो|  हाँ तो, दो सौ रुपये में से पचास रुपये का कितना प्रतिशत बैठा जी?   विकल्प..........

कुछ साल पहले एक परिचित के यहाँ कुछ पार्टी शार्टी थी| मित्र का एक रिश्तेदार भी आया हुआ था, किसी सरकारी पशु चिकित्सालय में कार्यरत था| उसी की ज़ुबानी उसका किस्सा सुन लीजिए, "नौकरी करते हुए साल भर ही हुआ था कि मैं भयंकर रूप से  बीमार हो गया| दो महीने तक ड्यूटी पर नहीं जा सका| फिर एक दिन थोड़ी तबियत ठीक थी तो चला गया|  स्टाफ के सब लोगों से मिला, उन्होंने अलमारी में से वेतन  रजिस्टर निकाला, रसीदी टिकट पर मेरे साइन करवाए और मुझे पैसे पकड़ा दिए| जब मैंने पूछा कि ये क्या है, कितने हैं तो बताया गया कि दो महीने की तनख्वाह है| मैं अकड़ गया कि ये तो मेरी तनख्वाह है ही, मेरा हिस्सा किधर है?  हिस्सा देने पर  स्टाफ के लोग  नहीं  मान रहे थे तो  मैंने कहा कि ठीक है फिर,  कल से मैं रोज आऊँगा|   सबको सांप सूंघ गया हो जैसे, आपस में सलाह मशविरा करके मुझे हजार रुपये और दिए और समझाने लगे कि मैं अपनी तबियत का ध्यान रखूँ, सरकारी काम तो यूं  ही चलते रहेंगे| तब से मैंने अपनी तबीयत का ध्यान रखना शुरू कर दिया, महीने बाद जाता  हूँ, तनख्वाह और पांच सौ रुपये लेकर उसी में से दो-तीन  सौ रुपये की उनकी पार्टी कर देता हूँ, वो  भी खुश और मेरा भी काम चल रहा है| महीने में एकाध कोई प्रोपर्टी का सौदा करवा देते हैं  और यूं ही बस गुजारा चल रहा है|

पहले तीन वाकये पिछले तीन दिन के हैं वो भी खुद के साथ घटित, औसतन एक दिन में एक किस्सा| इसका एक मतलब ये भी निकलता है कि क्या  this international phenomenon i.e. corruption समाज की रग-रग में इस तरह पैबस्त हो चुका है कि अब ये सब खलता नहीं है?  सबके पास अपने तर्क हैं, कोई गरीबी ज्यादा बताता है तो कोई महंगाई ज्यादा बताता है|  मेरा मुंह तो पेट्रोल पम्प वाले ने सिर्फ एक बात से बंद कर दिया, 'सरजी, हमें पचास रुपये की गलती पर आप गाली निकाल दोगे लेकिन वो कोयले वाला घोटाला हुआ है उसमें जीरो कितनी लगेंगे, ये बताओ तब जानें आपको|'  जा यार, मुझे तो कसम से एक लाख की जीरो  नहीं  मालूम  और तू पूछ रहा है 1.86 लाख करोड़ की जीरो का? not my rake of coal :)

जुटे रहो भाई आम-ओ-खास बन्दों, बेडा डुबोने में  अपना अपना योगदान देते रहो|  बेस्ट ऑफ लक|                                                       

सोमवार, अगस्त 13, 2012

ना.का. का पापा

बात छोटी सी है लेकिन हमेशा की तरह तम्बू-तम्बूरा पूरा ताना जाएगा|  काम की बातें छोटी ही अच्छी लगती है, फालतू की करनी हों तो फिर XL या  XXL से कम हम बात नहीं करते, पहले बताए देते हैं|

