"आपने सिगरेट पीना छोड़ा नहीं न अब तक? ये अच्छी चीज नहीं है, आपसे कितनी बार तो कह चुका हूँ।" कश्यप बोला।
"अरे यार, दिमाग खराब मत कर। है तो यहीं हापुड़ का और आप-आप कहकर बात करता है जैसे लखनऊ की पैदाइश हो तेरी। बराबर के दोस्त और फ़िर एक ही बेल्ट के बंदों से आप-जनाब वाली भाषा अपने से होती नहीं। फ़िर पैस्सिव स्मोकिंग से इतनी परेशानी है तो आने से पहले टेलीग्राम भेज दिया कर, हम कमरे से बाहर ही मिल लिया करेंगे। अब काम की बात बता, क्यों आया है?"
"नाराज हो जाते हो। पहले एक बात बताओ, मैं सिगरेट के लिये मना करता हूँ तो इसमें मेरा क्या फ़ायदा है? मैं तो दस बीस दिन में एक बार मिलता हूँ, अब तो वैसे भी...। छोड़ दोगे तो खुद का ही फ़ायदा होगा न?"
"हाँ यार, ये बात तो सही है।"
"गुड। अब बताता हूँ कि क्यों आया हूँ। मेरा सेलेक्शन स्टेट बैंक पी.ओ. में हो गया है। अगले ही सप्ताह ज्वायनिंग है लेकिन उन्होंने कहा है कि पिछले एम्प्लायर से सैटिस्फ़ैक्शन लेटर लेकर जाना होगा। ब्रांच मैनेजर कहता है कि अब फ़ँसा हूँ मैं उसके पंजे में, अभी पिछली बात भूला नहीं है।"
अब पिछली बात आप भला क्या जानें? लेकिन, मैं हूँ न। बस थोड़ा पीछे चलिये मेरे साथ। एक ही बैच के थे हम, फ़ाईनल पोस्टिंग अलग अलग जगह हुई थी। मैं प्रशासनिक कार्यालय में और वो एक ग्रामीण शाखा में। हम यारी दोस्ती में उलझ गये, उसका शुरू से ही सपना था कि प्रोबेशनरी ओफ़िसर बनना है। वो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में उलझा रहता था। न दोस्ती, न फ़ालतू की बातें और न फ़ालतू के शौक। ब्रांच में काम के मामले में अक्सर ब्रांच मैनेजर से उसकी कहासुनी हो जाती थी। उसका कहना था कि उसे दूसरी परीक्षायें पास करनी हैं तो काम का लोड न डाला जाये, ब्रांच मैनेजर का यह कहना होता था कि आप यहाँ तन्ख्वाह ले रहे हो तो काम करना ही पड़ेगा। हम प्रशासनिक कार्यालय में थे तो खबरें मिलती ही रहती थीं। ऐसे ही एक बार कुछ कहासुनी हुई तो भावुक होकर उसने सुसाईड करने की बात कह दी। घोटालों के अलावा भी दफ़्तरों में बहुत कुछ होता है, उनसे प्राय: पब्लिक अनभिज्ञ रहती है।
जिस दिन यह बात हुई थी, उस रात हमेशा की तरह उसके दूसरे दो साथी अपने कमरे में इंतजार कर रहे थे कि कश्यप आये और फ़िर वो लोग उस गाँव के एकमात्र भोजनालय में रात का खाना खाने जायें। वो नहीं आया तो उन्होंने सोचा कि शायद सो गया होगा, हम ही उसे आवाज लगा लेंगे। उसके रूम पर गये तो दरवाजा बाहर से बंद था हालाँकि ताला नहीं लगा था। कश्यप के मकान मालिक जो कि बाहर ही कुर्सी पर बैठे थे, उन्होंने बताया कि वो अभी अभी रेलवे लाईन की तरफ़ गया है। सुनते ही दोनों साथी रेलवे लाईन की तरफ़ भाग लिये। रेलवे स्टेशन के विपरीत दिशा में एकाध किलोमीटर दूर पटरी पर लेटे हुये कश्यप को वो दोनों लगभग घसीटते हुये, गालियाँ देते-खाते कमरे पर लाये।
