सोमवार, जनवरी 31, 2011

इंतज़ार.......समापन कड़ी



ऑफ़िस में आज सारा दिन सुबीर का मन उखड़ा-उखड़ा सा रहा। रह रह कर आँखों के सामने एक चेहरा नाच उठता था, एक अजीब सा अहसास छोड़ जाता हर झलक में, एक अनूठी महक। पता नहीं क्या हाल होगा शुभ्रा का? आराम आया कि नहीं? आज वैसे भी ऑफ़िस पतझड़ के बगीचे सा लग रहा था, करवाचौथ का दिन जो ठहरा। महिला सहकर्मी कोई भी नहीं थी, और पुरुष कर्मचारी आज मौके का पूरा फ़ायदा उठा रहे थे। सुबीर हमेशा की तरह वहाँ होकर भी नहीं था, लेकिन आज तो जैसे उसे खुद भी अपने होने न होने का फ़र्क नहीं मालूम चल रहा था। दोपहर में उसने शुभ्रा के घर फ़ोन किया, आंटी ने बताया कि सो रही है। सुबह से बिस्तर पर पड़ी है,  दवा तक नहीं ली। बुखार तो नहीं है, लेकिन कमजोरी बहुत है। सुबीर ने कहा कि ऑफ़िस से लौटते समय मिलकर ही जायेगा।

सुबीर शाम को समय से ही ऑफ़िस से निकल लिया था। शुभ्रा अपने कमरे की खिड़की के पास कुर्सी पर बैठी थी, देख रही थी बाहर क्यारियों की तरफ़।  कमरे में नीम अंधेरा पसरा था, बीमार लोग शायद रोशनी से आँख बचाते हैं।     अकेली  रोशनी वही हुई,  जब  सुबीर को देखा और शुभ्रा के चेहरे पर चमक सी आ गई थी।

“आ गये तुम, मुझे मालूम था कि आज बिना बुलाये भी आओगे”  हँसते हुये शुभ्रा बोली।

“मैंने दोपहर में फ़ोन किया था, सो रही थी तुम। कैसी तबियत है अब?”

“ठीक  हो गई हूँ मैं। जब तुम्हारा फ़ोन आया,   मैं बिस्तर में थी. लेकिन सो नहीं रही थी। जानबूझकर बात नहीं की थी मैंने।”

“क्यों, बुरा लगा क्या मेरा फ़ोन करना?”

“तुम न करते फ़ोन तो बहुत बुरा लगता। बात कर लेती तो फ़िर तुम कहाँ आते मिलने। काश, ये मियादी बुखार होता और बिना बुलाये तुम रोज ऐसे ही मुझे मिलने आते।” आवाज कुछ बदल गई थी शुभ्रा की।

“पागल हो तुम, दिनभर हम ऑफ़िस में साथ रहते है फ़िर ये कुछ देर  के लिये मिलने आना क्या मायने रखता है?”

“तुम नहीं समझोगे और समझाने से तुम्हारे दिमाग में बात बैठेगी नहीं, बात का मज़ा भी तो नहीं रहेगा।”

“मत समझाओ फ़िर, वैसे भी मेरे दिमाग में ज्यादा अहम चीजें हैं आजकल। जो हैं,  मैं उसीमें बहुत खुश हूँ।”

आंटी उनके लिये चाय-नाश्ता ले आईं। सुबीर ने  चरण-स्पर्श किये और औपचारिकता के लिये मना किया तो शुभ्रा हँस दी, “माँ, पूछ लेती न  चाय बनाने से पहले, कहीं आज ये  भी व्रत पर हों? ऋषिवर का व्रत भंग न हो जाये कहीं।”

माँ ने लाईट जला दी थी और बेटी को हँसते देखकर उनके चिंतित चेहरे पर इत्मीनान आ गया। पास आकर सुबीर के सर पर हाथ फ़ेरने लगीं। उम्र के अनुभव ने बता दिया होगा कि बीमार बेटी को कौन सी दवा आराम दे रही है।

सुबीर ने फ़ौरन नाश्ते की प्लेट पकड़ी और बोला, “व्रत भंग हो ही चुका है तो खा-पीकर क्यूँ न मरा जाये?”

“ऐ सुबीर, सोच समझकर बोला करो। कुछ भी बक दिया, वो भी आज के दिन। कहीं कोई तुम्हारे लंबे जीवन की कामना करती होगी और तुम ऐसा उल्टा-सीधा बोल रहे हो।” तमतमा उठी थी शुभ्रा।

“अरे, इतना सीरियस क्यों हो रही हो? ये तो एक आम वाक्य है जो मैंने तुम्हारी बात के जवाब में कहा। खैर सॉरी,  लो तुम भी चाय लो।”

“मुझसे नहीं पी जायेगी। वैसे अब मैं ठीक हूँ, अब खाना ही खाऊँगी। माँ, सुबीर भी हम लोगों के साथ ही खाना खायेगा। नहीं तो खाना बनाने के नाम पर इसे भागने का मौका मिल जायेगा,  बीमार से दूर।  और मैं फ़िर अकेली बैठी बोर होऊँगी।”  ऒफ़िस से बाहर थी, लेकिन किसी किसी को ऒर्डर देने में जगह से ज्यादा सामने वाले इंसान से ज्यादा फ़र्क पड़ता है।

माँ बर्तन लेकर चली गईं रसोई में, पूजा की तैयारी भी करनी थी और रात के खाने की भी।

“रेडियो सुनना था न, बोर होने से बच जातीं। वैसे भी मैं तुम्हारी तरह पढ़ने लगा हूँ, तुम्हें मेरी तरह रेडियो सुनना चाहिये। न आँखों पर जोर और न दिमाग पर बोझ।”

“आज सारा दिन मैंने और किया क्या है?  उठकर तो अभी ही बैठी हूँ।” कहते कहते शुभ्रा उठ खड़ी हुई और खिड़की के बाहर देखने लगी। पेड़ों पर पक्षी भी अपने अपने बसेरों में लौट चुके थे, शायद रात के चूल्हे-चौके की तैयारी चल रही हों। सुबीर ने अब देखा, शुभ्रा ने आज साड़ी पहन रखी थी। पहली बार साड़ी में देखा था उसे।

चलती रही बातें, बातों में से बातें और सुबीर खुद भी हैरन था कि कैसे इतना बोलने लगा है वो। इतनी बातें मालूम भी थीं क्या उसे अब से तीन चार महीने पहले तक? अंकल आ चुके थे और फ़्रेश होकर रोज की तरह  पूजा पाठ में व्यस्त थे। 

बाहर कुछ चहल-पहल की आवाजें सुनाई दीं, चाँद का विशेष इंतजार था आज जैसे सबको।   शुभ्रा ने खिड़की से बाहर देखा, पेड़ की फ़ुनगी के ऊपर चाँद चमक रहा था। उत्साहित होकर उसने माँ को आवाज लगाई और पूजा की थाली हाथ में लेकर आंटी-अंकल छत पर चले गये थे।

“ऐ सुबीर, देखो न चाँद निकल आया।” बच्चों की सी उल्लासित थी शुभ्रा।

“देख रहा हूँ”  खिड़की के पास आ चुके सुबीर ने कहा, शुभ्रा की तरफ़ ही देखते हुये। “पहली   बार देखा है तुम्हें साड़ी में,  बहुत जम रही है तुमपर। कब खरीदी?”

