बड़ी पुरानी गल्ल है जी, हमारी पहली नौकरी के टाईम की। पहली नौकरी का महत्व आप सब जानते ही होंगे, पहली मोहब्बत आदमी एक बार को भुला सकता है लेकिन पहली नौकरी की यादें नहीं। कोई जरूरी नोटिस सर्व किये जाने थे और जिस कर्मचारी की नोटिस सर्व करने की ड्यूटी थी. वो बिना सूचना के दो दिन से ऑफ़िस नहीं आ रहा था। शाम के समय बॉस काफ़ी गुस्से में थे और कहने लगे कि इसे सबक सिखाया जायेगा। शाम को मैं ढूँढते-ढाँढते उनके घर पहुँचा। मालूम चला कि उनकी तबियत कुछ खराब थी। कम से कम ऑफ़िस में जानकारी देने की सीख देकर और बॉस के गुस्से की बात बताकर अपने घर लौट आया।
ओम प्रकाश नाम था उनका, उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े थे तो मैं उन्हें चाचा कहकर बुलाया करता था। अगले दिन सुबह ड्यूटी पर पहुँचा तो चाचा पहले से मौजूद थे, घबराये हुये तो थे ही। बॉस थे भी अभी नये नये, एकदम यंग, डाईनैमिक और चूँकि बहुत बड़ा पेपर पास करके आये थे तो रौब दाब तो था ही उनका। चाचा मुझसे पूछने लगे कि क्या किया जाये। था तो मैं बॉस से भी यंगर लेकिन डाईनैमिक भी नहीं था और पेपर भी तो छोटे वाला ही पास करके भर्ती हुआ था, तो इतनी तो अपनी चलती नहीं थी कि सीधे सिफ़ारिश कर दें, लेकिन मौके पर पहुँचकर थोड़ी सी जेनुईननेस तो बता ही सकता था, यही सलाह दी। ओम प्रकाश जी से कहा कि झूठ मूठ कुछ कहने की बजाय जो सच है, उसे अपनी प्रार्थनापत्र में लिखकर साहब के सामने पेश हो जाओ, पीछे-पीछे मैं आकर जो संभव होगा, सिफ़ारिश कर दूँगा। यही जून- जुलाई के दिन थे , चाचा के पसीने तो टपाटप आ ही रहे थे, फ़ट से कागज कलम लेकर अर्जी लिखी और काँपते कदमों से साहब के केबिन की तरफ़ कूच किया। जाते जाते मुझसे कह गये कि देर न करूँ, जल्दी से आ जाऊँ।
केबिन के दरवाजे तक मैं साथ गया और उन्हें अंदर भेजकर वहीं साईड में खड़ा हो गया। उनकी साहब को नमस्ते करने की आवाज सुनाई दी और अगले मिनट के बाद मैं भी केबिन में जाकर अभिवादन करके खड़ा हो गया। तब तक ओम प्रकाश जी अपनी अर्जी पेश कर चुके थे और साहब उसे पढ़ रहे थे। दम साधे हम दोनों खड़े थे कि एकदम से साहब के चेहरे पर मुस्कान आ गई, चेहरा ऊपर उठाकर ओम प्रकाश जी से बोले, “जाओ, आगे से ध्यान रखना।” चाचा की साँस में साँस आई और बड़ी सी नमस्ते करके वो बाहर भागे। बॉस ने अर्जी मेरी तरफ़ बढ़ा दी, चेहरे पर मुस्कान दबाये नहीं दबती थी। अपना ट्रांसमीटर एसीपी प्रद्युम्न की तरह सिग्नल दे रहा था, ’कुछ तो है।’ बाहर आकर अर्जी पढ़ी तो जोरों से हँसी आ गई। बड़े जहाँ मुस्कान में भी कँजूसी बरतने पर मजबूर होते हैं, छोटे वहाँ खिलखिला कर हँस सकते हैं, बिना इस बात की परवाह किये कि इसे फ़ूहड़ता समझ लिया जायेगा। और ये वो हासिलात है जो छोटों को बड़ों से भी बड़ा कर देते हैं, अगर कोई समझे तो।
अब रोल बदल गये थे, अब चाचा मुझसे पूछ रहे थे कि हँस क्यों रहे हो? साहब भी हँस रहे थे, कुछ गलत लिखा है क्या?”
