उस दिन तन्ख्वाह मिलनी थी। सुबह से मेन ब्रांच से तीन चार फ़ोन आ चुके थे मेरे पास कि मैंने दो सौ रुपये लेने हैं, मेरे तीन सौ पचास हैं, मेरे एक सौ दस हैं। हद हो गई यार, ब्याज कमाना है या नाम कमाना है तो करो अपने दम पर। वाहवाही भी लूटेंगे और बंदूक दूसरे के कंधे पर रखकर। अब मैं कैसे कहता कि यारों मेरा भी कुछ हिसाब किताब रहता है, वो कब होगा? खैर लिस्ट बना लेता, नाम और उसके सामने उनके बताये रुपये। उधर से कैशियर साहब आवाज लगाते भोले को, उधर से मैं अपनी लिस्ट लेकर खड़ा हो जाता। ये हर महीने का बंधा बंधाया रूटीन था जी। अरे मैं बताना भूल गया शायद कि ये रिकवरी नोटिस मेरे खिलाफ़ नहीं बल्कि भोले के खिलाफ़ होते थे। अपन तो वैसे भी लेकर लौटाया नहीं करते, बल्कि मुकर जाने के कायल हैं।
“हां भई, फ़लाने का फ़ोन था, कह रहा था कि तीन सौ पचास लेने हैं?
“आहो जी, देने हैं उसदे।”
“अच्छा, ……. के दो सौ रुपये हैं?”
“हां जी, हैगे, ओ वी रख लो।”
“अच्छा, मेरा हिसाब.?”
“कोई नी जी, साड्डी तां घर दी गल्ल है, फ़िर कर लांगे।”
“एक सौ दस …. के भी हैं? ये दस रुपये का क्या चक्कर है, मेरे से तो सौ रुपये की गवाही दिलवाई थी?”
“ओ जी, एक पेप्सी होर पिलाई सी उसनूं, दस रुपये उसदे हैगे।”
“ते भले आदमी, फ़िर दस रुपये दुकानदार को देगा कि इसको?”
“न जी, इसनू ही देने है, दुकानदार नाल ओ आपे कर लेगा।”
और बकाया पैसे लेकर मुझे अलग ले गया, जाकर एक सौ पचास रुपये दिये। मैंने कहा, "ओये मेरे तो ज्यादा पैसे हैं, पांच सौ हैं।" कहने लगा, "मैं कौन सा मना कर रहा हूं, अब भी पांच सौ ही हैं। ये एक सौ पचास तो वो पंडित आयेगा ढाबे वाला, उसको देने हैं। और ये मत कहना कि तुमने खाना नहीं मंगवाया था।"
मुझे कुछ दिन पहले की बात याद आ गई। गरमी बहुत थी, और ये महाराज दफ़्तर में फ़्रूटी का टैट्रापैक मुंह से लगाये घूम रहे थे, जैसे बच्चे लॉलीपॉप मुंह में दिये रहते हैं। मैंने तो देखकर अनदेखा कर दिया, पता था इसके ड्रामों का, हमारे इन्चार्ज और एक दूसरे स्टाफ़ ने देखा तो पूछा. “क्या ड्रामा है भई?” कहने लगा, “ऐन्नी गरमी हैगी कि जान निकल जाये, पैसे साले साथ थोड़े जाने हैं, खाओ पियो ते मस्त रहो।” छेड़ दी जी दुखती रग उसने, एक बोल ही उठा, “लेके आ यार, मेरे लिये भी एक फ़्रूटी।” इन्चार्ज महोदय कैसे चुप रहते, उन्होंने भी आर्डर दे दिया। टोटल चार नये आर्डर मिले और उसने सब से दस दस रुपये लिये, मुझसे एक बार पूछा वो भी ऐसे, “संजय बाऊ, तू तो नईं पियेगा न?” मेरे इन्चार्ज ने मेरे पैसे भी देने चाहे, मैंने मना कर दिया और भोला भी कहने लगा, “इसदी प्यास नहीं बुझनी इस डब्बी नाल” और सारे हंस दिये, हंसना भी चाहिये जी। दो