इस बीच मकानमालिक साहब भी गाँव में ही किरायेदार के तौर पर रह रहे ब्रांच मैनेजर को बुला लाये थे। कमरे में मेज पर एक चिट्ठी रखी थी जिसमें ब्रांच मैनेजर साहब का स्तुतिगान कर रखा था। बताते हैं कि सबसे अजीब हालत उन्हीं साहब की थी, एक पल में शुक्र मनाते थे कि ये भी बच गया और वो भी बच गये और दूसरे ही पल इसको सबक सिखाने की बात करते थे। अगले दिन उनके प्रशासनिक कार्यालय पहुँचने से पहले ही फ़ोन पर सब किस्सा हम तक पहुँच गया था। उधर रात को ही फ़ोन पर कश्यप के दोस्तों ने उसकी माताजी को सूचना देकर हैड ओफ़िस पहुंचने के लिये कह दिया था। दिन भर खासी गहमागहमी रही और मामला कहीं दर्ज होने की बजाय सुसाईड नोट और फ़िर उसका एक काऊंटर माफ़ीनामा लिखवाकर और पंचों के हस्ताक्षर करवाकर सुरक्षित हाथों में सौंप दिया गया। दुनिया, देश, बैंक, ब्रांच और जिन्दगी फ़िर से डगर-मगर चलने लगे।
ये थी पिछली बहुत सी बातों में से फ़िलहाल मतलब की बात, ब्रांच मैनेजर साहब के पैर के नीचे अब कश्यपजी की पूँछ आ गई थी। विस्तार से पूछने पर पता चला कि ब्रांच मैनेजर साहब ने वैकल्पिक शर्त जो रखी है, वो है अपना पेंडिंग काम निबटाने की। पेंडिंग काम में अब एक कोई काम ऐसा था जिसमें कश्यप का हाथ तंग था। चांस की बात है, वो काम मुझे बहुत इंट्रेस्टिंग लगता था और मुझे मालूम था कि मैं वो काम तीन चार घंटे में निबटा भी सकता हूँ लेकिन मेरी पोस्टिंग अलग जगह थी, उसकी अलग जगह। जब हमने पूछा कि ब्रांच में किसी और की मदद ले ले तो वो कहने लगा कि अब कोई मदद नहीं करता। सबको मालूम है कि ये जाने वाला है तो फ़िर जिस मैनेजर के साथ अभी दो तीन साल काम करना है, इसके लिये उससे पंगा क्यों लिया जाये?
मजेदार समस्या थी। हैड ओफ़िस में होने के नाते हमसे उसकी अपेक्षा थी कि मैनेजर साहब को किसी उच्चाधिकारी से कहला सुनवाकर उसका काम हो जाये। दिल से मैं भी चाहता था कि उसका काम हो जाये लेकिन उसके मैनेजर साहब ने जो पेंडेंसी खत्म करने का विकल्प दे रखा था वो गलत भी नहीं लग रहा था। खैर, उसे विदा किया कि जा भाई अपनी गाड़ी पकड़ और अपना बैग बिस्तर बांधना शुरू कर, भली करेंगे राम।
उसे भेजकर फ़िर से फ़िक्र को धुंये में उड़ाया गया। बातों बातों में कश्यप ने बताया था कि अगले दिन उसके ब्रांच मैनेजर छुट्टी पर थे। एल्लो, निकल आया हल। हम मैनेजर नहीं हैं तो ना सही, छुट्टी तो हम भी ले सकते हैं। चार में से दो उस आईडिये से खुश थे और दो नाराज थे कि क्यो छुट्टी ली जाये? फ़िर उन्हें समझाया गया कि जहाँ तीस दिन की विदाऊट पे चल रही है, वहाँ इकतीस दिन की होने में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। सबको खुश करना वैसे भी मुश्किल है।