मैं क्या बताता, बता ही नहीं पा रहा था। हँसी रुके तो कुछ बोलता। बॉस द्वारा अंडरलाईन की गई लाईन चाचा को पढ़ा दी, आप भी पढ़ लीजिये -
“प्रार्थी के नीचे दो फ़ोड़े निकल आये थे, जिस कारण प्रार्थी दो दिन ऑफ़िस नहीं आ सका।”
आपको आये न आये लेकिन उस समय मेरा हँस हँसकर बुरा हाल था। चाचा पहले तो शर्मिंदा से हुये फ़िर मुझपर ही नाराज होने लगे, “तुमने ही तो कहा था कि सच सच लिख दूँ अर्जी में।”
“सच कहता है चाचा, कसूर तो मेरा ही था, है और रहेगा।”
वो अर्जी फ़ाड़कर दोबारा लिखवाई, साहब से स्वीकृत करवाकर लाया। उस दिन के बाद साहब ने और मैंने हमेशा ओम प्रकाश जी को प्रार्थी कहकर बुलाया, ऑफ़िस वाले इस बात को कभी समझ ही नहीं सके।
इतने सालों के बाद ये बात अब जाकर क्यों याद आई? पिछले ढाई महीने से दोपहर में खाना खाने रूम पर आता हूँ। तीन चार दिन से मोटर साईकिल पर बैठते ही जान निकल जाती है। इस प्रार्थी के नीचे कोई फ़ोड़ा-वोड़ा नहीं निकला है, धूप में खड़ी मोटर साईकिल इतनी गर्म हो चुकी होती है कि ये हालत हो जाती है। अब ध्यान आ रहा है कि जसवंत, हमारे ऑफ़िस में काम करने वाला सफ़ाई कर्मचारी रोज बिना नागा बारह-साढे बारह बजे मेरी सीट पर आता था, “साब, चाबी।” जब उसने पहली बार चाबी माँगी तो मैंने सोचा था कि इसे कहीं जाना होगा, फ़िर धीरे धीरे बात इतनी साधारण हो गई कि इस पर गौर ही नहीं जाता था। सूरज महाराज के स्थिति बदलने के अनुसार वो मोटर साईकिल सड़क के उस पार से इस पार लाकर खड़ी कर देता था, हमें पता ही नहीं चलता था कि उसके ये करने से हमें कितना सुख मिल रहा है। आजकल वो नहीं है तो प्रार्थी को पता चल रहा है कि कैसे होती है शेर की सवारी:)
जसवंत जैसे और कितने ही हमसे जूनियर हैं जो हमारा ध्यान रखते हैं, मदद करते हैं। हमारे सुख-दुख में साथ रहते हैं,जरूरत पड़ने पर हमें काम भी सिखाते हैं। जब पुरानी ब्रांच में था और ऑफ़िस से घर के लिये निकलने लगता था तो अपना भोला रोज कहता था, “अच्छा, ध्यान से जाईयो घर।” मैं हंसता था, “पागल, मैं मोर्चे पर जा रहा हूँ क्या?” वो फ़िर भी रोज ऐसा ही कहता। कल भी फ़ोन आया था उसका, “कब आना है वापिस? हरिद्वार नहीं चलना?” कोई जवाब नहीं सूझता, टरका देता हूँ उसे भी:)
किस किस का नाम लें, कितने ही हैं जो छोटे छोटे कामों से, छोटी-छोटी बातों से हमें अपने से बड़ा बनाते हैं। कहाँ किसी का आभार व्यक्त किया? जो ये करते रहे, उसे उनकी ड्यूटी मानकर taken for granted लेना अपनी आदत भी बन गई है और फ़ैशन भी। यूँ भी ये जसवंत, भोला, नत्थू , ओम प्रकाश जैसे आकर मेरी कमेंट संख्या थोड़े ही बढ़ा देने वाले हैं। खैर, आभार तो हमने ऊपर वाले का नहीं माना तो ये क्या चीजें हैं? जब उससे नमकहरामी कर सकते हैं तो जसवंत, भोला और दूसरे क्या मायना रखते हैं? अपना नाम ’मो सम कौन कुटिल… ऐवें ही थोड़े है:) चार छह कदरदान द्रवित होकर वाह-वाह कर जायेंगे, कुछ छेड़ जायेंगे, हो गया अपना टार्गेट पूरा। हींग लगी न फ़िटकरी, हो गई हिन्दी की सेवा:)
और कल्लो बात..... अब तो हमसे ही सवाल भी किये जाने लगे हैं। भैय्ये हाथ जुड़वा लो, बड़े वाले सवाल मत पूछो अपने से। अभी न अपने पास बीवी है, न टीवी। जब होंगे तब पूछ लेना, तब का बहाना तब सही:) इससे तो बेहतर है कि मैं ही सवाल पूछ लिया करूँ। ये रहा आज का होमवर्क -
’प्रार्थी को कितने दिन का अवकाश लेना चाहिये था कि साहब को गुस्सा न आता?’
संकेत: १. ’मेरे हाथों मे नौ-नौ चूडि़याँ हैं…मेरे पीछे पड़े हैं आठ-दस लड़के’
ऐसे पूछते हैं सवाल:)
अब चूड़ियों की बात आ ही गई है तो लगें हाथों……..
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