बुधवार, मार्च 31, 2010

एक स्कीम आजमायें?

लो जी बादशाहों, फिर आ गए हम आपको सताने के वास्ते, खिझाने के वास्ते| ये हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इस से हमें कोई वंचित नहीं कर सकता| जितना हमें इस दुनिया ने सताया है, खिझाया है और रुलाया है, सारा हिसाब बराबर करके ही जायेंगे| साथ लेकर जा सकते होते तो और भी बहुत सी चीजें हैं, वही ना ले जाते| जो कुछ भी हमारे साथ घटा है, अब औरों को भी झेलना पड़ेगा| तैयार हो जाओ दुनिया वालों, हम किसी के रोके से रुकने वाले नहीं है| बन्दर के हाथ में उस्तरा(थी तो तलवार लेकिन अब उस्तरा रह गयी है) अभी बाकी है|
इस दुनिया में हमारा आगमन अभी तीन चार महीने पहले ही हुआ है| यहाँ आने से पहले हमें इस भौतिक जगत में हमीं अकेले समझदार लगते थे, वो तो यहाँ आये तो आँखें खुलीं| अब औरों ने भी हमें समझदार मानना शुरू कर दिया है, पहले अकेले हम ही थे जो ऐसा सोचते थे| खैर देर आयद, दुरस्त आयद| अच्छा किया कि मान गए यार लोग प्यार से, नहीं तो हम पका पका कर मनवाने की कला भी जानते हैं| वैसे अगर अपने बस में होता तो हम कभी भी समझदार न बनते, पर ये दुनिया बहुत जालिम है, नहीं मानी और बना दिया हमें समझदार| तो जी हमारा इरादा है, उन सभी को बदनाम करने का, जो हमारी बर्बादी के कारण हैं| लेकिन, इतने समझदार हम हैं कि पहले ही सब पर इल्जाम धरने शुरू कर देंगे तो कोई भी कह देगा कि ये तो मिथ्यारोप लगा रहे हैं, इसीलिये पहले थोड़ी सी तारीफ़, खुशामद, स्तुति, प्रशंसा सीधे से कहें तो मस्का मार लेते हैं ताकि माहौल सही बन जाए| फिर पलटी मार लेंगे और सब को एक तरफ से लताड़ना शुरू कर देंगे| बीच में जब जरूरत महसूस होगी, कर लेंगे परिवर्तन| ह्रदय परिवर्तन, छवि परिवर्तन, विचारधारा परिवर्तन या कुछ भी, कईयों को देख लिया इस छोटी सी जिन्दगी में| हाँ, धर्म परिवर्तन भी कर सकते हैं अगर पैकेज आकर्षित मिले तो| धर्म की श्रेष्ठता और सर्वश्रेष्ठता हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती है, हमारी समझ में तो सारे धर्म महान हैं और उनके मानने वाले भी| बस ये थोपा-थापी जमात है कि 'मेरी कमीज तुम्हारी कमीज से ज्यादा सफ़ेद है' राग अलापती रहती है| और ये हमें ऑफर किया जाने वाला पैकेज इंस्टैंट होना चाहिए, ये नहीं कि मरने के बाद वो सारे काम करने को मिलेंगे जो आज खुले-आम करना चाहें तो गालियाँ मिलेंगी, इसीलिये छुपकर करने पड़ते हैं| कल्लेंगे धर्म परिवर्तन और कह देंगे कि मेरी आँखें खुल गईं हैं| इतना पक्का है कि समर्थक हमें भी मिल जायेंगे सूली पर चढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए, और हमारा स्वभाव है भी इतना नरम कि फट से प्रेरित हो जाते हैं| और कोई ना मिले तो तीन चार अपने प्रोफाईल बनाकर टिप्पणी, प्रति टिप्पणी कर कर के एक्शन, रिएक्शन वाली चैन रिएक्शन बना देंगे| जब तक उधर का माल किनारे लगेगा, कोई ना कोई और ऑफर आ ही जायगा| आखिर तो हर धर्म को हमारी जरूरत है, हमें थोड़े ही धर्म की जरूरत है| किसी दूसरे पाले में जाना पडा तो फिर कह देंगे कि भाई अब सच में आँखें खुल गईं हैं| सारों को खुश कर देना है जी, चक्कर काटकर वापिस यहीं आ जायेंगे, कह देंगे कि हो गयी 'घर वापिसी'| है क्या किसी माई के लाल को शक हमारी समझदारी पर? क्या यार, मेरे साथ ऐसा क्यों होता है कि जाना होता है जापान और पहुँच जाता हूँ चीन? अब देखो ना, चले थे दूसरों की प्रशंसा और आलोचना करने, स्कीम अपनी बता दी| अब ये काम फ़िर करना पड़ेगा कभी। करवानी ही पड़ेगी फोर्मेटिंग दिमाग की| तो सानिया, सचमुच जा रही हो? बधाई अभी दे दें क्या? हमारे बारे में सोचकर दुखी मत होना, हमें तो आदत हो चुकी है और फिर पाकिस्तान कौन सा पराया है, अपना छोटा भाई ही है| अरे भैया कोई बता दो ये दिमाग की फोर्मेटिंग तसल्लीबख्श तरीके से कहाँ से हो सकती है?
अब बाकी दी गल्लां छड्डो ते गाना सुनो, लेकिन सनद रहे(डिस्क्लेमर:- इस गाने का ऊपर लिखी बकवास से कोई सम्बन्ध नहीं है, नहीं है और बिल्कुल नहीं है)

रविवार, मार्च 28, 2010

अड़ौस-पड़ौस

काश, टाईम मशीन नाम की कोई चीज वास्तव मे होती। शर्तिया बात है कि हर व्यक्ति बचपन मे लौटना चाहता।जगजीत साहब तो शान से ऐलान कर ही चुके  कि वो समय वापस बुलाने के बदले मे दौलत, शोहरत, जवानी और पता नही क्या-क्या देने को तैयार है।  तो साहब, हमने कौन सा गधी के हाथ लगा रखा है जो हम वो गुजरा जमाना बचपन का वापिस लेने के चक्कर मे पता नही क्या-क्या न लौटा सकें?   क्योकि दौलत, शोहरत और जवानी वैसे भी कौन सी अपने पास है, और ’पता नहीं’ का तो पता भी नही कि है भी तो क्या है और कितना है। और फ़िर वैसे भी खाली बोलना ही तो है कौन सा सचमुच में लौटाना है, सो अपनी भी बाय-बैक ऑफर जारी है।

बचपन की जो चीज सबसे ज्यादा याद आती है वो  है बेफ़िक्री, निश्चिन्तता और अल्हड़पन जो अब तो कहानी जैसा ही लगता है। हमारे पड़ौस मे एक सिख परिवार रह्ता था जिसमे पति और पत्नी के अलावा उनके पांच पुत्र, नहीं जी, पांच पुत्तर एक कमरे के मकान मे रह्ते थे। वो एक कमरा उस परिवार का निवास होने के साथ कर्मभूमि, रंगभूमि और रणभूमि सब कुछ था। हाँ,  रणभूमि बेशक हम सब नौनिहालों का भी था। उनका व्यवसाय कुछ इस प्रकार का था कि आज के समय के हिसाब से वो एक फ़ूड प्रोसैसिंग युनिट थी जो उसी एक कमरे से संचालित होती थी यानि कि क्लीनिंग, प्रोसेसिंग एंड मैन्युफ़ैक्चरिंग सब वही सम्पन्न होता था। कमरे की हालत का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है। लेकिन वह कमरा हम लड़कों के लिये ताजमहल या जन्तर-मन्तर से कम महत्व नही रखता था, हमारा तो संसद भवन, विधान सभा भी वही था। गली, मोहल्ले, शहर, देश और दुनिया की सभी खबरें, स्कीमें, सभी प्रकार की समीक्षायें, आलोचनायें वही सुबह ११ बजे तक सम्पन्न होती थी क्योंकि वडडे सरदारजी जोकि काम के सिलसिले मे रोज सुबह ५ बजे घर से निकलते थे, उनकी वापिसी का समय ११ बजे के बाद किसी भी पल हो सकता था और हम बच्चो से कितना भी प्यार वो क्यों न करते हों काम मे अड़चन उन्हे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं थी, जैसे वड्डे परधानजी को आर्थिक सुधार, विकास दर आदि में कोई समझौता बरदाश्त नहीं है। खुद भी अव्वल दर्जे के मेहनती थे और अपने परिवार से भी पूरी मेहनत करवाते थे, हम बच्चों की भाषा में ’न खुद चैन लेते थे न किसी को लेने देते थे’, जोकि बड़े होने के कारण उनका हक था।

