यह एक ट्रायल पोस्ट है, देखते हैं प्रयोग कैसा रहता है...
आवाज है मोहम्मद सिद्दीक की, गाना है बहुत पुराना और प्रयोग करने वाला एकदम नया।
कामयाब हो तब भी, और न हो तब भी - अर्चना चावजी का बहुत बहुत धन्यवाद। आपकी मदद से ही यह कोशिश करने की हिम्मत की है। कुछ ऐसे गाने हैं जो आडियो फ़ार्मेट में तो उपलब्ध हैं लेकिन यूट्यूब और दूसरी शेयरिंग साईट्स पर नहीं मिलते। मैंने दो साल पहले तक ये गाना नहीं सुना था, लेकिन मुझे पसंद आया। साजों की आवाज मधुर और कम, आज के गानों की तरह कानफ़ोड़ू नहीं। हो सकता है कोई और भी ऐसा हो जो इन्हें पहली बार सुने और पसंद भी कर ले।
हम गा नहीं सकते तो अपना शौक सुनकर और सुनवाकर पूरा करेंगे।
p.s. - जब ये पोस्ट लिखी थी, उस समय सच में आशा नहीं थी कि प्लेयर ठीक से लग जायेगा। इसी आशंका के चलते गीत के बारे में कुछ नहीं लिखा था। कमेंट्स से स्पष्ट है कि आप सब प्यार तो करते हैं मुझसे, यहाँ तक कहा मेरे एक दोस्त ने कि आप की पसंद है तो अच्छा तो होगा ही। मेरी अपनी सोच को दिखाती है ’सम्वेदना के स्वर’ वाली टिप्पणी - संगीत की कोई भाषा नहीं। शायद ’द ग्रेट गैंबलर’ का गाना है जिसमें कश्ती वाला अपनी भाषा में गाना गाता है और उसका एक शब्द भी समझ नहीं आता, छलकता है तो सिर्फ़ दर्द, जो कि भाषा का मोहताज नहीं।
इस गाने के बारे में जो थोड़ा बहुत मैं समझ पाया, बताने की कोशिश करता हूँ। ये बहुत पुराने समय की बात है, शायद प्री पार्टीशन की। एक समर्थ स्त्री ने अपने देवर का रिश्ता तुड़वाकर उसी लड़की से अपने लड़के का रिश्ता कर दिया। वो समय वैसा था, जब जुबान की कदर थी, जीना मरना छोटी बात समझी जाती थी और आन -बान ज्यादा बड़ी चीज। रिश्ता टूटने पर जो फ़ीलिंग्स थी, अपमान की और बदला लेने की, उन्हीं को इस गीत में प्रकट किया गया है। वो समझा भी रहा है, धमका भी रहा है, अपने इरादे भी बता रहा है कि अगर दूसरी बारात आई तो खून की होलियाँ खेली जायेंगी और अंत में यह कि दुल्हन को तो वो ही लेकर जायेगा। छुप छुपकर वार करने की बजाय चैलेंज देकर कुछ करना तब का चलन था।
अब हमें तो आप जानते ही हैं, नाम मो सम और काम बेमौसमी, मुझे भी पसंद है ये गाना और मेरे ग्यारह साल के लड़के को भी। समझ पूरी तरह हमें भी नहीं आया लेकिन पसंद है, बस्स। कुछ बैकग्राऊंड आपको बता दी, अगर अब सुनेंगे तो शायद थोड़ा सा और और स्पष्ट हो सके। इस आलोक में अब कुछ लाईनों को सुनेंगे तो देखिये मतलब कैसे साफ़ हो उठेगा - जे न तेरी मकड़ जई भन्नी, मैन्नूं प्यो दा पुत्तर नहीं मन्नीं(अगर मैंने तेरी अकड़ न तोड़ी तो मुझे मेरे बाप का बेटा मन मानना) केड़ा जाऊ खेड गुलाली, आ गये जदों बाग दे माली(जब बाग के रखवाले आ गये तो भला कौन है जो गुलेल वगैरह से नुकसान पहुंचा जाये) मेरा सौ सौ कोह ते टोरा, नींवा किंवे मैं कल(गब्बर की तर्ज प्र कहता है कि मेरा सौ कोस तक रौब है, मैं नीचा कैसे देख लूं) आदि आदि और लास्ट में फ़ाईनल जजमेंट कि अंत में तो दुल्हन उसी ने लेकर जानी है)। मेरी क्षमता कम है, आप सबका प्यार, अपनापर, समझ बड़ी है। मुझसे बेहतर समझ लेंगे।
असली मकसद अपना उन चीजों को अपनी क्षमतानुसार थोड़ी सी लाईमलाईट में लाना है, जो बदलते समय में प्रोत्साहन के अभाव में दम तोड़ रही हैं। आज से ढाई साल पहले तक मैंने भी इस गायक को और इन गानों को नहीं सुना था, सुना तभी मालूम चला ना? टैक्सपेयर्स के करोड़ों खर्चकर जैसे गीत बने, उन्हें सुनने की बजाय बैलगाडि़यों को जोड़कर किसी लोकल कलाकार द्वारा गाया गया गीत मुझे तो ज्यादा पसंद आता है। सबकी पसंद अपनी अपनी। इसे अपने मोबाईल में भी डाल रखा है और यकीन मानिये, कई बार ट्रेन में आते जाते हुये ऐसा हुआ है कि कोई कोई सिरफ़िरा आकर बैठ जाता है और फ़रमाईश करके सुनता भी है।
गिलहरी से जो हो पायेगा, करेगी। सेतु तो बनेगा ही, अपनी आहूति तो डाल ही देंगे।
हो गई पूंछ लोमड़ी से भी लंबी, पर आप सबके भरोसे कर लेता हूँ कुछ भी और फ़िर कह देता हूँ,,,देखी जायेगी......
आभार अकेली अर्चना जी का नहीं है, आप सबका है जो मुझे झेल लेते हो। नहीं तो मैं बहुत अझेल हूँ, सच में....
रविवार, अक्तूबर 31, 2010
मंगलवार, अक्तूबर 26, 2010
आह चाँद, वाह चाँद
कहते हैं आज के दिन चाँद को देखें तो चोरी का दाग लगता है। जिस चाँद ने इतना दूर होकर भी अपना माना, उसे इस डर से न देखूँ कि मुझ पर चोरी का दाग लगेगा? हा हा हा........। इल्ज़ाम कुछ छोटा नहीं लग रहा है यारों, कोई भारी सा इल्ज़ाम सोचना था? आज तो जरूर देखूँगा कि आज और बहुत सारों से मुकाबला नहीं करना होगा मुझे। सिर्फ़ मैं और मेरा चाँद होंगे, बहुत दूर लेकिन बहुत पास।
और धर्म और समाज के ठेकेदारों, मुझ जैसे को बरजना था तो यह कहा होता कि आज चाँद को देखोगे तो चाँद को छींक आ जायेगी, फ़िर नहीं देखता मैं।
ये लिखा था आज से डेढ़ महीना पहले, जाने क्यों पोस्ट नहीं किया था उस दिन। आज कर रहा हूँ, है न भरी बरसात में दीपक राग वाली बात, झूठ नहीं बोलता मैं। तीन पखवाड़े में ही कितना अंतर आ गया है? उस दिन चाँद को कोई नहीं देखना चाहता था और आज वही चाँद जाने कितनी सुहागिनों और उनके सुहाग के अमिट और अटूट बंधन का गवाह भी है और साझीदार भी। कितनी शिद्दत से इंतज़ार हुआ आज चाँद का?
