बुधवार, दिसंबर 29, 2010

हमको खबर भी नहीं......

इस बार क्रिसमस का त्यौहार बहुत बढ़िया दिन था। आप कह सकते हो कि हर बार ही २५ दिसंबर को होता है, इस बार बहुत बढ़िया दिन कैसे हो गया? बात ये है कि इस बार पच्चीस दिसंबर शनिवार को था। दो दिन की छुट्टी एक साथ मिल जाये तो हमारे लिये तो जैसे जैकपॉट लग गया हो। बच्चों के स्कूल वालों ने इस बार छुट्टियों और परीक्षाओं का ऐसा घालमेल किया कि सर्दी की छुट्टियों में हमारा पेरेंट्स के पास जाना संभव नहीं हो पाया। अपने दो दिन की छुट्टी का जब पता चला तो हमने बहुत दिनों से थमी अपनी आवारगी को फ़िर से जिन्दा करने का फ़ैसला किया। सर्दी इतनी ज्यादा थी कि रजाई छोड़कर जाने का मन नहीं किया। वैसे भी अब हम कोई ऐंवे से बंदे नहीं रहे अब, हम हो गये हैं ब्लॉगर। अपनी बिरादरी के अकेले ब्लॉगर, अपने ऑफ़िस के अकेले ब्लॉगर, अपनी गली मुहल्ले शहर के भी संभवत: अकेले ब्लॉगर। तो सोचा कि चलो वैसी आवारगी न सही, आज वर्चुअल आवारगी ही सही।  जानी पहचानी साईट्स को छोड़कर नई राहों पर चला जाये। लेकर ऊपर वाले का नाम, गूगल सर्च पर पता नहीं क्या डाला था,  भूल गये अब और  खुल गया एक नया रास्ता, एक नई डगर।  पहला ही कदम और वो मुहावरा सच होता दिखा कि ’जहँ-जहँ पड़े पैर संतन के, तहँ-तहँ बंटाधार।’  अपनी तो  आँखें और मुँह खुले के खुले रह गये। आश्चर्य भी हो रहा था और कभी खुशी कभी गम भी। आप भी देखें जरा, ।

सम्मान योग्य पुजा देवी उर्फ़ पुजा देबी अलियास puja jha,  यही पोस्ट मय फ़त्तू फ़ीचर, मेरे ब्लॉग पर  17 जून 2010 को छप चुकी है।  जो मैंने लिखा था, वो किसी और को भी पसंद आया और इतना पसंद कि उसे अपने ब्लॉग पर छाप डाला, सही मायने में तो खुशी हुई अपने को।  आखिर किसी को तो हमारा उंगलियां तोड़ना भाया:)  धन्यवाद पुजा देबी जी।  फ़िर हमें तो वैसे भी चोरी की आदत हो चुकी है। कभी दिल चुरा लिया किसी ने, कभी चैन। किसी ने ख्वाब चुरा लिये तो किसी ने नींद ही चुरा ली। फ़िर हमने भी तो ये प्लॉट कहीं से चुराया ही था। यूँ समझ लेंगे कि चोरों को मोर पड़ गये।  बस थोड़ा सा अफ़सोस है कि खबर न हुई हमें। 

इसी बहाने आपका सारा ब्लॉग देखा। धर्म, व्रत, त्यौहार जैसी चीजों से अटा पड़ा है आपका ब्लॉग।   फ़िर ये पोस्ट, बात कुछ हजम सी नहीं हुई।

हमारे पड़ौस में एक बुढि़या एक दिन सुबह सुबह घर के बाहर झाड़ू बुहारी कर रही थी और गुनगुना रही थी ’तेरे मन की गंगा और मेरे मन की जमुना का, बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं, बोल राधा बोल….’   लड़कों ने पूछा, “चाची,  सुबह सुबह ये क्या गा रही हो, फ़िल्मी गाना?”  चाची ने तमक कर झाडू हाथ में ऐसे उठाया जैसे यल्गार कहकर क्राँति ज्वाला में कूदने ही वाली हो। “शर्म नहीं आती तुम्हें, फ़िल्मी गाने का नाम लेकर मुझे बदनाम करते? भजन भी नहीं बोलने देते।” लड़कों ने हैरान होकर पूछा, “भजन?”    “तो और क्या नासपीटों?   राधा, गंगा, जमना, संगम जैसे पवित्तर नाम तुम्हें सुनाई नहीं देते?”  भोली-भाली चाची गच्चा खा गई थी इन नामों को सुनकर।     ये कहानी सुनाने का मतलब ये है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि चांद, पूर्णिमा, शांति दूत जैसे शब्द पढ़कर आपने भी इस पोस्ट को कोई धार्मिक पोस्ट समझ लिया हो? हा हा हा।

खैर अपने तो पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं, फ़िर से शुक्रिया।  अब आपने तो मुझे जाने अनजाने खुशी दे दी है, मेरा भी फ़र्ज बनता है कि अपको थोड़ा सा आगाह कर दूँ।  मेरी वैफ़(गिरिजेश जी, वैफ़ ही लिखा जायेगा यहाँ पर, काहे कि जब   हम अंदर से खुश हों और ऊपर ऊपर से गुस्सा दिखाने का प्रयत्न  करते हैं तो वाईफ़ को वैफ़ कहकर बुलाते हैं), हां तो पुजा देबी जी, अगर मेरी   वैफ़ को ये सब प्रकरण पता चल गया तो मेरा तो जो हाल वो शक और हालात के  मद्देनजर करेगी सो करेगी, आप को दिक्कत आ सकती है।

मेरे से इतना प्यार करती है मेरी वैफ़  कि मेरी तरफ़ आने वाली हवा, धूप, टिप्पणी गरज ये कि स्त्रीलिंग वाली कोई  भी कुदरती या मानव निर्मित चीज उसे अपने लिये खतरा लगती है। इज्जत  भी पूरी करती है वैसे तो मेरी, करती है तभी तो उतारती है:)    उसका सबसे पहला डायलाग ये होना है, “मैं उसकी गुत काटकर उसके हाथ में दे दूंगी(और आपका गला) ”     दूसरा, “आ गई एक और मेरी जान की दुश्मन(एक को भगाओ तो दूजी चली आती है)”   तीसरा, “पता नहीं सारे मेरी जान के पीछे ही क्यों पड़ी हुई हैं(जैसे जान नहीं रसगुल्ला है)?”   चौथा, “जरूर पहले से कुछ गड़बड़ चल रही होगी, आप तो हो ही ऐसे शुरू से ही (गुडविल\बैडविल  बहुत है अपनी)”  पांचवा, “मुझे पता था, एक न एक दिन ये होना ही है(अब तक कैसे नहीं पकड़े गये?)” और मैं,  थोड़ा उसके प्यार को समझते हुये और ज्यादा अपनी इज्जत  की परवाह करते हुये कुछ कह नहीं पाऊँगा।  वैसे भी ये वाली पोस्ट मेरी ’ओ जी’  की  बड़ी फ़ैवरेट पोस्ट है। अरे देबी जी, आपको लेकर ही जानी थी तो कोई और पोस्ट ले जातीं, या फ़िर ले जाने से पहले या बाद में एक सूचना भर दे देतीं तो इससे आपकी इज्जत कोई कम नहीं हो जानी थी और मेरी थोड़ी सी  इज्जत अफ़जाई हो  जाती।