हम मासूम बालकों की समस्या ये थी कि उनके बड़े दो साहबजादे हमारे हमउम्र, हमदम, हमप्याला(चाय एंड लस्सी ओनली), हमनिवाला, हमसफ़र और हमराज थे और हमारी किसी भी मल्टी टास्क टीम के स्टार प्लेयर थे फ़िर चाहे वो क्रिकेट टीम हो, हाकी टीम हो या फ़ुटबाल टीम हो। सरदार जी सुबह जाते समय अपने लड़कों के लिये काम का वो टार्गेट फ़िक्स कर के जाते थे जो आज के मैनेजमेन्ट गुरु महंगी से महंगी सेमिनार अटैन्ड करवाके भी न कर सकें।  शर्त वही कि काम पूरा होगा तो खेलने की सोचना वरना खैर नहीं। इधर जैसे-जैसे टोली के लड़के सुबह नींद से जागते, सब का रुख उसी मीटिंग पाईन्ट की तरफ़ होता। जाते ही पहले तो हमारे स्टार प्लेयर वार्निंग देते कि ’यार आज भापाजी काम बोत ज्यादा दस गये ने ते साडा ता खेडना कैन्सल’(आज पिताजी बहुत काम बताकर गये हैं, आज खेलना कैन्सिल) और फ़िर बोरी के नीचे से चाकू या दराती निकालकर हमारे हाथो में थमा दिया जाता(साथी हाथ बढ़ाना)। आने वाले दिनों में चाकू छुरियां भी हम अपने आप खोज लेते(तभी तो हमें अब चाकू, बरछी, छुरियों से डर नहीं लगता) और फ़िर शुरु होता मौसमी फ़लों या सब्जियों का सामूहिक कत्ल-ए-आम, नतीजा – टारगेट अचीवड बिफ़ोर डेड्लाईन। उसी सुनहरे समय के कुछ झूठे-सच्चे, खटटे-मीठे वाकयात आज भी तबीयत हरी कर देते हैं।

रोज-रोज की एक कहानी थी, उन  दोनो भाईयो की आपसी नोंक-झोंक। जैसा कि आम तौर पर होता है, बड़ा भाई काफ़ी नरम था और छोटा खासा गरम। दोनो खेलते हमेशा एक दूसरे की विरोधी टीम की तरफ़ से और छोटा बेईमानी पर जरूर आता ही आता, जैसे समझ लो जी अपने भारत और पाकिस्तान है। छोटे की बेईमानी का बड़े द्वारा विरोध करने पर हमेशा झगड़ा और मारपीट।  अब एक ही उदाहरण बार बार देंगे तो जी आप हमें भड़काऊ समझेंगे, इसलिये छोटे मोटे अंदाजे खुद लगाईये। 

अब साहब, हथियार हमेशा होता छोटे के हाथ मे और पिटता रोज बड़ा भाई। कभी-कभी डोज ज्यादा होने पर बड़ा भी अपने हथियार चमका देता लेकिन अपने छोटे पर कभी वार नही करता बस यही कह्ता जाता ’ आन दे भापाजी नू, आन दे भापाजी नू’ (पिताजी को आने दे, पिताजी को आने दे)। गृहमंत्री बनने के उसमें पूरे गुण थे शुरू से ही  और छोटा कहता ’आन दे, मै वी वेख लान्गा’(आने दे पिताजी को भी, देख लूँगा मैं) और मौका देखकर वार पर वार करता जाता।  उधर घडी मे ११ बजते और छोटा अपने हाथ के अस्त्र फ़ेंककर उसके जफ़्फ़ी डाल लेता और सिर्फ़ इतना कहता, ’तू मेरा वड्डा वीर है के नही- छोटे दी मार पुआयेंगा भापाजी तों’(तू मेरा बड़ा भाई है कि नहीं? अपने छोटे भाई की मार लगवायेगा पिताजी से?)  माहौल बदल जाता, वड्डा वीर सेन्टीमेन्टल होकर कहता, ’कल तो तां नही मारेगा?’ (कल से तो नहीं मारेगा न?) लो जी हो गया शिमला समझौता, अमेरिका या ब्रिटेन के आने के पहले, सॉरी भापाजी के आने से पहले। 

और ये कहानी रोजाना दोहराई जाती जैसे हमारा देश हर घटना के बाद अपने छोटे वीर को धमकाता है कि अब हम कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे, सख्ती से निबटेंगे, आतंकवाद का सर कुचल दिया जायेगा आदि आदि। और भापाजी के आने से पहले ही वार्ता फ़िर शुरू हो जाती है।

शायद हमारे नेताओ के ऐसे पड़ौसी नहीं रहे होंगे नही तो हम रोज रोज कतई न पिटते।

नोट:- ऐसी खबर है कि हिंदी ब्लॉग जगत मैच्योरिटी(बोल्डनेस) की तरफ़ बढ़ने ही वाला है। बढ़ जायेगा तो दुबारा यही पोस्ट(मसाला मार के) झेलने के लिये तैयार रहना, हम तो थक गये ये शरीफ़ों की भाषा में लिख कर। खुशी के मारे दिल काबू में नहीं है, कब आयेगा वो स्वर्णिम दिन।

गुरुवार, मार्च 25, 2010

डुबोया मुझको होने ने(४) बस इस बार और झेल लो, प्लीज़्ज़्ज़

तो सज्जनों और सज……, जाने दो जी, कहीं कोई नया पंगा न खड़ा हो जाये हमारी जान को। वैसे ही अपराध बोध से हम जी नहीं पाते हैं। तो साहब लोगों, हमारा मनवा बैरी वहां से भी बेजार हो गया। फ़िर हम तैयार हो गये, नई मंजिलों की तलाश में। दिल्ली तो डूब चुकी थी, हमने अब रूख किया हरियाणा की तरफ़। देसां में देस हरियाणा, जित दूध दही का खाना। चारों तरफ़ मस्ती, अक्खड़पने का माहौल। शुरू में तो यूं लगता कि हर आदमी लड़ने पर उतारू, किसी से आगे बढ़्कर राम राम भी बोल दो तो अगला आंख तरेरकर पूछता, “के सै, काम बता सीधे सीधे”।