:) फ़त्तू ऒफ़िस से आया तो आज चाय नहीं मिली। रोटी के समय रोटी नहीं आई। गुस्से में फ़त्तू अपनी श्रीमती से कुछ कहने लगा तो आ गई अपने असली रंग में, "मर जाने, एक दिन चाय रोटी नहीं मिली तो क्या हो गया? आज तेरे ही स्यापे(मरने पर होने वाला रोना पीटना) में लगी हुई हूँ, पता है न आज क्या है?"
चाँद को देखकर आहें तो बहुत भरते हैं लेकिन कभी चाँद भी आहें भरता होगा, किसी और चाँद को देखकर, क्या ख्याल है?
रविवार, अक्तूबर 24, 2010
अब मेरी बारी.....
वो गोल्डन कव्वाली तो सबने सुन ही रखी होगी,
“नाजो अंदाज़ से कहते हैं कि जीना होगा
जहर भी देते हैं तो कहते हैं कि पीना होगा
जब मैं पीता हूँ तो कहते हैं कि मरता भी नहीं
जब मैं मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा"
“नाजो अंदाज़ से कहते हैं कि जीना होगा
जहर भी देते हैं तो कहते हैं कि पीना होगा
जब मैं पीता हूँ तो कहते हैं कि मरता भी नहीं
जब मैं मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा"
इस दुनिया ने मेरी रेल बना रखी है। किसी जमाने में मैं चीख चीखकर कहता था कि मैं बहुत शरीफ़ हूँ, तब सब कहते थे, नहीं बदमाश हो। फ़िर मैंने दुनिया की मान ली और जब ब्लॉग बनाया तो ब्लॉग के नाम के माध्यम से कहना चाहा कि मुझसे बुरा कोई नहीं, अब लोग कहने लगे कि नहीं, आप बुरे नहीं हो। लोग तो मो सम को मौसम से कन्फ़्यूज़ करने लगे थे। सदा का कन्फ़्यूज़्ड मैं और ज्यादा कन्फ़्यूज़ हो गया कि मैं हूँ क्या? अकेले में बैठकर जब सोचता हूँ तो पाता हूँ कि लोगों की टाईमिंग अच्छी होती है, मेरी मिसटाईमिंग(मिसेज़टाईमिंग भी कह सकते हैं, आबाद आदमी हैं आखिर) बहुत अच्छी है। लोग दीपक राग गा रहे होते हैं, मुझे उस समय राग मल्हार याद आता है। लोग हँस रहे होते हैं तो मुझपर उदासी छा जाती है और जब लोग बाग उदास होते हैं उस समय मुझे ठिठोली सूझती है। बाकी सबकुछ सामान्य है, आदमी अच्छा ही हूँ मैं। वैसे भी आदमी बुरा नहीं होता, बुरी तो आदतें होती हैं। अब आठ दस बुरी आदतों के चलते खुद को बुरा तो नहीं मानना चाहिये ना? तो जी इस गलतफ़हमी का ठीकरा न हम पर और न दुनिया पर, मिसेज़ टाईमिंग पर फ़ोड़ते हैं। हा हा हा..
मेरे एक एक्स-बॉस हुआ करते थे, बड़ी अच्छी ट्यूनिंग(मिस) थी हमारी। शुरू में मुझसे कहा करते, “ कुछ बोला करो।” मैं कहता, “क्या बोला करूं?” उन्होंने कहा, “कुछ भी।” मैंने कहा, “मैं शुरू हुआ तो आप कहेंगे कि आप बोला मत करो।” ये वाकया एक बार अकेले में हुआ, मैंने अपने मित्रों को बताया तो कोई नहीं माना। इतने धाकड़ एग्ज़िक्यूटिव के सामने ऐसा बोल दिया? हो ही नहीं सकता। दो दिन बाद सबके सामने अक्षरश: ये बात हुई, तब माने मेरी बात। खैर, मैं शुरू हो गया और फ़िर मेरे बॉस आमतौर पर कहा करते, “जब मैं किसी स्टाफ़ से कुछ कह रहा होऊँ, उस समय आप बीच में आ जाते हो, मत बोला करो।” मैं हँसता और वो भी हँस देते। पीठ पीछे कहता हूँ, मुझे प्रैक्टिकल बनाने के लिये उन्होंने मुझे बहुत समझाया, हानि लाभ समझाया लेकिन कितनी भी बरसात हो, औंधे बरतन में एक बूँद पानी भी नहीं टिकता। सामने रहा तो मैंने हमेशा उनका विरोध किया और उन्होंने फ़िर भी बड़प्पन ही दिखाया और मैंने सब जानबूझकर भी उनके सामने कभी आभार प्रकट नहीं किया। इसे ही मिसटाईमिंग कहते हैं। सामने झुकता तो फ़ायदा बहुत होता बस अपनी क्लास से कटने का थोड़ा सा दर्द दिल को सालता। मैं इस दर्द से डर गया। हा हा….
