गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

नशा है सबमें मगर रंग नशे का है जुदा........


"गीत लिखने वाले ने ठीक लिखा है, मतलब निकालने वालों ने भी ठीक मतलब निकाला है। अन्ना का फ़ार्मूला भी ठीक है और इस बात पर अन्ना की खिंचाई करने वाले भी ठीक हैं।
लिखने वाले, कहने वाले इतना कुछ लिख कह गये हैं कि हर कोई अपने मतलब की बात निकाल ही लेता है।
 अनुराग जी का ये कहना "जिन्होने समाज-सुधार में थोड़ा भी योगदान दिया है वे उनसे तो बेहतर ही हैं जिन्होने कुछ नहीं किया" बिल्कुल ठीक है।
8 A.M. वाली हमारी ये टिप्पणी पता नहीं ठीक है या नहीं:)"
ये कमेंट किया था अंशुमाला जी की पोस्ट पर ’नशा शराब में होता तो......’
http://mangopeople-anshu.blogspot.com/2011/11/mangopeople.html?showComment=1322361489913#c6657040222165410415 ,
लेकिन वो फ़ंस गया था स्पैम में तो सोचा कि चलो आज इसी पर सही। मेहनत बरबाद न हो, इसलिये इतनी मेहनत और कर ली। फ़िर  किसी वजह से पोस्ट नहीं कर पाया था और अब तो कमेंट भी दिख रहा है। लिख दिया था तो अब छाप भी देते हैं कौन सा पैसे लग रहे हैं अभी?  :))
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जहाँ तक मेरी जानकारी है, ये गीत प्रकाश मेहरा ने लिखा था। वही प्रकाश मेहरा, जिन्हें हम एक मसाला फ़िल्ममेकर के नाम से जानते हैं। इस गीत से भी ज्यादा लावारिस फ़िल्म के कैबरे डांस वाले गीत ’अपनी तो जैसे-तैसे’ के शब्दों ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। उस गीत को अगर आप बिना देखे हुये सुनें तो उसका एक अलग ही प्रभाव पायेंगे।  अवैध रिश्तों के नतीजे के रूप में पैदा हुई, पली बढ़ी इंसानी नस्ल के दर्द को बहुत नफ़ासत से बयान किया गया है। कमर्शियल सिनेमा की मजबूरियों के चलते इस गाने को फ़िल्माते वक्त यकीनन दिल से बहुत बड़ा समझौता किया गया होगा। मैं इस गाने को देखने की जगह ऑडियो फ़ार्मेट में सुनना ज्यादा  पसंद करता हूँ, आखिर दिल तो है दिल, दिल का ऐतबार क्या कीजै:)

बात करें नशे की तो ये भी मजे की तरह किसी का गुलाम नहीं। नशे का मायना सबके लिये अलग अलग है।  शराबी को शराब से नशा होता है तो किसी को सत्ता से नशा होता है। किसी के लिये रूप से बड़ा कोई नशा नहीं तो किसी के लिये धन सबसे बड़ा नशा है। असली बात है नशे का असर, वो असर आपको कहाँ लेकर जा रहा है, ये बात ज्यादा मायने रखती है।   बातों का नशा भी है और मुलाकातों का नशा भी है, और तो और मुक्का लातों का नशा भी होता है। समाजसेवा, परोपकार ये भी तो नशे से कम नहीं? शक्ति का नशा होता है तो भक्ति का भी नशा ही होता है। ये  जो पीर-पैगंबर और हमारे दूसरे नायक हुये हैं, वो भी चाहते तो हम लोगों की तरह लीक पर चलते हुये जिंदगी बिता सकते थे। घर से बेघर होकर कहाँ कहाँ की यात्रायें की, किसी ने जहर पिया, किसी ने गोली खाई, कोई फ़ाँसी चढ़ा। कोई जलते तवों पर बैठाया गया, किसी को हाथी के आगे फ़ेंका गया। उनकी रूह पर भक्ति का नशा न होता तो ये सब संभव हो सकता था?  

गुरू नानक देव जी द्वारा की गई यात्रायें चार उदासियों  के नाम से जानी जाती हैं। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान वो सिद्धों के इलाके में पहुँचे। अपने वर्चस्व वाले इलाके में एक नये साधु का आना सुनकर उन्होंने एक बर्तन भेजा, जो लबालब दूध से भरा हुआ था।  लाने वाले ने वो बर्तन पेश किया और चुपचाप खड़ा हो गया, गुरू साहब ने उस बर्तन में गुलाब के फ़ूल की पंखुडियाँ डाल दीं जो दूध के ऊपर तैरने लगीं। इन यात्राओं में बाला और मरदाना उनके सहायक के रूप में शामिल थे। ये माजरा उन्हें समझ नहीं आया तो फ़िर गुरू नानक देव जी ने उन्हें समझाया कि सिद्धों ने उस दूध भरे बर्तन के माध्यम से यह संदेश भेजा था कि यहाँ पहले से ही साधुओं की बहुतायत है, और गुंजाईश नहीं है। गुरूजी ने गुलाब की पंखुडि़यों के माध्यम से यह संदेश दिया कि  इन पंखडि़यों की तरह दूध को बिना गिराये अपनी खुशबू उसमें शामिल हो जायेगी, अत: निश्चिंत रहा जाये। उसके बाद दोनों पक्षों में प्रश्नोत्तर भी हुये। सिद्धों ने एक प्रश्न किया था कि आप ध्यान के लिये किन वस्तुओं का प्रयोग करते हैं? उत्तर देते हुये गुरू नानक देव जी ने कहा था, "नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात"  कि प्रभु नाम सिमरन की ये खुमारी दूसरे नशों की तरह नहीं कि घड़ी दो घड़ी के बाद उतर जाये। ये तो वो नशा है जो एक बार चढ़ जाये तो दिन रात का साथी बन जाता है।

अब एक किस्सा शराब और शराबी पर, खुद सुना-सुनाया। हमारे एक भूतपूर्व गार्ड फ़ौज की पेंशन लेने हर महीने एक या दो तारीख को अपने पैतृक गाँव वाले बैंक में  जाया करते थे। उनका कहना था कि इस बहाने कम से कम महीने में एक बार बूढ़े माँ-बाप, भाईयों के परिवार से मिलना हो जाता है। उनका गाँव हरियाणा-राजस्थान  सीमा पर पड़ता था। उस इलाके में एक जाति विशेष रूप से  इस कुटीर उद्योग में संलग्न थी। कई बार इस बात का जिक्र कर चुके थे।  एक बार गार्ड साहब पेंशन लेकर लौटे तो दो तीन दिन तक उनकी तबियत कुछ नासाज़ दिखी। दरियाफ़्त करने पर उन्होंने कुछ इस तरह बताया।

"इस बार पेंशन लेने गया तो बैंक में ही एक पुराना मित्र मिल गया, जो कुछ साल किसी डाक्टर के पास कंपाऊडरी करने के बाद अब  गाँव में  अपनी डाक्टरी पेल रहा था(क्लैरिफ़िकेशन - गीता है नहीं मेरे पास, न तो उस पर हाथ रखकर कसम खा लेता कि  डाक्टरी ही बताया गया था)। बैंक के काम से फ़ारिग होकर दोनों दोस्तों ने जिन्दगी के गम दूर करने की या इस मुलाकात को सेलिब्रेट करने की सोची। डाक्टर ने कहा कि आज तुझे ’झीणी’ के हाथ की खींची हुई शराब पिलाता हूँ। जालिम क्या तो खुद है, और क्या शराब खींचती है..बिना पिये अंदाजा लगाना मुश्किल है। हमने भी सोची कि सरकारी उचित दर वाली दुकान से तो रोज पीते हैं, आज स्वदेशी, स्वावलंबी, कुटीर उद्योग वाली  ही सही।  वैसे भी डाक्टर सिफ़ारिश कर रहा है तो पहुँच गये उस ठीये पर अपने और पूरे जहान के गम गलत करने। पूरी बस्ती में कम से कम बारह पन्द्रह घर थे जिन्होंने घर के पिछवाड़े में गड्डे बना रखे थे और उन गड्डों में शराब बनने बनाने की सतत प्रक्रिया चलती रहती थी।

अपने पसंदीदा अड्डे पर पहुँचकर डाक्टर ने आवाज लगाई, "ओ झीणी, देख आज नया बंदा लेकर आया हूँ। तेरी इतनी तारीफ़ की है इसके आगे, नीचा न दिखा दियो मन्नै।" 

चहकती हुई झीणी बाहर आई "कौण डाक्टर सै के?" 

दो ही मिनट में झूलती टेबल और हिलती कुर्सियों के साथ मैचिंग करता एक लबालब भरा हुआ जग और दो गिलास लेकर झीणी हाजिर हो गई। डाक्टर ने जेब से तली मूँगफ़लियों का पैकेट निकाला और हम दोनों शुरू हो गये। डाक्टर घूँट घूँट पीने के बाद ’जियो झीणी रानी’ का नारा लगाता था। मुझे स्वाद अटपटा सा लगा लेकिन डाक्टर को सुरूर में आते देखकर मैं भी धीरे धीरे घूँट भर रहा था। बचपन का दोस्त बहुत दिनों के बाद मिला था, शायद डाक्टर ज्यादा ही जोश में आ गया था। एकदम से पूछने लगा, "मैंने यहाँ सबके ठियों पर चखकर देख रखी है, लेकिन झीणी रानी, तेरी शराब में बात ही कुछ अलग है। कई बार पूछा है तुझसे, आज बता ही दे कि अलग से इसमें  क्या मिलाती है तू? बोल न,  तुझे मेरी कसम है आज। मेरे दोस्त के सामने मन्ने नीचा न दिखा दियो।" अब बात ये है जी, लुगाई जात ऐसी ही होवे है कि जहाँ अपनी कसम दे दो, फ़ट्ट से  पिघल जावै है। झीणी भी पिघल गई और बोली, "डाक्टर, तू भी न बस्स...।  देख, माल मसाला तो सब जगह एक सा ही डले है, मैं तो अपनी जानूँ हूं कि जद से ब्याह के इस घर में आई हूँ, रोजी रोटी की कसम है मुझे अगर मन्ने एक बार भी इस गड्डे के अलावा कहीं और मूता हो।"

मैंने अब तक जो दो चार घूँट भरे थे, सूद समेत टेबल पर उलट दिये और डाक्टर की दिप दिप करती आँखें पता नहीं इस बात से खुश थीं कि झीणी ने उसे नीचा नहीं दिखाया  या  इस बात से कि उसके बचपन का दोस्त शहर  वाला होकर देसी चीजों को पचाने की अपनी शक्ति खो बैठा है। मैं उठ रहा था और वो मेरा हाथ पकड़ कर बैठा रहा था, एक जग और पियेंगे। बार बार कहता था कि झीणी ने उसकी बात का मान रखा है और सीक्रेट फ़ार्मूला बता दिया है।  "बकवास मत कर तू।  आज माँ बाबू से मिले बिना ही वापिस जा रहा हूँ, कह दियो उनसे कि एकदम से कोई जरूरी काम आ गया था।"

बाद का हाल पूछने पर गार्ड साहब ने इस वाकये का सबक ये बताया कि गाँधी बाबा महान थे। उनके बताये तीन बंदर भी महान थे। न बुरा देखो, न बुरा सुनो और न बुरा बोलो। मैंने यूँ ही पूछ लिया कि काम तो एक ही बंदर से चल सकता था जिसकी मार्फ़त ये संदेश मिलता कि बुरा मत करो?  ड्यूटी ऑफ़ किये काफ़ी देर हो चुकी थी, आज सरकारी उचित दर के ठेके के सेवनदार बने हुये गार्ड साहब ने कहा, "इस सारी बात से आपने कोई सबक नहीं सीखा। फ़ालतू के सवाल करने से सेहत को नुकसान पहुँच सकता है, जैसे डाक्टर के सवाल से हुआ। महान लोगों ने जो कह दिया, चुपचाप से उसे मान लो और मान नहीं सकते तो भी संकट के समय में उनके बोले डायलाग बोल दो। बातों का पालन उतना जरूरी नहीं है जितना मौके-बेमौके पर उनका बोला जाना।   

याद आ रही हैं ये सब बातें और लग रहा है कहीं मीडिया ने जरूर वो क्लिपिंग डिस्टार्ट या एडिट कर दी होगी जिसमें एक गाल पर तमाचे के बाद गाँधीजी को याद करते हुये फ़ौरन दूसरा गाल आगे बढ़ाया गया होगा.........।.......सरदारजी ने पद संभालते ही जो टेक लगाई थी ’देहि शिवा वर मोहे इहै, शुभ करमन से कबहुँ न टरूँ’ बराबर पूरी कर रहे हैं। साझीदार के  एक थप्पड़ लगते ही खुद फ़ोन लगाकर हालचाल पूछा,  इससे ज्यादा और क्या कर सकते हैं?........कसाब के 26\11 को तीन साल हो गये हैं, सिल्वर जुबली पता नहीं कितने साल में मानी जाती है आजकल?  कानून अपना काम करेगा -yes, law will take its own course. .........जो हमसे टकरायेगा, चूर चूर हो जायेगा।....... केजरीवाल तो लपेटे में आ ही  गये थे, अब क्रेन बेदी, हो जाओ तैयार, मुकदमेबाजी के लिये।............. रामदेव, बालकिशन, अलानो  फ़लानों, यू आल डिज़र्व दिस ट्रीटमेंट। सबकी फ़ाईलें तैयार हैं।  समझते ही नहीं गाँधीजी के तीन बंदर वाला इशारा...।.......झीणी बाई, तुझे सर्च करता हूँ फ़ेसबुक पर और दूसरी साईट्स पर, हौंसला न छोड़ियो और जारी रहियो अपने कुटीर उद्योग में  वैल्यू एडीशन करने में।   यू.पी. वालों के बाद हरियाणा पंजाब के दलितों पिछड़ों के घर भी सवारी तशरीफ़ ला सकती है,  कभी तो वोट यहाँ भी पड़ेंगे.......हो सकता है झीणी बाई के ठीये पर ही अबकी बार.................... .......सरकार किसानों का भला करके ही मानेगी, एफ़ डी आई पर पीछे नहीं हटना है जी.............जनता साली पागल कहीं की, समझती है नहीं कुछ  और बरगलाये में आ जाती है.................बिचौलियों को उनकी औकात दिखा देनी है इस बार...............कनिमोझी छूट गई.....मालेगांव वाले छूट गये.....law will take its course..............ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे, तोड़ेंगे दम मगर, तेरे पैर न छोड़ेंगे...................और इशारा करो जी आप तो, गद्दी जायेगी तो जाये.................तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा............

इतनी बार नशा नशा लिखा गया है मुझसे कि  गम और भी गलत होता जाता है:)) सरकार राशन कार्ड में कैरोसीन के साथ इसका भी कोटा बाँध दे तो कैसा रहे?  खाओ-पियो करो आनंद  और .....................