बात आगे बढ़ाने से पहले आपका मूड़ थोड़ा सा बदल देते हैं। एक था गादड़(अब हम हरियाणा में हैं तो हमारी भाषा थोड़ी सी ज्यादा ही सुधरी हुई है)। अपनी बिरादरी में कद, तंदरुस्ती,डील-डौल वगैरह में बाकी सब गादड़ों से इक्कीस। अब खुदा जब हुस्न देता है तो नजाकत आ ही जाती है, इस अंदाज में वो भी थोड़ा शरारती हो गया। दूसरे गादड़ों को बात बेबात तंग करना उसका शौक बन गया। उसका सबसे प्रिय शगल था दूसरों को टंगड़ी मार कर गिराना। बिरादरी में उसका रुतबा हो गया और नाम ही टंगड़ पड़ गया। जहां कहीं कोई आंतरिक या बाह्य समस्या आती, उसे आवाज लगाई जाती, ओ टंगड़, जल्दी आ। और उसके मैदान में उतरते ही चारों तरफ़ से नारे लगते, “टंगड़, टंगड़ी मार"।” अब वो आ जाता जोश में और लगाता अपना मास्टर स्ट्रोक यानि टंगड़ी और दुश्मन चित्त। तो जी उसकी शोहरत बढ़ती जा रही थी और साथ में उसका गुमान भी। अब हुआ ये कि एक बार उस इलाके में एक ऊंट कहीं से आ गया। अब बिरादरी वालों ने पहली बार ऐसा अजूबा देखा कि जिसकी सारी की सारी कल टेढ़ी और कद भी इतना ऊंचा। फ़ौरन संकटमोचक को आवाज लगाई गई, ओ टंगड़, जल्दी आ। बहादुर टंगड़ फ़ौरन पहुंचा और मामला समझकर, कौम के सम्मान और अपने गुमान में डूबा हुआ ऊंट से भिड़ गया। अब साहब ऊंट ने खोला अपना जबाड़ा, पकड़ी टंगड़ की गर्दन और उठा दिया जमीन से पांच छ: फ़ुट ऊपर। नीचे से बिरादरी वालों ने नारे लगाने शुरू किये, “टंगड़, टंगड़ी मार”, टंगड़, टंगड़ी मार।” अब टंगड़ बोला, “"बेटी……, टंगड़ी तो तब मारूं जद ये सुसरा पांव धरती पे टिकन दे।”

तो हुजूर किस्सा कोताह ये है कि हमारा भी पाला किसी ऊंट से पड़ गया और न धरती पर हमारे पांव टिके और टंगड़ी मारने की हसरत दिल में ही रह गई। अब मुझे लगता है कि ये किस्सा भी सुनाना ही पड़ेगा। हुआ यूं कि ’ईस्ट इंडिया कंपनी’ की तर्ज पर एक और कंपनी थी ’वैस्ट यू.पी. कंपनी’। इस कंपनी द्वारा किये गये अत्याचारों और शोषण की कहानी भी कोई कम दुखदाई नहीं है, पर अफ़सोस ये है कि वह कहानी शेष लोगों के लिये अनजानी ही रह गई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को अपने अधीन किया था तो वैस्ट यू.पी> कंपनी ने भी स्वर्णिम संभावनाओं से युक्त एक उदीयमान व्यवस्था\सभ्यता और पता नहीं क्या-क्या यानि हम पर नजर गड़ाई और अपने अधीन करने के लिये साम, दाम, दंड, विधि सभी माध्यम अपनाये और सफ़ल भी हुये। समझौते के तौर पर एक रेजिडेंट कमिश्नर स्थाई रूप से नियुक्त कर दिया गया। बाकी तो जी आप सब समझदार हैं, अब कोई कितने भी नारे लगाये पर इतना तो समझ लेना चाहिये कि टंगड़ी तो हम तभी मार पायेंगे जब हमारे पांव धरती पर टिक जायेंगे। बस जी फ़िर आपका ये प्रिय टंगड़ खुद ही डूब गया और ऐसा डूबा कि मोती, मानुस और चून की तरह दुबारा नहीं उबरा। ये जो थोड़ी-थोड़ी सी आवाज कभी कभार आती है न, ये तो वैसी ही है जैसे कोई गहरे पानी में डूबता हुआ “बचाओ, बचाओ” की आवाज लगाता है। और ये कतई जरूरी नहीं कि उसे बचा ही लिया जायेगा। वैसे एक दोस्त ने भरोसा दे तो रखा है बचा लेने का और हमें उस भरोसे पर पूरा ऐतबार भी है।

अब आप ही बताओ कि ये डूबना-डुबोना हमारे होने से ही तो हुआ, न हम होते और न ये सब होता। इसीलिये चचा गालिब की लिखी इन पंक्तियों को हमने अपनी प्रोफ़ाईल में लिख डाला था। किसी को कोई गलत बात लगी हो तो सूचित कर दे, माफ़ी मांग लेंगे(पर हटायेंगे नहीं)।

पुछल्ला:- अपना नीरज एक बार ताऊ धोरे जाकर कहने लगा कि ताऊ, इन बनियों और पंजाबियों ने सारे व्योपार पे कब्ज़ा कर राख्या सै। हम हाड़ तोड़कर पीसे कमावां सां और यो गद्दी पे बैठे बैठे सारी माया ने खींच ले सैं। किमे करना चाहिये। इब दोनां ने रुपईये का जुगाड़ करके कपड़े की एक दुकान खोल ली। पहले ही दिन एक महिला पहले तो कुछ देर दुकान के बाहर खड़ी रही और फ़िर नीरज के निमंत्रण पर दुकान में घुस आई। उसके आते ही नीरज फ़ट से पूछने लगा कि बताओ जी क्या देखना पसंद करोगी आप, सूट या साड़ी? जवाब में साड़ी सुनकर नीरज बड़े जोश में आकर एक के बाद एक साड़ी दिखाता गया, वो देखती गईं। जद घणी देर हो गई इस सूखी देखा दिखाई में तो ताऊ गल्ले से उठकर उसके पास गया और पूछण लग्या, “ठीक ठीक बता, तन्नै के चाहिये? महिला बोली, “जी, दर असल मैं तो अपने पति को देख रही थी।” ताऊ नीरज से बोल्या, “छोरे, दुकान में दो साड़ी और रह रही हैं, वो भी खोल के दिखा दे इसने, कदे इसका खसम उनमें न लिपट रह्य हो”।

है न बेमौसम की बरसात वाली बात?

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बुधवार, मार्च 17, 2010

डुबोया मुझको होने ने(३)

वो एक गाना था न जी, “रेशमा जवान हो गई” उसी तर्ज पर हमारे पंख निकलने लगे थे और निकलते ही जा रहे थे। इतनी पुख्ता न्याय व्यवस्था की पचलित परंपराओं को डुबोने के बाद हमारा मन भी ऐसा उचाट हो गया था कि यहां तो लक्ष्य प्राप्ति हो चुकी, अब जीकर क्या करेंगे। पर रामजी को तो हमसे अभी और बड़े काम(कम से कम हमारी नजर में) करवाने थे। एक दिन हॉट सीट पर बैठे थे कि पिताजी का फ़ोन आ गया। उन्होंने जब ये सूचित किया कि हमारी नियुक्ति एक बैंक में हो गई है तो हमारा मन बल्लियॊं उछलने लगा। हम तो मन ही मन नोटों में बैठना, लेटना, कूदना, उछलना और पता नहीं क्या-क्या करने लगे। मां-बाप चिंतित होने लगे कि कैसे उनका बालक घर से दूर अकेले रहेगा क्योंकि नियुक्ति घर से ३०० कि.मी. दूर थी, और ये भी पता था कि अब उनका ये कर्मयोगी बालक रुकने वाला नहीं, जैसे सरकार के कड़े बयानों से आतंकवाद नहीं रुकते। वैसे तो हमारे हाथों पता नहीं अब तक कितने सफ़ीने डूब चुके थे, पर मां-बाप के लिये तो हम नादान बालक ही थे।

