पिछले कुछ दिन से हम इंचीमेंटल हुये जा रहे हैं। सेंटीमेंटल तो कोई भी हो सकता है, पर हम इंचीमेंटल से कम में नहीं मानते। सात आठ महीने हो गय, यहाँ की खाक छनते छानते। हमें घूम फ़िरकर तीन मुद्दों से ज्यादा कुछ नहीं दिखा, इधर। पहला धर्म, दूसरा लिंगभेद और तीसरा टिप्पणीनामा। अपने लिये तीनों ही समान हैं। ये सब जरूरी हैं, बिना इनके जीवन निरर्थक है, लेकिन साथ ही यह भी मानते है कि ये चीजें सब कुछ नहीं हैं।
आजकल फ़िर से बड़ा धार्मिक वातावरण बना हुआ है। धर्म की बात करें तो अपने लिये तो धर्म व्यक्तिगत आस्था की चीज है। मैं खुद बहुत तो क्या थोड़ा भी कर्मकांडी नहीं हूँ, लेकिन अपने धर्म पर गर्व है मुझे। बहुत सुविधायें, स्वतंत्रता, सहिष्णुता और सदाशयता दी हैं मेरे धर्म ने मुझे। जो मुझसे सहमत नहीं, उनकी सोच का मान रखना भी सिखाया है मुझे इसने। और अपने धर्म पर गर्व सबको होना चाहिये और जिसे नहीं है उसे स्वतंत्रता भी होनी चाहिये कि वह अपनी मर्जी के धर्म का पालन करे। मुझे मौका मिलेगा और मैं इस लायक हुआ तो मेरी कोशिश होगी कि अपने धर्म को देश के, समाज के और समय के अनुसार ढालूँ। मुझे सफ़ाई करनी होगी तो अपने घर से शुरू करूंगा लेकिन यह गंदगी पडौसी के घर के आगे नहीं फ़ैंकूँगा और न ही चाहूँगा कि पड़ौसी ऐसा करे। यहाँ क्या हो रहा है? अपने आसपास की सफ़ाई पर किसी का ध्यान नहीं, चीख चीखकर दिखाया जा रहा है कि तुम्हारा घर कितना गंदा है।
क्या ये अलग-अलग धर्म एकदम से पैदा हो गये? है कोई ऐसा जिसका वास्ता दूसरे धर्म के लोगों से न पड़ता हो? किसी की शख्सियत को जानने का एक ही पैमाना रह गया है कि वो किस धर्म का मानने वाला है। अगर मेरे धर्म का है तो सब माफ़ और दूसरे धर्म का है तो कौआरार शुरू, ले तेरे की और दे तेरे की।
जनता सरकार के समय की बात है, बहुत समय के बाद भारत-पाक का टैस्ट मैच चल रहा था और टी.वी. पर उसका प्रसारण आ रहा था। सत्तर साल के आसपास की बूढ़ी अम्मां लाठी टेकते हुये हमारे घर आई, अपने जाने किस रिश्ते के मुदस्सर नज़र को टी.वी. पर देखने के लिये। आर्थिक हैसियत में जमीन आसमान का अंतर होने के बावजूद उन अम्मां का हक से मेरी माँ को बारबार ’ओ बहू, चाय तो पिलाओ एक और’ या ऐसे ही आवाजें लगाना और मेरी मां का अपनी सास की तरह उनका आदर सम्मान करते देखना मुझे तो कहीं से अजीब नहीं लगा। मेरी अपनी दादी और वो अम्मां पास बैठी हुई बहनें ही लग रही थीं मुझे तो, बेशक पहनावे में उनके अंतर था, लेकिन दिलों में कोई अंतर नहीं था।
जब मेरे दादाजी के मित्र शम्सुल हसन मिलने आया करते थे, तो हमें पूरा नाम लेकर कभी नहीं बताना पड़ता था। बाबा आये हैं, का मतलब ही हसन बाबा से था। मेरे पिताजी के दोस्त, कुरैशी अंकल, बजरू चाचा हमें तो अपने जैसे ही लगते हैं अब भी। दीवाली पर उनके यहाँ मिठाई देने जाना और ईद पर उनके यहाँ से जब तक सेंवईंयां न आ जायें, हम तो कोई त्यौहार पूरा मान नहीं पाते थे। लड़कपन में कहीं कोई बदमाशी करते समय इनमें से कोई दिख भर जाता तो हमें उतना ही डर लगता था जितने अपने परिवार के बड़ों से।
बताते हैं इंसान ने बहुत तरक्की कर ली है, ये तरक्की ही तो है कि नफ़रत और विद्वेष फ़ैलाने के लिये विज्ञान के नये आविष्कारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन ये बकवास करना अपना सब्जैक्ट नहीं है जी. अपनी बकवास वाली लाईन तो वही है, उसी पर चलते हैं।