रविवार, अक्तूबर 23, 2011

’द वैरी बैस्ट कस्टमर सर्विस’


“ये ब्रांच बुढ्ढों की ब्रांच है, सूखी ब्रांच।” जबसे इस ब्रांच में आया, श्रीमुख से कई बार यह सुन चुका था। पुरानी ब्रांच से पर्सनल फ़ाईल आने के बाद अपनी जन्मतारीख सुबूत के तौर पर पेश करते हुये हमने निवेदन किया कि ’अभी तो मैं जवान हूँ’  फ़िर यह आक्षेप क्यों और सूखी और हरी भरी ब्रांच का कैसा वर्गीकरण?    उस्तादजी ने स्पष्ट किया कि  इस डायलाग का पूर्वार्ध  उनका नहीं है, कोई दूसरा स्टाफ़ कभी यहाँ आया था और उसने यह रिपोर्ट दी थी। इस डायलाग का उत्तरार्ध भी उनका नहीं है, लेकिन उनकी सहमति दोनों अर्धांशों से है। हमारी उम्र वाली बात ‘age is nothing but a figure’ टाईप कुछ डायलाग बोलकर खारिज कर दी गई  और सूखी-गीली संबंधी विषय पर एक और  होमवर्क   हमें थमा दिया। “बैंक वालों की तरफ़ से सबसे अच्छी कस्टमर सर्विस कब होती है?”  गये थे नमाज पढ़ने और रोज़े गले बँधवा कर उस दिन हम घर लौटे।  रात भर मगजमारी किये और अगले दिन और भी थका हुआ चेहरा लेकर जब बिना जवाब लिये हाजिर हुये तो हमें पकड़ कर आईना दिखा दिया कि देखो, ये किसी जवान का चेहरा है?  फ़िर खुद ही अपने पिछले दिन के  सवाल का जवाब दिया, “बैंक वाले सबसे अच्छी कस्टमर सर्विस दशहरे से दिवाली के बीच देते हैं। और यह जवाब सिर्फ़ इस सवाल का नहीं है बल्कि सूखी ब्रांच क्या और कैसे होती है, इसका भी है। त्यौहार है  कि बस ब्ल्यू लाईन की तरह सिर पर आने को है और यहाँ कोई पार्टी दिखती ही नहीं है।” हमारे ज्ञान चक्षु खुल गये।

आज कुछ छिटपुट किस्से इसी विषय पर हो जायें।

आजकल चैक बुक पर नाम, एकाऊंट नंबर आदि प्रिंट होकर आता है। ग्राहक से चैक बुक रिक्वीज़िशन स्लिप भर कर आ जाने के बाद हम लोग ऑनलाईन डिमांड  दे देते है और लगभग बारह दिन में चैकबुक प्रिंट होकर आ जाया करती है। मुझे हैरानी हुई जब इन दिनों यह समय सीमा बारह दिन की जगह सात-आठ दिन की हो गई। आश्चर्य व्यक्त करने पर इसका श्रेय यह कहकर  दीवाली को दिया गया कि इन दिनों में मुर्दे भी उठकर ड्यूटी पर हाजिर हो जाते हैं। जो स्टाफ़ सदस्य शाम के समय घड़ी की सुईयों को देखकर पैक अप कर लिया करते थे, इन दिनों में स्वेच्छा से देर तक बैठने को तैयार रहते हैं। फ़लस्वरूप कार्य की गति बढ़ जाती है।

उस्तादजी ने पुराना एक वाक्या बताया कि एक बार एक पार्टी सभी स्टाफ़ सदस्यों को दीवाली पर सूट लेंग्थ दे गई थी। अभी वो सज्जन ब्रांच में ही थे कि एक स्टाफ़ सदस्य बोला, “आ गया एक और खर्चा, कपड़ा दे दिया गिफ़्ट में और सिलाई और टाई?” कस्टमर समझदार था या मौके पर बात कहने वाला, ये फ़ैसला आप करें लेकिन  सतना लिफ़ाफ़ा  प्रकरण  हमारे उस्तादजी कई साल पहले ही देख\दिखा चुके हैं। मेरी सरल सी जिज्ञासा कि उस्तादजी वो टोकने वाले सज्जन आप के सिवा …? वैसे हमारे  उस्ताद जी मंद मंद मुस्कुराते हुये बहुत भले दिखते हैं।

ऐसे ही एक और किस्से में उन्होंने बताया कि एक बार इतने पैकेट इकट्ठे हो गये थे कि मैनेजर साहब से शिकायत करनी पड़ी कि इन डिज़ाईनर पैकेट्स में से  इतने के तो गिफ़्ट नहीं निकलेंगे जितना टैक्सी का किराया  जायेगा। मैनेज करना ही तो मैनेजर का काम है,  मैनेज किया  मैनेजर साहब ने बल्कि करवाया उस्ताद जी ने।
एक स्टाफ़ जो हरित शाखा से  अपेक्षाकृत सूखाग्रस्त शाखा में दीवाली से दो महीने पहले ही स्थानांतरित हुआ था, पहले तो स्थानांतरण स्थगित करवाने में जुटा रहा, असफ़ल रहने पर उसने दीवाली वाले सप्ताह में अवकाश ले लिया। ये किस्सा तो मेरे सामने ही घटा था, अपन समझते थे कि ये उनका प्रोटैस्ट का तरीका है। बाद में पता चला कि वो सप्ताह उन्होंने पुरानी ब्रांच में बिताया।

किसी स्टाफ़ के छुट्टी पर रहने पर उससे जूनियर को अस्थाई रूप से उस पद पर काम करवाने की परिपाटी रही है, ताकि कार्य में व्यवधान न पड़े। बदले में उस स्टाफ़ को कुछ अतिरिक्त भत्ता जिसे ऑफ़िशियेटिंग अलाऊंस या विशेष भत्ता कहते हैं, प्रबंधन की तरफ़ से दिया जाता है। एक शाखा में एक अधिकारी का पद काफ़ी समय से खाली था और एक दूसरा जूनियर कर्मचारी दो तीन महीनों से उस पद पर ऑफ़िशियेट कर रहा था। कुछ ग्राहक ऐसे होते हैं जो पद के हिसाब से गिफ़्ट दिया करते हैं, जब उनका गिफ़्ट पैक उनके मूल पद के हिसाब से मिला तो उन्होंने ये शिकायत मैनेजर से की,  और आवाज उठाने की कीमत केबिन में रखे पैकेट्स की मार्फ़त  मनपसंद पैकेट्स से सवाई-ड्यौढ़ी वसूल की।

बैस्ट फ़ार्मूला लगा अपने को अपने भोला का, दीवाली के मौके पर वो बना देता है अपना छोटा सा चाईना बाजार,  हर माल पचास रुपये। किस डिब्बे से क्या निकले, इस सब से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। सीधा सा हिसाब, जितने पैकेट      X     रु. 50\-.        उसमें भी  कोई सौ-दो सौ की ऊपर नीचे  कर ले तो अगला हिसाब किताब नहीं रखता था। सैंकड़ों में रकम पहुँचते ही उसका कैल्कुलेटर काम करना बंद कर देता था।

सबकी बता दी, अपने बारे में तो कुछ भी नहीं कहा। ये सब मैं ही तो हूँ, मेरी ही मल्टीपल पर्सनैल्टी के अलग अलग रूप अपने पूरे उरूज पर। जिन लोगों के काल्पनिक किस्से सुना देते हैं, वो सब मेरे ही तो वो रूप हैं जो मैं होना चाहता हूँ लेकिन कभी किसी का मन रखने के लिये, किसी की नाराजगी के डर से हो नहीं पाता।      अपने सुख, अपने लाभ के लिये कभी उस्ताद जी का रोल प्ले करता हूँ, कभी भोला का, कभी इसकी तरह व्यवहार करता हूँ, कभी उसकी तरह। जो अच्छा हो गया, उसका श्रेय अपनी अक्ल को, अपनी हाजिरजवाबी को और जब मनमाफ़िक न हुआ तो किसी दूसरे के सिर पर ठीकरा फ़ोड़ दिया। और तो और उस ऊपर वाले को भी नहीं बख्शता। तकलीफ़ के समय तो खूब याद कर लेता हूँ और जरा सा आराम मिलते ही फ़िर यहीं का होकर रह जाता हूँ।

खैर,  बहरहाल. anyway जो भी हो अपनी तो पहली सरकारी दिल्ली वाली दिवाली है,  उम्मीद से हैं :))           जुटे हैं उस्ताद जी के कहे अनुसार ’द वैरी  बैस्ट  कस्टमर सर्विस’ करने में, जो होगा सिर माथे पर।  आगे कभी हो सकता है अपने भी किस्से कोई सुनाकर अपना और दूसरों का टाईम खोटी करें।

:) फ़त्तू  पशु मेले से भैंस  लेकर आया। घर तक पहुँचते पहुँचते जिस किसी से आमना सामना हुआ,  खरीद मूल्य बताते बताते दुखी हो गया। दुखी भी ऐसा कि भैंस बांधते ही कुँए में छलाँग लगा दी। सारा गाँव इकट्ठा होकर फ़त्तू को कुँए से निकलने की पुकार करने लगा, जैसे ब्लॉग जगत में……...। फ़त्तू ने आवाज लगाई और पूछा, “सारे गाम आले आ लिये अक कोई सा रै रया है?”  जब कन्फ़र्म हो गया कि सब आ लिये तो वो भी बाहर निकल आया और फ़िर अपना सवाल दोहराया, “सारे गाम आले आ लिये अक कोई सा रै रया है?”   फ़िर से कन्फ़र्मेशन मिल गई तो जोर से बोला, “भैंस आई सै चालीस हजार की, अबके किसी ने पूछ लिया तो उसने इसी कुँए में गेर दूँगा।”

हैं तो अपन भी कुँए में ही, लेकिन भरोसा है उसपर,  जिसने वादा किया है डूबने न देने का और निभाया भी है। फ़त्तू की तरह  सबको एक साथ ही विश कर देते हैं।
दोस्तों,  सारे ब्लॉग मित्रों को  और उनके परिवार को ’शुभ दीपाभली’  :)) 
भीतर-बाहर का सब अंधेरा दूर हो और चारों तरफ़ खुशियाँ, उल्लास अपना प्रकाश बिखेरें,  दिल से कामना करता हूँ।


गुरुवार, सितंबर 15, 2011

पीयू पीटू - P U P 2



इस पोस्ट का टाईटिल सोचा था ’पाले उस्ताद – पाट्टू (पार्ट टू)’ फ़िर सोचा कि विद्वान जन आऊ, माऊ चाऊ टाईप की ब्लॉगिंग के बारे में फ़िक्र करके वैसे ही हलकान हुये जा रहे हैं, ऐसा शीर्षक देखकर कहीं उन्हें मौका न मिल जाये कि ऐसा भड़काऊ टाईटिल देकर पाठकों के साथ धोखाधड़ी की गई है। वैसे ये टाईटिल भी कैची सा तो है ही:)

अब हम सीरियस टाईप के बंदे होते जा रहे हैं, सोचा है कभी कभार आपसे काम की बात भी शेयर कर लेंगे। बेशक मात्रा में थोड़ी हो, असर में मामूली हो लेकिन हमें तसल्ली रहेगी कि हाँ जी, हमने भी ज्ञान बाँटा है। अब हम अपनी कथा कहानी आगे बढ़ाते हैं, काम की बात  आप ढूँढ लीजियेगा। मिल जाये तो खुद की पारखी नजर की बलैयां उतार लीजिये और न मिले तो हौंसला न छोड़ियेगा, कभी कभी हमसे  मिसफ़ायर भी हो जाता है।
बैंकों के बारे में एक पोस्ट पहले लिखी थी, आज आपको थोड़ा सा अंदरूनी कामकाज के बारे में बताते हैं, सिर्फ़ थोड़ा सा, क्योंकि ज्यादा अपने को भी नहीं पता है। 

जमा के खातों में सबसे ज्यादा प्रचलित खाते हैं सेविंग खाते, करेंट खाते, आवर्ती खाते, सावधि खाते आदि आदि। सेविंग खातों को हमारे यहाँ घरेलु बचत खाता और करेंट खातों को चालू खाता के नाम से जाना जाता है।

बैंक में ड्यूटी करने वाले हम लोग कार्यविभाजन के मामले में बहुत सतर्क होते हैं। संयुक्त परिवार में देवरानी-जेठानी वाला मामला समझ लीजिये, मेरी ड्यूटी उसकी ड्यूटी से ज्यादा क्यों?   तरह तरह के खट्टे मीठे तर्क देकर हर कर्मी की  कोशिश यह दिखाने की रहती है कि सब से ज्यादा काम, सबसे ज्यादा जिम्मेदारी का काम, सबसे ज्यादा जोखिम का काम उसके सर मढ़ा जा चुका है।  अपना सौभाग्य यह रहा कि अधिकतर जगह अपन उम्र में सबसे छोटे रहे। माँगकर तो हमने कभी टिप्पणी नहीं ली तो ड्यूटी में कौन सा विभाग मांग कर लेते? बड़े बुजुर्ग अपने हिसाब से अपनी पसंद से सीट चुन लेते हैं और बचा खुचा प्रसाद रूप में हमें मिल जाता था। ये और बात है कि कभी कभी पूँछ भैंस से ज्यादा लंबी होती है।

तो जी हुआ ये कि नई जगह पर आये तो दो तीन जगह हमारी चाल-चरित्र और चेहरा जांचा परखा गया और रिजैक्शन लेते लेते हम इस शाखा में आधा दिन देर से  पहुंचे। उस्ताद जी सेविंग डिपार्टमेंट, लॉकर, पेंशन और सैलरी सँभाल चुके  थे और सिर्फ़ बचा खुचा ही बचा था वो हमें मिल गया जैसे क्लियरिंग, एफ़.डी. डिपार्टमेंट, ड्राफ़्ट्स, टैक्स, आवर्ती जमा, वगैरह वगैरह। 

कार्य विभाजन के अनुसार सेविंग विभाग उस्तादजी के पास और करेंट विभाग हमारे पास थे।   सितंबर का महीना शुरू ही हुआ था कि हमने हिन्दी शब्दावली का प्रयोग   ज्यादा करने के लिये उस्ताद जी को मना लिया। थोड़ी हील हुज्जत के बाद उस्ताद जी मान गये। त्वरित संदर्भ के लिये प्रचलित शब्दों की हिंदी आपको बता दें 

सेविंग खाता   -  घरेलु बचत खाता
करेंट खाता     -   चालू खाता
क्लियरिंग       -  किलेरिंग (समाशोधन शब्द  उस्तादजी को बड़ा अटपटा लगा)

कुछ दिन तो पूरा नाम  लेते रहे  और फ़िर धीरे धीरे छोटे नाम पर  आ गये।     अब जो भी ग्राहक आता\आती और काम  कहाँ होगा ये पूछा जाता तो उस्तादजी फ़ट से कहते, “घरेलु है तो इधर आ जाओ, चालू है तो उधर संजय जी के पास जाओ।”  सावन भादों के महीने और हम हैं कि सूखे में ही जीवन बिता रहे हैं। चालू खाते में लेनदेन करने तो सिर्फ़ ’आता’ श्रेणी के ग्राहकगण ही आते हैं। रोना इस बात का  नहीं था बल्कि उनके शब्द प्रयोग का है कि घरेलु है तो इधर आ जाओ और चालू टाईप के हैं तो उधर चले जाओ। अब कौन है जो खुद को चालू बताये? दिन में दस बीस बार ये डायलाग मारकर उस्ताद जी हमारी खिल्ली  उडा रहे थे और स्टाफ़ के भी सारे बंदे मजे ले रहे थे। खैर, सब्र का टोकरा है अपने पास – खुद को कोसते रहे कि काहे हिंदी वाला पंगा ले लिया लेकिन अब क्या हो सकता था? तो जी,   ’आता’ सब इधर है और ’आती’ उस्तादजी के पास। मैं भी कह देता, “उस्तादजी, मजे ले लो मुझसे। कोई बात नहीं, देखेंगे।”

अब बात क्लियरिंग की। जब कोई ग्राहक अपने खाते में किसी दूसरी शाखा या दूसरे बैंक का चैक जमा करवाता है तो  जिस प्रक्रिया के द्वारा उस चैक के पैसे मंगाये जाते हैं, उसे क्लियरिंग या समाशोधन कहते हैं। अब लगभग सभी बैंक केन्द्रीयकृत हो चुके हैं तो दिल्ली जैसे शहर में क्लियरिंग का काम बहुत ज्यादा है। इस बात को सभी मानते हैं। मुर्दे का सिर मूडने से उसका वजन कम नहीं होता लेकिन उस्तादजी ने दयानतदारी दिखाते हुये  काम का बंटवारा किया कि होम क्लियरिंग(अपने बैंक की दूसरी शाखा के चैकों की क्लियरिंग) वो किया करेंगे। क्लियरिंग में होम क्लियरिंग का चैक सप्ताह में एकाध आता है तो ये उनका कसूर थोड़े ही है?  अब क्लियरिंग आने पर जब पियन पूछता है कि इन्हें कहाँ ले जाऊँ?   उस्ताद जी कहिन, “घरवाली इधर ले आ, बाहर वाली संजय जी के पास।”  खून तो बहुत जलता है लेकिन हिन्दी सेवा का व्रत मैंने ही दिलवाया था नहीं तो पहले तो यही कहते थे कि होम क्लियरिंग इधर ले आ, अदर बैंक वाली उधर ले जा। खून के घुँट पी रहा था रोज।
उस दिन हैड ऑफ़िस से चिट्ठी आई, उस्तादजी को प्रशिक्षण के लिये जाना था। मैंने आवाज लगाई, “ओ उस्ताद जी!”  और मेरी आजमाई हुई बात है कि जिस दिन मेरी ऐसी आवाज सुन लेते हैं, उस्तादजी कुरुक्षेत्र में किंकर्तव्यमूढ़ अर्जुन की मुद्रा में आ जाते हैं। पेशानी पर बल, हाथ पैर शिथिल,  होंठ कंपकंपाने लगते हैं कि आज कुछ सुनने को मिलेगा:)


आये उस्तादजी, बैठे। “बोलो जी?”

मैंने चिट्ठी दिखाई, मन में लड्डू फ़ूटे उनके लेकिन उम्मीद के मुताबिक बोले कि यार, मैं तो जाना ही नहीं चाहता ट्रेनिंग पर, लेकिन जाना तो पड़ेगा।

सब बैठे थे।  मैंने पूछा, “एक बात बताओ जी, आप तो जी चले जाओगे ट्रेनिंग पर। पीछे से जी वो घरवाली और बाहर वाली जो होती है जी, किलैरिंग,  उसका क्या होगा?