सच में आपको इस बात की खैरियत मनानी चाहिये कि अभी मेरी बेचारी  पत्नी(मेरी पत्नी है, ये ही अपने आप में उसकी बेचारगी का सुबूत है) अपने स्वास्थ्य आदि व्यक्तिगत समस्याओं के कारण मसरूफ़ है और इस तरफ़ उसका ध्यान गया नहीं है, नहीं तो बस हो जानी थी दो पडौसी राज्यों की  टक्कर।

आगे से ध्यान रखियेगा, गलती हम सबसे होती है लेकिन आगे के लिये हम सबक सीख लें तो बेहतर ही है। मानें आप तो अच्छा है नहीं तो हमारी तो देखी जायेगी..!!

:) फ़त्तू शादी के बाद बहू को लिवा कर घर आ रहा था। दोनों पैदल ही लौट रहे थे। रास्ते में एक छोटा सा नाला आया। फ़त्तू ने तो लगाई छलाँग और हो गया पार, बहू अटक गई।   
हारकर बोली, “ए जी, मुझे भी नाला पार करवाओ न”
फ़ेरों और जयमाला  के दौरान फ़त्तू उसके बहुत नखरे झेल चुका था, बोला, “इब आई ना ऊँटनी पहाड़ के तले?    पार तो करवा दूंगा पर पहल्यां तीन बार काका बोल मन्ने।”

 

सोमवार, दिसंबर 27, 2010

एक चादर फ़ैली सी

सरदार राजेन्द्र सिंह बेदी जी की लिखी कहानी पर बनी एक संवेदनशील फ़िल्म ’एक चादर मैली सी’  का एक सीन याद कीजिये -

हेमा मालिनी चौके में बैठकर खाना बना रही है और जब अपने देवर ऋषि कपूर को खाना परोसती है तो वो शरारत से ’थोड़ा सा प्यार’ भी माँगता है। आंखें तरेरती भाभी जब हाथ में पकड़े चिमटे\बेलन या कड़छी से उसे मारने का उपक्रम करती है तो वो हँसते हुये स्पष्ट करता है कि ’थोड़ा सा प्याज़’ ही तो माँगा है।

रिमिक्सिंग का टाईम चल रहा है, आज की तारीख में यह सीन कुछ इस तरह का होता -

हेमा मालिनी चौके में बैठकर खाना बना रही है और जब अपने देवर ऋषि कपूर को खाना परोसती है तो वो शरारत से ’थोड़ा सा प्याज़’  भी मांगता है। खुद को लाचार, बेबस और मजबूर महसूस करती  भाभी खीझ उतारने के लिये   जब हाथ में पकड़े चिमटे\बेलन या कड़छी से उसे मारने लगती है तो वो हँसते हुये स्पष्ट करता है कि ’थोड़ा सा प्यार’ ही तो माँगा है, क्या गुनाह किया है?

बेट्टे, तुझे नहीं पता कि तूने कैसे गुनाह  किया है?  साठ रुपये किलो वाला प्याज़ माँग रहा है, आठ रुपये किलो वाले प्यार की  कोई कदर नहीं तुझे? प्यार सस्ता है और प्याज़ महंगा, फ़िर भी गरीब होकर प्याज़ मांगता है? वैसे हम मध्यमवर्ग वाले हैं बहुत खराब, ड्रामा पूरा करते हैं समाज का हिस्सा होने का लेकिन हमारी कथनी और करनी में कितना फ़र्क है?  होगा प्याज़ हम लोगों की रसोई का एक अहम किरदार, जरा सा महंगा क्या हो गया बस शुरू हो गये सारे सरदारजी सॉरी सरकार जी को कोसने में, जैसे  प्याज़ का रेट उन्होंने ही बढ़ाया हो। प्याज़ के बढ़े रेट दिख गये सबको,  सरकार की नीयत नहीं देखते। ये तो छुपे रास्ते से प्यार का प्रचार-प्रसार करने का फ़ार्मूला निकाला है हमारे कर्णधारों ने।

हम जैसों को तो ये बात अपील कर गई कि प्याज़ महंगा हो गया है तो उसके सस्ते विकल्प ’प्यार’ की तरफ़ ध्यान देना चाहिये।  सब्ज़ी-मंडी में, रेहड़ी-ठेलों में, हाट-बाजार में,  मॉल्स वगैरह में सिर्फ़ प्याज़ की जगह प्यार शब्द को रिप्लेस करके देखिये, कैसा मजा आ जायेगा। ट्रकों में लदकर नासिक का प्यार सारे भारत में सप्लाई हो रहा है, बोरियाँ कंधों पर लादकर जब पल्लेदार लोग प्यार की लोडिंग-अनलोडिंग करेंगे तो कैसे उसकी खुशबू से सरोबार होंगे? ढेरियाँ लगी हैं प्यार की, आवाजें लगा लगाकर बिक रहा है प्यार, ले जाओ बीबीजी –इस भाव में कहीं नहीं मिलेगा, छांट लो अपनी पसंद का प्यार।  आठ रुपये किलो का प्यार खरीदकर थैले में भरकर घर लायेंगे।

 सरकार जी, हम तुम्हारी सपोर्ट में हैं। बायें-दायें(पंथियों) की परवाह नहीं करनी है। जमाखोरों, सटोरियों को भी खाने-कमाने का मौका मिलना ही चाहिये। इनसे  क्यों घृणा की जाये,  वैसे भी बापू ने कहा था कि ’पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ हम तो कहते हैं कि पाप से भी नहीं करनी चाहिये।  मूल में भावना देखनी चाहिये।  देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ जाये तो कोई नुकसान है क्या? कितनी अच्छी छवि बनेगी भारत की, जब छपेगा ’फ़ार्च्युन’  जैसी पत्रिकाओं में कि पिछले दस सालों में करोड़पतियों की संख्या में कितना इजाफ़ा हो गया है। गरीबों का क्या है,  कौन से युग में नहीं थे? गरीब की चादर तो पहले भी मैली थी, आगे भी मैली ही रहनी है बल्कि अब तो फ़ैली  भी रहती है, और यही तो चाहते हो आप।    

