रविवार, दिसंबर 22, 2013

खम्म दा कां ..

नौकरी के सिलसिले में पहली बार अनजान शहर में जा रहा था तो पिताजी ने एक नाम बताया और कहा कि वहाँ जाकर उनसे संपर्क करना, बहुत बड़ी शख्सियत हैं और उनसे संपर्क रखने से नई जगह पर बहुत सहारा मिलेगा। एक तो उस समय हम खुद को हिमालय से ऊंचा और सागर से गहरा समझते थे और दूसरा हमें अपना कुँआ छोड़कर बाहर की दुनिया देखने की जल्दबाजी थी तो चुपचाप मुंडी हिलाकर और बिना बहस किये निकल लिये। नई जगह, नई नौकरी, नये दोस्तों की चकाचौंध में हम ऐसे मगन हुये कि पिताजी के बताये नाम के बारे में किसी से पूछा भी नहीं। 

पन्द्रह-बीस दिन में घर आना होता तो पिताजी ने एक-दो बार उस बारे में पूछा भी लेकिन हम टाल गये, वो समझ गये। कई मौसम बदल गये, उस नाम की हस्ती के पते के बारे में मैंने किसी से पूछा नहीं और खुद से कोई बताता भी क्यों लेकिन मन में एक फ़ांस रह गई कि पिताजी ने कुछ कहा और मैंने किया नहीं। स्वयं ही अपने आप से सवाल-जवाब करता रहता कि पिताजी ने कोई आदेश तो दिया नहीं था, सरसरी तौर पर कहा था। फ़िर उन्होंने अपने लिये तो कुछ मांगा नहीं था, मेरे हित के बारे में सोचकर ही कहा था तो मैं तो यहाँ आकर मस्त हूँ ही फ़िर अगर इस काम में लापरवाही हो भी गई तो कोई बड़ी बात तो नहीं। एक बड़ी वजह और भी थी जो किसी से कह नहीं सकता था, माना कि पिताजी की दृष्टि में जो बहुत बड़ी शख्सियत है, उस अनजान शहर में हो सकता है कि उनसे कोई परिचित न हो। मैं किसी से पूछूँ और जवाब में सुनने को मिले कि हम तो नहीं जानते इस नाम वाले सज्जन को और फ़िर पिताजी तक ये बात पहुँचे तो उन्हें ठेस पहुँचेगी। इससे बेहतर तो यही है कि खुद लापरवाह बने रहो। जिंदगी मस्त गुजर रही थी, जंगल में मंगल हो रहा था जिसके सच्चे-झूठे  किस्से इस ब्लॉग पर शुरू में बहुत सुनाये गये थे और अब भी बीच बीच में जिक्र चलता ही रहता है। 

एक बार ऐसा हुआ कि यही दिसंबर या जनवरी के दिन थे और शाम के समय मैं अकेला ही(अपवादस्वरूप ही) टहलता हुआ शहर के बाहरी हिस्से तक पहुँच गया। जब सब साथ होते थे तो हम शहर में ही घूमते थे लेकिन अकेला था तो आज उधर निकल पड़ा जिधर सब नहीं जाते थे।  अंधेरा घिर आया था और सड़क पर कोई रोशनी भी नहीं थी, सोचा कि वापिस चला जाये। फ़िर पता नहीं क्यूँ मन ही मन फ़ैसला किया कि आगे सड़क जहाँ मुड़ रही है, वहाँ तक जाकर लौटूँगा। मैं चलता रहा, जब उस मोड़ के पास पहुँचा तो पीछे से एक ट्रक आया। मैं सड़क से हटकर साईड में खड़ा हो गया। ट्रक मोड़ से मुड़कर आगे चला गया और मैं सिर्फ़ एक पल के लिये वहीं ठिठककर रह गया। मुड़ते समय ट्रक की हेडलाईट की रोशनी एक पल के लिये सड़क किनारे लगे एक बोर्ड पर से होकर गुजरी थी और उस बोर्ड पर वही नाम लिखा था जो पिताजी ने मुझे बताया था। अगली बार घर लौटा तो पिताजी को सारी बात बताई और बिना कुछ खास किये भी वाहवाही पाई, बिल्कुल वैसे ही जैसे कई बार बिना कुछ खास किये ऐसी-तैसी भी करवाई है।

ब्लॉग लिखने के शुरुआती समय की ही बात है, अंदाजन साढ़े तीन साल पहले एक पोस्ट लिखी थी। कुछ दिन पहले किसी मित्र से बात हो रही थी तो ढूँढते-ढूँढते उस पोस्ट तक पहुँचा। गया किसी और सन्दर्भ में था लेकिन वहाँ जाकर ठीक वैसे ही ठिठक गया जैसे उस ट्रक की हेडलाईट की रोशनी पड़ते बोर्ड को देखकर ठिठका था। मसाला फ़िल्म की तरह मसाला पोस्ट बनाने के चक्कर में फ़त्तू का आईटम नंबर पोस्ट में जोड़ देता था तो उस पोस्ट में आईटम नंबर में एक जगह का नाम इस्तेमाल किया था। उस जगह से न अपना कोई वास्ता था न अपने दादा-परदादा का। न कोई मित्र-मित्राणी वहाँ से थे न कोई व्यापारिक या आधिकारिक संबंध। सिर्फ़ आईटम नंबर में दूरी, समय के हिसाब से वो स्थान वहाँ फ़िट होता था और हमने वही कर दिया था। अभी से एक साल पहले तक उस स्थान में हमारे बैंक की जो शाखा थी वो किसी दूसरे प्रशासनिक कार्यालय के अधीन थी। एक साल पहले ही वह शाखा इसी प्रशासनिक कार्यालय के अधीन आई और चारेक महीने पहले एकदम अप्रत्याशित रूप से हम भी उस जगह पर पदस्थापित हो गये। 

अब अपने से अलावा लेकिन अपने ही दो स्टाफ़ सदस्यों की बात। एक स्टाफ़ सदस्य प्रोमोशन पर अक्टूबर में मेरी शाखा में आये तो उन्होंने बताया कि वो अपने पूर्वपरिचित (एक और) संजय जी की ब्रांच में जाना चाहते थे। मैंने हँसकर इसे संयोग ही बताया कि आपको साथ में काम करने के लिये ’संजय’ तो मिल गये लेकिन मनचाहे वाले नहीं बल्कि अनचाहे वाले। एक दूसरे स्टाफ़ सदस्य उन्हें किसी ’संजय’ से मतलब नहीं था बल्कि उन्हें अपनी पोस्टिंग इस स्थान विशेष पर चाहिये थी लेकिन उन्हें मिली दूसरी ब्रांच, जहाँ वही दूसरे वाले ’संजय जी’ हैं। सबके सामूहिक प्रयास से और प्रबंधन की सदाशयता के चलते पिछले सप्ताह दोनों स्टाफ़ सदस्यों का स्थानांतरण कर दिया गया। जिन्हें अपने वाले ’संजय’ चाहिये थे वो ’संजयजी’ के पास और जिन्हें व्यक्तिविशेष से काम नहीं था बल्कि स्थानविशेष से मतलब था, वो अपनी पसंद की जगह पर। मतलब हुण ऑल इज़ वैल :)

ये नमूने हैं कुछ उन बातों और घटनाओं के जिन्हें हम संयोग मानते हैं।  उस रात मेरा अकेले घूमने जाना, अंधेरा घिरने के बावजूद एक पल के लिये बोर्ड पर हेडलाईट की रोशनी पड़ना वगैरह वगैरह, जितना महीन सोचते जायेंगे उतने ही छोर मिलते-छूटते जायेंगे। अब से चार साल पहले किसी अनजान सी जगह का नाम अनायास ही लिख देना और फ़िर कालक्रम में चाहे अनचाहे उसी जगह पहुँच जाना, सब संयोग है या पहले से लिखे किसी घटनाक्रम के अग्रिम संकेत। ज्ञानियों के पास हर सवाल के जवाब होते हैं लेकिन हमारे पास तो  सवाल ही हैं। हम इस ब्रह्मांड के सबसी शक्तिशाली जीव हैं या पहले से लिखी किसी पटकथा के अदना से किरदार? या फ़िर दोनों, बहुतों से शक्तिशाली लेकिन किसी के हाथों विवश, क्या हैं हम?

आप सवाल कर सकते हैं कि पोस्ट-शीर्षक से इसका क्या लेना देना तो इस सवाल का जवाब है मेरे पास। वो क्या है कि हमने सोचा है कि थोड़ा सा भाषा-ज्ञान आपसे साझा कर लेते हैं। कल को आप ये न कहें कि खाली-पीली टाईम खोटी करवाता रहता है।  शीर्षक वाक्य असल में पंजाबी की एक कहावत है। जब हम छोटे थे तो कभी कभार माँ-पिताजी की नोक-झोंक में पिताजी यह वाक्य कहा करते - ’खम्म दा कां बनाना’ - मैं ठेठ पंजाबी नहीं समझता था। खम्म का मतलब नहीं समझ आता था, इसका हिंदी अनुवाद करता तो बनता - खम्भे का कौआ बनाना। लेकिन बात जमती नहीं थी, अभी कुछ दिन पहले पिताजी से इसका मतलब पूछा तो उन्होंने समझाया कि  ’खम्म’ का मतलब है पंख। कहीं पर किसी चिड़िया का पंख देखकर कोई दूसरे को बतायेगा कि वहाँ किसी पखेरू का पंख पड़ा था। तीसरे तक जाते-जाते वो पंख कौए का हो जायेगा और आगे बढ़ते-बढ़ते बताने वाला बतायेगा कि उसने खुद वहाँ बड़े से काले कौए को देखा था। तो इसका सरलार्थ हुआ कि छोटी सी बात को बढ़ा-चढ़ाकर बताना। 

अब अपने जीवन से संबंधित एक दो घटनाओं पर हमारे गंभीरता से सोचने को आप बात का बतंगड़ बनाने, राई का पहाड़ बनाने, झूठे सच्चे किस्से सुनाने की जगह ठेठ पंजाबी में ’खम्मा दा कां बनाना’ भी कह सकते हैं।  आगे किसी पोस्ट में आप को हमारे एक और तकियाकलाम ’होर वड़ो’ का भी अर्थ सोदाहरण समझाया जायेगा।

डिस्क्लेमर - इस पोस्ट में कई जगह ’आप’ शब्द लिखा गया है, इसका अरविंद केजरीवाल जी की राजनीतिक पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है।


चंद नमूना-ए-झूठे-सच्चे किस्से :)

एक

दो

तीन

चार

पाँच

छह

सात

आठ




गुरुवार, दिसंबर 12, 2013

द आयरन मैन - The Iron Man

ससुराल जाने का चाव सबको होता है बेशक घूम घूम कर और झूम झूम कर गा लें कि ’मैं ससुराल नहीं जाऊँगी, डोली रख दो कहारो।’  पहली बार ससुराल जाने का अवसर आया तो हमारे फ़त्तू को भी पूरा चाव था। सज धज कर मन में भावी सेवा टहल के ख्याल लिये जनाब ससुराल पहुँच गये। पुरजोर मौखिक स्वागत हुआ। भोजन का समय हुआ और जिज्जाजी जीमने के लिये तैयार हुये तो साली ने बथुए की रोटी पेश की। 

फ़त्तू को धीरे से झटका लगा, पूछा, "बथुए की रोटी?’

साली चहकी, "जिज्जाजी, बथुए में घणा आयरन होय सै।"फ़त्तू आयरन की गोली समझकर जीमने लगा। रात में रोटी तो सादी थी लेकिन साथ में सब्जी जरूर बथुए की थी।

जिज्जाजी के हावभाव देखकर साली ने फ़िर कहा, "जिज्जाजी, बथुए में घणा आयरन होय सै।" फ़त्तू ने वो आयरण सप्लीमेंट भी पेट के हवाले किया। अगले दिन सुबह बथुए के परांठे और दोपहर में रोटी के साथ बथुए का रायता - फ़त्तू ने कुछ कहने के लिये मुँह खोला और जवाब में साली ने फ़िर बथुए में घणा आयरन होने का पुराण खोला।  

फ़त्तू तसल्ली से उसकी बात सुनकर बोला, "बथुए में आयरन की तो मैं जाणूं सूँ पर चार चार बेर बथुआ प्रोडक्ट बनाके खिलाने की तकलीफ़ क्यों करते हो? थारे घर में कोई तीन-चार फ़ुट का आयरन-रॉड रखा हो तो सीधे ही झंझट निबटाओ न, खामेख्वाह बथुए की ऐसी तैसी करण में जुट रहे हो।"



कुर्सी के लिये छीना-झपटी, क्रय-विक्रय, जोड़-तोड़ देखने के अभ्यस्त हम दिल्ली वाले राजनैतिक पार्टियों के बदले अंदाज को देखकर फ़त्तू बने हुये हैं। जिसे देखो वही कह रहा है कि हम सरकार नहीं बनायेंगे और प्रकट यह कर रहे हैं कि इससे भला जनता का होना है।  दिल कर रहा है कि फ़त्तू की तरह कह दूँ ’साली’ पार्टियों से कि लोकतंत्र का जो आयरन सप्लीमेंट हमें देना है वो सीधे तरीके से एक ही बार दे दो न, खामेख्वाह बथुए की ऐसी तैसी करण में जुट रहे हो:)

रविवार, नवंबर 24, 2013

हिन्द की चादर

कश्मीर से चलकर आये उन ब्राह्मणों की व्यथा-कथा सुनकर सबके दिल उदास हो रहे थे और आँखें गीली।  क्या विडंबना थी कि स्वर्ग जैसी जन्मभूमि में सुख,शान्ति और समृद्धि से जीवन व्यतीत कर रही एक भूभाग की  जनता इस बात के लिये विवश थी कि या तो अपना धर्म छोड़कर दूसरा धर्म अपनाये नहीं तो हर तरह के जुल्म सहे। त्रस्त होकर उन लोगों को आशा की एक किरण यहीं दिखी थी तो कश्मीरी ब्राह्मणों का एक प्रतिनिधिमंडल सहायता की पुकार लगाने गुरू श्री तेगबहादुर जी के समक्ष प्रस्तुत हुआ था। उपस्थित समूह में सन्नाटा छाया हुआ था। सत्तासीन को निरंकुशता के साथ मजहबी कट्टरपन की सनक सवार हो जाना शेर के मुँह खून लगने से भी खराब होता है, शेर तो सिर्फ़ क्षुधापूर्ति के लिये दूसरों की जान लेता है।

धरती ऊपर से शांत दिखती है लेकिन उसके गर्भ में क्या कुछ चल रहा है, ये हमेशा दिखता नहीं है। जहाँ गुरू साहब विराजमान थे, उसी गद्दी के पास खड़े उनके नौ वर्ष की वय के सुपुत्र बाला प्रीतम(गुरू गोविंद सिंह) ने सबकी उदासी का कारण पूछा। कारण बताये जाने पर उस तेजपुंज ने इसका उपाय पूछा।  पहले से ही आतंकित और त्रस्त नागरिकों के टूट चुके मनोबल को झकझोरने का उपाय क्या हो सकता है? 

विचारमग्न गुरू श्री तेग बहादुर जी ने कहा, "अब किसी महापुरुष को बलिदान के लिये सामने आना होगा।"

बाला प्रीतम ने छूटते ही कहा, "पिताजी, आज के समय में आप से बड़ा महापुरुष कौन है?"

