शुरुआती नौकरी बैंक के प्रशासनिक कार्यालय में साड्डी दिल्ली से दूर एक शहर में थी| ट्रांसफर अप्लाई करने के लिए तीन साल की नौकरी के बाद ही एलिजिबिलिटी का नियम था इसलिए शुरू के तीन साल बहुत बेफिक्री से कटे| जब तीन साल पूरे होने को हुए तो सभी अपने अपने गृहनगर में जाने की फिराक में लग गए| एक मित्र तो इतने व्यवस्थित निकले कि स्थानान्तरण आवेदन करने से पहले बाकायदा अवकाश लेकर अपने घर के आसपास की कुछ ब्रांच देखकर आये| मुझे बहुत हैरानी हुई, पूछने पर बताया कि ये देखने गया था कि वहाँ काम कम है या ज्यादा और उससे भी ज्यादा जरूरी ये जानना था कि वहाँ स्टाफ कैसा है? मेरे सवाल कहाँ खत्म होते थे? मैंने पूछा कि सब दो हाथ, दो पैर वाले ही मिले या कोई ज्यादा हाथ पैर वाले भी थे? मित्र बुरा मान गए और ऐसे में उनका तकिया कलाम रहता था, "तू रहने दे यार, तू नहीं समझेगा|"
इन मामलों में मैं वाकई बहुत नासमझ और अव्यवस्थित बन्दा रहा, यही समझता रहा कि जहां भी जायेंगे अपने जैसे ही तो मिलेंगे, वही थोड़े से फ़रिश्ते और थोड़े से शैतान टाईप| हमने इस काम के लिए कोई छुट्टी नहीं ली बल्कि ये पता करवाया कि दिल्ली में वैकेंसी है या नहीं| अधिकतर जगह की तरह जवाब 'ना' में ही मिला| कालेज टाईम से ही इतनी बार न न न न सुन चुके थे कि कहीं से भी कोई हाँ मिलती थी तो खुद को चिकोटी काटके देखते थे कि ख़्वाब तो नहीं देख रहे :) दिल्ली से कुछ दूर एक ब्रांच का पता चला कि वहाँ वैकेंसी है लेकिन सूत्र ने साथ ही आगाह कर दिया कि ब्रांच सेफ नहीं है, तीन चार स्टाफ सस्पेंड, डिसमिस हो चुके हैं इसलिए सोच समझकर रिक्वेस्ट लगाना, ऐसा न हो कि बाद में हमें दोष दो कि पहले बताया नहीं था| एल्लो जी, हमारा डेस्टिनेशन फाईनल हो गया और वो भी बिना ज्यादा दिमाग खपाए, बिना छुट्टी खर्च किये| हमने अपना आवेदन पत्र फट से भरकर दे दिया| समय आने पर उसी ब्रांच के आदेश भी आ गए और हम भी पहुँच गए वहाँ| जाते ही स्टाफ की पहली प्रतिक्रिया थी 'आ गई एक और गैया गार में' जो ब्लोगिंग में आने पर मेंरी पहली पोस्ट का शीर्षक बनी|
अपने को उस ब्रांच में आने पर जो धकधक थी वो सिर्फ इस बात पर थी कि अभी तक किसी ब्रांच में काम का अनुभव नहीं था| प्रशासनिक कार्यालय में काम करने और ब्रांच में काम करने में बहुत अंतर रहता है, फाईनेंशियल ट्रांजैक्शंस और पब्लिक डीलिंग, ये दो बड़े अंतर हैं| बड़ी ब्रांच थी तो पहले दिन तो सबसे हाथ मिलाने भर का परिचय हो सका और हल्की फुल्की औपचारिक बातचीत|
वो कैश विभाग में कार्यरत था, आया और बहुत प्रेम से मिला| देखने में बहुत खूबसूरत, आँखों पर नजर का चश्मा लेकिन उसके चेहरे पर खूब जमता हुआ| ब्रांच का अनुभव न होने की बात पर उसने बड़ी बेतकल्लुफी से विश्वास दिलाया कि कोई दिक्कत नहीं आएगी| कहने लगा, "हर सीट पर काम कर चुका हूँ, अभी तो कैश में ड्यूटी है लेकिन घबराना मत, जब भी मौक़ा लगेगा मैं आकर देखता रहूँगा|" बाकी लोग जहां आपस में हंसी मजाक कर रहे थे, शायद मेरे बारे में भी, वो सिर्फ इतना कहकर कैश में वापिस चला गया| उसके चेहरे की निश्चलता और सहयोग के आश्वासन से अपना कार्यानुभव न होने का भय बहुत हद तक दूर हो