मैंने सीताफल बाईक की डिक्की में रखा और उसे बीस का नोट दिया। उसने नोट को अपनी जेब में डाला और उसके बाद उसी हाथ से दूसरी तरफ की जेब में से एक का सिक्का निकालने की कोशिश करने लगा। दूसरा हाथ कोहनी के ऊपर से ही कटा हुआ था। उसका हाथ को घुमाकर दूरी तरफ ले जाना, फिर जेब से सिक्के को खोजना, वो कुछ पल भी मुझे बहुत भारी लग रहे थे । पता नहीं, तब मुझे अपना वक्त बहुत कीमती लगता था या फिर एक रुपया छोड़ देने से खुद को हातिमताई की श्रेणी में लाने का मौका नहीं चूकना चाह रहा था, मैंने बाईक को किक्क लगाई और उसे कहा, "रहने दे यार, नहीं है तो कोई बात नहीं।" देखा है फिल्मों में हीरो को ऑटो वाले से कहते हुए, 'कीप द चेंज' तो एक रुपये में हीरोगिरी सस्ती ही लगी होगी:) बाईक स्टार्ट होते न होते वो अपनी ठेली का चक्कर लगाकर दौड़ता हुआ मेरे सामने आ खड़ा हुआ और अपनी कटी हुई बाजू मेरी आँखों के सामने लहरा कर कहने लगा, "न बाऊजी, पिछले पता नहीं कौन से जनम के किस पाप की कीमत पहले ही चुका रहा हूँ, अब और नहीं।" मेरी बाईक बंद हो गयी, एक रुपया वापिस लिया उससे और उसके बाद मैं जब तक उस शहर में रहा, सब्जी खरीदने जाने पर अपना पहला पड़ाव वही ठेली होती थी।
ये किस्सा तो अभी दो तीन साल ही पुराना है, और पीछे चलेंगे? बैंक ज्वाइन ही किया था, चार दोस्त एक मकान में और एक अन्य दोस्त, जिसे हम राजा कहकर बुलाते थे, ने उसी गली में किसी दुसरे मकान में कमरा किराए पर लिया था। साथ नहीं रहा क्योंकि उसकी एलएलबी की परीक्षा होनी थी और साफ़ कहता था, "तुम्हारे साथ रहने में मजा तो बहुत आएगा लेकिन इस मजे के लिए एलएलबी की कीमत बहुत ज्यादा है, रिस्क नहीं लेना।"
चार पांच महीने हो गए थे ऐसे ही रहते रहते और जब शाम को घर लौटते तो उसकी जिद होती थी कि पहले मेरे रूम में चलो। प्रलोभन देता था कि जाते ही मकान मालिक के बच्चे फ्रिज से बर्फ निकालकर ले आते हैं और ठंडा पानी पीने को मिल जाता है जबकि हम लोगों के डेरे पर बहुत हद हुयी तो मटके का पानी और कभी कभी वो भी नहीं मिलता था। खैर, हम तो ठहरे 'शीततापे समेकृत्वा .....' वाले लेकिन बहुमत का सम्मान करना ही पड़ता था। जाते ही वही सब होता जो राजा बताता था और उस समय उसके चेहरे पर सच में राजसी चमक आ जाती थी।
इस कथा के साथ एक और कथा चल रही थी, राजा रोज जब शाम का खाना बनाता था तो मकान मालिक के तीनों बच्चे एक एक करके उसकी पाक कला की प्रैक्टिकल समीक्षा करने के लिए आ जाते थे। शुरू में कुछ दिन तो राजा को अच्छा लगा, तारीफ़ सुननी अच्छी लगती ही है, लेकिन जब ये रोज का रूटीन बन गया और खुद उसके लिए सब्जी का टोटा पड़ने लगा तो एक दिन हमारे सामने ही उसने उन बच्चों को डांट दिया कि मैं अकेला आदमी अपने लिए खाना बनाता हूँ और तुम लोगों के चक्कर में मेरे खुद के लिए सब्जी नहीं बचती है तो अमर, अकबर एंथोनी में से शायद दूसरे नंबर वाला था वो भड़क गया और कमर पर हाथ रखकर बोला, "और जो रोज हम बरफ ला कर देते हैं, बाजार से लानी पड़े तो उसकी कीमत कम से कम रोज की दो रूपया तो होगी ही, उसका क्या?" राजा बच्चे की बात सुनकर खिसियाया या गुस्साया लेकिन हमने ये राज पाया कि 'कीमत हर शै की चुकानी पड़ती है।'