उस्ताद जी, “घरवाली भी आप ही देखोगे और बाहरवाली भी।”

सब हँस रहे थे, मैं भी, उस्तादजी भी और बाकी स्टाफ़ के लोग भी। मरे जाते हैं काम के बोझ से, दुख के और तकलीफ़ के तो बिन बुलाये, बिन चाहे हजार मौके आते हैं हँसी के  बहाने खोजने पड़ते हैं। ऊपर वाले की कृपा है कि कैसी भी तपती लू हो, ठंडी बयार अपना पता खोज ही लेती है।

हिन्दी दिवस हो चुका,  बैनर वगैरह लपेट कर रख दिये गये हैं। अगले साल फ़िर से जोर शोर से ड्रामा किया जायेगा और जैसे हमने आज काजू वाली मिक्सचर, बिस्कुट, लिम्का वगैरह भकोसकर हिन्दी दिवस मनाया है, अगले साल और जोर शोर से,  बोले तो एकाध मिठाई भी मेन्यू में जुड़वाकर हिन्दी सेवा का व्रत लेने की शपथ लेंगे। कल से फ़िर वही सेविंग, करेंट, होम क्लियरिंग, वही हम और वही उस्तादजी – वहीं बहू का पीसना और वहीं सास की खाट।

अब आज की बेगार लेते जाओ  - अपने घर के, आस पास के,  परिचय के सभी पात्र लोगों के बैंक खाते खुलवायें। विशेष तौर पर बच्चों को सेविंग की आदत जितना जल्दी डालेंगे, उतना ही उन्हें आत्मनिर्भर होने में  मदद मिलेगी। जैसे बच्चों को मॉल्स, सिनेमाघर वगैरह लेकर जाते हैं, कभी कभी उन्हें बैंकों में भी लेकर जायें ताकि वो बैंकिंग  हैबिट्स सीख सकें और आने वाले समय में शिक्षा ऋण आदि सुविधाओं के बारे में आत्मविश्वास से निर्णय ले सकें।

उस्तादजी की छत्रछाया बनी रहेगी अपने पर तो मिलवाते रहेंगे आपको  :)

बुधवार, अगस्त 31, 2011

पाले उस्तादजी


नौ बजने वाले थे और मैं बार बार मोबाईल में टाईम देख रहा था। इतना लेट तो कभी नहीं होते, हारकर फ़ोन मिलाया। पूछा कि कहाँ हो तो जवाब मिला कि जनाब आज  चार्टर्ड  बस से निकल गये हैं। भले आदमी एक कॉल  करके बता भी तो सकते थे लेकिन लीक पर चल पड़े तो  साधारण बंदे और हमारे उस्तादजी में अंतर ही क्या रहता?

ऑफ़िस पहुँचकर  जब यही बात उनसे कही तो हमेशा की तरह कुसूर मेरा ही निकला। “पहले मैं कभी एक मिनट भी लेट हुआ? आपको समझ जाना चाहिये था कि मैं बस से निकल आया होऊँगा।” कुछ जगह ऐसी होती हैं जहाँ  सब्र ही अकेला विकल्प बचता है। हमने अपनी गलती मान ली तो उन्होंने अभयदान देते हुये अन्ना के अनशन तोड़ने को इस परिवर्तन का कारण बताया। बीच बीच में कई बार आकर अन्ना और उनकी टीम के बारे में  कई तरह की बातें सुना गये। मसलन, ’क्या जल्दी थी इतनी जल्दी अनशन खत्म करने की?’  या फ़िर, ’आंदोलन अब दम तोड़ देगा। इन्हें चाहिये था कि क्रमिक अनशन करते। अबे, अन्ना बारह तेरह दिन खींच गये, किरण बेदी और केजरीवाल और वो जो भूषण वगैरह है, महीना-दो महीने तो ये भी अनशन कर ही सकते थे। फ़िर  पब्लिक में और भी जागरूकता आती’ आदि आदि।

बाद में फ़ुर्सत मिलने पर इस बात का खुलासा हुआ| अजीज, हमारा एक ग्राहक, जब चैक जमा कराने आया तो उस्तादजी ने उसे आवाज लगाई, “ओ अजीज, ये ले तेरी अमानत।”  और जेब से टोपी निकालकर उसे लौटा दी।  अब कहानी समझ आई। अन्ना के अनशन के दूसरे दिन की बात है, घर आने के लिये जब बाईक स्टार्ट की तो उस्तादजी पिछली सीट पर जम गये। उनका स्टाईल है ये कि जिस दिन काटते हैं, शाम को मरहम भी  लगाते हैं।

तो उस शाम को उनका आदेश हुआ था  कि “अजीज की दुकान की तरफ़ चलो।”  चल दिये हम कि होगा कुछ काम। देखकर अजीज खुश हो गया, “आईये सर, आज कैसे मेहरबानी की?”   थोड़ा सा घुमाफ़िराकर उस्तादजी ने उससे ’मैं अन्ना हूँ’ वाली टोपी ली और पाँच सौ का नोट पेश किया, “ले पैसे काट ले।”   पाँच रुपये की टोपी और उसके लिये पांच सौ का नोट,  वो भी उन बैंक वालों से जिनसे रोज वास्ता पड़ता है, इतना भी अनाड़ी नहीं हुआ  अजीज अभी। वो हाथ जोड़ रहा था, “रहने दो साहब, और बतायें कुछ, चाय-ठंडा वगैरह लेंगे?”  पन्द्रह मिनट अबे ले ले और नहीं साहब,  नहीं के डायलाग चले फ़िर उस्ताद जी ने कहा, “चल, तेरा उधार या तेरी अमानत मेरे सिर पर” और टोपी सिर पर धारण करके ड्राईवर को चलने का आदेश दिया, “चलो जी, हैलमेट की टेंशन खत्म।”

लगभग दस दिन तक सुबह शाम मोटर साईकिल की पिछली सीट पर ’मैं अन्ना हूँ’  वाली टोपी पहनकर सफ़र करने के बाद आज उस्ताद जी ने अमानत लौटा दी थी। अब मुझे आंदोलन के बारे में उनकी प्रतिक्रियाओं का अर्थ समझ आने लगा था।

उनका ताजा ऑब्जैक्शन\ओब्जर्वेशन(हमारे उस्तादजी की हर ओब्जर्वेशन दरअसल कोई न कोई ऑब्जैक्शन ही होती है)  ये है कि ये  अनशन एकदम से फ़ेयर नहीं था। कह रहे थे कि टी.वी. पर उन्होंने खुद देखा है कि अन्ना बिसलेरी का पानी पी रहे थे। हमने अपना सामान्य ज्ञान दिखाने की कोशिश की, ’अनशन में  पानी तो अलाऊड होता है।’ 

“यैस, लेकिन बिसलेरी साधारण पानी नहीं है।  आप बोतल चैक करिये, उस पर लिखा रहता है ’मिनरल वाटर’,   पावरफ़ुल पानी है वो।”

खून में दौड़ती हुई गुलामी देखकर सिर पीट लेने का मन करता है क्भी कभी लेकिन फ़िर सोचता हूँ शायद  हम जैसों को  देखकर भी किसी को यही लगता होगा कि बेकार में प्रगति के पथ पर सटासट दौड़ते इंडिया की राह में रोड़े अटका रहे हैं। इन जैसों की मानें तो जो हो रहा है उसे प्रभु इच्छा मानकर उसी की आदत डाल लेनी चाहिये, न गिला किया जाये और  न शिकवा किया जाये। आयेगा कोई कल्कि अवतार और खुद ही कर करा लेगा, जो ठीक होगा। दुनिया बनाने वाले को अपनी दुनिया की फ़िक्र नहीं है क्या?  
  
लेकिन blessing in disguise की तरह हम इनसे भी वरदान खींच लेते हैं। गुणों के सागर,  हर इल्म के माहिर और वक्त के पारखी इन उस्ताद जनों के अपन सदैव आभारी हैं। कई मामलों में निर्णय लेने में जब सक्षम न हो पा रहे हों कि इधर जायें या उधर जायें, तो हम इनके निर्णय का इंतज़ार करते हैं और आँख मूंदकर इनके पक्ष के विपक्षी बन जाते हैं और अभी तक अपना ये निर्णय सही ही रहा है
अजीज की अमानत लौटाकर और भी बिंदास दिख रहे थे हमारे पाले उस्तादजी। वैसे वो हमेशा बिंदास ही होते हैं, बस हुकमरानों की तरह दिखते फ़िक्रमंद हैं ताकि दूसरे ये न समझ लें कि बड़े सुकून में हैं, कोई कामधाम नहीं है इनके पास। किसी भी सिच्युएशन के लिये उनके पास प्रोब्लम मौजूद रहती है। ऐसा हुआ तो ये प्राब्लम, नहीं हुआ तो दूसरी प्राब्लम।

दिन में दो तीन बार चपड़ासी को बुलवाकर कभी कम्प्यूटर को टेबल के सुदूर उत्तर में रख लेते हैं और कभी दक्षिण-पूर्व में। आधा फ़ुट आगे खिसका लिया और कभी डायरैक्शन टेढ़ी कर ली। कोई कुछ पूछे, उससे पहले ही उनका रेकार्ड चालू हो जाता है, “दुखी आ गया यार मैं तो इस कम्प्यूटर से, जब देखो बंद हो जाता है।  आऊटपुट क्या बैंगन निकलेगी, सारा दिन तो इसी वास्तुशास्त्र में निकल जाता है। अब जगह बदल कर देखी है, शायद सही चल जाये ।” हमने कई बार खुद को प्रस्तुत किया कि हमारा कम्प्यूटर ले लो, हमारी सीट ले लो – आप बिगड़ी चीजों  से परेशान हो, हमें अब सुधरी चीजों से डर लगता है:)  लेकिन नहीं, कह्ते हैं  कि यार मुझसे छोटे हो, मैं  इतना स्वार्थी नहीं हुआ कि अपनी मुसीबत तुम्हें दे दूँ।   बस हम कुर्बान हो जाते हैं उनके बड़प्पन पर, क्या हुआ अगर थोड़ा बहुत उनकी सीट का काम इधर आ गया तो, चलता है।

अब अपने सामने प्राब्लम ये आ खड़ी हुई है कि जिक्र तो छेड़ दिया, और परिचय करवाया नहीं।  तो मिलवाते हैं आपको किसी दिन  हमारे पाले उस्तादजी से।   ’पाले उस्तादजी,’    इस वाक्यांश में ’पाले’  संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण किसी भी रूप में फ़िट कर सकते हैं। ’जाकी रही भावना जैसी’ वाले स्टाईल में किसी भी रूप में और किसी भी रोल में फ़िट होने की कूव्वत रखते हैं हमारे ताजातरीन ’पाले उस्तादजी।’ बस ये ध्यान रखियेगा, ये बहुत संक्षिप्त  परिचय है, जिसे कहते हैं - tip of an iceberg.
 
बैंक में अमूमन शाम सात  बज जाया करते हैं।  चार बजे के बाद पब्लिक आऊट तो अपन लोग हो जाते हैं मर्जी के मालिक। मोबाईल में गाने शुरू किये और काम निबटाना शुरू। यहाँ  आये चौथा-पाँचवां दिन था और पहली बार ही गाने सुनने शुरू किये थे कि श्रीमानजी आ कर खड़े हो गये। तब तक अपनी दुआ सलाम के अलावा और ज्यादा परिचय नहीं था। “मैं अपना काम छोड़कर ये गाना सुनने आया हूँ, बहुत प्यारा गाना है।” हमारी पसंद की तारीफ़ करें और हम खुश न हों?   एक के बाद दूसरा गाना, फ़िर तीसरा। गाने चलते रहे और इनका मूड बनता गया। फ़िर आया गाना, “जो हमने दास्ताँ अपनी सुनाई, आप क्यूँ रोये”  ये साहब मुड़कर चल दिये। अब अपने को बात खटकी, बुलाया और पूछा कि क्या ये गाना पसंद नहीं आया? बोले,  “नहीं, ये बात नहीं है। गाना बहुत अच्छा है और आवाज भी, लेकिन ये गाना सुनकर मेरी बीमारी याद आ गई है।”
“बीमारी और आपकी? आप तो माशाअल्लाह जवानों से भी जवान दिखते हैं।”

मजबूरी में ही सही, बैठ गये हमारे सामने और कहने लगे कि पिछले अट्ठाईस साल से उनकी  आँख में आँसू नहीं आते। मैंने नादानी में इस बात के लिये बधाई दे डाली और वो और मायूस हो गये, “देखो, मेरी बीमारी में भी मुझे बधाई दे रहे हो, और ये कम्बख्त आँसू हैं, जो अब भी नहीं आये।” बता रहे थे कि कई सालों से सोच रहे हैं कि डाक्टर को चैक करवायें कि आँसू सूख क्यों गये हैं,  फ़िर खुद ही कहने लगे कि गंगोत्री\गोमुख से जो पानी की धारा निकलती है वो खुदबखुद गंगासागर पहुँच जाती है। रास्ते में बेशक अनगिनत नदियाँ मिलती हैं, लेकिन  स्रोत  ही सूख गया तो फ़िर क्या बचा?  उनका मन हल्का करने के लिये मैंने  वैसे ही कहा कि मुझे हँसे हुये कई साल बीत गये हैं तो फ़ौरन टोक दिया, “अभी हफ़्ता पहले तो बहुत चहक रहे थे, जिस दिन आपसे मिलने कोई गैस्ट आये थे। अबे किशन,  झूठ बोलते हुये पकड़े गये संजय जी, ले सौ रुपये इनसे और कुछ खाने-पीने का सामान लेकर आ।  अब तो वैसे भी अन्ना ने अनशन तोड़ दिया है, खाते समय गले में कुछ अटकेगा भी नहीं।”
 
“एक बात बताओ, आप हो किसकी तरफ़?  कभी सरकार की बुराई, कोई सरकार के खिलाफ़ आवाज उठाये तो फ़िर उसकी बुराई। ”

“इसका जवाब दो शब्दों में नहीं दे सकता। जैसे, किसी ने एक बार पूछा था कि वैजीटैरियन हूँ या नॉन-वैजीटैरियन तो मैंने कहा था कि मौकाटैरियन हूँ।”

हमने उस दिन, उस पल  से उन्हें उस्तादजी पाल लिया, सॉरी उस्तादजी मान लिया है।

मंगलवार, जुलाई 05, 2011

ऑल जगराँव ब्लॉगर(स) एसोसियेशन भंग, तंबू उखड़ा:)


बहुत पहले कभी एक कहानी सुनी थी, किसी व्यक्ति ने जप-तप करके यह वरदान पा लिया कि जब उसकी मृत्यु आयेगी तो उसे संबंधित डिपार्टमेंट द्वारा  पहले सूचित कर दिया जायेगा। मित्रों परिचितों ने बहुत उल्टा-सीधा कहा कि माँगना ही था तो कुछ ढंग की चीज़ माँगी होती लेकिन बंदे ने कुछ सोचकर ही वरदान माँगा था। उसकी योजना ये थी कि खुलकर ऐश(क्लैरिफ़िकेशन – ऐश बोले तो लक्ज़री वाली ऐश)  की जिन्दगी बितायी जायेगी और मृत्यु की सूचना तो मिल ही जानी है, अंत समय में फ़िर से पूजा पाठ, संयम से काम लेकर अपना परलोक सुधार लिया जायेगा। जिन्दगी की गाड़ी चौथे पांचवे गियर में चलती रही और एक दिन अचानक यमराज ने पहुँच कर कूच करने को कह दिया।     अब बंदे ने सीधे से वादाखिलाफ़ी का दावा ठोंक दिया जैसे सरकार आंदोलनकारियों पर और आंदोलनकारी सरकार पर आरोप ठोंकते रहते हैं, “मुझे ये वरदान मिला था कि म्रूत्यु के आने से पहले उसकी सूचना दी जायेगी, जब आज आप अचानक ही आ गये। ये वादाखिलाफ़ी है। कम से कम एक बार तो समय रहते मुझे सूचित किया जाना चाहिये था।”
     
उसके प्रोटैस्ट को ओवररूल करते हुये स्पष्टीकरण दिया गया, “कुछ साल पहले आपके बाल सफ़ेद होने लगे थे, उसके कुछ साल बाद आपकी नजर धुंधला गई थी, फ़िर आपके दाँत गिरने शुरू हुये और उसके कुछ समय बाद आपके हाथ-पाँव काँपने लगे थे । ये सभी आपकी आसन्न मृत्यु की सूचनायें ही थीं कि आप सावधान हो जायें। अगर आप नहीं समझे तो यह गलती आपकी है।” कहानी खत्म।

अब आप इल्ज़ाम लगायेंगे कि ऊपर ब्लॉगर एसोसियेशन का बैनर टाँगकर नीचे अंधविश्वास, आस्तिकता वगैरह वगैरह की कहानियाँ सुना रहा हूँ। लगा लो इल्ज़ाम, लेकिन पहले मेरी पूरी बात पढ़कर।

साल भर पहले हमारी शाखा में कुछ रेनोवेशन का काम हुआ। बेहद जरूरी वाले काम हो गये, जो टाले जा सकते थे वो बदस्तूर  टल गये। साल भर तक जिस केबिन में बैठकर  स्कैनिंग और ऐसे ही दूसरे बैक आफ़िस के काम करता  रहा,  पिछले महीने वहाँ लाईट और पंखे की फ़िटिंग हो गई।    दो सप्ताह पहले  स्टाफ़ के लिये बढ़िया वाली नई कुर्सियाँ स्वीकृत हो गईं,  पिछले सप्ताह ए.सी. की भी सैंक्शन आ गई। अपन तो तभी समझ गये थे कि चलाचली का वक्त आ चला है। 
ट्रेन में सफ़र करते हुये कुछ बात होने पर एक लड़की ने लड़के से कहा, “एक लात मारूँगी सीधे गाजियाबाद जाकर गिरेगा।” वो बोला, “जी थोड़ा धीरे से मार देना, मुझे साहिबाबाद उतरना है।” 
अपने को थोड़ा  धीरे वाली ही लगी है,   दिल्ली नहीं मिली लेकिन दिल्ली सी मिल गई है। शायद ये सप्ताह यहाँ आखिरी सप्ताह है।

तो साहिबान, कदरदान     ’ऑल  जगराँव    ब्लॉगर(स)  एसोसियेशन’  के पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर      होने के नाते आप सबको सूचित कर रहा हूँ कि तत्काल प्रभाव से इस स्वयंभू संस्था, जिसका कभी गठन हुआ ही नहीं था, भंग की जाती है। वैसे टीन-टप्पर समेटने में दो चार दिन लगने तय हैं। जिसका कोई हिसाब किताब रह रहा हो, अभी चुकता कर ले, बाद की अपनी कोई गारंटी वारंटी नहीं है। वैसे तो अभी की भी नहीं है लेकिन फ़िर भी कहकर अपना फ़र्ज पूरा कर रहे हैं। बाद में तो हम सीधे से मुकर ही जायेंगे, उस काम में वैसे भी माहिर हैं। किसी के सामने दूसरे की चुगली करेंगे, कान भरेंगे, गालिब वाला शेर पढ़ेंगे ’ये होता तो क्या होता’ और मौके पर मुकर जायेंगे कि हमने तो ऐसा कुछ कहा नहीं:)

ठीक है, मान लिया कि पुराना हिसाब  क्लियर और  किसी ने कुछ लेना देना नहीं है। नई जगह पर जाकर नई बही बनायेंगे, नये हिसाब शुरू होंगे।

लगभग डेढ़ साल पहले यहीं एक छोटे से टैंपो पर लिखा देखा था, "मैं वड्डा होके ट्रक बनांगा"   वो पता नहीं ट्रक बना कि नहीं लेकिन मुझे जहाज बना गया:)  घर से बहुत दूर रहते हुये यहाँ  इतना प्यार, अपनापन  मिला जिसका कोई हिसाब नहीं। जैसे बीरबल की खिचड़ी वाली कहानी में दूर कहीं दूर जलते दीपक को देखकर किसीने सर्दियों की रात पानी में नंगे बदन रहकर निकाल दी थी, अपन ने भी सवा तीन साल निकाल लिये। होगी बहुतों के लिये ये ब्लॉग की दुनिया बेकार, हमने तो   बहुत कुछ पाया है इस ब्लॉगिंग से, आप ब्लॉगर्स से। 

अभी कल ट्रेन के एक पुराने डेली पैसेंजर साथी का फ़ोन आया था। पूछ रहा था,  “भाई साहब, गर्मी कैसी है?’  मैंने बताया, “गर्मी काफ़ी गरम है यहाँ, मजा  आ रहा है।” वो हँसने लगा, और बातों के बाद कहने लगा, “भाई साहब, सच तो ये है कि आप सजा काट रहे हो और बात मजे की कर रहे हो।”   क्या कहता भोले बंदे को, है कोई जवाब?   अबे भैये, सच तो ये है कि मजा के बाद सजा भुगतनी पड़े तो बहुत मुश्किल और सजा के बाद मजा आये तो आनंद ही आनंद।   और जो कहीं सजा और मजा का साथ हो जाये तो क्या कहने?