खैर जी, अबके दिल्ली से निकली गाड़ी तो जा पहुंची चंबल की बीहड़ों के पास हल्ले हल्ले। फ़िर मिले नये दोस्त, शुरू हुये नये दोस्ताने(डिस्क्लेमर – ये करण जौहर वाले दोस्ताने नहीं थे)। हम शायद शक्ल से ही ऐसे बावले थे कि हम से कई कई साल बड़े हमारे बैचमेट्स ने हमें अघोषित ग्रुप लीडर बना लिया, और हम बेचारे उम्र में सबसे छोटे होने की सजा भुगतते रहे। आलम ये था कि हम चलते तो हमारे आस पास ब्लैक कैट कमांडोज की तरह चार-पांच साथी चला करते। नेता होने के कारण वहां पर हुई सारी गुस्ताखियां, गड़बड़ियां और यहां तक की किराने वाले, होटल वाले, पान-सिगरेट वाले के यहां चलने वाले उधार खाते दिल्ली वाले भाई साहब के नाम दर्ज होते थे। लगे हाथों बता दें कि रहने वाले भले ही हम दिल्ली के सबसे पिछड़े इलाके के सबसे पोश मोहल्ले के मध्यमवर्गीय परिवार से हों, पर वहां भाई लोगों ने सब संबंधित पक्षों के सामने हमारा नाम ’दिल्ली वाले’ मशहूर कर रखा था। , लोग बाग भाव खा जाते थे और हम टंकी पर चढ़ जाते थे। साथियों से और वहां के सभी लोगों से बहुत प्यार मिला। यहां तक कि खड़ूस मकान मालिक से भी हमें वी.आई.पी. ट्रीटमेंट मिलता था।

शहर काफ़ी पिछड़ा हुआ था, काफ़ी कुछ हमारी तरह, सो मिजाज खूब मिलने लगा। शहर का माहौल ऐसा, कि रात आठ बजे के बाद सड़्कों पर इक्का दुक्का लोग दिखाई देते। किसी के घर यदि रात आठ-नौ बजे के बाद कोई किवाड़ खटखटाते तो पहले अंदर से आवाज लेकर परिचय पूछा जाता, काम दरियाफ़्त किया जाता और उसी हिसाब से खिड़की या दरवाजा खुलता, और हम अपने कमरे से अंदाजा लगाते कि अब खिड़की खुलेगी या दरवाजा। खिड़की का मतलब कि बंदे को बाहर से ही टाला जाना और दरवाजा खुलने का मतलब था, आना है तो फ़टाफ़ट आ जा वरना फ़िर नहीं मौका मिलेगा और खट से दरवाजा बंद। किरायेदारों के लिये रात दस बजे तक मेनगेट में प्रवेश कर लेने का नियम था। अब हम ठहरे शुरू के हिलेले, बैंक से लौटते और खटिया पर लोट जाते। खटिया के खटमल तब काटते जब दुनिया के लोग सोने की तैयारी करते होते। पूर्ण जाग्रतावस्था में आते ही बाहर के वीराने हमें ऐसे आवाजें लगाते और उकसाते जैसे इस ब्लॉग दुनिया के मजह्बी ठेकेदार सेंसेशनल पोस्ट और उससे भी ज्याद भड़काऊ शीर्षक लिखकर टिप्पणियां खींचते हैं। उस शहर में ले देकर एक स्टेशन था, जहां चहल पहल हुआ करती थी। हम रेलवे के तभी से इतने आभारी हो गये थे कि हम यहां ब्लॉग पर आते ही शिवकुमार मिश्रा जी और ज्ञानदत्त पांडे साहब के मुरीद हो गये(रेलवे के कारण)। तो उस स्टेशन पर एक गाड़ी रात आठ पचास पर आती थी और नौ पाच पर चलती थी। उस गाड़ी के सारे सजीव जीवजगत का सूक्ष्म निरीक्षण हम प्रतिदिन करते थे और इतनी कर्तव्यनिष्ठा से करते थे कि बहुधा हम रेलवे कर्मचारी या जी.आर.पी. वाले समझ लिये जाते थे।

अब घर वापिस पहुंचने पर साढ़े दस-ग्यारह बज जाते लेकिन मकान मालिक हमें फ़ट से एंटरी अलाऊ कर देते, देखे तो होंगे सभी ने वो ट्रैफ़िक पुलिस वाले, जो ट्रकों को नो-एण्ट्री ज़ोन में जाने देने की दयालुता दिखा देते। जब विपक्ष की तरह दूसरे किरायेदारों ने इस सुविधा के सामान्यीकरण की मांग की तो मकानमालकिन द्वारा यह कहकर ठुकरा दी गई कि ’बैंक वालों से मुकाबला मत करो। हमारे दिल्ली वाले भाई साहब हमारे किरायेदार नहीं है, घर के ही हैं”। और सबके सामने हमें मकान की डुप्लिकेट चाबी पेश की गई। ये तो जी बाद में सरकार ने इसी को नजीर मानकर हर ईर-बीर-फ़त्ते को रत्न वगैरह देने की बजाय सिर्फ़ और सिर्फ़ डिज़र्विंग लोगों को पुरस्कृत करने की परिपाटी अपनाई। इतनी इज्जत थी जी हमारी। पर इन्हीं मकानमालकिन भाभीजी ने हमारा मन उस खूबसूरत शहर से उखाड़ दिया। हुआ यूं कि उनके इकलौते बेटे का जन्मदिन था। हम तो इस माया ममता से निरपेक्ष थे, पर हमारे साथी कब से इस बुलौवे की बाट देख रहे थे। हम तो बुलौवे का नाम पहली बार सुनकर डर ही गये थे कि ये क्या बला है। एक दिन पहले हमारी भाभीजी आई और कहने लगीं कि कल हमारे मोड़े का बड्डे है, रात का खाना सब हमारे यहा खायेंगे।

अब साहब जब वहां पहुंचे तो देखा कि दे पंगत पे पंगत। हमने पहली बार ऐसी दावत देखी, जिसमें सभी नीचे जमीन पर बैठकर खाना खा रहे थे। बैठ ही गये पंगत में। जब डॉन बैठ गया तो चेले भी बैठ गये। खाने में हमें तो जो आनंद आया, वो फ़िर दुबारा नहीं आया। अब जब उठे तो हाथ, मुंह, कपड़े सब सने हुये थे। कहीं रायता छ्लक रहा था, कहीं रसा चमक रहा था, मूंछों में बूंदी शोभायमान थी। यूं लग रहा था कि जन्मों के भूखे को पहली बार खाना मिला हो। और ये हाल सिर्फ़ अपना था, बाकी साथी तो ऐसी दावतों के आदी थे। इतने में भाभीजी की आवाज आई कि इधर कमरे में होकर जाना। टोली चल पड़ी मकतल की तरफ़। एंट्री मिली सिर्फ़ हमें, अंदर गये तो उनके कुछ मेहमान बैठे थे। हमारी हालत देखकर भाभीजी चौंकीं, मेहमान सहम गये और एक सोने की मूरत हंसी। हम पहले तो उस बुत के रूप से मदहोश से होने लगे, फ़िर हंसी से बेहोश होने लगे और जब आवाज सुनी कि,”आंटीजी, मैं सारी उमर कुंवारी ही रहना पसंद करूंगी”, हम मर ही गये। लेकिन मरे शायद नहीं थे क्योंकि दूर कहीं से भाभीजी की आवाज आ रही थी, “भैया, तुमने तो दिल्ली का नाम डुबो दिया।” हाय अल्ला, ये दिन भी देखने थे।

हमने भी गुनगुनाया, “चल खुसरो घर आपने, भलो नहीं ये देश।”

नोट:- खुशखबरी, अब आप कुछ दिन हमें झेलने से बचे रहेंगे। काहे से कि अब चार-पांच दिन हम बीमार रहेंगे। हमें तो पहले से ही अपनी बीमारी की अवधि का पता चल जाता है, हम तो शुरू से ऐसे ही प्रार्थनापत्र दिया करते हैं।