 तो सरकार जी,  लगभग पचास दिन का टैम है तुम्हारे पास ’अंतराष्ट्रीय प्यार-दिवस’ के आने में।  रोज के रोज  दो-ढाई रुपये किलो की दर से प्याज़ के ’फ़ट्टे चक्क दो’, अपने आप डेढ-दो सौ रु. किलो की रेंज में पहुंच जायेगा ’चौदह फ़रवरी’ तक आते-आते। जितने नैतिकता-फ़ैतिकता के झंदाबरदार है, झक्क मारकर खुद ही प्याज़ की जगह प्यार को इस्तेमाल करने की बातें करते मिलेंगे।  गुलाबी चड्डियों का तो पिछला कलेक्शन ही रखा होगा अब तक उनके पास, फ़िर कभी देख लेंगे विरोध वगैरह।  समाज में स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को कोई खतरा नहीं होगा,  सरकार का राज भी रह जायेगा और ताज भी, प्याज़ की देखी जायेगी।

वैसे सही मायने में हम खुद भी  प्याज़ जैसे ही नहीं है क्या? परत के नीचे परत, अंत तक पहुंच भी जायें तो निकलता कुछ नहीं। कितनी परतें डाल रखी हैं, क्या है जिसे इतना छुपाते हैं? रूप की परत, रंग की परत,  देश, कौम, मजहब और फ़िर वर्ग की परत। परत-दर-परत छीला जाये तो अंत में दिखता  कुछ नहीं सिर्फ़ गंध सी महसूस होती  है। आत्मा भी कहाँ दिखती है, लेकिन जैसे गंध है उसका भी तो अस्तित्व है या यूँ कहें कि उसका ही अस्तित्व है।   जब तक सुलभ है, कोने में उपेक्षित से पड़े रहते हैं, जहाँ कुछ भाव बढ़े  तो आंख का तारा बन गये। कोई परतें छीले तो आंखों में आँसू आ जाते हैं, लेकिन छिले बिना और छीले बिना कोई गति भी नहीं है।

:) फ़त्तू ने सब्ज़ी की रेहड़ी लगाई। 
ग्राहक ने टमाटर का  भाव पूछा,  “रै टमाटर का के भाव सैं?”
फ़त्तू ने बताया,                           “तीस रुपये किलो”
ग्राहक:                                      “जीज्जी के यार, तीस रुपये किलो?”  फ़िर पूछा, “और  प्याज़ का के ढंग सै?”
फ़त्तू:                                          “तेरी जीज्जी के दो यार” 

भाई फ़त्तू, तुझसे तो रिक्वेस्ट कर ही सकते हैं हम, भाईचारा रहा है हमारा। इसकी जीज्जी के यार इससे ज्यादा मत होने दियो।

सॉरी जी, हम गलती से अकाऊंट्स की लाईन में घुस गये थे, एंट्री बराबर करने की सनक सी रहती है तो ऊपर प्याज़ की जगह प्यार को रिप्लेस करने का रिकमेंड किया था। अब गाने में प्यार की जगह प्याज़ को रिप्लेस करके सोचिये और सुनिये , एंट्री बराबर हो जायेगी:)

बुधवार, दिसंबर 22, 2010

यारी-दोस्ती

दसवीं के बोर्ड की परीक्षायें थीं और परीक्षा केन्द्र मेरे घर से करीब पांच किलोमीटर दूर था। परीक्षा-केन्द्र पर छोड़कर आने की जिम्मेदारी मेरे छोटे मामाजी की लगाई गई, जो लगभग उसी समय अपनी दुकान पर जाया करते थे। अंग्रेजी का पेपर था,  थोड़ी सी टेंशन थी लेकिन जैसा हमारी सरकार हमेशा कहती है कि स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में है, वैसे ही अपन भी नियंत्रण में थे। 

उस दिन घर से निकलते निकलते हम लोगों को कुछ देर हो गई, और परीक्षा केन्द्र तक पहुंचे तो शायद दस मिनट लेट तो हो ही गया था। जब मेन रोड से स्कूल की तरफ़ स्कूटर मुड़ा तो मैंने देखा सामने से धनंजय बाहर की तरफ़  आ रहा था। उसने मुझे नहीं देखा और समय की आपाधापी में मैं उसे आवाज भी नहीं लगा सका। स्कूटर से उतर कर लगभग दौड़ता हुआ मैं अपने रूम की तरफ़ भागा। ऐसे समय में वही दूरी मीलों की लग रही थी। तब नहीं समझा था लेकिन बाद में न्यूटन की, सॉरी आईंन्स्टीन(धन्यवाद गिरिजेश जी) की Law of Relaitivity वाली थ्योरी अच्छे से समझी और भुगत रखी है। उतनी ही दूरी, उतना ही समय कभी तो लगता है जैसे कितने ही युग और कितने ही मील और कभी लगता है कि दो कदम की दूरी और एक पल का साथ, होता है न? 

बहरहाल, एग्ज़ामिनेशन हाल में प्रवेश किया तो सांसें उखड़ रही थीं और ड्यूटी पर तैनात मैडम ने ऐसे महत्वपूर्ण मौके पर भी देर से पहुंचने के लिये उखड़ते हुये ताल से ताल मिलाई। मैडमों के आगे शुरू से ही हम हत्थे से जुड़े  रहते थे, सो पूरी इज्जत बरतते हुये(और चारा भी क्या हो सकता था?) आंसर शीट ली और सीट पर बैठकर कागज काले करने शुरू कर ही रहा था कि अचानक ध्यान गया कि जब  एग्ज़ाम शुरू हो चुका है, उस समय धनंजय बाहर क्या करने गया है?  देखा तो अब भी उसकी सीट खाली थी, मुझे लगा कि लापरवाह सा है, हो सकता है पेन वगैरह घर भूल आया हो और इन साथ के लड़कों-लड़कियों से ऐसी उम्मीद करना कि स्पेयर पेन दे देंगे, वो भी बोर्ड के एग्ज़ाम में, ऐसे बुडबक हम भी नहीं थे।

लेकिन मेरा तो दोस्त था वो, सुख दुख का साथी। क्या मैं भी उसकी इतनी मदद नहीं कर सकता? कितने तो लम्हे हमने आपस में बांटे हैं और आज मेरा यार एक पेन के लिये पता नहीं कहां कहां भटक रहा होगा? मेरा दिमाग एकदम से सनक गया और मैं पेपर वहीं छोड़कर बाहर को लपक लिया। मैडम फ़िर से बहकती रही, दहकती रही “कैसा लापरवाह ल़ड़का है? पहले पन्द्रह मिनट देर से आया और अब फ़िर पता नहीं कहाँ……?” फ़ुर्सत किसे थी पूरी बात सुनने की? 

