रविवार, मई 27, 2012

simple mechanism of a complex system

ड्राइविंग लाईसेंस बनवाना था और समस्या ये सामने आ रही थी कि मेरे पास छुट्टी की कमी थी| अथोरिटी का हाल तो मालूम ही था, बिना किसी एजेंट के जाने का मतलब था पूरा दिन खराब करना| मेरा भारत महान की एक खास बात ये है कि यहाँ हर काम के लिए मध्यस्थ उपलब्ध रहते हैं, यत्र तत्र सर्वत्र| एक ऐसे ही बंदे का पता चला तो उससे इस बारे में बात की| पैसों की बात तय हो गई, साथ ही यह बात कि एक घंटे में फ्री कर दिया जाऊँगा,  जिसमें लिखित परीक्षा, फोटो, फिंगर प्रिंट्स वगैरह सब काम निबट जायेंगे| सरकारी फीस से जितने ज्यादा रूपये देने पड़  रहे थे, एक छुट्टी बचाने और बिना किसी सिफारिश के अथोरिटी में जाने पर पेश आने वाली जिल्लतों के बदले ये अतिरिक्त खर्चा ठीक ही लगा|

नियत दिन और समय पर सिंह साहब के दफ्तर में पहुँच गए| देखा पांच छ हमारे जैसे बकरे पहले से ही मौजूद थे| लिस्ट के नाम पूरे होते ही सिंह साहब ने नारा लगाया, 'चलो जवानों' और सब जवान  उनकी स्कोर्पियो में  सवार होकर चल दिए |  गाड़ी स्टार्ट करने से पहले उन्होंने हम सबको ब्रीफ करना शुरू किया, "मेरी गल्ल सारे ध्यान नाल सुन लओ, ओए अंकल बंद कर  ऐ तेरी हनुमान चलीसा, अगले घंटे डेढ़ घंटे तक सिर्फ मेरी गल्ल त्वाडी सबदी गीता कुरआन हैगी| जो मान लेगा, सुख पायेगा और जिसने अपना दिमाग इस्तेमाल किया और मेरे कहे से हटकर कुछ काम कीता तो अपने नफे नुकसान का जिम्मेदार वो खुद होएगा| पैसे वापिस नहीं मिलने वाले हैं, इसलिए चंगा ये होगा कि मेरी मानो और कामयाब होवो| सबसे पहले अथोरिटी में written test होना है और उसमें पास होना जरूरी है| तुसी सारे पेन्सिल नाल आंसर शीट  विच सारे जवाब दे 'C' ओप्शन नू टिक करना है, कुछ नहीं पढ़ना कुछ नहीं सोचना सिर्फ इक चीज ध्यान रखनी है 'C',  वाधू(ज्यादा) पढ़े लिखे बंदे ज्यादा गौर नाल सुन लओ, अपना दिमाग नहीं इस्तेमाल करना है| ओके, कोई सवाल?"  किसीकी  मजाल नहीं थी कि कोई सवाल पूछता, जब पहले ही आज्ञापालन न करने पर कार्यसिद्धि न होने की और स्थानविशेष पर  कायदे-क़ानून की  लात  पड़ने की भी चेतावनी मिल चुकी थी| गाड़ी स्टार्ट हुई और हम सब चल दिए परीक्षाकेंद्र की तरफ|