शुभ्रा ने उसकी तरफ़ देखा, झुककर उसके पैर छू लिये और सुबीर हड़बड़ा उठा एकदम से, “ये क्या कर रही हो?”

“जाने  या अनजाने में,  मेरा व्रत हो गया।  जब भी  तुम्हें जन्मदिन पर या किसी और मौके पर अपनी खुशी के लिये कोई गिफ़्ट दिया है तो तुम कितने नखरे दिखाते हो मुझे।   ये साड़ी मैंने खरीदी है अपने लिये, तुम्हारी तरफ़ से। इसके पैसे तुम दोगे, मैं खुद माँग रही हूँ।”

नजरों की भाषा नजरें पढ़ ही लेती हैं, बहुत विद्वान होना कोई लाजिमी नहीं इस भाषा को जानने या समझने के लिये, कोई लिपि नहीं, कोई ककहरा नहीं।  आंखें बोलती हैं, दिल देखता है, कान महसूस करते हैं और ज्ञान-विज्ञान के सब स्थापित नियम उलट पुलट जाते हैं। कुटिल सरल हो जाते हैं और जो सरल हैं, वो हो जाते हैं चंचल। समझ लेना चाहिये उस समय कि वक्त आ गया है एक नई कहानी के जन्म लेने का।

मुश्किल से सुबीर के मुंह से कोई बोल फ़ूटा, “ऐ शुभ्रा, क्या करके मानोगी तुम?”

“मैं तुम्हारे आँगन में ठुमक कर मानूँगी, जान लो सिर्फ़ इतना। समय तुम तय करोगे, इंतज़ार मैं करूँगी।”

तब से सुबीर  और उसका आँगन भी उस पल का, उस लम्हे का, उस ठुमक का और उस रात की रानी के महकने का  इंतज़ार कर रहे हैं।

p.s. -   मुझे  भी कुछ इंतज़ार है। ताजा जानकारी मिलने तक आने वाली तीस फ़रवरी को दोनों विवाहसूत्र में बंधने वाले हैं, मैं भी निमंत्रण-पत्र का इंतज़ार कर रहा हूँ। मैं गया तो आप सब भी चलेंगे ही। वैसे भी अब तो सब को खुश होना चाहिये कि हैप्पी एंडिंग दे दी है कहानी को:)  छवि खराब हो तो सुधारने के लिये कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, पत्थर रखने पड़ते हैं दिल पर। तो आप भी फ़िलहाल इंतज़ार कीजिये, इस ब्ल्यू लाईन का अपनी पटरी पर लौटने का, हैंगओवर है लेकिन  जल्दी ही खत्म हो जायेगा। हा हा हा

नाहक सा एक ख्याल आया था दिमाग में, कि प्यार का मासूम रुख भी होता था कभी। लिख देखें, शायद आज के  दिखावटी दौर में भी ये अंदाज  पसंद आ जाये, और लिखना शुरू किया तो खुद को भी अच्छा लगा और आपके कमेंट्स से मान लेता हूँ सीधी सादी कहानी भी पसंद आ सकती है। अब लिखा है तो झेले कौन? हैं न आप सब, झेलो और झेलो...:)) 

बुधवार, जनवरी 26, 2011

इंतज़ार.......(भाग तीन)



“इन पुरानी इमारतों, खंडहरों में पता नहीं तुम्हें क्या आकर्षण दिखता है, जब भी कहीं घूमने की बात करें तो  किसी किले या किसी मंदिर का प्रोग्राम बना लेते हो। दुनिया है कि आगे से और आगे को भाग रही है और तुम हो कि इन वीरान खंडहरों के दीवाने बने हो अब तक।”

“तुम मुझपर प्रोग्राम बनाने की जिम्मेदारी छोड़ा ही मत करो न, कोई दिक्कत नहीं होगी। खुद ही जोर देकर प्रोग्राम बनाती हो बल्कि बनवाती हो, फ़िर कमी निकालती हो।”

“अए सुबीर, बुरा क्यों मानते हो? मैंने कोई कमी नहीं निकाली तुम्हारी, ऐसा कहा कुछ?  मैं तो तुम्हारे अंतर्मन को जानना चाहती थी, इसलिये ऐसा कहा था।  सच कहूँ तो अब तो मुझे भी ये गुजरे ज़माने की निशानियाँ बहुत अच्छी लगती हैं। पहले कभी देखा भी तो सिर्फ़ चमक-दमक पर ध्यान जाता था।  अब दूसरे नजरिये से देखती हूँ तो   मायने बदले दिखते हैं।”

“नये निर्माण से मुझे कोई परहेज नहीं, मैं भी सुंदरता और स्टाईल को नापसंद नहीं करता। लेकिन जो दिखता है, वही तो पूरा सच नहीं। नींव किसी को दिखती है क्या? मगर क्या एक पुख्ता नींव के बिना कोई भी इमारत तामीर हो सकती है?  ये जगह बेशक वीरान हैं, लेकिन मेरे कान तो यहाँ आकर  तलवारों की झंकार को भी सुनते हैं और पायल की झंकार भी, फ़ुसफ़ुसाती दुरभि संधियाँ होती भी महसूस करता हूँ, मंत्रों की ऋचायें भी सुनता हूँ  और मासूम प्यार को भी पलते बढ़ते सुनता हूँ। वो वक्त और उसकी निशानियाँ हमारे उस आज के वक्त की नींव है, जिसे दुनिया देख-सराह रही है। लोगों के पास शायद वक्त नहीं, सबको आगे से आगे निकलना है और सबकुछ पा लेना है। वहीं मेरे पास वक्त भी है और मैं सबकुछ पा लेना भी नहीं चाहता।  शाम हो गई है, चलें अब?”

“चलिये ऋषिवर, इस युग में तो लगता है मेनका ही तपस्विनी बन जायेगी।”  शुभ्रा हँस दी और सुबीर……..।  शुभ्रा ने हैंडबैग से आईना निकाला और लिपस्टिक ठीक करने लगी। सुबीर पर नजर पड़ी तो उसने आज फ़िर वही महसूस किया,  बेहद हल्की सी एक नागवारी।  उसने आज पूछ ही लिया, “सच कहना, जब भी मैं मेक अप ठीक करती हूँ तो तुम कुछ अजीब से अंदाज में  क्यों देखने लगते हो?  झूठ मत बोलना।”

कुछ सोच में पढ़ गया सुबीर, बोला, “मैं बताऊँगा तो सच ही बताऊँगा, लेकिन हो बहुत शार्प, एकदम एक्स-रे की सी नजर। कोई कोर्स किया है क्या, चेहरे पढ़ने का?”  और हँस दिया।“

"हाँ, पी.एच.डी. की है मैंने। बात को पलटो मत। सीधी बात करो।”

सुबीर कहने लगा, “वजह पूछोगी तो नहीं बता सकूँगा, मुझे खुद नहीं मालूम।   लेकिन खूबसूरत दिखने के लिये लिपस्टिक लगाना मुझे फ़ूहड़ता के सिवा कुछ नहीं लगता। खैर, मुझे इस बात से और किसी को मेरी इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिये।”

शुभ्रा खिलखिला दी, “तुम जरूर कभी लिपस्टिक के कारण रंगेहाथों पकड़े गये होगे।” और लिपस्टिक का रोल झाडि़यों के पीछे उछाल कर गाड़ी की तरफ़ चल दी, “चलो अब जल्दी से।”

“रंगे  हाथों?  हा हा हा, कभी नहीं। और ये फ़ेंक क्यों दी तुमने?”