कल का दिन कुछ ऐसा था कि सब गड़बड़ ही हो रही थी। सुबह सुबह एक ब्लॉग देखा, यहाँ जो कुछ हुआ आप चैक कर लें। इसके बाद देखा सतीश सक्सैना जी की पोस्ट - ब्लॉग पाठकों से अनुरोध - हम भी चले गये। पढ़ा भी और देखा भी। पिछले कई दिन से ब्लॉग जगत पर एक सस्पेंस सा छाया दिखता है मुझे। दूसरे आधारों के अलावा यहाँ भी एलीट और नॉन एलीट ब्लॉगर्स के आधार पर बंटवारे झलकते हैं। एलीट ब्लॉगर्स पोस्ट लिखते हैं और पाठकों से राय, मत, अभिमत, दुआ, सलाह बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन असली बात गोल कर जाते हैं। किस बारे में बात कर रहे हैं, कौन, किसके साथ, क्या कर गया, इसका कोई जिक्र नहीं, बस्स ये बताओ कि मैं ब्लॉग बंद कर दूँ, ब्लॉगिंग बंद कर दूँ, अपनों ने ही ये किया और भी बहुत कुछ। मुझे तो सक्सेना साहब की पोस्ट भी उसी लय की लगी, पुराने ब्लॉगर्स से तो नहीं लेकिन नये ब्लॉगर्स से दुख हुआ था उन्हें।
अब अपनी अल्प बुद्धि के हिसाब से हम भी नये और युवाओं में ही आते हैं। बाल उड़ने लगे हैं, सफ़ेदी झलकने लगी है तो क्या हम युवा नहीं रहे? जिन्होंने कभी हाकी या फ़ुटबाल खेली हो, वो जानते होंगे कि प्रैक्टिस को अलग रख दीजिये और एक-डेढ़ घंटे के खेल में भी जो पसीने आ जाते हैं वो बहुत से बहुपापुलर खेलों में पूरे दिन में नहीं आ सकते। जब तिरासी वर्षीया विद्या स्टोक्स को हाकी संघ का अध्यक्ष बनाया जा सकता है तो हम चालीस साल की उम्र में खुद को बूढ़े कैसे मान लें? फ़िर अभी साल भर भी नहीं हुआ ब्लॉगिंग में आये, आज तक किसी ब्लॉगर से मुलाकात नहीं हुई, तो कह सकते हैं कि हम युवा भी हैं और नये भी। वैसे भी पड़ी कुल्हाड़ी में जाकर पैर मारने की आदत के चलते और ऊपरी पैरे में वर्णित बातों के चलते और ’बाई वर्च्यू ऑफ़ बीईंग ए प्राऊड नॉन-एलीट ब्लॉगर’ एक कमेंट मार दिया कि लो भाईसाहब, तुम अपनी ये एलीट मानसिकता अपने पास रखो। ये गोलमोल बातें अगर आम ब्लॉगर नहीं पचा सकते तो क्यों नहीं ऐसी पोस्ट्स केवल आमंत्रित ब्लॉगर्स के लिये नियत ब्लॉग पर ही डालते? हम भले और हमारी पिछड़ी मानसिकता भली।
कुछ देर बाद देखा तो सक्सेना साहब ने शहद से ही मारने का जुगाड़ कर दिया है। जब हम खुद ही अपनी कमियाँ मानने को तैयार हैं तो हमें समझदार और हमीं से उम्मीद बता गये। बाद में सादर भी लिख दिया। ले बेटा संजय, अब पढ़ो वो कव्वाली। बाद में दीपक मशाल के कमेंट्स, अंशुमाला जी के कमेंट्स, दूसरे बड़े धुरंधरों के कमेंट्स और उन पर सक्सेना साहब के जवाब से फ़िर अपनी नासमझी उजागर हो गई। अमिताभ बच्चन की कोई फ़िल्म थी, शायद ’ईमान धरम’, जिसमें अदालत में गवाही देते समय हाथ के इशारे से मकतूल का कद बताते हैं बिग बी, और ये पता चलने पर कि मकतूल एक मुर्गा है उल्टे वकील साहब को ही कह्ते हैं कि आप जल्दी बहुत करते हैं, दूसरा हाथ तो अभी देखा ही नहीं आपने। हम भी बहुत बार यहाँ मुँह बाये दूसरा हाथ देखते ही रहते हैं
जानता हूँ कि मेरे कहे पर यकीन नहीं करेंगे आप लोग, लेकिन इस डिप्लोमैटिक भाषा के हम हैं तो फ़ैन, किसी बात को इस अंदाज में कहना कि अलग अलग समय पर अलग अलग लोगों के सामने उसके अलग अलग मतलब निकल सकें। लेकिन हमारे फ़ैन होने के बावजूद जहाँ हमारा वास्ता हो, ये फ़िट नहीं लगती। हमें तो सीधे से कुछ कह दो, चाहे उम्र कैद ही दे दे कोई, लेकिन कहे सीधी भाषा में। नहीं तो हमें छूट है कि हम किसी भी बात को अपने ऊपर ओढ़ें या बिछायें। एक मजे की बात ये है कि मेरा एक दोस्त भी मुझ पर ऐसी भाषा बोलने का आरोप लगा चुका है। आदमी को कहता है, आदमी जो सुनता है, हा हा हा। मैच्योर होने में मुझे बहुत समय लगेगा फ़िर भी कोई गारंटी नहीं क्योंकि मैं खुद मैच्योर नहीं होना चाहता। इतने समय के बाद तो नासमझी दिखाने का मौका मिला है, अब भी चूक जाऊँ?
सक्सेना साहब, आपका सम्मान करता हूँ, किसी बात पर अपनी राय देने का यह अर्थ मत निकालियेगा कि मेरे मन में आपके लिये या किसी के लिये भी कुछ वैमनस्य है। अगर आप यह पढ़ें तो इतना अनुरोध अवश्य मानियेगा कि छोटा हूँ आपसे, अपने से ज्यादा समझदार और सादर जैसे शब्दों से मत मारियेगा। पत्थरों से डर नहीं लगता, फ़ूल ज्यादा चोट दे जाते हैं।
लेकिन अपना सवाल अब भी वही है, अगर कोई बात किसी को उद्वेलित कर रही है, वो ब्लॉगजगत को अपना परिवार भी मानता है तो फ़िर अंदर की बात बताने में दिक्कत क्या है? और अगर ऐसा लगता है कि सब नहीं पचा पायेंगे तो फ़िर पब्लिक स्पेस और प्लेस पर इन बातों का हाईप क्यों क्रियेट किया जाये? अपने अपने सैलेक्टेड गुट या ग्रुप बनायें सब, खुलकर विचार विमर्श करें आपस में, ताकि हमारे जैसे अवांछित तत्व उत्पात न कर सकें और किसी के भावुक हृदय को हमारे कारण ठेस न लगे।(आखिरी पांच पैराग्राफ़ के लिये सिर्फ़ हा…) हा हा हा…
वैसे हो सकता है कि ये पोस्ट कुछ लोगों को नागवार लगे, कोई बात नहीं। वैसे भी अपन यहाँ नामी होने के लिये नहीं आये थे न ये स्थायी मुकाम है जितना कुछ पा लिया यहाँ से, अगर उसी का मान रख सके तो बहुत होगा। जिस किसी को हमारे साथ खड़े होने के कारण शर्मिंदगी लगे, उस भाई बन्धु को मन मसोसने की कोई जरूरत नहीं। अपने को किसी से कोई गिला नहीं रहता। निभेगी तो ठीक, न निभेगी तो भी ठीक - देखी जायेगी.....!!
हमेशा की तरह मेरी लास्ट की पंचलाईन बहुत निराश करने वाली ही है, है न?