परीक्षा शुरू हुई और सब जवाबों के 'C' option टिक कर दिए गए| हालांकि कोई जरूरत नहीं थी कि प्रश्नपत्र पढ़ा जाए लेकिन फिर भी पढ़ा गया|  यूं भी सामाजिक व्यवहार में हम सब मौक़ा लगते ही क़ानून तोड़ने के जुगाड में रहते हैं -  थूकने की, मूतने की, कूड़ा फेंकने की मनाही लिखी हो तो हमारी अंतरात्मा हमें धिक्कारने लगती है कि हम कोई गुलाम हैं इस लिखने वाले के क्या जो यहाँ ये सब न करें? मौक़ा लगते ही अपना विरोध प्रदर्शन कर देते हैं, चाहे छुपकर ही क्यूं न करना पड़े| प्रश्नपत्र पढकर दिमाग और खराब हो गया, अधिकतर सवाल आते थे और उनमें से अधिकतर का जवाब 'C' नहीं था| बार बार यही लगता था कि सरदार ने मरवा दिया, पैसे भी गए और जब कल के अखबार में ये खबर छपेगी कि साधारण सी परीक्षा में भी पास नहीं हुए तो क्या मुंह दिखाएँगे बिरादरी वालों को? खैर, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा को याद करते हुए आंसरशीट जमा कर दी और पन्द्रह मिनट में ही सिंह साहब के सारे केस पास घोषित होकर बाकी औपचारिकताएं पूरी कराने चल दिए|

दो दिन बाद शाम को जब लाइसेंस लेने गया तो फुर्सत में सिंह साहब के साथ बातचीत हुई और फिर समझ आया कि 'C' option उनका उस दिन का कोड था जिससे अथोरिटी वालों को पता चल जाए कि ये सब सिंह साहब के केस हैं|   इस प्रकरण से मैंने ये समझा कि कैसे एक तंत्र को अपने हितानुसार साधा जा सकता है| जैसे बेईमानी के धंधे में ही अब ईमानदारी बची है, वैसे ही एक जटिल तंत्र को एकदम साधारण कोड से काबू किया जा सकता है| all you need is to find the right person at the right time. आप भी कहोगे कि एक तरफ सम्मान लेबल वाली पोस्टों की बहार हैं और ये जनाब ले बैठे रूखे-सूखे किस्से|

लेकिन सच ये है कि इस किस्से की याद ही इन आयोजनों को देखकर आई है, वैसे अपना मूड इस समय एकदम सकारात्मक है| सम्मान करने वालों से अपने को कोई शिकायत नहीं है, उनका अधिकार है जिसे मर्जी सम्मानित कर दें|  असहमति जताने वालों, सुझाव देने वालों से भी अपने को कोई शिकायत नहीं, अपनी राय स्वस्थ तरीके से रखने का उनका भी अधिकार है| और तो और, सवाल उठाने वालों पर बरसने वालों से भी अपने को शिकायत नहीं है अपने को तो ये सब देखकर मजा आ रहा है| वरिष्ठों और would be वरिष्ठों का व्यवहार देखकर यकीन पक्का हो जाता है कि फेसबुक, ट्विटर अपनी कितनी ही ऐसी तैसी करवा लें, हिन्दी ब्लोगिंग अमर रहेगी|  लोगों का उत्साह अचम्भित करने वाला है, और खुद की निर्लिप्तता\किम्कर्त्व्यमूढ़ता एक अब्नार्मलिटी लग रही थी| अगर आलसी महाराज भी इसमें न कूदे होते तो अपन इस सारे प्रकरण में मौनी बाबा बने रहते| परिकल्पना आयोजन में मुझे भव्यता झलकती लगी है तो उस अकेले के आयोजन में कहीं ज्यादा जीवन्तता| अपना हाथ, अकेले के साथ,  अपने को ज्यादा इन्तजार 'आलसी का चिटठा' पर आने वाले निष्कर्ष का रहेगा, नतीजों से भी ज्यादा निष्कर्ष का|

कोई भी आयोजन सबको तुष्टि  देने वाला नहीं हो सकता, इस बात को मैं मानता हूँ लेकिन इसे और भी स्वस्थ तरीके से किया जा सकता होगा, ये भी मानता हूँ| सुधार की गुंजाईश हर जगह है|

बड़ी विसंगतियाँ जो औरों की तरह मुझे भी दिखती हैं-

१. लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का नाम तो दिया जा रहा है लेकिन लोकतंत्र में अभ्यार्थी खुद आवेदन करता है, यहाँ ऐसा नहीं है| वोट देने न देने का या किसे देना है, यह अधिकार वोटर के पास बेशक होना चाहिए  लेकिन जिन्हें प्रतियोगी बना दिया गया, क्या वो इस सबके लिए तैयार हैं? उनके अधिकार का भी सम्मान होना चाहिए|  

