बुधवार, मार्च 31, 2010
एक स्कीम आजमायें?
रविवार, मार्च 28, 2010
अड़ौस-पड़ौस
गुरुवार, मार्च 25, 2010
डुबोया मुझको होने ने(४) बस इस बार और झेल लो, प्लीज़्ज़्ज़
तो सज्जनों और सज……, जाने दो जी, कहीं कोई नया पंगा न खड़ा हो जाये हमारी जान को। वैसे ही अपराध बोध से हम जी नहीं पाते हैं। तो साहब लोगों, हमारा मनवा बैरी वहां से भी बेजार हो गया। फ़िर हम तैयार हो गये, नई मंजिलों की तलाश में। दिल्ली तो डूब चुकी थी, हमने अब रूख किया हरियाणा की तरफ़। देसां में देस हरियाणा, जित दूध दही का खाना। चारों तरफ़ मस्ती, अक्खड़पने का माहौल। शुरू में तो यूं लगता कि हर आदमी लड़ने पर उतारू, किसी से आगे बढ़्कर राम राम भी बोल दो तो अगला आंख तरेरकर पूछता, “के सै, काम बता सीधे सीधे”।
बात आगे बढ़ाने से पहले आपका मूड़ थोड़ा सा बदल देते हैं। एक था गादड़(अब हम हरियाणा में हैं तो हमारी भाषा थोड़ी सी ज्यादा ही सुधरी हुई है)। अपनी बिरादरी में कद, तंदरुस्ती,डील-डौल वगैरह में बाकी सब गादड़ों से इक्कीस। अब खुदा जब हुस्न देता है तो नजाकत आ ही जाती है, इस अंदाज में वो भी थोड़ा शरारती हो गया। दूसरे गादड़ों को बात बेबात तंग करना उसका शौक बन गया। उसका सबसे प्रिय शगल था दूसरों को टंगड़ी मार कर गिराना। बिरादरी में उसका रुतबा हो गया और नाम ही टंगड़ पड़ गया। जहां कहीं कोई आंतरिक या बाह्य समस्या आती, उसे आवाज लगाई जाती, ओ टंगड़, जल्दी आ। और उसके मैदान में उतरते ही चारों तरफ़ से नारे लगते, “टंगड़, टंगड़ी मार"।” अब वो आ जाता जोश में और लगाता अपना मास्टर स्ट्रोक यानि टंगड़ी और दुश्मन चित्त। तो जी उसकी शोहरत बढ़ती जा रही थी और साथ में उसका गुमान भी। अब हुआ ये कि एक बार उस इलाके में एक ऊंट कहीं से आ गया। अब बिरादरी वालों ने पहली बार ऐसा अजूबा देखा कि जिसकी सारी की सारी कल टेढ़ी और कद भी इतना ऊंचा। फ़ौरन संकटमोचक को आवाज लगाई गई, ओ टंगड़, जल्दी आ। बहादुर टंगड़ फ़ौरन पहुंचा और मामला समझकर, कौम के सम्मान और अपने गुमान में डूबा हुआ ऊंट से भिड़ गया। अब साहब ऊंट ने खोला अपना जबाड़ा, पकड़ी टंगड़ की गर्दन और उठा दिया जमीन से पांच छ: फ़ुट ऊपर। नीचे से बिरादरी वालों ने नारे लगाने शुरू किये, “टंगड़, टंगड़ी मार”, टंगड़, टंगड़ी मार।” अब टंगड़ बोला, “"बेटी……, टंगड़ी तो तब मारूं जद ये सुसरा पांव धरती पे टिकन दे।”