“अब वो मेरे किसी काम की नहीं रही।  खत्म हो गई थी।   हा हा हा।        
कहीं भूल से ये न समझ बैठो कि मैं ……..।”  आवाज तो अच्छी हमेशा से ही लगती थी शुभ्रा की, लेकिन सुबीर के कानों को शुभ्रा का आखिरी अधूरा वाक्य रेडियो पर चल रहे गाने की झलक का हिस्सा सा क्यों लगा, वो यही सोच  रहा था।

“तुम सच में एक मिस्ट्री हो। मैं चुप था तो ही अच्छा था।”

शुभ्रा ने आँखें तरेरीं,  “हाँ हाँ, तुम चुप ही करो अब।”

गाड़ी में कुछ देर मौन पसरा रहा। शुभ्रा ने ही बात छेड़ी, “वो कहानी पढ़ी जो मैंने बताई थी, ’उसने कहा था’    या रेडियो के आगे हमारी फ़रमाईश बेकार गई?”

“पढ़ी है, पढ़ता रहता हूँ। पहली बार कुछ खास नहीं लगी थी, लेकिन फ़िर हर बार पढ़ने पर उसके मायने बदलते दिखते हैं। अब बहुत पसंद है और हर बार ये पसंदगी पहले से ज्यादा बढ़ रही है। किताबें भी आदमी से कम नहीं होती,  हर किस्से-कहानी  में जाने कितने चेहरे छिपे रहते हैं।  सुना तो ये था कि every human is an encyclopedia, if you know how to read     लेकिन अब लगता है each book is like a human, different faces at different occassions.  बहुत बोलने लगा हूँ मैं आजकल, है न?”

शुभ्रा ने गाड़ी सुबीर के घर के पास रोक दी,  “No, you need to speak-up more, much more.  गुड   नाईट, सुबीर। और सुनो,  बारिश हो रही है, जल्दी से अंदर चले जाना।  बेमौसम की बरसात है भीगना मत  नहीं तो बीमार हो जाओगे,  कोई है भी तो नहीं जो तुम्हारा ध्यान रखे। बाय, सुबीर,  गुड नाईट”

सुबीर उतर गया,   खिड़की से झाँककर उसने भी गुड नाईट विश कर दी। जाने कैसे आज उसके  मुंह से निकल गया,    “गुड नाईट,  मेनका।” अवाक सी देखती रह गई शुभ्रा, और खुद सुबीर भी हैरान सा खड़ा रह गया। 
वो   कार को जाते देख रहा था और कार में बैठी शुभ्रा का ध्यान रियर-व्यू मिरर में था।  गली के मोड़ तक पहुँच गई थी वो, लेकिन एक साया अब भी अपनी जगह पर खड़ा दिख रहा था, बारिश में भीगता हुआ। बाहर की बारिश, अंदर की बारिश………….. बुदबुदा उठी शुभ्रा, “पागल,  बुद्धू,  ईडियट कहीं का। कितना समझाया कि मत भीगे, जरूर बीमार पड़ेगा अब।“

अगली सुबह शुभ्रा के पापा सुबीर के कमरे पर पहुँचे और शुभ्रा की छुट्टी की एप्लिकेशन सुबीर को देते हुये बताया कि सुबह शुभ्रा को बुखार  लग रहा था,  इसलिये आज वो ऑफ़िस नहीं जायेगी। सुबीर खुद को कोस रहा था,  क्यों शुभ्रा का कहा नहीं माना कल उसने?  क्या जरूरत थी उसे भीगने की?

जा..जा..जारी……:))

भारत के गणतंत्र दिवस की सभी को शुभकामनायें। 

शुक्रवार, जनवरी 21, 2011

इंतज़ार.......(भाग दो)



दुनिया  के तमाम नौकरीपेशा लोगों के लिये  सप्ताहांत बहुत दिनों के बाद आता होगा, सुबीर के लिये ये बहुत जल्दी आता था। बाकी दिन तो कट जाते थे, छुट्टी का दिन बिताना उसे कभी भी सरल, सहज नहीं लगा। इस बार बहुत दिन निकलने तक बिस्तर में पड़ा रहा वो, उठा भी तो अनमने ढंग से। नित्यक्रिया से निबटकर नाश्ता बनाया और खा पीकर कपड़े धोने लगा। अकेलेपन का एकमात्र साथी रेडियो अपना फ़र्ज निभा रहा था, शुक्र है कि निर्जीव चीजों के पास दिल नहीं होता। बची रहती हैं वो उम्मीदों से, अपेक्षाओं से। मन किया तो उनका ऑन स्विच दबा दो, मन भर जाये तो ऑफ़ कर दो। कोई गिला, कोई शिकवा नहीं करती ऐसी चीजें कि हमसे फ़ायदा तो उठा लिया और काम निकलने के बाद भूल गये। सुबीर के चेहरे पर ये सोचकर हँसी आ ही गई, वरना आज बहुत बोझिल दिन बीत रहा था।  इस सब में दोपहर हो गई और खाने की तैयारी करने ही लगा था कि  दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। देखा तो बाहर शुभ्रा के पिताजी खड़े थे। हैरानी तो हुई ही, परेशानी और ज्यादा लगी उसे।  अंकल को प्रणाम किया तो उन्होंने हँसते हुये कहा, “बेटा,  आज रात का खाना हमारे यहाँ होगा तुम्हारा, ये आदेश सुनाने आया है ये बूढ़ा।”  सुबीर को असुविधा सी  महसूस होते देख उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा और समझाने लगे, "शुभ्रा तुम्हारी कुलीग है, बहुत तारीफ़ करती है तुम्हारी। अकेले रहते हो, छुटटी वाले दिन घर आ जाया करो, अच्छा लगेगा हमें भी और शायद तुम्हें भी।" सुबीर ने एक दो बार विनम्रता से डिनर के लिये मना किया  भी, लेकिन आदेश और बूढ़ा जैसे शब्द  सुनकर रात आठ बजे का समय तय हो गया। उसने कहा भी अंकल से कि अंदर आयें, बैठें लेकिन वो अंदर नहीं आये। उनके जाने के बाद सुबीर फ़िर से बिस्तर में घुस गया,  हो गई दोपहर के खाने की छुट्टी। बचपन में कई बार सुना था दोस्तों से कि कहीं दावत का न्यौता हो तो उससे पहले और बाद के भोजन का नागा करने से मेजबान की आतिथ्य भावना का सम्मान होता है। आज बात बेबात चेहरे पर मुस्कान आ रही थी, जरूर होगी कुछ न कुछ  उथल पुथल जीवन में। ये ऊपर वाला भी चैन से रहने नहीं देता,अपनी सत्ता का अहसास दिलाने  के लिये चाहे जो संयोग बैठाने पड़ें, बंदे को मजबूर कर ही देता है।