:) एक छोटा सा चंचल सा खरगोश कड़ी धूप में इधर उधर डोल रहा था। एक हाथी सोया हुआ था। खरगोश को तो वह एक बड़ा महल सा ही लगा। जिज्ञासु खरगोश ने उस विशालकाय महल के पिछले दरवाजे में सिर घुसाया और धूप और गर्मी के चलते प्रवेश भी पा गया। अंदर नमी और ठंडक के चलते उसे नींद आ गई। उधर शाम हुई तो हाथी उठा और चल दिया। अब खरगोश की हालत खराब, कभी इधर गिरे कभी उधर। कैसी कैसी तो आवाजें आ रही थीं। मौसम ठंडा होने के कारण रास्ते भी सिकुड़ गये थे। कयामत की रात की तरह वह रात उस पर बहुत भारी पड़ी। अगले दिन लगभग वही दिन का समय था और वही मुद्रा, खरगोश को सिमसिम खुला मिला और वो जान छुड़ाकर बाहर कूदा। संयोग से फ़त्तू वहीं से गुजर रहा था, उसने ये करिश्मा देखा तो भागकर उस आलौकिक खरगोश के पांव पकड़ लिये। अब खरगोश पैर छुड़वाये और फ़त्तू कहे कि उपदेश दो कोई, फ़िर जाने दूँगा। तंग आकर खरगोश ने कहा, “बालक, यही है हमारा उपदेश और यही है हमारा संदेश कि बड़ों के भीतर घुसना तो बहुत आसान है लेकिन बाहर निकलना बहुत मुश्किल।”
फ़त्तू अभी भी रिसीविंग ऐंड पर चल रहा है, लेकिन वक्त बदलेगा जरूर। उस ने यह संदेश मुझ तक पास-ऑन किया, मैं आप तक कर रहा हूँ।
कल रात को जो कुछ चिट्ठाजगत पर देखा, उसके बाद इस ब्लॉगजगत का हिस्सा होने पर शर्म भी आ रही है लेकिन फ़त्तू के अश्लील होने का अपराधबोध बिल्कुल खत्म हो गया है। यहाँ जो लिखा जा रहा है, कम से कम उसकी जिम्मेदारी से तो मैं पीछे नहीं हट रहा। पंजाबी की एक कहावत है, "किसी नूँ माह(उड़द) स्वादी ते किसी नूँ माह बादी(वात रोग करने वाली), लेकिन जिस गंदी भाषा का इस्तेमाल देखा, बहुत बुरा लगा।
गाना सुनो यारों, भाषण तो बहुत हो गया। किशोर दा भी ना बस्स.. -
गाना सुनो यारों, भाषण तो बहुत हो गया। किशोर दा भी ना बस्स.. -
सोमवार, अक्तूबर 11, 2010
बारात, ब्लॉगिंग और प्रेरणा।
- आप को पढ़कर लगता है कि आप पक्के बिगड़े हुये हो, वो भी पुराने।
- जितनी भी कहानियों के नाम पर पोस्ट हैं, सब एकदम असली संस्मरण हैं।
- आपको कमेंट देने से पहले दस बार सोचना पड़ता है।
- बहुत अच्छा लिखा है, सीरियस में।
- आप अपने स्वभाववश गले मिलोगे, फ़िर मुझे डर है कि कहीं मैं ही गायब न हो जाऊँ।
- आपका फ़त्तू अश्लील होता जा रहा है।
- कभी कभी आदरणीय संजय जी अच्छी बात भी कह देते हैं।
ये उनमें से कुछ उदगार हैं जो अपने कीमती समय में से टाईम मैनेजमेंट करके, रातों की नींद खराब करके, बचे दिमाग में से खुरच खुरच कर चिपकी हुई सोचों को भी बाहर निकालकर, अपनी उंगलियों को तोड़कर और कहीं से ईंट और कहीं से पत्थर जोड़कर हम जो हिन्दी साहित्य, ब्लॉग, भाषा, देश, समाज और दुनिया की सेवा करने में लगे हुये हैं, उसके बदले में हासिल हुये हैं। भलाई का जमाना नहीं रहा जी। पहले से पता होता तो हम ये पंगा लेते ही नहीं। फ़िर ले लिया था तो शुरू में ही टिप्पणी बाक्स बंद रखते, जैसे हथकढ़ भाई ने किया था। फ़िर भी थोड़ी सी अक्ल होती तो सतीश पंचम जी की तरह या गिरिजेश साहब की तरह बाद में कमेंट बाक्स बंद कर देते।
फ़िर भी हम सोचते रहे कि आप सुधर जायेंगे(अपना तो हमें पक्का पता है, सुधरने वाले जीव नहीं है) लेकिन आप भी नहीं सुधरे हैं। सबको मिला हुआ है एक खिलौना, कितना आसान उपाय है कि बन जाओ समर्थक और हमारी ही गोभी खोदे जाओ। एक हम थे कि गिनती बढ़ते देखकर खुश हो रहे थे कि हमारी फ़ौज तैयार हो रही है। ये नहीं पता था कि सारे दुश्मन हैं हमारे।
बहुत झेल लिया। और नहीं, बस और नहीं। हमारे सब्र का पैमाना भी अब छलक गया है जी। बिगड़ा हुआ अतीत देखते हो, सुधरा हुआ वर्तमान नहीं दिखता? हाँ, कहानियाँ नहीं असली किस्से हैं सारे, कल्लो जिसे जो करना है। कमेंट देने से पहले दस बार क्यों सोचते हो जी, हम तो नहीं सोचते पांच बार से ज्यादा ये सब लिखने से पहले भी। भाई साहब, सीरियसली तो हमने जिन्दगी को नहीं लिया तो हमारी पोस्ट पर आप क्यों सीरियस होते हो? पकड़े जाने से किसे डराते हो जी, यहाँ तो छूटने से डरते हैं हम। मुझे वो गुंडा, मवाली मुन्नाभाई समझ रखा है कि सबके जाकर जादू की जफ़्फ़ियाँ डालता रहता हूँ। फ़त्तू को न लाऊँ तो नहीं बख्श्ते और ले आऊँ तो बेचारे को नहीं छोड़ते। और ये कभी कभी अच्छा लिखने वाला आरोप तो बस शर्म से गर्दन झुका रहा है मेरी। बाकी सब अच्छा लिखने वाले क्या सारे किसी ब्लॉगर्स मीट में चले गये हैं जो मैं करूंगा ये काम? मेरी किसी पोस्ट में या कमेंट में आपको लगा हो कि अच्छा लिखा है तो ये आपकी कमी है जी। ऐसे घॄणित काम करने से पहले हम ये दुनिया छोड़ देना ज्यादा पसंद करेंगे जी। अच्छा लिखते हो, ये कहकर सारी मेहनत पर पानी फ़ेर दिया। हद हो गई यार। बहुत गुस्सा आ रहा है मुझे।