जब धूम का, कृष का, स्पाईडरमैन का और पता नहीं किस किस का सीक्वैल बन सकता है तो हमारी फ़िलिम का सॉरी तुम्हारी फ़िलिम का सीक्वैल नहीं बन सकता क्या? हम पहले थोड़ी गलतबयानी कर गये थे जी। हम हीरो, एंटी हीरो बनने के लायक कभी थे ही नहीं, हम तो साईड हीरो भी नहीं। ये मत सोच लेना जी कि सजा सुनकर कल्टी मार गये हैं। अपन तो हैं महज दर्शक और किसी को रुचती हो तो हमारी सलाह मान ले, न तो वो अपने घर खुश और हमारी तो खैर देखी ही जायेगी। नजर डालें हमारी इश्टोरी के हीरो के पहले कारनामों पर, यहाँ, यहाँ पर और यहाँ पर भी। और अब बताईये हमारे पुराने प्रश्न का ही जवाब, ये ध्यान में रखते हुये कि इन नज़ीरों को प्रेरणा मानते हुये क्या इस बात की संभावना नहीं दिखी किसी को कि इनसे प्रेरित होकर और भी घटनायें हो सकती हैं? आखिर सिरफ़िरे किसी एक जमात में ही तो नहीं हैं? जब हमें याद आ सकता है वो चुटकुला जिसमें एक गाली देने के आदी सेठ को किसी सरकारी मुलाजिम ने इस बात पर कोर्ट में खड़ा कर दिया कि सेठ ने सात बार उसे गाली दी थी और जज महोदय ने सौ रुपये प्रति गाली के हिसाब से जुर्माना तय कर दिया तो सेठ ने मुनीम से हजार रुपये जमा करवाने की बात कहते कहते तीन गालियाँ और दे दीं, तो भाईजान औरों को भी याद आ सकता है। अगर वो भी पार्ट वन के हीरो की तरह पहले ऐसे ही कई बलात्कार कर दें और फ़िर प्रायश्चित कर ले तो झेल सकोगे क्या?
आदरणीय अली साहब ने अपने कमेंट में छिछोरों का ज़िक्र किया था, तो साहब हमें छिछोरों की छिछोरपंती से उतनी घबराहट नहीं जितनी इस बात से है कि जो छिछोरे बनने से बचे हुये हैं वो अगर छिछोरपने पर उतर आये तो क्या होगा?
संजय जी,
जवाब देंहटाएंहम तो सच में बहुत हैरान हो गए थे..पिछली पोस्ट पढ़ कर ..लेकिन मन में कहीं एक विश्वास था कि आप ज़रूर कोई अच्छी-ख़ासी चाल चल रहे हैं...
हा हा हा...
बहुत ही बढ़िया...आपकी इस बातों से असहमत होने का तो सवाल ही नहीं उठता...
हमेशा की तरह लाजवाब आलेख..
आपका शुक्रिया...
आज भी रिश्ते वैसे ही है . लेकिन हम जैसो को दिखते नही . अभी मेरे गांव मे शम्सुद्दीन की लडकी की शादी थी और उसमे वीरपाल जैसे कई लोग इन्तज़ाम मे लगे थे . मेरे यहा भी न्योता था और एक मान्ग भी मट्ठा चाहिये था जो सिर्फ़ हमारे यहा ही मिल्ता क्योकि हम दूध बेचते नही .
जवाब देंहटाएंरिश्तों मे कब कमी है...बाकी तो खेल है.
जवाब देंहटाएंबहुते इंचीमेंटल हो भाई...पहली बार जाना यह शब्द!! :)
आपकी पोस्ट पर अधिक लिखने में डर लगता है कि क्या बोल जाऊँ और क्या अर्थ निकले..वैसे यहाँ जो बात लिखी है वो तो कमोबेश हर किसी के साथ लागू होती है..मैंने तो एक पाकिस्तानी परिवार के साथ अपने घनिष्ठ सम्बंधों का भी ज़िक्र किया था. लिंक देने की ज़रूरत नहीं. हाँ ये बताना ज़रूरी है मेरे स्वर्गीय पिताजी के तीन सम्बल थे अंसार अहमद, फ़ख्रे आलम अऊर ज़ेड. ए. सिद्दीक़ी... अच्छी चर्चा!!
जवाब देंहटाएंओह कैसे दोस्त हैं आप गलत राह (लिंक) दिखा दी ,खोलनें की कोशिश में वाइरस की चेतावनी मिली जैसे तैसे जान बचा कर भाग लिए !
जवाब देंहटाएंएक कथा(मिथक)यूं भी प्रचलित है कि एक बड़े संत ने सपने में किसी फ़रिश्ते को देखा जो खुदा के पुजारियों की सूची तैयार कर रहा था,उन्होंने फ़रिश्ते से कहा, खुदा तो नहीं ,कभी इंसानियत के पुजारियों की सूची बनायें तो मेरा ख्याल रखियेगा ! अगले रोज वो फरिश्ता,स्वप्न में फिर से नज़र आया ! इन्होने पूछा खुदा के पुजारियों की सूची तैयार हुई ? फ़रिश्ते नें कहा हां !...और खुदा के पुजारियों की सूची में अव्वल नाम इन्ही संत का था !