मिनट में ही पांच फ़्रूटी ले आया भूरे की दुकान से। सबने बड़े चटखारे ले लेकर पी। दस मिनट बाद मैंने कहा, “भोले, जरा भूरे को बुला कर ला।” कहने लगा, “की कम्म है?” मैंने कहा, “यार, बुला तो सही।” आ गया जी भूरा, “हां जी बाऊजी, बताओ?” मैंने कहा, ”यार भूरे, आज भोले ने तेरी इतनी सेल करवाई है, एक फ़्रूटी तो पिलाता इसको।” भोला बीच में ही बोल पड़ा, “तू जा ओये दुकान ते आपनी, मैं नईं पीनी होर फ़्रूटी, जाके ग्राहक संभाल अपने।” और भूरा कहने लगा, “बाऊजी, काहे की सेल करवाई है, एक अपने आप पी गया फ़्रिज में से निकालकर, पांच फ़िर दुबारा ले आया बैंक के नाम पर और पीने के बाद जाकर कह रहा है कि मेरे खाते में लिख ले, महीने बाद हिसाब करेंगे।”
हा हा हा, मुझे पहले ही पता था और अब सारे स्टाफ़ वाले उसके पीछे पड़ गये, और वो कह रहा था, "त्वाडा की गया है? तुसी फ़्रूटी पी पैसे देकर, बात खत्म। मान लो मैं भूरे को दे देता तो इस बात की क्या गारंटी है कि इसने वो आगे पेमेंट की है या नहीं? अगर त्वानूं कोई तकाजा करे ते मैन्नूं कहो।” सही कहता था जी।
“साले, तू जो रोज ये सात आठ दिन से खाना लेकर आता था ढाबे से, ये भी मेरे नाम लिखवा कर आता था?”
“अच्छा, भूखा मर जाऊँ फ़िर? मेरा पेट नहीं है क्या?”
“चल, आगे से ध्यान रखियो, तू क्या रखेगा मैं ही रखूँगा। तू कब बाज आयेगा, इन हरकतों से? सारी जगह उधार का करोबार फ़ैला रखा है तूने। बाजार में, स्टाफ़ में किसी को छोड़ेगा कि नहीं।”
“ओ जी, टेंशन न लिया करो। एकाध जगह है जहाँ दूसरों का नाम लेना पड़ता है, नहीं तो अपनी गुडविल बहुत है जी। और ये स्टाफ़ वालों ने मेरे से पैसे लेने होते हैं तो टाईम से सैलरी के वाऊचर भेज देते हैं न तो कौन परवाह करेगा तुम्हारी सबकी? अहसान तो मानते नहीं उल्टे भाषण देते रहते हैं।” और हंस देता हो हो करके। उस दिन शाम तक मेज पर तबले की और ढोलक की थाप देता और ट्रैक बदल बदल के पंजाबी गानों की दो-दो तीन-तीन लाईने बड़े सुर में सुनाता।
’जद जोबन तीर चलाये, कुड़ी हंस के नीवियां पाये, ते समझोSSSSSSS, मामला.. गड़बड़ है’
‘मेरा बड़ा करारा पूदना, मेरा बड़ा करारा पूदना’
’तूतक तूतक तूतियां, अई जमालो ओ तूतक तूतक तूतियां’
सब जानते थे कि आज ये चुप होने वाला नहीं है और आगे दो तीन दिन ऑफ़िस आने वाला नहीं है, पूरा एन्जॉय करेगा अपनी बची खुची सैलरी को और फ़िर से वही रुटीन शुरू। उस दिन मेरे दिमाग में खुजली ज्यादा ही हो रही थी, बिठा लिया पास में। समझाया उसे कि छुट्टियां और पैसे बेकार मत खर्च किया कर, बाद में बहुत काम आयेंगी। उसका तर्क ये था कि गाज़ियाबाद और फ़रीदाबाद तो देख रझे हैं, ये अकेली बाद किसने देखी है? किसी दिन ऐसे ही