अमीर को अपनी अमीरी की, मशहूर को मशहूरी की, जिम्मेदार को अपनी जिम्मेदारी की, भले को अपनी भलाई की, गरज ये कि सबको अपने विशिष्ट होने की कीमत चुकानी ही पड़ती है। कोई इसे टैक्स के रूप में चुकाए या रंगदारी के रूप में, हंसकर चुकाए या रोकर चुकाए, इससे छुटकारा नहीं है। सच बोलने वाले को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, प्रेम करने वालों को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, सोये हुओं को जगाने वाले भी इसकी कीमत चुकाते हैं और भूल से नकटों के गाँव में कोई नाक वाला आ जाए तो उसे भी अपनी नाक कटवा कर कीमत चुकानी पड़ती है। अच्छी बात ये है कि कीमत चुकाने के बाद खुद को बहुत हल्का महसूस होता होगा, ऐसा मेरा अनुमान है।
कीमत की बात करेंगे तो इतिहास उठाकर देख लीजिये, सिर्फ जबान की कीमत चुकाने में कई साम्राज्य मिट्टी में मिल गए लेकिन कीर्ति अमिट कर गए और ऐसे भी उदाहरण मिलेंगे कि वफ़ा की कीमत वसूलने के चक्कर में पुरखों की यशोगाथा मिट्टी में मिला दी| किसी ने जहर का प्याला पी लिया तो कोई सलीब पर चढ़ गया| कोई जलती चिताओं पर बैठ गए और किसी ने सर कलम करवाना मंजूर किया लेकिन अपनी जिम्मेदारी की कीमत चुकाई|
ऐसा भी नहीं है कि कीमत सिर्फ मशहूर, जिम्मेदार और भलों को ही चुकानी पड़ती है, इससे कोई नहीं बच सकता। ये प्रकृति का नियम है, और प्रकृति के नियम समझ आते हो या नहीं लेकिन लागू सब पर होते हैं, चाहे कोई किसी धर्म का हो या किसी जाति का, किसी भी लिंग का हो या किसी भी वर्ग का हो, अपने किये की कीमत सबको चुकानी ही पड़ेगी| इसका ये मतलब नहीं कि कुछ किया ही न जाए, हो सके तो अच्छा किया जाए और बिना अपेक्षा के किया जाए| फिर जो लिखा है, सो तो होना ही hai
बहुत दिन हो गए कोई होमवर्क नहीं दिया हमने, आज पूछते हैं एक आसान सा सवाल - लोहे को भी सोना कर देने वाले पारस को पदार्थ के मूल स्वभाव के साथ छेड़छाड़ करने की कीमत चुकानी पड़ती होगी क्या?
विकल्प एक - हाँ.
विकल्प दो - नहीं.
आज हम छुट्टी पर थे, छुट्टी की कीमत चुका दी| लिख मारा ये हितोपदेश, ब्लोगोपदेश वगैरह वगैरह| अब आप सब सुधीजन सोचिए कि इस आलेख की कीमत कैसे चुकायेंगे, हम क्या अपने मुंह से कहेंगे कि सहमति, असहमति, घोर असहमति, घनघोर असहमति जरूर करना? समझते नहीं हैं यार !!!
:) फत्तू ड्रग कंपनी में एरिया मैनेजर बन गया। एक नया मेडिकल प्रतिनिधि रखा जो दूसरे दिन ही पीं बोल गया। आकर रोना रोने लगा कि दुकानदार बेइज्जती कर देते हैं। फत्तू ने उसे दिलासा देना शुरू किया, "देख दोस्त, मैंने भी शुरुआत तेरे वाली पोस्ट से की थी और दिक्कत बहुत आई थी मुझे भी। मैं मार्केटिंग के लिए जाता था, लोगों ने मुझे धक्के देकर दूकान से निकाल दिया, गालियाँ दी, मेरा बैग उठाकर बाहर फेंक दिया, लेकिन धंधे की कसम 'बेइज्जती' किसी ने नहीं की।
बेइज्जतीप्रूफ होना बहुत बड़ी नेमत है।
आज गाना दिखाते हैं आपको सिंपल सा,
:) फत्तू ड्रग कंपनी में एरिया मैनेजर बन गया। एक नया मेडिकल प्रतिनिधि रखा जो दूसरे दिन ही पीं बोल गया। आकर रोना रोने लगा कि दुकानदार बेइज्जती कर देते हैं। फत्तू ने उसे दिलासा देना शुरू किया, "देख दोस्त, मैंने भी शुरुआत तेरे वाली पोस्ट से की थी और दिक्कत बहुत आई थी मुझे भी। मैं मार्केटिंग के लिए जाता था, लोगों ने मुझे धक्के देकर दूकान से निकाल दिया, गालियाँ दी, मेरा बैग उठाकर बाहर फेंक दिया, लेकिन धंधे की कसम 'बेइज्जती' किसी ने नहीं की।
बेइज्जतीप्रूफ होना बहुत बड़ी नेमत है।
आज गाना दिखाते हैं आपको सिंपल सा,