शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

एरियर


                                                                     

आप जानते ही होंगे कि बैंक वालों की वेतन वृद्धि हर पाँच साल के बाद होती है। वेतन वृद्धि की देय तारीख से लगभग दो-ढाई साल बीत चुके होते हैं, तब कहीं यूनियन और प्रबंधन किसी समझौते पर पहुँच पाते हैं। हम सब इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। बहुत बुरा नहीं लगता बल्कि अब अच्छा ही लगता है कि इस बहाने कुछ एरियर इकट्ठा मिल जाता है। 

ऐसा ही कोई वक्त था, एरियर की तैयारी हो रही थीं और हम सब हवाई किले बांधने में जुटे हुये थे। वो घड़ी भी आ गई जब एरियर का भुगतान हुआ। हम जैसे इसलिये उदास हो गये कि उम्मीद से कम एरियर मिला था,  भोला महाराज इसलिये उदास हो गये कि उम्मीद से ज्यादा मिल रहा था। ’मित्र का दुख रज मेरू समाना’ का उद्घोष करते हुये हमने प्रस्ताव दिया, "भोलाजी, तुस्सी चिंता न करो। हम तुम्हारे साथी हैं, हाथ बढ़ायेंगे और फ़ालतू वाला एरियर अपने सिर कर लेंगे।" स्वाभिमानी और सुसेक्यूलर सुशासक नितीश जी ने जैसे धर्मांध एवं साम्प्रदायिक मोदी की सहायता राशि ठुकरा दी थी, वैसे ही स्वाभिमानी भोला ने सहायता के लिये बढ़े हुये हमारे हाथ ठुकरा दिये, कहने लगा, "अपने रंजो-गम असी आप ही सह लांगे। मेरे नाम आई हुई चीज है, मैं ही इसे झेलूंगा।"  हम अपना सा मुँह लेकर रह गये।

पूरी ब्रांच की निगाहें बैलट-बॉक्स की तरह  भोला की झोली पर टिकी हुई थीं।  ’जिसे तन्ख्वाह भी आधी अधूरी मिलती हो, वो एकमुश्त आती रकम को लेकर कैसे व्यवहार करेगा’ सट्टे का बाजार गर्म हो गया था। पैसे माँग माँगकर मैंने भोला को पहले ही पका रखा था, तंग आकर उसने वादा कर दिया कि किसी को उधार नहीं देगा और सारे पैसे दारू में नहीं उड़ायेगा लेकिन पैसे खुद ही खर्चने हैं। 

भोला महाराज ने घोषणा कर दी कि जब तक खाते में पैसे रहेंगे, तब तक किंगसाईज़ लाईफ़ जियेगा। पानी की प्यास लगे तो बंदे ने जूस पीना शुरू कर दिया, रेहड़ी वाले से ’कल नगद और आज उधार’ में छोले-कुल्चे खाने वाला वो बंदा अब कस्बे के सबसे महंगे होटल में डीलक्स थाली की डिलीवरी के लिये जब फ़ोन पर आर्डर मारता था तो उसका रौब देखते ही बनता था। माँगकर, दूसरे की जेब से निकालकर बीड़ी पीने  की  जगह अपनी जेब में  सिगरेट की डिब्बी आ गई थी।   सुबह शाम पैदल डोलने वाला वो अब दस कदम दूर भी जाना होता तो रिक्शे वाले को आवाज लगाता। संक्षेप में बात ये कि कस्बे की अर्थव्यवस्था में जान डालने में श्रीमान जी दोनों हाथों से जुटे हुये थे।

शायद पांचवा या छठा  दिन था कि कहने लगा शरीर में हरारत हो रही है। मुझे तो खैर ठीक ही दिख रहा था फ़िर भी मैंने पूछा कि पुराने डाक्टर को ही दिखायेगा  या यहाँ भी किंग साईज़?   कहने लगा, "कोई ढंग का डाक्टर बताओ। फ़ीस दी चिंता नहीं करनी है, साड्डे कोल पैसे हैगे। बस्स डाक्टर वदिया(बढ़िया) होणा चाहीदा है।" हम तो ठहरे हुकम के गुलाम, बता दिया एक बढ़िया सा डाक्टर, बल्कि अपायंटमेंट भी ले दी। साथ चलने की बात कही तो उसने मना कर दिया, "तुस्सी अपने घर जाओ। जो  ठेके पर साथ जाते थे, डाक्टर के पास भी वो ही साथ ही जायेंगे। वैसे भी मैंने कौन सा पैदल जाना है? टैक्सी कर लूँगा।" हम अपने घर आ गये।

