"औंल? जूंते कैंसे लहे?"
नकियाता था, तुतलाता था और थोड़ा सा हकलाता भी था। जब उसने ये सवाल पूछा तो पहले तो ये लगा कि कहीं से इसने कुछ सुन सुना लिया है और वही दरयाफ़्त कर रहा है कि जूते कैसे पड़े? ऐसी बुरी रैप्यूटेशन तो नहीं थी वैसे अपनी, फ़िर भी मैंने धीरे से कहा, "कोई बात नहीं, ऑल इज़ वैल।"
"नहीं यांल, सलम की बांत नहीं, हम गैंल थोले हीं हैं? बतां दें, पैंसे खलचे हैं, मुफ़त का मांल थोले ही है।" फ़िर ध्यान आया कि पिछले महीने इसकी दुकान से जूते खरीद कर लाया हूँ, वही फ़ीडबैक ले रहा है।
दरअसल हुआ ये था कि जब तक बापू के पैसे पर ऐश करते थे तो कोशिश रहती थी ब्रांडेड जूते पहनने की, जब खुद की जेब पर जोर पड़ने लगा तब बाटा, लिबर्टी, फ़ीनिक्स जैसे महंगे ब्रांड्स को हम माया महाठगिनी के औजार समझने लगे और लोकल\स्वदेशी कंपनियों के जूते पहनने लगे। यूँ भी कहीं पढ़ा था कि जेंटलमेन की पह्चान जूतों से होती है तो कहीं ब्रांडेड जूते देखकर कोई हमें जेंटलमेन न समझ ले, अपनी ईमानदारी दिखाने के लिये हम लोकल पर उतर आये थे।
ये बंदा हमारा मित्र, संगी-साथी, सहपाठी और बहुत कुछ रहा था। पार्क में भागने से लेकर पुलिस से भागने तक हम साथ साथ रहे थे और कई ट्रेड बदलने के बाद उसने अभी तीन चार महीने पहले ही जूतों का शोरूम खोला था। पिछले महीने जूते खरीदने गया तो जूतों के बारे में अपनी च्वॉयस उसे बताई और खुद ही दुकान के लड़के को देशी पेय पदार्थ लाने को भेज दिया। अब श्रीमान जी ने एक जोड़ी जूते मंगवाये और इतनी जबरदस्त रिकमेंडेशन की कि कुँआरेपन में भी किसी प्रोडक्ट की नहीं की होगी। वही जूते खरीदने के अलावा कोई और चारा ही नहीं बचा। खरीददारी के मामले में वैसे भी अपन बहुत सैलेक्टिव नहीं रहे, दस नंबरी होना चाहिये सिर्फ़(जूता), अपने लिये बहुत है।
जूते सच में इतने कम्फ़र्टेबल थे कि मन करता था कि पहन कर ही नहाया जाये, सोया जाये। अब हुआ ये कि बीस पच्चीस दिन के बाद जब भी चलता और बाँया पैर उठाकर रखता तो एड़ी के पास ठंडी हवा का एक झौंका महसूस होता। बिना मुड़े, झुके अंदाजा लगा लिया कि ये तो गया। मुहावरा बदल गया था, ’सस्ता रोये बार बार’ की जगह ’सस्ता हवा दे बार बार।’
उस दिन जब उसने पैसे खलचने की याद दिलाई तो हमने भी जूते पड़ने की झेंप उतारते हुये उसे बताया कि यार उसकी तो पेस्टिंग उखड़ गई थी इसलिये उन्हें घर में ही रख छोड़ा है और दूसरा जोड़ा पहन रहे हैं। पेस्टिंग उखड़ने की बात सुनकर उसने इतनी हैरानी से मुँह खोला जैसे बजट में इंकम टैक्स की सीलिंग तीन लाख होने की उम्मीद रखे बैठे हम जैसों ने भी बजट पेश होने के बाद न खोला होगा। यकीन ही नहीं हो रहा था उसे, यही लग रहा था कि मैं मजाक कर रहा हूँ। ये बहुत पंगा है, किसी से सही बात करो तो वो यही समझता है कि मजाक हो रहा है। वो न मानने पर जुटा था, कहता था कम से कम पचास जोड़ी वही जूते बेच चुका है और एक भी कंप्लेंट नहीं आई और मैं यही कह रहा था कि नहीं मानना तो मत मान, मैंने तुझसे कोई शिकायत तो नहीं की है। तूने बार बार पूछा तो सही बात बताई है। आखिर में यह तय हुआ कि जूते उसके पास भेजे जायें तभी यकीन करेगा। अंतत: ’तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा’ की तर्ज पर जूतों की शिपमेंट यानि कि साईकिलमेंट(बजरिया UKP Sr) कर दी गई।
हम तो भूल भाल गये कि ऐसा कुछ हुआ भी था, सप्ताह भर बाद बैंक से घर लौट रहा था तो उसने आवाज लगाई। यक्ष प्रश्न हुआ, "एंक बांत बतां सचसच, जूंते उतांलते तैम तंस्मे खोलके उतांलता है न?" मैं सोचने लगा, याद करने लगा। ऐसा होता है न, एक काम करते करते वो इतना सहज लगने लगता है कि उसके बारे में हम सोचते ही नहीं। मुझे सोचते देखकर उसने फ़िर टोका, "झूंठ न बोलियो, फ़ैक्टली गया था और वहाँ चैलेंज हो गंया है इस बात पल।" अब मैं बोल बोलकर याद करने लगा, "सुबह ट्रेन से उतरकर बैंक भागता हूँ, पांच सात मिनट लेट होता हूँ तो भागकर सीट पर पहुँचता हूँ। जब तक कम्प्यूटर ऑन होता है, घड़ी और जूते उतार देता हूँ।" उसकी उत्सुकता बढ़ रही थी, "दोनों चींज एंकसांथ कैंसे उंतालता है? हांथ तो दो ही हैं न?"