हम उन दिनों नौकरी के चक्कर में ट्रेन से डेली पैसेंजरी किया करते थे| ग्रुप में सिंचाई  विभाग में कार्यरत एक  जे.ई. साहब भी  थे, मुदगल  साहब|  निहायत ही शरीफ,  इतने शरीफ  कि उनकी शराफत देखकर कभी कभी शक होता था कि ये इंजीनियर हैं भी या नहीं:)  अपनी मुंहफट आदत के चलते एक बार मैंने उनसे ये कह भी दिया तो खूब हँसे| कहने लगे कि यार तुम्हारी भाभी भी यही ताना देती है|  खैर, परिचय नया नया ही था कि कहने लगे कि उनके एक चचेरे भैया हमारे ही बैंक में हैं और उनका काफी रसूख भी है,  मैं अपना बायोडाटा दे दूं तो मेरा दिल्ली ट्रांसफर करवाने की बात की जाए| अब इस मामले में हमारी सोच शुरू से ही खराब रही है, हमने  'No, Thank you ji' कह दिया और फिर से एक बार बहुत शरीफ(अहमक) होने का खिताब पा लिया|

कुछ दिन बाद पता चला कि हमारी ब्रांच में मैनेजर बनकर कोई 'मुदगल  साहब' ट्रांसफर पर  आ रहे हैं, जिस ब्रांच  से आ रहे थे उसका नाम मालूम चला तो कन्फर्म हो गया कि वही हमारे जे.ई. साहब के कजिन हैं| उन दिनों अपन भी मानस पाठ कर रहे थे सो 'कोऊ नृप होय हमें का हानि' मोड चालू था, जे.ई. साहब से इस बात का कोई जिक्र नहीं किया| वो दिन भी आ गया, जिस दिन नए मैनेजर साहब ने ज्वायन करना था| सुबह गाड़ी पकड़ने स्टेशन पहुंचा तो देखा ओवरब्रिज पर ही जे.ई. साहब खड़े थे| समझ गया मैं कि अब क्लास लगेगी| मुझे देखकर  जे.ई. साहब लपक कर आगे आये और हाथ मिलाने के बाद पूछने लगे कि आपके यहाँ ब्रांच मैनेजर बदल गए हैं क्या? मैंने हंसकर बताया कि हाँ, आज ही आपके भाईसाहब ज्वायन करेंगे| जे.ई. साहब ने फिर से मुझे अजीब आदमी बताया, "यानी कि आपको मालूम था कि मेरे कजिन आपके मैनेजर बनकर आ रहे हैं? सच में बहुत अजीब आदमी हो यार आप|" वहीं ब्रिज पर ही मुझे  रोक लिया कि भाई साहब भी आ रहे हैं, साथ ही चलेंगे| कुछ देर में साहब आ गए और परिचय वगैरह होने के बाद हम गाड़ी में आकर बैठ गए|

अब मुदगल साहब शाखा की ज्योग्राफी, हिस्ट्री वगैरह जानने के लिए स्वाभाविक रूप से ही जिज्ञासा रही होगी, वो स्टाफ के बारे में पूछ रहे थे और मैं कहता था कि सरजी, खुद ही पता चल जाएगा आपको क्योंकि  मैं किसी के बारे में बताऊंगा तो उस स्टाफ के प्रति अपनी भावनाओं के अनुरूप ही बताऊंगा| उधर ताश पार्टी वाले बार बार आकर 'संजय भाई साहब, आओ न  जल्दी'  की गुहार लगा रहे थे| मैंने मुदगल साहब से पूछा कि ताश खेलते हैं आप? न में जवाब सुनकर अपने ग्रुप में जाकर बैठ गया| दो तीन दिन तक ऐसा ही चला, मुदगल साहब ने पूछा  भी कि ताश क्या इतनी जरूरी है? हमने वहाँ नहीं बैठना था तो नहीं ही बैठे| सच तो ये है कि ऐसा करने में अपने अहम को पोषित करता था शायद मैं, कि अपने सीनियर्स की परवाह नहीं करता , कितना महान हूँ मैं:)