देख लो, ब्लॉग मेरा,  मेहनत मेरी और गाना भी वैसे तो मेरे मन का ही है, बहुत प्यारा, लेकिन ये क्या बात हुई कि गन प्वाईंट पर मजबूर किया जाये कि इस पोस्ट पर यही गाना लगना चाहिये, नहीं तो….।  मरता क्या न करता, लगाना पड़ा। भुरभुरे स्वभाव का ये अंजाम तो होना ही था:)

बाय बाय पंजाब, फ़िर मिलेंगे……..


शुक्रवार, जून 24, 2011

प्रार्थी का निवेदन..


बड़ी पुरानी गल्ल है जी,  हमारी पहली नौकरी के टाईम की। पहली नौकरी का महत्व आप सब जानते ही होंगे, पहली मोहब्बत आदमी एक बार को भुला सकता है लेकिन पहली नौकरी की यादें नहीं। कोई जरूरी नोटिस सर्व किये जाने थे और जिस कर्मचारी की नोटिस सर्व करने की ड्यूटी थी. वो  बिना सूचना के दो दिन से ऑफ़िस नहीं आ रहा था। शाम के समय बॉस काफ़ी गुस्से में थे और कहने लगे कि इसे सबक सिखाया जायेगा।  शाम को मैं ढूँढते-ढाँढते उनके घर पहुँचा। मालूम चला कि उनकी तबियत कुछ  खराब थी। कम से कम ऑफ़िस में जानकारी देने की सीख देकर और बॉस के गुस्से की बात बताकर अपने घर लौट आया।

ओम प्रकाश नाम था उनका, उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े थे तो मैं उन्हें चाचा कहकर बुलाया करता था। अगले दिन सुबह ड्यूटी पर पहुँचा तो चाचा पहले से मौजूद थे, घबराये हुये तो थे ही। बॉस थे भी अभी  नये नये, एकदम यंग, डाईनैमिक और चूँकि बहुत बड़ा पेपर पास करके आये थे तो रौब दाब तो था ही उनका। चाचा मुझसे पूछने लगे कि क्या किया जाये। था तो मैं बॉस से भी यंगर लेकिन डाईनैमिक भी नहीं था और पेपर भी तो छोटे वाला ही पास करके भर्ती हुआ था, तो इतनी तो अपनी चलती नहीं थी कि सीधे सिफ़ारिश कर दें, लेकिन मौके पर पहुँचकर थोड़ी सी जेनुईननेस तो बता ही सकता था, यही सलाह दी। ओम प्रकाश जी से कहा कि झूठ मूठ कुछ कहने की बजाय जो सच है, उसे अपनी प्रार्थनापत्र में लिखकर साहब के सामने पेश हो जाओ, पीछे-पीछे मैं आकर  जो संभव होगा, सिफ़ारिश कर दूँगा। यही जून- जुलाई के दिन थे , चाचा के पसीने तो टपाटप आ ही रहे थे, फ़ट से कागज कलम लेकर अर्जी लिखी और काँपते कदमों से साहब के केबिन की तरफ़ कूच किया। जाते जाते मुझसे कह गये कि देर न करूँ, जल्दी से आ जाऊँ।

केबिन के दरवाजे तक मैं साथ गया और उन्हें अंदर भेजकर वहीं साईड में खड़ा हो गया। उनकी साहब को नमस्ते करने की आवाज सुनाई दी और अगले मिनट के बाद मैं भी केबिन में जाकर अभिवादन करके खड़ा हो गया। तब तक ओम प्रकाश जी अपनी अर्जी पेश कर चुके थे और साहब उसे पढ़ रहे थे। दम साधे हम दोनों खड़े थे कि एकदम से साहब के चेहरे पर मुस्कान आ गई, चेहरा ऊपर उठाकर ओम प्रकाश जी से बोले, “जाओ, आगे से ध्यान रखना।” चाचा की साँस में साँस आई और बड़ी सी नमस्ते करके वो बाहर भागे। बॉस ने अर्जी मेरी तरफ़ बढ़ा दी, चेहरे पर मुस्कान दबाये नहीं दबती थी। अपना ट्रांसमीटर एसीपी प्रद्युम्न की तरह  सिग्नल दे रहा था, ’कुछ तो है।’ बाहर आकर अर्जी पढ़ी तो जोरों से हँसी आ गई। बड़े जहाँ मुस्कान में भी कँजूसी बरतने पर मजबूर होते हैं, छोटे वहाँ खिलखिला कर हँस सकते हैं, बिना इस बात की परवाह किये कि इसे फ़ूहड़ता समझ लिया जायेगा। और ये वो हासिलात है जो छोटों को बड़ों से भी बड़ा कर देते हैं, अगर कोई समझे तो।

अब रोल बदल गये थे, अब चाचा मुझसे पूछ रहे थे कि हँस क्यों रहे हो? साहब भी हँस रहे थे, कुछ गलत लिखा है क्या?”

मैं क्या बताता, बता ही नहीं पा रहा था। हँसी रुके तो कुछ बोलता। बॉस द्वारा अंडरलाईन की गई लाईन चाचा को पढ़ा दी, आप भी पढ़ लीजिये -

“प्रार्थी के नीचे दो फ़ोड़े निकल आये थे, जिस कारण प्रार्थी दो दिन ऑफ़िस नहीं आ सका।”

आपको आये न आये लेकिन उस समय मेरा हँस हँसकर बुरा हाल था। चाचा पहले तो शर्मिंदा से हुये फ़िर मुझपर ही नाराज होने लगे, “तुमने ही तो कहा था कि सच सच लिख दूँ अर्जी में।”

“सच कहता  है चाचा, कसूर तो मेरा ही था, है और रहेगा।”

वो अर्जी फ़ाड़कर दोबारा लिखवाई, साहब से स्वीकृत करवाकर लाया। उस दिन के बाद साहब ने और मैंने हमेशा ओम प्रकाश जी को प्रार्थी कहकर बुलाया, ऑफ़िस वाले इस बात को कभी समझ ही नहीं सके।
इतने सालों के बाद ये बात अब जाकर क्यों याद आई? पिछले ढाई महीने से दोपहर में खाना खाने रूम पर आता हूँ। तीन चार दिन से मोटर साईकिल पर बैठते ही जान निकल जाती है। इस प्रार्थी के नीचे कोई फ़ोड़ा-वोड़ा नहीं निकला है,  धूप में खड़ी मोटर साईकिल इतनी गर्म हो चुकी होती है कि ये हालत हो जाती है। अब ध्यान आ रहा है कि  जसवंत,  हमारे ऑफ़िस में काम करने वाला सफ़ाई कर्मचारी  रोज बिना नागा  बारह-साढे बारह बजे मेरी  सीट पर आता था, “साब, चाबी।” जब उसने पहली बार चाबी माँगी तो मैंने सोचा था कि इसे कहीं जाना होगा, फ़िर धीरे धीरे बात इतनी साधारण हो गई कि इस पर गौर ही नहीं जाता था। सूरज महाराज के स्थिति बदलने के अनुसार वो मोटर साईकिल सड़क के उस पार से इस पार लाकर खड़ी कर देता था, हमें पता ही नहीं चलता था कि उसके ये करने से हमें कितना सुख मिल रहा है।   आजकल वो नहीं है तो प्रार्थी को पता चल रहा है कि कैसे होती है शेर की सवारी:)

 जसवंत जैसे  और कितने ही हमसे जूनियर हैं  जो हमारा ध्यान रखते हैं,  मदद करते हैं।  हमारे सुख-दुख में  साथ   रहते हैं,जरूरत पड़ने पर   हमें काम भी  सिखाते  हैं।  जब पुरानी ब्रांच में था और  ऑफ़िस से घर के लिये निकलने लगता था तो अपना भोला रोज कहता था, “अच्छा, ध्यान से जाईयो घर।” मैं हंसता था, “पागल, मैं मोर्चे पर जा रहा हूँ क्या?”  वो फ़िर भी रोज ऐसा ही कहता। कल भी फ़ोन आया था उसका, “कब आना है वापिस? हरिद्वार नहीं चलना?” कोई जवाब नहीं सूझता, टरका देता हूँ उसे भी:)

किस किस का नाम लें, कितने ही हैं जो छोटे छोटे कामों से, छोटी-छोटी बातों से  हमें अपने से बड़ा बनाते हैं।  कहाँ किसी का आभार व्यक्त किया? जो ये करते रहे, उसे उनकी ड्यूटी मानकर    taken for granted लेना अपनी  आदत भी बन गई है और फ़ैशन भी।  यूँ भी ये जसवंत, भोला, नत्थू , ओम प्रकाश जैसे आकर मेरी कमेंट संख्या थोड़े ही बढ़ा देने वाले हैं।    खैर, आभार तो हमने ऊपर वाले का नहीं माना तो ये क्या चीजें हैं? जब उससे  नमकहरामी कर सकते हैं तो जसवंत, भोला और दूसरे क्या मायना रखते हैं?  अपना नाम ’मो सम कौन कुटिल… ऐवें ही थोड़े है:)     चार छह कदरदान द्रवित होकर वाह-वाह कर जायेंगे, कुछ छेड़ जायेंगे, हो गया  अपना टार्गेट पूरा। हींग लगी न फ़िटकरी, हो गई हिन्दी की सेवा:)

और कल्लो बात..... अब तो हमसे ही सवाल भी किये जाने लगे हैं।  भैय्ये हाथ जुड़वा लो, बड़े वाले सवाल मत पूछो अपने से। अभी न अपने पास  बीवी है, न टीवी।   जब होंगे तब पूछ लेना, तब का बहाना तब सही:) इससे तो बेहतर है कि मैं ही सवाल पूछ लिया करूँ। ये रहा आज का होमवर्क -

’प्रार्थी को कितने दिन का अवकाश लेना चाहिये था कि साहब को गुस्सा न आता?’

संकेत: १. ’मेरे हाथों मे नौ-नौ चूडि़याँ हैं…मेरे पीछे पड़े हैं आठ-दस लड़के’

ऐसे पूछते हैं सवाल:)

अब चूड़ियों की बात आ ही गई है तो लगें हाथों……..


मंगलवार, जून 21, 2011

संतरे के बीज...


आज अपनी  एक पुरानी पोस्ट देखी,  सोच रहा था कि क्या समय था वो भी, कैसी कैसी बातें होती थीं और हम थे कि मजे चुरा ही लेते थे। एक बार तो सोचा कि उसे ही धो-पोंछकर लगा देते हैं फ़िर से, लेकिन इरादा बदल दिया। आज सुनाते हैं आपको एक और किस्सा  - जवानी का एक अन-रोमांटिक किस्सा:)

वो कॉलेज में हमारे साथ पढ़ता था। बहुत कम बोलने वाला, और जब बोलता भी तो इतने नपे तुले और सॉफ़्ट तरीके से कि  ऐसा लगता था मुँह से फ़ूल झड़ रहे हों। मेरे ग्रुप के दो लड़कों का स्कूल टाईम का साथी था, यकीनन वो उसके बारे में मुझसे ज्यादा जानते थे। उन्होंने  इतना बता रखा था कि बंदा है बहुत ऑब्जर्वर टाईप का। हर चीज को हर उपलब्ध एंगल से जाँचकर कुछ फ़ैसला लेता है।

खैर, यूँ ही वक्त गुजर रहा था कि एक दिन वो मेरे घर आया। अपने को शुरू से ही पढ़ाई करने के लिये एक कमरा छत पर अलग मिला हुआ था,  खाने के लिये फ़्रूट वगैरह लेकर बड़ी श्रद्धा से हाथ-मुँह धोकर हम उसमें प्रवेश किया करते थे। बिना  तैयारी के हम कुछ नहीं करते थे,  घर भर में ढिंढोरा पिट जाता था कि पढ़ाई करने जा रहे हैं और यही हमारा मुख्य उद्देश्य होता था। रेडियो सुनो, टेप रिकार्डर सुनो, डायरी लिखो, कुछ प्लानिंग करो – कोई डिस्टर्ब नहीं करने आता था। तो हमारा मित्र आया और बैठ गया। थोड़ी बहुत बात चीत करते रहे और संतरे खाते रहे।

कुछ देर बाद वो कहने लगा, “यार, एक बात बता। मैं देख रहा हूँ कि जबसे हम संतरे खा रहे हैं, तूने इनके बीज बाहर नहीं फ़ेंके?” 

बताया न कि बहुत तगड़ा ऑबजर्वर था, पकड़ ली मेरी आदत। जब से कहानी पढ़ी थी   ’seventeen oranges’ मैं भी ट्राई करता रहता था कि कभी वैसी  नौबत आने पर मैं कैसे रियैक्ट करूँगा।  अब आदत पड़ गई थी और उससे   कैसे कहता कि कसैली चीजें और उनके साथ खेलना मुझे अच्छा लगता है? ये आदत तो अब मेरी बन ही चुकी थी  कि मैं संतरे के बीज बहुत देर तक मुँह में रखता था, चुभलाता रहता था। अपनी कमी को छुपाने के लिये वही फ़ार्मूला अपनाया जो यहाँ भी चलता है, सामने वाले पर फ़ायरिंग चालू कर दो:)
मैंने उससे हैरान होकर पूछा, “तू फ़ेंक देता है?”
“और क्या करूँगा?”
“अबे, तेरे घर में कोई रोकता टोकता नहीं?”
“क्यों रोकेंगे भाई?”
“कैसे आदमी हो यार तुम?

संतरे की बीजों के चिकित्सीय गुणों पर एक अच्छा सा भाषण पिलाया, जिसमें जातिवाद\प्रांतवाद जैसे मुद्दे भी मिक्स कर दिये। दस मिनट के भाषण के बाद उसको समझ आ गई कि उसके परिवार के सदस्यों के रंग दबे होने के पीछे, कद-सेहत आदि हमारे मुकाबले उन्नीस होने की एक ही वजह है कि उन्हें संतरे के बीजों के गुण नहीं मालूम और वो मलयगिरी के भीलों की तरह चंदन का मूल्य न समझने वाला काम कर रहे हैं। उसे बताया कि सीज़न न रहने पर हम तो पंसारी के यहाँ से संतरे के बीज  खरीद कर भी लाते हैं। इफ़ैक्ट लाने के लिये खरबूजे के मगज़, तरबूज के मगज़  की याद दिलाई और वो मान भी गया कि ये सब तो वो भी खरीद कर लाते रहे हैं।

अगले दिन कॉलेज में उसके पहुँचने से पहले मैंने अपने दोस्तों को वैसे ही ये बात बता दी। उसके पुराने सहपाठी कहने लगे, वो तेरी बातों पर यकीन ही नहीं करेगा। वो आया, और थोड़ी देर बाद अतुल को लेकर साईड में चला गया। लौटा तो अतुल ने आँख मारी, ’देखा, कन्फ़र्म कर रहा था।’ एक एक करके  जितने पंजाबी पुत्तर थे, उसने सबसे पूछा और सबने अपने अपने तरीके से उल्टे उसे ही धमकाया, "कैसी बेहूदा बात पूछ रहा है, तुझे ये भी नहीं मालूम?"