सुझाव - पहले श्रेणी अनुसार नामांकन आमंत्रित किये जाए, उसके बाद आगे की प्रक्रिया चले| spadework करने में शुरू में मेहनत बेशक  ज्यादा हो, लेकिन कार्य व्यवस्थित रूप से होता है|

२. जो  निर्णायक मंडल में शामिल हैं, उनका नाम प्रतियोगियों में भी होना अजीब सा लगता है|

सुझाव - पिछले वर्ष\वर्षों के सम्मानित ब्लोगर्स को निर्णायक मंडल में शामिल किया जाना चाहिए, इससे दूसरों की प्रतिभा भी सामने आयेगी अन्यथा तो घूम फिरकर वही नौ-दस नाम हैं| नई प्रतिभाओं की कमी नहीं है, एक से बढ़कर एक अच्छा लिखने वाले हैं|

और भी बातों पर लिखा जा सकता था लेकिन सादेपन में लिखते समय जल्दी ही हमारी हंफनी छूट जाती है|  वो तो बेगम ने तीन चार दिन पहले किसी बात पर टोक दिया था कि कभी सोचकर सोचियेगा कि कितनी तीखी बात कह देतें हैं आप, तो हमने सोचा कि केंचुली बदल लेंवे धीरे धीरे, आज शुरुआत कर दी है| 

सबसे पहले एक बात स्पष्ट कर दूं कि अपनी इस आयोजन में सम्मानित होने की न तो कभी कोई आकांक्षा थी, न  है, और न ही  भविष्य में होगी| मैं जो सोचकर ब्लोगिंग में आया था, उससे बहुत ज्यादा पहले ही पा चुका हूँ|  यह बात लिखना इसलिए भी  जरूरी है कि यहाँ लोग लोकतंत्र, विमर्श और दुसरे लुभावने शब्दों की जुगाली जितनी मर्जी कर लें, खुद इन कसौटियों पर खरे नहीं उतरते और विरोध, सुझाव, असहमति को अपने चश्मे से ही देखते हैं|  देखा कि एक दो मित्रों ने वहाँ मेरा भी नाम किसी श्रेणी में प्रस्तावित किया है, पूरी विनम्रता से उनका आभार और ये गुजारिश कि मुझे मेरी कमियों से अवगत करवाते रहें तो वो मेरे लिए ज्यादा बड़ा सम्मान है, असली सम्मान है| 

वहाँ न लिखकर अपने ब्लॉग पर इसलिए लिख रहा हूँ कि जो मुझे जानते हैं वो मेरे ब्लॉग को भी जानते हैं और जिन्होंने सिर्फ 'C' option को टिक करना है, वो करेंगे ही|  छूटती नहीं है काफिर तल्खी, मुंह की लगी हुई :-) 


सम्बंधित कड़ियाँ जिनमें दिखते हैं अलग अलग तेवर -

http://www.parikalpnaa.com/2012/05/blog-post_354.html

- http://girijeshrao.blogspot.in/2012/05/blog-post_20.html

- http://hindini.com/fursatiya/archives/2979

http://lalitkumar.in/hindi/1179

http://vichaarshoonya.blogspot.com/2012/05/2011.html









रविवार, मई 13, 2012

पैमाने कैसे कैसे? ...