मैं फ़िर से भागता हुआ मेन रोड की तरफ़ आया। बाहर बस-स्टैंड पर देखा तो धनंजय खड़ा हुआ जैसे बस का इंतजार कर रहा था। मैंने दूर से ही उसे आवाज लगाई और वो कमर पर हाथ रखे हुये मुझे अजीब नजरों से देख रहा था। पास जाकर  मैंने पूछा, “यहाँ क्या कर रहा है, पेपर शुरू हुये बीस मिनट हो गये हैं?”  वो कहने लगा, “बस का इंतजार कर रहा था, पेपर शुरू हो गया था और आंसर शीट्स बंट चुके थे और तू अभी तक आया नहीं था। मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है, इसलिये मैं अब तेरे घर जा रहा था। दस मिनट हो गये, तेरी तरफ़ जाने वाली बस ही नहीं आई है। क्यों लेट हो गया आज इतना?”  ऐसे समय में ऐसे सवालों का जवाब औरों को बेशक सूझ जाये, मैं तो अवाक ही था। उस समय तक शायद रो-धो भी लिया करता था, आंखें गीली भी जरूर हुई होंगी। 

खुशी, अफ़सोस, गर्व, संतुष्टि जाने क्या-क्या मेरे ऊपर से गुजर रहा था। खुश था कि मुझे कुछ देर से ही सही, धनंजय को ढूंढ लाने की सूझी तो सही। पछता रहा था कि मैं कैसे पांच मिनट तक बैठा रहा एग्ज़ामिनेशन हाल में? गर्व हो रहा था कि मेरा ऐसा दोस्त है और संतुष्ट था कि शायद पेपर में नंबर कुछ कट जायेंगे लेकिन अपनी आंखों में कद नहीं गिरा मेरा। बोला कुछ नहीं मैं, बस गले लग गया था अपने यार के और फ़िर एक दूसरे का  हाथ पकड़कर फ़िर से वही  हम दौड़ते हुये उखड़ी सांसे लेकर  उन्हीं सिरे से  उखड़ी मैडम की शरण में। पहले तो प्रिंसीपल के आगे हमारी शिकायत लगाने की और परीक्षा में न बैठने देने की धमकी, फ़िर धनंजय के द्वारा स्पष्टीकरण दिये जाने पर हम दोनों को एक से बढ़कर एक पागल की उपाधि देने में मैडम ने दरियादिली खूब दिखाई। इस सब में आधा घंटा नष्ट हो गया।   मेरे अंग्रेजी में बाकी सब विषयों से कम नंबर आये लेकिन फ़िर भी मुझे वो नंबर बहुत ज्यादा लगते रहे।  इस बात पर हम दोनों में बाद में बहुत झगड़ा हुआ और दोनों एक दूसरे पर एक ही आरोप लगाते थे और एक ही स्पष्टीकरण देते थे। बड़ा लुत्फ़ था जब…..।

दसवीं के बाद स्कूल बदला, राहें बदलीं और देखते देखते हम दोनों भी एक दूसरे से बहुत दूर हो गये। मोबाईल बहुत दूर की बात है, तब तो लैंडलाईन फ़ोन भी कहाँ इतने सुलभ थे?  तीन चार साल पहले एक दिन किसी झोंक में आकर उसके घर चला गया मिलने, मुलाकात ही नहीं हो पाई। उसकी पत्नी थीं, पूछने लगी कि क्या बताऊँ?   मुझे जवाब नहीं सूझा, पता नहीं उसे मेरी याद है भी या नहीं? कह दिया कि फ़िर दोबारा आऊँगा मैं खुद, और लौट आया था।  और सोच रखा है, एक बार  फ़िर से मिलने जरूर जाऊँगा, किसी मतलब से नहीं, सिर्फ़ पुराना वक्त याद करने।   कोई बड़ी बात नहीं कि उसे मेरी या उस बात की याद भी न हो, लेकिन मैं नहीं भूल पाया।  वो तो ऐसा ही था, ये कोई बड़ी बात नहीं थी उसके लिये। जब भी मैं याद दिलाता तो कहता, यार, दोस्ती की है तो ये कोई बात है ही नहीं।  मैं इसके बाद शायद इसीलिये दोस्ती से डर गया, कि यार ये दोस्ती तो बहुत खतरनाक चीज है:)   तीसरी कसम के गाड़ीवान की तरह कसम खा ली कि  किसी से दोस्ती नहीं करनी अब, लेकिन पुराने शराबी की खाई कसमों की तरह कितनी ही बार ये कसम टूटी, अब तो याद भी नहीं। दोस्त  आते ही रहे, छाते ही रहे जीवन में।

अब थोड़ी सी ड्रिबलिंग कर लें?  समय बदल गया है, हवा पानी बदल गये, जीवन के मूल्य बदल गये। आज के टाईम में अपन दोस्ती भी करते हैं तो ये सोचकर कि ये मेरे किस काम आ सकता है? मैंने इसके लिये ये काम किया तो अब कहाँ और कैसे इस अहसान का बदला ले सकता हूँ? नये जमाने के दोस्ती के पैमाने भी बाकी सब चीजों की तरह बदल गये हैं। अपन हमेशा की तरह वही असमंजस  में, मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ? आदमी पुराने जमाने के, रहना नये जमाने में, वास्ता नये पुरानों सब के साथ तो क्या नीति निर्धारण किया जाये। फ़िलवक्त तो पिछले कई साल से अपनी पालिसी यही रही है कि अपनी तरफ़ से न दोस्ती की शुरुआत न दुश्मनी की शुरुआत। न हम भगवान और न शैतान, कोशिश इंसान बनने की है, जितने हैं कम से कम उतने तो रह ही सकें।   जो आये उसका स्वागत और जो जाये उसे गुडलक। कभी लौटो तो वहीं खड़े मिलेंगे जहाँ छोड़ा था।

आज की पोस्ट कुछ ज्यादा ही आत्मकेंद्रित लग रही होगी।    हाँ, आत्मकेंद्रित ही है, वो कहते हैं न safe driving is sane driving:)   किसी और को लपेटूँ तो मुझे बचाने यहाँ धनंजय भी नहीं है:)  हा हा हा। हिंदी ब्लॉगिंग तो जैसे  बारूद का ढेर बनी हुए है।  खुद पर कुछ ध्यान देने की बात का श्रेय akaltara.blogspot.com  वाले श्री राहुल सिंह जी को, कुछ टिप्स दिये थे उन्होंने, याद है न राहुल सर? मुझपर स्नेह रखते हैं और मैं सही तरीके से आभार भी नहीं कर पाता। पहले से ही बहुतों का  कर्ज है मुझपर, किस किस का नाम लूँ मैं, मुझे बहुत सारे मित्रों ने संवारा। 