उस दोपहर मैं तो जरूरी काम होने के कारण घर को खिसक लिया, बाकी मुस्टंडे उसे लेकर बाजार गये। पांच-छह पंसारियों के पास जाकर उसे आगे कर देते थे, “ढाई सौ ग्राम संतरे के बीज देना।” अगले दिन बता रहे थे कि जिस नजर से दुकानदार देख रहे थे, बस कल्पना ही कर सकते हैं।

बाद में जब कभी  इस बात का जिक्र छिड़ता तो भी  वो हौले से मुस्कुरा देता था। दो तीन कंपीटिशन के एग्ज़ाम देने हम साथ साथ गये थे, मैं पास हो जाता था और वो रह जाता था। मुझे सच में तकलीफ़ होती थी, उसने भूले से भी कभी इस बात का  अफ़सोस नहीं जताया जबकि उसे नौकरी की मुझसे ज्यादा जरूरत थी और वो ज्यादा तैयारी भी करता था।  अपनी तरफ़ से उसकी मदद भी की, लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिलनी थी तो नहीं ही मिली। 

अतुल, जिसका जिक्र ऊपर किया वो प्राईवेट जॉब में ही था लेकिन जगह उसकी प्रभावशाली थी। उसके पीछे पड़ा रहा मैं भी और वो खुद भी इसका कुछ करना चाहता था,अतुल ने उसे  एक फ़ाईव-स्टार होटल में एकाऊंट्स के काम के लिये लगवा दिया था। उसके घर उसे बताने गये थे हम दोनों, कहकर उसकी बहन से चाय बनवाई और बाहर जाकर उससे पैसे निकलवाकर देवानंद बने, वो तो एकदम सूफ़ी था – सच में बहुत खुश थे हम दोनों उस दिन और वो  वैसा ही, मंद मंद मुस्कुराता हुआ। दो तीन दिन रोज उसके ऑफ़िस के हाल पूछने उसके घर जाते थे कि कोई दिक्कत तो नहीं है? बताता था, "कुछ काम तो है नहीं, घंटा भर ऑफ़िस में बैठना होता है फ़िर निकल जाता हूँ कभी स्विमिंग पूल की तरफ़ और कभी किसी और तरफ़।"  और हम हँसते थे कि अच्छे से ऑब्जर्व करने का, आँखें सेंकने का  मौका मिला है तुझे।    हफ़्ते भर बाद पता चला कि उसने नौकरी छोड़ दी है। सिर पीट कर रह गया अतुल भी, "कोई दिक्कत थी तो बताता तो सही?"
और वो वैसे ही  हौले से बोला, “क्या बताता? ऐसी कोई दिक्कत थी ही नहीं, मन घुटा घूटा सा रहता था वहाँ, अनकम्फ़र्टेबल सा लगता था।”  ठीक है भाई, रह ले अपने कम्फ़र्ट एरिया में।

कुछ साल पहले ट्रेन में मिला मुझे, कहीं प्राईवेट जॉब ही कर रहा है। पिछली बातें छेड़ीं तो अपने अंदाज में मुस्कुराता रहा, बिल्कुल नहीं बदला है। उसी नौकरी में खुश है, इतना तो अब मैं भी जान ही चुका हूँ कि असली सुख पैसे, नौकरी,पद,  सत्ता में नहीं है। जो सरल है, सहज है  वही प्रसन्न भी रह सकता है।  मैंने संतरे वाली  बात के लिये सॉरी बोली, तो वो हँसने लगा कि ये तो साधारण सी बात थी बल्कि और बातों के लिये मुझे धन्यवाद कहने लगा।      कह रहा था कि अपने बीबी बच्चों को भी बता चुका है ये किस्सा, उसके घर जाऊँगा कभी तो उसकी बीबी  पहचान लेगी मुझे।  

“अबे जा,   मुझे पहले मैं तो पहचान जाऊँ। आता हूँ किसी दिन”….. :) मेरा सारा  अपराध बोध खत्म हो गया था। सुख दुख मन की अवस्थायें ही हैं, वही चीज कभी सुख देने  लगती है तो कभी दुख।

ठीक कह रहा हूँ, मान लो। इत्ता उपदेश तो झेलना ही पड़ेगा:)

बुधवार, जून 15, 2011

आधे अधूरे......


उस दिन ऑफ़िस में कनैक्टिविटी नहीं थी और काम बीच में फ़ँसा हुआ था। मैं और बॉस, हम दोनों ही ऑफ़िस में रुके थे और बाकी स्टाफ़ चला गया था।  कहते हैं कि पिछले कई साल में एक बार अमेरिका में बिजली गई थी, और बहुत से लोग ऐसे थे जिन्हें तब जाकर याद आया कि आसमान की तरफ़ देखे हुये उन्हें एक जमाना गुजर चुका था। जरूरत ही नहीं पड़ती थी।  हम भी तो उन्हीं नक्शे कदम पर हैं। यातायत और संचार के साधन इतने तेज हो चुके हैं और हमें अपनों से यूँ ही कुछ  बात करने का मौका नहीं मिलता। और खुद अपने से बात करने की तो फ़ुर्सत ही किसे है?

वो दिन शायद ऐसा ही था जब खुद अपने से बात होनी थी।    एकदम से बॉस कहने लगे, “संजय जी, एक बात बताओ, क्या इस दुनिया में कोई पूरा है, कम्पलीट?” 

अचानक ये सवाल सुनकर मैं भी हैरान रह गया। मेरे अपने ही सवालों का हल नहीं ढूँढ पाता और ये साहब मुझसे ही पूछ रहे हैं। उन्होंने फ़िर से अपना सवाल दोहराया। मैंने अब उनसे ही पूछा, “सरजी,  किसी की मृत्यु होनेपर पंजाबी में क्या कहते हैं?”

उन्होंने बताया, “फ़लाँ पूरा हो गया है, ऐसा बोलते हैं।”   

“सरजी, मेरे हिसाब से तो इसीमें आपके सवाल का जवाब है। हम सब अधूरे हैं, एकदम अधूरे और अपने अधूरेपन में ही मस्त हैं। गाफ़िल हैं इस सच्चाई से कि इस दुनिया में संपूर्ण कोई नहीं। कूछ हैं, जिन्हें इस बात का अंदाजा है और वो अपने  अधूरेपन की लहर को किसी समंदर में मिलाने की कोशिश भी करते हैं। और उनमें से भी विरले हैं, जो ये कर पाते हैं और अपनी कोशिश में कामयाब होते हैं।”   

बॉस कहने लगे, “तो इसका मतलब ये हुआ कि इस दुनिया में कोई तो होंगे ही ऐसे जो संपूर्णता को प्राप्त हुये?”

मैंने कहा, “मैं शायद अच्छे से बात स्पष्ट कर नहीं पाया, सरजी, जो संपूर्ण हो गया फ़िर वो इस दुनिया से ही गया। पंजाबी में कहते हैं न, फ़लाँ पूरा हो गया।”

सरजी हमारे पता नहीं सच में पूछ रहे थे कि आपकी तरह मजे ले रहे थे लेकिन अपने को सोचने को मुद्दा दे गये। कई  बार कहा करते हैं, “त्वाडी हिम्मत है यार, अकेले रहते हो। मैं तो सच में इसीलिये गाँव में रहने से डर गया था कि  तुम्हारा ट्रांसफ़र हो गया तो अकेला रह जाऊँगा। टाईम कैसे बीतेगा, ये सोचकर भी डर जाता हूँ।” 

मैं सोचता हूँ कि आदमी अकेलेपन से क्यों डरता है? क्यों अकेलेपन से तारतम्य बैठाना इतना मुश्किल लगता है? मेरी संवेदनायें शायद काम करना बंद कर रही हैं, मुझे क्यों भीड़भाड़ से दिक्कत और अकेलेपन में सहज लगता है?   आधा अधूरा रहना ही अपनी नियति है, ऊपर से ये गाना क्या सुन लिया, समय का मालूम ही नहीं चलता  कि कैसे बीत गया। गाने के बोलों से इत्तेफ़ाक न रखते हुये भी एक मासूम दिल के सवाल कोंचते तो हैं। कभी दुख भी होता है और कभी हँसी भी आती है जब पूछा जाता है कि ’की खट्टया(कमाया) मैं तेरी हीर बनके।’   कमाने के लिये प्यार किया था?   पागल न हो तो ….  आधे अधूरे ही रह लो जब तक इस दुनिया में रहना है,  पूरे हो गये तो हो जाना है हैप्पी बड्डे:)

शुक्रवार, जून 10, 2011

Banks of Bharat(Bharat that is India) क्षोभास्य:)


बैंकों का मुख्य काम(कागजों में)  जनता का पैसा जमा के रूप में स्वीकार करना और उसी पैसे को वैध तरीके से अर्थव्यवस्था के विकास के लिये ऋण के रूप में वितरित करना होता है। ये अलग बात है कि कहीं कहीं कुछ समझदार लोग  ’बिट्वीन द लाईंस’ का मतलब समझकर  फ़ॉड, गबन आदि वीरोचित  कार्य भी कर दिखाते हैं।   पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र(अकेला प्रदेश नहीं है, लेकिन अग्रणी है)  में सहकारी संस्थाओं\बैंकों के जरिये ऐसे सफ़ल प्रयोग हुये हैं और जिस प्रकार हर सफ़ल पुरुष के पीछे कम से कम एक स्त्री का होना बताया जाता है, उसी प्रकार प्राय: इन धोखाधड़ियों के पीछे कम से कम एक कैबिनेट मंत्री या ऐसे ही किसी प्रभावशाली का होना बताया जाता है। 

सरकार अपनी तरफ़ से हर कोशिश करती है कि जी.डी.पी. बढ़ती रहे, अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे और इसके लिये बैंकों का इस्तेमाल एक औजार के रूप में किया जाता है। जब सही लगा था, तब राष्ट्रीयकरण किया  गया और जब सही लगा तो निजीकरण किया जा रहा है। सरल शब्दों में सरकार\सत्ता जो भी करती है, उसे सही मान लेना चाहिये इससे  दिन का चैन और रातों की नींद नहीं उड़ती है। यूँ भी हम लोग सरकार के गुलाम हैं, बैंगन के नहीं।(अकबर-बीरबल से साभार)

इसके अतिरिक्त भी सरकार  आवश्यकतानुसार(चुनाव के समय को ध्यान में रखकर)  कर्जमाफ़ी, ब्याज सब्सिडी वगैरह के माध्यम से जनता को राहत पहुँचाती रहती है और    जनता का सद्चरित्र रहना   सुनिश्चित करती है।(वोट डलने तक)

हमें चाहिये कि सरकार के प्रयासों को सही परिपेक्ष्य में लें और  ख्वामख्वाह की चिल्ल-पौं न मचायें। अगर किसी ने मचाई तो हमारा तो कुछ नहीं जायेगा लेकिन  उसपर कट्टरवादी, तमाशेबाज, मजमेबाज, ठग, धोखेबाज आदि होने का आरोप न सिर्फ़ मढ़ा जायेगा बल्कि साबित भी कर दिया जायेगा। और यदि कहीं चिल्ल्पौं(er)  भगवा या मिलते जुलते रंग के कपड़ों से सुसज्जित पाया गया तो उसे भगवा आतंकवादी भी मान लिया जायेगा, फ़िर न कहना कि चेताया नहीं।


DISCLAIMERS:
1.    बैंक में नौकरी करता हूँ, सो बैंक के बारे में लिखा है। सीधे सीधे बोलो तो पायजामे में रहने की कोशिश की है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि (हर) किसी को मिर्चें नहीं लगेंगी।
2.     भारत का रहने वाला हूँ, इसलिये सिर्फ़ भारतीय बैंकों की बात की है। इसका(और मेरा भी) स्विस बैंकों, कालाधन आदि आदि से कुछ लेना देना नहीं है।
3.     इस लेख की और लेखक(मेरी)  की विश्वसनीयता बिल्कुल भी असंदिग्ध नहीं है, क्योंकि अर्थव्यवस्था में अपना योगदान तीस तारीख से पहले थैला भरकर तनख्वाह लेने और साल छह महीने में एकाध हड़ताल करने तक सीमित है।   

सोमवार, मई 23, 2011

खौफ़-ए-इंकार


’पाँव चादर के हिसाब से ही पसारने चाहियें’   जब ये पहली बार सुना तो शायद इस मुहावरे का अर्थ भी नहीं समझ आया होगा। लेकिन जो चीज अच्छी लग गई तो लग गई,  ये मुहावरा भी अच्छा लग गया और इस तरह से हमारी किलर्स इंस्टिंक्ट बहुत शुरू में ही kill कर दी गई। विवेक, तृष्णा, कामना, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन:  जैसे भारी भरकम शब्दों ने बहुत पहले ही हमारी नियति तय कर दी थी। जब भी हाथ-पाँव फ़ैलाने का मौका दिखता, हम पहले अपनी चादर चैक कर लेते और हर बार अपनी चादर छोटी मिलती। धीरे धीरे अपनी आदत ही ऐसी हो गई कि जो आराम से  मिल गया, उसी में गुजारा करना अच्छा लगने लगा। जवानी फ़ूटी तो हमारी सोच को और बल दिया फ़िल्म ’हम दोनों’ के गीत ने, ’जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया।’ नतीजा बहुत सुखद रहा कि हमें किसी से ’न’ नहीं सुननी पड़ी। किसी से कुछ चाहा ही नहीं, माँगा ही नहीं तो अगला\अगली ’न’ भी क्यूँ देते?

जवानी फ़ूटने तक सब ठीक रहा, किस्मत फ़ूटी तो पता चला कि ’दिल्लगी(या शायद दिल लगी, not sure)  क्या चीज है।’    यानि कि दिक्कत तब शुरू हुई जब ये मोटी मोटी किताबों के माध्यम से हमें मैनेजमेंट, प्लानिंग वगैरह वगैरह सिखाने की कोशिश की गई। उसी दौरान पता चला कि हमारी पर्सनैल्टी का डेवलपमेंट तो हुआ ही नहीं। आत्म-विश्लेषण किया तो पाया कि ’fear of rejection’ तमाम उम्र हम पर तारी\भारी रहा है। मनोचिकित्सकों की सलाहें मिलीं कि जिस काम से डर लगता हो, उसे अवायड करने की बजाय उसे बार बार करना चाहिये। अपने reflexes भी, अपने नेटवर्क कनेक्शन की तरह बहुत स्लो हैं,  चुटकुले, शिक्षायें, सबक भी हमें मौके पर कम और बेमौके पर ज्यादा समझ आते हैं। ताजातरीन मामला इसी ’fear of rejection’ से संबंधित है।

इस बार दिल्ली न जाकर जरूरी काम से सहारनपुर जाना था तो कमरे से निकलते समय ही फ़ैसला कर लिया था कि पर्सनल्टी डेवलप करके ही लौटना है। क्या पता लोग हम पर सबकुछ लुटाने, वारने को तैयार बैठे हों और हमारे प्रोपोज़ न करने के कारण ही उनकी बात मन की मन में रह जाती हो, let us give it a try:).

सबसे पहले नंबर लगाया पार्किंग वाले का। बाईक पार्किंग में लगाकर पार्किंग स्लिप लेने गया तो उससे पूछा.  “वीरे,  इससे पहले जहाँ मैं नौकरी करता था, रेलवे पार्किंग वाला स्कूटर खड़ा करने के पैसे भी नहीं लेता था और चाय पिलाकर ही भेजता था(सच है ये),    जब बाईक उठाने आऊँगा तो तू भी  चाय पिलायेगा न?”
पार्किंग ब्वाय, “पागल कुत्ते ने मेरे को नहीं काट रखा है, आपको काटा होगा।”
बड़ा तगड़ा झटका सा लगा, लेकिन सहन कर लिया। आखिर पर्सनल्टी डेवलप करनी थी।

बस तैयार खड़ी थी, आवाजें लगा रहे थे, ’लुधियाना, लुधियाना। आ जा बई, बैठ जा, तैयार है गड्डी।”
मुझे याद आ गया मेरा डीटीसी वाला दोस्त, बोनट पर बिठा लेता था मुझे और टिकट नहीं लेने देता था। मैंने पूछा, “बैठ जाता हूँ, किराया तो नहीं माँगेगा?”
कंडक्टर, “रैण दे बई, दूजी बस विच आईयो। गर्मी नाल पैल्ले ही मेरा दिमाग भन्नया(दिमाग खराब होना) होया है।”  झटका ये भी जोर का ही था।

लुधियाना पहुँचकर ट्रेन में चढ़ा। आज तक किसी से सीट नहीं माँगी थी, उस दिन एक सिंगल सीट पर दो लड़के बैठे थे, उनसे कहा, “यार, सीट दे दो।”
दोनों भड़क गये, “अंकल जी, एक इंच भी जगह दिख रही है आपको? पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं….”अबके जोर का झटका धीरे से लगा। याने कि, याने कि धीरे धीरे डेवलपमेंट होने लगी थी।

अब सारी कहानी सुनाने बैठूंगा तो आप कमेंट देने से मना कर दोगे। पर्सनल्टी डेवलप हो गई है, लेकिन अभी इतनी नहीं कि रिजैक्शन का डर बिल्कुल ही खत्म हो गया हो। हाँ, अब उतना डर नहीं लगता। दुनिया नहीं बदल सकती, अब हम ही अपना नजरिया बदल रहे हैं। नैरो-गेज़ से ब्रॉड-गेज़ में conversion करने की कोशिश जारी है। जीटी रोड पर लगे caution-signboards की तर्ज पर मैं भी caution-mark  लगा ही देता हूँ,

CAUTION, BROADENING OF MIND IS IN PROGRESS, KINDLY WINE\WHISKY\SCOTCH WITH US(BEAR IS SO OLD FASHIONED NOWADAYS)

सबक ये है कि कामयाब होने के लिये आदमी का ढीठ होना बहुत जरूरी है,   (ये सबक कुछ दिन पहले हमारे मैनेजर साहब ने दिया था, इस वाक्य में उनके थोड़ा को मैंने बहुत किया है, बस्स),
और सवाल ये है कि कामयाब कौन है? 
  