3-4 दिन के बाद जे.ई. साहब ने बताया कि यार भाई साहब तो अपनी कार से जाया करेंगे, अब आपका और हमारा साथ छूटी जाएगा| मैंने आश्वस्त कर दिया कि ज्यादा लग्ज़री बर्दाश्त नहीं होती, अपन तो इस रेलगाड़ी से ही जाया करेंगे| उन्होंने भी और हमारे मैनेजर साहब ने भी बहुत समझाया कि रूट एक ही है तो क्यूं नहीं कार में साथ जाते? मैंने नहीं मानना था तो उस समय नहीं ही माना|  पांच छह महीने बीत गए,  एक बार फिर जे.ई. साहब ने मुझे भाई साहब के साथ आने जाने  के लिए समझाया| तब तक वैसे भी हम लोग एक दुसरे को अच्छे से समझ चुके थे, मुदगल साहब सही मायने में एक True gentleman लगे मुझे, नतीजतन उनकी बड़ी सी कार में सुबह शाम का साथ भी हो गया| तब तक उनकी कार में एक दूसरे बैंक के मैनेजर और एक हमारा ऑडिटर भी साथ जाना शुरू कर चुके थे| त्रिकोण का चौथा खम्भा हुआ मैं| अब आते हैं  अपनी छोटी सी बात पर|

शाम को लौटने का तय समय नहीं था लेकिन सुबह जाने का तो फिक्स्ड टाईम था| कुछ दिनों में सड़क पर बहुत सी ऐसी गाडियां दिखने लगीं, जो इसी समय सड़क पर उतरा करती थी| ज्यादा संभावना ये थी कि सब नौकरीपेशा ही रहे होंगे, उन्हीं का तय समय होता है| एक मारुती 800 कई बार दिखती थी, कम से कम मैं तो उस कार को उसके पीछे लिखे एक स्लोगन के कारण पहचानता ही था | कार ड्राईव करते हुए मुदगल साहब  ने उस दिन शायद पहली बार उस मारुती 800 पर गौर किया| हँसते हुए कहने लगे, "ये पढ़ो ज़रा, उस कार के पीछे क्या लिखा है?"  सबने पढ़ा, यूं तो मैं अपने हिस्से का आनंद पहले ही ले चुका था लेकिन अच्छा लगा कि जिस चीज जो मैं बहुत पहले  एंजाय कर चुका हूँ आज मुदगल साहब के चलते औरों का भी ध्यान गया| कार की पिछली स्क्रीन पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था, "नारायण कार्तिकेयन का बाप"

मैंने कहा, "हौंसला देखिये बंदे का|"   मुदगल साहब बोले, "हौंसला? बेवकूफी है ये, खुन्नस है ये| पट्ठा काम करता होगा नारायण कार्तिकेयन की कंपनी में और उसने निकाल दिया होगा किसी बात पर, इसलिए लिख लिया होगा|" मेरे लिए ये जानकारी नई थी कि नारायण कार्तिकेयन की कोई कंपनी भी है| मेरे जिज्ञासा प्रकट करने पर बताया गया कि इन्फोसिस के मालिक हैं मि. ना. का.| वैसे तो हमें सिखाया जाता है कि -
1. Boss is always right.
2. Even if he\she is wrong, remember point 1.
लेकिन सीखने के मामले में भी और बहुत से मामलों की तरह अपन रूढ़िवादी हैं:)    

मैंने कहा, 'सर, आपको गलती लग रही है| इन्फोसिस के मालिक का नाम मि. नारायण मूर्ति है| ये नारायण कार्तिकेयन अलग  हैं, भारत के फार्मूला वन रेसर हैं|'  