चलो, कुछ और बात करते हैं। परसों बहुत दिनों के बाद एक टिपिकल इंडियन बारात में जाने का मौका मिला। कई सालों से ये प्रैक्टिस चल रही थी कि सीधा टाईम के टाईम ही मैरिज प्लेस पर जाते थे। अमूमन बारात आई नहीं होती थी, हम खा पीकर पंडाल के बाहर ही घूमते रहते थे। बारात आई तो जाकर परिचितों से मिलते, गिला करते कि देख लो हम कब से आये हुये हैं और आप ही लेट हो। लिफ़ाफ़ा पकड़ाते जबरदस्ती और बारात अंदर होती और हम घर की राह पकड़ लेते।
लेटेस्ट बारात में जाने का मौका मिला तो साथ जाने वाले ने बाईक से जाने से मना कर दिया कि घर से चालीस किलोमीटर जानी है बारात और लौटते में रात ज्यादा होगी, रास्ता ठीक नहीं है। मान ली उसकी बात। तैयार होकर इंतजार कर रहे थे कि कब चलेगी बारात। समय का सदुपयोग करने के लिये, तैयार होकर आकर कंप्यूटर के सामने बैठ गये। बाहर से बैंड की आवाज सुनाई दी तो लॉग-ऑफ़ करके बाहर भागे। एक दो गाने पर पीं-पां-पूं-पां करके वो चुप हो गये, हम समझ गये कि हमें फ़िर से मामू बना दिया गया है। फ़िर से आ गये नैट पर। फ़िर दो तीन बार वही बात हुई। साढ़े नौ बजा दिये ये सब करते करते। एक बार तो मन में आई कि दूल्हे मियाँ को जाकर कोंच दें, फ़िर सोचा कि बेचारे की आजादी जबतक अक्षुण्ण रह सके तो रहने दें। आखिर तो छुरी तले आ ही जाना है मुर्गे ने, हम क्यों इल्जाम लें अपने सर। खैर, बड़ी मुश्किल से निकले तो आगे जाकर एक मिनी बस और पांच छह बोलैरो, क्वलिस वगैरह खड़ी थीं। अब सब को बस में बैठने में आती थी शर्म और सब इस जुगाड़ में कि गाड़ी में ही बैठने को मिले। हमें तो अपनी औकात पता ही थी, जाकर चुपचाप बस में बैकबेंचर बन गये। पुरानी आदतें जाती नहीं हैं। सारी कारों को निकालकर, बचे खुचे बारातियों को लेकर जब बस निकली तो घड़ी में पौने दस बज गये थे।
घर से एक किलोमीटर गई होगी बस कि एक के मोबाईल पर कोई फ़ोन आया और उसने चिल्लाकर बस रोकने को कहा, “राजू और उसके बच्चे तो रह ही गये हैं।” बस को साईड में लगवाकर इंतज़ार का मजा लेने लगे। दस पंद्रह मिनट में राजू साहब भागते, दौड़ते, हांफ़ते हुये बीबी बच्चे समेत मौके पर पहुंच गये। बीबी बच्चों को बस में चढ़ाकर अब राजू चाचा खुद टंकी पर चढ़ गये। “हमें छोड़कर आ गये, हमारी कोई इज्जत नहीं है क्या? जाओ, हमें नहीं जाना।” अब जिनके घर में शादी थी वो सब लगे हैं उसे मनाने में और उन जनाब ने एक ही जिद पकड़ रखी थी कि मैंने जाना ही नहीं। पहले छोड़कर आ गये, अब मिन्नतें कर रहे हैं। काफ़ी देर तक ड्रामा चलता रहा। आखिर में हमें ही जाना पड़ा। “यार गजेन्द्र, जो कहना सुनना है बस में ही बैठकर कह लेना, पहले ही लेट हो गये हैं।” वो फ़िर से गुस्से में बोला, “हमने जाना ही नहीं है और श्रीमान जी हमारा नाम गजेन्द्र नहीं है”
मैंने कहा, “अगर जाना नहीं तो फ़ोन करके बस क्यों रुकवाई तूने, ये तो तुझे छोड़ ही आये थे। फ़िर एक किलोमीटर की दौड़ लगाकर यहाँ तक आये हो, बीबी बच्चों को बस में बिठा दिया है और ड्रामा कर रहे हो कि हमें नहीं जाना। ऐसा तो हमारे ब्लॉगजगत में कर रहे हैं लोग बाग। पहले कुछ लिखकर जगह जगह जाकर न्यौते बांटते हैं कि आओ, ले लो ……मजे मेरे ब्लॉग पर। और फ़िर कभी अपने ब्लॉग पर वोट करवाकर अपनी बात को जस्टीफ़ाईड करते हैं, कभी लोगों को सैंटीमेंटल करते हैं कि शायद मेरे ब्लॉग की आखिरी पोस्ट है, जरूर देखें। कभी किसी का कमेंट तोड़ मरोड़ कर अपने हिसाब से प्रस्तुत करते हैं। और भैया, हमने तो ऐसे महान कलाकारों को भी कह दिया था कि कहीं नहीं जाना है तुम्हें, निरा ड्रामा है ये। इशारे में मैसेज दिया भी कि कम से कम हमारे यहाँ लिंक वगैरह बिखेरकर न जाये, कुछ फ़ायदा नहीं है, लेकिन वो पक्के कर्मयोद्धा हैं ,नहीं मानते। अब तुम एक आम आदमी होकर महान ब्लॉगरों का मुकाबला कर रहे हो? नहीं जाना तो उतार अपनी बीबी बच्चों को और बस को जाने दे।” दूल्हे के परिवार वाले डर रहे थे कि बात बिगड़ी अब, लेकिन राजू बन गया जैंटलमैन। टंकी से उतरा और बस में चढ़ा और बैठा भी हमारी सीट के पास ही। रास्ते में कह रहा था, “भाई साहब थोड़ा सा ड्रामा करना जरूरी होता है।”
तो जी, साहब लोगों, हमने भी उस खरबूजे को देखकर रंग बदल लिया था जो शुरू में ऊपर लिख दिया है। थोड़ा सा ड्रामा करना जरूरी बताते हैं आजकल, सोशल बनने के लिये। हम खुद को एंटी सोशल एलीमेंट मानते रहे अब तक, तो थोड़ा सा सुधार करने की सीख दी है मेरे दोस्त ने, कर दिया ड्रामा। फ़िर से कह रहा हूँ सीरियसली लेने की चीज नहीं हम। टेक इट इज़ी पालिसी, जीत का ये मंत्र है, टेक इट ईज़ी पालिसी।
अगर आप सब समझ रहे थे कि सच में कहीं भाग रहा हूँ तो आप गलत थे। हम तो जब भागने भगाने की उम्र थी, तब नहीं भागे तो अब क्या खाक भागेंगे? ऐसे खुश नहीं होने दूंगा अभी। जब जायेंगे तो अपनी वजह से ही जायेंगे।