समय से तैयार होकर शुभ्रा के घर को चल दिया सुबीर।  कुछ था जो खींच रहा था उसे,  वरना वो तो बहुत नीरस टाईप का इंसान था। रास्ते से एक गिफ़्ट पैक करवा लिया और सही समय पर शुभ्रा के घर पहुँचा। अंकल से तो एकाध बार सड़क पर मुलाकात हो चुकी थी, आंटी से पहली बार मिला। जब प्रणाम के जवाब में उन्होंने सर पर हाथ फ़ेरा तो आँखें गीली हो गईं सुबीर की, स्नेह खून के रिश्तों का मोहताज नहीं होता।  अंकल के बारे में पूछा तो पता चला कि अभी पूजा-पाठ में लगे हैं, आते ही होंगे। आंटी फ़िर से रसोई में चली गईं और उसने ध्यान से शुभ्रा की तरफ़ देखा, हमेशा की तरह चहकती हुई और पिछली रात की तरह महकती हुई लगी।  वो सोच रहा था कि क्या इन लड़कियों को ठंड नहीं लगती? खुद तो आज जाने कितने समय के बाद सफ़ेद शर्ट पहनी थी, वो भी स्वैटर के नीचे दब गई, और इन देवीजी  को देखो तो कैसे अपने खूबसूरत सूट को नुमाया कर रही हैं?

“आप  को सर्दी नहीं लगती? कोई शाल   या स्वैटर वगैरह ओढ़ना चाहिये आपको।”

“बुद्धू कहीं के।” शुभ्रा ने कहा, “कोई और होता तो ड्रेस की तारीफ़ करता।”

“तारीफ़ सुनना बहुत अच्छा लगता है आपको भी। कोई और होती तो ये सोचकर खुश होती कि किसी ने उसकी परवाह की है, ड्रेस से ज्यादा।”

शुभ्रा  देखती रही उसकी तरफ़, और बोली,  “मैं भी खुश हूँ। ऐसा क्यों लगा तुम्हें कि मुझे अच्छा नहीं लगा?”

“बुद्धू की उपाधि से नवाजा न आपने, इसलिये ऐसा लगा। शुभ्राजी, मुझे आजतक किसी ने ऐसे नहीं कहा,  न पागल न ईडियट   और न बुद्धू, लेकिन तुम्हारा सॉरी  आपका ये कहना  भी अच्छा ही लगा।”

“ऐ सुनो,  तुम जो हमेशा मुझे बड़ी और सीनियर होने की बात सुनाते रहते हो, मैं तुम्हें बहुत सताने वाली हूँ। ये सब तो सुनना ही होगा तुम्हें। और ऐसी कोई बहुत बड़ी भी नहीं हूँ तुमसे, साल छह महीने का फ़र्क क्या मायने रखता है? और ये बात बात में शुभ्राजी, शुभ्राजी कहने की आदत बदल लोगे तो सुखी रहोगे।”

“मेनका जी  कहकर बुलाया करूँ फ़िर आपको?”

“न, सिर्फ़ मेनका।   और दोबारा कभी आप कहा तो तुम्हें झील के किनारे ले जाकर धक्का दे दूँगी मैं। सच में एक नंबर के पागल हो तुम।”  वो खिलखिला कर हँस दी और दूर कहीं इन्द्र को जरूर सुकून सा मिल गया होगा कि उसकी गद्दी को फ़िलहाल किसी विश्वामित्र से कोई खतरा नहीं।                                                                                                      

जारी(न चाहते हुये भी)...…
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एक सूचना देनी है आपको। मेरे और आप सब के प्रिय  अविनाश(मेरी कलम से     …….) का कविता-संग्रह  ’अबाबील की छिटकी बूँदें’  संकल्प प्रकाशन, दिल्ली से छप कर आया है। कोई और होता तो पता नहीं कितना उछलता कूदता, और हमारा ये हीरा ऐसा है कि किसी को बताना भी नहीं चाहता। मुझसे अपनी खुशी आपसे बाँटे बिना नहीं रहा गया,  सो बिना अविनाश से पूछे  बता दिया है। शायद  मुझसे  नाराज भी  हो जाये, लेकिन   दे…  ……:)) मना लेंगे।

रविवार, जनवरी 16, 2011

इंतज़ार...भाग एक

उस दिन जब तक फ़ाईनल ड्राफ़्ट अप्रूव हुआ, रात के सात बज चुके थे। अब कहीं जाकर दिनभर का तनाव कुछ कम हुआ। सुबीर ने बैग समेटा और पैदल ही लौटने का इरादा बनाकर ऑफ़िस से   निकल लिया। बिल्डिंग के गेट तक ही पहुंचा था कि पीछे से लगभग दौड़ती हुई शुभ्रा ने आकर उसे रोका, “मैं गाड़ी निकाल रही हूँ, तुम मेरे साथ ही चलोगे।”

“जी, कोई बात नहीं, मैं आराम से चला जाऊँगा।”

“सुनो, अभी तुम ऑफ़िस की हद में हो और मैं तुमसे सीनियर। इट्स ऐन आर्डर. अंडरस्टैंड?  यहीं इंतज़ार करो मेरा।” और अपना हैंडबैग उसके हाथ में थमाकर शुभ्रा पार्किंग की ओर लपक ली।

सुबीर की बड़बड़ाहट शुरू हो गई। आठ महीने बड़ी है, मुझसे साल भर पहले ज्वऑयन भी किया है लेकिन देखो कैसे हुकम चला गई और मैं भी मर्दों के नाम पर दाग, कुछ कह नहीं पाया। सच में कितने स्लो रिफ़्लेक्सेज़ हैं मेरे? लेकिन इतना सोचते सोचते जैसे ही हैंडबैग पर ध्यान गया, तो उस हल्के से हैंडबैग ने मानो विचारों का तूफ़ान दबा दिया हो। गेट के पास लगे रात की रानी के झाड़ से उठती  महक तेज हो गई हो जैसे।

शुभ्रा ने गाड़ी उसके पास लाकर रोकी, दरवाजा खोला और बोली, “विराजिये, ऋषिवर। निश्चिंत रहिये, मैं कोई मेनका नहीं जो आपका ध्यान भंग करूंगी।  बल्कि आपको खुद सोचना चाहिये कि सर्दी की अंधेरी रात में आपकी सहकर्मी जोकि संयोग से आपके पडौस में भी रहती है,  सड़क पर अकेली जाये तो ये कहाँ तक ठीक है?”