तो हुजूर किस्सा कोताह ये है कि हमारा भी पाला किसी ऊंट से पड़ गया और न धरती पर हमारे पांव टिके और टंगड़ी मारने की हसरत दिल में ही रह गई। अब मुझे लगता है कि ये किस्सा भी सुनाना ही पड़ेगा। हुआ यूं कि ’ईस्ट इंडिया कंपनी’ की तर्ज पर एक और कंपनी थी ’वैस्ट यू.पी. कंपनी’। इस कंपनी द्वारा किये गये अत्याचारों और शोषण की कहानी भी कोई कम दुखदाई नहीं है, पर अफ़सोस ये है कि वह कहानी शेष लोगों के लिये अनजानी ही रह गई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को अपने अधीन किया था तो वैस्ट यू.पी> कंपनी ने भी स्वर्णिम संभावनाओं से युक्त एक उदीयमान व्यवस्था\सभ्यता और पता नहीं क्या-क्या यानि हम पर नजर गड़ाई और अपने अधीन करने के लिये साम, दाम, दंड, विधि सभी माध्यम अपनाये और सफ़ल भी हुये। समझौते के तौर पर एक रेजिडेंट कमिश्नर स्थाई रूप से नियुक्त कर दिया गया। बाकी तो जी आप सब समझदार हैं, अब कोई कितने भी नारे लगाये पर इतना तो समझ लेना चाहिये कि टंगड़ी तो हम तभी मार पायेंगे जब हमारे पांव धरती पर टिक जायेंगे। बस जी फ़िर आपका ये प्रिय टंगड़ खुद ही डूब गया और ऐसा डूबा कि मोती, मानुस और चून की तरह दुबारा नहीं उबरा। ये जो थोड़ी-थोड़ी सी आवाज कभी कभार आती है न, ये तो वैसी ही है जैसे कोई गहरे पानी में डूबता हुआ “बचाओ, बचाओ” की आवाज लगाता है। और ये कतई जरूरी नहीं कि उसे बचा ही लिया जायेगा। वैसे एक दोस्त ने भरोसा दे तो रखा है बचा लेने का और हमें उस भरोसे पर पूरा ऐतबार भी है।
अब आप ही बताओ कि ये डूबना-डुबोना हमारे होने से ही तो हुआ, न हम होते और न ये सब होता। इसीलिये चचा गालिब की लिखी इन पंक्तियों को हमने अपनी प्रोफ़ाईल में लिख डाला था। किसी को कोई गलत बात लगी हो तो सूचित कर दे, माफ़ी मांग लेंगे(पर हटायेंगे नहीं)।
पुछल्ला:- अपना नीरज एक बार ताऊ धोरे जाकर कहने लगा कि ताऊ, इन बनियों और पंजाबियों ने सारे व्योपार पे कब्ज़ा कर राख्या सै। हम हाड़ तोड़कर पीसे कमावां सां और यो गद्दी पे बैठे बैठे सारी माया ने खींच ले सैं। किमे करना चाहिये। इब दोनां ने रुपईये का जुगाड़ करके कपड़े की एक दुकान खोल ली। पहले ही दिन एक महिला पहले तो कुछ देर दुकान के बाहर खड़ी रही और फ़िर नीरज के निमंत्रण पर दुकान में घुस आई। उसके आते ही नीरज फ़ट से पूछने लगा कि बताओ जी क्या देखना पसंद करोगी आप, सूट या साड़ी? जवाब में साड़ी सुनकर नीरज बड़े जोश में आकर एक के बाद एक साड़ी दिखाता गया, वो देखती गईं। जद घणी देर हो गई इस सूखी देखा दिखाई में तो ताऊ गल्ले से उठकर उसके पास गया और पूछण लग्या, “ठीक ठीक बता, तन्नै के चाहिये? महिला बोली, “जी, दर असल मैं तो अपने पति को देख रही थी।” ताऊ नीरज से बोल्या, “छोरे, दुकान में दो साड़ी और रह रही हैं, वो भी खोल के दिखा दे इसने, कदे इसका खसम उनमें न लिपट रह्य हो”।
है न बेमौसम की बरसात वाली बात?