वहीं निर्णय हो गया। गुरू तेग बहादुर जी ने प्रतिनिधिमंडल से दिल्ली के शहंशाह को कहलवा भेजा कि अगर वो गुरू तेग बहादुर जी को इस्लाम स्वीकारने के लिये तैयार कर ले तो सब लोग इस्लाम स्वीकार कर लेंगे अन्यथा नहीं। संदेश दिल्ली पहुँच गया और स्वयं गुरू तेगबहादुर भी अपने कुछ शिष्यों के साथ दिल्ली को रवाना हुये।

औरंगज़ेब के द्वारा इस्लाम स्वीकार किये जाने की बात पर गुरू साहब ने ऐसा करने से स्पष्ट मना कर दिया बल्कि निर्भीकता से उसे कहा कि तुम खुद भी सच्चे मुसलमान नहीं हो जो अत्याचार के द्वारा दूसरों को अपना धर्म छोड़ने के लिये मजबूर करते हो। चमत्कार दिखाने की शर्त से लेकर, लालच और फ़िर कैद का भय दिखाकर भी औरंगज़ेब के मंसूबे पूरे होते नहीं दिखे तो उसने जल्लादों को गुरू तेगबहादुर जी का शीश उतारने का हुक्म दे दिया।

"भै का कऊ देत नहिं, नहिं भै मानत आनि" उचारने वाले भला सिद्धांतों के लिये बलिदान देने से पीछे हटते? वैचारिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मिसाल पेश करते हुये गुरू तेगबहादुर जी  ने हँसते-हँसते अपना बलिदान दे दिया, शीश दिया पर अपना धर्म नहीं दिया।

चाँदनी-चौक, दिल्ली में जिस जगह पर गुरू साहब का शीश उतारा गया, आज वहाँ गुरूद्वारा शीशगंज साहिब है जो हम सबकी श्रद्धा और आस्था का केंद्र है। यह हमें याद दिलाता रहेगा कि भविष्य उन्हीं कौमों का सुरक्षित रहेगा  जिनके पास बलिदान की विरासत है।

’हिन्द की चादर’ श्री गुरू तेगबहादुर जी के चरणों में बारंबार नमन।

संबंधित लिंक - गुरू तेग बहादुर सिमरिए 


रविवार, नवंबर 17, 2013

तटस्थता का झंझट

हमारे पापा के एक दोस्त हैं, सहकर्मी रहे हैं और अब दोनों ही सेवानिवृत्त हो चुके हैं। सही मायने में अपने को जो थोड़ा बहुत पढ़ने का शौक हुआ, इन्हीं अंकल की बदौलत हुआ। असल में उनकी पोस्टिंग मेरे स्कूल के पास थी और कभी पापा का कोई संदेश पँहुचाने के लिये और कभी-कभार अपने किसी काम से उनके ऑफ़िस में जाना पड़ता था। परिवार इसी शहर में रहते हुये भी एक तरह से मेरे लोकल गार्जियन का कर्तव्य इन्हीं अंकल ने निभाया।

अंकल एकदम शरीफ़ टाईप के लेकिन हर मर्ज की दवा रहे, निस्सवार्थ और निस्संकोच स्वभाव उनके चरित्र का यू.एस.पी. है। हर विभाग में उनके परिचित निकल आते थे और किसी का भी कोई काम हो तो वो निस्संकोच अपने सिर ले लिया करते थे। किसी अस्पताल में किसी और के काम से गये तो बातों-बातों में पता चलता कि अब उन्हें बिजली दफ़्तर में जाना है और अस्पताल वाले परिचित का कोई काम उस बिजली विभाग से निकल आता। वहाँ जाकर अपने काम करवाये तो पता चला कि बिजली विभाग वाले को बैंक में चेक जमा करवाने या ऐसे ही किसी काम से जाना है तो अगला पड़ाव बैंक होता था और महीने-दो महीने में एकाध बार हम भी उनके साथ संलग्नक बनकर घूमते रहते थे। यूँ समझिये कि रोज का एकाध घंटा उनका इसी सेवाकार्य में गुजरता था। ऐसे ही एकबार किसी की किताबें लौटाने लाईब्रेरी गये तो मैं साथ था और फ़िर मेरे यह पूछने पर कि क्या मैं भी इसका सदस्य बन सकता हूँ, उन्होंने उसी समय मेरा लाईब्रेरी कार्ड बनवा दिया।

अंकल का सादा स्वभाव मुझे बहुत पसंद आता था। एक बार मुझसे पूछने लगे, "किताबें तो पढ़ता है कभी नाटक-वाटक भी देखे हैं अंग्रेजी वाले?"  मैं  भी कौन सा कम सादा था, कह दिया कि देख तो लूँ लेकिन अंग्रेजी के संवाद समझ  नहीं आयेंगे। कहने लगे कि समझने की कोई जरूरत नहीं होती, जब सब ताली बजायें तो ताली बजा दो, जब सब हँसें तो हँस दो। आज्ञा शिरोधार्य करते हुये इसी अंदाज में एकाध नाटक देखा भी, अंकल अपने को आज भी पसंद हैं लेकिन वो आईडिया अपने को उस समय ज्यादा पसंद नहीं आया। फ़िर हमने न देखे अंग्रेजी के नाटक-फ़ाटक। मन में यही सोचा कि इस तरह से अंग्रेजी नाटक देखने से तो सप्रू हाऊस के पंजाबी नाटक देखना ज्यादा बढ़िया रहेगा, कम से कम कुछ पल्ले तो पड़ेगा।

पिछले कुछ दिन से या तो बदली हुई दिनचर्या का असर है या कुछ और बात, अंकल की कही बात थोड़ी-थोड़ी पसंद आने लगी है।  ताजा हालात से अपडेट नहीं रह पाता, हो-हल्ला सुनकर रहा भी नहीं जाता और पूरी जानकारी न होने के चक्कर में कुछ कहा भी नहीं जाता। एक तो जब तक कोई बात समझ आती है, तब तक नई ब्रेकिंग न्यूज़ आ चुकी होती है। इत्ते मामले हो गये, हमने कुछ प्रतिक्रिया ही नहीं दी। आसाराम जी का मामला, खजाने का मामला, मोदी का मामला, राहुल का मामला, नीतिश जी का मामला, और अब सचिन का मामला -  गरज ये कि अपना हाल ऐसा हुआ पड़ा है कि एक चीज की मीमांसा करने की सोचते हैं, तब तक भाई लोग नया हो-हुल्लड़ शुरू कर देते हैं। अबे मिलजुलकर सरकार बना सकते हो, मिलजुलकर घोटाले कर सकते हो, दूसरे उल्टे सीधे काम कर सकते हो मिलजुलकर लेकिन ये नहीं हो सकता कि नया मामला खड़ा करने में मिलजुलकर और आम सहमति से काम ले लो। एक ने कुछ कहा या किया तो तुमसे इतना सब्र नहीं होता कि कम से कम एक हफ़्ता तो इंतजार कर लो? तुम्हारा तो ये फ़ुल्ल टाईम धंधा है लेकिन हम जैसों को तो दो टकेयां दी नौकरी भी देखनी होती है और दूसरी तरह की दुनियादारी भी। वैसे तो हम प्रतिक्रिया न भी दें तो चलेगा, प्रतिक्रियावादियों की कमी तो है नहीं लेकिन कवि लोग जो कह गये हैं कि तटस्थ रहने वाले भी पाप के भागी हैं तो हम चुप कैसे रहें भला? ’जबरा मारे और रोने भी न दे’ वाली बात कर रखी है मुझ जैसे गरीबों के साथ।

हारकर हमने फ़ैसला किया कि अंकल की बात पर अब अमल करेंगे, सब ताली बजायेंगे तो हम भी ताली बजा देंगे और जब दूसरे हँसेंगे तो हम भी हँस देंगे ताकि कम से कम तटस्थ तो न समझे जायें। लेकिन इन धुरंधरों से हमारे साथी ही कौन सा कम हैं? इन मित्रों से अच्छे तो वो दर्शक हैं जो एक दूसरे को देखकर ताली बजाते हैं या हँसते हैं। तुम तो फ़टाफ़ट से हर बात में भारत-पाकिस्तान बना लेते हो। मोदी ने कुछ कह दिया तो समर्थक उसे ही जस्टीफ़ाई करने में लग जायेंगे और विरोधी आरोप लगाने लगेंगे। और अगर राहुल ने कुछ कह दिया तो फ़िर वही करम, आमने-सामने। बात न देखी जायेगी, अपनी प्रतिक्रिया इससे प्रभावित होगी कि बात कही किसने है।

मुजफ़्फ़रनगर दंगों के बाद राहुल के भाषण को लेकर अच्छा खासा बवाल उठ खड़ा हुआ। जहाँ तक मेरी जानकारी है, राहुल ने कहा था कि इन दंगों के बाद आई.एस.आई. कुछ मुस्लिम युवाओं के संपर्क में है। जब तक हम इस बात के लिये तैयार हुये कि चलो भाई ने कोई तो समझदारी की बात की। अब थोड़ी वाहवाही कर ली जाये, तब तक पता चला कि इस बात पर चुनाव आयोग में शिकायत भी हो गई और नेताओं ने राहुल से स्पष्टीकरण भी माँग लिया कि या तो आप उन युवाओं के नाम बताईये या फ़िर मुस्लिम समुदाय से माफ़ी मांगिये। ले भाई संजय कुमार, दे ले प्रतिक्रिया। हम फ़िर से तटस्थ हो गये लेकिन एक बात नहीं समझ आई कि किस बात की माफ़ी मांगी जाये साहब?  इस व्यक्तव्य से पूरे मुस्लिम समुदाय का अपमान कैसे हो गया? आपकी ये माँग किसे क्लीनचिट दे रही है?

उधर पटना भाषण, जोकि मेरे विचार में मोदी के सबसे हल्के भाषणों में से एक था से अपना भी फ़्यूज़ उड़ा हुआ था कि सामने वालों ने उससे भी तगड़ी बातें करनी शुरू कर दीं। सरदारजी ने ज्ञान बघारा कि भाजपा है जो इतिहास और भूगोल बदलती है। सत्वचन महाराज, तुस्सी सच में ग्रेट हो। सब टीवी  पर आने वाले हमारे परिवार के पसंदीदा सीरियल ’तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ का वो सीन याद आ गया जब दया भाभी एक काकरोच को देखकर चीखती है ’कारकोच-कारकोच’ और उसका पति जेठालाल उसकी गलती पर उसे डाँटता है कि पगली इसे कारकोच नहीं कहते। दया के सकुचाकर पूछने पर कि फ़िर इसे क्या कहते हैं, इतराते हुये जेठालाल बताता है, "इसे कहते हैं, ’काचरोच’"

हँसी-मजाक की बात एक तरफ़, लेकिन गंभीरता से इस बात पर क्या हमें नहीं सोचना चाहिये कि ये आरोप-प्रत्यारोप सिर्फ़ सत्ता के लिये लगा रहे हैं और इनके भी कुछ दुष्परिणाम हो सकते हैं?

ऐसा भी हो सकता है कि  मैं इन बातों को संपूर्णता में न समझ पा रहा होऊँ।  अगर ऐसा है तो फ़िर अंकल की बात पल्ले बांध लेने में कोई बुराई नहीं कि सब जैसा करें, वही किया जाये और काकरोच को कारकोच नहीं बल्कि काचरोच कहा जाये :)

रविवार, अक्तूबर 20, 2013

an idea can change a lot

उस दिन कोई सार्वजनिक अवकाश था लेकिन बैंक की शाखायें खुली रखने का सर्कुलर भी आ चुका था, शायद टैक्स भुगतान की आखिरी तारीख जैसा मामला था।  सुरक्षा जैसे मुद्दों पर सरकार चाहे कैसा भी समझौता कर ले लेकिन जब पुरखे ’सर्वेगुणा: कांचनमाश्रयंति’ जैसी भविष्यवाणी कर गये हों तो चाहे उनका मान रखने की बात रही हो या फ़िर डूबती अर्थव्यवस्था को कांधा लगाने के लिये यह मजबूरी हो जाती हो, सरकार ऐसे अवसर पर गन्ने का रस निकालने वालों की तरह व्यवहार करती दिखती है। अर्जुन को मछली की आँख दिखती थी, इन अर्जुनों को रस की  आखिरी बूँद दिखती है।  जिस तरह वो  गन्ने को पहले सीधा मशीन में डालता है, उस पार से निकलते कुचले गये गन्ने को दोहरा करके फ़िर मशीन में पेरता है और गन्ने की तह हर बार मुड़ती- बढ़ती जाती है। हम जैसे कुछ भुक्तभोगी सार्वजनिक अवकाश की ऐसी-तैसी होते देखकर करदाताओं के साथ खुद को भी उस मूक गन्ने की तरह ही मानकर रसवान से रसहीन की गति को प्राप्त होते महसूस करते हैं।

और दिनों में तो अक्सर मौका मिलता नहीं, उस दिन संस्था की आंतरिक mail system में इनबाक्स को तसल्ली से देखने का मौका मिल गया। महीनों पुराना एक मैसेज दिखा जिसमें विषय था - ’अपील - स्टाफ़ श्री ............ के बारे में।’   नाम देखते ही ध्यान आया कि हम एक ही बैच के थे। वैसे तो हम बहत्तर प्रतिभागी थे और एक सप्ताह साथ रहने के बाद सब इधर उधर बिखर गये थे और दोबारा मिलना भी नहीं हुआ लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं जो किसी न किसी वजह से दो दशक के बाद याद रह गये थे, यह भी एक ऐसा ही नाम था। अपील पढ़ी तो काफ़ी कुछ पता चला। कैरियर पथ पर भी कमोबेश आसपास ही चल रहा वो साथी उस संदेश के अनुसार एक गंभीर बीमारी से जूझ रहा था और उसकी आर्थिक सहायता के लिये ही ये अपील की गई थी। सब कुछ केन्द्रीयकृत होने के चलते उस संदेश में दिये गये खाते को चैक किया तो मालूम चला कि वो खाता तीन चार महीने पहले ही बंद हो चुका था। स्पष्ट हो गया कि वो साथी अब जा चुके। इस घटना की चर्चा साथियों से की तो लगभग हमेशा की तरह मिश्रित प्रतिक्रियायें मिली। परिचितों में कुछ ऐसे होते हैं जो आपके हर फ़ैसले में और हर राय में आपके साथ होंगे, कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें हमेशा विरोधी राय रखनी होती है और कुछ ’जैसी बहे बयार...’ टाईप के होते हैं। बहरहाल जिन मित्र के बारे में अपील थी, वो जा चुके थे तो बात भी आई गई हो गई वैसे भी किसी के आने या जाने से सबकी दुनिया पर फ़र्क नहीं पड़ता।

