कल सुबह बैंक के लिये निकल रहा था, माताजी से बाय-बाय कहते ही सुनाई पड़ा, "आजकल लू बहुत चल रही है, जेब में एक छोटा सा प्याज रख ले।" आदत के हिसाब से मैंने नानुकर की तो समाचार सुन रहे पिताजी ने भी मेरे विपक्ष में अपना वोट डाल दिया। उपलब्ध प्याजों में से सबसे छोटा प्याज(जोकि इतना छोटा भी नहीं था), अपनी पेंट की छोटी सी जेब के हवाले करके मैंने कूच का नगाड़ा बजा दिया।
मेट्रो स्टेशन पहुँचकर बैग स्कैनिंग मशीन के हवाले किया और खुद लाईन में खड़ा हो गया। भीड़ के हिसाब से सवारियों के शरीर पर जल्दी जल्दी हाथ फ़ेरते जवान ने पैंट के एकतरफ़ा उभार पर लाकर हाथ रोक दिये। "क्या है ये?" मैंने जेब से प्याज निकालकर दिखा दिया और आसपास के लोगों के हँसते चेहरे देखकर स्पष्ट करना चाहा कि ये प्याज तो मैं अपनी माताजी का मन रखने के लिये जेब में रखे हुये हूँ। लाईन को रुकी देखकर पास में खड़ा सब-इंस्पेक्टर नजदीक आकर मामला समझने लगा। लाईन में मेरे पीछे खड़े बंदों में से एकाध ने मजाक में कुछ कहा तो हम हिंदुस्तानियों का मनपसंद काम शुरू हो गया - बहसबाजी। तीन लड़कों का ग्रुप था वो, जुट गये मेरी खिंचाई करने पर। वक्त-वक्त की बात है, कभी हम ’संतरे के बीज’ के नाम पर अपने दोस्तों को खींचा करते थे और आज प्याज को मुद्दा बनाकर भाईलोग हमारी खिंचाई कर रहे थे। खिंचाई भी खाज की तरह है, खुद करो तब भी मजा और दूसरा करे तब भी मजा। इस प्रकरण के ज्यादा विस्तार में नहीं जाऊंगा, कुछ डायलाग्स पेश हैं -
- भाई साहब नये नये मुसलमान बने हैं, तभी प्याज जेब में रखकर घूम रहे हैं।
- अरे नहीं यार, माताजी ने जबरदस्ती रखवा दिया। कहती हैं कि जेब में प्याज रहे तो लू नहीं लगती।
- और आपने आजके समय में ये बात चुपचाप मान ली? कभी इस बात की टेस्टिंग की है?
- नहीं भाई, मना किया था पहले। वो नहीं मानी, मैंने सोचा कि उनकी बात रख लेता हूँ।
- क्या प्रूफ़ है कि जेब में प्याज रखने से लू नहीं लगती?
- कोई प्रूफ़ नहीं है, मैंने माँगा भी नहीं। मैंने तो ये सोचा कि इसमें नुकसान क्या है?
बातें एकदम क्रम में नहीं हैं लेकिन ऐसी ही बातें चलती रहीं। बातों से बातें निकलती रहीं कि वैसे तो प्याज एक तामसिक गुण वाली वनस्पति है इसीलिये पेटपूजा के अलावा किसी पूजा में इसका प्रयोग नहीं किया जाता। अंधविश्वास, अंधश्रद्धा, लकीरे के फ़कीर, घिसीपिटी मान्यतायें, तर्कशीलता जैसी कई बातें हुईं। एक बंधु ने तो लू पर ही सवाल खड़ा कर दिया कि कैसे मान लें कि लू चलती है? और भी बहुत सी बातें होती रहीं, जिसका जिसका स्टेशन आता रहा वो अपने रास्ते जाता रहा।
बातचीत में बार बार एक मुद्दा आता था कि सिद्ध कैसे किया जाये? कैसे सिद्ध किया जाये कि लू नाम की कोई शै होती भी है? जो दिखती नहीं, जिसका कोई रंग नहीं, कोई खुशबू नहीं, कोई आकार नहीं - उसके अस्तित्व को कैसे स्वीकार कर लिया जाये? अगर मान भी लिया जाये कि ऐसी कोई चीज होती है तो फ़िर यह कैसे सिद्ध किया जाये कि जेब में प्याज रखने मात्र से लू से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है? मौके पर तो मुझे बात सूझती नहीं, बाद में सोचता रहता हूँ। जैसे चिडि़याघर का एक गधा किसी दूसरे के सुनाये चुटकुले पर दो दिन के बाद हँसता है। भाई, जब समझ आयेगा तभी तो हँसेगा। मुझे भी सवाल बाद में समझ आये तो बाद में ही जवाब सोचूँगा न?