बुधवार, मार्च 17, 2010
डुबोया मुझको होने ने(३)
वो एक गाना था न जी, “रेशमा जवान हो गई” उसी तर्ज पर हमारे पंख निकलने लगे थे और निकलते ही जा रहे थे। इतनी पुख्ता न्याय व्यवस्था की पचलित परंपराओं को डुबोने के बाद हमारा मन भी ऐसा उचाट हो गया था कि यहां तो लक्ष्य प्राप्ति हो चुकी, अब जीकर क्या करेंगे। पर रामजी को तो हमसे अभी और बड़े काम(कम से कम हमारी नजर में) करवाने थे। एक दिन हॉट सीट पर बैठे थे कि पिताजी का फ़ोन आ गया। उन्होंने जब ये सूचित किया कि हमारी नियुक्ति एक बैंक में हो गई है तो हमारा मन बल्लियॊं उछलने लगा। हम तो मन ही मन नोटों में बैठना, लेटना, कूदना, उछलना और पता नहीं क्या-क्या करने लगे। मां-बाप चिंतित होने लगे कि कैसे उनका बालक घर से दूर अकेले रहेगा क्योंकि नियुक्ति घर से ३०० कि.मी. दूर थी, और ये भी पता था कि अब उनका ये कर्मयोगी बालक रुकने वाला नहीं, जैसे सरकार के कड़े बयानों से आतंकवाद नहीं रुकते। वैसे तो हमारे हाथों पता नहीं अब तक कितने सफ़ीने डूब चुके थे, पर मां-बाप के लिये तो हम नादान बालक ही थे।
खैर जी, अबके दिल्ली से निकली गाड़ी तो जा पहुंची चंबल की बीहड़ों के पास हल्ले हल्ले। फ़िर मिले नये दोस्त, शुरू हुये नये दोस्ताने(डिस्क्लेमर – ये करण जौहर वाले दोस्ताने नहीं थे)। हम शायद शक्ल से ही ऐसे बावले थे कि हम से कई कई साल बड़े हमारे बैचमेट्स ने हमें अघोषित ग्रुप लीडर बना लिया, और हम बेचारे उम्र में सबसे छोटे होने की सजा भुगतते रहे। आलम ये था कि हम चलते तो हमारे आस पास ब्लैक कैट कमांडोज की तरह चार-पांच साथी चला करते। नेता होने के कारण वहां पर हुई सारी गुस्ताखियां, गड़बड़ियां और यहां तक की किराने वाले, होटल वाले, पान-सिगरेट वाले के यहां चलने वाले उधार खाते दिल्ली वाले भाई साहब के नाम दर्ज होते थे। लगे हाथों बता दें कि रहने वाले भले ही हम दिल्ली के सबसे पिछड़े इलाके के सबसे पोश मोहल्ले के मध्यमवर्गीय परिवार से हों, पर वहां भाई लोगों ने सब संबंधित पक्षों के सामने हमारा नाम ’दिल्ली वाले’ मशहूर कर रखा था। , लोग बाग भाव खा जाते थे और हम टंकी पर चढ़ जाते थे। साथियों से और वहां के सभी लोगों से बहुत प्यार मिला। यहां तक कि खड़ूस मकान मालिक से भी हमें वी.आई.पी. ट्रीटमेंट मिलता था।
शहर काफ़ी पिछड़ा हुआ था, काफ़ी कुछ हमारी तरह, सो मिजाज खूब मिलने लगा। शहर का माहौल ऐसा, कि रात आठ बजे के बाद सड़्कों पर इक्का दुक्का लोग दिखाई देते। किसी के घर यदि रात आठ-नौ बजे के बाद कोई किवाड़ खटखटाते तो पहले अंदर से आवाज लेकर परिचय पूछा जाता, काम दरियाफ़्त किया जाता और उसी हिसाब से खिड़की या दरवाजा खुलता, और हम अपने कमरे से अंदाजा लगाते कि अब खिड़की खुलेगी या दरवाजा। खिड़की का मतलब कि बंदे को बाहर से ही टाला जाना और दरवाजा खुलने का मतलब था, आना है तो फ़टाफ़ट आ जा वरना फ़िर नहीं मौका मिलेगा और खट से दरवाजा बंद। किरायेदारों के लिये रात दस बजे तक मेनगेट में प्रवेश कर लेने का नियम था। अब हम ठहरे शुरू के हिलेले, बैंक से लौटते और खटिया पर लोट जाते। खटिया के खटमल तब काटते जब दुनिया के लोग सोने की तैयारी करते होते। पूर्ण जाग्रतावस्था में आते ही बाहर के वीराने हमें ऐसे आवाजें लगाते और उकसाते जैसे इस ब्लॉग दुनिया के