अवि,   तीन शब्दों का ही है, आज तो मुश्किल नहीं है न सवाल:)) 

गाना वैसा ही, पुराना सा, भीनी भीनी सी महक लिये:-
महक क्या ऐसी-तैसी करवायेगी, यूट्यूब ने भी रिजैक्ट कर दिया है:)

सोमवार, मई 16, 2011

किये कराये पर पानी..... एक व्यथा हँसते गाते

अपने ब्लॉग प्रोफ़ाईल में मैंने शुरू में ही लिख दिया था कि पुरानी बातें, पुरानी फ़िल्में, पुरानी गीत, पुरानी किताबें, पुरानी यादें, पुरानी… वगैरह वगैरह मुझे बहुत पसंद हैं। कुछ पुराने चुटकुले भी इन वगैरह वगैरह में शामिल हैं। ऐसा ही एक   छोटा सा गंदा सा  चुटकुला था -  मास्टर जी ने बच्चों से पूछा, “किये कराये पर पानी फ़ेरना, इसका वाक्य प्रयोग बताओ।”  बच्चे ने कहा, “फ़्लश में पानी छोड़कर मैंने सब किये कराये पर पानी फ़ेर दिया।”

ये चुटकुला अब मेरे लिये त्रासदी बनकर रह गया है। सिर्फ़ एक पोस्ट ने मेरे डेढ़ साल के किये कराये पर पानी फ़ेर दिया। ब्लॉग नाम देखिये, मेरे काम देखिये। गाली गलौज मैं लिख दिया करता,  अपने बच्चे जवान हो रहे हैं और प्रेम मोहब्बत के गाने मैं सुनवा दिखा  दिया करता, छांटकर महिला ब्लॉगर्स के यहाँ मैं कमेंट किया करता, उल्टे सीधे चुटकुले फ़त्तू के नाम से डाल दिया करता – ये सब किसलिये भला?   अपनी छवि सुधारने के लिये ही तो, और एक गोलमोल सी कविता से पंगा क्या ले लिया, सबने जबरदस्ती  ही धर्मात्मा बना दिया। पिछले जमाने में शरीफ़, आस्तिक  कहलाना बड़ाई की बात होती होगी लेकिन आज के समय में किसी को ये सब खिताब दे देना गाली देने से कम नहीं है।

आप सब बड़े बेमुरव्वत निकले, कूटनीति की चार नीतियों में से पहली अपना ली ताकि ये बंदा अपनी जिंदगी को नीरस कर ले। कोई अद्वैत से जोड़ बैठा इसे, किसी को अध्यात्म दिखाई दे गया, किसी को काव्य रस मिल गया, जुलम भयो रामा जुलम भयो रे। हमारे प्रतुल भाई ने तो उसकी व्याख्या ऐसी शानदार कर दी कि हमारे खानदान् में सात पीढ़ी तक किसी ने  ऐसा  नहीं सोचा होगा। ले देकर एक सतीश सक्सेना जी ने और एक अदा जी ने थोड़ा मेरी भावनाओं की कदर की। बड़े भाईजी ने आगाह किया कि इसे जुनून कहते हैं और  देवीजी  ने समझाईश दी कि पतवार तो कब्जे में रखना था। ये दो कमेंट न मिलते तो मैंने टंकी पर चढ़ ही जाना था। चलो इन दोनों को धन्यवाद दे देता हूं कि समय से कदम उठाकर इन्होंने   ब्लॉग जगत में अपील, विचार, पुनर्विचार जैसे आग्रह होने से बचा लिये।  आप सबकी भी मिन्नतें, चिरौरी बच गईं। वैसे सोचकर मजा बहुत आ रहा है कि कैसे सब मना रहे होते, सब न सही कुछ तो मना ही रहे होते कि वीरू टंकी से नीचे उतर आ।      खैर, फ़िर कभी सही।

पिछले महीने ही सूचना मिल गई थी कि पिछले साल की तरह इस साल फ़िर से बुड्ढे तोते को प्रशिक्षण हेतु नामित किया गया है। कई सालों से यह एक घोषित युद्ध छिड़ा हुआ है प्रबंधन और हमारे बीच। वो कहते हैं चाहे कितना खर्च हो जाये सिखाकर मानेंगे और हम कहते हैं कि चाहे जितना  जोर लगा लो,   ऐसे ही भले हैं हम नासमझ से, बुद्धू से। खुशी इस बात की थी कि हमें अभी चुका हुआ नहीं मान लिया है प्रबंधन ने। जिस दिन पत्र आया था, लौटते ही चहकते हुये ये सूचना दी कि फ़िर से ट्रेनिंग आ गई है।  सुनने को मिला, “उपलों में चाहे घी के कनस्तर उंडेल दिये जायें,  रहेंगे उपले ही।”  एक बार तो ताव देने के लिये मूँछों पर हाथ गया ही था लेकिन धरती पर पैर रहने का ये फ़ायदा रहता है कि इंसान अपनी हैसियत नहीं भूलता। ये सोचकर हाथ जेब में डाल लिया कि हमारा समझौता कौन करवायेगा?

 मुझे याद आ गया डीटीसी का हमारा एक ड्राईवर मित्र। एक दिन उन पति पत्नी से मुलाकात हुई तो दोनों खफ़ा खफ़ा से थे। पूछा तो भाभी तो कुछ बोली नहीं, भाई ने बताई ये बात। कहने लगा, रात ग्यारह बजे ड्यूटी करके घर आया तो तेरी भाभी पूछती है, “रोटी खायेगा?” जवाब मिला, “ना, रैण दे। जेवड़ी(रस्सी) ल्या दै, फ़ाँसी खा लूँगा।”  गुस्से में धम धम करती वो रोटी बनाण लगी और मैं सामणे बैठ गया कि गुस्सा ठंडा हो जायेगा इसका। गैलां ही आके बैठ गया हमारा पालतू  काड़ू(कालू)। इब इसनै पैली रोटी बनाई और मन्नै थाली आगै करी तो बोली, डट जा(रुक जा), यो बेचारा भूखा सै। उसके बाद एक रोटी कालू के सामने फ़ैंकी गई और दूसरी मेरी थाली में। तीन रोटी खाकै कालू ने अपना मुँह जीभ से पोंछ लिया और मुझे तीसरी रोटी देके इसनै तवा तलै उतार दिया और न्यूं बोली, “इस बेचारे नै जाणवर होके भी अक्कल सै कि हिसाब से रोटी खानी चाहियें और एक तू सै कि और रोटियों की बाट देखे सै।”  भाई, फ़ेर मेरे ते रया नईं गया और मन्नै एक जड़ दिया इसकै। इब तू ही फ़ैसला कर कि गलती किसकी सै, मेरी अक इसकी?

उस दिन तो मैं हँसता रहा, समझाया अपने दोस्त को कि कुछ बीबियाँ अपने पति को बहुत प्यार करती हैं   और कैसे न कैसे उनका समझौता करवा दिया। तब मेरे ऐसे सलाहकार  दोस्त नहीं थे, अब आपका   इस मामले में  क्या कहना है?    कसूरवार कौन है, वो आदमी जो ड्यूटी करके आधी रात में घर आता है और ऐसा ट्रीटमेंट पाता है और मारपीट  करने वाला कहलाता है      या वो औरत जो आधी रात में अपने पति को खाना बनाकर खिलाती है और फ़िर उससे मार खाती है। बेचारे    कालू कुत्ताजी जी को बैनेफ़िट ऑफ़ डाऊट देने की फ़िक्सिंग पहले ही हो चुकी है, इसलिये अपना जवाब इन दोनों विकल्पों तक ही सीमित रखें। वैसे मुझे मालूम है कि कोई मानने वाला है नहीं, जवाब देंगे तो अपनी मर्जी से। ठीक है यारों, जैसा मन हो वैसा जवाब दे देना, हमारी तो देखी जायेगी।

प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान एक हाई स्टेटस के प्रशिक्षु से कुछ मजेदार बतचीत हुईं, वो अगली बार। तब तक ये मस्ती भरा गाना सुन लीजिये। काका और किशोर दा, क्या कैमिस्ट्री है..

शनिवार, मई 07, 2011

बिना पतवार की नौका


  
                                                                    (गूगल से साभार)



तुम हो जैसे अथाह जलराशि,

और मैं हूँ

एक बिना पतवार की नौका।

पूरी तरह से,

तेरी मौजों के सहारे।

रहने दे मेरा वज़ूद,

या मिटा दे मुझे,

सब अख्तियार हैं तुझे।

बल्कि खुश होता हूँ हमेशा,

जब भी ऐसा सोचा कि

मुझे मिटाकर देखना कभी,

तुझमें ही खो जाऊँगा, 

औरतुझमें ही घुल जाऊँगा।

फ़िर  कैसे अलग करोगे भला?

मुझे मुझ से, मुझे खुद से......



अब ये फ़ूट ही गई है तो आलोचनाओं से डरकर मैं भी फ़ूट लेता हूँ, काहे से कि  अपना मानना है कि  आलोचना सिर्फ़ की जानी चाहिये, ली नहीं जानी चाहिये।   लौटकर देखता हूँ, आप सबको तो:)


मंगलवार, मई 03, 2011

पंगा न लै.....


पढ़ा-लिखा कुछ खास  नहीं था, शुरू से ही डील डौल वगैरह का काफ़ी अच्छा था। शरारती एक नंबर का, मारपीट जब तक एकाध बार कर न ले, खाया पिया हजम  ही नहीं होता था। शायद सातवीं या आठवीं तक स्कूल गया फ़िर कहीं किसी दुकान पर नौकर लग गया। ट्रेन से डेली पैसेंजरी करता था। आदतें आसानी से जाती  नहीं, अंदर  सीटें खाली हों  तो गेट पर लटकना और भीड़ हो तो जबरदस्ती सीट के लिये धक्कामुक्की करना उसका शगल था। जल्दी ही ट्रेन में मशहूर हो गया था,  कुछ जगह ऐसी होती हैं और कुछ बंदे ऐसे, जिनके लिये बदनामी ही मशहूरी होती  है।

समय बीतता गया,  उसकी प्रतिभा नित निखार पा रही थी। अब  उसने नया शौक पाल लिया, चलती गाड़ी में दरवाजे से हाथ बढ़ाकर टायलेट की खिड़की की सलाखें पकड़कर डिब्बे के पिछले हिस्से में पहुंचता और फ़िर दूसरे डिब्बे की खिड़की की सलाखें पकड़कर उस डिब्बे में घुस जाता। तालियाँ बजाने वालों का मनोरंजन हो रहा था मुफ़्त में, और वो खुद को हीरो समझता था। एक दिन हाथ फ़िसल गया और वो चलती गाड़ी से नीचे गिर गया। जान बच गई लेकिन एक टाँग घुटने के पास से काटनी पड़ी। वही तालियाँ बजाने वाले अब उसे बेवकूफ़ बता रहे थे।

कुछ दिन के बाद वो लाठी का सहारा लेकर चलता दिखाई दिया। स्वभाव वैसा ही, वही यारों दोस्तों के साथ धौल धप्पा और हो हल्ला। कुछ महीनों के बाद नकली पैर लगवा लिया उसने। अब बिना सहारे के भी चल लेता था, हाँ थोड़ी सी लंगड़ाहट(मौके के हिसाब से कभी कभी ज्यादा भी) जरूर बाकी थी। घरवालों ने शादी भी कर दी उसकी। दूसरे बहुत से सरकारी आँकड़ों की तरह ये लिंगानुपात वाले आँकड़े भी आज तक मेरी समझ में नहीं बैठे। बताते हैं कि हजार के पीछे आठ सौ के करीब लड़कियाँ हैं यानि उस हिसाब से लगभग हर पांचवा आदमी कुँवारा रहना चाहिये जबकि मुझे शायद ही कोई लड़का ऐसा दिखता हो जो लड़की के अभाव में कुँवारा रह गया हो। दूर क्यों जाया जाये, मुझ जैसे तक को(थोड़ा कन्फ़्यूज़न है, ही लिखा जायेगा या भी?) गौरवर्णीय, सुंदर, सुशील और गृहकार्य में दक्ष, जैसी कि हर भारतीय विवाहयोग्य कन्या होती ही है, मिल गईं:))  गरज ये कि कैसा भी बंदा हो, उसके लिये ऊपर वाले ने कहीं न कहीं कोई उसका जोड़ बना ही रखा है तो जी हमारा हीरो भी अब तक शादीशुदा हो गया था। जल्दी ही राशनकार्ड में तीन नाम और जुड़ गये।

भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ,   हमारे भारत में परंपरा चली आ रही है कि जो कुछ न करता हो उसका ब्याह कर दो कुछ तो करता रहेगा स्साला, कुछ तो करेगा:)  जो किसी काम में लगे हुये हैं वे बेशक कुँआरे रह जायें, जैसे हमारे राहुल बाबा बेचारे जनसेवा में लगे हैं तो अब तक…, लेकिन जिसके पास कोई काम नहीं, वे सब खूँटे से बांध दिये जाते हैं। दरअसल हँसते-खेलते, आजाद किस्म के लोगों को देखकर इन चीजों को खो चुके लोगों को बड़ी टीस उठती होगी कि हमारी आजादी छिन गई और ये है कि अब तक सर उठाकर घूम रहा है। शुभचिंतक होने का ड्रामा सा रचकर उम्रकैद दिलवाकर ही मानते हैं। यकीन न हो तो किसी शादी में देख लीजिये, दूल्हा बेचारा कसा बंधा सा कसमसाता रहता है और दूसरे नाच नाच कर खुशियां  मनाते हैं। ये खुशी वैसी ही होती है जैसे अपनी कालोनी की लाईट गायब होने के बाद पड़ौसी कालोनी की जलती बत्तियों को हसरत भरी निगाह से देखने के बाद उन्हें भी गुल होते देखकर हमें अतुलनीय खुशी का अहसास होता है। शेरवानी, सेहरा इत्यादि इत्यादि पहनाकर दूल्हे को सजाया नहीं जाता बल्कि मार्निंग शो में प्रिंसीपल साहब के द्वारा छापा मारकर स्कूल के बच्चों को यूनीफ़ोर्म के जरिये पहचानने वाली बात से इसे जोड़ा जा सकता है। ऐन वक्त पर अगर दूल्हा भागने की कोशिश करे तो भीड़ में अलग से पहचान लिया जाये, इसीलिये ये सब नौटंकी की जाती है।

फ़िर से बहक गया मैं,  हीरो की शादी भी हो गई और घर बच्चों से गुलजार भी हो गया। परिवार बढ़ा तो जिम्मेदारियां भी बढ़ीं। श्रीमानजी ने अब कुछ कमाई वगैरह करने की सोची और जल्दी ही फ़ाईनैंस का धंधा शुरू कर दिया। भारत सरकार ने तो अब financial inclusion जैसे काम शुरू किये हैं, हमारे ये मित्र अरसा पहले से ’जिसका कोई नहीं, उसका तो खुदा है यारो’ की स्टाईल में खुदाई दिखा रहे हैं। नजदीक ही एक सब्जी मंडी उनका कार्यक्षेत्र है, गरीब(तर) लोगों को पांच हजार देते हैं और दो महीने तक सौ रुपया रोज की किस्त। हिसाब सीधा है लेकिन ब्याज की दर निकालना इतना सीधा नहीं क्योंकि जिन दस बीस लोगों से उनका व्यवहार है, उनके यहाँ से पैसों के अलावा फ़ल, सब्जी वगैरह प्यार मोहब्बत में ले ही ली जाती है। शाम को जब रिक्शा में बैठकर घर लौटता है तो जेब नोटों से और रिक्शा दस बारह थैलियों से भरी होती है। हालचाल पूछने पर ऊपर वाले का शुक्रिया देते हैं और नम्रता से बताते हैं कि गरीबों की मदद करते हैं तो उनकी दुआयें काम आ ही जाती हैं।

आदत मेरी भी खराब है, जो बात कोई खुद से बता दे उसपर बेशक ध्यान न जाये लेकिन जो पर्दे में है वहां ताक झांक जरूर करनी है। खलनायक फ़िल्म  का  गाना याद आ रहा है, ’नायक नहीं…’ वाला।    कहीं उल्टा सीधा सोचने लगो सब,  हमारे जयपुर नरेश तो जरूर इसमें भी कोई प्वाईंट ढूंढ लेंगे, अगर इसे पढ़ा तो।    कित्ती खराब सोच है यार तुम्हारी, छवि मेरी खराब करते हो:)    तो एक शाम मैंने अपने दोस्तों से  जानना चाहा कि यार सरकारी बैंकों को तो अपने ऋण वसूलने में इतनी दिक्कत आती है और ये बंदा कई गुना ज्यादा की दर पर कैसे कारोबार चला रहा है? जवाब में पहले तो बैंकों की कार्यप्रणाली की माँ-बहन एक की गई फ़िर हमारे हीरो की कार्यप्रणाली की तारीफ़ें की गईं। मालूम चला कि दिक्कतें तो उसे भी आती हैं लेकिन उनसे निपटने के उसके फ़ार्मूले भी अलग हैं। हर लोन का जमानती तो होता ही है, इसके अलावा इस  धंधे में   आदमी का थोड़ा सा रफ़-टफ़ होना भी लाजिमी है। जरूरत पड़ने पर डिफ़ाल्टिंग पार्टी से गाली-गलौज करना पड़ता है। कई बार मार पीट भी करनी पड़ती है। मेरी शंकायें बढ़ने लगीं थी। माना कि ये इस लाईन में शुरू से है, डील डौल भी अच्छा है लेकिन कभी सामने वाला भारी पड़ जाये तो?  अब तो ये बेचारा भाग भी नहीं सकता, एक टांग नकली है उसकी। या फ़िर  बात चौकी-थाने पर पहुंच जाये तो? बताया गया  कि ऐसी स्थिति में नकली टांग ही तो उसका ट्रंप कार्ड बन जाती है। जब तक खुद हावी है तब तक तो कोई दिक्कत है ही नहीं, जब खुद पर बात आये तो पुलिस के आने से पहले उसकी लकड़ी वाली टांग उसके हाथ में आ जाती है। सी.एम.ओ. द्वारा जारी विकलांगता सर्टिफ़िकेट और  पहचान पत्र हमेशा पास रहते ही हैं। दुहाई दे देता है, “आप ही करो जी फ़ैसला, मैं हैंडिकैप्ड आदमी हूँ। एक कदम बेख्याली में रखा जाये तो मेरी टाँग निकल जाती है, मैं क्या खाकर इस ’रेमंड्स’  से लड़ूंगा?”