गया| मदद तो खैर सबने की, आखिर एक अतिरिक्त स्टाफ आने से कुछ काम तो सबका हल्का हो ही रहा था| वो भी दिन में एक दो बार मेरी सीट तक आता, हालचाल पूछता और फिर कैश में लौट जाता| ये जरूर पूछता कि कोई दिक्कत तो नहीं आ रही है और साथ में अपनी कैश में होने की मजबूरी थोड़ी खिसियानी सी हंसी हंसकर जाहिर कर देता| अपनी गड्डी धीरे धीरे चल पड़ी| चार छह दिन बीतते न बीतते समझ आने लगा कि कैश के बाहर के काम में उसकी महारत नहीं थी बल्कि कैश में भी उसे इसीलिये बैठाया गया था कि उधर जो जमा घटा होनी है वो शाम तक पता चल ही जानी है और उसके लिए वो खुद ही जिम्मेदार होगा, दुसरे नहीं| धीरे धीरे उसके बारे में और भी मालूम चलता रहा मसलन अपने पिताजी की जगह बैंक में भर्ती हुआ है और कुछ व्यक्तिगत जानकारियाँ भी|
उसके काम में माहिर न होने से मेरे मन में उसके लिए कोई हीनता का भाव नहीं आया, सब एक जैसे समझदार, कार्यपटु, वाकपटु नहीं हो सकते| बाकी सबसे मैं पीछे था और वो भी, मैं हंसा करता कि हम दोनों एक लेवल के हैं| पहले दिन मुझे जो मानसिक, नैतिक सपोर्ट उसने दी थी उसका मोल मेरे लिए कम नहीं था|
एक बात मैंने और गौर की, पूरी ब्रांच में सबसे ज्यादा मखौल उसीका उडाया जाता था| बैंक की नौकरी के लायक नहीं है, चुंगी महकमे में ठीक रहता, इतने सालों से कैश में काम कर रहा है और कैश नहीं संभालना आता के अलावा एक डायलोग और बहुत बोला जाता था 'इतने साल हो गए शादी हुए और ......' और वो चुपचाप मुस्कुराता रहता था, कोई जवाब नहीं देता था| एक दिन मेरी ही कहासुनी हुई, उसके बाद ये आख़िरी वाला डायलोग बंद हुआ|
एक दिन एक स्टाफ सदस्य ने खाना खाते समय एक और खुलासा किया कि पिछले रविवार को उसने अपनी आंखों से देखा है कि दिल्ली बस अड्डे के पास इसकी घरवाली इसका हाथ पकड़कर सड़क पार करवा रही थी| सब हो हो करके हंस दिए और उसकी खूब लानत मलानत करने लगे, 'सुसरे ने नाम डुबो के धर दिया', 'लुगाई इसका हाथ पकडके सड़क पार करवा रही थी', 'शर्म भी नहीं आंदी इसनै', 'और ब्याह कर दिल्ली की छोरी से, न्यूए नचाओगी तन्ने सारी उमर' वगैरह वगैरह और वो वैसे ही खिसियाना सा मुस्कुराता रहा और रोटी खाता रहा|
बहुत छोटा था, तबसे मैं गांधारी और धृतराष्ट्र के बारे में सोचता था कि क्या नेत्रहीन पति का साथ निभाने के लिए गांधारी ने अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर सही किया था? अजब झमेला है, उसने खुद को नेत्रहीन कर लिया तो मुझे ये अस्वाभाविक लगा और एक स्त्री अपने पति का हाथ पकड़कर उसे सड़क पार करवा रही है तो ये सब उसे गलत मान रहे हैं? तब तक शायद मुझे भी ये सब देखने सुनने की आदत हो गई थी या फिर हो सकता है मैं ये समझने लगा था कि दुनिया ऐसी ही रहेगी और अब ऐसी बातों को इग्नोर करने लगा था| इतना जरूर हुआ कि उसका मखौल बनाने का एक और वाकया सबको मिल गया था|
उस दिन शनिवार था, सुबह बैंक पहुँचते ही वो कहने लगा, "भाई, आज मेरे को साथ लेकर जइयो दिल्ली| तेरी भाभी अपने मायके गई है, मुझे उसको लेकर आना है|" मुझे भी मौक़ा मिल गया, "तू उसे लेकर आएगा कि वो तुझे लेकर आयेगी?" हंस दिया वो, "बात तो एक ही है पर कहा तो ये ही जाएगा न?"