:) फ़त्तू  को सेठ ने ईसी तीसी वाली घटना के बाद निकाल बाहर किया। फ़त्तू को नई नौकरी मिली एक डिपार्टमेंटल स्टोर में। पहले ही ग्राहक ने सिबाका पेस्ट मांगी।  स्टॉक में नहीं थी तो फ़त्तू ने मना कर दिया। फ़्लोर मैनेजर ने समझाया कि ऐसे मना नहीं करना चाहिये था। उसे कह्ते कि सिबाका तो नहीं है  लेकिन कालगेट है, पेप्सोडेंट है, मेसवाक है। कहिये कौन सी दे दूँ?  डिमांड बनाई जाती है, पैदा की जाती है।      फ़त्तू ने सिर हिला दिया।     कुछ देर में एक हाई प्रोफ़ईल ग्राहक वहाँ पहुंची और  टिश्यू पेपर माँगा। फ़त्तू ने इधर उधर देखा, ओफ़्फ़, टिश्यू पेपर भी नहीं है। बड़े अदब से पूछा, “सॉरी मैडम, टिश्यू पेपर तो नहीं है, रेगमार है – कहिये, कौन से नंबर का दे दूँ।”

ब्लॉगजगत भी बहुत कुछ फ़्लोर मैनेजर के कहे के हिसाब से चलता है, डिमांड पैदा की जाती है, बनाई जाती है। या मेरा आईडिया गलत है, हमेशा की तरह?  एग्रीगेटर का पता नहीं क्या हुआ?

सोमवार, दिसंबर 13, 2010

नाम से क्या लेना, काम देखो यारों...

नाम में क्या रखा है, इस बारे में अलग अलग पोस्ट आ चुके हैं। इस विषय पर हमने यह अनुभव किया है कि  नाम में कुछ रखा है या नहीं, ये सब निर्भर करता है उस समय के हमारे ऑन-मोड पर। विद्युत सप्लाई के जैसे ए.सी\डी.सी. दो मोड होते हैं, हमारे इसी तरह के दस बीस पचास मोड हैं। जो स्विच चालू है, हमारे फ़ैसले उसी आधार पर होते हैं। जब अपना देशी मोड चालू होता है, उस समय हम काका हाथरसी से सहमत होते हैं और  जिस समय ग्लोबल मोड काम कर रहा हो,  उस समय शेक्सपीयर जी को ऑब्लाईज कर देते हैं। लो जी, तुसी हो जाओ खुश, साड्डा की है?   यू सैड इट वैरी रैटली – वाट्स देयर इन अ नेम।

शीला-मुन्नी  से शुरू हुई बातों पर   तर्क वगैरह तो बहुत देख लिये, हम तो आपको एक दो वाकये बताते हैं, नाम से संबंधित। एक हमारे अधिकारी हुआ करते थे – सिंघल साहब, निहायत ही शरीफ़, ईमानदार, कर्मठ अलाना फ़लाना। अब भाई लोगों, ये अलाना फ़लाना को लेकर इशू मत बना देना, ये पता नहीं कैसे आजकल हमारा तकिया कलाम बन गया है, हर जगह अपने नाम के साथ चेप देते हैं कि हम बड़े अलाना फ़लाना हैं।  तो हमारे सिंघल साहब सब मानवीय गुणों से भरपूर थे, लेकिन कुछ घटनायें उनके साथ ऐसी घट जाती थीं कि पूछिये मत।  ये तो भगवान भला करे,  प्रियदर्शन जैसों ने सिच्युएशनल कामेडी की थोड़ी सी आदत डाल दी, न तो हमारी बातें बिल्कुल ही  बेसिरपैर की मान ली जातीं।

एक दिन एक बुजुर्ग बैंक में आये, साथ में एक महिला थी जो उनकी पुत्री थी। आकर बोले कि इसका खाता खोलना है। हमारे सीनियर बोले, “हां  बोल, नाम के सै बेबे का(हरियाणा में बेबे = बहन\बेटी के लिये आदरसूचक शब्द)।
बाबा,    :     ”जी, नाम सै इसका गदरो।”
सिंघल जी: “आयं, गदरो? यो के नाम होया भला?”
बाबा,    :   “जी, जद गदर होया था तब होई थी ये, इस खातिर नाम गदरो सै।”
सिंघल जी:  “ओ बाबा, गदर कद होया था?”
बाबा,    :     “जी, जद यो होई थी, तब होया था।”
और उसका खाता इसी नाम से खोला गया।

ऐसे ही एक बार एक और बंदा आया। साहब ने उससे पूछा, “हां, नाम बता।”
वो बोला,          “जी, बाणिया।”
सिंघल जी:       “आयं, बाणिया? भाई बाणिया क्यूंकर लिखावे सै?”
वो बोला,          “जी, बाणिया ही सूं मैं।”
सिंघल जी:       “रै, बाणिया तो मैं भी सूँ। नाम बता।”
वो बोला,          “जी,  मन्नै तो सारे बाणिया ही कहके बुलावे सैं।”
सिंघल जी:      “अचछा, जिस नाम से नहीं बुलावे हैं, वा बता।”
वो बोला,         “जी, सुरेश।”
सिंघल जी:     “हां, इब ठीक सै।” और फ़िर मेरी तरफ़ देखकर कहने लगे, “देख्या, पूछ लिया न सही नाम?”

कई साल पहले सिख धर्म के एक प्रकांड विद्वान का एक लेख पढ़ा था, जिसमें उन्होंने दशम गुरू श्री गोबिंद सिंह जी का तत्कालीन समाज पर प्रभाव का जिक्र करते हुये एक तथ्य बताया था कि उस काल में  फ़कीरा, घसीटा, गरीबा जैसे नाम बहुत प्रचलन में थे और देश, कौम में जिन्दादिली भरने के लिये उन्होंने अपने अनुयाईयों को दिलेर सिंह, नाहर सिंह, बलवान सिंह जैसे ओजपूर्ण नाम देने शुरू कर दिये थे। उनका अपना व्यक्तित्व, करनी, उद्देश्य बिना शक प्रेरणा के सबसे बड़े कारक थे, लेकिन इस नाम परिवर्तन की मुहिम का भी लोगों में उत्साहवर्धन करने में, आत्मबल बढ़ाने में बहुत योगदान था। इतिहास गवाह है कि मुट्ठी भर खालसाओं की फ़ौज क्या कुछ कर गुजरी थी।