मैंने तो उसे हमेशा ही हँसते, खिलखिलाते देखा है लेकिन सुना है कि मौका देखकर आँसू भी निकल जाते हैं उसके। फ़िर पुलिस वाले बेचारे भी उसे क्यों मेहमान बनायेंगे, उससे तो कुछ हासिल होना नहीं। उल्टे उसकी सेवा पानी करनी पड़ेगी, नहीं तो रिक्शा मौका-ए-वारदात से थाने की तरफ़ और जरूरत पड़ने पर एसीपी ओफ़िस, डीसीपी ओफ़िस, हैडक्वार्टर की तरफ़। रास्ते सब मालूम हैं उसे, ये भी और वो भी, आर.टी.आई, समाज कल्याण विभाग, मानवाधिकार  वगैरह-वगैरह। मैंने कहा, फ़िर तो गनीमत है कि ये अल्पसंख्यक वर्ग से नहीं है, वरना एक और प्वाईंट जुड़ जाता उसके हक में।

तो मित्रों, आज के प्रवचन से ये शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि अपनी खामियों, कमजोरियों, दुखों, तकलीफ़ों को सही अवसर पर इस्तेमाल करने वाला  प्राय: कामयाब होता है, जितना ज्यादा दुखी दिखाई दे सकने की कला में निपुण होगा, वह भीतर से उतना ही सुखी होगा। जिस तरह आजकल चैन में लगा परिचय-पत्र गले में टांगकर जेब में रखा जाता है और वक्त जरूरत  दिखाकर अपना कार्य सिद्ध किया जाता है, इसी भाँति अपनी वास्तविक, काल्पनिक तकलीफ़ों का सर्टिफ़िकेट हमेशा अपने साथ रखें और मौके पर उसका प्रदर्शन करके चिरकाल तक अनंत सुख के भागी हों। सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु ........

p.s. - एक बिटिया की तरफ़ से एक शिकायत दर्ज हुई थी, उसके पापा कहते तो  न भी  मानता लेकिन बिटिया का  कहना  है तो  सर-माथे पर:)  आशा है, अब ठीक लग रहा होगा।  दोबारा कुछ कहना हो तो पापा को बीच में डालने की बजाय सीधे दो लाईनें मेल कर देना।  मुझ लापरवाह को  जिम्मेवारी का अहसास करवाने के लिये शुक्रिया।

http://youtu.be/zmzSnJmB7QQ

मंगलवार, अप्रैल 26, 2011

हम चिल्ल हो चुके सनम(some lighter moments)...


पिछले बहुत समय से  कोई फ़िल्म नहीं देखी। एक तो टिकट बहुत महंगी है, अकेले जायें तो परिवार वालों के साथ अन्याय लगता है और  बारात साथ लेकर जायें तो जेब के साथ अन्याय लगता है।    दूसरे तीन घंटे तक बैठकर अपनी आंखे खराब करो और फ़िर अब तो हर बात पर टिप्पणी की आदत  जो पड़ गई है, यह भी इसकी जिम्मेदार है। अब हम तो ठहरे ऐंवे से ही वेल्ले आदमी, टिप्पणी  कर भी देंगे लेकिन ये हीरोईन  खाली थोड़े ही हैं जो जवाब  वगैरह देंगी या और कुछ नहीं तो धन्यवाद ही दे देंगी। ऐसा वनवे ट्रैफ़िक प्यार-मोहब्बत में तो बेशक चला लिया होगा लेकिन हर जगह ऐसे करने लगे तो अपनी कंपनी और भी घाटे में चली जायेगी।

लेकिन बकरे का अब्बा कब तक खैर मनाता, इबके वाले वीकेंड में आ ही गया छुरी के तले। दोस्त के यहाँ गया तो  टीवी में आ रही थी ’हम दिल दे चुके सनम’   नाम काफ़ी सुन रखा था और फ़िर टाईटिल से लगा कि अपने ही किसी भाई-बंधु की कथा होगी। बैठ ही गये देखने। अज्जू भैया, सल्लू मियां जैसे एक्शन हीरो और ऐश्वर्या जैसी ग्लैमरस हीरोईन,  लड्डू पे लड्डू फ़ूट रहे थे जी हमारी खोपड़ी में। लेकिन  धोखा हो गया  हमारे साथ, भंसाली जी ने  बताया कुछ और दिखाया कुछ और।  कोई एक्शन नहीं, लेकिन  फ़िल्म ने  बांधे रखा।

फ़िल्म तो सबने देख ही रखी होगी जिन्होंने नहीं देखी तो कुछ सोचकर ही नहीं देखी होगी:)  अपन कोई समीक्षा वमीक्षा नहीं करने वाले। अपन तो बतायेंगे कि बाद में क्या चर्चा हुई। फ़िल्म के बाद सभी   ने  अजय देवगण के रोल की जमकर तारीफ़ की। नारी स्वतंत्रता का सम्मान करने वाले युवक की भूमिका में अभिनय तो वाकई अच्छा था। अब जब सब तारीफ़ कर रहे थे तो हम भी तारीफ़ कर देते तो  मजा नहीं आना था। अपनी छवि के प्रति बहुत जागरूक रहने के कारण  जरूरी था कि  थोड़ा हटकर बात की जाये। लिहाजा हमने तो कहा कि एक नंबर का बुद्धू था हीरो। सुनते ही सारे he &  she हमारी सोच को  ’छि छि’ बोलने लगे। घटिया मानसिकता,  पुरुषवादी,  परंपरावादी, रूढिवादी, लकीर के फ़कीर आदि जितनी तारीफ़ हो सकती थी, की गई। देश के विकास न करने के पीछे,  बढ़ती गरीबी,  जनसंख्या, अपराध यहाँ तक कि भ्रष्टाचार बढ़ने तक का जिम्मेदार हमें और हमारी सोच को बताया गया। तब तक महिलायें महिला-कोच, सॉरी किचन में चली गई और यारों ने 8 P.M. की घोषणा कर दी।

लोकतंत्र में रहते हैं, जीतेगा वही  जिसके वोट  ज्यादा होंगे(वैसे भी पीने के बाद सारे खुद को नेता\अभिनेता समझते हैं और इतने सारे देवदासों के सामने मैं अकेला लस्सीटोटलर क्या झगड़ा करता?) लेकिन अपनी राय रखने का हक तो सबको है।  यूँ  भी ’बोर्न टु बी डिफ़ीटेड’ का कापीराईट होने के कारण हारकर अपने को तसल्ली ही होती है कि  कोई अपना ही तो जीता है।  जब अपनों की  तरकश के सब तीर खाली हो गये, पूछा कि और पीनी है? एक बोला, “बस्स, हम  chill हो चुके सनम।” उड़ा लो बेट्टे मेरा मजाक, देख लेंगे तुम्हें भी कभी:) 

तो जी, फ़िर हमने भी अपना पक्ष सामने रखा। “मैंने कब कहा कि उसे अपनी बीबी को उसके पहले प्रेमी के पास छोड़ने नहीं जाना चाहिये था? मैंने तो उसे बुद्धू बताया है। उसका फ़ैसला बिल्कुल सही था, जब मन ही न मिलें तो यही फ़ैसला ठीक था। बुद्धू तो उसे इसलिये कहा कि इतना बड़ा काम  करने गया था,  तो पूरा करके आना था। हम लोग सरकारी खर्चे पर कहीं ट्रेनिंग या सरकारी काम पर जाते हैं तो घूमना फ़िरना वगैरह तो होता ही  है वो तो खैर उसने भी कर लिया। लेकिन लौटकर जिस काम से गये थे, उसकी स्टेटस रिपोर्ट तो संतोषजनक होनी चाहिये थी। अबे बुधू, गया भी और ऐन मौके पर अगली के दिल और दिमाग ने क्या पलटा खाया कि समीर को बोल दिया ’ना जी’   इधर बोल दिया ’हां जी’ और तुम सारे कर रहे हो ’वाह-जी।’  अबे इतनी मुश्किल से ऐसा सुनहरा मौका हाथ आया था  और इसने फ़िर से वही वाला माडल अपने गले बांध लिया।  इससे तो ’अग्निसाक्षी’  वाला नाना पाटेकर सही था,  बरबाद हो गया लेकिन अपनी बात से नहीं टला। दारू तुम्हारे हाथ में है, झूठ मत बोलना।  तुम सब बताओ अगर उसकी जगह होते तो क्या करते? चलो, मैं ही बताता हूँ, मैं होता तो पहले तो उसे  भला-बुरा समझाता, न मानती तो उसका हाथ थमाता  उसके मन के मीत के हाथ में,  हाथ मिलाता और गुडलक विश करके   अपना कोट अपने कंधे पर टांग कर वापिस आ जाता। चलो, अब बारी बारी से बताओ कि तुम क्या करते?”

किचन साथ ही थी, सबने सहमकर उधर देखा और एक कहने लगा, “बना यार एक एक पटियाला और, स्साली सारी उतर गई।”

गीत के बारे में तो saddest और sweetest का रिश्ता मालूम है, कम से कम अंग्रेजी गीतों के बारे में लेकिन हँसी मजाक वाली बात में ये saddest और sweetest पता नहीं सही है या नहीं:))
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आज सुनवाते हैं आपको एक पुराना पंजाबी गीत। बोल बेशक अच्छे से न समझ आयें, अपने को पसंद आया था पहली बार ही। आज के युग के honour killing से इसका कोई वास्ता नहीं, बहुत पुराना गीत है अंग्रेजों के समय का।    इस गीत में जो बात कही गई है वह है ’सुच्चा सिंह फ़ौजी’  और उसके पगड़ीबदल दोस्त ’घुक्कर’ और ’मल्ल’ के बारे में।  मल्ल की मदद से घुक्कर ने सुच्चा सिंह के भाई नारायण सिंह की बीबी ’बीरो’ पर बुरी नजर रखी और फ़िर क्या हुआ? सुनिये ’खाड़ा लगया होया सी’   (’खाड़ा’ से मतलब है आल्हा या सांग टाईप का संगीतमय आयोजन)।
http://youtu.be/fTvwlysqkMI

बुधवार, अप्रैल 20, 2011

शिकार - एक लघुकथा

                                                           (चित्र  flickr.com से साभार)                                                                                                        

धम्म से कुछ गिरने की आवाज आई और उसकी नींद खुल गई। आवाज इतनी तेज नहीं थी लेकिन शरीर इस कदर थका हुआ था कि वो हल्की सी आवाज भी ऐसी लगी जैसे एकदम कानों के पास किसी ने बम फ़ोड़ा हो। दो दिन और दो रात लगातार जागने से आंखें मानो जल रही थीं। दीवार पर टंगी घड़ी देखी तो देखा  आँख लगे अभी चालीस मिनट ही हुये थे। दीवार पर थोड़ा ऊपर की तरफ़ एक छिपकली दम साधे अपने शिकार को एकटक देख रही थी। 

पद्मा  दीवार के पास हक्की-बक्की सी खड़ी थी। उसे जाग चुका देखकर बोली, “साहब जी, देखना जरा ये।” आवाज में घबराहट थी। उठकर जाना पड़ा वहाँ तक। सोने से पहले मोबाईल चार्जिंग पर लगाया था, अब देखा तो मालूम चला कि जरूर फ़ोन पद्मा के हाथ से गिरा है, स्क्रीन तो नहीं टूटी थी लेकिन बॉडी के अंजर-पंजर खुल गये थे। चार्जर जरूर टूट गया था। सिर्फ़ देखा था पद्मा की तरफ़ और वो जैसे रोने को हो आई थी।  ’साहब जी, हम तो झाड़ू लगा रहे थे कि ये गिर गया। गलती हो गई हमसे।” कहते कहते आँखें भर आई थी। 

चार्जर को सॉकेट से निकालकर दोनों चीज लेकर वो फ़िर से बिस्तर पर आ गया। दिमाग और खराब होने लगा था। एक बार तो सोचा कि जो होना था हो गया, पहले नींद पूरी की जाये उसके बाद देखेंगे लेकिन धड़कन से भी ज्यादा जरूरी हो चुके फ़ोन को चैक करना भी जरूरी था। इधर फ़ोन की बॉडी को फ़िर से खोलना- जोड़ना जारी था और उधर पद्मा की गैरजरूरी सफ़ाईयां जारी थीं। दीवार पर शिकारी और शिकार थोड़ा और नजदीक आ चुके थे। छिपकली के शरीर में कोई हरकत नहीं थी, शायद मानसिक रूप से खुद को और तैयार किया जा रहा था और बेचारा शिकार उसे मुर्दा समझने की गफ़लत पाल चुका था।

’साहब जी, ज्यादा  नुसकान हो गया?’  रुआँसी  पद्मा ने फ़िर पूछा।  होता पहले वाला समय तो नुसकान और नुकसान का फ़र्क बताने बैठ जाता वो लेकिन आज चुप रहा। पता नहीं शरीर की थकान ज्यादा थकाती है या मन की थकान?  “कोई बात नहीं, जानबूझकर थोड़े ही किया है तुमने। और अब रोने से क्या हो जायेगा?” मन ही मन सोचने लगा कि  फ़ोन तो बच गया, शुक्र है। चार्जर जरूर नया लेना पड़ेगा। वो और पास आ गई और हाथ जोड़कर कहने लगी, “हमें माफ़ कर दीजिये, जितना भी नुसकान हुआ है,  हम हर महीने कटवा देंगे उसके पैसे।” दीवार पर देखा तो लगा कि  शिकार जैसे आज खुद  कुर्बान होने पर आमादा हो। 

कई साल हो गये हैं पद्मा को उनके घर काम करते हुये, कभी शिकायत का मौका नहीं दिया है उसने। “जाने दो, जो हो गया सो हो गया।” कहकर वो दूसरी तरफ़ मुँह करके सोने की कोशिश करने लगा।  “नहीं साहब जी, आपने पहले भी मेरे लिये बहुत किया है। मुझे सजा मिलनी ही चाहिये।”   पद्मा ने उसकी बाजू छूकर कहा। पता नहीं क्या हुआ उसे, वो एकदम से पलटा। उधर दीवार पर भी छिपकली और शिकार अपना अपना धर्म निभा रहे थे। एक फ़ना हो रहा था और दूसरे की क्षुधापूर्ति  हो रही थी।

बुधवार, अप्रैल 13, 2011

काश कभी यूँ भी हो.... A monologue


मैंने कभी दो दिन भी बालों में तेल नहीं लगाया तो कितना गुस्सा आता था तुम्हें? मैं छेड़ता था तुम्हें जानबूझकर कि मुझे अपने चिपचिपे बाल नहीं अच्छे लगते और तुम्हारा कहना था कि मैं कौन होता हूँ इस बारे में फ़ैसला करने वाला। कितना मन होता था तुम्हारा कि अपनी गोद में मेरा सर रखकर मेरे सर की मालिश करो।       पिछली सर्दियों में नारियल के तेल में डालने के लिये camphor  की टिकिया लेकर आया था। रैपर भी खोल दिया फ़िर देखा कि तेल जमा हुआ है। फ़िर कभी डाल देंगे, ऐसा सोचकर वो टिकिया ऐसे ही रख छोड़ी थी। अभी शिफ़्टिंग करते हुये जब सामान समेट रहा था तो अलमारी खोलने पर एक  भीनी सी खुशबू आई तो सब याद आ गया। पदारथ गायब हो चुका था, एक हल्की सी खुशबू बाकी थी। अलमारी कुछ देर खुली रही तो वो खुशबू भी हवाओं में गुम हो गई।

