पिछली पोस्ट में आपको बैंकोंं द्वारा कृषि ऋण दिये जाने की प्रक्रिया की कुछ जानकारी देने का प्रयास किया था, बात को थोड़ा और बढ़ाया जाये। हालाँकि इस बीच किसानों के मामले में काफ़ी कुछ हो चुका लेकिन अधूरी बात छोड़ने में मजा नहीं।
सरकार के सख्त दिशानिर्देश, कम ब्याज दर, मासिक की जगह छमाही पुनर्भुगतान सुविधा आदि जैसे पोज़िटिव फ़ैक्टर्स के बावजूद क्या कारण हो सकते हैं कि कृषि संबंधित ऋण उतने प्रचलित नहीं हो पाये?
आज ही फ़ेसबुक पर विवेक रस्तोगी जी का स्टेटस देखा कि किसान कार्ड बनवाने मेैंं छह महीने लग गये। पब्लिक की दृष्टि से आप लोग समझिये, बैंकर के दृष्टिकोण से मैं बताने की कोशिश करता हूँ।
बैंकिंग मेरा मनपसंद प्रोफ़ेशन नहीं था लेकिन अब यहाँ कुछ मजेदार निष्कर्ष निकाले हैं। ऐसा ही एक निष्कर्ष है - "ऋण बाँटने के लिये बैंकवालों के सामने टार्गेट होते हैं, बैंक के पैसे की रिकवरी न होने पर टार्गेट बैंकवाले होते हैं।" अब रिकवरी न होने के कुछ कारण -
- लोन के पैसे का खेती की जगह किसी और उद्देश्य के लिये या किसी अन्य के द्वारा प्रयोग करना,
- ऋण माफ़ी की सरकारी योजनायें जो आती तो प्रायं चुनावी वर्ष में हैं लेकिन उनका प्रभाव दीर्घगामी,
- लोगों में वित्तीय अनुशासन की कमी,
- लोन राशि और बंधक रखी गई जमीन को लेकर लोगों का माईंडसेट। आम धारणा ये है कि पचास लाख की जमीन बंधक रखकर तीन लाख ही तो लिये हैं, भाग थोड़े ही जायेंगे
- एक अन्य बात है लोक मानासिकता जो क्षेत्रानुसार अलग अलग हो सकती हैं, इस पर बाद में लिखता हूँ।
रिकवरी से जुड़ी एक बहुत बड़ी बात जोकि है तो ग्राहक के हित की लेकिन उसका वांछित लाभ नहीं मिल पाता। अन्य ऋण जहाँ सामान्यतया तीन मासिक किस्तें न चुकाने पर NPA(Non Performing Asset या अनुत्पादक ऋण/Bad debts) हो जाता है, कृषि ऋण में यह समय सीमा मोटे तौर पर तीन छमाही किस्तों तक होती है लेकिन फ़िर भी इस रिकवरी में बैंक वालों के पसीने छूट जाते हैं। अभी जिस क्षेत्र में मैं हूँ, मुश्किल से दस प्रतिशत कृषक ऋणार्थी ऐसे हैं जो बिना याद दिलाये हर छमाही अपने पैसे जमा करवाते होंगे। बाकी सिर्फ़ ब्याज के पैसे जमा करवाते हैं वो भी कई बार संपर्क करने के बाद और वो भी कई बार साल में एक बार। एकाऊंट को ठीक रखने के लिये उस ब्याज राशि में कुल ऋण की राशि जोड़कर जमा दिखाना पड़ता है और फ़िर कुल ऋण राशि की पेमेंट हाथों हाथ दिखानी पड़ती है। ऐसा न करें तो बैंकर कहलायेगा unbecoming of an officer और ऐसा करने पर एक ही दिन में जमा और निकासी के चलते ऑडिटर बताते हैं unfair practices by the encumbant.