उदय प्रकाश जी की कहानी ’वारेन हेस्टिंग्ज़ का सांड’ में वारेन बहुत हैरानी से अपनी डायरी में लिखते हैं, “कितनी हैरानी की बात है कि भारत में गाय भैंस तक का एक प्रॉपर नाऊन होता है और जब उनका मालिक या चरवाहा गौरी, श्यामा या कजरी या ऐसे ही किसी नाम से किसी गाय को बुलाता है तो झुंड में से वही गाय निकलकर बाहर आ जाती है।

समय बदलता गया और आज के समय में नाम में ही नहीं, स्पेलिंग में भी बहुत कुछ रखा है। कितने ही प्रात:स्मरणीय\रात्रिस्मरणीय प्रोड्यूसर\प्रोड्यूसराओं को अपनी क्रियेशन्स का नाम कितना ही तोड़ना मरोड़ना पड़े, लेकिन आरंभ करते हैं किसी खास अक्षर से। तो जी अंत में तय यह हुआ कि धरती गोल है, हम जहाँ से चले थे अभी भी वहीं के वहीं हैं। जिसे जैसा लगे, वैसा माने – हमारे भरोसे न रहे कोई कि हम कोई हल बतायेंगे। हम तो खुद ही कन्फ़यूज़्ड हैं।

छेड़ाखानी करने वाले तो सही मायने में धुन के पक्के होते हैं।  आज  शीला मुन्नी जैसे नामों को लेकर छेड़ाखानी कर रहे हैं,  ये सब न होता तो भी उन्होंने किसी और बहाने से यही काम करना था। सबके अपने अपने संस्कार हैं। अपने हाथ में अगर कुछ है तो, खुद को नियंत्रण में रखने की कोशिश करना। हम खुद को और अपने आसपास वालों को समझा सकें कि आजादी और उच्छृंखलता में अंतर है,  तो उससे अच्छा समाधान कोई नहीं।

:) फ़त्तू ऑन जॉब -
कंगाली के दौरान फ़त्तू एक सेठ के यहाँ नौकरी पर लगा। पहला ही दिन था। जाड़ा जोरों पर था, ग्राहक घरों के भीतर दुबके बैठे थे । ऐसे में  कोई पेमेंट लेने वाला आया तो सेठजी बोले, “भाई, फ़िर ले जाईयो, आज तो मौसम ने ईसी-तीसी करवा राखी सै।” दूसरा बंदा आया तो उसे भी यही जवाब, ठीकरा मौसम के सर। अब फ़त्तू को बहुत बुरा लग रहा था, बेकार में दूसरे को क्यों बदनाम कर रहा है सेठ, लेकिन बेचारा करता भी क्या?  फ़िर से कोई व्यापारी अपने पैसे लेने आया तो सेठजी ने वही डायलाग दोहराते हुये अबकी बार फ़त्तू से कहा, “रे, बाहर चक्कर तो काट के आ जरा, देख तो बाकियों का के हाल सै? आड़े तो मौसम ने ईसी तीसी करवा राखी सै।”  फ़त्तू के मौका थ्या गया, भागकर बाहर गया और दौड़ता हुआ वापिस आया, चमकते दमकते मुख से बोला, “सेठ जी, मौसम ने  एकल्ले  आप की ही नहीं, सारी मार्किट की ईसी-तीसी कर राखी सै।”

गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

कोई चेहरा भूला सा....

उसने घड़ी देखी, साढे छह बजे थे अभी। खूब आराम से भी चले तो छह पचास वाली मैट्रो तो मिल ही जायेगी। चालीस मिनट का रास्ता इस स्टेशन से उसके  स्टेशन, दस मिनट आगे पैदल, यानि पौने आठ बजते न बजते घर पहुंच जायेगा। फ़िर छिन जायेगा अकेलापन उसका।

वो मैट्रो में चुपचाप आकर सीट पर बैठ गया। वही रोज का रूटीन, इंगलिश के अखबार से सुडोकू, हिंदी के अखबार से वर्ग-पहेली, ये हल करते करते रोज उसका स्टेशन आ जाता था  और वो जहमत से बच जाता था लोगों से औपचारिकता निभाने से। उसे बहुत अजीब लगते थे रोज रोज वही सवाल और वही जवाब।  बल्कि सवाल-जवाब ही उसे अजीब लगते थे, बहुत अजीब। कुछ सवाल थे जिनके जवाब नहीं और कुछ ऐसे जवाब थे जिनका कोई सवाल हो ही नहीं सकता था।

आज की सुडोकू 5 स्टार्स वाली थी, खासी मुश्किल लेकिन इसीमें मजा आता है उसे, मुश्किल काम करने में ही, सो पूरी तन्मयता से लगा हुआ था कागजी सुडोकू हल करने में। “एक्सक्यूज़ मी, अंकल आप का नाम सुशांत है न?”  चौंक कर उसने चेहरा अखबार से ऊपर उठाया तो एक आठ नौ साल की लड़की अपनी आंखों में एक मासूम सवाल लिये खड़ी थी। बच्ची के चेहरे पर नजरें जम ही गई थीं जैसे उसकी। कहाँ देखे हैं ऐसे नैन-नक्श इतने करीब से, कहाँ? शायद जब भी आईना देखा हो उसने, ऐसा ही अक्स दिखता हो।  खुद पर गुस्सा भी आ रहा था उसे कि ऐसा भी क्या अनमनापन कि अपनी सूरत  भी कभी अनजानी सी लगती है उसे और आज इस बच्ची की शक्ल में अपनी सूरत ही तो नहीं दिख रही कहीं?   जब बच्ची ने दोबारा वही पूछा तो उसने आसपास बैठी सवारियों की तरफ़ देखा, कौन है इस खूबसूरत बच्ची के साथ?

उसे लगा जैसे एक जोड़ी आंखें उसके चेहरे पर नजर जमाये हैं, सामने वाली सीट पर उसकी नजर गई तो फ़िर वहाँ से हटी नहीं। वही दिलफ़रेब चेहरा,   वही सितमगर आंखे और चेहरे पर पसरा वही तिलिस्मी सूनापन जो खामोश आवाजें लगाकर उसे खींचता रहा था अपनी ओर।  नौ साल के समय ने उसके अपने चेहरे का भूगोल बेशक बदल दिया था लेकिन शायद उस तिलिस्म में घुसने की हिम्मत वक्त भी नहीं कर सका था। अबकी बार बच्ची ने मानो उसे झकझोरते हुये  फ़िर पूछा, “अंकल. बताईये न आप का नाम सुशांत ही है न? मम्मी ने पूछा है।” वो जैसे नीम बेहोशी की हालत में था, “बेटा, मम्मी को कह देना कि सुशांत को खोये हुये नौ साल बीत चुके हैं। मुझे भी उसकी तलाश है, लेकिन वो शायद अब नहीं मिलेगा।”