एक जरूरी काम से कुछ दिन के लिये एकाध दिन में जाना पड़ रहा है। वापिसी में दो दिन से दो सप्ताह तक लग सकते हैं। नैट शायद उपलब्ध हो भी जाये, लेकिन समय की अनुपलब्धता रहेगी। वैसे भी बहुत से बड़े लेखकों की तरह अपन तो किसी खास मुद्रा और माहौल में ही कम्प्यूटर के सामने बैठ सकते हैं, जो हर जगह संभव नहीं होता। मालूम है कि फ़र्क नहीं पड़ता किसी को, लेकिन इतने समय से आप लोगों के साथ हैं तो बताना फ़र्ज समझा। वैसे भी एक कहावत है कि ’कुछ सीखो तो ऐसे कि जैसे तुम्हें हमेशा जिन्दा रहना है और जब कुछ करने का समय आये तो ऐसे करें कि आज आपकी जिन्दगी का आखिरी दिन है’ अपन उसमें ये और जोड़ लेते हैं कि जाने का टाईम हो तो एक बार सब से कह सुन कर ही जाया जाये, फ़िर क्या हो या न हो।
जब तक हैं, काम चलाईये हम से। जब नहीं होंगे तो मो से बेहतर ढेर हैं, लौटेंगे तो फ़िर से अपनी ढफ़ली अपना राग शुरू करेंगे, कोई सुनेगा तो बढ़िया नहीं तो और भी बढ़िया।
जाते जाते एक रिक्वेस्ट, हमारी बेमतलब की बातें सुनकर आप ने जो तालियां बजाई हैं, उस पाप का प्रायश्चित करने का उपाय है किसी सार्थक लेखन वाले ब्लॉग पर जाकर अपनी राय देना। अपनी नजर में एक ब्लॉग ऐसा है, कि अगर मेरी सोच परिपक्व होती तो मैं वैसा लिखता। ब्लॉग का नाम है, ’सम्वेदना के स्वर’ और एड्रैस है http://samvedanakeswar.blogspot.com/ अगर आप समय निकालकर नजर मारें तो हो सकता है चीजों को देखने का एक नया नजरिया दिखे। ऐसा ही एक नया ब्लॉग है ’भारत भारती वैभवं’ ‘ @ http://bharatbhartivaibhavam.blogspot.com/. आप कह सकते हैं कि आये थे नमाज पढ़ने और रोज़े गले पड़ गये। साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे – ऐवें ही।
पिछली पोस्ट पर मेरे प्रतिभाशाली मित्र प्रतुल को मेरे कमेंट से शायद कुछ गलतफ़हमी हो गई। दोस्त, बड़े लोगों की नाराजगी झेल लेंगे लेकिन मिडल क्लास का आदमी हूँ, अपनों की नाराजगी भारी पड़ती है। सार्वजनिक रूप से खेद प्रकट करता हूँ, अगर मैं कुछ गलत कह गया। वैसे, रह लोगे गुस्सा मुझसे? रहा जा सके तो रह लेना भाई, हमारी तो ……देखी जायेगी।
:)फ़तू हो गया रेलवे में भर्ती। बन गया केबिन मैन। घर पर जब उसकी बीबी पूछती कि क्या काम करते हो वहां पर, तो वो बड़ी बड़ी बातें बताता। बीबी सब बीबियों की तरह उसकी कदर नहीं करती थी। आखिर एक दिन फ़त्तू ने उसे कहा कि आज दोपहर को रोटी देने आ जाये, वो उसे अपनी पावर दिखा देगा।
दोपहर में खाना पहुंच गया। मेल गाड़ी के आने का सिग्नल मिला तो फ़त्तू ने अपनी बीबी से कहा, "देख, आज मैं अपनी पावर से गाड़ी रोककर दिखाता हूं।" बीबी हैरान, फ़त्तू ने लाल झंडी उठाई और उसी पटरी पर खड़ा होकर लाल झंडी हिलाने लगा। ड्राईवर साहिब ने इमरजेंसी देखकर गाड़ी रोक दी और उतर कर उसके पास आकर बात पूछने लगे। कोई वजह न पता चलने पर ड्राईवर ने गुस्से में फ़त्तू को जोर का तमाचा जड़ दिया और गाड़ी लेकर चल दिये।
फ़त्तू अपनी बीबी के पास पहुंचा, "देख ली मेरी पावर, रोक दी न गाड़ी?"
बीबी ने पूछा, "तुम्हारी पावर तो देख ली, पर वो जो ड्राईवर ने तुम्हें थप्पड़ मारा, उसका क्या?"
फ़त्तू, "वो उसकी पावर थी।"
चलो जी, अब थोड़ा सा सीरियस टच भी हो जाये, मेरा आलटाईम फ़ेवरेट गाना, किसका फ़ेवरेट नहीं होगा भला? ऐसा हो नहीं सकता … लेकिन हो भी सकता है वैसे, क्या बड़ी बात है !!
शुक्रवार, अक्तूबर 08, 2010
हम एक नहीं हैं ----
१. “अच्छा, तो श्रीमान जी पंजाबी हैं? वैसे रहने वाले कहाँ के हो?”
“दिल्ली।”
“दिल्ली? अरे बाप रे।” कहकर उसने अपने हाथ की उंगलियाँ चैक कीं, और दूसरे लोगों को सुनाकर कहने लगा, “उंगलियां चैक कर रहा था, कहीं एकाध कम तो नहीं हो गई” और ठठाकर हंस दिया।
पंजाबी होना और दिल्लीवासी होना गोया एक तो करेला और दूजे नीमचढ़ा। दो चार सवाल और पूछे गये, भरसक तल्खी भरे जवाब सुनकर पता नहीं क्या लगा उसे कि हमें कमरा किराये पर मिल गया।
इन दिनों गैस सिलेंडर की सप्लाई बहुत अनियमित थी, और खुदा मेहरबान की तर्ज पर हमारी एक ब्रांच में गैस एजेंसी वालों का एकाऊंट था। स्टाफ़ में किसी को सिलेंडर चाहिये होता तो ब्रांच में फ़ोन कर देते। ब्रांच वाले हैड आफ़िस वालों की परवाह करते थे और गैस एजेंसी से जो कलाम मियां बैंक आया करते थे वो ब्रांच वालों का पूरा ध्यान रखते थे। हमें या हमारे किसी परिचित को कभी गैस की दिक्कत तो नहीं आने पाई।
उस मकान में रहते हुये तीन चार महीने हो गये थे, रिश्ता अपना सिर्फ़ शुरू की एक या दो तारीख में किराया दे देने तक का ही था। इतनी जल्दी का मकानमालिक की तरफ़ से कोई तकादा नहीं था, हमें अपनी पैंटों के फ़टे छेद का पता था सो समय से हिसाब बराबर कर देते थे वैसे भी किसी को कुछ देना हो तो दे दाकर साईड करो, ये उसूल अपने को तब भी पसंद था। दिमाग में साली और बातें कम हैं रखने को, जो ये भी याद रखें कि किसे, कब, क्या, क्यों और कितना देना है?