कल शाम बैंक से घर लौटा तो देखा पिताजी के साथ चौधरी अंकल बैठे हैं। यूं तो पडौस में ही रहने वाले हैं लेकिन आजकल किसी के घर आना जाना विशेष काम से ही होता है जैसे शादी ब्याह का निमंत्रण देना हो या किसी की मृत्यु या गंभीर बीमारी जैसी कोई बात हो। वो जमाने अब नहीं रहे जब पडौस की रसोई की महक से अपने घर बनी दाल सब्जी अपना स्वाद खो बैठती थी और हक़ से उधर से साग मंगवा लेते थे।बगल वाले घर में बाप-बेटा या भाई-भाई या पति-पत्नी के झगडे की आवाज सुनाई पड़े तो जाकर समझाने, डांटने के लिए खून का रिश्ता होना जरूरी नहीं होता था। अब हम सब खाए, पिए, अघाए लोग हो चुके हैं, 'माईंड योर ओन बिजनेस' जितनी अंगरेजी भी जानते ही हैं।

चौधरी अंकल को देखकर थोड़ी हैरानी भी हुई और कुछ खटका सा भी लगा, आज पता नहीं कैसे इधर का रास्ता भूले हैं? मालूम चला, एकदम से तेज बरसात शुरू हो गयी थी और वो उस समय हमारे दरवाजे के सामने से ही निकल रहे थे। हँसते हुए कहने लगे, 'अन्दर नजर नजर पडी तो भाई साहब बैठे दिख गए और मैंने सोचा कि मुलाक़ात हुए बहुत दिन हो गए हैं। बारिश से भी बचाव हो गया और भाई साहब से भी राम राम हो गयी।' कुछ देर बार जाने लगे तो मेरे गाल पर प्यार से थपथपाकर गए, और बयालीस साल का मैं, उस स्पर्श को देर तक महसूस करता रहा।

जाने कितनी बार सुन चुका हूँ पापा से और दादाजी से भी इन चौधरी अंकल की कहानी, कल फिर छेड़ कर बैठ गया। मेरे दादाजी और इनके ताऊजी पगड़ीबदल भाई बने हुए थे। कहानी कहो या किस्सा, शुरुआत होती है सन सैंतालीस के पार्टीशन से। एक काफिला चला आ रहा था उस जमीन को छोड़कर जो कल तक हिन्दुस्तान ही था, उस जमीन की तरफ जो अब उनके हिस्से का हिन्दुस्तान घोषित किया जा चुका था। कितने ही पूरे परिवार और कितने ही आधे अधूरे परिवार, जवान आदमी औरत से लेकर बच्चे, बूढ़े, बीमार, विकलांग, गर्भवती महिलायें भी उस भीड़ में शामिल थे। एक आदमी बीमार था और बीमारी के चलते बार बार काफिले से पीछे रह जाता था। ऐसे ही एक मौके पर वो काफिले से कटा और कुछ लोगों के सबाब का सबब बनते हुए काट डाला गया। उसके परिवार के दुसरे लोगों के साथ उसकी गर्भवती स्त्री भी काफिले में शामिल थी, एक के जाने से कारवाँ तो नहीं रुका करते सो वो काफिला भी चलता ही रहा। जालंधर पार करने के बाद काफिला तितर बितर होना शुरू हो गया, जिसके जिधर सींग समाये वो उधर ही बसकर जिन्दगी की सलीब ढोने लगा।

दिल्ली आने के महीने भर के बाद उस महिला ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिनका जिक्र मैंने पोस्ट के शुरू में चौधरी अंकल के रूप में किया है। संक्रमण काल था, कुछ लोगों ने इनके ताऊजी जोकि घर के मुखिया थे, को अनुज-वधू, जो विवाह के साल भर बाद ही विधवा हो चुकी थी के पुनर्विवाह की सलाह दी। अपनी पत्नी और मेरे दादा-दादी की मौजूदगी में ताऊजी ने अनुज-वधु को पुत्री मानते हुए ये बात शुरू की लेकिन उस मुश्किल से बीस साल की महिला ने एकदम से उस बात को खारिज कर दिया। शादी भी हो चुकी, माँ भी बन चुकी। पति नहीं रहे लेकिन पुत्र तो है, चाहे मजदूरी करके जीवन काटना पड़े लेकिन खुद का और बेटे का पेट भर ही लेगी। बेटे ने भी कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया, पढ़ लिख कर सरकारी नौकरी में आ गया। यही हैं हमारे चौधरी अंकल। अब तो असिस्टेंट कमिश्नर की पोस्ट से रिटायर भी हो चुके, माताजी और पत्नी स्वर्ग सिधार चुकी हैं और आज भी उस परिवार की शराफत, चरित्र और विनम्रता की लोग मिसाल दिया करते हैं।