अगले दिन सुबह बंदा एकदम फ़िट दिखा। स्टाफ़ वाले उसे घेरकर पिछले दिन के हाल पूछ रहे थे। आँखे बड़ी बड़ी करके पहले तो उसने डाक्टर के क्लीनिक का नक्शा बताया।  रिसेप्शन, केबिन, एसी, फ़र्श, सफ़ाई वगैरह वगैरह सबकी दिल खोलकर तारीफ़ की। फ़िर  डाक्टर की तारीफ़ शुरू हुई। इतना पढ़ा लिखा, इतनी तगड़ी फ़ीस वाला डाक्टर और ऐसा शरीफ़ कि कभी देखा ही नहीं। इतनी शराफ़त वाली बात में मुझे कुछ लोचा दिखा, उससे पूछा कि जरा विस्तार में बताये। 
भोला ने बताया, "डाक्टर ने नब्ज वगैरह देखने के बाद दो चार सवाल पूछे और फ़िर दवाई लिख दी। इतना जेंटलमेन डाक्टर हैगा सी कि उसने पंद्रह मिनट में कम से कम दस बार थैंक्यू बोला होगा।"
"दस बार थैंक्यू?"
"कम से कम। क्यों? सानूँ थैंक्यू नईं बोल सकदा?"
"बोल तो सकता है लेकिन..। फ़िर तूने क्या कहा?"
"यू आर वैलकम।"
"कितनी बार कहा तूने?"
"जितनी बार उसने थैंक्यू कहा, उतनी बार। सान्नूँ वी अंग्रेजी आंदी है, असी इतने घोड़ू भी नहीं हैगे।"

बहुत देर के बाद उसे किसी ने बताया कि दवाई लिखने के बाद डाक्टर साहब ने उसे थैंक्यू कहा था तो उसका मतलब था कि अब आप जा सकते हैं। बड़े लोगों के कहे गये शब्दों के मतलब डिक्शनरी में दिये हुये मतलब से अलग  होते हैं।

थोड़ी देर हो-हल्ला मचता रहा फ़िर सब अपनी अपनी सीट पर बैठ गये। दोपहर में खाने के लिये बैठे तो भोला अपने फ़ेवरेट छोले-कुल्चे की प्लेट निबटाते हुये बोला, "जो मजा इस स्साले दे छोलेयाँ विच है, होटल दी डीलक्स थाली विच नहीं।" 

एरियर की बची हुई खेप बीती रात में बराबर हो चुकी थी, भोला फ़िर से पुरानी बिंदास फ़ार्म में वापिस आ चुका था। न पैसे बचे, न हिसाब रखने की जरूरत। नो टेंशन, लिव लाईफ़ असली किंगसाईज़।

उस दिन से मेरा और भोला का दो-ढाई हजार का मुकदमा फ़ँसा हुआ है। वो डाक्टर की फ़ीस, टैक्सी खर्चा, दवाई के पैसे मेरे नाम निकाले बैठा है। मैं कहता हूँ कि खर्चा किया तभी तो वो एक दिन में भला चंगा हो गया था और वो कहता है कि मैंने उसका खर्चा ख्वाम्ख्वाह में करवाया। कहता है, "जिस स्साले को ये नहीं पता कि सामने वाले को बाहर भेजने के लिये क्या कहना होता है, वो इलाज क्या बैंगन खाकर करेगा? मैं तो वैसे ही ठीक हो जाता।"

कहीं से उसे खबर मिल गई कि मेरा फ़िर से ट्रांसफ़र होने वाला है, आज भी फ़ोन आया था, "संजय बाऊ, ऐत्थे ही आजा। पुराना हिसाब किताब भी निबटा लेंगे।"

आप ही फ़ैसला  करो जी,  इस मामले में मैं उसका देनदार बनता हूँ क्या? 

