पहली बार इलेक्शन में ड्यूटी लगी थी, शायद पन्द्रह सोलह साल पहले की बात है। शेड्यूल आया तो इलेक्शन से पहले तीन ट्रेनिंग थी। ट्रेनिंग थी, जिला मुख्यालय में जो कि कार्यस्थल से उतना ही आगे था जितना घर से कार्यस्थल। सीनियर सहकर्मियों ने बताया कि पहली ट्रेनिंग नाममात्र के लिये ही होती है, प्रशासन को एक बेसिक डाटा मिल जाता है कि कितने कर्मचारी ड्यूटी के लिये अनुपलब्ध होंगे और वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके। घर से जल्दी निकलना होगा लेकिन पहली ट्रेनिंग पर जल्दी ही छूट जायेंगे तो कम से कम आधे दिन की फ़र्लो का जुगाड़। छोटी शाखा थी, इंचार्ज महोदय उस दिन अकेले ही रह जाने वाले थे और इस बात से कुछ असहज भी थे लेकिन इलेक्शन ड्यूटी के आड़े कोई आ भी तो नहीं सकता।
अगले दिन वही हुआ, जैसा मित्रों ने बताया था। पोलिंग पार्टी से परिचय हुआ, रजिस्ट्रेशन वगैरह हुआ और ट्रेनिंग खत्म। सिर्फ़ ग्यारह बजे थे, मन में लड्डू फ़ूट रहे थे कि आज गैप पीरियड में कई पेंडिंग काम निबटाने का मौका मिला है। बस स्टैंड पर आया और उसी समय बस आ गई। बस में चढ़ा तो गिनती की तीन-चार सवारी। अरे वाह, हमारे भी अच्छे दिन आ गये? हालाँकि इन्हीं लगातार अच्छे शगुनों ने चेताया भी क्योंकि जबतक कोई राड़ा हो न जाये तब तक लगता ही नहीं कि मैं ’मैं’ ही हूँ।
बादशाहों की तरह बस की सब सीटों पर देखा और धूप/हवा/धूल/मिट्टी सब पहलुओं से खिड़की के पास वाली जो सीट सबसे उपयुक्त लगी, तशरीफ़ वाला टोकरा उस पर टिका दिया। कंडक्टर साहब आये तो हमने स्टाईल से कहा, "दिल्ली।" टिकट लेकर जेब में रखी और बैग में से कोई किताब निकालकर पढ़ना शुरू कर दिया।
"एक्सक्यूज़ मी" !!
एक्सक्यूज़ करने के लिये किताब से नजर हटाकर देखा तो अगली सीट वाली देवी जी खड़ी होकर पीछे मुड़कर और झुककर माबदौलत से मुखातिब थीं। "येस प्लीज़?" हमने अंग्रेजी झाड़ी।
"आप दिल्ली तक जायेंगे?"
"जी हाँ, इरादा तो है।"
"यहाँ आ जाईये, आगे।"
मैं समझ नहीं पाया, दोबारा पूछा तो फ़िर वही बात उधर से दोहराई गई।
मैंने कहा, "जी, मैं यहीं ठीक हूँ। खिड़की वाली सीट जानबूझकर ली है।"
वो बोली, "खिड़की वाली सीट ही ले लेना, आगे आईये तो सही।"
पानी सिर से ऊपर जाने लगा था, मेरा स्वर थोड़ा रुखा हो गया, "आपको मेरे यहाँ बैठने से कुछ तकलीफ़ है?"
खीझते हुये देवीजी अपनी सीट पर बैठ गईं। मैंने अपनी पुस्तक में ध्यान लगाने की कोशिश की लेकिन असफ़ल रहा। क्या कारण हो सकता है कि बार बार मुझे अपनी सीट पर बुलाना चाह रही थी? हमें तो स्कूल में दाखिले के समय, कालेज लाईफ़ के दौरान, नौकरी के इंटरव्यू वगैरह में रिजेक्शन की आदत है लेकिन आज मैंने किसी की इच्छा को ठुकरा दिया पता नहीं इसका क्या फ़ल भुगतना होगा? इसी उधेड़बुन में था कि वही शहर आ गया जहाँ मेरी ब्रांच थी, मैंने आव देखा न ताव, टिकट बेशक दिल्ली तक की थी लेकिन मैं वहीं उतर गया और वो भी पिछले दरवाजे से।
बैंक पहुँचा तो कई लोकल साथी भी एलेक्शन ट्रेनिंग भुगताकर उस ब्रांच में पहुँचे हुये थे। मुझे देखकर सबने पूछा, "हमारा तो घर यहीं है इसलिये आये, तू क्यों आ गया? घर जाता आराम से।" मैंने बताया कि सोचा तो यही था लेकिन कुछ ऐसी बात हुई तो रास्ते में उतर गया। अब उन सबने पूरी बात पूछी और मैंने बताई तो सब मेरे ऊपर इतना हँसे कि पूछिये मत। दोस्तों से उस दिन भी लल्लू, बावली बूच, पागल जैसी कई उपाधियाँ मिलीं। ’मर्दों का नाम डुबो दिया’ ’you have no guts' जैसी बातें सुनने को मिली। एक ने तो यह भी बताया कि वो लड़की/महिला मेरे बारे में क्या सोचती होगी।
मैंने सोच लिया कि अभी दो बार और इलेक्शन ट्रेनिंग के लिये वहीं जाना है, वो शायद फ़िर मिले तो उससे कन्फ़र्म करूंगा। गया भी लेकिन वो नहीं मिली। वैसे अगर मिल भी जाती तो मैं पूछ पाता? शायद नहीं.......सोचता ही रह जाता मैं तो।.