बाहर देखा तो उसके स्टेशन से पहला स्टेशन आ गया था। घर की दूरी यहाँ से तीन किलोमीटर थी, गनीमत है कि रास्ता ज्यादा रोशन. ज्यादा चलता हुआ नहीं था।   एक झटके से सीट छोड़ दी थी  उसने। गाड़ी रुकने से पहले वो पलटा, बच्ची के माथे को चूमा और उसके सर पर हाथ फ़ेरा, भगवान से शायद सब खुशियाँ उस बच्ची के लिये मांगी और बाहर निकल गया।

सर्दियों की पहली बारिश, लोग रुकने का इंतज़ार कर रहे थे और वो स्टेशन से बाहर निकल आया। कितना डरते हैं लोग भीगने से, बीमार होने से, जैसे भीगने से बचना ही जिंदगी का सबसे बड़ा काम हो। बीच बीच में बालों में हाथ फ़ेर रहा था और ऊपर बादलों को देख रहा था बहुत हसरत से, कि कहीं रास्ता तय करने से पहले उनका  पानी खत्म न हो जाए।

घर में घुसा तो माँ उसे देखकर चौंक गई, “क्यों भीगा सर्दी में, घर ही तो आना था तो बारिश रुकने का इंतजार कर लेता। और तेरी आंखें कैसे लाल हो रही हैं जैसे रोकर हटा हो अभी?”  वो हंस रहा था, “मैं और रोया होऊँ? क्या माँ, तुम भी बस्स। आंख में कुछ गिर गया है शायद।” और फ़िर से हँस दिया था वो हमेशा की तरह, वादा भी आखिर कोई चीज होता है।

शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

ये ज़िंदगी के मेले....

जैसे जैसे उम्र निकल रही है, एक एक करके मन के सारे वहम धुलने लगे हैं। कितना यकीन था अपने ऊपर कि हमारे बिना यह काम रुक जायेगा, वह काम रुक जायेगा। मिन्नत करेंगे लोगबाग कि श्रीमान, आओ, तुम्हारे बिना  सब ठप्प हो गया है। और हम बारात में रूठे हुये फ़ूफ़ा या जीजा की तरह पहले मान-मनव्वल करवायेंगे और फ़िर निहाल कर देंगे  दुनिया वालों को । मगर न किसी ने मिन्नत की और न ही किसी ने य पूछा कि भाई क्यों नहीं दर्शन दिये आपने? बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फ़िर भी कम निकले।

दिल्ली का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला संपन्न हो गया है।  इसमें क्या नई बात है?  हर साल लगता है,  चौदह नवंबर से और दो सप्ताह तक प्रगति मैदान और आस पास के कई किलोमीटर के दायरे में  कंधे से कंधा टकराती भीड़ का समन्दर लहलहाता रहता है। वैसे तो महीना भर पहले ही कम-ऑन वैल्थ खेल भी संपन्न होकर चुके हैं, लेकिन उनके साथ हमारा कोई इमोशनल अटैचमेंट नहीं था। लेकिन इस बेवफ़ा ट्रेड फ़ेयर को तो हमने अपने खूने-जिगर से पाला पोसा था, इसने इतनी बेमुरव्वत क्यों दिखाई? बिना हमारे गये भी ठीक-ठाक संपन्न हो गया?

ट्रेड फ़ेयर एक ऐसा सब्जैक्ट है हमारे लिये, कि उस पर पूरा महाकाव्य लिख सकते हैं। बहुत छोटे थे तो पिताजी हमें  घुमाने ले जाते थे, उसका अपना अलग चार्म था। कोई चिंता नहीं, कोई फ़िक्र नहीं। देखे जाओ और आनंदित होते रहो। फ़रमाईश करना ही काम होता था, बहुत मजा आता था उस समय। एक दिन एक प्रवचन में ऐसे ही मेले का वर्णन सुनते हुये फ़िर से अपने बचपन में पहुंच गये और एक नया नजरिया पाया। जब हम पिता की  उंगली पकड़कर   मेले में घूम रहे होते हैं, कितनी चीजें हमारा मन मोहती हैं। सजे सजाये पैवेलियन, महंगे और अनदेखे सामान, फ़व्वारे, खाने-पीने का सामान, आकर्षक साज-सज्जा तो मजा तो हमें यही सब देखकर महसूस करके आता लगता है कि इन रंगीनियों, साजो-सामान  में ही जिन्दगी का उल्लास है। ऐसे में अचानक पिता की उंगली छूट जाये तो फ़िर? सब साजो सामान वहीं और वैसे ही, लेकिन आनंद की जगह डर, निराशा, खौफ़ हावी हो जाते हैं। तो असली आनंद जिस चीज में है, उसका महत्व  हम तभी समझते हैं जब वो चीज हमसे छूट जाये।

फ़िर हम हो गये जी जवान।  अपने फ़ैसले खुद लेने लगे।  ग्यारहवीं और बारहवीं में हमारे साथ बहुत अन्याय हुआ था। नखलिस्तान से उठाकर हमें रेगिस्तान में छोड़ दिया गया। कोई फ़ूल नहीं, जिधर देखो कांटे ही कांटे। हम भी हम ही निकले, मिले न फ़ूल तो कांटों से ही दोस्ती कर ली। कायदे के चक्कर में ऐसे बेकायदा हुये कि डीटीसी को आधा घाटा तो हमारे जैसों के कारण ही हुआ। हमारे बापू की मेहनत से कमाई गई रकम में से साढे बारह रुपये ऐडवांस में ले लेते थे डीटीसी वाले, तब जाकर आल रूट पास जारी करते थे। हमने भी कमर कस ली कि पैसे वसूल करके ही छोड़ेंगे। सुबह घर से निकलने की  भी ऐसी हड़बड़ी रहती थी कि पेरेंट्स निहाल होते थे कि देख लो स्कूल जाने का कितना शौक है हमारे लाडले को। लाडला दूसरे कैक्टसों के साथ सारा दिन दिल्ली दर्शन में व्यस्त रहता था, बापू के साढे बारह रुपये जो वसूल करने होते थे।

कोई पार्क, कोई सिनेमा, कोई बाजार, कोई रोड, कोई कालोनी नहीं छोड़ी हमने जिसपर हमारे कदमों की छाप न पड़ी हो। लेकिन थे हम वैजीटेरियन शुरू से ही, फ़ूलों की खुशबू ले लेते थे लेकिन तोड़ते मरोड़ते नहीं थे। ऐसे में पहली बार दोस्तों के साथ  ट्रेड फ़ेयर में गये।