"अबे यार, हाथ तो दो ही हैं और दोनों घड़ी उतारने में उलझ जाते हैं। बल्कि सच तो ये है कि शुरुआत घड़ी खोलने से होती है लेकिन जूते पहले ही उतर चुके होते हैं। दी एड़ी पर एक एक चोट और जूता बाहर।"
ये सुनकर वो इतना खुश हुआ जैसे पता नहीं क्या खजाना पा लिया हो उसने। "देंखा, मैं कैता था न, जूंते में कोई कमी नहीं है। कमी तेंले उतालने में हैं, कंपनी वाले भी यंही कंह लंए थे।" दुनिया भर का भाषण पिलाया कि क्या जरूरत होती है बैंक में जूते उतारने की? क्या फ़ायदा हुआ स्कूल कालेज जाने का, रहा तो वही का वही, वगैरह वगैरह। मैं चुपचाप सुनता रहा और मुस्कुराता रहा, सही बात है प्यारे, कमी तो मेरी ही होती है:) मैं बताता भी तो वो कैसे समझता कि ये छोटे छोटे बंधन कितना उलझाते हैं मुझे।
एक हफ़्ते में जूते रिप्लेस होकर आ गये और आगे के लिये उसने बड़े प्यार से सावधान किया, "कंपनी के पांस पंहली कंप्लेंट गई है इस मॉडल की, उनकी भीं लैंपूटेशन खलाब होती है। जूंते बदल दिये हैं उन्होंने, लेकिन भांई हांथ जुड़ंवा ले कि जूंते उंतालते टैम पैंले तंस्मे खोंलने हैं।"
"हाथ तो मैं ही जोड़ लेता हूँ याल तेले आगे, जूते भी वापिस कल दे कंपनी को। चाल पांच सौ लुपल्ली के जूतों के लिये अपनी आदत तो बदलने से लहा।" बहुत हँसे हम दोनों, एक महीना और चल गये फ़ीते वाले जूते। उसके बाद फ़िर वही हम और फ़िर वही एड़ी पर चोट, बंधन नहीं बर्दाश्त होता। लेकिन बंधन से छुटकारा भी तो नहीं - घड़ी गई तो मोबाईल का बंधन, ये गया तो वो का बंधन। माया का बंधन, मोह का बंधन, ममता का बंधन, अपनेपन का बंधन, तन का बंधन, मन का बंधन। घड़ी, जूते जैसे दिखने वाले बंधन भी और न दिखने वाले बंधन भी। जिन बंधनों से मन घबरा उठे वो बंधन भी और जिन बंधनों के लिये मन बेचैन हो उठें वो बंधन भी। हाँ, ऐसे भी होते हैं कुछ बंधन, जिनके बिना जीवन बिलकुल फीका फीका, सूना सूना सा लगता है और जिनके होने से जिंदगी को कुछ मकसद मिल जाता है।
लेकिन क्यूँ होते हैं ये इतने बंधन? शायद इसलिये होते हों कि बिना इनके हम गैस वाले गुब्बारों की तरह बिना किसी दिशा के, बिना उद्देश्य के ही उड़कर अपनी ऊर्जा न खत्म कर लें। बंधन सोद्देश्य हो और विवेक जागृत रहे तो मंजिल तक पहुँच जायेंगे नहीं तो फ़िर वही..... :)
चलो यारो, अब इतना झेला है तो इनाम में एक गाना तो बनता ही है, है न?