सुबीर सीट पर बैठ गया और सोचने लगा कि क्या यही वह शुभ्रा है, जिसका एक बोल सुनने के लिये और एक मुस्कान पाने के लिये ऑफ़िस भर के सीनियर-जूनियर ऐसे भागीरथ प्रयास में लगे रहते हैं कि होता कोई और युग तो जाने कितनी गंगायें इस महानगर में अवतरित हो चुकी होतीं? सिर्फ़ अपने नजरिये से सोचता तो उसे लगता कि शुभ्रा उसपर मेहरबान हो  रही है, उसका नजरिया जाना तो खुद की सोच पर शर्म आने लगी।

“कितना सोचते हो बाबा तुम, जब देखो ख्यालों में गुम दिखते हो। बीसियों बार  कहा है तुमसे  कि एक ही ऑफ़िस में काम करते हैं, एक ही कालोनी में रहते हैं, जब मैं गाड़ी लाती ही हूँ तो साथ चला करो लेकिन नहीं। जानते हो मेरे मम्मी-पापा तुम्हारी कितनी तारीफ़ करते हैं, जबकि तुम कभी हमारे घर नहीं आये। कई बार पापा कह चुके हैं कि लड़का शरीफ़ दिखता है, अकेला रहता है कभी खाने पर बुलाओ उसे और मैं हर बार टाल देती हूँ। तुम पता नहीं क्या सोचने लगो।”  समय काफ़ी हो चुका था लेकिन सड़क पर निर्माण कार्य के चलते ट्रैफ़िक जैसे रेंग ही रहा था।

शुभ्रा ने ही फ़िर बात छेड़ी, “क्या हुआ तुम्हारे गांव की जमीन के मामले का, बहुत दिन से छुट्टी नहीं ली तुमने?”

“फ़ैसला मेरे हक में हुआ था। उसके बाद मैं सिर्फ़ एक बार और गाँव गया था, लिखापढ़ी करके जमीन भाई के नाम ही कर दी थी। गाँव-जमीन  से नाता ही  नहीं रहा,  अब छुट्टी का क्या काम?”

शुभ्रा हैरत से देखने लगी उसे, “व्हाट? तुम पागल हो एक नंबर के। उसी भाई के नाम कर दी जमीन, जिससे मुकदमा चल रहा था, आर यू मैड?”

“नो, आई एम नॉट। मुकदमा लड़ा था अन्याय का विरोध करने के लिये और स्वेच्छा से जमीन भाई के नाम की है ताकि सारी उम्र उसे इस वजह से भाभी के ताने न सुनने पड़ें।  और फ़िर बाबा के जाने के बाद भाभी ने मुझे और मेरी मां को जो रोज गिनकर रोटियाँ खिलाई हैं, उनका हिसाब भी तो बराबर करना था। अब माँ भी नहीं रही, मुझ अकेले का क्या है? मेरी सैलरी बहुत है मेरे लिये।” आज बीच बीच में  शुभ्रा के चेहरे की तरफ़ देख लेता था सुबीर। 

“आज तुम अकेले हो, हमेशा तो नहीं रहोगे? कल को जिम्मेदारी सर पर आयेगी तो ये जमीन तुम्हें एक्स्ट्रा सपोर्ट देती, ये क्यों नहीं सोचा तुमने? फ़िर पछताओगे अपने फ़ैसले पर।”

“ऐसा मौका नहीं आने वाला है।”     फ़िर से देखा उसने नजर चुराकर, रात की रानी मानो फ़िर  से जैसे गमक गई हो।

गाड़ी कालोनी के गेट से अंदर घुसी तो सुबीर ने गाड़ी रोकने को कहा।

शुभ्रा ने कहा,   ”अब कहाँ रसोई में जाकर खटपट करोगे? मेरे साथ चलो, आज खाना हमारे साथ ही खा लेना।”
सुबीर हँसने लगा, “घर का खाना, गाड़ी की सवारी  इतनी ऐय्याशी एक साथ शायद हजम न हो।  आदत बिगड़ जाये तो दिक्कत होती है। बहुत बहुत शुक्रिया, लिफ़्ट देने के लिये भी और खाना ऑफ़र करने के लिये भी। बाय, गुडनाईट।”

शुभ्रा हँस दी “यू आर  एन  ईडियट, स्वीट ईडियट।”। “ठीक है, कल तो छुट्टी है, आराम से सोकर उठना। "गुडनाईट, सुबीर।” और कार आगे बढ़ा दी।

सुबीर देख रहा था कार को जाते हुये और सोच रहा था कि पागल ये बता गई, ईडियट ये बोल गई और मुझे बुरा नहीं लगा। शुभ्रा कहती तो ये  थी  कि वो  मेनका  नहीं है,  तो क्या झूठ भी बोलती है ये?  आज ये सुगंध पीछा क्यों नहीं…..

जारी..

मंगलवार, जनवरी 11, 2011

देखी जायेगी..

आज  छुट्टी का दिन था, सोचा था एक अलग ही पोस्ट लिखने के बारे में, लिख भी ली थी लेकिन आखिर में वो हो गई पेंडिंग और ये लिखी।    बहुत पहले एक पोस्ट लिखी थी,  रेलवे स्टेशन पर देखे भोगे एक अनुभव की, और एक दूसरी पोस्ट लगभग दो ढाई महीने पहले,   आज फ़िर से स्टेशन याद आ गया। मैं जब पहला ट्रांसफ़र लेकर दिल्ली आया तो पंजाब आने से पहले तक लगभग बारह साल डेली पैसेंजरी की। इनमें से ट्रेन के अनुभव तो इतने और इतने जबरदस्त रहे कि पूछिये मत। कितने ही हमराह मिले, कितने छूटे, कुछ अब तक जुड़े हैं। गाहे बगाहे फ़ोन आ जाता ह और मैं भी जब दिल्ली जाता हूँ तो एक दिन जरूर ट्रेन की  सवारी करके यादें ताजा करता हूँ।

ये एकदम शुरुआती समय की बात है, कोई दोस्त नहीं बना था। सुबह सुबह स्टेशन पर समय से पहले ही पहुँच जाया करता, अतिरिक्त सावधानी:)    प्लेटफ़ार्म पर देख रहा था इधर उधर कि शायद कोई जाना पहचाना चेहरा दिखे। सामने तीन चार लोग हाथ में ताश की गड्डी लेकर फ़ेंट रहे थे और फ़ेंटे ही जा रहे थे।  हीरोईन को अंग-प्रदर्शन करते देखकर फ़्रंट सीट के दर्शकों की  जो कैफ़ियत होती है कि शायद सिर्फ़ उन्हें रिझाने के लिये, उनके लिये ही यह वस्त्र-त्यागीकरण प्रक्रिया है, ताश के पत्ते फ़हराते देखकर कुछ वैसा ही हाल अपना हो रहा था।  शायद हमें ही ललचाने के लिये ये ऐसा कर रहे हैं, संकोच त्यागकर खुद को प्रस्तुत करने ही वाले थे कि एकदम से शोर मच गया, मोती आ गया-मोती आ गया।