फ़ूंक निकल जायेगी तो भी तो ये छुट्टियां और पैसे बेकार ही जाने हैं। मैं भी जुटा रहा और वो भी अड़ा रहा, आखिर में ये डील हुई कि वो छुट्टियां बचाकर रखेगा और साल में एक बार दो तीन दिन के लिये उसे हरिद्वार लेकर जाना पड़ेगा। उस साल मैंने बहुत खींच कर रखा उसे, छुट्टी लेनी भारी कर दी उसके लिये। कभी कभी गुस्से में आकर कहा करता, “मेरी जितनी ऐसी तैसी तुसी कीती है न, आज तक किसी ने नहीं कीती।” मैं पूछता, “एक बार ये बता दे, तेरे से अपना कौन सा काम करवाया है या तेरा क्या नुकसान किया है?” सिर हिला देता कि चलो ठीक है।
गजब आदमी, खाना न मिले तो दो दो दिन ऐसे ही निकाल दे और मिल जाये तो चार आदमियों के बराबर अकेला खा ले। सारा दिन अपनी हिन्दी, पंजाबी, डोगरी की कॉकटेल भाषा में बोलते रहना, चुप रहना जैसे सजा थी उसके लिये। हमारे एक अधिकारी तो दुखी होकर उसे ऑफ़र दिया करते कि दस मिनट चुप बैठ जा और दस रुपये ले लियो। दो या तीन मिनट मुश्किल से बीतते कि जाकर पीछे से जफ़्फ़ी डाल देता और कोई गाना गाने लगता और कहता त्वाडा घाटा नईं करवाना जी। झूठ बोल कर पैसे ले लेता था लेकिन अगर उसे खजाने की या पैसों की रखवाली पर बैठा दो तो मजाल है कि खजाने वाले सांप से रत्ती भर भी कम हो। उधारी लौटाने में लेट बेशक हो जाये लेकिन अगर सामने वाले ने कह दिया कि तेरे से सौ नहीं दो सौ लेने थे तो एक बार भी बहस नहीं करता, ठीक है जी। कितना ही डांट ले, नाराज भी जो जाता कभी कभी लेकिन अगले ही पल कोई काम कह दें तो उसने कभी पलट कर जवाब नहीं दिया। जिसने आड़े वक्त में थोड़ी सी मदद कर दी, अपने काम के लिये बेशक उसे दो दिन, चार दिन या हफ़्ते के लिये ले जाये कभी मना नहीं किया उसने। नजर का सच्चा एक्दम, ईगो नाममात्र की भी नहीं। बीस गालियां दे दे कोई, या नाजायज भी कर दे इसके साथ, मैंने कभी दुर्भावना नहीं देखी इसके मन में। हमारे जैसा कोई भड़काता कभी तो कहता, “उसने ऐसा कह दिया तो कौन सा हम छोटे बाप के हो गये जी?” किसी के घर जाता, तो जाते ही महिलाओं से मां-बहन का नाता जोड़ लेता। दुनिया प्रेरणा लेती है मशहूर आदमियों से, अपने को प्रेरणा दे जाते हैं ऐसे कैरेक्टर। ऐसी नम्रता अपने अंदर आ जाये तो मजा ही आ जाए।
अगली बार हरिद्वार लेकर चलेंगे जी, पहले एक बानगी देख लीजिये इसकी कलाकारी की।