मजह्बी ठेकेदार सेंसेशनल पोस्ट और उससे भी ज्याद भड़काऊ शीर्षक लिखकर टिप्पणियां खींचते हैं। उस शहर में ले देकर एक स्टेशन था, जहां चहल पहल हुआ करती थी। हम रेलवे के तभी से इतने आभारी हो गये थे कि हम यहां ब्लॉग पर आते ही शिवकुमार मिश्रा जी और ज्ञानदत्त पांडे साहब के मुरीद हो गये(रेलवे के कारण)। तो उस स्टेशन पर एक गाड़ी रात आठ पचास पर आती थी और नौ पाच पर चलती थी। उस गाड़ी के सारे सजीव जीवजगत का सूक्ष्म निरीक्षण हम प्रतिदिन करते थे और इतनी कर्तव्यनिष्ठा से करते थे कि बहुधा हम रेलवे कर्मचारी या जी.आर.पी. वाले समझ लिये जाते थे।
अब घर वापिस पहुंचने पर साढ़े दस-ग्यारह बज जाते लेकिन मकान मालिक हमें फ़ट से एंटरी अलाऊ कर देते, देखे तो होंगे सभी ने वो ट्रैफ़िक पुलिस वाले, जो ट्रकों को नो-एण्ट्री ज़ोन में जाने देने की दयालुता दिखा देते। जब विपक्ष की तरह दूसरे किरायेदारों ने इस सुविधा के सामान्यीकरण की मांग की तो मकानमालकिन द्वारा यह कहकर ठुकरा दी गई कि ’बैंक वालों से मुकाबला मत करो। हमारे दिल्ली वाले भाई साहब हमारे किरायेदार नहीं है, घर के ही हैं”। और सबके सामने हमें मकान की डुप्लिकेट चाबी पेश की गई। ये तो जी बाद में सरकार ने इसी को नजीर मानकर हर ईर-बीर-फ़त्ते को रत्न वगैरह देने की बजाय सिर्फ़ और सिर्फ़ डिज़र्विंग लोगों को पुरस्कृत करने की परिपाटी अपनाई। इतनी इज्जत थी जी हमारी। पर इन्हीं मकानमालकिन भाभीजी ने हमारा मन उस खूबसूरत शहर से उखाड़ दिया। हुआ यूं कि उनके इकलौते बेटे का जन्मदिन था। हम तो इस माया ममता से निरपेक्ष थे, पर हमारे साथी कब से इस बुलौवे की बाट देख रहे थे। हम तो बुलौवे का नाम पहली बार सुनकर डर ही गये थे कि ये क्या बला है। एक दिन पहले हमारी भाभीजी आई और कहने लगीं कि कल हमारे मोड़े का बड्डे है, रात का खाना सब हमारे यहा खायेंगे।
अब साहब जब वहां पहुंचे तो देखा कि दे पंगत पे पंगत। हमने पहली बार ऐसी दावत देखी, जिसमें सभी नीचे जमीन पर बैठकर खाना खा रहे थे। बैठ ही गये पंगत में। जब डॉन बैठ गया तो चेले भी बैठ गये। खाने में हमें तो जो आनंद आया, वो फ़िर दुबारा नहीं आया। अब जब उठे तो हाथ, मुंह, कपड़े सब सने हुये थे। कहीं रायता छ्लक रहा था, कहीं रसा चमक रहा था, मूंछों में बूंदी शोभायमान थी। यूं लग रहा था कि जन्मों के भूखे को पहली बार खाना मिला हो। और ये हाल सिर्फ़ अपना था, बाकी साथी तो ऐसी दावतों के आदी थे। इतने में भाभीजी की आवाज आई कि इधर कमरे में होकर जाना। टोली चल पड़ी मकतल की तरफ़। एंट्री मिली सिर्फ़ हमें, अंदर गये तो उनके कुछ मेहमान बैठे थे। हमारी हालत देखकर भाभीजी चौंकीं, मेहमान सहम गये और एक सोने की मूरत हंसी। हम पहले तो उस बुत के रूप से मदहोश से होने लगे, फ़िर हंसी से बेहोश होने लगे और जब आवाज सुनी कि,”आंटीजी, मैं सारी उमर कुंवारी ही रहना पसंद करूंगी”, हम मर ही गये। लेकिन मरे शायद नहीं थे क्योंकि दूर कहीं से भाभीजी की आवाज आ रही थी, “भैया, तुमने तो दिल्ली का नाम डुबो दिया।” हाय अल्ला, ये दिन भी देखने थे।
हमने भी गुनगुनाया, “चल खुसरो घर आपने, भलो नहीं ये देश।”
नोट:- खुशखबरी, अब आप कुछ दिन हमें झेलने से बचे रहेंगे। काहे से कि अब चार-पांच दिन हम बीमार रहेंगे। हमें तो पहले से ही अपनी बीमारी की अवधि का पता चल जाता है, हम तो शुरू से ऐसे ही प्रार्थनापत्र दिया करते हैं।