जैसे महफ़िल में रौनक आ गई हो, चेहरे चमक उठे थे उपस्थित लोगों के। देखा तो सामने से पैंसठ सत्तर बरस के एक बड़े मियाँ, सफ़ेद शफ़्फ़ाक दाढ़ी, सर पर जालीदार टोपी, सफ़ेद कुर्ता पायजामा, हाथ में एक थैला पकड़े हुये और कमर में हल्का सा खम, फ़ुदकते हुये से चले आ रहे थे। समझ गये हम, यही हैं रौनक-ए-महफ़िल, ’मोती मियाँ।’ बस वो आकर सबसे मिले, तब तक अच्छा खासा जमावड़ा इकट्ठा हो गया था। धीरे धीरे हम भी जान गये सबको।  मोती मियाँ थे उस ग्रुप की आँख का तारा, क्या जवान और क्या बूढ़ा, जिसे देखो हर चाल में वाह मोती, अबे मोती की चुटकी लेता। शायद ही कोई बात होती, गड़बड़ होती जिसके लिये उन्हें श्रेय न दिया जाता हो। और बड़े मियाँ अकेले ही सबसे टक्कर लेते रहते। कोई और होता तो फ़ेंक कर मारता ताश के पत्ते, लेकिन तारीफ़ के काबिल थी उनकी शख्सियत। जरा जरा से लौंडे अबे-तबे करके बात करते थे और वो थे कि कोई बुरा नहीं मानते थे। खैर, अपने को तो नागवार ही गुजरता था ये सब। हमने तो लखनऊ में देखा था एक बार कि गाली भी आप कहकर देते थे, वो कहानी फ़िर सही। दो चार बार मैं ही उलझा लोगों से कि यार, बोलने की तमीज तो रखो कुछ, उम्र देखो जरा इनकी। लेकिन औरों से पहले मोती मियाँ ही मुझे चुप करवा देते। शायद उन्हें भी इस चुहलबाजी में मजा आता था, मजे की तो आप जानो ही हो, आ जाये तो…….।    पलटवार करने में मोती मियाँ भी कुछ कम नहीं थे, अपनी महीन सी आवाज में दो डायलाग बड़े प्रिय थे उनके,       १. अबे, फ़ेवीकोल लगा ले मूं पे, बता रिया हूँ तुझे।      २.  जबान पर रन्दा फ़िरवाके ही मानेगा तू,  ऐसा लगे है।       और ऐसे अंदाज में कहते बड़े सीरियस होकर कि हँसी छूट ही जाती थी। हमारी ओब्जर्वर निगाहों ने एक दिन उनके थैले पर गौर किया तो उसमें आरी, हथौड़ी, पेचकस, प्लास जैसे औजार दिखे तो उनके डायलाग्स का सबब समझ आ गया, बड़े मियाँ बढ़ई थे।

अब स्टेशन को छोडि़ये, चलते हैं बैंक में। हमारे इंचार्ज  थे निहायत ही दिलेर सिंह। स्वभाव के एकदम मस्त, यारों के यार। ज्यादा  ध्यान  प्रोपर्टी के धंधे पर और पर्सनल रिलेशन बनाने पर, जैसे यहाँ,   जाने दो बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। तो कभी कभी कुछ काम ऐसे कर जाया करते कि उनसे बहुत छोटा और जूनियर होते हुये भी मैं टोक दिया करता, बाबूजी जरा धीरे चलो।  मानते बहुत थे मुझे, हँस देते और हमेशा कहा करते, “छोड़ो यार, कौन सा फ़ाँसी फ़िट  होने वाली है इसमें?” हमेशा ही हर सीरियस बात को यह कहकर हवा में उड़ा देते, “छोड़ यार, कौन सा फ़ाँसी फ़िट होने वाली है?”

एक दिन मैं घर लौटा तो पिताजी किसी बात पर मेरे छोटे भाई पर नाराज हो रहे थे,  और वो सिर झुकाये खड़ा था। बात मालूम की तो भाई से कुछ साधारण सी गलती हुई थी जोकि हमारे पिताजी को बहुत नागवार गुजरी थी। उनका मानना ये है कि छोटी गलती को समय रहते ही न सुधारा जाये तो आगे जाकर वो कभी नहीं सुधरती। अब अपने को भी रौब गांठने का मौका मिल गया, हम भी तो बड़े भाई ठहरे। अपन भी शुरू हो गये, भाषण देने। छोटा बेचारा पहले ही शर्मिंदा हो रहा था, अब दोतरफ़ा आक्रमण से घबराकर रुँआसा सा हो गया। अब हमने दलबदल कर लिया और  पिताजी को शांत होने के लिये कहा। वो अपने कथन पर अड़े रहे और हम छोटे के वकील बन गये। अब बहस पिताजी और मुझमें छिड़ गई। मैं अनजाने में बोल बैठा, “हो गई गलती, समझा दिया। अब क्या इस बात पर फ़ाँसी फ़िट करोगे इसके?” पिताजी एकदम से चुप हो गये,  मैं अपनी जीत समझकर चुप हो गया  और छोटे साहब तो पहले से ही चुप थे। मेरी नजर में मामला खत्म हो गया था। लेकिन पिताजी अब मुझसे बात नहीं कर रहे थे और मैं बात को भूल गया। दो तीन दिन बाद  माँ से बात की, पिताजी कुछ नाराज दिख रहे हैं  तो उन्होंने उस दिन मेरी कही हुई बात    याद दिलाई और हैरान हुईं कि ऐसी बात मुँह से निकली कैसे?  शर्म बहुत आई खुद पर, जाकर पिताजी से भी बात की, कैफ़ियत दी और माफ़ी माँगी। अगले दिन ऑफ़िस में जाकर बॉस को भी बता दी सारी बात और आगे के लिये जबान पर काबू पाने की कोशिश शुरू कर दी।

आज छुट्टी का दिन था। किसी बात पर अपने बड़े UKP  को छोटे वाले का ध्यान रखने के लिये कह रहा था, समझाया उसे कि बड़ा होगा तो जिम्मेदारी संभालनी होगी, अभी से तैयार रहना चाहिये, उसका जवाब था, “अच्छा, ठीक है।” मैंने कहा, “इतनी आसान नहीं है। शायद मुझे देखकर ऐसा कह रहा है कि पापा सुबह आराम से बाईक उठाते हैं और चले गये कुर्सी पर बैठने। शाम को घर आये तो बैठ गये कम्प्यूटर के आगे। इतनी आसान नहीं है जिन्दगी, याद करेगा बचपन के इस टाईम को।” जवाब मिला, “देखी जायेगी।”                            फ़िर टॉपिक चेंज किया, “ध्यान से पढ़ाई कर, सिर्फ़ यही तो काम है तुम्हारा इस समय।”  पूछने लगा, “मार्क्स अच्छे आने चाहियें न?”   मैंने कहा, “हाँ, यही समझ ले। समझना तो जरूरी है ही लेकिन मार्क्स भी अच्छे आने चाहिए।” फ़िर से जवाब मिला, “ठीक है, देखी जायेगी।”