बॉस का चेहरा तल्ख़ हो गया, कोई सबोर्डिनेट अपने अधिकारी की बात काट दे, वो भी दूसरों के सामने, उन्हें हजम नहीं हुआ था| दुसरे सहयात्री नीचे नीचे से मेरी जांघ पर हाथ रखकर चुप रहने का इशारा कर रहे थे और मुंह से उस 800 वाले को इन्फोसिस के जनक का जनक ही सिद्ध कर रहे थे| अब जिस बात पर मैं कन्फर्म रूप से जानता हूँ , उसे सिर्फ इसलिए मान लेना कि मेरा सीनियर कह रहा है या जिसकी कार में मैं रोज सुबह शाम आता जाता हूँ, मुझे उचित नहीं लगा| हम दोनों अपनी अपनी बात पर अड़े रहे|  मुदगल साहब का मूड ऑफ हो चुका था| उस दिन उसके बाद पूरे रास्ते और कोई बात नहीं हुई|

बैंक पहुचकर मुदगल साहब कार पार्क करने लगे और बाकी साथी अब मुझे दुनियादारी पढ़ा रहे थे, "क्या जरूरत थी आपको बहस करने की?"  मेरी नजर में मैंने बहस नहीं की थी, एक सही जानकारी शेयर कर रहा था और उसे गलत रूप में प्रतिस्थापित होने देने से रोकने का प्रयास कर रहा था| एक बार फिर से सुन लिया कि यार आप बिलकुल भी प्रैक्टिकल नहीं हैं, etc.etc.   मजा आता है न  ऐसी बात सुनकर?

उस दिन दोपहर में ही  मैंने मुदगल साहब से कह दिया कि आज मैं शाम को ट्रेन से जाऊंगा| पूछने लगे, 'क्या हुआ?' मैंने बता दिया कि ट्रेन वाले ग्रुप में किसी से कुछ काम है, बहाने बनाने में कौन बहुत सोचना पड़ता है? गुलजार महफ़िल के बंदे ठहरे हम, हमारी वजह से माहौल बोझिल बने, इससे बढ़िया तो अपनी थ्योरी यही है कि पहले ही रास्ता नाप लिया जाए:)  यूं भी ताश खेले बिना मन बहुत उदास हो रहा था|

अगले दिन सुबह सुबह मुदगल साहब का फोन आ गया कि रोज वाले समय से पन्द्रह मिनट पहले मिल जाना, कुछ काम है| मैंने कहा कि मुझे तो ट्रेन से ही जाना है लेकिन उन्होंने मना कर दिया| कोई बड़े अधिकारी ब्रांच में विजिट  करने आ रहे थे, ट्रेन में देर सवेर हो सकती है इसलिए कार में ही जाना है बल्कि ये भी कहा कि पन्द्रह मिनट पहले निकालने की कोशिश कर लूं , निकल सका तो ठीक  नहीं तो वो तो इंतज़ार करेंगे ही| हाय  मेरी ताश पार्टी :(

हम रोज की तरह मिले, अभिवादन हुआ और दोनों चुपचाप बैठ गए|  चार पांच किलोमीटर के बाद दुसरे  दोनों साथी भी इंतज़ार करते मिले| पिछली शाम मैं कार में नहीं था, मालूम नहीं कैसा माहौल रहा होगा लेकिन आज फिर मुझे देखकर दोनों और ज्यादा  सीरियस दिखने लगे:) जब कोरम पूरा हो गया, मुदगल साहब बोले, "संजय, कल तुम ठीक थे और मुझे भूल लगी थी| मैंने घर जाकर बेटे से कन्फर्म किया और मेरे न मानने पर बेटे ने नैट पर मुझे चैक करवाया और गलती दुरस्त की|   थैंक्स डियर|"  इतने में फिर वही कार दिखी और मुदगल साहब ने मुस्कुराते हुए उस ड्राइवर को हाथ हिलाकर वेव किया|  कहने लगे,  "after all, we are daily passengers. Same community, isn.t it?'