कितना झूठ बोलना पड़ता है यार, ये जरा सी वाहवाही के लिये।

रविवार, मार्च 14, 2010

डुबोया मुझको होने ने(2)

तो साहेबान, आगे बढ़ते हैं अपनी डूब यात्रा पे। इस सफ़र की कहानी में हिंदी फ़िल्मों की तरह इमोशन भी है, ड्रामा भी है। गीत-संगीत यहां नहीं है, और कहीं है। ये कहानी कामेडी-कम-ट्रेजेडी ज्यादा है। मेरे साथ दिक्कत ये है कि जिंदगी में जहां लोगों को हंसी आती है मेरा पत्थर का दिल रोता है, जब फ़िल्म या ड्रामा देखकर पब्लिक रोती है, मैं हंसता हूं। इसीलिये अपनी लाईफ़ गड्डमगड्ड है।

अपनी कालोनी का नाम डुबाने के बाद हमारा अगला पयाम था, हमारा कालेज। ऊपर वाले के करम से और मास्टरों की मदद से हम कालेज में भी पहुंच गये। अब पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि कल की बात है और याद करना शुरू करते हैं तो ऐसा लगता है कि हमने कई जन्म उन तीन सालों में बिता दिये। सारे किस्से फ़िर कभी सुनायेंगे, जब फ़ुर्सत होगी आपको, अभी तो एकाध उदाहरण दे देते हैं कि कैसे यारों ने हमें झूठा बदनाम कर रखा है। एक बार हमारे हाथों एक मुर्गा दिसी तरह ओबलाईज़ हो गया। अहसान उतारने के लिये उसने हमारे ग्रुप को एक फ़्री पार्टी की हां कर दी, जिसे हमारे ग्रुप के मेंबर्स ने लपक लिया और उसे यह अभयदान भी दे दिया कि पार्टी के बाद हिसाब बराबर मान लिया जायेगा। अब ये हमारी कमजोरी कह लो या हमारे दोस्तों की ताकत कि जब कुछ कर दिखाने का टाईम आता तो हमें ग्रुप हैड बताते और बनाते और जब फ़ल खाने का समय आता तो हमें गीता के पता नहीं कौन-२ से श्लोक,(जो हमसे ही उन्होंने सुने थे) सुनाकर हमें बताते योगी और खुद बेचारे दुनियावी प्राणी बनकर रहते, जैसेहमारे ख…ख…खान भाई जैसे और दूसरे महान अभिनेता स्टंट सीन जैसे मामूली काम स्टंटमैन से करवाकर हीरोईन के साथ वाले कठिन सीन खुद करने हाजिर रहते हैं कि भाई ये शाट मुश्किल है, तुझसे नहीं होगा, हम कर लेते हैं। तो जी शाम को मंडली झाड़ पोंछकर, इश्टाइलिश कपड़े डालकर, इत्र-फ़ुलेल उंडेलकर तय समय से घंटा भर बाद रेस्त्रां में पहुंचे। हम समय के पाबंद अकेले वहां समय पर पहुंच कर आर्डर वगैरह दे चुके थे। अब सारे के सारे मित्र पूरे दिन के खाली पेट लिये वहां पहुंचे तो खाना तैय़ार। अबे, ऐसी भी क्या जल्दी थी, आर्डर हम आकर दे देते। अर्ज किया कि भाई समय बचाना था इसलिये…। और फ़िर हमारा मुर्गा जल्दी में था इसलिये आर्डर नोट करवा कर और एडवांस में बिल पे कर चला गया है। अब हम ठहरे खाने-पीने में पूरे वेजीटेरियन(डिस्क्लेमर- ये वेजीटेरियन केवल खाने और पीने के मामले में समझा जाये, बाकी मामलों में हम पूरा मौकाटेरियन है। ऐसे चुगद भी नहीं है, कर दिया न पहले से ही क्लियर), तो आर्डर भी वैसा ही दिया था। ये दिन भर के भूखे-प्यासे, मन ही मन अरिस्टोक्रेट की बोतलें खाली करके, मरे हुये मुर्गों की बोटी-बोटी निचोड़ने, झंझोड़ने के ख्वाब देखे हुये देवताओं(हैं तो राक्षस, पर कल को कोई सा ये सब पढ़ भी सकता है, ये संभावना देखते हुये देवता ही ठीक हैं) ने जब सामने रखा सामान देखा तो प्राणी जगत के स्थान पर वनस्पति जगत दिखाई दिया। अब हमें श्राप तो क्या देते, यही विशेषण दे मारा, “तूने तो पंजाबियों का नाम डुबो दिया। अबे, जब पंजाबी ही चिकन-शिकन, मीट-शीट नहीं पाड़ेंगे तो इस साली लाईफ़ साईकिल का क्या होगा?” अब हम कैसे समझाते कि ये सरदर्दी ऊपर वाले पर ही रहने दो, चुपचाप ले लिया सारा इल्जाम एक पूरी कौम का नाम डुबाने का।

अब जी आगे चलकर हमारी नौकरी लग गई एक कचहरी में। महीना दो महीने ठीक ठाक बीते होंगे कि हमारी सीट बदल कर एक हाट सीट पर बैठा दिया गया। बंदे ने पहले तो कोशिश की कि भईया हम सूखी सीट पर ही ठीक हैं, फ़्रिक्शन सा बना रहेगा। फ़िसलेंगे भी नहीं और फ़िर पब्लिक के साथ ऐसा अत्याचार कहां तक ठीक है कि सदियों में जाकर अब कुछ आदत सी पड़ी है सरकारी तरीको से काम करवाने की, और फ़िर आदत बदलने में उन्हें परेशानी होगी। हमारी पहले कौन सी कहीं सुनी गई जो अब सुनी जाती, सीट बन गई हॉट सीट और साथ में हमारी किस्मत से रश्क किये गये, ये अंदाज भी लगवाये गये कि साहब से किसी की सिफ़ारिश लगवाकर यहां बैठने को मिल रहा है, नहीं तो लोग बाग तो इस सीट की तमन्ना लिये हुये पूरी नौकरी काट देते हैं, ये कल के आये हुये इन्हें मलाई खाने को मिल रही है तो नखरे दिखा रहे है, वगैरह,वगैरह। तो जी हमें बहुत जल्दी ही उस हॉट सीट पर बैठने से सर्द-गरम हो गई। अब पब्लिक धक्के से पैसे पकड़ाये, हम हाथ जोड़-जोड़ कर पैसे वापिस करें। पब्लिक घूस की मात्रा बढ़ाकर धक्केशाही करे और हमें भी धक्कामुक्की शुरू करनी पड़ी। एक बार तो एक बूढ़े के कागज लेकर रख लिये कि जाओ बाबा, अगले हफ़्ते तक तुम्हारा काम हो जायेगा। बाबा ने कई बार धीरे से बात करनी चाही, हम दूसरे काम में लगे रहे। करीब दो घंटे बाद देखा तो बाबा वहीं एक बेंच पर विराजमान। हमने हमारे ऑफ़िस के चपड़ासी से कहा कि यार, ये बाबा से कहो कि जाये, उसका काम हो जायेगा। वो जाकर आया और कहने लगा कि बाबा कह रहा है कि जब तक फ़ीस अपने हाथ से नहीं दे देगा, उसे यकीन नहीं हो सकता कि काम हो जायेगा। शाम तक बाबा वहीं बैठा रहा और हमारे जाने के बाद उसी चपड़ासी ने बाबा की इच्छा का मान रखा और अगले दिन हमें पर बता दिया कि बाबा की तसल्ली कर दी थी। मैं माथा पकड़ कर बैठ गया और उससे वो पैसे वापिस मांगे। अब चील के घोंसले में से मांस कभी वापिस मिल सकता है? आगे के लिय उसे अच्छी तरह से समझा दिया कि भैया, मेरे नाम पर या मेरी सीट के काम से किसी से बात भी नहीं करना। शाम को बाबा के घर जाकर उसके पैसे वापिस दिये। गलती ये कर दी किअगले दिन ऑफ़िस में आकर ये बात बता दी(यानि कि टिप्पणी का क्रेज़ तब भी था हमें, देख लो कितने पुराने ब्लॉगर हैं हम विचारों से)। कचहरी के स्टाफ़ से लेकर चाय कैंटीन वाले तक ने कहा, “तुमने कचहरी का नाम डुबो दिया।” झेल गये यह वार भी। शंकर तो भगवान थे, गरल पी गये और कंठ में रोककर नीलकंठ कहलाये और जन-जन के आराध्य बन गये, हम जैसे नश्वर प्राणी के लिये तो इतना ही काफ़ी है(वो भी तभी संभव है कि जब ईश्वर की कृपा रहे) कि पीना पड़े तो घूंट भर लें और कहीं साईड में उंडेल दे। हम तो जी यहीं उंडेलेंगे, इससे बढ़िया जगह और कहां होगी।