शुक्रवार, जुलाई 12, 2013

संवैधानिक चेतावनी

कुछ दिन से दिल्ली मेट्रो एमएमएस कांड चर्चा में है।    क्या हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ, किसने क्या किया वगैरह-वगैरह। जाँच चलेगी, मुकदमा होगा, कार्यवाही होगी, कानून अपना काम करेगा। मानसिकता बदलने, वर्जनामुक्त होने के साथ संस्कार न छोड़ने की रस्साकशी फ़िर से चलेगी। मेट्रो भी चलती रहेगी, ऐसे कारनामे भी चलते रहेंगे और जिन्दगी यूँ ही गुजरती रहेगी लेकिन कुछ सवाल जरूर खड़े होते रहेंगे  मसलन यह वीडियोज़ सही हैं या इनके साथ छेड़छाड़ की गई है?    

दोष किसका है, उन जोड़ों का जिन्हें फ़िल्माया गया है या उनका जिन्होंने इन वीडियोज़ का दुरुपयोग किया?    

सार्वजनिक स्थान पर की जाने वाली ऐसी क्रीड़ायें क्या वाकई निजता का अधिकार है? 

अगर हाँ तो फ़िर सार्वजनिक स्थानों पर यह सब करने वालों को इसमें गलत नहीं लगता तो फ़िर दिखने में  क्यूँ  गलत लगेगा? 

कुछ दिन पहले मित्र गिरिजेश राव  ने फ़ेसबुक स्टेटस में पूछा था, "सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम का प्रदर्शन उचित है कि नहीं?" यह मैं अपनी याद्दाश्त के आधार पर लिख रहा हूँ, हो सकता है कि शब्द अक्षरश: यही न हों लेकिन भाव कुछ ऐसे ही थे। विषय विचारोत्तेजक लगा था, मैंने सुझाया भी था कि इस विषय पर अच्छा विमर्श हो सकता है। वहाँ तो बात आई गई हो गई, फ़ेसबुक वैसे भी कुछ ज्यादा ही त्वरित अभिव्यक्ति का साधन है(यही स्टेटस ढूँढना चाहा तो अभी मिला ही नहीं) लेकिन मेट्रो दीवानों ने दिखा दिया कि यह विषय प्रासंगिक है।

एक और फ़ेसबुक स्टेटस  देखा था जिसमें एक सज्जन ने दिल्ली के पार्कों में ऐसी बातों की तरफ़ इशारा किया था। क्या हम जैसे इन लोगों के पास भी कोई निजता का अधिकार है? 

ब्लॉगिंग में आने के बाद ज्ञानचक्षु काफ़ी खुले हैं, स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं कि मैंने PDA(Public Display of Affection) के बारे में पहले नहीं सुना था। ये अलग बात है कि इसके बारे में सुनने\पढ़ने के बाद भी अपने विचार बहुत आधुनिक नहीं हुये, अब भी पहले जैसे ही हैं कि कुछ काम पर्दे में ही ठीक हैं। लेकिन हमेशा की तरह यह भी मालूम है कि दुनिया सिर्फ़ मेरे सोचने से बदलने से नहीं रुकने वाली।  सदा से बदलाव होता आया है तो समाज में ये बदलाव भी सही। 

जब एक के अधिकार दूसरे से टकराने लगें तो समाधान ढूँढना आवश्यक है।  वर्जनाहीन समाज, सेक्स एजुकेशन, मानसिकता बदलने जैसे सदुपदेश खूब पढ़ लिये, कुछ प्रैक्टिकल उपाय अपनाये जाने चाहियें। आपसे समाधान पूछने की बजाय पहले अपनी राय संक्षेप में  बताता हूँ।

कुछ जनजातीय समाज घोटुल परंपरा   का पालन करके अपनी युवा शक्ति को चैनलाईज़ करते ही रहे हैं।  वैसे ही मेरी राय में अब समय आ गया है कि  सरकार द्वारा कुछ सार्वजनिक स्थान यथा कुछ पार्क या कम्युनिटी सेंटर आदि चिन्हित कर दिये जाने चाहिये और जैसे सिगरेट\तंबाकू आदि के पैकेट पर एक संवैधानिक चेतावनी(अब एक चित्र सहित) रहती है कि ’तंबाकू के सेवन से कैंसर होता है’ वैसे ही इन सरकारी घोटुलों के बाहर एक संवैधानिक  चेतावनी टाईप नोटिस लगा रहे कि यह स्थान सिर्फ़ व्यस्कों के लिये है और यहाँ आप अपनी इच्छा से जा रहे हैं। 

बाकी तो आप सब  समझदार हैं ही,  इस सुझाव पर भी सोच देखियेगा ...