छमाही किस्त होने के कारण शायद किसान और बैंकर के बीच वैसे संपर्क और संबंध भी न पनप पाते हों। डेढ साल इस शाखा में हो गया लेकिन मुश्किल से आधे किसान क्रेडिट कार्ड वाले ग्राहक ऐसे होंगे जो राह चलते मुझे या मैं उन्हें पहचान पाऊँ। जब तक सबसे पहचान होगी, वो मेरे मुताबिक ढलेंगे या मैं उनके मुताबिक ढलूंगा तब तक चलाचली की वेला आ चुकी होगी।
थोड़ा स्थिर होकर सोचिये, आज लिये गये ३ लाख तक के कृषि ऋण को यदि आप डेढ़ साल में भी चुका देते हैं तो आप चुकायेंगे ७% वार्षिक की दर से ब्याज और यदि हर छह महीने में सिर्फ़ एक दिन के लिये भी पूरी राशि खाते में जमा करके अगले दिन भी निकाल लें तो आपको ब्याज लगेगा ४% वार्षिक की दर से। बैंक में FD पर ब्याज दर लगभग ९% है। समझ रहे हैं न? साईं बुल्ले शाह ने शाह इनायत से रब्ब को पाने की विधि पूछी थी तो इनायत शाह उस समय धान के खेत में काम कर रहे थे। उन्होंने सवाल पूछा और धान की जीरी उखाड़ते लगाते ही जवाब दिया, "बुल्लेया रब्ब दा की पाना, एथों पुटना ते उत्थे लाणा’(बुल्ले, खुदा को क्या पाना, ध्यान को इस दुनिया से हटाना और उधर लगाना, मिल गया खुदा)
इतना ही पर्याप्त नहीं, खाते में संतोषजनक लेनदेन होने पर हर साल आपकी ऋण राशि १०% बढ़ाने की सुविधा है। १००/- पर ब्याज हुआ ७/- या ४/- और आपकी क्रेडिट लिमिट हो गई ११०/- बुरी डील है?
कृषि ऋण के मामले में आने वाली एक बहुत बड़ी दिक्कत राजस्व रिकार्ड का अतिजटिल होना है। जमीन जिसके नाम थी, उसकी मृत्यु होने के बहुत बाद तक भी जमीन उत्तराधिकारियों के नाम नहीं होती। अधिकतर जमीन साझे खातों में होती है। एक ही आदमी राजस्व रिकार्ड में किसी और नाम से दर्ज है और उसके पहचान के दस्तावेज किसी दूसरे नाम से।
ऑडिट और खाते के NPA होने की दशा में ये सब चीजें बैंकर्स के खिलाफ़ जाती हैं।
बैंक शाखाओं में पर्याप्त कर्मचारियों का न होना भी एक बड़ी वजह है।
कारणों की इस लिस्ट के संपूर्ण और त्रुटिहीन होने का मैं कोई दावा नहीं कर रहा। ये मेरे अपने अनुभव हैं और इनमें मेरे पूर्वाग्रह भी शामिल हो सकते हैं।
क्षेत्रानुसार मानसिकता की ऊपर बात की थी, इस बारे में शेयर करना चाहूँगा कि पंजाब के मेरे अनुभव बेहद अच्छे रहे। लोगों में आज भी आपस में एक दूसरे के सहयोग की भावना अधिक देखने को मिली। ऐसा होता था कि फ़सल के दिनों में ग्राहक आता था और ब्याज सहित सारे पैसे जमा करवाकर सत श्री अकाल बुलाई और चला गया। अगले दिन वो आयेगा, अपने खाते से लिमिट के पैसे निकालेगा और अपने किसी दूसरे साथी के खाते में जमा करवा देगा। अगले दिन दूसरा आयेगा, पैसे निकाले और वही पैसे तीसरे के खाते में जमा। चक्र चलता रहता है। सबके ऋण खाते भी रेगुलर हो गये, बैंकर की भी रिकवरी न होने की चिंता खत्म।
मानसिकता के बारे में बात करना अब मेरा भी मनपसंद शुगल हो गया है। लड़कियों के साथ कुछ हो तो मैं भी अब कह देता हूँ, ’मानसिकता बदलनी चाहिये।’ अब किसानों की बात चली तो फ़िर वही कह रहा हूँ, ’मानसिकता बदलनी चाहिये।’ लेकिन इस बार न किसी को हँसाने के लिये और न किसी को सताने के लिये कह रहा हूँ। गंभीरता से कह रहा हूँ, अपनी सुविधा के लिये मात्र सरकार को या दूसरों को दोष न देकर हम अपने क्रिया-कलाप में अनुशासन ले आयें तो ऐसा कोई कारण नहीं कि हम सम्मान और स्वाभिमान से अपना जीवन न व्यतीत कर सकें।
विषय मुझे भी बहुत रोचक नही लगता लेकिन रुचिकर होना ही तो सबकुछ नहीं, कभी कभी समसामयिक चर्चा भी कर लेनी चाहिये। किसानों की बात हो गई, सब्सिडी को लेकर भी कभी आपका समय लिया जायेगा। बचाकर रखियेगा वरना जबरदस्ती करनी भी हमें आती है :)