मोती मियाँ दिन भर जिन हथियारों-औजारों के बीच रहते थे, वही फ़ेवीकोल, रन्दा आदि उनकी जबान का हिस्सा  बन   गये थे। मैं और मेरे एक्स-बॉस कई साल तक एक टीम के रूप में काम करते रहे, उनका तकियाकलाम मेरी जबान पर चढ़ गया था। मैं अपनी हर परेशानी में अपनी तरफ़ से पूरा प्रयास करता हूँ,  लेकिन थक हार कर घबरा जाने की बजाय यूँ कह दिया करता कि ’देखी जायेगी’ तो ये मेरे लड़के का भी स्टाईल बनता जा रहा है। सिर्फ़ प्रयास करना काफ़ी नहीं है, शायद अपनी बोली, अपनी भाषा पर और ध्यान देना पड़ेगा। कहीं ऐसा न हो कि मुँह से निकली इतनी सी बात दूसरों का लाईफ़-स्टाईल ही बन जाये। मेरी करनी पर नजर न डालकर अगर सिर्फ़  कहे पर उसने या किसी ने यकीन बना लिया तो बहुत दिक्कत होने वाली है। क्या कर सकते हैं सिवाय यह कहने के कि,    देखी जायेगी……..:))

:) एक शादी में फ़त्तू को कहीं दूर जाना पड़ा। जाते समय  बस में फ़त्तू आगे वाली सीट पर बैठा था और नींद के झोंके ले रहा था। थोड़ी थोड़ी देर के बाद ड्राईवर उसे जगा देता, पचास किलोमीटर रह गया, अब पैंतालीस किलोमीटर रह गया, अब बयालीस कि,मी रह गया, क्यों सोवे सै? लब्बो-लुबाब सारे रास्ते फ़त्तू को सोने नहीं दिया। विवाहस्थल पर पहुंच कर ड्राईवर साहब खापीकर बस में ही सो गये। थोड़ी देर में फ़त्तू ने आकर समय पूछा, ड्राईवर ने बताया  कि एक बजा है और सो गया। आधे घंटे बाद फ़त्तू फ़िर आया टाईम पूछने, झल्लाते हुये ड्राईवर ने बताया कि डेढ़ बजा है और फ़िर सो गया। अब हर बीस पच्चीस मिनट के गैप पर फ़त्तू उसे उठा दे और टाईम पूछे। तंग आकर ड्राईवर ने टाईम बताया कि सवा तीन बज गये हैं और घड़ी ही उतारकर बाहर फ़ेंक दी, “ले जा इस घड़ी  नै, इबके न आ जाईयो टैम पूछण।”
आधे घंटे बाद फ़त्तू ने फ़िर उठाया, “ड्राईवर साब, इबकी टैम पूछण ताईं न आया सूँ, घड़ी तो सै कोणी तेरे  धोरे। मैं तो  बताण आया सूँ अक पौने चार बज लिये सैं।” 


शुक्रवार, जनवरी 07, 2011

शकुन अपशकुन

कभी पढ़ा था कि इंगलैंड में जब लोग आपस में मिलते हैं तो आम बातचीत की शुरुआत मौसम से करते हैं। अपना मुल्क भी इस मामले में आजकल इंग्लैंड से कम नहीं। मुलाकात होते ही पहली बात, “सर्दी  बहुत है, हद हो रही है”  या ऐसी ही बात।  जिसे देखो, मौसम को  गरियाने में लगा है। होता अपना हिन्दुस्तान भी कहीं अंटार्कटिका या जायरे-कांगों में तो सब नखरे निकल जाते जब साल भर एक ही जैसा मौसम झेलना पड़ता। हम लोगों को जैसे रोने की आदत ही पड़ गई है।

जब मैंने बैंक ज्वॉयन किया तो चार-पाँच दोस्त एक ही मकान में रहते थे। कहीं भी जाना हो, एक साथ ही आना-जाना करते। सर्दियों की तो खैर बात ध्यान नहीं, गर्मियों की एक बात याद है। घर से निकले तो ’राजा’ बार बार अपना रुमाल निकालकर पसीना पोंछता और कहता, “बहुत गर्मी है यार, पसीना ही नहीं सूखता।”   मैंने एकाध बार अपनी अज्ञानता के चलते ही कहा कि यार राजस्थान के होकर भी गर्मी से घबराते हो, अजीब बात है। राजा बाबू और गरम हो गये, “तुम लोग सोचते हो कि सारा राजस्थान रेत से भरा है?” किसी दूसरे ने गौर से उसके चेहरे की ओर देखा और चुटकी ली, “न, पत्थर भी हैं, वहाँ।”  नोंकझोंक में आखिर सब मान गये कि गरमी बहुत है। बस अपन थे जो चुप रहते थे,  हाँ में भी नही और  न में भी नहीं। राजा ओब्जर्वर गज़ब का था। ऐसे ही एक दिन कहने लगा, “संजय कभी नहीं कहता कुछ मौसम के बारे में।  गरमी हो या सरदी, बल्कि गरमी में तो कई बार अकेला हो तो पंखा बंद करके बैठ जाता है कमरे में, जैसे खुद को सजा दे रहा हो कोई।”  उस दिन ’जीतू’  बोला, “एक श्रेणी होती हैं छिनाल की, और दूसरी श्रेणी होती हैं चुप्प छिनाल की- ये श्रीमान दूसरी श्रेणी के हैं।” तो जी, मर्दमानुष होकर भी ऐसे ऐसे सर्टिफ़िकेट ले रखे हैं हमने। दिखाऊंगा एक दिन सबको अपना ब्लॉग जब इकटठे हुये कभी, कि जो संजय मौसम की बात, शिकायत भी  नहीं करता था अब उसे ही भाई-बंधु मो सम और मौसम में कन्फ़्यूज़ कर रहे हैं।

जाने दो, कहाँ से शुरू हुये और कहाँ पहुंच गये। मुद्दे की बात ये है कि मौसम ससुरा बहुत खराब है। चौदह-पन्द्रह किलोमीटर भी बाईक चलानी पड़े तो दादी-नानी याद आ जाती हैं। आँख,  नाक और हाथ ऐसे अकड़ जाते हैं कि पूछिये मत। एकदम सुन्न पड़ जाते हैं। स्कूल के दिनों में हमारा एक दोस्त था, चेला भी कह सकते हैं। वो  कभी कभार कह देता था कि बॉस, वो हँस रही है देखकर और मैं कहता था तू पेंट की चैन चैक कर और मैं नाक पोंछ कर देखता हूँ। काहे से कि  सर्दी में सबसे ज्यादा सेंसिटिव नाक ही होती है हमारी, हरदम लगता है कि बह रही है और चैक करें तो रूमाल सूखा ही लौट आता था। और खुली चैन और\या बहती नाक   दो ही ऐसी  संपत्तियाँ हमारे पास थीं , जिन्हें देखकर कोई हँस सकती थी।      ऐसा ही कुछ आजकल है, बस आजकल कोई हँसने वाली नहीं है और न कोई बताने वाला कि बॉस…। फ़िर बहक गया, सॉरी।