सुबह उठकर लगे हुये थे यारों के साथ घालामाला करने में कि मकान मालिक साहब आये। नमस्कार लेन देन करने के बाद कहने लगे कि सिलैंडर खत्म हो गया है, और घर में आज श्राद्ध है, सिलैंडर दिलवाने में मदद करनी होगी। साथी हमारा चाय बना चुका था, उन्हें भी चाय की प्याली थमाई। चाय पीते पीते उन्होंने फ़िर से वही कहा, गैस जरूरी है आज तो मदद करनी होगी।
“मुझसे मदद के लिये कह रहे हैं?”
“हाँ, आप से ही कह रहे हैं, उस दिन सुना था कि आपकी जान पहचान है।”
“लेकिन भाई साहब, मैं पंजाबी हूँ। और साथ में दिल्ली का रहने वाला हूँ। लोग तो हाथ मिलाने के बाद उंगलियां चैक करते हैं कि कहीं कम तो नहीं हो गई और आप मुझसे मदद की कह रहे हैं।”
“अब काहे शर्मिंदा करते हो जी? एक छवि ही ऐसी बनी है मन में, क्या करें। लेकिन उस दिन तुम्हारे जवाब सुनकर लग गया था कि बंदा सुनने वाला नहीं है इसलिये तो कमरा दिया था। अब इतनी पुरानी बात दिमाग से निकाल दो।”
“आप का काम तो हो जायेगा, लेकिन आईंदा जबतक किसी को आजमा न लें, किसी की व्यक्तिगत विशेषता के बारे में मजाक न उड़ायें। रही बात दिमाग से निकालने की, तो ये मौका दस साल तक न मिलता तो ये बात दिमाग में रहने वाली थी।”
बहुत अच्छे संबंध रहे हमारे उन साहब के साथ, लेकिन भूले वो भी नहीं ये बात और मजाक मजाक में कभी कभी सुना ही दिया करते थे कि मौका नहीं चूके तुम।
२. उसका नाम राम विलास था। हम बी.काम में पढ़ते थे और वो बी.ए. मे।
कभी हमारे दोस्त कृष्ण का क्लासमेट रहा था और उन दिनों राजीव के पडौस में रहता था। एक नंबर का टाईमपास आईटम था। ’मिस-क्लास’ ने एक बार उससे किसी किताब के बारे में फ़र्स्ट ईयर में पूछ लिया था और वो कालेज छोड़ते तक उसके पीछे भी रहा था और उससे नाराज भी रहा था। उसे दूसरों के साथ हंसते बोलते देखकर हमसे कहता था, “जब इसे हमारी बनना ही नहीं था तो उस दिन बात क्यों की थी?” और हमारे में से कोई खड़ा होता कि मैं अभी जाकर बात करता हूँ इस साली से, मजाक समझ रखा है किसी के दिल के साथ ऐसा खेलना? और वो कसमें खिलाकर हमें रोक लेता था। ये ड्रामा रोज का था।
कालेज छूटा तो सब एकबारगी तो बिखर गये। ग्रुप के बाकी लोग तो टच में अब तक हैं लेकिन ऐसे टाईमपास कहाँ रह गये, नहीं पता चला। छह सात साल बाद उससे मुलाकात हुई एक दिन रेलवे स्टेशन पर, उसीने पहचाना। “संजय, क्या हाल हैं?”
“ठीकठाक, अपनी सुना।” सुनाई उसने। इतने सालों में एक शादी, तीन बच्चों का बाप और छ जगह पर नौकरी कर चुका था। “तीन हजार रुपये मिलते हैं, इतना परिवार है और महंगाई इतनी। फ़िर प्राईवेट नौकरी का तुझे पता ही है, पता चले कि कल गये तो मालिक ने जवाब दे दिया।” उसके बाद उसने मेरे बारे में पूछा। फ़िर लगभग रोज ही गाड़ी में मिलने लगा। और वही पुरानी आदत के हिसाब से उसके रिकार्ड की सुई एक ही जगह फ़ंसी रहती। “तू बढ़िया है, बैंक की नौकरी है। यहाँ तो बुरा हाल है। अच्छा, जिस गाड़ी में तू जाता है वो अमुक स्टेशन पर कितने बजे पहुंचती है, कितना हाल्ट है, प्लेटफ़ार्म ऊंचा है या नीचा है, लगभग कितने लोग चढ़ते हैं और कितने उतरते हैं, ऐसा और वैसा…….” और ये जानकारी उसे हर स्टेशन के लिये चाहिय होती थी। कई बार माथा फ़िरता भी, मैं सोचता जाने दो यार पहले से ही दुखी है।
मेरे एक परिचित थे जिनका स्पेयर पार्ट्स का अच्छा कारोबार था। एक दिन बातों बातों में उन्होंने कहा कि किसी विश्वासपात्र आदमी की जरूरत है, कोई हो तो बताना। उधर राम विलास कई बार कह चुका था कि कहीं ढंग की नौकरी का जुगाड़ बने तो ध्यान रखा जाये उसका। मैंने पांच हजार में उसकी नौकरी की बात कर ली, आदमी ईमानदार ही दिखता था। शाम को गाड़ी में मिला तो मैंने उसे उनका कार्ड दिया और उसे कहा कि अच्छी नौकरी है, जाकर मिल लेना।
रोज मुलाकात होती और उसका जवाब होता कि जाऊंगा किसी दिन। एक दिन मैं उसके कुछ ज्यादा ही पीछे पड़ा तो उसने मुझसे पूछा, “वैसे तुम्हारे ये परिचित हैं कौन?”
“मेरे अच्छे परिचित हैं यार, बहुत मानते हैं मुझको।”
“नहीं वैसे हैं कौन?”
“अरे, उनका स्पेयर पार्ट्स का बिज़नेस है बहुत अच्छा, और खुद बहुत बढि़या इन्सान हैं।”
“वो तो ठीक है, मेरा मतलब वैसे कौन हैं?”