बीच में कभी-कभार अकेला होता तो मैं कई पहलुओं पर आकलन करता रहता कि उस दोस्त ने अपनी बीस साल के आसपास की नौकरी में कितनों से परिचय किया होगा, उनमें से कितनों को यह जानकारी मिली होगी, उनमें से कितनों ने इस बारे में कुछ सोचा होगा, उनमें से भी कितने अपनी खुद की परेशानियों के बीच अपने सोचे हुये पर  अमल कर पाये होंगे वगैरह-वगैरह। मेरा समवयस्क ही था तो उसके परिवार की स्थिति के बारे में अंदाजा लगाने में बहुत नहीं सोचना पड़ा। कुछ समय के लिये मन में एक कसक सी जरूर रह गई। यह कसक इसलिये और भी ज्यादा थी कि बहुत पहले से, जबसे ग्रुप इंश्योरेंस कंसेप्ट के बारे में पहली बार जाना था, एक अनगढ़ सा विचार अपने दिमाग में आता रहा था।  कुछ मित्र ऐसा एक फ़ंड खुद शुरू करें जिसमें एक छोटी सी राशि नियमित रूप से डालते रहें और किसी दुर्घटना या आपद्स्थिति में यह फ़ंड एक कुशन का काम करे लेकिन शायद विचार का बीज कमजोर था या फ़िर ऐसे ही उद्देश्यों को लेकर शुरू हुये कुछ प्रोजेक्ट्स की विफ़लता की जानकारी(अधिकतर मामलों में कर्ताधर्ताओं की नीयत पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे) इसकी वजह थी कि बीज एक वृक्ष का रूप नहीं ले पाया। निष्कर्ष वही कि बात आई-गई हो गई।

अब बात ज्यादा पुरानी नहीं, पिछले महीने की। शायद दस तारीख के आसपास की बात है, मेरे एक युवा साथी ने मुझसे पूछा, "सर, ये डेथ रिलीफ़ फ़ंड क्या होता है?" इस महीने की पे-स्लिप में बीस रुपये की नई कटौती इस नाम से दिख रही है।" मेरे जवाब देने से पहले ही स्टाफ़ सदस्यों में अपनी पे-स्लिप देखने की  होड़ मच गई। अपन ’पता-नहीं’  कहने से बच गये :)   वेतन की तारीख आते-आते ’डेथ रिलीफ़ फ़ंड’ जी कभी दिखते, कभी गायब होते रहे। फ़ाईनल पे-स्लिप में सभी स्टाफ़ सदस्यों के वेतन से एक सौ दस रुपये ’डेथ रिलीफ़ फ़ंड’ में कटे पाये गये। इस बार  "सर, ये डेथ रिलीफ़ फ़ंड क्या होता है?" एक व्यक्तिगत प्रश्न न होकर सामूहिक प्रश्न बनकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ। "पहले बीस रुपये दिखा रहा था, महीना खत्म होते-होते एक सौ दस रुपये हो गये" यह एक के साथ दूसरा फ़्री वाला प्रश्न था।

अब अंधा अंधे को क्या रास्ता दिखायेगा?  ऐसे में संबल दिया पिछली डेली-पैसंजरी के एक साथी के तकिया कलाम ने। हम ताश खेलते थे, वो दर्शक दीर्घा में होता था। वो कहानी फ़िर कभी, लेकिन जब खिलाड़ी-दर्शकों में से लगभग हर आदमी अपना सपोर्टर होता था और इशारेबाजी करता रहता था तो विरोधी को चिढ़ाने के लिये वो हमेशा कहा करता था कि संजय भाई साहब के बंदे हर विभाग में हैं। अचानक ही वो बात याद आई और मैंने खुद को अकेला नहीं पाया। ध्यान आये वो सब पुराने दोस्त जो बेशक अब दूर दूर हैं लेकिन संपर्क में हैं, याद आये वो नये-नये प्रोबेशनरी ओफ़िसर्स जिनसे कभी किसी ट्रेनिंग या सेमिनार में हल्का-फ़ुल्का परिचय होता और फ़िर किसी ऐसी ही जगह अचानक वो आकर टोक देते हैं,  "सर, पहचाना?" मैं जब तक दिमाग दौड़ाऊँ तब तक वो कोई ऐसी बात याद दिला देते कि सर वहाँ भोपाल मे आपने वो अनुभव हम सबके साथ शेयर किया था। दिमाग में बिजली की तरह नाम कौंध जाता था, "भास्कर?" गले लगा लेता हूँ। या फ़िर कभी लोकेश फ़ोन पर बताता है कि मेरी  पोस्ट पढ़ते रहते हैं तो खुशी तो होती है कि दूरी बेशक हो लेकिन कुछ लोग भूलते नहीं हैं। 

अब इसी बात का एक विस्तार ये है कि उम्र और नौकरी के उस पड़ाव पर हूँ कि नई पीढ़ी और पिछली पीढ़ी नदी के दो तीर की तरह हैं और हम जैसे लोग  या तो नदी का पानी हैं या फ़िर पुल। सीनियर लोगों के पास इतराने के लिये उनका अनुभव है और नये लोगों के पास तकनीक। सीनियर पीढ़ी किसी तकनीकी झमेले में उलझते हैं तो अपन अपनी अक्षमता बखूबी जाहिर करके किसी नये वाले का फ़ोन नंबर टिका देते हैं और बता देते हैं कि हमारा रेफ़रेंस दे दीजियेगा और ऐसा ही काम जरूरत पड़ने पर नई पीढ़ी वालों के साथ करते हैं। दोनों का काम हो जाता है, अपनी वाहवाही हो जाती है। इसे मार्केटिंग वाले ’माल मालिकों का, मशहूरी कंपनी की’ भी कहते हैं।  रेफ़रेंस वाली जरूरत भी इसलिये पड़ती है कि मैंने पाया है प्राय: दोनों पीढ़ियों में एक दूसरे के साथ कम्पैटिबिलिटी डेवलपमेंट जितना होना चाहिये, उतना नहीं है। एक कॉमनमैन होने से(बेशक वो कॉनमैन ही क्यों न हो:)) दोनों आपस में एक दूसरे पर सहजता से विश्वास कर लेते हैं कि कुछ गड़बड़ हुई तो कान पकड़ने के लिये संजय महाराज तो हैं ही। खैर, इस कहानी का इतना सा मंतव्य है कि ’डेथ रिलीफ़ फ़ंड’ वाले सवाल का जवाब देने के लिये फ़िर नदी के दोनों किनारों को कुछ फ़ोन करने पड़े। सूत्र आधिकारिक नहीं थे लेकिन जो और जितना मालूम चला, उसे ही सच मानते हुये आपके साथ भी साझा कर लेता हूँ।

मान लीजिये मेरी संस्था में लगभग 40000(चालीस हजार) कर्मचारी हैं। यह तय किया जाता है कि पिछले महीने में जितने कर्मचारियों की मृत्यु होती है, हर कर्मचारी के वेतन से दस रुपये प्रति मृत कर्मचारी की दर से कटौती की जायेगी। इस प्रकार प्रत्येक मृत कर्मचारी के परिवार के लिये लगभग  चार लाख रुपये (40000 X 10 = 400000) की सहायता राशि एकत्रित हो जायेगी। यह राशि आकस्मिक मृत्यु के दौरान संस्था द्वारा दी जाने वाली अन्य सहायताओं के अतिरिक्त होगी। जाने वाले की कमी पैसे से पूरी नहीं हो सकती लेकिन जीवन की मझधार में रह गये उसके परिवार के लिये यह राशि एक अतिरिक्त सहारा तो बन ही सकती है। दूसरी तरफ़ अंशदान देने वाले कर्मचारी का अंशदान इतना ज्यादा भी नहीं कि उसका खुद का बजट प्रभावित हो और ऐसा इसलिये हुआ कि इस जिम्मेदारी को कुछ चुनिंदा लोगों तक सीमित न रखकर सामूहिक रूप से सबने बाँटा(वैसे तो बँटवाया गया कहना ज्यादा उचित है क्योंकि विकल्प मांगे जाते तो इसमें भी मीनमेख निकालने वालों की कमी नहीं होती)। मुझे इस योजना में फ़िलहाल कोई खोट नहीं दिखा, ब्रांच के मित्रों को जब इसके बारे में विस्तार से बताया तो वो सब भी संतुष्ट दिखे लेकिन इस सूचना के अनुसार एक महीने में ग्यारह लोग वाली बात से कुछ आशंकित भी। 

जीवन है तो ये सब तो चलता ही रहेगा लेकिन ऐसी कुछ घटनायें विश्वास बढ़ाती हैं कि अभी सब कुछ चुका नहीं है।  मुझे तो पहले भी यही लगता रहा है कि सामूहिक कार्यों के लिये यदि हम सब थोड़ा-थोड़ा योगदान करें तो कुछ लोगों पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ेगा। और यह योगदान स्वेच्छा से हो तो उसका कोई मुकाबला नहीं। 

आज मैं सोचता हूँ कि मन में अच्छे और सकारात्मक विचार  आयें तो उन्हें किसी शंका या भय से अपने तक सीमित न रखकर सांझा किया जाना चाहिये।  an idea can change a lot. आपका एक अच्छा विचार किसीके जीवन से अंधेरा दूर करके प्रकाश फ़ैलाने में सहायक हो सकता है। 

अंधेरे और प्रकाश से याद आया कि दीपपर्व आने को है, आप सबको दीप पर्व की अग्रिम शुभकामनायें।

और हाँ,  उससे पहले करवाचौथ की शुभकामनायें। अभी जीना है भाई!!(करवाचौथ वाली शुभकामनाओं का ऑफ़र स्वैच्छिक योगदान वालियों/वालों  के लिये ही सीमित है:)

रविवार, सितंबर 08, 2013

कभी सोचता हूँ...

                                                             



बात लगभग पाँच साल पहले की है, हम लोगों की नये प्रोफ़ाईल में पोस्टिंग  होने को थी।  लगभग तीस रंगरूट एक हॉल में बैठे इंतजार कर रहे थे कि किसे कहाँ पोस्टिंग मिलती है। पोस्टिंग जिन साहब लोगों के हाथ में थी,  वो हम लोगों की उत्कंठा का पूरा मजा ले रहे थे। कुछ चुनिंदा लोगों का उत्साह बढ़ाया गया कि आप लोग खुशकिस्मत हैं जो आपको इसी ज़ोन में रखा जा रहा है। (आपके रेडीरेफ़रेंस के लिये बता दूँ कि प्रशासनिक नियंत्रण के लिये बैंक की  देश भर की शाखाओं को सत्रह ज़ोन में बाँटा गया है और फ़िर हर ज़ोन को चार से छह क्षेत्र में वर्गीकृत किया गया  है)    खुशी, डर, उत्साह वगैरह की मिश्रित भावनाओं के बारे में बाद में सोचा तो तुलना के लायक एक ही चीज मिली। इस चीज के बारे में भी विश्वास के साथ नहीं कह सकता, बस अंदाजा ही है। ऐसी मिश्रित भावनायें शायद पहली ज़चगी के समय होती होंगी। खैर, खुशकिस्मती वाला लिफ़ाफ़ा खुला और मजमून से पता चला कि हमारी पोस्टिंग घर से चार सौ किलोमीटर दूर हुई और जो बेचारे खुशकिस्मत नहीं थे, उनमें से अधिकतर सौ-सवा सौ किलोमीटर दूर पहुँचे। बेचारे बदकिस्मत लोग:(

पंजाब और पंजाबियों का लोहा  हुकूमते बरतानिया तक ने माना है, आज हम भी उसकी तसदीक कर देते हैं। वो ऐसे कि पंजाब की एक छोटी सी ब्रांच ने तीन साल से ज्यादा हमें झेला, दिल्ली की दो बड़ी  शाखायें हमें दो साल से ज्यादा नहीं झेल सकीं।  एक साल में एक ब्रांच के हिसाब से साल पूरा होते न होते एक गिफ़्ट टिकाकर और ’बड़े अच्छे आदमी थे’ जैसे दो चार जुमले पेलकर अगली ब्रांच का रास्ता दिखा दिया जाता रहा और हम खींसे निपोरते चरैवैति-चरैवैति करते रहे।

इस बार फ़िर वैसा ही हॉल था और वैसे ही रंगरूट थे, नहीं थी तो बस वो पहली डिलीवरी वाली मिक्सड फ़ीलिंग्स।  पोस्टिंग वाले झोले के मालिकों में से एक साहब ने कहा, "कांग्रेच्युलेशंस  संजय जी। यू आर लक्की।"  मेरे एक सहकर्मी धीरे से मुझे कहने लगे, "बधाई हो, पोस्टिंग सही मिलेगी।" मैंने अपना ज्ञान बघारा, "ये बधाई वाला जुमला डॉक्टर के यहाँ जाने पर उम्र के हिसाब से बाजू या पिछवाड़े में मला जानेवाला अल्कोहल में भीगा कॉटन का ठंडा-ठंडा कूल-कूल टुकड़ा है। इस ठंडे और भीने अहसास का मतलब है कि सुई चुभने ही वाली है।" मित्र हँसने लगे। 

हमारे बुजुर्ग सिखाते रहे हैं कि हमेशा शुभ-शुभ बोलना चाहिये, दिन में एक वक्त ऐसा आता है कि हमारे मुँह से निकली बात सच निकलती है। शायद वो वही वक्त था  इसीलिये इस बार हमारी खुशकिस्मती कुछ कम डिग्री की निकली, सिर्फ़ सत्तर किलोमीटर दूर की ब्रांच मिली है। ये अलग बात है कि जो खुशकिस्मत नहीं थे, उन्हें यहीं दिल्ली में चाकरी करनी पड़ेगी।

कुछ साल पहले जब हम ट्रेन से डेली-पैसेंजरी करते थे तो एक साथी के बारे में मशहूर था कि वो चुप नहीं रह सकता। और कुछ टॉपिक न मिले तो यही बताने लगता था कि घरवाली ने सब्जी में नमक ज्यादा डाल दिया या आलू के  टुकड़े बड़े-बड़े काट दिये। मुझे लगता है कि अब मेरा भी यही हाल हो गया है, बस मैं आपको लिखकर बता देता हूँ कि अब ऐसा हुआ या वैसा हुआ लेकिन शायद यह भी जरूरी ही है। हमारा और आपका काफ़ी पुराना साथ है, इतना तो बताने\जानने का रिश्ता बनता ही है। 

इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि अपनी नियमितता प्रभावित हो सकती है लेकिन मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई, कुछ और झेलिये। एक सप्ताह पहले नई जगह के आदेश मिले।  पुराने साथी और पुरानी ब्रांच छूट गये, रूटीन भी बदल रहा है। नये रूटीन में खूब व्यस्त(सही मायने में तो अस्त-व्यस्त)  रहने के बाद भी अपने बारे में पहले से ज्यादा सोचने का समय मिल रहा है तो इस स्वावलोकन का आनंद क्यों न लिया जाये? 