घर लौट कर एक बार रजाई, कंबल ओढ़कर बैठ जायें तो बस सीधे मुँगेरीलाल के हसीन सपनों में खो जाते हैं, और कुछ नहीं सूझता है। नया साल भी आधा गुजर गया, लगभग, और हमने कुछ नहीं लिखा(ज्यादा हो गया क्या?)।  ऐसा लगता है कि नल में पानी की तरह दिमाग  भी जैसे जम गया है। कुछ सब्जैक्ट ही नहीं समझ आ रहा था कि क्या लिखा जाये। ऐसे तो लोग हमें  भूल ही जायेंगे।  फ़िर नेट पर  इधर उधर टक्कर मारना शुरू किया तो हमें कारण समझ आया।  लगा हमारी भी प्रेरणा कहीं खो गयी है। शायद हमारी प्रेरणा भी मौसम की भेंट चढ़ गई है। फ़िर चैक किया तो पाया  कि प्रेरणा अपनी जगह पर ही है। आप भी चैक कर सकते हैं, हमारे ब्लॉगरोल में प्रेरणा  है कि नहीं? अच्छी चीजों को भी देख लिया करो यारों, ये क्या हमेशा फ़त्तू-सत्तू, गाने-शाने? कभी कभार के लिये ठीक है, बाकी तुम्हारी मर्जी। हमारी तो मशहूरी हो रही है आजकल, चर्चे ही चर्चे हैं। कहीं पोस्ट चुराई जा रही है, कहीं लिखी जा रही है। एक हमारे वरिष्ठ बंधु को ओनलाईन देखकर नमस्ते की तो पता चला कि यारों की महफ़िल में फ़त्तू के चर्चे हो रहे थे। लाज के मारे लाल हो गये जी हम तो:) काहे को करते हो जी चर्चे?  हिटलिस्ट में आ जाओगे, फ़िर पता चलेगा हमारा असर, हा हा हा।

अचानक ध्यान आई सलिल भैया की पोस्ट की पहली पंक्ति “गाँव में आज भी अच्छा बात को बुरा बताना सगुन माना जाता है।” अबे यार, तो ये था हमारी  ढेर सारी अब्लॉगीय असफ़लताओं का राज? हम तो कितना ही लुटे  पिटे हों, कोई पूछे तो हमेशा अपना हाल मस्ते-मस्त बताया करते थे। कितना ही बुरा हो गया हमारे साथ, हम तो अपनी शान बनाने के चक्कर में हमेशा बढ़ चढ़ कर बताया करते थे। कोई कार वाला दोस्त कभी कहता कि यार तुम्हारी मौज है, ट्रेन में मौज-मस्ती करते जाते हो, हमें तो अकेले सफ़र करना पड़ता है। हम कहते कि सच में यार, मौज बहुत है रेल में डेली पैसेंजरी करने में। लेकिन तू दोस्त है,  तू ले ले हमारे हिस्से की रेल की मौज और हम दोस्ती में  ये अकेले सफ़र करने की जहमत उठा लेंगे, बंदा मुकर गया।   एक दोस्त बोला, यार तुम्हारी मौज है। महीना खत्म होते ही बंधी बंधायी तन्ख्वाह मिल जाती है, यहाँ कभी सेल्स-टैक्स का लफ़ड़ा और कभी इंकम टैक्स का झंझट। अपन फ़िर शान दिखाते कि यार, ये मौज तो है अपनी, पर तू भी क्या याद करेगा? कल से अपनी फ़ैक्टरी-दुकान मेरे हवाले  कर  और बदले में महीना खतम होने से पहले ही बंधी बंधाई तन्ख्वाह ले लिया करियो। ये लफ़ड़े और झंझट हम सुलट लेंगे, दोस्ती के फ़र्ज में। उस भले आदमी ने भी आजमाईश का मौका नहीं दिया। वर्तमान में हमारी शाखा में सिर्फ़ तीन का स्टाफ़ है, दूसरी ब्रांच वालों से बात होती है तो वो कहते हैं कि यार तुम्हारे यहाँ स्टाफ़ ठीक है। मैं और मेरे कुलीग और भड़काते हैं कि सही बात है, बहुत मौज है वहाँ। पूरी ऐश करते हैं हम लोग वहाँ। अपनी समझ में हम लोग उन्हें जलाया करते हैं कि हमारे ऊपर तो जो बीत रही है सो बीत रही है, कम से कम तुम तो जलो भुनो।  अब  सीनियर लोगों की मानें तो हमें भी हरदम नाशुक्रगुजार होकर हर समय रोते कलपते रहना चाहिये, शायद सफ़ल हो जायें। लेकिन शकुन हो या अपशकुन, अपने से ये सब नहीं होने का। फ़िलहाल तो रोने धोने  की कोई वजह है नहीं, हर चीज जरूरत और सामर्थ्य से ज्यादा मिली है। कल को जो होगा तो देखी जायेगी...!!  शायद हमें भी रोता हुआ देख लें आप सब।

एक पोस्ट पर  एक कमेंट के चलते  थो़ड़ा कन्फ़्यूज़न हो गया था।    कन्फ़्यूज़न क्लियर करने के लिये  एक कमेंट किया  था, जवाब आया और उन वरिष्ठ ब्लॉगर पर और खुद की परख पर अपना विश्वास और पुख्ता भी हुआ। मजे की बात ये है कि जवाब  आने से पहले ही एक बेनामी या फ़िर दो बेनामी साहब कूद पड़े, लकड़ी लेकर:) आग में घी, तेल डालने के लिये जैसे मश्क भरे ही घूम रहे हों कि कहीं दिखे सही कुछ चिंगारी। होता पहला जमाना तो हम भी चलते तुर्की ब तुर्की,   जब  कोशिश रहती थी कि सामने वाले के हिसाब से  चला जाये, प्यार का बदला प्यार से  और नफ़रत का बदला नफ़रत से। अब थोड़ा सा बदलाव लाने की कोशिश कर  रहे हैं नये साल में। प्यार का बदला प्यार से और नादानियों का बदला  इग्नोर करके। बेनामी जी का नाम पता तो मालूम नहीं, यहीं पर एक नया  मुहावरा   पेशे खिदमत है -
’चूल्हे चूल्हे पे लिखा है, लकड़ी का नाम’
हमने माडरेशन लगा लिया है, अपनी लकड़ी से किसी और चूल्हे में आग फ़ूंकने की ट्राई करें।

:) फ़त्तू के भाई की शादी थी। शादी के बाद बहू के मायके वाले उसे रस्म पूरी करने के लिय  ले जाने लगे तो फ़त्तू जिद करने लगा  कि भाभी को मैं लिवा कर लाऊँगा। चचेरे, ममेरे, फ़ुफ़ेरे भाई सब इकट्ठा थे, उसे कहने लगे कि ऐसा नहीं हो सकता। रिवाज के हिसाब से जिसकी शादी हुई है, उससे छोटा ही भाभी को लिवाने जायेगा और उसकी शादी के बाद  उससे छोटा। और तू तो सबसे छोटा है, भाभी को लिवाने का तेरा नंबर तो बहुत बाद में आयेगा। फ़त्तू और भी जोर से रोने लगा तो सब कहने लगे कि अच्छा यार तू ही जा, हम नंबर आगे पीछे कर ल्यांगे  लेकिन देवता चुप हो जा।
फ़त्तू, “चुप क्यूँकर हो जाऊँ खागड़ों, तुम सबकी बहू को तो नंबर आगे पीछे करके कोई न कोई लिवा लायेगा। मेरी बहू ने  लियाणिया तो कोई सै ही कोनी, मेरा के बणेगा?”

फ़त्तू की बहू आयेगी कि नहीं, देखेंगे हम लोग........