बात बहुत मामूली सी लग सकती है सबको, क्योंकि ऐसे किस्से एकाध नहीं बल्कि बहुतायत में मिल जायेंगे बशर्ते किसी के पास इन बातों के लिए समय हो लेकिन मेरे लिए बहुत अहम् है। अब और भी ज्यादा क्योंकि ब्लोगिंग जैसी चीज से वास्ता है अपना। इस कहानी के पात्रों को जब ब्लोगिंग में वर्णित पैमानों से नापता हूँ तो हैरान हो जाता हूँ। उस महिला को बोल्ड माना जाए या नहीं जिसने अपनी जिन्दगी कैसे बितानी है इस पर दोटूक निर्णय ले लिया था? क्या उसे अबला कहना नारीशक्ति का अपमान नहीं होगा? उसकी ससुराल वालों को, उसके जेठ जेठानी जिन्होंने कम से कम बीस साल तक पहले उन माता-बेटे की रोटी, कपडे की जरूरत पूरी की उसके बाद अपनी और अपने बच्चो के बारे में सोचा, इंसान माना जाए या नहीं? क्योंकि मैंने तो एकता कपूर के सीरियल्स की तरह यहाँ भी ये पाया है कि ससुराल का मतलब ही है साजिशों का घर।

और सबसे ज्यादा इन चौधरी अंकल के बारे में सोच रहा हूँ, अब कुछ ब्लोगीय बातें।

महीना भर पहले जिन दिनों पाकिस्तानी सदर अजमेर जियारत के सिलसिले में भारत आये थे और हम मेहमाननवाजी में बिछे जाते थे, उन्ही दिनों में एक अतिसक्रिय ब्लॉगर महोदय की एक पोस्ट देखी। उन दिनों फिर से चर्चाओं में आये 'हाफिज सईद' के बारे में लिखी पोस्ट, टाईटिल से लेकर कंटेंट तक उस मोस्ट वांटेड के कारनामों को इसी बिला पर जस्टिफ़ाईड करती पोस्ट थी जिनसे हमारे चौधरी अंकल और उन जैसे हजारों लाखों लोगों को होकर गुजरना पडा था। कमेन्ट किया था, लेकिन अमूमन जैसा होता है वैसे ही वो कमेन्ट बिना छपा ही रह गया।

दंगों में लूटपाट, ह्त्यायें, मार-काट, अंग भंग, शील भंग ही हुआ करते हैं, अगर इनकी वजह से किसी का आतंकवादी बनना जायज होता है तो हमारी तरफ का पलड़ा यकीनन भारी होगा। उस शख्स के घर वाले यदि दंगों में मारे गए थे, उनकी जमीन अगर लूट ली गयी थी तो पाकिस्तान से आने वाले लाखों शरणार्थी अपनी जमीनें सर पर लादकर इधर नहीं लाये थे। उनके साथ भी यही सब हुआ था और ज्यादा हुआ था। और ये सब रुका तभी था, जब उसी भाषा में जवाब मिलने लगे थे। हमारी तरफ तो इस बेसिस पर राज्यपोषित आतंकवादियों  की संख्या शायद दुसरे देश की सेना से भी ज्यादा होती।