कितना झूठ बोलना पड़ता है यार, ये जरा सी वाहवाही के लिये।
रविवार, मार्च 14, 2010
डुबोया मुझको होने ने(2)
तो साहेबान, आगे बढ़ते हैं अपनी डूब यात्रा पे। इस सफ़र की कहानी में हिंदी फ़िल्मों की तरह इमोशन भी है, ड्रामा भी है। गीत-संगीत यहां नहीं है, और कहीं है। ये कहानी कामेडी-कम-ट्रेजेडी ज्यादा है। मेरे साथ दिक्कत ये है कि जिंदगी में जहां लोगों को हंसी आती है मेरा पत्थर का दिल रोता है, जब फ़िल्म या ड्रामा देखकर पब्लिक रोती है, मैं हंसता हूं। इसीलिये अपनी लाईफ़ गड्डमगड्ड है।
अपनी कालोनी का नाम डुबाने के बाद हमारा अगला पयाम था, हमारा कालेज। ऊपर वाले के करम से और मास्टरों की मदद से हम कालेज में भी पहुंच गये। अब पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि कल की बात है और याद करना शुरू करते हैं तो ऐसा लगता है कि हमने कई जन्म उन तीन सालों में बिता दिये। सारे किस्से फ़िर कभी सुनायेंगे, जब फ़ुर्सत होगी आपको, अभी तो एकाध उदाहरण दे देते हैं कि कैसे यारों ने हमें झूठा बदनाम कर रखा है। एक बार हमारे हाथों एक मुर्गा दिसी तरह ओबलाईज़ हो गया। अहसान उतारने के लिये उसने हमारे ग्रुप को एक फ़्री पार्टी की हां कर दी, जिसे हमारे ग्रुप के मेंबर्स ने लपक लिया और उसे यह अभयदान भी दे दिया कि पार्टी के बाद हिसाब बराबर मान लिया जायेगा। अब ये हमारी कमजोरी कह लो या हमारे दोस्तों की ताकत कि जब कुछ कर दिखाने का टाईम आता तो हमें ग्रुप हैड बताते और बनाते और जब फ़ल खाने का समय आता तो हमें गीता के पता नहीं कौन-२ से श्लोक,(जो हमसे ही उन्होंने सुने थे) सुनाकर हमें बताते योगी और खुद बेचारे दुनियावी प्राणी बनकर रहते, जैसेहमारे ख…ख…खान भाई जैसे और दूसरे महान अभिनेता स्टंट सीन जैसे मामूली काम स्टंटमैन से करवाकर हीरोईन के साथ वाले कठिन सीन खुद करने हाजिर रहते हैं कि भाई ये शाट मुश्किल है, तुझसे नहीं होगा, हम कर लेते हैं। तो जी शाम को मंडली झाड़ पोंछकर, इश्टाइलिश कपड़े डालकर, इत्र-फ़ुलेल उंडेलकर तय समय से घंटा भर बाद रेस्त्रां में पहुंचे। हम समय के पाबंद अकेले वहां समय पर पहुंच कर आर्डर वगैरह दे चुके थे। अब सारे के सारे मित्र पूरे दिन के खाली पेट लिये वहां पहुंचे तो खाना तैय़ार। अबे, ऐसी भी क्या जल्दी थी, आर्डर हम आकर दे देते। अर्ज किया कि भाई समय बचाना था इसलिये…। और फ़िर हमारा मुर्गा जल्दी में था इसलिये आर्डर नोट करवा कर और एडवांस में बिल पे कर चला गया है। अब हम ठहरे खाने-पीने में पूरे वेजीटेरियन(डिस्क्लेमर- ये वेजीटेरियन केवल खाने और पीने के मामले में समझा जाये, बाकी मामलों में हम पूरा मौकाटेरियन है। ऐसे चुगद भी नहीं है, कर दिया न पहले से ही क्लियर), तो आर्डर भी वैसा ही दिया था। ये दिन भर के भूखे-प्यासे, मन ही मन अरिस्टोक्रेट की बोतलें खाली करके, मरे हुये मुर्गों की बोटी-बोटी निचोड़ने, झंझोड़ने के ख्वाब देखे हुये देवताओं(हैं तो राक्षस, पर कल को कोई सा ये सब पढ़ भी सकता है, ये संभावना देखते हुये देवता ही ठीक हैं) ने जब सामने रखा सामान देखा तो प्राणी जगत के स्थान पर वनस्पति जगत दिखाई दिया। अब हमें श्राप तो क्या देते, यही विशेषण दे मारा, “तूने तो पंजाबियों का नाम डुबो दिया। अबे, जब पंजाबी ही चिकन-शिकन, मीट-शीट नहीं पाड़ेंगे तो इस साली लाईफ़ साईकिल का क्या होगा?” अब हम कैसे समझाते कि ये सरदर्दी ऊपर वाले पर ही रहने दो, चुपचाप ले लिया सारा इल्जाम एक पूरी कौम का नाम डुबाने का।