आजकल आँखों में नींद भरी रहती है। कभी  ऐसा समां था कि दिन में भी आँखों में ख्वाब  तैरते रहते थे  और अब रातों के ख्वाब भी ख्वाब सरीखे हो गये हैं। पहले  सोते हुये भी मानो जगा रहता था मैं और अब जैसे जागते में भी हरदम सोया रहता हूँ।    कल तक तो लगता था कि अभी उम्र ही क्या है? और अब लगने लगा है कि अब रहा ही क्या है? बैकुंठ का एक पल, इस धरती के जाने कितने युगों के बराबर होता है, ऐसा सुना था। लेकिन इस धरती पर  भी कभी तो युग भी पलों के बराबर लगते  थे और अब पल भी युगों में बदल गये हैं।

कभी ऐसा भी हो कि हमेशा की तरह सुबह सूरज निकले, पंछी चहचहायें, बच्चे स्कूल के लिये और बड़े अपनी रोजी रोटी की दौड़ के लिये निकल पड़ें।  रसोई से कुछ बनने की आवाज और मसालों की महक एक दूसरे से होड़ ले रही हों, ट्रैफ़िक की चिल्ल-पों हमेशा की तरह बदस्तूर अपने होने की आपाधापी का अहसास करवा रही हो। सब किसी न किसी काम में, सोच में व्यस्त हों। काश कभी ऐसा हो कि  किसी को भनक भी न लगे और मैं यहाँ से हटकर वहीं चला जाऊँ, उसी वीरान दुनिया में।  यूँ भी बहुत भीड़ है  यहाँ। जितने जाने पहचाने लोग, उतने ही अनजाने अनचीन्हे लोग,    मशहूरी और तरक्की के लिये तरसते, बरसते, दमकते, बमकते लोग।  एक दूसरे को धकियाते, गरियाते. लतियाते लोग।

काश  ऐसा   हो कि सब जरूरी वाले काम निबटाकर तुम आओ,  दरवाजा खोलो और यकायक ठिठकना पढ़ जाये तुम्हें। एक भीनी सी महक तुम्हारे अंदर तक समा जाये, फ़िर शायद  तुम्हें भी एकदम से याद आयेगा कि कभी कुछ रख छोड़ा था तुमने और फ़िर ध्यान नहीं रहा था। रोशनी की दुनिया से आना होगा न तुम्हारा, एकदम अंधेरे में आकर तुम्हें ऐसा लगे  कि जो पदारथ था, वो तो गायब हो चुका है, बस यही खुशबू है जो बची है। गहरी साँसों में समेटना होगे इसे ही, जितनी समेटी जाये क्योंकि दरवाजा खुला रहा तो ये भी हवाओं में घुल ही जायेगी। बस इतना और जान लेना कि  ये खुशबू तुम्हारी ही थी,  तुमसे ही थी। बहुत आँसू बहाने का शौक है ना तुम्हें? जी भर के रोना फ़िर  और उसके बाद  एकदम से दरवाजे के पीछे छुपा हुआ मैं सामने आकर तुम्हें हैरान कर दूँगा। हँसूंगा उस दिन जोरों से और तुम्हारे आँसू फ़िर बहने लगेंगे लेकिन तासीर कुछ और होगी उन आँसुओं की, कुछ और ही होगी।

काश ऐसा हो कभी कि ये दुनिया यूँ ही चलती रहे, सुबह शाम, दिन रात और ….और यूँ ही बरसात भिगोती रहे.




शनिवार, अप्रैल 09, 2011

ऑफ़िस-ऑफ़िस


बैंक की वार्षिक लेखाबंदी, पेंशन वितरण, ऑडिट आदि आदि के चलते मुश्किल से दो दिन की छुट्टी का जुगाड़ हो पाया था। सोमवार को ड्यूटी करके रात भर बस में जागकर सुबह दिल्ली पहुँचा। नहा धोकर नाश्ता किया और जिस स्कूल में बच्चों के एडमिशन की बात पहले से कर(वा) रखी थी, वहाँ पहुंच गया। प्रिंसीपल महोदया से मिलने का सुयोग जब तक मिला, बारह बज चुके थे। परिचय देकर जब मिलने का मकसद बताया तो उन्होंने कहा कि छोटे बेटे का टैस्ट ले लेते हैं लेकिन बड़ा जोकि दसवीं कक्षा में आया है, उसका दाखिला मुश्किल है। सी.बी.एस.ई. बोर्ड के तहत अब दसवीं कक्षा में एडमीशन देने के लिये बहुत सी औपचारिकतायें हैं और बहुत दिक्कत आती है। सारा केस उन्हें फ़िर से बताया तो वे कन्विन्स तो हो गईं कि आपका जेनुईन मामला है, लेकिन वही बात कि सी.बी.एस.ई. से अनुमति आपको खुद ही लेकर आनी होगी। थोड़ा इंतजार कीजिये, दो बजे स्कूल के मैनेजर कम डायरेक्टर साहब आते हैं, उनसे बात कर लीजिये। साथ ही उन्होंने आश्वासन दिया कि जितनी मदद हो सकेगी वे करेंगी। मैनेजर साहब आये, फ़िर से वही सारी कहानी दोहराई गई और इस बार मैंने खुद ही कहा कि सी.बी.एस.ई. वाली अनुमति की जिम्मेदारी मेरी। तब इधर से भी हरी झंडी मिल गई। मैनेजर साहब ने  बताया कि एक एफ़िडेविट भी देना होगा जिसमें तमाम तरह के डेक्लेरेशन रहेंगे, एफ़िडेविट तैयार करवाकर स्कूल में लाकर दिखा दिया जाये तो वो इस आशय का एक पत्र सी.बी.एस.ई. को एड्रेस करके स्कूल के लैटर हैड पर बनवाकर दे देंगे। अगले दिन एक बजे का समय तय हो गया।   इस बीच छोटे वाले का टैस्ट भी हो चुका था। समय हो चुका था तीन, सुबह से बच्चे भी भूखे थे और जिसके माध्यम से स्कूल में बात चल रही थी, वो सज्जन भी सुबह से ही हमारे साथ थे, बोले तो जैसे हम भूखे वैसे हमारे मेहमान भी भूखे।  आधी जंग जीतकर बुद्धू पार्टी घर को लौट आई। एम.बी.बी.एस. के अकेले अकेले फ़ोटू भी एडमीशन फ़ार्म पर लगाने को  चाहिये थे। शाम को ये आयोजन भी संपन्न हुआ।  अथ श्री प्रथम दिवसे कथा।

दूसरे दिन एफ़िडेविट तैयार करवाकर निश्चित समय यानि एक बजे से पहले ही स्कूल पहुंचे। एफ़िडेविट से संतुष्ट होकर प्रिंसीपल साहिबा ने फ़ारवर्डिंग लैटर तैयार करवा दिया। टाईपिस्ट महोदय ने लैटर टाईप किया, हमने प्रूफ़ जाँचा। दूसरे के दोष पकड़ने के माहिर होने की विशेषता के चलते(थैंक्स टु सो मैनी यंगर ब्लॉगर्स) वो साधारण सा लैटर तीसरी बार में जाकर ओके हुआ। अटकते भटकते सी.बी.एस.ई. कार्यालय पहुंचे। डीलिंग सीट पर जाकर नमस्ते की तो साहब ने ऊपर से नीचे देखा, पहले मुझे फ़िर चिट्ठी को। पहला ओब्जैक्शन आया कि साथ में पिछली कक्षा की मार्कशीट और ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट की अटैस्टेड फ़ोटोकापी लगानी थी जबकि मैंने स्कूल के कहे अनुसार ओरिजिनल लगा दी थी। दरयाफ़्त करने पर पता चला कि जिस स्कूल में एडमीशन करवाना है, वही अटैस्ट करेंगे। मैंने पूछा कि अटैस्टेड का क्या मतलब होता है?  जवाब मिला कि अटैस्टेड का मतलब है कि ये असली की ही फ़ोटोकापी है। मैंने अपना पक्ष रखा कि जब स्कूल के लैटर हैड पर उन्होंने संलग्न कागजों में इसका विवरण दे दिया है फ़िर अटैस्टेड की क्या जरूरत रही? और फ़िर मैं तो उसके बदले में आपको ओरिजिनल ही दे रहा हूँ।  नियमों से बंधे बाबू साहब ने दलील दी कि ओरिजिनल की आपको जरूरत पड़ेगी। 
मैंने पूछा, “कहां जरूरत पड़ेगी? ये देखकर अगर इन्हें नौकरी मिलती हो तो फ़िर मैं एडमीशन नहीं करवाता।”  
बाबू साहब उवाच, “भाई साहब, आप मजाक कर रहे हैं? नवीं क्लास की मार्कशीट के आधार पर चौदह साल के बच्चे को नौकरी मिल जायेगी क्या?”  
मैंने कहा, “श्रीमान जी, मजाक तो आप कर रहे हैं। मैं आपको ओरिजिनल देने को तैयार हूँ और आप हैं कि अटैस्टेड फ़ोटोकापी की जिद कर रहे हैं।” 
उन्होंने किसी नियम का हवाला दिया कि वहाँ ऐसा ही लिखा है। मैंने कहा कि मैं भी एक जगह नौकरी करता हूँ, आप जैसी रौब वाली जगह तो नहीं है, लेकिन फ़िर भी कुछ चीजें डीलिंग हैंड के विवेकाधीन होती हैं। अगर आप मेरी बात से कन्विंस नहीं हैं तो अलग बात है, लेकिन अगर आपको मेरी बात ठीक लगती है तो कुछ पुनर्विचार करें। गलती से ये भी बता दिया कि अटैस्ट करवाने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन बात कम से कम कल तक जायेगी और मुझे आज रात वापिस लौटना है।  टिप्पणियां पाने के चक्कर में चमचागिरी करनी आ गई है, ये कला वहाँ काम आ गई। दो तीन बार सर सर बोला उन्हें, साहब थोड़े से फ़ूल गये और कहने लगे कि मैडम से पूछकर आता हूँ। मैंने और चढ़ाया, "भाई साहब आप भी वड्डी सरकार से कम नहीं हो वैसे:)" 

खैर, वो हाईकमान से केस डिस्कस करके आये और अहसान कर दिया मुझपर। “वैसे तो नियम एकदम स्पष्ट हैं, लेकिन आपका केस जेनुईन है इसलिये हम ओरिजिनल मार्कशीट और ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट से काम चला लेंगे। कल से बच्चे को स्कूल भेज दीजिये, परमीशन आठ दस दिन में स्कूल में पहुंच जायेगी।”  नतमस्तक होकर, आभारी होकर, अनुग्रहीत होकर लौटकर घर आया तो लंच और डिनर के बीच का समय हो चुका था। फ़िर रात में वापिस भी लौटना था, अगले दिन से ब्रांच में आडिट होना था और हम बैंक वाले वैसे भी बहुत बदनाम हैं कि काम धाम कुछ करते नहीं और तन्ख्वाह सबसे ज्यादा और सबसे पहले लेते हैं। 

उससे अगले दिन जब छोटा भाई बच्चों के एडमिशन करवाने स्कूल गया तो पता चला कि सी.बी.एस.ई. कार्यालय से स्कूल में फ़ोन आ चुका है कि ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट पर पुराने स्कूल के इंस्पैक्टर के काऊंटरसिग्नेचर भी चाहिये थे, वो नहीं हैं। वो बेचारा सारा दिन अपने काम का हरजा करके स्कूल, सी.बी.एस.ई. की नई बिल्डिंग और पुरानी बिल्डिंग, सीट दर सीट चक्कर काटता रहा। दो तीन बार मैंने डीलिंग हैंड से फ़ोन पर बात की और शाम तक जाकर इंस्पैक्टर के काऊंटरसिग्नेचर  की कोई वैकल्पिक व्यवस्था हो सकी। एक बार फ़िर से बच्चे को स्कूल भेजने की  आज्ञा मिल गई है, लिखित परमीशन में अभी समय लगेगा। 

बिना फ़ीस और विविध शुल्क लिये स्कूल वाले बच्चे को क्यों पढ़ायेंगे और पैसे जमा करवा देने के बाद फ़िर से कहीं कोई कोमा, बिन्दु या रेखा या कोई और ऐसा वैसा ओब्जैक्शन लग गया तो?    मेरा काम करने के लिये तो मेरा छोटा भाई है, जो अपना काम छोड़कर भी इधर से उधर धक्के खा लेगा लेकिन जिन बच्चों के पास ऐसे चाचा, मामा नहीं हैं उनका इन सब बातों में क्या कुसूर है? और बहुत सी बातें हैं, बोर्ड की परीक्षा तो वैकल्पिक हो गई, लेकिन किसी क्लास में एडमिशन के लिये परीक्षा जरूर ली जायेगी। ईश्वर न करे  जिस घर में हालात बहुत अच्छे न हों, उस घर के बच्चों को पढ़ने का भी हक शायद नहीं मिलना चाहिये। पढ़ जायेगा तो आने वाले समय में नौकरी की भी अपेक्षा कर सकता है। ये सब सवाल तो तब उमड़ रहे हैं जब एक बहुत हाई फ़ाई स्कूल की बात नहीं हो रही। और सौभाग्य से जिनसे भी वास्ता पड़ा है, स्कूल प्रबंधन हो या सी.बी.एस.ई. कार्यालय,  वो अपेक्षाकृत सहयोग ही करते दिख रहे हैं। लेकिन कुछ सुविधा शुल्क अभी तक उन्होंने लिया नहीं है, सो दिल है कि मानता नहीं कि काम हो जायेगा। 

हर ऑफ़िस आज के समय में कम्प्यूटरीकृत है, कोई ओब्जैक्शन लगानी हो तो कहीं से भी निकल कर सामने आ जायेगी, अगर किसी कागज की या रिकार्ड की सत्यता जांचनी है तो ऑनलाईन रिकार्ड का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता?  मेरे घर का हाऊसटैक्स रैगुलर भरा जा रहा है।  जो नहीं भरते उन्हें अभी तक नहीं पूछा गया लेकिन मेरे यहाँ नोटिस आया रखा है कि सन 2006-2010 का हाऊसटैक्स असैसमेंट और कर भुगतान मैंने नहीं किया है। दस दिन के अंदर प्राधिकृत अधिकारी के समक्ष उपस्थित हो जाऊँ नहीं तो ……। यदि भर रखा है तो सभी कागज लेकर जाऊँ कि हां जी, मैंने गुनाह किया है जो आपके कहे अनुसार टैक्स भर दिया था और ये रहे सुबूत।  किसी जमाने में जब मेरे दादालोग संयुक्त परिवार के रूप में रहते थे और फ़िर मेरे दादाजी के भाई अपने हिस्से की जमीन बेचकर कहीं और चले गये थे,   बिजली का एक कमर्शियल मीटर  जो कि मेरे दादाजी  के नाम था, हमारे हिस्से आया। दसियों साल उसका मिनिमम बिल भरने के बाद जब उसे उतरवाना चाहा तो द्स हजार सुविधा शुल्क मांगा गया था। मीटर उतरवाने के लिये दस हजार?   जवाब मिला था कि नहीं तो भरते रहिये तमाम उम्र इस हाथी का बिल।

मेरी आदम प्रवृत्तियाँ जोर मार रही हैं, सभ्यता के ढोंग में जीने की बजाय खुले आम जंगल का कानून नहीं  लागू होना चाहिये? इन स्थितियों से आदर्श स्थिति वही नहीं थी क्या.? कम से कम मालूम तो रहता था कि जीने  के लिये कितनी तरद्दुद करनी है। अभी की तरह एक भ्रम की स्थिति में तो नहीं थे हम कि हम एक सभ्य समाज हैं। सवालों के जवाब नहीं हैं, हर जवाब के सौ सवाल जरूर मिल जायेंगे। फ़िलहाल तो आज का जो हॉट टापिक चल रहा है उसी के बारे में सोच रहा हूँ, ’अन्ना की जन लोकपाल बिल की मांग मान लेने पर सब ठीक हो जायेगा न?’ ज्ञान-ध्यान की बातें अब मुझे ज्यादा समझ भी नहीं आती और मैं समझना चाहता भी नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि  सबको शिक्षा का अधिकार का कानून, रोजगार की स्वतंत्रता का कानून, बाल श्रम कानून, सार्वजनिक स्थानों पर  धुम्रपान निषेधक कानून, दहेज विरोधी अध्यादेश वगैरह वगैरह  शायद पहले से अस्तित्व में हैं और इनके कागजों में विद्यमान होने मात्र से समर्थ लोगों की रूह काँप उठती है इसीलिये ऐसे अपराध और इन कानूनों के अनुपालन में होने वाली चूकें अब शायद नहीं ही होती होंगी। 

सुन रहे हैं कि अन्ना की मुहिम को जबरदस्त समर्थन मिल रहा है, हमारी तरफ़ से  भी शुभकामनायें। शायद आई.पी.एल. वाले तो घाटे में रहेंगे इस बार, काहे कि अन्ना ने सारा फ़ोकस हाईजैक कर लिया दिखता है। पी.वी.आर., शापिंग माल्स, बार वगैरह अब खाली रहेंगे क्योंकि जनता ससुरी जाग गई है, एक हम जैसे हैं जिन्हें गहरी नींद ने घेर रखा है। नींद है कि जाती नहीं, होश है कि आता नहीं। 
’सुखिया सब संसार है, खावत है और सोत,
दुखिया दास कबीर है, जागत है और रोत।"

खाने दो यारों मुझे भी और सोने दो, प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब:))