हरि कथा की तरह ये व्यथा कथा भी बेअंत है।

शनिवार, मार्च 13, 2010

डुबोया मुझको होने ने(1)

आज शाम बाजार से घर लौट रहा था कि मोबाईल की घंटी बज उठी| बाईक साईड में लगाकर देखा तो कोई अनजान नम्बर था| चार पांच मिनट तक बात चलती रही| गृह मंत्रालय साथ ही था| अब कोई हम से इतनी लम्बी बात कर ले, वो भी बिना हैड क्वार्टर की परमीशन के, तो साहब हो गया उल्लन्घन प्रोटोकॉल का| हाथों-हाथ ही स्पष्टीकरण माँगा गया| एक बार तो मानवाधिकार आयोग से दुहाई करने वाले थे फिर ध्यान आया कि दो-तीन दिन पहले ही महिला सशक्तिकरण बिल पास हो चुका है, सो इरादा बदल दिया| वैसे भी वो कोई खाली थोड़े ही बैठे हैं कि हर ऐरे-गैरे-नाथू-खैरे की दुहाई सुन लें| हिंदु हम, सवर्ण हम, मर्द हम, आयकर दाता हम, अब इतने सारे कसूर पहले ही कर चुके हैं, किस मुंह से इन्साफ की दुहाई देते?खुद ही सीधे निवेदन किया कि कोई हमारे फैन थे, ब्लौग के बारे में तारीफ़ कर रहे थे सो शिष्टाचार के नाते बात सुननी पड़ी|


"हुं, इतनी बड़ी दुनिया में तुम्हीं मिले थे जिसका फैन बना जाए?कोई पल्ले से पैसे खर्च कर के तुम्हारी तारीफ़ कर रहा था, ये झांसा किसी और को देना| किसका फोन था?"

"ये जो हजारों खर्च करके स्टार नाईट्स में जाते हैं, इन्हें क्या आयोजक पैसे देकर बुलाते हैं तारीफ़ करने के लिए? बताया तो किसी फैन का फोन था|"

"हाँ, तुम्हारा ही तो मुकाबला है इन स्टार्स के साथ| मेरे से ज्यादा तुम्हें कौन जानता है| होगा किसी निठल्ले का फोन या होगी कोई पुरानी सहेली| सीधी बात तो तुमसे आज तक हुई नहीं, जो आज बताओगे| कौन था या थी?"

"देखो, ऐसा इल्जाम मत लगाओ| पुरानी सहेली तो कोई थी ही नहीं, और वैसे भी ये नया नंबर उनके पास थोड़े ही ना है| कोई नया फैन ही था| अब बैठो बाईक पर, घर चलें| लोग देख रहे हैं|"

"हाँ, तो फैन ही होगा| अब तो वैसे भी सुप्रीम कोर्ट तक ने अधिकार दे दिया है| हम भी सब समझती हैं, अखबार हम भी पढ़ते हैं| लक्षण तो तुम्हारे कभी ठीक नहीं रहे| अब सहेली नहीं तो फैन आ गए और ये लोगों का हमें क्या डर दिखा रहे हो| डरे वो जो गलत हो| कौन है ये नया मुह्झोंसा?"

"देखो, हम ऐसे नहीं है| चलो अब घर चलकर पूरी बात कर लेंगे|"

खैर साहब, आधा घंटा तक हम ऐसे निवेदन करते रहे जैसे देश के मंत्री/सचिव .पड़ोसी सरकार के समक्ष करते हैं कि जी, आतंकवादी आपके यहाँ से आये थे और वो हमारे निवेदन ऐसे ही ठुकराते रहे जैसे पाकिस्तान के हुक्मरान हमारे श्वेत-पात्र, पीत-पत्र आदि को नकारते रहते हैं| फिर हमने अपनी लोकतांत्रिक परिपाटी का अनुपालन करते हुए राहत पैकेज का प्रस्ताव किया जो हाई कमान द्वारा बहुत अहसान दिखाते हुए (फॉर दी टाईम बीईंग) मंजूर कर लिया गया| अथ श्री राहत पेकेज कथा|

घर पहुँच कर अकेले में बैठ कर आये हुए फोन के बारे में सोचने लगा| महाशय ने छूटते ही आरोप दागा था कि आपने अपने ब्लौग प्रोफाईल पर ये जो डूबने डाबने वाली बात लिखी है, ये किसी और ब्लौग से चुराई गयी है और हमें चोरी के माल से अपनी दूकान सजाने का कोई हक़ नहीं है| हमें ये भी समझाया गया कि ये जो कूड़ा- कबाड़ा लिखा जा रहा है, इसे लेकर मन में कोई गुमान ना पालूँ कि बहुत उम्दा किस्म की रचनाएं लिखी हैं| सलाह देने वाले ने अपना नाम तो बताया नहीं, ये बता दिया कि फोन किसी चलते फिरते पी सी ओ से कर रहा है, वो भी पैसे खुल्ले करवाने के चक्कर में| मैंने कहा, श्रीमान जी, ये डूबने वाली बात मेरी कही हुई नहीं है, वो हमारे आपके चचा कह गए थे, हमें अपनी जिन्दगी का फलसफा लगा, उड़ा डाली| और इसके अलावा जिन शब्दों में ये सब लिखा जा रहा उनमें से एक शब्द भी अपना इजाद किया हुआ नहीं है, इसलिए लगे हाथों इसका भी डिस्क्लैमेर लगा देंगे ताकि सनद रहे| अब सोचा कि पुनर्विचार करा जाए कि डूबने वाली बात सही है कि नहीं|

