ऑफ़िस में आज सारा दिन सुबीर का मन उखड़ा-उखड़ा सा रहा। रह रह कर आँखों के सामने एक चेहरा नाच उठता था, एक अजीब सा अहसास छोड़ जाता हर झलक में, एक अनूठी महक। पता नहीं क्या हाल होगा शुभ्रा का? आराम आया कि नहीं? आज वैसे भी ऑफ़िस पतझड़ के बगीचे सा लग रहा था, करवाचौथ का दिन जो ठहरा। महिला सहकर्मी कोई भी नहीं थी, और पुरुष कर्मचारी आज मौके का पूरा फ़ायदा उठा रहे थे। सुबीर हमेशा की तरह वहाँ होकर भी नहीं था, लेकिन आज तो जैसे उसे खुद भी अपने होने न होने का फ़र्क नहीं मालूम चल रहा था। दोपहर में उसने शुभ्रा के घर फ़ोन किया, आंटी ने बताया कि सो रही है। सुबह से बिस्तर पर पड़ी है, दवा तक नहीं ली। बुखार तो नहीं है, लेकिन कमजोरी बहुत है। सुबीर ने कहा कि ऑफ़िस से लौटते समय मिलकर ही जायेगा।
सुबीर शाम को समय से ही ऑफ़िस से निकल लिया था। शुभ्रा अपने कमरे की खिड़की के पास कुर्सी पर बैठी थी, देख रही थी बाहर क्यारियों की तरफ़। कमरे में नीम अंधेरा पसरा था, बीमार लोग शायद रोशनी से आँख बचाते हैं। अकेली रोशनी वही हुई, जब सुबीर को देखा और शुभ्रा के चेहरे पर चमक सी आ गई थी।
“आ गये तुम, मुझे मालूम था कि आज बिना बुलाये भी आओगे” हँसते हुये शुभ्रा बोली।
“मैंने दोपहर में फ़ोन किया था, सो रही थी तुम। कैसी तबियत है अब?”
“ठीक हो गई हूँ मैं। जब तुम्हारा फ़ोन आया, मैं बिस्तर में थी. लेकिन सो नहीं रही थी। जानबूझकर बात नहीं की थी मैंने।”
“क्यों, बुरा लगा क्या मेरा फ़ोन करना?”
“तुम न करते फ़ोन तो बहुत बुरा लगता। बात कर लेती तो फ़िर तुम कहाँ आते मिलने। काश, ये मियादी बुखार होता और बिना बुलाये तुम रोज ऐसे ही मुझे मिलने आते।” आवाज कुछ बदल गई थी शुभ्रा की।
“पागल हो तुम, दिनभर हम ऑफ़िस में साथ रहते है फ़िर ये कुछ देर के लिये मिलने आना क्या मायने रखता है?”
“तुम नहीं समझोगे और समझाने से तुम्हारे दिमाग में बात बैठेगी नहीं, बात का मज़ा भी तो नहीं रहेगा।”
“मत समझाओ फ़िर, वैसे भी मेरे दिमाग में ज्यादा अहम चीजें हैं आजकल। जो हैं, मैं उसीमें बहुत खुश हूँ।”
आंटी उनके लिये चाय-नाश्ता ले आईं। सुबीर ने चरण-स्पर्श किये और औपचारिकता के लिये मना किया तो शुभ्रा हँस दी, “माँ, पूछ लेती न चाय बनाने से पहले, कहीं आज ये भी व्रत पर हों? ऋषिवर का व्रत भंग न हो जाये कहीं।”
माँ ने लाईट जला दी थी और बेटी को हँसते देखकर उनके चिंतित चेहरे पर इत्मीनान आ गया। पास आकर सुबीर के सर पर हाथ फ़ेरने लगीं। उम्र के अनुभव ने बता दिया होगा कि बीमार बेटी को कौन सी दवा आराम दे रही है।
सुबीर ने फ़ौरन नाश्ते की प्लेट पकड़ी और बोला, “व्रत भंग हो ही चुका है तो खा-पीकर क्यूँ न मरा जाये?”