दोपहर में हमने दिल्ली के लिए बस पकड़ी| वो बस स्टैंड पर बनी कैंटीन से ब्रेड पकौड़े और कोल्ड ड्रिंक्स ले आया था| रास्ते में उसने अपनी ससुराल का एड्रेस बताते हुए थोड़ा सकुचाते हुए कहा, "मुझे ऐसी जगह उतरवा दियो भाई, जहां से सड़क पार न करनी पड़े|" अब मैं फंसा, कहीं भी उतरेगा, सड़क तो उसे पार करनी ही पड़नी थी| आखिरकार खाए हुए नमक का हक अदा करने को मैं भी उसके साथ उतर गया, हालांकि मुझे साथ उतरते देख उसने मुझे रोकने की बहुत कोशिश भी की| मैंने उसको सड़क पार करवाई और वो जैसे इतनी सी बात पर बहुत ज्यादा अहसान मानने लगा| मैं भी ऐसा ही कुटिल कि अपनी मदद की कीमत उससे वसूलने के लिए पूछ बैठा, "सड़क पार करने में तेरे को क्या तकलीफ होती है?" वो हरदम मुस्कुराते रहने वाला चेहरा अजीब सा हो गया, "मेरी उम्र उस समय शायद पांच या छह साल थी, उस दिन मेरी माँ और मेरे चाचा वगैरह परिवार के बहुत से लोगों के साथ मैं भी दिल्ली आया था| ये जो पीछे बड़ा वाला चौराहा गया है न, यहीं सड़क पर मेरे पिताजी की लाश रखी थी| सुबह ड्यूटी करने घर से आये थे और सड़क पार करते समय कोई बस उन्हें कुचल गई थी| जब भी दिल्ली में सड़क पार करने का मौक़ा आता है तो भाई, मेरी आँखों के सामने वो वाला सीन आ जाता है| फिर सब धुंधला दिखने लगता है मुझे|"
साफ़ लग रहा था कि उस समय मेरा चेहरा भी उसे धुंधला दिख रहा होगा|
दूसरों के द्वारा उसका मजाक बनाए जाने पर और उसके चुप रहने पर मुझे बहुत बार गुस्सा आता था, उस दिन और भी ज्यादा आया कि क्यों चुपचाप सुनता रहता था वो सबकी बातें? क्यों नहीं ये बात सबको बता दी थी
बेवकूफ आदमी ने? लेकिन अब ज्यूं ज्यूं अपनी उम्र बढ़ रही है, समझ आ रहा है कि अपने दुःख इस तरह सबके सामने रोने से ज्यादा हिम्मत का काम है, सहन करना और उससे भी ज्यादा हिम्मत का काम है मुस्कुराते रहना|
कई महीने पहले की बात है, एक अति उत्साही युवा इंजीनियर से मुलाक़ात हुई थी और वो किसी मशीन की बात कर रहा था जोकि फंक्शंस के मामले में आज तक की सबसे जटिल मशीन है| मैं चाहकर भी उससे सहमत नहीं हो पा रहा था, मुझे इंसान सबसे जटिल मशीन लगता है| एक से बढ़कर एक जटिल चरित्र, क्या ख्याल है आपका?