एकदम से Odd man out  होने पर एकबारगी तो भौंचक्का सा रह जाता हूँ लेकिन पता नहीं कैसे थोड़ी ही देर में सामान्य हो जाता हूँ। शायद यही वजह है कि कहीं जाने के आदेश मिलते हैं तो पुरानी जगह छोड़ने के नाम से कोई तकलीफ़ नहीं होती। शायद पहले दिन से ही खुद को इस बात के लिये तैयार कर लेता हूँ कि ये ब्रांच मेरी नहीं है, मैं इसका नहीं हूँ। सोचता हूँ कि जैसे यहाँ हमेशा नहीं रहा, वैसे ही वहाँ भी तो हमेशा नहीं रहूँगा। इस सोच से आवाजाही आसानी से हो जाती है।

दो साल पहले जब ट्रांसफ़र पर दिल्ली आया तो सच ये था कि दिल्ली के स्टाफ़ में अपनी जान पहचान का कोई भी नहीं था। उस समय तक सारी नौकरी दिल्ली से बाहर करने और उअसे भी ज्यादा अपने आप में मगरूर रहने का शायद यह परिणाम होगा।  यहाँ आने के बाद थोड़ा बहुत परिचय हुआ भी तो अपने बराबर वालों से, ऊपरवालों के और हमारे कम्फ़र्ट ज़ोन अलग अलग हैं।  अलग अलग ब्रांच से यही मित्र कई दिन से कह रहे थे, ’हमारी ब्रांच में आ जाओ’ और मैं कहता था कि ये क्या अपने हाथ में है? और जब आदेश दिल्ली से बाहर के हुये तो फ़ोन पर इन्हीं दोस्तों से डांट भी मुझे ही खानी पड़ी। किसी ने कहा कि आप ने किसी से कहा ही नहीं होगा, एकाध ने तो बल्कि डपट कर इसे मेरी बहुत बड़ी कमी  बताई। मैं कौन सा कम था, मैंने भी कहा कि मेरे चाहने वाले बड़ी पोस्ट पर नहीं है तो इसमें मेरा क्या कसूर है?  तुम लोग ऊपर होते तो मेरा ध्यान रखते और अब मुझपर ही गुस्सा उतारते हो। 

सोचता हूँ कि ऐसे कितने हैं जिसकी थोड़ी सी तकलीफ़ को सोचकर भी दूसरे दुखी होते होंगे, मुझे खुद को यहाँ भी तो  odd man out मानना चाहिये। देखा है साथ काम करने वालों को कि पिछली ब्रांच से फ़ाईल मंगवाने या छोटे से छोटा काम करवाने के लिये उनलोगों को कितनी मिन्नतें करनी पड़ती हैं और मैं किसी से फ़ोन पर एक बार जिक्र करता हूँ कि मेरे दोस्त वो काम कर देते हैं और करके खुश होते हैं कि मैंने उन्हें इस लायक समझा। यहाँ भी तो odd man out बनता रहा हूँ मैं।  ये भी सोचता हूँ कि सेलेक्शन के टाईम भी तो odd man out जैसा कुछ हुआ ही होगा, तभी तो अपनी नौकरी लगी।  इस बार भी ऐसा ही हुआ, शुरुआती झटके के बाद तनावपूर्ण स्थिति नियंत्रण में आ गई। 

कभी सोचता हूँ  कि शायद मैं इस दुनिया को समझ नहीं पाता हूँ(ये तो खैर हमेशा ही लगता रहता है)। मेरे दोस्त इतना दुखी और परेशान हो रहे हैं और मैं बात की गंभीरता को समझ ही नहीं पा रहा हूँ। उस दिन कोई इंग्लिश मूवी आ रही थी जिसमें एक तलाकशुदा माँ का बच्चा अपनी माँ के मित्र के सामने किसी ऐसी मानसिक बीमारी का जिक्र कर रहा था जिसमें अरुचि, तटस्थता वगैरह लक्षण होते हैं। कहीं ऐसा ही कुछ मेरे साथ तो नहीं हो रहा कि मैं जिसे अपनी महानता समझ रहा हूँ, असल में वो कोई बीमारी हो।

कभी सोचता हूँ किसी अच्छे से डॉक्टर से दिमागी चैकअप करवाऊँ। फ़िर सोचता हूँ कि छुट्टी भी तो आसानी से नहीं मिलती। बीमार होने के बाद तो मेडिकल छुट्टी मिल जाती है लेकिन बीमारी की जाँच करवाने के नाम पर तो मेडिकल छुट्टी भी नहीं मिलने की। बड़ा पंगा है यार नौकरी वाली जिन्दगी में..

कभी सोचता हूँ कि उस्ताद ज़ौक या तो हमारे बैंक का कर्मचारी नहीं था या फ़िर उसका जुगाड़ तगड़ा रहा होगा जो कह गया कि ’कौन जाये अए ज़ौक दिल्ली की गलियाँ छोड़कर’...

कभी सोचता हूँ कि बँधी-बँधाई नौकरी करके देख ली,  क्यूँ न कुछ फ़्रीलांसिंग कर ली जाये? कोई एनजीओ बनाकर थोड़ी सेवा हम भी जनता जनार्दन की कर लें, कम से कम ये लोक तो सुधर जाये। रही बात परलोक की तो वो फ़िर देखी जायेगी.....

कभी सोचता हूँ कि मैं लिख क्यूँ रहा हूँ, और अगर लिख ही रहा हूँ तो किसी ज्वलन्त विषय पर न लिखकर खुद के बारे में ही क्यों लिख रहा हूँ। फ़िर सोचता हूँ कि ऐसा इसलिये सही है क्योंकि अपने बारे में लिखने से किसी वाद\निरपेक्षता\तहज़ीब को चोट नहीं पहुँचेगी।


और कभी-कभी ये भी सोचता हूँ कि सोचने का सारा ठेका मैंने अकेले ने ही ले रखा है क्या? कदे कदार थोड़ा-घणा थम भी सोच ल्या करो.....

रविवार, अगस्त 25, 2013

चाच्चा बैल....(दो)

भाग एक  से आगे 


अंदर डाक्टर और उनकी टीम अपना काम कर रहे थे और बाहर खड़े हम एक दूसरे को दबी जबान में कोस रहे थे। 302 के संभावित आरोपियों में दो नाम थे, पहला उस दोस्त का जिसने टीए बिल पास करने में शर्त सोची थी और दूसरा मैं जिसने यह शर्त चाचा को बताई थी। खैर, हमारे चाचा ने हमें आत्मग्लानि से बचा लिया। थोड़ी देर में हमें बताया गया कि उन्हें अस्पताल लाने में कुछ और देर होती तो खतरा हो सकता था। कुछ दिनों के आराम के बाद चाचा जब दोबारा ड्यूटी पर आये तो पहले से भी ज्यादा अनुशासित होकर, सुबह वाली एकमात्र चाय भी बंद कर दी। चाय का कलेश ही खत्म, न पियें न पिलायें। एक दिन उस शनिवार को याद करके मुझे कहने लगे, "अनेजा साहब, तबियत खराब हुई उसका गम नहीं लेकिन उस दिन हुई इसका गम हमेशा रहेगा। तुम लुच्चों ने सारी उमर यही प्रोपोगेंडा करना है कि चाचा बहल से उस दिन जबरदस्ती चाय पी थी इसलिये उसे हार्ट अटैक हुआ था।" चाचा नहीं हँसता था, शायद डाक्टर ने मना किया हो लेकिन मुझपर ऐसी कोई बंदिश नहीं थी, सो मैं खूब हँसा। बल्कि चाचा से कहा कि ये तो वही बात हो गई कि ’मुझको बरबादी का कोई गम नहीं, गम है कि बरबादी का चर्चा हुआ।" चाचा बहल मुस्कुरा दिये, "बिल्कुल यही बात है।" डेली पैसेंजरी जारी रही।

चाचा के एक भाई दिल्ली में रहते थे और वो कहते थे कि अगर वो हफ़्ते में एक दिन उसके घर जा सकें तो रोज की थकान कुछ कम हो सकती थी। दिक्कत थी तो सिर्फ़ ये कि वो दिल्ली की भीड़ और दिल्ली की डीटीसी बस सर्विस के साथ बहुत कम्फ़र्टेबल नहीं थे। उनके मतलब की बस दिल्ली स्टेशन के बाहर से ही बनकर चलती है, कई बार बताने के बाद भी वो नर्वस हो जाते थे। भृतृहरि के बताये मध्यम पुरुष के लक्षण ’मेरा काम भी हो जाये, उसका काम भी हो जाय’ की तर्ज पर मैंने एक रास्ता निकाला। दिल्ली स्टेशन के सामने ही लाईब्रेरी थी, बहुत दिन से उधर जाना नहीं हो रहा था। हमने जुगत भिड़ाई कि चाचा पर अहसान जतायेंगे और सप्ताह में एक बार उन्हें बाहर जाकर बस में सवार करवा देंगे और खुद सड़क पार करके लाईब्रेरी हो आया करेंगे। हींग लगी न फ़िटकरी, रंग चोखा होने लगा। अपनी चवन्नी भी नहीं लगी और चाचा अहसान तले दबने लगे। मैं उन्हें बस तक छोड़ता लेकिन वो मेरा हाथ नहीं छोड़ते थे। 

पुरानी दिल्ली का इलाका जिन्होंने देख रखा है वो जानते होंगे कि खाने-खिलाने के शौकीन लोगों के लिये वो पेरिस\जेनेवा से कम नहीं। चाचा बहुत ताकीद से कहते, "अनेजा साहब, मेरा बड़ा दिल है कि आपको कुछ खिलाऊँ" और मैं उस शनीचरी चाय को याद करके लरज जाता और अगली बार का वादा करके जबरन हाथ छुड़ा लेता। शुरू के कुछ हफ़्ते तो अगली बार का वायदा करना पड़ा, उसके बाद चाचा एक बार वही डायलाग बोलते और फ़िर खुद ही कहते, "अगली बार पक्का न?" और धीरे से गुनगुनाते, "मुझको बरबादी का कोई गम नहीं......" हम दोनों हँस पड़ते लेकिन सच में वो जब कुछ खिलाने की बात कहते थे तो साफ़ पता चलता था कि ऊपर ऊपर से नहीं बल्कि दिल से कह रहे हैं।

धीरे धीरे मौसम में ठंड बढ़ने लगी। चाचा की परेशानियाँ और बढ़ गईं। एक दिन शाम को हम स्टेशन की तरफ़ जा रहे थे तो उन्होने एक बार फ़िर से बारी बारी से बढ़ती ठंड, अपनी बढ़ती उम्र, उस शहर, नौकरी और अपनी बीमारी की माँ-बहन के साथ रिश्तेदारी जोड़नी शुरू की। वो कई बार स्टाफ़ के सामने मेरी तारीफ़ किया करते थे कि ये अगर कोई परेशानी बताता है तो साथ साथ उसका संभावित हल भी बताता है, उस दिन भी ताजी ताजी तारीफ़ से हम कुप्पा हुये थे तो संभावित हल बता दिया, "चाचा, एक काम करो। जब तक सर्दी है, यहीं मकान ले लो।" चाचा ने ओब्ज्क्शन मी-लार्ड लगाया, "रोज आने-जाने से छुट्टी मिल जायेगी लेकिन रोटी-पानी और दूसरे पंगे खड़े हो जायेंगे?" भतीजे ने ओब्जेक्शन ओवर रूल किया, "चाची को भी यहीं ले आओ। आप ही तो बताते हो कि शादी से पहले चाची का परिवार यहीं रहता था। आपकी रोटी की समस्या भी हल हो जायेगी और ........."

मैं बोलते-बोलते रुका था, चाचा चलते-चलते रुक गये। कन्हैयालाल की तरह चश्मे के ऊपर से झाँककर बोले, "हम्म्म्म, सही बात। तुम्हारी चाची को यहीं ले आता हूँ, मेरी रोटी-वोटी भी बना दिया करेगी और पुराने यारों से भी मिल लेगी।"
"ओ चाच्चा, मैंने ये कब कहा है यार?"


"सब पता है मुझे, एक नंबर के बदमाश हो तुम लड़के।"

अगले हफ़्ते से चाचा ने वहीं एक मकान किराय पर ले लिया और हमारा ट्रेन का साथ छूट गया। एक दिन हम चार-पाँच साथी स्टेशन की तरफ़ जा रहे थे कि सामने से चाचा-चाची आते हुये मिल गये। सबने नमस्ते की, चाचा ने सबके साथ अपनी धर्मपत्नी का परिचय करवाया। जब इस बैकबेंचर का नंबर आया तो उनसे कहने लगा, "ये संजय है, इसीने आईडिया दिया था कि सर्दियों में तुम्हें यहाँ लेकर रहने लगूँ। मेरी रोटी का जुगाड़ भी हो जायेगा और..."

चाचा ने आगे क्या कहा ये मैं नहीं सुन पाया क्योंकि मैं ’चाचा चुप, चाचा चुप’ का गाना गा रहा था, चाची कह रही थी कि ’आपको कभी शरम नहीं आनी’ और साथी लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे। उस दिन चाची की तरफ़ से घर चलकर चाय पीने का न्यौता मिला और मेरे कुछ कहने से पहले ही चाचा बोले, "जवाब मुझे पता है, अगली बार।" हम हँसने लगे, उधर स्टेशन पर गाड़ी की अनाऊंसमेंट सुनकर हमने गुलाबी चेहरे वाली अपनी प्रौढ़ा चाची से विदा ली क्योंकि लोग अस्त-व्यस्त होते हैं लेकिन चाचा गुनगुनाने में मस्त-व्यस्त था, "ओ मेरी जोहराजबीं...’

चाचा ने हैल्थ ग्राऊंड पर ट्रांसफ़र के लिये आवेदन कर रखा था। मैं एक सप्ताह के लिये LTC पर गया हुआ था, उसी दौरान चाचा के आर्डर आये और वो अपने गृहस्थान को चले गये। कुछ समय तक जब भी उस ब्रांच से कोई पत्र-व्यवहार होता था तो चिट्ठी के साथ एक छोटी सी चिट लगी आती थी, 

"संजय अनेजा, 
अगली बार कब होगी? 
regards 
चाच्चा बैल"

उसके बाद कई शाखाओं में काम करना पड़ा, जब भी उनके शहर से कोई स्टाफ़ मिलता तो चाचा बहल के बारे में मैं जरूर पूछता लेकिन कोई विशेष जानकारी नहीं मिली। अभी एक ट्रेनिंग के सिलसिले में लौटते समय स्टेशन पर फ़िर ऐसे ही एक स्टाफ़ से मुलाकात हुई, पूछने पर पता चला कि दो साल पहले बहल साहब का देहांत हो चुका। वो अपने कोच में चले गये और मैं अपने कोच में आकर बैठ गया।

गाड़ी चलने में अभी आधा घंटा बाकी था। खिड़की के बाहर देखा तो कुछ दूर रेल की पटरियों के बीच बैठा एक कुत्ता अगले दोनों पंजों में एक सूखी हड्डी लिये बैठा था। उस सूखी हड्डी को ही व्यंजन मानकर अपने दाँतों से नोच-भंभोड़ रहा था। उस सूखी हड्डी में तो क्या रस होगा, होगा भी तो खुद उस कुत्ते के मसूढ़ों का खून होगा जिसे उस हड्डी से टपकता मानकर वो मग्न बैठा होगा।

अपने पास भी ऐसी बहुत सी सूखी हड्डियाँ हैं। कल किसी और की बारी थी, आज चाचा की बारी, कल किसी और की बारी।

ऐसे ही हड्डियों को नोचते-भंभोड़ते रहेंगे, हम लोग....

