लगभग चार साल पहले की बात है, यह तय था कि मेरा ट्रांसफ़र होने वाला है। मार्च मध्य आते आते बच्चों की परीक्षायें समाप्त हुई और मैंने उन्हें अपने पैतृक घर में शिफ़्ट कर दिया। अपने लिये वहाँ पंजाब में एक कंप्यूटर, मोटरसाईकिल और थोड़ा सा रोजमर्रा काम आने वाला सामान रख लिया और गांव में ही किराये पर मकान लेकर रहने लगा। मेरा ट्रांसफ़र चार महीने बाद हुआ तब तक हर शनिवार दोपहर वहाँ से चलकर दिल्ली आता रहा।
अब अपनी कुछ अजीब सी आदतें बता दूँ। खुद कच्ची-पक्की बनाकर खाने में या सड़क पर किसी ठेलीवाले से पूड़ी सब्जी से पेट भरने में कोई परेशानी नहीं लेकिन मकानमालिक या पड़ौसी लाख जोर दे लें तो भी किसी न किसी बहाने से टाल दिया करता था। दूसरे पेय पदार्थों की तुलना में पानी को वरीयता दे दिया करता हूँ लेकिन रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर लगे नल से मुझसे पानी कभी नहीं पिया जाता। कंजूस आदमी हूँ, खरीदकर पानी पीना अय्याशी लगती है तो बहुत समय से एक आदत है कि घर से निकलते समय पानी की बोतल बैग में जरूर रहती है। खैर, जिस बात का जिक्र कर रहा हूँ वो पढ़िये।
गर्मियाँ शुरु हो चुकी थीं, हर शनिवार दोपहर को जब बैंक से दिल्ली के लिये निकलता तो ठंडे पानी की बोतल बैग में होती। मोटरसाईकिल पर शहर तक आना, फ़िर बस से लुधियाना आना, वहाँ से रेलवे स्टेशन तक आना और गाड़ी का इंतजार करते हुये प्लेटफ़ार्म पर खड़े होना - इस सब में दो घंटे के लगभग तो लग ही जाते थे। यानि घर पहुंचने में अभी सात आठ घंटे बाकी। पूरे विचारमंथन के बाद गाड़ी के प्लेटफ़ार्म पर आते-आते १५-२० रुपये खर्च करके एक ठंडे पानी की बोतल और खरीद ली। सोचा, सीट मिलने के बाद तसल्ली से पानी पिया जायेगा।
जब सीट भी मिल गई तो बैग में हाथ मारा, दो बोतल। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे अर्जुन भी उतना किंकर्तव्यमूढ न हुआ होगा, जितना मैं हो गया। जो बोतल बैंक से भरकर चला था उसका पानी हल्का सा ठंडा था और जो अभी खरीदी थी उसका पानी एकदम ठंडा। किस बोतल से पानी पहले पिया जाये? मैंने कई बार बैग की चैन बंद की, कई बार खोली और फ़िर बंद की। साथ वाली सीट पर बैठा सवारा भी अजीब तरह से मुझे देख रहा था। मेरे दिमाग में उधेड़बुन चालू थी - अभी हल्की ठंडी बोतल से पानी न पिया तो बाद तक ये एकदम गर्म हो जायेगा। इसे पहले पिया तो जब तक दूसरी का नंबर आयेगा, उसकी भी ठंडक जाती रहेगी। गाढ़ी कमाई के १५-२० रुपये खर्च कर रखे हैं, पेड़ पर तो पैसे लगते नहीं। उधर हलक सूखता जा रहा है।
हर शनिवार को ये समस्या आती रही। मैंने भी सारे उपलब्ध विकल्प अपना लिये। सर्वमान्य हल नहीं निकलना था तो नहीं निकला। एक बार तो घर पहुँचने तक दोनों बोतलें खोली ही नहीं। नौबत ये आ गई कि मुझे शुक्रवार से ही टेंशन होने लग जाती थी। ये तो धन्यवाद है उस परमात्मा का कि मेरा जुलाई में दिल्ली ट्रांसफ़र हो गया नहीं तो मैंने यहाँ आपको दिखना नहीं था, कहीं और ही होता और कर रहा होता ’ओ पड़दी गिड़्गिड़ दी, एंक्स दी बेंध्याना दी’ :) :)
अभी कुछ दिन पहले तक मैं पलवल में पोस्टेड था। हमारे बैंक का एक ग्राहक आया और नमस्ते करके पीछे बेंच पर बैठ गया। मेरी नजर पड़ी तो मैंने बुलाया, "हाँ ...... जी, क्या काम था?" वो बोला, "कोई खास बात नहीं, अभी आप बिज़ी हो। कर लो काम।" कुछ देर बाद मैंने फ़िर बुलाया और उसका वही जवाब सुना तो सच कहूँ थोड़ा खीझकर कहा कि बताओ यार, भीड़ तो लगी रहेगी। वो अपने साथ अपने MBA किये लड़के को लाया था, कहने लगा कि थोड़ा गाईड कर दो इसे नौकरी वगैरह के बारे में, इसलिये लाया हूँ। क्या गाईड करता उसे? मैं जो चार महीने में सोलह शनिवार तक ये तय नहीं कर पाया कि किस बोतल का पानी पहले पियूँ, मैं गाईड करूंगा उसे? अब ध्यान नहीं उसे क्या उल्टी सीधी पट्टी पढ़ाई कि दोनों बाप-बेटे नमस्ते करके चले गये।
जब तब कोई अपने से ज्यादा पढ़ा लिखा और ज्यादा काबिल दोस्त फ़ोन पर अपनी कोई समस्या शेयर करता है और सलाह मांगता है तो मैं कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा अर्जुन बन जाता हूँ। मेरे हाथ पैर शिथिल होने लगते हैं, पसीने आने लगते हैं मुझे।
मैं तुम्हें सलाह दूँगा?
मैं? जो आज तक नहीं समझ पाया कि किस बोतल का पानी पहले पियूँ......................
मैं, जो आजतक ये नहीं समझ पाया कि जिंदगी में किस चीज को पहली प्राथमिकता देनी है...
मैं सलाह दूँगा तुम्हें?..........................................................