मेन ब्रांच से सीनियर मैनेजर साहब शायद पहली बार हमारे एक्स्टेंशन काऊंटर पर आये। कहने लगे कि यार दो साल हो गये थे, मैं इधर आया ही नहीं था। आज सोचा कि देखकर तो आऊं। खैर, जाने लगे तो भोले को बाहर ले गये। धीरे धीरे कुछ बात होती रही और मैं ताड़ता रहा। दो दिन बाद फ़ोन आया, हाल चाल पूछकर कहने लगे, “यार, बात करवाओ जरा उससे।” मैंने करवा दी, इससे पूछा कि क्या बात है? आगे से बोला, “क्यों, वड्डे अफ़सर नूं मेरे नाल कम्म नईं हो सकदा?” मैंने कहा, “जरूर हो सकदा है।” अब जी आलम ये हो गया कि हर दूसरे दिन फ़ोन आये सीनियर मैनेजर साहब का, ये इधर से हां जी, हां जी, बस्स। चिंता न करो जी तुसी। अपन भी सुनते रहते और इसका अपने को दिया जवाब याद करते रहे। एक दिन फ़िर से फ़ोन आया। मैनेजर साहब कहने लगे, “यार, उससे बात तो करवाओ।” मैंने कहा, “सर, कितने पैसे हैं?” बोले, “तीन सौ, आपको बताया है क्या उसने?” मैंने कहा, “सर जी, अपने बछड़े के दांत पता हैं मुझे। जबतक आप अपने मुंह से नहीं बताओगे, पैसे लेकर दिखा दो।” बताने लगे बेचारे, “तीन महीने पहले इसे टैंपरेरी एक हफ़्ते के लिये मेन ब्रांच में बुलाया था। आखिरी दिन जब वापिस जाना था, मेरे पास आया और कैंटीन का कार्ड दिखाकर बोतल मंगवाने की पूछने लगा। मैंने कागज पर ब्रांड लिखकर दे दिये और पूछा कितने रुपये दूं? इसने मुझसे सिर्फ़ तीन सौ मांगे। मैंने कहा भी कि ये ब्रांड कम से कम पांच सौ के आयेंगे लेकिन ये कहने लगा कि फ़ाईनल हिसाब फ़िर कर लेंगे, आप तीन सौ ही दो। मैंने इसे कहा कि देख स्टाफ़ में किसी से कुछ मत बताईयो, सबको मालूम चल जायेगा कि मैं दारू पीता हूँ। आगे से ये मुझे कह्ता है कि जी ऐही गल्ल मैं आपजी नूं कह रया सी, स्टाफ़ में किसीसे न कहना कि मुझसे आपने बोतल मंगाई है नहीं तो सारे मेरे पीछे पड़ जायेंगे। मेरा तीर मेरे ऊपर ही चला गया है, न बोतल लाया और न ही मना कर रहा है। मैं जोर से मांग नहीं सकता कि सब क्या सोचेंगे।” इतना हंसा मैं उस दिन और बाद में तो ये हमारी ब्रांच में एक जोक ही बन गया। होती है कई बार ऐसी मजेदार स्थितियां, जब दोनों पक्ष एक ही बात कहते हैं, किसी को बताना मत नहीं तो….। लेकिन कहां छुपती है असलियत? ...जारी........
:) फ़त्तू बस स्टैंड पर बस का इंतजार कर रहा था। दो शहरी लड़कियां भी वहीं खड़ी थीं और अखबार पढ़ रही थीं इंगरेजी का। फ़त्तू ने मोटे अक्षर जोड़ जोड़ कर पढ़े और पूछने लगा, "यो रापे(rape) के होवे है जी?" क्या समझातीं वो? एक बोली, "इसका मतलब है लड़ाई झगड़ा।" बस आई और जब तक फ़त्तू सीट ढूंढता, एक लड़की सीट घेर चुकी थी और अपनी सहेली के लिये साथ वाली सीट पर अखबार रख चुकी थी। फ़त्त्तू ने आराम से अखबार उठाई और जम गया सीट पर। लड़की ने कहा भी कि ये सीट हमारी है, फ़त्तू कित माने था? लड़की भी कित माने थी, बहस करे गई। कुछ देर तो फ़त्तू ने सुना, फ़िर बोला, "सीट तो सै मेरी, तेरे न जंचती हो तो बेशक रापे कर लै मेरे साथ, थम दो सौ मैं एकला, पर देखी जायेगी।"
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