                                                               

                                                                (चित्र गूगल से साभार)
                                                       





   

बुधवार, अगस्त 21, 2013

चाच्चा बैल

बैंक की स्टाफ़-ट्रांसफ़र नीति के तहत उनका ट्रांसफ़र  हमारी ब्रांच में हो गया था। पहली मुलाकात ट्रेन में ही हो गई लेकिन तब औपचारिक परिचय नहीं हुआ था। हुआ यूँ कि हम ताश खेल रहे थे, वो मेरे पास ही आकर बैठ गये। मौका देखकर उन्होंने पूछा कि फ़लां स्टेशन पर गाड़ी कितने बजे पहुँचती है? उन्होंने उंगली पकड़ाई, हमने पहुँचा पकड़ लिया। तब भी ऐसे मौकों पर नैतिक शिक्षा के सब पाठ याद आ जाते थे। जब बिना हाथ पैर हिलाये हुये सिर्फ़ जबान चलाने से किसी की मदद होती हो तो परोपकार थोड़ा भी मुश्किल नहीं लगता, आजमाकर देख सकते हैं। हम ताश खेलते रहे और उनके इस छोटे से सवाल का जवाब देने में कम से कम दो तीन स्टेशन निकाल दिये। टाईम-टेबल में गाड़ी का उस स्टेशन पर पहुँचने का समय, वास्तव में पहुँचने का औसत समय, अब तक का बेस्ट अराईवल\वर्स्ट अराईवल सब विस्तार में बता दिये। उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव से समझ आ गया कि जनाब नये नये डेली पैसेंजर हैं और ऐसा भी दिख गया कि जरूर बैंक में ही काम करते होंगे। अपना अनुभव यही बताता है कि दूसरे महकमों के कर्मचारी सुबह के समय थोड़ी बहुत देर सवेर की चिंता नहीं करते, उनके दिल बहुत बड़े होते हैं। वैसे इसमें भी कोई हैरानी नहीं अगर दूसरे महकमे वाले बैंकवालों के बारे में भी ऐसे विचार रखते हों क्योंकि दूसरे की आँख के तिनके को शहतीर समझने के फ़ोबिया से हम सभी पीड़ित हैं।

उस दिन स्टेशन पर उतरे तो वो जनाब भी हमारे साथ ही ट्रेन से उतरे। हमारे पिछले शानदार रेस्पोंस से उत्साहित होकर अब उन्होंने अपनी मंजिल के बारे में पूछा तो मजबूरन गौर से उन्हें निहारना पड़ा। जिस ब्रांच में मैं काम करता था, उसी के बारे में पूछ रहे थे। मैंने कहा कि चलते रहिये, मैं बता दूँगा। यूँ ही हल्के-फ़ुल्के सवाल-जवाब करते हुये हम लोग ब्रांच पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर तो उन्हें पता चलना ही था कि हम स्टाफ़ हैं, बड़े स्टाईल से गर्दन हिलाते हुये बोले, "छुपे रुस्तम हो, पहले नहीं बताया कि स्टाफ़ मेंबर ही हो।" फ़िर हाथ मिलाकर हुआ औपचारिक परिचय, मि. बहल और आपके मो सम कौन का। वो उम्र में पचपन थे और हम लगभग बचपन में ही थे। जितनी मेरी उम्र, उतने साल की तो उनकी नौकरी हो चुकी थी। वो अधिकारी, हम बाबू। थोड़ा सा हँसी-मजाक भी हुआ, प्रभुजी तुम चंदन हम पानी, तुम अधिकारी हम किरानी। उन्होंने हँसते हुये गले लगा लिया, हम चाचा-भतीजा बन गये। पहले दिन से ही वो बुलाते अनेजा साहब, मैं बुलाता चाचा बहल। कभी कभी जल्दबाजी में पंजाबी स्टाईल में ’चाच्चा बैल’ भी कह देता था और फ़िर सॉरी कहने पर वो मुस्कुराकर कह देते, "काके, तुम्हारा चाचा तो बचपन से ही बैल बना हुआ है और मरते दम तक बैल रहेगा।" धीरे-धीरे मि. बहल अब ’चाचा बहल’ कहलाये जाने लगे।

पर्सनल्टी के मामले में ऐसे शानदार चरित्र मैंने बहुत कम देखे हैं। उम्र के अनुसार बाल सफ़ेद हो गये थे, बहल साहब उन्हें रंगते नहीं थे और न ही सफ़ेदी के डर से मूँछें उड़ा रखी थीं। लाली लिये हुये खूब गोरा रंग, रौबदार मूँछें, सलीकेदार कपड़े, एकदम चमकते हुये जूते और गरिमा भरी चाल के साथ साथ नपी तुली बात करना उनके व्यक्तित्व को बहुत शानदार बना देता था। उन दिनों में ही वो एकदम फ़ौजी अफ़सर लगते थे, जवानी में तो वाकई बिजलियाँ गिराईं होंगी।  अपने घर से डेली अप-डाऊन करते थे और दिल्ली स्टेशन तक हमारा साथ रहता था। शाम को स्टेशन पर गाड़ी का इंतज़ार करते हुये एक दिन बताने लगे कि जब उनकी शादी हुई थी तो उनके ससुर साहब यहीं स्टेशन मास्टर थे। बुढ़ापे में एक तरफ़ ढाई घंटे की पैसेंजरी से उकताये हुये थे, कहने लगे, "भैंचो, पता नहीं था पैंतीस साल बाद फ़िर इस शहर में धक्के खाने पड़ेंगे। हार्ट-पेशेंट हूँ, कल का भरोसा नहीं और सुबह शाम पाँच घंटे गाड़ी में धक्के खाने पड़ते हैं।  दाना-पानी ही तो है अनेजा साहब।"

दिखने में ही नहीं, व्यवहार में भी आदमी एकदम डिसीप्लिन्ड थे। बंधा हुआ रूटीन था, सुबह बैंक पहुँचते और चपरासी को इशारा कर देते। थोड़ी देर में एक कप चाय आ जाती। शाम को चाय वाला बूढ़ा हिसाब करने आता, वो भी अपनी तरह का एक आईटम ही था। दिन में हममें से कोई भी जाकर चार-पांच चाय बोल आता और नाम किसी दूसरे का लिखवा देता, पेमेंट के समय रोज शाम को चकल्लस मचा रहता था। कुछ दिन में गौर किया कि बहल साहब का कोई चाय-खाता नहीं था। बूढ़े से पूछा तो कहने लगा, "पेज क्यूँकर खराब करना? रोज की एक ही चाय होती है उनकी तो।" लड़कों ने बात पकड़ ली, किसी न किसी बहाने से रोज जाकर चाचा बहल से चाय की फ़रमायश होती और वो मुस्कुराकर सिर हिला देते। समझ आज तक नहीं आई कि वो सिर हाँ का हिलाते थे या न का, अलबत्ता उनके खाते से चाय किसी को नसीब न हुई। चाचा बहल का एक और नाम ’मूँजी चाचा’ चल निकला, बस ये नाम उनकी गैरहाजिरी में उनका जिक्र करने के लिये इस्तेमाल होता था।

दूसरे सरकारी महकमों में सुनते हैं कि टीए बिल, मेडिकल बिल वगैरह पास करवाने के लिये स्टाफ़ को भी चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है लेकिन हमारे बैंक इस मामले में साफ़ सुथरे हैं। चाचा बहल की चाय के चक्कर में एक दिन हमारा एक साथी जो स्टाफ़ बिल वगैरह देखता था उसे हम लोगों ने चढ़ा दिया। शुक्रवार का दिन था और बहल साहब ने एक अच्छा खासा टीए बिल पेश कर रखा था। दिन में कई बार चाचा ने बिल पास करने वाले भतीजे को नमस्ते बुलाई, हाल चाल पूछे और भतीजा भी बदस्तूर सलामती के जवाब देता रहा। सीधे से बिल की बात न चाचा ने की और भतीजे ने तो खैर क्या करनी थी।

लौटते समय चाचा ट्रेन में बहुत विचारमग्न थे, ऐसे ही अगले दिन सुबह भी। महसूस मैं भी कर रहा था लेकिन मुझे तो कहानी पता ही थी सो मैं चुपचाप देखता रहा। जब ट्रेन से उतरे तो मेरा हाथ पकड़कर चाचा बहल ने पूछा, "अनेजा साहब, बात समझ नहीं आई। कल मैंने चार पांच बार उसे इशारा किया  लेकिन उसने मेरा बिल पास नहीं करवाया।कहानी समझ नहीं आई, किसी बात से नाराज तो नहीं है स्टाफ़ के लोग?"  दो नाव में सवारी करने वाला मैं धर्मसंकट में फ़ँस गया। मुझे हँसी आ गई, चाचा ने नब्ज पकड़ ली और मेरे पीछे पड़ गया कि भेद खोलूँ। मैंने बता दिया कि लड़कों ने कसम खा ली है कि चाचा से चाय पीनी है। 

"हद हो गई यार और आपसे तो मुझे ये उम्मीद नहीं ही थी। एक बार वो कह देता या कोई भी कह देता तो मैं क्या मना करता? और आपको भी बात का पता न होता तो कोई बात नहीं थी लेकिन पता होने के बाद भी सारा दिन चुप रहे, हद कर दी यार।" जाते ही सब लड़कों के लिये चाय का आर्डर हुआ, चाय वाला बूढ़ा चाय देने से पहले आर्डर की सत्यता जाँचने आया क्योंकि चाचा बहल को आये हुये कई महीने हो गये थे लेकिन उनका ग्राफ़  एक चाय एक दिन से ऊपर कभी नहीं गया था। चाय के कप हाथ में लेकर सबने चीयर्स बोला, उस महंगी-महंगी  चाय को हमने जितना एंजाय किया शायद चाय के किसी शौकीन ने कभी नहीं किया होगा। 

पन्द्रह साल से ज्यादा बीत गये, अब भी याद है वो शनिवार का दिन था। बारह बजे पब्लिक डीलिंग खत्म हुई और साढ़े बारह बजे एकदम ब्रांच में भगदड़ मच गई, चाचा बहल को छाती में दर्द शुरू हुआ था और वो सीट से गिर गये थे। आनन फ़ानन में उन्हें शहर के एकमात्र हार्ट स्पेशलिस्ट के क्लीनिक/अस्पताल लेकर गये। अंदर डाक्टर और उनकी टीम अपना काम कर रहे थे और बाहर खड़े हम एक दूसरे को दबी जबान में कोस रहे थे।

                                                                                  to be contd..(may be\may not be)

बुधवार, अगस्त 07, 2013

येस मिनिस्टर


गधे हैं जो रक्षामंत्री के घर के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं, उनके व्यक्तव्य का   विरोध कर रहे हैं। अब भला इन गधों से कोई पूछे कि जो जानकारी किसी मंत्री के पास हो सकती है, वो आम जनता को कैसे हो सकती है? बिना पाकिस्तान की स्वीकारोक्ति के ऐसे कैसे उनके उजले कपड़ों पर कीचड़ उछाल देते?   स्टुपिड पब्लिक, इस बात का शुक्र नहीं मनाती कि अभी उन्होंने ये नहीं कहा कि इस घटना के पीछे भगवा आतंकवादी है।

अवसर को देखते हुये कड़ी  निंदा, भर्त्सना, घनघोर आलोचनायें होंगी। पड़ौसी देश के साथ सख्ती से निबटने के भाषण होंगे। जनता को धैर्य व संयम रखने की अपीलें होंगी। 

शोर शराबा हो रहा है तो फ़ौजियों के परिवार वालों को भी कुछ पैकेज-वैकेज दे दिया जायेगा। अरे भई, फ़ौज में नौकरी करने गये थे तो जान जाने का रिस्क तो रहना ही था। वैसे भी शायर ने कहा है कि ’ये जान तो आनी-जानी है, इस जान की कोई बात नहीं’ 

दो-तीन महीने के बाद इस बात पर संतोष ही नहीं जताया जायेगा बल्कि अपनी पीठ ठोकी जायेगी कि शांति-प्रक्रिया में गतिरोध समाप्त कर लिया गया है।

Very well said Sir, keep it up. We deserve all this and much more.

शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

एरियर


                                                                     

आप जानते ही होंगे कि बैंक वालों की वेतन वृद्धि हर पाँच साल के बाद होती है। वेतन वृद्धि की देय तारीख से लगभग दो-ढाई साल बीत चुके होते हैं, तब कहीं यूनियन और प्रबंधन किसी समझौते पर पहुँच पाते हैं। हम सब इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। बहुत बुरा नहीं लगता बल्कि अब अच्छा ही लगता है कि इस बहाने कुछ एरियर इकट्ठा मिल जाता है। 

ऐसा ही कोई वक्त था, एरियर की तैयारी हो रही थीं और हम सब हवाई किले बांधने में जुटे हुये थे। वो घड़ी भी आ गई जब एरियर का भुगतान हुआ। हम जैसे इसलिये उदास हो गये कि उम्मीद से कम एरियर मिला था,  भोला महाराज इसलिये उदास हो गये कि उम्मीद से ज्यादा मिल रहा था। ’मित्र का दुख रज मेरू समाना’ का उद्घोष करते हुये हमने प्रस्ताव दिया, "भोलाजी, तुस्सी चिंता न करो। हम तुम्हारे साथी हैं, हाथ बढ़ायेंगे और फ़ालतू वाला एरियर अपने सिर कर लेंगे।" स्वाभिमानी और सुसेक्यूलर सुशासक नितीश जी ने जैसे धर्मांध एवं साम्प्रदायिक मोदी की सहायता राशि ठुकरा दी थी, वैसे ही स्वाभिमानी भोला ने सहायता के लिये बढ़े हुये हमारे हाथ ठुकरा दिये, कहने लगा, "अपने रंजो-गम असी आप ही सह लांगे। मेरे नाम आई हुई चीज है, मैं ही इसे झेलूंगा।"  हम अपना सा मुँह लेकर रह गये।

पूरी ब्रांच की निगाहें बैलट-बॉक्स की तरह  भोला की झोली पर टिकी हुई थीं।  ’जिसे तन्ख्वाह भी आधी अधूरी मिलती हो, वो एकमुश्त आती रकम को लेकर कैसे व्यवहार करेगा’ सट्टे का बाजार गर्म हो गया था। पैसे माँग माँगकर मैंने भोला को पहले ही पका रखा था, तंग आकर उसने वादा कर दिया कि किसी को उधार नहीं देगा और सारे पैसे दारू में नहीं उड़ायेगा लेकिन पैसे खुद ही खर्चने हैं। 

भोला महाराज ने घोषणा कर दी कि जब तक खाते में पैसे रहेंगे, तब तक किंगसाईज़ लाईफ़ जियेगा। पानी की प्यास लगे तो बंदे ने जूस पीना शुरू कर दिया, रेहड़ी वाले से ’कल नगद और आज उधार’ में छोले-कुल्चे खाने वाला वो बंदा अब कस्बे के सबसे महंगे होटल में डीलक्स थाली की डिलीवरी के लिये जब फ़ोन पर आर्डर मारता था तो उसका रौब देखते ही बनता था। माँगकर, दूसरे की जेब से निकालकर बीड़ी पीने  की  जगह अपनी जेब में  सिगरेट की डिब्बी आ गई थी।   सुबह शाम पैदल डोलने वाला वो अब दस कदम दूर भी जाना होता तो रिक्शे वाले को आवाज लगाता। संक्षेप में बात ये कि कस्बे की अर्थव्यवस्था में जान डालने में श्रीमान जी दोनों हाथों से जुटे हुये थे।