तो साहब, शुरू करते हैं शुरुआत से ही| जिस कालोनी में हमारा घर था, वहां पढ़े हुए सिर्फ हम थे, बाकी सब कढ़े हुए थे| ये फैसला करना मुश्किल था कि हमारे लड़कों की जबान तेज थी या हाथ| हम हल्फिया बयान दे सकते हैं कि फ़ुरसतिया जी की जबरिया लिखने वाली पंचलाइन हमारे बाशिंदों से प्रभावित है या फिर वाईस-वरसा है| हमारा सिद्धांत व्यापक था कि उसमें लिखने को छोड़कर बाकी सबकुछ आता था मसलन 'हम तो जबरिया खेलेंगे, खायेंगे, लड़ेंगे, बिखेरेंगे, उजाड़ेंगे, बिगाड़ेंगे आदि-आदि,आ जाओ कौन आता है|' नेकनामी इतनी ज्यादा थी कि आसपास के पांच सात किलोमीटर के इलाके में हमारी कालोनी का नाम लेने मात्र से हमें किसी भी लाइन में लगने से छूट मिल जाती थी, होटल रेस्तरां वाले १०० रुपये का बिल बनने पर नगद ५० रुपये ऑफर करने पर ५०% डिस्काउंट हंसकर, भागकर दिया करते थे(वर्ना पचास भी जाते)| क्रिकेट के मुहल्ला स्तर के आसपास के सारे मैच और टूर्नामेंट और विश्व कप तक हमारी टीम जीतती थी क्योंकि पहले बैटिंग करने की हमारे शर्त थी और फील्डिंग में किसी न किसी बात पर झगड़ा करके वाक-ओवर करना हमारी रीत थी| इनाम न दिए जाने पर विरोधी टीम की गेंद, बल्ला, स्टंप, पैड, यहाँ तक की दूसरी टीम के खिलारिओं के कपडे तक उतरवा कर लाने में हमारे तेज गेंदबाज माहिर थे, बाकी योद्धा रणक्षेत्र/ क्रीड़ाक्षेत्र में मोर्चा संभालते थे(हेनरी फेयोल जॉब रोटेशन वाला सिद्धांत पहले ही प्रतिपादित न कर चुके होते तो ये श्रेय भी हमारे किसी बालसखा को मिलना था)| कप्तानी का रोटेशन वाला फार्मूला हमारे यहाँ बहुत पहले ही ईजाद भी हो चुका था और काफी सफल भी रहा था(असंतोष ना पनपने देने का प्रबंध-सूत्र)| बी.जे.पी. ने तो हमारे यहाँ इसके सफल प्रयोग से प्रेरणा लेकर ये बाद में अपनाया था यू पी और कर्नाटक में| वो मार खा बैठी आधी नक़ल करने में, हमारी टीम की तरह पहले बैटिंग वाला फार्मूला भी ले जाते तो कामयाब रहते| तो जी एक बार रोटेशन में हम कप्तान बन गए| चमड़ी हमारी मोटी थी नहीं उस समय, लोगों की बातें सुनकर हमने हृदय परिवर्तन करते हुए शराफत दिखाई तो मैच हार गए, और पहली बार सुनाने को मिला था - यार, तूने तो मोहल्ले का नाम डुबो दिया|
(क्या ये गाथा एक दिन में ख़त्म हो सकती है?)



लो जी होर सुनो :- 
मास्टरजी ने बोर्ड पर लिख्या , नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली _____ ______ चाली
मास्टरजी: "खड्या हो रे रामफल के, रिक्त स्थान भर"


बालक(डरते-डरते):  "जी मास्टरजी, नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली आडी-टेडी चाली"

मास्टरजी ने गुस्से में दो बेंत जमाये और पूछने लगे:"हुं, नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली आडी-टेडी चाली?"

बालक(सुबकते हुए): "मास्टरजी, आपसे डर के मन्ने बिल्ली आडी-टेडी चला दी, न तो मास्टरजी, नौ सौ चूहे खाके बिल्ली ते हाल्या भी न जाओगा|"






















मंगलवार, मार्च 09, 2010

जाको राखे साईयां,

आठ मार्च २०१० का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था| कुछ कुछ वैसा ही माहौल बन रहा था जैसे स्काई लैब के गिरने से पहले था| कब गिरेगा, कहाँ गिरेगा, कैसे गिरेगा और कैसा गिरेगा| हम तो जी रात में भी हेलमेट पहन कर सोते थे कि जितना सावधान रहा जा सके, रहना चाहिए| सारी सावधानियां धरी की धरी रह गयीं, और वो ससुरकनाती पता नहीं कौन से महासागर में जा गिरा| अब इसमें छुपाने की कोई बात है नहीं कि हमारी हिस्ट्री जितनी खराब रही है, भूगोल उससे भी ज्यादा खराब था और अब और भी ज्यादा खराब होता जा रहा है, ३६-३८-४० तो होगा ही हमारा जीरो फिगर| सिक्स पैक या एट पैक ऐब तो जी बड़े लोगों के चोंचले हैं, यहाँ तो बिना एक भी ऐब के भी दाल रोटी महंगी लग रही है, कहाँ से बन्दा छे-आठ ऐब पाल ले|
खैर हमें इंतज़ार था महिला आरक्षण बिल के पास होने का| आज सवेरे से अपनी स्त्री शक्ति को कई बार बिना बात के सैलयूट कर दिया कि हो सकता है कल को कुछ आड़े-टेड़े समय में काम आ जाए, पर वो भी दो-तीन दिन से ब्लॉग जगत की हलचलों से वाकिफ थी तो हमारा बायकाट किये रही| कई बार हम धमकाए जा चुके हैं कि हमें अकेली मत समझना, नारी क्रान्ति हो चुकी है| हमारी एक आवाज पर एक से बढ़कर एक वीरांगना झंडा-डंडा उठाकर हमारे सुर में सुर मिलाने आ जायेंगी| नारियां सभी एक पार्टी में है ही, नर दोनों तरफ बंटे हुए हैं और बहुत से तो पाला बदलकर नारी शक्ति का आधिपत्य स्वीकार कर चुके हैं| जो थोड़े से विरोध कर रहे हैं, वो भी झक मार के इस पाले में आ ही जायेंगे| मूढ़ नरों, अपनी खैर मनाओ और समर्पण कर दो| ब्लॉग दुनिया के बच्चों को बड़ा नहीं होने दिया जाएगा, बड़ों को झुका लिया जाएगा और जो नहीं मानेंगे उन्हें आठ मार्च २०१० के बाद देख लिया जाएगा| जब आरक्षण मिल जाएगा फिर देखेंगी हम तुम जैसे ख्वामख्वाह को| अब जी, हम तो धमकियां खाने में १५ साल के अनुभवी हैं, फट से धमक लिए| बहस करने में पता नहीं क्या-क्या खिताब मिल जाएँ| जो पहले पा चुके, उसी में सब्र करके रूखी=सूखी खाए के ठंडा पानी पी लिए| बाकी समर्पण वाले मुद्दे पर हम भी क्रांतिकारियों से कुछ कम नहीं है, 'पंचायत दा आख्या सर मत्थे, पर परनाला उथे दा उथे|'
आज आफिस से घर ऐसे ही लौटे, जैसे गाय कसाईखाने की तरफ| बार बार प्राण साहब की तरह गर्दन पे हाथ फेर रहे थे कि कब तक बचेगी| घर आने के बाद पता चला कि साईकिल वाले नेताजी और लालटेन वाले नेताजी-कम अभिनेताजी-ज्यादा और उनके साथियों ने एक बार फिर महिला आरक्षण बिल पास नहीं होने दिया| चलो, अपने घर में तो एक बार फिर हम गर्दन सीधी कर लेंगे, 'जाको राखे साईयां, मार सके न कोई।