उस दिन कोई उच्चाधिकारी हमारे यहाँ विजिट पर नहीं आये| मुदगल साहब चाहते तो अपनी जानकारी दुरस्त करके चुपचाप भी रह सकते थे या जानकारी न भी चैक करते तो उनकी सैलरी पर या फैमिली को कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा था| चार पांच किलोमीटर तक हम अकेले ही रहे थे, वो पहले भी यह बात मान सकते थे लेकिन  बात कहने के लिए उन्होंने कोरम पूरा होने तक का इन्तजार किया| मुझे ये छोटी छोटी बातें नहीं भूलतीं|  इन बातों से इंसान की ऊंचाई, गहराई बहुत कुछ पता चलता है|  मुदगल साहब के साथ दो साल बहुत अच्छे से कटे, कई बार ऐसे वाकये आये कि किसी बात पर हमारी राय नहीं मिलती थी लेकिन बाद में अगर उन्हें लगता था कि वो गलत थे तो बिना इस बात की परवाह किये कि वो सीनियर हैं, स्वीकार कर लेते थे और वो भी  अपने royal style में| मेरी नजर में उनका कद दिनों दिन ऊंचा ही हुआ|



:-) -  बेरोजगारी से जूझ रहे फत्तू ने एक नवाब साहब  का दामन जा पकड़ा| दरयाफ्त करने पर बताया कि वो बातों का रफूगर है और नवाब साहब जो बेसिरपैर की छोडने के लिए मशहूर थे, उनकी बातों पर पैबंद लगा दिया करेगा| मुलाजमत पक्की हो गई| एक महफ़िल में नवाब साहब ने फेंकी, 'शेर की तरफ तानकर मैंने बन्दूक से ऐसी गोली छोड़ी कि वो उसके पैर के पंजे से होते हुए उसके माथे में जा धंसी|' सुनने वालों ने बात हंसी में उड़ानी चाही तो नवाब साहबी ने फत्तू की तरफ देखा| फत्तू ने कहा, 'दरअसल जब उसे गोली लगी, उस वक्त  शेर पंजे से अपना माथा खुजा रहा था | गोली पंजे से पार होकर शेर के माथे  में जा धंसी थी|' वाह-वाह का शोर मच गया|  अगली महफ़िल में नवाब साहब  और कोंफिडेंट होकर बोले, "एक बार मैंने शेर पर गोली चलाई, शेर ने छलांग लगाई और भाग निकला| नदी, नाले पार कर गया और कई किलोमीटर तक भागता फिरा, गोली ने पीछा नहीं छोडा, उसकी जान ले ही ली|" लोगों ने फिर शुबहा जाहिर किया तो नवाब साहब ने फत्तू, जो कि कागज़ पेंसिल लेकर उलझा था. उसे पुकारा, " बेटे रफूगर|" फत्तू ने बताया कि गोली तो शेर के पिछवाड़े  में पहले ही लग गई थी, अब शेर चाहे नदी नाला कूदे या पहाड़-पर्वत, खून इतना बह गया कि बेचारा चार-पांच किलोमीटर तक भागने दौड़ने के बाद  मर गया|" नवाब साहब की फिर से जय जयकार हो गई|  अगली महफ़िल में नवाब साहब ने फरमाया, "मैंने एक बार शेर पर निशाना साधकर वो गोली मारी कि शेर दो हिस्सों में बंट  गया| आखिर में जब गोली निकाली गई तब कहीं जाकर शेर बेचारे की लाश वन-पीस बनी|" लोग बाग हैरान परेशान होने लगे| नवाब साहब ने फिर पुचकारा, "बेटा रफूगर, खडा तो हो ज़रा|" फत्तू ने नवाब साहब के हाथ में एक कागज थमाया और बोला, "ले बे नवाब की औलाद, मेरा इस्तीफा| मैं बातों का रफूगर हूँ, छोटी मोटे पैबंद को तो रफू कर  भी देता|  इत्ती बड़ी काट-फांट को तो किसी रफूगर का बाप भी नहीं रफू कर सकता| यूं भी अब सरकार हर हाथ में मोबाईल देने  जा रही है, तेरी बेसिरपैर की रफू करने की बजाय मैं अपना ही ब्लोग बनाकर मोबाईल से खुद ही हांक भी लूंगा और रफू भी कर लूंगा|  हैप्पी इंडिपेंडेंस डे|"