घूमते रहे इरादतन, गैर-इरादतन। जब थक गये तो बैठने  की जगह देखने लगे।   एक पैवेलियन के निकास द्वार के पास  फ़र्श में एक फ़ाल्स स्टेप था, होगा सिर्फ़ दो इंच का। एक लंबा सपाट गलियारा, एक्दम समतल और उसके बाद अचानक ही फ़र्श में थोड़ा सा गैप था। अपनी निगाह तब  ऐसी जगह पर बहुत पड़ती थी, जहां  something happening होने के चांस हों। वहीं अड्डा जमा लिया। यार दोस्तों ने बहुत कहा कि किसी लान में बैठेंगे लेकिन हमने तो वहीं साईड में एक रेलिंग पर बैठने की जिद की और सिर्फ़ पन्द्रह मिनट का समय मांगा कि अगर यहाँ बैठने में मजा न आया तो सबको पार्टी पक्की।

हमारी पिछली इलैक्शन ड्यूटी के दौरान एक साहब आये, आकर रौब से परिचय दिया ’I am observer’      बताओ जी, कैसी बीती होगी हमपर?  हम बचपन से ऑब्जर्वर चले आ रहे हैं और यहाँ हमें ही हूल दे रहे हैं साहब अपने ऑब्जर्वर होने की।    तो साहब, उस दिन रेलिंग पर बैठे बैठे अपनी मंडली  के साथ ऐसी ओब्जर्वेशन कीं कि इसरो वाले भी क्या करते होंगे। पेश है कुछ नमूने-

- जो बुजुर्ग या अनुभवी टाईप के थे, उनमें से एक भी उस जगह पर नहीं लड़खड़ाया। धीरे धीरे सधी चाल से ऊपर नीचे देखकर चलने वाले लोग छोटी मोटी मुसीबतों को पहले ही भाँप लेते हैं।

- जो उच्छृंखल टाईप के नौजवान थे, चलते किधर और देखते किधर थे, उनमें से आधे से ज्यादा वहाँ आकर डगमगा जाते थे – फ़िर अपनी झेंप मिटाने के लिये साथी के साथ धौल धप्पा करने लगते कि तूने धक्का दिया है।

- नौजवानियाँ(गलती शल्ती हो तो झेल लेना जी, भाषा-ज्ञान  हमारा ऐंवे सा ही है) जो अपने स्वाभाविक वेशभूषा में थीं, वे सहज रहीं और जो फ़ैशन के चक्कर में चोला बदलने की कोशिश में थी उनमें से अस्सी प्रतिशत वहाँ आकर झटका खा गईं। इतना जरूर है कि उन्हें संभालने वालों की कोई कमी नहीं थी, मिजाजपुर्सी करने वालों की कोई कमी नहीं थी। क्या बालक, क्या बूढ़े, क्या जवान, क्या कुंवारे और क्या उम्रकैदी – जरा सा स्कोप देखते ही सहारा देने को, संभालने को, मदद करने को तत्पर। और जितने ज्यादा पूछने वाले हों, उतनी ही हाय-हाय ज्यादा।

- जूनियर ब्लॉगर्स की तर्ज पर जो बच्चा दिल वाले गिरू फ़िसलू थे, वे लड़खड़ाते थे तो अगले ही पल सब भूलभालकर फ़िर रंगीनियों में, आपाधापी में खो जाते थे, यथास्थिति फ़ौरन बहाल हो जाती थी उनकी।

लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता आपको कि  ये सब चीजें हमारी लाईफ़ में भी घटित होती रहती हैं।  हम अपनों की कदर तभी करते हैं, जब थामी हुई उनकी उंगली छूट जाये। जिन्दगी के सभी सुख मौजूद रहते हुये भी मन उचाट रहता है, फ़िर मालूम चलता है कि असली सुख तो उस सहारे में था न कि इस दुनिया की रंगीनियों में। और  कभी बहुत समय तक समतल रास्ते पर जिन्दगी चलती रहे तो हम लापरवाह हो जाते हैं, थोड़ी सी भी परेशानी आई जैसे फ़र्श में डेढ-दो इंच का गैप, तो लड़खड़ा जाते हैं। अपनी मानसिक स्थिति के अनुसार ही हमारी प्रतिक्रिया होती है। मैंने देखे हैं ऐसे उदाहरण भी कि कोई बड़ी से बड़ी मुसीबत भी हंसकर झेल जाता है और हम जैसे भी हैं कि थोड़ी सी परेशानी भी भारी लगती है। कोई अपनी दूरदृष्टि के चलते आने वाली मुसीबत से बचने का उपाय कर लेता है, कोई गप्पबाजी और बेकार की बातों में व्यस्त रहकर जमीनी सच्चाई को भूले रहता है और फ़िर चोट खा जाता है। कोई बात का बतंगड़ बना लेता है(हम हूँ ना?)    और कई बच्चों की तरह दिमाग की स्लेट से सब पोंछ-पांछ कर फ़िर से तैयार, नये झटके झेलने के लिये।

अब ज्यादा बोर आज ही कर दूंगा तो फ़िर कौन आयेगा जी यहाँ?  ऐसे ही कभी एक रिपोर्ट आपके सामने एक कस्बे की नुमाईश की दी जायेगी, कुछ हमारी सेल्फ़ डेराईव्ड ओबजर्वेशन्स के साथ। फ़िर करियेगा फ़ैसला, बड़े शहर के मेले मस्त होते हैं या छोटी जगह पर होने वाले ऐसे आयोजन ज्यादा अच्छे होते हैं। लेकिन अब पेंडिंग काम बढ़ते जा रहे हैं, इसका भी बोझ दिमाग  पर रहने लगा है। एक नन्हीं सी जान और कितने बोझ, अल्लाह जाने क्या होगा आगे?      अपना तो जी फ़िर वही आखिरी जवाब  है,  देखी जायेगी…..

:) फ़त्तू का छोरा पढ़न खातिर चंडीगढ़ में रहने लगा था। फ़त्तू पहले बार मिलने गया तो छोरा उसे सैक्टर सत्रह की मार्केट में ले गया। वहां जब फ़त्तू ने देखे चलते फ़िरते बुत, रूप के खजाने, हुस्न के लाखों रंग,  तो उसके दीदे फ़टे के फ़टे रह गये।
फ़त्तू छोरे से पूछने लगा, “रे, यो के सैं?”
छोरा,   “लुगाई सैं, और के होंगी?”
फ़त्तू, “यो सारी लुगाई सैं?”
छोरा, “हां बाबू, लुगाई सैं”
फ़त्तू ठंडी सांस भर के बोला, “वाह री म्हारी किस्मत, आज बेरा पटया कि लुगाई ईसी होया करें, म्हारी तो सारी उमर भैंस गेल ही कट गई।”

फ़त्तू गांव लौटकर रूखी सूखी खायेगा और ठंडा पानी पीयेगा।