शायद पांचवा या छठा  दिन था कि कहने लगा शरीर में हरारत हो रही है। मुझे तो खैर ठीक ही दिख रहा था फ़िर भी मैंने पूछा कि पुराने डाक्टर को ही दिखायेगा  या यहाँ भी किंग साईज़?   कहने लगा, "कोई ढंग का डाक्टर बताओ। फ़ीस दी चिंता नहीं करनी है, साड्डे कोल पैसे हैगे। बस्स डाक्टर वदिया(बढ़िया) होणा चाहीदा है।" हम तो ठहरे हुकम के गुलाम, बता दिया एक बढ़िया सा डाक्टर, बल्कि अपायंटमेंट भी ले दी। साथ चलने की बात कही तो उसने मना कर दिया, "तुस्सी अपने घर जाओ। जो  ठेके पर साथ जाते थे, डाक्टर के पास भी वो ही साथ ही जायेंगे। वैसे भी मैंने कौन सा पैदल जाना है? टैक्सी कर लूँगा।" हम अपने घर आ गये।

अगले दिन सुबह बंदा एकदम फ़िट दिखा। स्टाफ़ वाले उसे घेरकर पिछले दिन के हाल पूछ रहे थे। आँखे बड़ी बड़ी करके पहले तो उसने डाक्टर के क्लीनिक का नक्शा बताया।  रिसेप्शन, केबिन, एसी, फ़र्श, सफ़ाई वगैरह वगैरह सबकी दिल खोलकर तारीफ़ की। फ़िर  डाक्टर की तारीफ़ शुरू हुई। इतना पढ़ा लिखा, इतनी तगड़ी फ़ीस वाला डाक्टर और ऐसा शरीफ़ कि कभी देखा ही नहीं। इतनी शराफ़त वाली बात में मुझे कुछ लोचा दिखा, उससे पूछा कि जरा विस्तार में बताये। 
भोला ने बताया, "डाक्टर ने नब्ज वगैरह देखने के बाद दो चार सवाल पूछे और फ़िर दवाई लिख दी। इतना जेंटलमेन डाक्टर हैगा सी कि उसने पंद्रह मिनट में कम से कम दस बार थैंक्यू बोला होगा।"
"दस बार थैंक्यू?"
"कम से कम। क्यों? सानूँ थैंक्यू नईं बोल सकदा?"
"बोल तो सकता है लेकिन..। फ़िर तूने क्या कहा?"
"यू आर वैलकम।"
"कितनी बार कहा तूने?"
"जितनी बार उसने थैंक्यू कहा, उतनी बार। सान्नूँ वी अंग्रेजी आंदी है, असी इतने घोड़ू भी नहीं हैगे।"

बहुत देर के बाद उसे किसी ने बताया कि दवाई लिखने के बाद डाक्टर साहब ने उसे थैंक्यू कहा था तो उसका मतलब था कि अब आप जा सकते हैं। बड़े लोगों के कहे गये शब्दों के मतलब डिक्शनरी में दिये हुये मतलब से अलग  होते हैं।

थोड़ी देर हो-हल्ला मचता रहा फ़िर सब अपनी अपनी सीट पर बैठ गये। दोपहर में खाने के लिये बैठे तो भोला अपने फ़ेवरेट छोले-कुल्चे की प्लेट निबटाते हुये बोला, "जो मजा इस स्साले दे छोलेयाँ विच है, होटल दी डीलक्स थाली विच नहीं।" 

एरियर की बची हुई खेप बीती रात में बराबर हो चुकी थी, भोला फ़िर से पुरानी बिंदास फ़ार्म में वापिस आ चुका था। न पैसे बचे, न हिसाब रखने की जरूरत। नो टेंशन, लिव लाईफ़ असली किंगसाईज़।

उस दिन से मेरा और भोला का दो-ढाई हजार का मुकदमा फ़ँसा हुआ है। वो डाक्टर की फ़ीस, टैक्सी खर्चा, दवाई के पैसे मेरे नाम निकाले बैठा है। मैं कहता हूँ कि खर्चा किया तभी तो वो एक दिन में भला चंगा हो गया था और वो कहता है कि मैंने उसका खर्चा ख्वाम्ख्वाह में करवाया। कहता है, "जिस स्साले को ये नहीं पता कि सामने वाले को बाहर भेजने के लिये क्या कहना होता है, वो इलाज क्या बैंगन खाकर करेगा? मैं तो वैसे ही ठीक हो जाता।"

कहीं से उसे खबर मिल गई कि मेरा फ़िर से ट्रांसफ़र होने वाला है, आज भी फ़ोन आया था, "संजय बाऊ, ऐत्थे ही आजा। पुराना हिसाब किताब भी निबटा लेंगे।"

आप ही फ़ैसला  करो जी,  इस मामले में मैं उसका देनदार बनता हूँ क्या? 

शुक्रवार, जुलाई 12, 2013

संवैधानिक चेतावनी

कुछ दिन से दिल्ली मेट्रो एमएमएस कांड चर्चा में है।    क्या हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ, किसने क्या किया वगैरह-वगैरह। जाँच चलेगी, मुकदमा होगा, कार्यवाही होगी, कानून अपना काम करेगा। मानसिकता बदलने, वर्जनामुक्त होने के साथ संस्कार न छोड़ने की रस्साकशी फ़िर से चलेगी। मेट्रो भी चलती रहेगी, ऐसे कारनामे भी चलते रहेंगे और जिन्दगी यूँ ही गुजरती रहेगी लेकिन कुछ सवाल जरूर खड़े होते रहेंगे  मसलन यह वीडियोज़ सही हैं या इनके साथ छेड़छाड़ की गई है?    

दोष किसका है, उन जोड़ों का जिन्हें फ़िल्माया गया है या उनका जिन्होंने इन वीडियोज़ का दुरुपयोग किया?    

सार्वजनिक स्थान पर की जाने वाली ऐसी क्रीड़ायें क्या वाकई निजता का अधिकार है? 

अगर हाँ तो फ़िर सार्वजनिक स्थानों पर यह सब करने वालों को इसमें गलत नहीं लगता तो फ़िर दिखने में  क्यूँ  गलत लगेगा? 

कुछ दिन पहले मित्र गिरिजेश राव  ने फ़ेसबुक स्टेटस में पूछा था, "सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम का प्रदर्शन उचित है कि नहीं?" यह मैं अपनी याद्दाश्त के आधार पर लिख रहा हूँ, हो सकता है कि शब्द अक्षरश: यही न हों लेकिन भाव कुछ ऐसे ही थे। विषय विचारोत्तेजक लगा था, मैंने सुझाया भी था कि इस विषय पर अच्छा विमर्श हो सकता है। वहाँ तो बात आई गई हो गई, फ़ेसबुक वैसे भी कुछ ज्यादा ही त्वरित अभिव्यक्ति का साधन है(यही स्टेटस ढूँढना चाहा तो अभी मिला ही नहीं) लेकिन मेट्रो दीवानों ने दिखा दिया कि यह विषय प्रासंगिक है।

एक और फ़ेसबुक स्टेटस  देखा था जिसमें एक सज्जन ने दिल्ली के पार्कों में ऐसी बातों की तरफ़ इशारा किया था। क्या हम जैसे इन लोगों के पास भी कोई निजता का अधिकार है? 

ब्लॉगिंग में आने के बाद ज्ञानचक्षु काफ़ी खुले हैं, स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं कि मैंने PDA(Public Display of Affection) के बारे में पहले नहीं सुना था। ये अलग बात है कि इसके बारे में सुनने\पढ़ने के बाद भी अपने विचार बहुत आधुनिक नहीं हुये, अब भी पहले जैसे ही हैं कि कुछ काम पर्दे में ही ठीक हैं। लेकिन हमेशा की तरह यह भी मालूम है कि दुनिया सिर्फ़ मेरे सोचने से बदलने से नहीं रुकने वाली।  सदा से बदलाव होता आया है तो समाज में ये बदलाव भी सही। 

जब एक के अधिकार दूसरे से टकराने लगें तो समाधान ढूँढना आवश्यक है।  वर्जनाहीन समाज, सेक्स एजुकेशन, मानसिकता बदलने जैसे सदुपदेश खूब पढ़ लिये, कुछ प्रैक्टिकल उपाय अपनाये जाने चाहियें। आपसे समाधान पूछने की बजाय पहले अपनी राय संक्षेप में  बताता हूँ।

कुछ जनजातीय समाज घोटुल परंपरा   का पालन करके अपनी युवा शक्ति को चैनलाईज़ करते ही रहे हैं।  वैसे ही मेरी राय में अब समय आ गया है कि  सरकार द्वारा कुछ सार्वजनिक स्थान यथा कुछ पार्क या कम्युनिटी सेंटर आदि चिन्हित कर दिये जाने चाहिये और जैसे सिगरेट\तंबाकू आदि के पैकेट पर एक संवैधानिक चेतावनी(अब एक चित्र सहित) रहती है कि ’तंबाकू के सेवन से कैंसर होता है’ वैसे ही इन सरकारी घोटुलों के बाहर एक संवैधानिक  चेतावनी टाईप नोटिस लगा रहे कि यह स्थान सिर्फ़ व्यस्कों के लिये है और यहाँ आप अपनी इच्छा से जा रहे हैं। 

बाकी तो आप सब  समझदार हैं ही,  इस सुझाव पर भी सोच देखियेगा ...

गुरुवार, जून 27, 2013

केदारनाथ

जून माह के मध्य में देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध उत्तरांचल में भारी बारिश, बादल फ़टने की प्राकृतिक घटनाओं के चलते हुई विभीषिका ने  समस्त देश को हिलाकर रख दिया है। ऐसी आपदाओं के होने के कारणों पर, उनसे बचाव\पूर्व-पश्चात प्रबंधन पर हमारे विचार अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन किसी भी परिपक्पव मनुष्य की पहली प्राथमिकता स्थिति को सामान्य करने की होनी चाहिये।  आपदा प्रबंधन में सेना\आईटीबीपी के अतुलनीय योगदान ने फ़िर बहुत से लोगों को बचा लिया नहीं तो हानि की मात्रा बहुत ज्यादा होती।  अपने परिवार में या परिचय में एक की भी असमय मृत्यु हमें शोकाकुल कर देती है, यहाँ तो हजारों की संख्या में नागरिक असमय काल के गाल में समा गये। वास्तविक हानि का  अब तक अनुमान नहीं लगाया जा सका है।

दूसरी तरफ़ इन दुर्घटनाओं से भी अपने आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक हित साधने वालों की कोई कमी नहीं है    और ये काम इतनी सधे तरीके से किये जाते हैं कि इनकी तह तक पहुँचना बहुत आसान नहीं रहता। ब्लॉगर भाईजान अपने सेक्रेटरी पर बात डाल सकते हैं या प्रतिष्ठित अखबारों पर डाल सकते हैं, मीडियावाले अपने से भी ज्यादा प्रतिष्ठित जर्नलिस्ट्स पर डाल सकते हैं, विकल्प असंख्य हैं। ऐसे जुझारू लोग ही इस और इससे पहली पोस्ट के सरोगेट फ़ादर हैं, हम जैसों के प्रेरणास्रोत हैं। वो खुद भी बाज नहीं आते और समय समय पर हमारे अंदर का कलुष भी निकलवाते रहते हैं। 

पीछे वाली पोस्ट से आगे बढ़ते हुये एक बार ’हारम’ एग्रीगेटर पर most viewed articles के अंतर्गत पहले\ दूसरे नंबर पर चमकती रही एक पोस्ट का स्नैप शॉट(एडिटिड वर्ज़न) देख लें। एडिशन में शब्दों के साथ मैंने कोई छेड़्छाड़ नहीं की है, मेरी समझ में जितना कुछ बात करने लायक है, उसे आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
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’महिलाओं की आबरू’ और ’उनकी आबरू पर हमला’ पर जो लिंक दिया गया है, वो वही है जो लिंक मैंने पिछली पोस्ट पर दिया था और  उत्तराखंड में हुई त्रासदी से इसका संबंध पूछा था। मुझे दोनों में कोई संबंध नहीं दिखा था तो सोचा आप से मार्गदर्शन ले लूँ।  हो सकता है आपके चश्मे का रंग मेरे चश्मे से अलग हो और कुछ ऐसा दिख जाये जो मुझे नहीं दिख रहा था लेकिन इस मामले में आप सब भी मेरी तरह ’ऐंवे-से’ ही निकले।

सिर्फ़ ऊपर वाली पोस्ट और उसमें दिये लिंक ही नहीं, अंग्रेजी की कई पोस्ट्स भी देखीं जिनमें महिलाओं के साथ बलात्कार होने की बात कही गई लेकिन लेखक ने जिक्र किया कि उन्होंने किसी से ऐसा सुना है। नुकसान तो दूसरे प्रांत के लोगों के साथ  उत्तरांचलवासियों का भी हुआ है बल्कि उनका ज्यादा हुआ है। लूटपाट और बलात्कार वाली घटनायें जानकर मैं सोच रहा था कि भूखे-प्यासे लोग, जिनकी खुद की जान पर बनी हुई है वो क्या ऐसी हरकतों में शामिल हो सकते हैं? डाक्टर, वैज्ञानिक, मनोविशेषज्ञ इस बात पर ज्यादा अच्छे से बता सकते हैं। 

मेरे खुद के एक कुलीग और बहुत अच्छे मित्र इसी क्षेत्र के रहने वाले है। उस दिन दूसरी ब्रांच से एक दूसरे  गढ़वाली मित्र किसी काम से आये तो उन दोनों की बातचीत में इस बात को लेकर बहुत फ़िक्र थी कि कैसे उनके क्षेत्रवासियों का नाम ऐसी दरिंदगी भरी घटनाओं में सामने आ रहा है। अपनी दौड़ नेट तक है तो  मैंने घर आकर नेट पर ऐसी खबरों की वास्तविकता जाननी चाही।  वाकई कई पोस्ट्स दिखीं लेकिन जब विस्तार में जाकर पढ़ा तो कुछ और ही पाया। ऐसा नहीं कि लूटपाट नहीं हुई होगी या वो जस्टीफ़ाईड है लेकिन इस आड़ में भ्रामक दुष्प्रचार करना केवल सनसनी पैदा करने की ललक है या इसके पीछे हैं कुटिल इरादे, इस पर सबके अपने अपने ख्याल हो सकते हैं। 

हो सकता है औरों को ये सब बातें बहुत बड़ी न लगती हो लेकिन सबके पैमाने भी तो एक से नहीं हो सकते।  मुझे भी कई बार लगता है कि कुछ बातों पर मेरी प्रतिक्रिया अजीब सी होती है,  लेकिन अंतत: तो मैं खुद के प्रति ही जवाबदेह हूँ और मुझे यही ठीक लगता है कि इस बात की तरफ़ अन्य इच्छुक मित्रों का ध्यान भी जाये। हो सकता है समय की कमी या किसी और वजह से वो इधर न देख पाये हों या फ़िर यह कि हो सकता है कि इस बहाने से मुझे ही इस घटना को मेरे किसी अनदेखे कोण से देखने का अवसर मिल जाये।

हाँ, एक बात जरूर कहना चाहता हूँ कि शब्दों का जीवन मानव-जीवन से कहीं ज्यादा लंबा है और प्रभाव असीमित। बहुत बार एक शब्द या एक वाक्य भी जीवन की दिशा बदल देता है।  हम बचपन में कहावत सुनते थे कि ’मारते का हाथ पकड़ सकते हैं लेकिन बोलते का मुँह नहीं।’ आज के समय में इस मुहावरे के आयाम और भी विस्तृत हो गये हैं, बोलने के साथ हमें लिखने की भी आजादी मिल गई है तो सूचनाओं को ग्रहण करने में और भी अधिक सतर्कता की आवश्यकता है।

दैवी आपदा से प्रभावित प्रत्येक जीव तक हमारी संवेदना पहुँचे और उनके दुख का कुछ हिस्सा हम बाँट सकें,  ईश्वर से यही प्रार्थना है। 

मंगलवार, जून 25, 2013

आप कितने बुद्धिमान हैं?