अब इन मान्यवरों से यह पूछने का मन कर आया कि जिस आरक्षण का सहारा लेकर अपनी राजनीति करते रहे, वही आरक्षण आपके विरोध का पात्र कैसे हो गया? दाखिले में आरक्षण, नौकरी में आरक्षण, प्रोमोशन में आरक्षण, जिन्हें आरक्षण का लाभ एक बार नहीं अनेक बार मिल गया उनके परिवार के लिए आरक्षण, सरकारी विभागों में प्रोमोशन के समय आरक्षित वर्ग के सदस्यों के स्पेशल ट्रेनिंग कार्यक्रम जायज है तो महिलाओं को चुनाव में आरक्षण का लाभ देने में कौन सी दुनिया पलट जायेगी? इनका आरोप है कि परकटी महिलायें इस सुविधा का दुरूपयोग कर जायेंगी तो कृपया ये बताएं कि जातिगत आरक्षण की मलाई क्या चुनिन्दा जातियां और उनमें भी चुनिन्दा परिवार नहीं खा रहे हैं? किसी प्रतियोगिता के लिए योग्यता एकमात्र मापदंड होना चाहिए| जरूरतमंदों को मुफ्त व स्तरीय शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए| मुफ्त पठन सामग्री, कोचिंग आदि उपलब्ध कराये जाने चाहियें और सरकार सभी के लिए ऐसा नहीं कर सकती तो आय का पैमाना ही सर्वाधिक उपयुक्त लगता है| महिला आरक्षण पर आपकी नीयत साफ़ मानी जाती यदि आप भी अपने और अपनों के फायदे के लिए आरक्षण का बायकाट कर देते| आपको चाहिए कि अपने सार्थक सुझाव देकर इस बिल को अधिक प्रभावशाली बनाने में सहयोग देते ताकि देश का भला हो सके|
लो जी होर सुनो: आज लुधिआना में सड़क पर एक छोटा सा, नन्हा सा तिपहिया ट्रांसपोर्ट कैरीअर देखा जिसके पीछे लिखा था "मैं वड्डा होके ट्रक बनांगा" - बल्ले ओये तेरे होंसले, मजा आ गया(मुझे तो), कसम से|

सोमवार, मार्च 01, 2010

नोस्ताल्ज़िया @ होली

आज से बीस साल पहले जब कॉलेज छोड़ा(छोड़ना पडा) तो हम दोस्तों ने यह फैसला किया कि संपर्क जरूर रखेंगे| ऐसे ख्वाम्ख्याली वाले बहुत से फैसले हम शुरू से ही लेते रहे हैं| वैसे भी ये थ्योरी हम उसी समय प्रतिपादित कर चुके थे कि हमारा(हमारे आयु वर्ग वालों का) जन्म *** समय में हुआ है और हमारे मित्र बन्धु भी इस सिद्धांत का अनुमोदन कर हमें टंकी पर चढ़ा चुके थे| हमारे दद्दू कहा करते थे कि उनके समय का आठवीं पढ़ा आज के बी. ए./बी.काम. के बराबर है(ये वचन हमें लक्ष्य बनाकर ही कहे जाते थे) और हम कहते थे कि जब हमारे बच्चे आठवीं में होंगे तो वो अक्ल में हम जैसे बी.ए./बी.काम. के बराबर या हमसे ऊपर ही होंगे| हम दद्दू की हाँ में हाँ मिलाना अपना कर्त्तव्य समझते थे| कसूर हमारा नहीं था, समय काल का था| जिन भुक्तभोगियों का जन्म वर्ष १९७०(+/- ५) है वो हमारी बात से पूर्णतया नहीं तो आंशिक रूप से सहमत जरूर होंगे| आदर्श, संस्कार, आगे निकलने की आपाधापी सभी इस काल में वर्चस्व की लड़ाई में व्यस्त थे|
अब कॉलेज छोड़कर वास्तविक दुनिया में घुसे तो आटे-दाल का भाव मालूम चलना शुरू हुआ| आज की तरह मोबाइल फोन तो थे नहीं कि जब मन किया झट से नंबर मिलाया और मन की बात कर ली| संपर्क बनाए रखने के लिए देह को थोड़ा सा नहीं बहुत सारे कष्ट देने पड़ते थे यथा स्कूटर या मोटरसाईकिल पर अकेले से सफ़र शुरू करके संख्या बढ़ाते हुए(वाहन के नहीं, सवारी करने वालों की) दुसरे बन्धु, तीसरे मित्र, चौथे यार को बैठा कर पांचवे फ्रेंड के घर पहुँच कर हमारा कोरम पूरा होता था| मंडली में सदस्यों की अधिकतम संख्या पांच थी जिसका असली कारण मंडली के पास उपलब्ध वाहन की सीमित संख्या होना और उस वाहन की वहन क्षमता चार सवारी से ज्यादा ना होना था| खैर, काफी दिनों तक यह कार्यक्रम जारी रहा| फिर जब नून,तेल और लकड़ी के फेर में फंसे तो इन मित्र-मिलन कार्यक्रमों में अंतराल धीरे-धीरे बढ़ने लगा| हमेशा की तरह इस बात का जिम्मेदार हमें ही ठहराया गया कि क्या पड़ी थी तुझे अच्छी भली तीस हजारी कोर्ट की नौकरी छोड़कर घर से बेघर होने की| घर छूटा, दिल्ली जैसा शहर छूटा, मलाई वाली नौकरी छूटी, यार दोस्त छूटे और हमने भी हमेशा की तरह उनकी हाँ में हाँ मिलाई और बताया कि घर, शहर, दोस्त छूटे नहीं बल्कि उनके लिए हमारा क्रेज़ बढ़ गया है और नए परिचय हुए, नए अनुभव हुए वो अलग|
अब हमारी अड्डेबाजी कम होते होते काफी अनियमित हो गयी थी| एक नया प्रस्ताव लाया गया कि साल भर चाहे न मिल पायें, होली से पहली रात को जरूर मिला करेंगे| पिछले दस बारह साल से ये हमारी दोस्ती का परमानेंट फीचर बन गया कि होली से पहले की रात पाँचों दोस्त रात नौ बजे बैठते, खाना-पीना चलता, बातचीत चलती, यादों की पिटारियाँ खुलतीं और कब सुबह के ३-४ बज जाते थे पता भी नहीं चलता था| कल भी मंडली जमी, खाना पीना भी हुआ, बातें भी खूब हुईं बस कोरम में शायद कुछ कमी थी| मैं यहाँ बैठा हुआ अपना खाने पीने का सामान लेकर कम्प्यूटर में स्पाइडर खेल रहा था, गाने सुन रहा था, बीच-बीच में फोन बज उठता था कि,"साले, तू ही प्रोग्राम बनाता है, जब हमें लत लग जाती है तब अलग हो जाता है|" मैं हमेशा की तरह उनकी हाँ में हाँ मिला रहा था और किसी बड़े से सुना डायलॉग सुना दिया कि "प्यारे, मेला तभी छोड़ देना चाहिए जब वो पूरे शबाब पर हो ताकि तुम्हारा जाना लोगों को महसूस तो हो|" सुबह २.३० बजे वहां की महफ़िल खत्म हुई तो इधर हमने भी अपनी वन-मैन महफ़िल(ये महफ़िल भी कोई महफ़िल है?) भी समेटी। जिन्दगी एक दरवाजा बंद करती है तो दुसरे दरवाजे खुल जाते हैं| आज फिर मैं अपने आप को नए दोस्तों, परिचितों के बीच पाता हूँ और उनका आभार महसूस करता हूँ कि होली पहली-सी नहीं है, लेकिन पहले से कम भी नहीं है|
हर तरफ होली की धूम मची हुई है, स्वाभाविक भी है| दूसरी तरफ समाचार आ रहे हैं कि सी.बी.आई. के किसी कदम से नाराज होकर एक पंथ के मानने वालों ने बस, गाडी, डाकघर आदि फूँक दिए, पंजाब में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया है| एक छोटी सी खबर और भी आ रही है कि नानाजी देशमुख नहीं रहे।न रहें, किसे फर्क पड़ता है? लेकिन मुझे फर्क पड़ता है, जिस इंसान को मैंने कभी देखा भी नहीं, लेकिन जिस आदमी ने अपने दल के सत्ता में पहुँचने के फ़ौरन बाद सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और अपने जीवन को चित्रकूट जैसे पिछड़े क्षेत्र के निवासिओं का जीवन स्तर सुधारने के लिए खपा दिया, ऐसे आदर्श व्यक्तित्व के देहत्याग पर मैं दुखी तो महसूस कर ही सकता हूँ|
सुख-दुःख, राग-रंग साथ ही चलते रहते हैं, इसी का नाम दुनिया है| होली का पर्व सभी भारतवासियों के लिए शुभ हो|