लिंक नहीं दे रहा हूँ क्योंकि इससे हमारे ब्लॉगजगत की धर्मनिरपेक्षता ख़तरे में पड जायेगी। ये शांति, सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता भी न गज़ब की चीजें हैं - एकदम से गज़ब तमाशा। एक पक्ष से भड़काऊ बाते हों तो कोई बांदा नई, इधर से उस भाषा में जवाब जाए तो एकदम से हलचल मच जाती है, वो भी पहले अपने खेमे में ही:) और यही बात है जो अपने पर और अपने समाज पर कभी गर्व करने का मौक़ा देती है और कभी शर्म का भी। गर्व इस बात का कि कम से कम सही गलत पर टोकने वाले तो मिल ही जाते हैं हमें, हम मानें या न मानें ये हमारे संस्कार लेकिन वो लोग कितने बदनसीब हैं जिनके गलत को भी सही कहना मजबूरी होता है एक पूरे फिरके के लिए। और शर्म इस बात के लिए कि अपने स्वार्थ, लोलुपता और डर को शान्ति, समरसता जैसे आवरण से ढंकते हैं हम लोग। बात बेबात जहर उगलना जरूरी नहीं लेकिन इन पक्तियों से सहमत हुए बिना रह सकते हैं क्या? -

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो,
उसका क्या जो दन्तहीन , विषहीन और सरल हो।

अंत में, विकीपीडिया की विश्वसनीयता पर संदेह हो रहा है।  खोजने पर बता रहा है  कि  शुतुरमुर्ग भारत में नहीं मिलते।  कन्फ्यूज्ड अगेन, स्माईली कौन सा लगाना चाहिए,

:) या :( ?

                                                
                                                           
                                                                (गूगल से साभार )

मंगलवार, मई 01, 2012

Blog Weather Report - मौसम का हाल, मो सम की ज़ुबानी


बोल्ड हवाओं के चलते  ब्लॉग प्रदेश में उच्च तापमान एवं वायुदाब का वातावरण बना हुआ है| चक्रवाती हवाओं के चलते बहुत से ब्लॉगर अपने खेमों से छितरकर नए नए खेमिक समीकरण के जुगत में लगे हैं| वायु में प्रदूषण  की मात्रा बेतहाशा बढ़ गयी है और आद्रता प्रतिशत भी सत्तर से पचहत्तर प्रतिशत पहुँच रहा है|   मूसलाधार बारिश के आसार बन रहे हैं और  झमाझम बरसात से होने वाले संभावित खतरों को देखते हुए कुछ विद्वानों ने अपने ताजे ताजे निर्माण भी खुद ही ढहा दिए हैं|  हर साल कोसी गंडक में आने वाली बाढ़ के समय की स्थिति से आज के माहौल की तुलना की जा सकती है क्योंकि  एक तरफ  जनता जनार्दन में ऊहापोह की स्थिति है, वहीं रिलीफ पार्टी\ ठेकेदार लोगों की बांछें खिलने के समाचार भी प्राप्त हुए हैं|   आगे क्या होता है, देखेंगे हम लोग ....|

:) एक बार एक लड़का खडा होकर MV  कर रहा था(शहरी संस्कृति में यह बहुत सामान्य बात है लेकिन गाँव देहात में इसे ठीक नहीं माना जाता), फत्तू  ने देखा और उसे समझाने की कोशिश की| लड़का तो एक नंबर का छंटा हुआ था,  उसने बात मानने से साफ़  मना कर दिया| अब फत्तू भैया भी पक्के परोपकारी थे सो उस लड़के के घर चले गए कि इसके बाप को शिकायत की जा सके|  उसके घर जाकर देखा, बापजी घूम घूमकर वही कर रहे थे जो उनका सपूत खड़ा होकर कर रहा था|
  
कई दिन से ये बात रह रहकर याद आ रही थी, और अब काशी के आसी वाले  कवि  सम्मलेन से सम्बन्ध रखती एक कविता जो कई साल पहले  एक मित्र से सुनी थी, वो थोड़ी थोड़ी  याद आ रही है - बड़े बड़े विद्वान तुम्हा.............|

ब्लॉग जगत की जय हो,
कर्ता धर्ता,  साहित्यकारों, कूटनीतिज्ञों, कवियों, लेखकों की जय हो|

समुद्र मंथन हुआ था तो हलाहल निकला था, लेकिन उसके बाद(ही)  अमृत भी तो प्राप्त हुआ था न?