आपने भी जरूर बचपन में ये ट्राई किया होगा। दो लगभग एक जैसे चित्र बने रहते थे और उनमें कुछ अंतर होते थे। दिये गये समय में कौन कितने अंतर ढूँढ पाता है, उसी के आधार पर जीनियस, बुद्धिमान, सामान्य आदि श्रेणियाँ मिल जाती थीं।

आईये बचपन को फ़िर से याद करें लेकिन और भी आसान तरीके से, नीचे दिये लिंक को ध्यान से देखिये और फ़िर इस आसान से प्रश्न का उत्तर देना चाहें तो दे सकते हैं -

लिंक

प्रश्न :       केदारनाथ त्रासदी और इस घटना में साम्यता\संबंध बताईये।

p.s. -कृपया पोस्ट शीर्षक पर न जायें, वो दिखावटी है। शीर्षक होना तो ये चाहिये था कि ’यहाँ सब बुद्धिमान हैं।

गुरुवार, मई 23, 2013

’आस्तिकों का प्याज़’

कल सुबह बैंक के लिये निकल रहा था, माताजी से बाय-बाय कहते ही सुनाई पड़ा, "आजकल लू बहुत चल रही है, जेब में एक छोटा सा प्याज रख ले।" आदत के हिसाब से मैंने नानुकर की तो समाचार सुन रहे पिताजी ने भी मेरे विपक्ष में अपना वोट डाल दिया। उपलब्ध प्याजों में से सबसे छोटा प्याज(जोकि इतना छोटा भी नहीं था),  अपनी पेंट की छोटी सी जेब के हवाले करके मैंने कूच का नगाड़ा बजा दिया।

मेट्रो स्टेशन पहुँचकर बैग  स्कैनिंग मशीन के हवाले किया  और खुद लाईन में खड़ा हो गया। भीड़ के हिसाब से सवारियों के शरीर पर जल्दी जल्दी हाथ फ़ेरते जवान ने पैंट के एकतरफ़ा उभार पर लाकर हाथ रोक दिये। "क्या है ये?"  मैंने जेब से प्याज निकालकर दिखा दिया और आसपास के लोगों के हँसते चेहरे देखकर स्पष्ट करना चाहा कि ये प्याज तो मैं अपनी माताजी का मन रखने के लिये जेब में रखे हुये हूँ। लाईन को रुकी देखकर पास में खड़ा सब-इंस्पेक्टर नजदीक आकर मामला समझने लगा। लाईन में मेरे पीछे खड़े बंदों में से एकाध ने मजाक में कुछ कहा तो हम हिंदुस्तानियों का मनपसंद काम शुरू हो गया - बहसबाजी। तीन लड़कों का ग्रुप था वो, जुट गये मेरी खिंचाई करने पर। वक्त-वक्त की बात है, कभी हम ’संतरे के बीज’ के नाम पर अपने दोस्तों को खींचा करते थे और आज प्याज को मुद्दा बनाकर भाईलोग हमारी खिंचाई कर रहे थे। खिंचाई भी खाज की तरह है, खुद करो तब भी मजा और दूसरा करे तब भी मजा। इस प्रकरण के ज्यादा विस्तार में नहीं जाऊंगा,  कुछ डायलाग्स पेश हैं - 

- भाई साहब नये नये मुसलमान बने हैं, तभी प्याज जेब में रखकर घूम रहे हैं।

- अरे नहीं यार, माताजी ने जबरदस्ती रखवा दिया। कहती हैं कि जेब में प्याज रहे तो लू नहीं लगती।

- और आपने आजके समय में ये बात चुपचाप मान ली? कभी इस बात की टेस्टिंग की है?

- नहीं भाई, मना किया था पहले। वो नहीं मानी, मैंने सोचा कि उनकी बात रख लेता हूँ।

- क्या प्रूफ़ है कि जेब में प्याज रखने से लू नहीं लगती?

- कोई प्रूफ़ नहीं है, मैंने माँगा भी नहीं। मैंने तो ये सोचा कि इसमें नुकसान क्या है?

बातें एकदम क्रम में नहीं हैं लेकिन ऐसी ही बातें चलती रहीं। बातों से बातें निकलती रहीं कि वैसे तो प्याज एक तामसिक गुण वाली वनस्पति है इसीलिये पेटपूजा के अलावा किसी पूजा में इसका प्रयोग नहीं किया जाता। अंधविश्वास, अंधश्रद्धा, लकीरे के फ़कीर, घिसीपिटी मान्यतायें, तर्कशीलता जैसी कई बातें हुईं। एक बंधु ने तो लू पर ही सवाल खड़ा कर दिया कि कैसे मान लें कि लू चलती है? और भी बहुत सी बातें होती रहीं, जिसका जिसका स्टेशन आता रहा वो अपने रास्ते जाता रहा। 

बातचीत में बार बार एक मुद्दा आता था कि सिद्ध कैसे किया जाये? कैसे सिद्ध किया जाये कि लू नाम की कोई शै होती भी है? जो दिखती नहीं, जिसका कोई रंग नहीं, कोई खुशबू नहीं, कोई आकार नहीं - उसके अस्तित्व को कैसे स्वीकार कर लिया जाये?  अगर मान भी लिया जाये कि ऐसी कोई चीज होती है तो फ़िर यह कैसे सिद्ध किया जाये कि जेब में प्याज रखने मात्र से लू से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है? मौके पर तो मुझे बात सूझती नहीं, बाद में सोचता रहता हूँ। जैसे चिडि़याघर का एक गधा किसी दूसरे के सुनाये चुटकुले पर दो दिन के बाद हँसता है। भाई, जब समझ आयेगा तभी तो हँसेगा। मुझे भी सवाल बाद में समझ आये तो बाद में ही जवाब सोचूँगा न?

एक फ़ेसबुक स्टेटस और फ़िर प्रवीण जी की पोस्ट से पता चला कि ब्लॉगजगत के ठहरे हुये पानी में भगवान के नाम पर  थोड़ी बहुत हलचल मची है। बड़ी  बहस में सक्रिय भाग लेने की फ़ुर्सत भी नहीं, क्षमता भी नहीं और सच कहूँ तो इच्छा भी नहीं। तर्क/कुतर्क तो बहुत से दिये जा सकते हैं लेकिन उनसे सस्ती लोकप्रियता के अलावा कुछ और हासिल होता हो, मुझे नहीं लगता। हम तो यहीं लिखकर लू से बचने का जुगाड़ कर रहे हैं। वैसे प्याज पर पहले भी एक पोस्ट लिखी थी लेकिन तब मामला अलग था। तब प्याज महंगाई का पैमाना था, आज प्याज अपने लिये आस्तिकता-नास्तिकता का पैमाना है।    

इस प्रकरण के बाद सोच रहा हूँ कि प्याज को लू से बचाव का सार्थक उपाय मानने वाले और इसे सिर्फ़ एक टोटका मानने वालों में से कौन सही है और कौन गलत? शायद दोनों ही सही हों या दोनों ही गलत या फ़िर दोनों ही सही भी हों और गलत भी हों। वैसे ऐसा भी  हो सकता है क्या? 

किसी का मानना है कि प्याज जेब में रखने से लू नहीं लगेगी, किसी का मानना है कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।  जिसे विश्वास है वो उसपर अमल करे और जिसे विश्वास नहीं है वो न करे, यहाँ तक स्वीकार्य। अब अगर विश्वास करने वाला दूसरे की गर्दन पर छुरी रखकर उसे मजबूर करे कि प्याज को जेब में रख या विश्वास न करने वाला ऐसे ही दूसरे को विवश करे कि जेब से प्याज निकाल, तब बात अस्वीकार्य होनी ही चाहिये। जेब में प्याज रख लेने भर को लू से बचने की गारंटी मान लेना शायद मूर्खता ही होगा। दूसरी तरफ़ जेब में प्याज रखने से अगर हर समय मुझे यह अहसास रहे कि लू से शरीर को नुकसान हो सकता है, इसीलिये मैंने यह जेब में रखा है।  और मुझे इस बारे में असावधान नहीं रहना चाहिये तो प्याज के चिकित्सीय गुण उतने न होने पर भी हमें उसका लाभ मिल सकता है। 

जहाँ भी असहमति दिखती है उसकी मूल में ’कुछ होने’ से ज्यादा बड़ी बात ’हम उसे कैसे मानते हैं’ लगती है। मैं ऐसा मानता हूँ, कोई दूसरा कुछ और मान सकता है और इसमें कोई बुराई भी नहीं। बुराई तब है जब हम दूसरों  के अपने से अलग विचारों को सहन भी नहीं करना चाहते। बुराई तब है जब एक या दोनों पक्ष ये चाहें कि सामने वाला उसके हिसाब से ही सोचे और माने। 

बाई द वे, आपमें से कोई हिचकी न रुकने का कोई आसान सा इलाज बता सकता है? बिना दवा वाला टोटका बतायेंगे तो भी चलेगा।  अपना एक अनुभव तो मेरे पास भी है लेकिन घर का मुर्गा तो आप जानते ही हो कि चने बराबर होता है :)

बुधवार, अप्रैल 24, 2013

समय का चक्र

                                                             
                                            (कोणार्क सूर्य मंदिर का एक चित्र, गूगल से साभार)


गाड़ी में उस दिन भाई साहब हमेशा की तरह बोल तो कम ही रहे थे लेकिन चेहरा कुछ ज्यादा ही उतरा हुआ था।  मैंने पूछा तो कहने लगे, "अब आप लोगों के साथ शाम का साथ छूट जायेगा। गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों का सर्वे शुरू हो रहा है, मेरी भी ड्यूटी लगेगी। कम से कम तीन चार महीने तक इसके बाद वाली गाड़ी पकड़ने को मिलेगी।" अनुमान लगाया तो उस अल्पभाषी सहयात्री ने शायद तीन चार महीने की एकतरफ़ा अनुपस्थिति की गणना करके ही इतना लंबा वाक्य बोला होगा, हम भी कुछ उदास तो हो ही गये।

अगले दिन ट्यूबलाईट स्माईल देखकर समझ गया कि ड्यूटी में कुछ बढ़िया सेटिंग हो गई है, कुरेदने पर उन्होंने बताया कि उनके बॉस ने सर्वे के एरिया बाँटने की ड्यूटी उन्हें ही सौंप दी थी और उसका फ़ायदा उठाते हुये उन्होंने शहर की एकमात्र पोश कालोनी वाला एरिया अपने नाम लिख लिया था। अब पोश एरिया में कितने  BPL वासी होंगे?  चहकते हुये बताने लगे कि हमारी शाम वाली कंपनी बनी रहेगी, इसलिये खुश हैं। 

कुछ दिन बीतने के बाद भाई साहब खीझे-खीझे दिखने लगे। पता चला कि उस एकमात्र पोश कालोनी\सेक्टर में बहुत से लोग बीपीएल लिस्ट में नाम जुड़वाना चाहते हैं और इस काम के लिये  नेताओं के समझाईश, धमकाईश वाले फ़ोन आ चुके हैं। "तेरी जेब से जायेगा क्या पैसा?" "सरकार की स्कीम सै, सरकार ने ही सरदर्दी लेण दे"  "कोठी में रहे सैं तो फ़ेर के हो गया? कोठी उसके नाम तो ना है न? "इणका हक सै, रुकावट मत बणया कर बीच में। तेरा काम लिस्ट बनाण का सै, बणा दे चुपचाप और खुद भी ठाठ से रह।"   भाई साहब की हालत साँप के गले में छछुँदर जैसी थी, न उगलते बनता था न निगलते। 

बैंक सेवा के दौरान मैंने भी ऐसे कई मामले देखे। अच्छी-अच्छी जमीन जायदाद वाले लोग-लुगाईयों का नाम सरकारी सहायता वाली लिस्ट में रहता था। सोच वही कि मिल रहा है तो ले रहे हैं। एक दिन एक बुढ़िया को गार्ड साहब ने टोका भी, "ताई, तू भी यो पांच सौ रुपये महीने वाली पेंशन लेती है? करोड़ों की जमीन सै तेरे पास, धत्त तेरे की।" ताई ने अनुभव की बात बताई, "बेट्टा, सरकार तो चूण चोकर भी दे तो बेशक पल्ला पसारकर लेणा पड़े,  ले लेणा चाहिये। अपना हक कदे न छोडना चाहिये।"

एक समय था जब कर्तव्य सर्वोपरि था। उसीके पालन की शिक्षा दी जाती थी और उनलोगों के द्वारा दी जाती थी जो खुद कर्तव्यपालन में विश्वास रखते थे। कर्तव्यबोध परिवार, मित्रता, जाति, धर्म, देश, मानवता किसी भी कारक से प्रेरित हो सकता था। मेढ़ बचाने के लिये आरुणि खुद सारी रात बारिश में भीगता रहा तो उसके पीछे गुरु की आज्ञा को कर्तव्य मानने की मानसिकता ही थी। लंका पहुँचने के लिये अथाह जलराशि पार करते मारुतिनंदन हनुमान को जब विश्राम का प्रलोभन मिला तो ’राम काज कीन्है बिना, मोहे कहाँ विश्राम’ स्वामी-मित्र के प्रति कर्तव्यबोध की पराकाष्ठा ही थी। आततायी शासकों को मुँहतोड़ जवाब देने के लिये खुद को और अपने परिवार को वार देना गुरू गोबिंदसिंह जी को देश, धर्म के प्रति अपना कर्तव्य ही लगा था।  उदाहरण अनंत हैं, सैंकड़ो-हजारों और गिनवाये जा सकते हैं, सीमित तो हमारी खुद की लिखने पढ़ने और समझने की क्षमता है। कर्तव्य मार्ग कठिन अवश्य था और ध्यान कर्म पर ज्यादा रहता था, उसके परिणाम की अपेक्षा गौण थी। मान्यता यही थी कि ’कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन"।  उस मार्ग पर चलने से यानि प्रत्येक जन के अपने कर्तव्यपालन के प्रति सजग  रहने से समाज के दूसरे घटकों के प्रति कोई अन्याय होने की संभावना बहुत कम थी। 

समय बदलता रहता है, कठिन मार्ग का और भी कठिन लगना स्वाभाविक ही रहा होगा। आज का युग अधिकार का युग है। महिलाओं का अधिकार, श्रमिकों का अधिकार, बाल अधिकार, ग्राहकों का अधिकार और इसके अलावा बहुत से अधिकार बल्कि सबके लिये कोई न कोई अधिकार। किसी किसी के लिये तो एक से अधिक अधिकार भी। प्राथमिकतायें बदलकर कर्तव्यपालन की जगह अधिकार प्राप्ति की हो गई हैं। अपना काम निकलवाने के लिए चाहे जिस अधिकार की दुहाई देनी पड़े, दी जाती है। अपने कर्म से ज्यादा परिणाम पर फ़ोकस है और इसे जस्टिफ़ाई करने के लिये एक लंबी सी अधिकार सूची और अनंत तर्क। परिणामस्वरूप अपनी बात और अपनी आवाज को दमदार तरीके से न उठा सकने वाले अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत और शोषण और अन्याय को झेलने के लिये अभिशप्त हैं।