“ऐ सुबीर, सोच समझकर बोला करो। कुछ भी बक दिया, वो भी आज के दिन। कहीं कोई तुम्हारे लंबे जीवन की कामना करती होगी और तुम ऐसा उल्टा-सीधा बोल रहे हो।” तमतमा उठी थी शुभ्रा।
“अरे, इतना सीरियस क्यों हो रही हो? ये तो एक आम वाक्य है जो मैंने तुम्हारी बात के जवाब में कहा। खैर सॉरी, लो तुम भी चाय लो।”
“मुझसे नहीं पी जायेगी। वैसे अब मैं ठीक हूँ, अब खाना ही खाऊँगी। माँ, सुबीर भी हम लोगों के साथ ही खाना खायेगा। नहीं तो खाना बनाने के नाम पर इसे भागने का मौका मिल जायेगा, बीमार से दूर। और मैं फ़िर अकेली बैठी बोर होऊँगी।” ऒफ़िस से बाहर थी, लेकिन किसी किसी को ऒर्डर देने में जगह से ज्यादा सामने वाले इंसान से ज्यादा फ़र्क पड़ता है।
माँ बर्तन लेकर चली गईं रसोई में, पूजा की तैयारी भी करनी थी और रात के खाने की भी।
“रेडियो सुनना था न, बोर होने से बच जातीं। वैसे भी मैं तुम्हारी तरह पढ़ने लगा हूँ, तुम्हें मेरी तरह रेडियो सुनना चाहिये। न आँखों पर जोर और न दिमाग पर बोझ।”
“आज सारा दिन मैंने और किया क्या है? उठकर तो अभी ही बैठी हूँ।” कहते कहते शुभ्रा उठ खड़ी हुई और खिड़की के बाहर देखने लगी। पेड़ों पर पक्षी भी अपने अपने बसेरों में लौट चुके थे, शायद रात के चूल्हे-चौके की तैयारी चल रही हों। सुबीर ने अब देखा, शुभ्रा ने आज साड़ी पहन रखी थी। पहली बार साड़ी में देखा था उसे।
चलती रही बातें, बातों में से बातें और सुबीर खुद भी हैरन था कि कैसे इतना बोलने लगा है वो। इतनी बातें मालूम भी थीं क्या उसे अब से तीन चार महीने पहले तक? अंकल आ चुके थे और फ़्रेश होकर रोज की तरह पूजा पाठ में व्यस्त थे।
बाहर कुछ चहल-पहल की आवाजें सुनाई दीं, चाँद का विशेष इंतजार था आज जैसे सबको। शुभ्रा ने खिड़की से बाहर देखा, पेड़ की फ़ुनगी के ऊपर चाँद चमक रहा था। उत्साहित होकर उसने माँ को आवाज लगाई और पूजा की थाली हाथ में लेकर आंटी-अंकल छत पर चले गये थे।
“ऐ सुबीर, देखो न चाँद निकल आया।” बच्चों की सी उल्लासित थी शुभ्रा।
“देख रहा हूँ” खिड़की के पास आ चुके सुबीर ने कहा, शुभ्रा की तरफ़ ही देखते हुये। “पहली बार देखा है तुम्हें साड़ी में, बहुत जम रही है तुमपर। कब खरीदी?”
शुभ्रा ने उसकी तरफ़ देखा, झुककर उसके पैर छू लिये और सुबीर हड़बड़ा उठा एकदम से, “ये क्या कर रही हो?”
“जाने या अनजाने में, मेरा व्रत हो गया। जब भी तुम्हें जन्मदिन पर या किसी और मौके पर अपनी खुशी के लिये कोई गिफ़्ट दिया है तो तुम कितने नखरे दिखाते हो मुझे। ये साड़ी मैंने खरीदी है अपने लिये, तुम्हारी तरफ़ से। इसके पैसे तुम दोगे, मैं खुद माँग रही हूँ।”
नजरों की भाषा नजरें पढ़ ही लेती हैं, बहुत विद्वान होना कोई लाजिमी नहीं इस भाषा को जानने या समझने के लिये, कोई लिपि नहीं, कोई ककहरा नहीं। आंखें बोलती हैं, दिल देखता है, कान महसूस करते हैं और ज्ञान-विज्ञान के सब स्थापित नियम उलट पुलट जाते हैं। कुटिल सरल हो जाते हैं और जो सरल हैं, वो हो जाते हैं चंचल। समझ लेना चाहिये उस समय कि वक्त आ गया है एक नई कहानी के जन्म लेने का।
मुश्किल से सुबीर के मुंह से कोई बोल फ़ूटा, “ऐ शुभ्रा, क्या करके मानोगी तुम?”
“मैं तुम्हारे आँगन में ठुमक कर मानूँगी, जान लो सिर्फ़ इतना। समय तुम तय करोगे, इंतज़ार मैं करूँगी।”
तब से सुबीर और उसका आँगन भी उस पल का, उस लम्हे का, उस ठुमक का और उस रात की रानी के महकने का इंतज़ार कर रहे हैं।
p.s. - मुझे भी कुछ इंतज़ार है। ताजा जानकारी मिलने तक आने वाली तीस फ़रवरी को दोनों विवाहसूत्र में बंधने वाले हैं, मैं भी निमंत्रण-पत्र का इंतज़ार कर रहा हूँ। मैं गया तो आप सब भी चलेंगे ही। वैसे भी अब तो सब को खुश होना चाहिये कि हैप्पी एंडिंग दे दी है कहानी को:) छवि खराब हो तो सुधारने के लिये कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, पत्थर रखने पड़ते हैं दिल पर। तो आप भी फ़िलहाल इंतज़ार कीजिये, इस ब्ल्यू लाईन का अपनी पटरी पर लौटने का, हैंगओवर है लेकिन जल्दी ही खत्म हो जायेगा। हा हा हा
नाहक सा एक ख्याल आया था दिमाग में, कि प्यार का मासूम रुख भी होता था कभी। लिख देखें, शायद आज के दिखावटी दौर में भी ये अंदाज पसंद आ जाये, और लिखना शुरू किया तो खुद को भी अच्छा लगा और आपके कमेंट्स से मान लेता हूँ सीधी सादी कहानी भी पसंद आ सकती है। अब लिखा है तो झेले कौन? हैं न आप सब, झेलो और झेलो...:))