अगले दिन मैं और राजीव ग्यारह बजे कश्यप की ब्रांच में पहुँच गये। हमें देखकर वो हैरान हो गया और सिगरेट पीते देखकर हमेशा की तरह परेशान भी। मुश्किल से दो घंटे लगे होंगे हमें, उसकी सारी पेंडेंसी खत्म कर दी। बहुत खुश था वो उस दिन और हम भी। भावुक होकर बार बार कह रहा था, "मैं आप लोगों का कैसे धन्यवाद व्यक्त करूँ?" मैंने माहौल को हल्का करने के लिये कहा, "मेरे लिये एक सिगरेट मंगवाकर।" उस दिन उसने सिगरेट के दोष नहीं बताये, खुद भागकर गया और सिगरेट लेकर आया। बाहर जाकर हम लोगों ने एक साथ लंच किया, हमारी तरफ़ से फ़ेयरवैल ट्रीट। स्टेशन पर हमें गाड़ी तक छोड़ने आया। गाड़ी में अभी टाईम था, हम प्लेटफ़ार्म पर टहल रहे थे तो मुझे बहुत हँसी आई, जब फ़िर से मेरे लिये सिगरेट लेकर आया। हम लौट आये, कुछ दिन के बाद वो दूसरे बैंक में प्रोबेशनरी ओफ़िसर बनकर चला गया।
आसपास की शाखाओं में एक नया किस्सा प्रचलित हो गया कि हिन्दुस्तान में मजदूरी बहुत सस्ती है। लोग एक सिगरेट तक में बिक जाते हैं। हैड ओफ़िस में हमेशा की तरह ऐसी खबरें भी पहुंच जाती रहीं। लोग चटखारे ले लेकर हमसे पूछते थे कि क्या ये सच है और मैं और राजीव एक दूसरे को देखते थे और जोर से हँस देते थे। बाकायदा ऑफ़र आते थे कि फ़लाँ काम पेंडिंग है, आ जाओ किसी दिन। बहुत छेड़ा हम लोगों को जालिम लोगों ने।
हाँ, याद आया, आज पूरी बात ही पढ़ लो। शायद दो साल के बाद कश्यप की शादी में जाना हुआ था। तब तक हम सब इधर ट्रांसफ़र होकर आ चुके थे, एक तरह से उसकी शादी को हम उस दौर के बैचमेट्स का रि-यूनियन समझ लीजिये। उसकी शादी से ज्यादा क्रेज़ सबको एक दूसरे से मिलने का था। खाने-पीने का दौर चला, पिछली बातें निकलीं तो ये बात भी निकल आई। उस दिन पहली बार ऐसा हुआ कि ये एक सिगरेट में बिकने वाला किस्सा उस समय दुहराया गया जब दोनों पक्ष मौजूद थे। किस्सा कहने के बाद जब सच्चाई पूछी गई तो मैं और राजीव फ़िर से एक दूसरे को देखकर जोर से हँस दिये। कश्यप जरूर जोर से बोला, "बकवास है सब।" हम जानते थे कि वो ज्यादा घुमाफ़िराकर बातें नहीं करता, मजाक भी नहीं समझता, टु द प्वाईंट रहने वाला आदमी है। और कोई मौका होता तो हम भी सबके साथ मिलकर उसे खींचते लेकिन उस समय तो उसी की शादी में गये हुये थे इसलिये उसे शांत रहने की कहने लगे।
वो बोला, "बकवास है ये एक सिगरेट में बिकने वाली बात और आप भी खंडन नहीं करते। आप से ऐसी आशा नहीं थी। चुप रहना भी झूठ को बढ़ावा देना है। दो सिगरेट पिलाईं थी आपको, स्टेशन वाली क्यों भूलते हैं आप?"
राजीव और मैंने दोनों ने एक साथ कहा, "हाँ यार, ये बात तो सही है।"
क्या कहते हैं आप? गाड्डी पटरी पे ही है न अब :)
(पात्रों के नाम बदले गये हैं)
---------------------------------------------------------------------------------
पिछले दिनों एक सामूहिक ब्लॉग पर कुछ असहमतियाँ हुई थीं। फ़िर पता चला कि हम लोगों ने फ़र्जी ईमेल आई.डी. और ब्लॉग वगैरह बना रखे हैं ताकि दूसरों को गालियाँ दी जा सकें। अलग से पोस्ट लिखकर या जवाब देने की बजाय यही कहना सही लगता है कि "हाँ यार, ये बात तो सही है।" :)