एक फ़ेसबुक स्टेटस और फ़िर प्रवीण जी की पोस्ट से पता चला कि ब्लॉगजगत के ठहरे हुये पानी में भगवान के नाम पर थोड़ी बहुत हलचल मची है। बड़ी बहस में सक्रिय भाग लेने की फ़ुर्सत भी नहीं, क्षमता भी नहीं और सच कहूँ तो इच्छा भी नहीं। तर्क/कुतर्क तो बहुत से दिये जा सकते हैं लेकिन उनसे सस्ती लोकप्रियता के अलावा कुछ और हासिल होता हो, मुझे नहीं लगता। हम तो यहीं लिखकर लू से बचने का जुगाड़ कर रहे हैं। वैसे प्याज पर पहले भी एक पोस्ट लिखी थी लेकिन तब मामला अलग था। तब प्याज महंगाई का पैमाना था, आज प्याज अपने लिये आस्तिकता-नास्तिकता का पैमाना है।
इस प्रकरण के बाद सोच रहा हूँ कि प्याज को लू से बचाव का सार्थक उपाय मानने वाले और इसे सिर्फ़ एक टोटका मानने वालों में से कौन सही है और कौन गलत? शायद दोनों ही सही हों या दोनों ही गलत या फ़िर दोनों ही सही भी हों और गलत भी हों। वैसे ऐसा भी हो सकता है क्या?
किसी का मानना है कि प्याज जेब में रखने से लू नहीं लगेगी, किसी का मानना है कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जिसे विश्वास है वो उसपर अमल करे और जिसे विश्वास नहीं है वो न करे, यहाँ तक स्वीकार्य। अब अगर विश्वास करने वाला दूसरे की गर्दन पर छुरी रखकर उसे मजबूर करे कि प्याज को जेब में रख या विश्वास न करने वाला ऐसे ही दूसरे को विवश करे कि जेब से प्याज निकाल, तब बात अस्वीकार्य होनी ही चाहिये। जेब में प्याज रख लेने भर को लू से बचने की गारंटी मान लेना शायद मूर्खता ही होगा। दूसरी तरफ़ जेब में प्याज रखने से अगर हर समय मुझे यह अहसास रहे कि लू से शरीर को नुकसान हो सकता है, इसीलिये मैंने यह जेब में रखा है। और मुझे इस बारे में असावधान नहीं रहना चाहिये तो प्याज के चिकित्सीय गुण उतने न होने पर भी हमें उसका लाभ मिल सकता है।
जहाँ भी असहमति दिखती है उसकी मूल में ’कुछ होने’ से ज्यादा बड़ी बात ’हम उसे कैसे मानते हैं’ लगती है। मैं ऐसा मानता हूँ, कोई दूसरा कुछ और मान सकता है और इसमें कोई बुराई भी नहीं। बुराई तब है जब हम दूसरों के अपने से अलग विचारों को सहन भी नहीं करना चाहते। बुराई तब है जब एक या दोनों पक्ष ये चाहें कि सामने वाला उसके हिसाब से ही सोचे और माने।
बाई द वे, आपमें से कोई हिचकी न रुकने का कोई आसान सा इलाज बता सकता है? बिना दवा वाला टोटका बतायेंगे तो भी चलेगा। अपना एक अनुभव तो मेरे पास भी है लेकिन घर का मुर्गा तो आप जानते ही हो कि चने बराबर होता है :)