ये भले ही एक गल्प हो पर अपने को पसंद है !
अच्छा तो ये बात थी और मैं कहाँ डोल रहा था . "हमारी अंजुमन" कि इस प्रकार कि पोस्ट कि ओर ध्यान नहीं गया वर्ना दीपक बाबा वाला कमेन्ट मेरा भी होता. बहरहाल आपने अपनी बात बेहतरीन ढंग से रखी बस कमी अपनी ओर से थी..
जवाब देंहटाएंफत्तू कहाँ है जी :-(
जवाब देंहटाएंआप तो एक अच्छे दिल के मालिक निकले,
जवाब देंहटाएंare sach mai fattu ji ko padhne ke lye mai yaha hamesha ati hu ....
जवाब देंहटाएंkhair bat to aapne pate ki kahi hai... aur aj naya word bhi milgaya सेंटीमेंटल ke sath इंचीमेंटल....:-)
यह तो बहुत सुन्दर प्रस्तुति रही. आभार. हमने भी कुछ सीख ही लिया.
जवाब देंहटाएं@ अदा जी:
जवाब देंहटाएंआपका विश्वास बरकरार रहा, आश्वस्त हुआ जी।
@ सम्वेदना के स्वर:
हम तो फ़ूले नहीं समा रहे हैं जी, कि कोई हैं जो हमसे भी डरते हैं। डरने की तो कोई वजह मुझे नहीं दिखती। कुछ गलतफ़हमी हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।
@ अली साहब:
हम जैसों से दोस्ती रखेंगे तो उल्टी राह पर ही चलना होगा, सोच लीजिये।
@ Coral:
Welcome Mrs.Sail & thanx for your comment. फ़तू ने कहाँ जाना है जी, आ ही जायेगा।
@ P.N. Subramanian ji:
Sir, I am obliged. Thanx a lot.
स्वतंत्रता, सहिष्णुता और सदाशयता दी हैं मेरे धर्म ने मुझे।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सरल शब्दों में हृदय बाँच दिया आपने। न केवल शब्दों में वरन कर्मों में भी जिया गया है यह वाक्य, आपके परिवार में।
एक ठो टिप्पणी पहले लिखा हूँ, छपने से पहले ही गायब हो गयी। लगता है किसी बिदेसी सख्ती का हाथ है। अब संछिप्त टिप्पणी ही करूंगा पहले टैस्ट करने के लिये।
जवाब देंहटाएंयदि पिचकर बन जाए तो हमें भी बताना। हम भी देखेंगे।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
जवाब देंहटाएंप्रवीण जी, दुख ये है कि हम इन चीजों को कैरी फ़ारवर्ड न कर पायें(शायद)।
@ इस्मारट उस्ताद जी:
हम अपनी करनी पर आ गये उस्ताद जी तो बिदेसी सख्ती का हाथ मरोड़कर रख दें, बस आते ही नहीं। आपको टैस्ट में कौन फ़ेल कर सकता है?
हमें ज्यूरी के फ़ैसले का अब भी इंतज़ार है, हम झेल लेंगे।
@ घुघूती मैडम:
फ़त्तू अपनी माँ से बोला, "माँ, मैं थानेदार बनूंगा, और सबसे पहले तन्ने भीतर करूंगा।
माँ बोली, "बेटा, तू थानेदार बनेगा ही क्यूँकर?"
मैडम, आपका कमेंट माँ के जवाब जैसा ही लगा, थोड़ा बदले अंदाज में "बेटा, तेरी पिचकर बनेगी ही क्यूँकर?" सच में नफ़रत और कट्टरपन देखाने वाली ऐसी पिचकरें न ही बनें तो बेहतर, यही कहना चाह रहा था।
आपका बहुत बहुत आभार।
बढ़िया पोस्ट!!
जवाब देंहटाएंतीन दिन पहले पढ़ लिया था. टिप्पणी आज दे रहा हूँ. कहाँ अंतर है जी? हमारे दादाजी के दोस्त थे शरवर हुसैन साहब. उनके सामने हमलोग चारपाई पर नहीं बैठते थे. हमारे दादाजी को जब भी जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता था, उनसे हमेशा सलाह लेते थे. घर के किसी भी कार्यक्रम में वे सबसे पहले आते थे. मेरी माँ की सबसे अच्छी सहेली हैं जो हमलोगों को ताजिया के दिन मेले ले जाती थीं. नाम था सीता. आज भी अम्मा जब गाँव जाकर वापस आती है तो उससे सीता मौसी के बारे हम जरूर पूछते हैं.