समय का चक्र चलता रह्ता है, ’रामकाज कीन्है बिना मोहे कहाँ विश्राम’ से लेकर ’ये लो अपनी कंठीमाला, भूखे भजन न होय गोपाला’   और  ’कर्मण्येवाधिकारस्ते ....’ से  चलकर ’साड्डा हक, ऐत्थे रख’  तक के सफ़र की मुझ समेत आप सबको बधाई। हमारे आपके योगदान के बिना ये पड़ाव इतनी सहजता से शायद न आता।  आगे समय का चक्र किस पड़ाव पर ले जाकर पटकेगा, देखते रहेंगे..... हम लोग। 


मंगलवार, अप्रैल 16, 2013

अपने पराये

वापिसी में जब कभी गाड़ी देर से आ रही होती तो हमारे एक साथी को चाय की तलब लग जाती थी। हम लोग प्लेटफ़ार्म पर ही स्थित टी-स्टाल पर चले जाते थे। छोटे शहरों में नौकरी करने का सुख भी अलग ही होता है, लोग आईडेंटिफ़ाई करते हैं। स्टाल पर हमें देखकर ठेकेदार खुद मोर्चा संभाल लेता था और स्पेशल चाय विद मट्ठी पेश कर दी जाती थी। सबसे पहली बार तो उसने पैसे लेने से भी मना कर दिया। बहुत झिकझिक हुई, आखिर में उसे समझाया गया कि भाई साहब, हम तो भाव के भूखे हैं। कभी कभार आ जायें तो आपके माथे पर सिलवटें  न दिखें कि आ गये फ़्री के भड़ुए, अपने लिये  इतनी इज्जत  बहुत है। इससे ज्यादा इज्जत अपने से बर्दाश्त भी नहीं होती है। दोबारा बुलाना चाहते हो तो पैसे पकड़ो, तब श्रीमान जी ने पैसे काटे। हफ़्ते - दस दिन में एकाध बार ऐसा मौका बन ही जाता था या फ़िर ऐसा मौका बनता बरसात के दिनों में - अहा, उस दिन मट्ठी की जगह दूसरे प्लेटफ़ार्म से पकौड़े  मंगाये जाते और चाय के साथ उनका लुत्फ़ उठाया जाता। धीरे धीरे हुआ ये कि स्टाल के आसपास डेरा जमाये बैठी ताश मंडली के लोग हमें और हम उनको पहचानने लगे।

खैर, ये बात तो शुरुआती दिनों की ही है।  ऐसे ही एक दिन हम चाय पी रहे थे कि आँखों पर एक मोटा सा चश्मा चढ़ाये एक पचपन-छप्पन साल का आदमी ताश मंडली से आकर ठेकेदार के पास खड़ा हो गया। हाँ यार, देखा तो है इसे कई बार ताशवालों के पास बैठे हुये लेकिन इतना गौर नहीं किया था। कमीज के एक दो बटन टूटे हुए, हाथ में बीड़ी, चेहरे पर दीनता नहीं लेकिन विनम्रता वाली एक साधारण स्मित बस यूँ मान लीजिये कि संभ्रांत गरीबी वाला एक कैरेक्टर था।  ठेकेदार अच्छी ठसक वाला आदमी था लेकिन उस आदमी से बहुत अपनापे से बात कर रहा था। उन दोनों की बातचीत से पता चला कि कुछ दिन पहले ही इस बंदे की पत्नी का देहाँत हो गया है।  उसकी पत्नी के नाम से बैंक में एक फ़िक्स डिपाज़िट थी जिसमें उसकी लड़की का नामांकन था, उस बारे में ठेकेदार से कुछ सलाह कर रहा था। ठेकेदार ने गेंद इधर हमारे पाले में डाल दी। अपनी समझ के अनुसार उसको हमने सलाह दी और बिना झिझक के बैंक में आने का न्यौता भी दिया। हो सकता है कि हम लोगों की हमजबानी, जिसे आम भाषा में ताना मारने के लिये गैर पंजाबी लोग ’तुसी-मुसी’ कहते है, इसका भी कुछ योगदान रहा ही हो।  ज्यादा शराफ़त का एक दुष्परिणाम भी रहता है कि इंसान बहुत बार अनावश्यक भी सकुचाता रहता है। कहना न होगा, उस आदमी के लिये हम जैसों का इतना सा आश्वासन भी बहुत बड़ा सहारा बन गया, वो एक दिन के बाद अपनी बेटी के साथ और बताये गये दस्तावेज लेकर आया और नियमानुसार सब काम हो गये।

उस दिन के बाद जब जब हम चाय पीने जाते और ताश मंडली के उस स्थायी दर्शक की नजर हम पर पड़ जाती, वो उठकर हमारे पास आता। दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करता, हालचाल पूछता, चाय पिलाने की जिद करता और खुद निहाल होता और हमें शर्मिंदा करता जाता, वही ज्यादा इज्जत बर्दाश्त न होने वाली बात :) ऐसे ही बहुत से दिनों में से एक दिन था, स्टेशन पर ही हमारी दुआ सलाम, हँसी मजाक चल रही थी। हमारे बैंक की एक रेगुलर महिला ग्राहक जो कि प्राध्यापिका थीं और हरियाणा की ही थीं,  अपने परिवार के साथ वही गाड़ी पकड़ने के लिये उसी प्लेटफ़ार्म पर पास में ही खड़ी थीं। बल्कि उस समय वो अपने श्रीमान जी से परिचय करवाकर ही हटी थीं कि हमारे ये पंजाबी भाई हाथ जोड़कर प्रगट हुये थे। कुछ देर के बाद टीचरजी हँसते हुये कहने लगीं, "एक बात है संजय जी, आप पंजाबी बहुत अच्छी बोल लेते हैं।" 

मैंने कहा, "इसमें कोई बड़ी बात नहीं है, वो इसलिये कि  मेरी मातृभाषा पंजाबी ही है।" 

बहुत हैरान होते हुये उन्होंने पूछा, "सच बताओ?"

मेरे हाँ कहने पर जैसे उन्हें बहुत आश्चर्य सा हुआ, कहने लगीं, "इतनी बार आपसे बात होती है, कभी ऐसा लगा ही नहीं। हम तो समझते थे कि आप हम लोगों में से ही हो।" 

अपने नहीं बल्कि पराये होने वाली बात पर मैंने कुछ जवाब दिया, हम सब खूब हँसे उस दिन। लेकिन कभी अवकाश के पलों में सोचता हूँ तो ये भी एक यक्ष प्रश्न लगता है - अपना कौन, पराया कौन?

ये भी कुछ पहले ही की बात है, शनिवार का दिन था। पब्लिक डीलिंग का समय खत्म हो चुका था, एक लड़का जो उम्र और बैग वगैरह से कोई कालेज स्टूडेंट दिखता था, रिक्वेस्ट करके बैंक के अंदर आ गया। कहने लगा कि एक ड्राफ़्ट बनवाने के लिये पैसे जमा करवा गया था, वही ड्राफ़्ट लेना है। डीलिंगहैंड से उसकी बातचीत सुनी तो पता चला कि जिस कालेज के पक्ष में उसने  ड्राफ़्ट बनवाना था, आवेदनपत्र में उसका नाम स्पष्ट न लिखा होने के कारण आज ड्राफ़्ट नहीं बन पाया और अब कैश का समय समाप्त हो चुका। कभी कभी दूसरों के फ़टे में टाँग फ़ँसाने की आदत के चलते वो आवेदन पत्र देखा, वाकई उसने नाम कन्फ़्यूज़िंग तरीके से लिखा था। नीचे देखा तो आवेदक पाठक सरनेमधारी छात्र था। उम्र में हमसे छोटा था और गरजमंद भी था, इसलिये दो बात सुनाने का अच्छा मौका था। मौके का फ़ायदा उठाकर उसकी कमी बताई और उसे शर्मिंदा किया। बालक ने महसूस किया कि ’कैपिटल अक्षरों में फ़ार्म भरें’  लिखा होने के उपरांत भी उसने कैपिटल अक्षरों में फ़ार्म  नहीं भरा था तो गलती उसकी ही है। सोमवार को आने की कहकर चला गया। 

सोमवार सुबह आकर पैसे जमा करवाये और शाम को ड्राफ़्ट लेने की कहकर चला गया। शाम को आया तो बैंक वालों ने ड्राफ़्ट गलत जगह के लिये बना दिया था। बात फ़िर से अगले दिन शाम  पर गई। तीसरे दिन फ़िर वही कहानी, शाम को आया तो इस बार जगह ठीक थी लेकिन नाम में गलती थी। हर चक्कर में वो लड़का मेरी सीट का काम न होते हुये भी ’नमस्ते सर’ कह जाता था, कोई शिकायत नहीं, कोई शिकवा नहीं। गलती किसी की हो, वो खुद खिसियाया हुआ सा कल फ़िर आने की  बात कहकर ’नमस्ते सर’ कहकर चला जाता। चौथे दिन इन नमस्तेओं से हताहत मैंने खुद उस ड्राफ़्ट बनवाने वाले साथी के पास खड़ाकर होकर अपने सुपरविज़न में ड्राफ़्ट बनवाया और चाशनी में लपेटकर इस ड्राफ़्ट के चक्कर में लगने वाले उस लड़के के चक्करों के बारे में सुनाया। साथी ने मुस्कुराते हुये पूछा, "सरजी,  कोई अपना है क्या जिसके लिये इतनी फ़िक्र कर रहे हो? ये तो नाम से ब्राह्मण लग रहा है कोई।" 

मैंने कहा, "हाँ यार, ये गलती तो बहुत बड़ी हुई। वो ब्राह्मण मैं गैरब्राह्मण,  वो हिंदीभाषी और मैं पंजाबी, वो यू.पी या बिहार का और मैं दिल्ली का,  अपना तो कहीं से भी नहीं लेकिन दोस्त अगर उसकी जगह तेरा लड़का होता तो.."

"अरे लो सरजी, आप तो बात का बतंगड़ बनाने लगते हो। आपकी बात का जवाब तो मैं बहुत अच्छे से दे दूँ  लेकिन फ़िर सोचता हूँ  कि बाहर वालों के लिये आपस में क्यों बिगाड़ना।"

मैंने हँसते हुये यही कहा कि दोस्त, इसी बात के बतंगड़ में तो हमें मास्टरी है।

हाँ, मैं तबसे  इस सवाल को और ज्यादा खोजने में लगा हूँ कि अपना कौन है और पराया कौन है? आपमें से किसी को जवाब मिले तो संभालकर रख लेना, कभी मिलेंगे तभी समझ लूँगा। यहाँ बताने के लिये कह दिया तो हो सकता है एक और विवाद शुरू हो जाये :)

                                                                                                    

रविवार, अप्रैल 07, 2013

स्टिंग ऑपरेशन

(एक निम्न मध्यमवर्गीय एकल परिवार के स्टिंग ऑपरेशन का नाट्य रूपांतरण)


"इतवार के दिन भी घर की समस्याओं की तरफ़ ध्यान मत देना, तुम्हारे किताबों में सिर छुपा लेने से जैसे सब काम अपने आप हो जायेंगे।  बच्चों के स्कूल खुल गये हैं। इस बार तीन महीने की फ़ीस जानी है, नई वर्दी और किताबें लानी हैं लेकिन तुम्हें इन सबसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। पिछले महीने का मकान का किराया नहीं दिया अब तक।  मकान मालकिन कैसे टेढ़ा टेढा बोलती है, मैं जानती हूँ। लेकिन तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता।   करम फ़ूटे थे मेरे जो.....।"

"अरे पूरे हफ़्ते वो मालिक खून पीता है, कम से कम एक दिन तो चैन की साँस आने दो। एक बार बड़बड़ाना चालू करती हो तो फ़िर दुरंतो एक्सप्रेस की तरह नोन-स्टोप भड़भड़ भड़भड़..। कई दिन से सोच रहा था कि अब मैं भी कविता लिखूंगा। मुश्किल से विचार इकट्ठे हो रहे थे, तुम्हारी बकबक एक्सप्रेस ने सब बिखेर दिया। तुम्हारे फ़ूटे करमों को भुगत कौन रहा है? मैं ही तो। ये नहीं कि एक प्याली चाय बना देती।"

"चाय नहीं, गरमागरम खीर बना देती हूँ न। दूध की तो नदियाँ बहा रखी हैं जैसे तुमने घर में। बच्चे भी दिन में एक से दूसरी बार दूध मांग ले तो दूध में फ़ैट और मिलावट बताकर बहला देते हो। लिखेंगे कविता देश को आगे बढ़ाने की, हुंह। जैसे तुम्हारे लिखने से ही  सारे हिंदुस्तानी देशभक्त बने  हैं। पहले पता होता कि तुम्हें कागज काले करने का शौक है तो मेरे पिताजी मुझे यहाँ झोंकते भला?"

"रहने दो तुम्हारी खीर, तुम्हारी बातों से ही पेट भर जाता है। अगले हफ़्ते तन्ख्वाह मिल जायेगी तो सब शौक पूरे कर लेना।    देशभक्ति पर लिखने के जनरली तीन मौके होते हैं  - छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त और चुनाव। आज देशभक्ति पर नहीं, सामाजिक समस्या पर लिखने की सोची है।"

"जानती हूँ तुम्हारी कलमिया तलवार को, सामाजिक समस्या पर लिखोगे तो एक नई समस्या और पैदा हो जायेगी।"

"अरे गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, शोषण पर लिखूँगा लेकिन आज मैंने कविता जरूर लिखनी है, आधी प्याली चाय ही बना दो यार।"

"एक बार जता दिया तो समझ लेना चाहिये कि दूध खत्म है, चाय नहीं बन सकती।"

"अच्छा बाबा, तुम सही कहती हो।  देश नहीं, समाज भी नहीं, समस्या भी नहीं तो आज प्यार, रोमांस जैसी नाजुक भावनाओं पर ही कुछ कोशिश करूंगा लेकिन भगवान के वास्ते कुछ देर मुझे अकेला छोड़ दो। दिमाग वाला काम है बहुत।"

"नालायकों के बस्ते भारी, तुम लिखोगे प्यार-व्यार पर कविता?  किंतु तुम खुद ही तो कह रहे थे कि ये बहुत दिमाग वाला काम है?" ........................................... क्या हुआ, चुप क्यों हो गये?  कोई एक टॉपिक तो फ़ाईनल हुआ नहीं तुमसे, खाक कविता लिखोगे तुम।"

"मैं,  मैं तुम पर कविता लिखूँगा।"


"मुझ पर?"


"हाँ रानी, तुम पर। कैसे इतनी तकलीफ़ में भी तुम मेरा सहारा बनी हुई हो, मेरी हर समस्या से आगे बढ़कर जूझने लगती हो। कोई और होती तो कब की मुझे छोड़ गई होती।"

"तुम भी न बस्स, बाल पकने लगे लेकिन ..।   मैं अभी तुम्हारे लिये इलायची वाला दूध गरम करके लाती हूँ फ़िर आराम से बैठकर सोचना। बच्चों के साथ बाजार मैं ही चली जाऊंगी। तुम्हें भी तो आराम के लिये सप्ताह में  एक ही दिन मिलता है।" 
पति के बालों में उँगलियाँ फ़ेरकर प्रफ़ुल्लित मन से पत्नी  कमरे से बाहर निकल जाती हैं।