अब जी आगे चलकर हमारी नौकरी लग गई एक कचहरी में। महीना दो महीने ठीक ठाक बीते होंगे कि हमारी सीट बदल कर एक हाट सीट पर बैठा दिया गया। बंदे ने पहले तो कोशिश की कि भईया हम सूखी सीट पर ही ठीक हैं, फ़्रिक्शन सा बना रहेगा। फ़िसलेंगे भी नहीं और फ़िर पब्लिक के साथ ऐसा अत्याचार कहां तक ठीक है कि सदियों में जाकर अब कुछ आदत सी पड़ी है सरकारी तरीको से काम करवाने की, और फ़िर आदत बदलने में उन्हें परेशानी होगी। हमारी पहले कौन सी कहीं सुनी गई जो अब सुनी जाती, सीट बन गई हॉट सीट और साथ में हमारी किस्मत से रश्क किये गये, ये अंदाज भी लगवाये गये कि साहब से किसी की सिफ़ारिश लगवाकर यहां बैठने को मिल रहा है, नहीं तो लोग बाग तो इस सीट की तमन्ना लिये हुये पूरी नौकरी काट देते हैं, ये कल के आये हुये इन्हें मलाई खाने को मिल रही है तो नखरे दिखा रहे है, वगैरह,वगैरह। तो जी हमें बहुत जल्दी ही उस हॉट सीट पर बैठने से सर्द-गरम हो गई। अब पब्लिक धक्के से पैसे पकड़ाये, हम हाथ जोड़-जोड़ कर पैसे वापिस करें। पब्लिक घूस की मात्रा बढ़ाकर धक्केशाही करे और हमें भी धक्कामुक्की शुरू करनी पड़ी। एक बार तो एक बूढ़े के कागज लेकर रख लिये कि जाओ बाबा, अगले हफ़्ते तक तुम्हारा काम हो जायेगा। बाबा ने कई बार धीरे से बात करनी चाही, हम दूसरे काम में लगे रहे। करीब दो घंटे बाद देखा तो बाबा वहीं एक बेंच पर विराजमान। हमने हमारे ऑफ़िस के चपड़ासी से कहा कि यार, ये बाबा से कहो कि जाये, उसका काम हो जायेगा। वो जाकर आया और कहने लगा कि बाबा कह रहा है कि जब तक फ़ीस अपने हाथ से नहीं दे देगा, उसे यकीन नहीं हो सकता कि काम हो जायेगा। शाम तक बाबा वहीं बैठा रहा और हमारे जाने के बाद उसी चपड़ासी ने बाबा की इच्छा का मान रखा और अगले दिन हमें पर बता दिया कि बाबा की तसल्ली कर दी थी। मैं माथा पकड़ कर बैठ गया और उससे वो पैसे वापिस मांगे। अब चील के घोंसले में से मांस कभी वापिस मिल सकता है? आगे के लिय उसे अच्छी तरह से समझा दिया कि भैया, मेरे नाम पर या मेरी सीट के काम से किसी से बात भी नहीं करना। शाम को बाबा के घर जाकर उसके पैसे वापिस दिये। गलती ये कर दी किअगले दिन ऑफ़िस में आकर ये बात बता दी(यानि कि टिप्पणी का क्रेज़ तब भी था हमें, देख लो कितने पुराने ब्लॉगर हैं हम विचारों से)। कचहरी के स्टाफ़ से लेकर चाय कैंटीन वाले तक ने कहा, “तुमने कचहरी का नाम डुबो दिया।” झेल गये यह वार भी। शंकर तो भगवान थे, गरल पी गये और कंठ में रोककर नीलकंठ कहलाये और जन-जन के आराध्य बन गये, हम जैसे नश्वर प्राणी के लिये तो इतना ही काफ़ी है(वो भी तभी संभव है कि जब ईश्वर की कृपा रहे) कि पीना पड़े तो घूंट भर लें और कहीं साईड में उंडेल दे। हम तो जी यहीं उंडेलेंगे, इससे बढ़िया जगह और कहां होगी।
हरि कथा की तरह ये व्यथा कथा भी बेअंत है।
शनिवार, मार्च 13, 2010
डुबोया मुझको होने ने(1)
बालक(डरते-डरते): "जी मास्टरजी, नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली आडी-टेडी चाली"