“बता तो रहा हूँ यार, फ़िर तू वही वैसे कौन और वैसे कौन ……। अच्छा…, अब समझा। भाई, वो भी पंजाबी हैं।”
फ़िर उसने थोड़ा सोचकर कहा, “मुझे भी ऐसा ही लग रहा था। यार, नौकरी और तनख्वाह तो बढ़िया लग रही है पर जो पंजाबी होते हैं न, बहुत बदमाश होते हैं।”
मैंने उसके हाथ से कार्ड लेकर फ़ाड़ दिया और कहा, “तू तो ऐसे इंटरव्यू ले रहा है जैसे लड़की का रिश्ता करना हो तूने।"
आज भी घर जाता हूँ तो हाथ में थैला लिये हुये दिख जाता है, लोकल टेलर्स को बटन और चैन वगैरह सप्लाई करता है। हाँ, इतना संतोष जरूर है उसे कि किसी बदमाश पंजाबी के यहाँ नौकरी नहीं करता।
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ऐसा नहीं कि ये पूर्वाग्रह सिर्फ़ पंजाबियों को ही झेलने पड़ते हैं। पंजाबी, बंगाली, बिहारी, नेपाली, मद्रासी, सिंधी, मुसलमान, गांव वाले, शहरवाले, सरदार – अनगिनत पैमाने हैं जिनके आधार पर हमने अपने दिलों में पूर्वाग्रह बना रखे हैं। जरा सोचें कि इनमें से कोई एक होने में हमारा या किसी का क्या योगदान है? जब जन्म लेना अपने हाथ में नहीं है तो किस धर्म में, किस देश प्रदेश में, किस लिंग में जन्म लेंगे यह कौन तय कर सकता है?
देखा जाये तो हम सब में एक समानता है कि हम सब इंसान हैं। इसके बाद के सभी वर्गीकरण हमारे खुद के बनाये हुये हैं। जहाँ हमारा जन्म हुआ, जिस परिवार में हम पले बढ़े , जैसे माहौल में रहे, शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की इन सब का हमारे व्यक्तित्व पर असर पड़ता है। और बहुधा ये चीजें हमें विस्तार देने के बजाय बाँधती ही हैं। बचपन से ही कुछ बातें हमारे दिमाग में ऐसी बैठ जाती हैं कि इन्हें बाहर निकालना मुश्किल हो जाता है। लेकिन पूर्वाग्रहों से बाहर निकलना मुश्किल जरूर है, असंभव नहीं। किसी के बारे में सुनी सुनाई बातों के आधार पर छवि बना लेना कहाँ तक उचित है?
इन सब चीजों से बचने का सबसे सरल उपाय है दिमाग की खिड़कियाँ-दरवाजे खुले रखना। किसी से संवाद हो, एक दूसरे के व्यू प्वाईंट जानें तो हम बेहतर निर्णय ले सकेंगे। हम सब अपनी व्यक्तिगत पहचान रखते हुये भी एक सामूहिक पहचान तो रख ही सकते हैं। हम किसी भी धर्म. किसी भी जाति, लिंग, वर्ग से संबंध रखते हुये भी एक देश के वासी हैं। हमारी बड़ी और पहली पहचान तो एक भारतवासी के रूप में होनी चाहिये। और जो अपना दृष्टिकोण और व्यापक कर सकें और मानवता को अपना कॉमन धर्म और विश्व बंधुत्व को अपनी पहचान बना सकें तो कैसा रहे?
"’दिल के बहलाने को गालिब, ख्याल अच्छा है न?”
:) कामनवैल्थ खेलों के चलते फ़त्तू अपने ग्रुप के लोगों को लेकर कुश्ती के मैच देखने दिल्ली को चला। दिल्ली पहुँचने पर जल्दी जल्दी में गाड़ी से उतरते समय फ़त्तू का पैर एक पहलवान के पैर पर पड़ गया। पहलवान ने घुमाकर एक झन्नाटेदार झापड़ फ़त्तू के रसीद किया। फ़त्तू ने भी मोर्चा थाम लिया।
“तन्नै मेरे रहपट मार दिया, सोच्या ना कि मेरे गैल मेरा यार जैला सै?” जैले के कंधे पर हाथ रखके फ़त्तू ने पहलवान को ललकारा।
पहलवान ने अबके जैले के चांटा रसीद किया।
फ़िर फ़त्तू ने इसै तरयां बलबीरे के और राजेन्द्र के नाम पर पहलवान को ललकारा और पहलवान ने उन दोनों के भी कनटाप दिये।
फ़त्तू, “ठीक सै पहलवान जी, धन्यवाद।” हाथ जोड़कर पहलवान को विदा करने की कोशिश की।
पहलवान ने पूछा, “रै खागड़, सुनूँ था थारी बातें गाडी में, तू तो घणा स्याणा दीखे था और तन्नै ही सारे अपने यार पिटवा दये, और ईब कहे सै धन्यवाद, यूँ क्यूँकर?”
फ़त्तू, “बात यो सै जी कि मैं एकला पिटता तो गाम में जाकर सुसरे सारे मेरा मजाक करते, इब कोई सा बेटी का यार किमै न बोलेगा।”
नये नये बनते मेरे यारों, अब भी टाईम है चेत जाओ, फ़िर न कहना कि अपने साथ हमें भी पिटवा दिया। अपना काम है आगाह करना, मानना है तो मान लो, नहीं तो ,,,,,देखी जायेगी और क्या..!!
सोमवार, अक्तूबर 04, 2010
अपने हिस्से का दाना पानी..
पिछली पोस्ट ’जिन्दा या मुर्दा?’ पर दिये कमेंट में मेरे दोस्त ’विचार शून्य’ ब्लॉग के श्री पाण्डेय जी का कमेंट यह था -
“अपने ५० वर्ष कि उम्र से प्रताप कि कथा शुरू की. इससे पहले वो कैसा था ये उसकी पत्नी और बच्चों की हालत से थोडा बहुत पता चलता है. इस विषय में मैं अपनी एक ऑफिसर की बातों को दोहराऊंगा. वो कहती थीं की हमारे जीवन में जिस प्रकार हमारी सासों का कोटा बंधा है वैसे ही हमें अपने जीवन काल में कितना कार्य या कितनी मेहनत करनी है इस बात का भी कोटा बंधा है. जो लोग अपने हिस्से का कार्य अपनी जवानी में ही ख़त्म कर लेते हैं उनका बुढ़ापा मजे में कटता है और जो जवानी में अपने हिस्से का कार्य नहीं करते उन्हें बुढ़ापे में उसे ख़त्म करना पढता है. मैं इस बात में पूरी तरह से विश्वाश करता हूँ.
मुझे लगता है की प्रताप अपने हिस्से का काम कर रहा है और मेहनत करना मुर्दा होना कतई नहीं है. बुढ़ापे में मेहनत करना उसकी अपनी चुनी हुई राह है बस वो इस बात से अनजान है और इसलिए दुखी है.”
दोस्त, अधिकारी की बात में विश्वास करना ही चाहिये, फ़िर यदि महिला अधिकारी हो या अधिकारी महिला हो तो विश्वास करने के अलावा कोई दूसरा ऊपाय रहता भी नहीं। तुम्हारे विश्वास की मैं कदर करता हूँ, यकीन दिलाने के लिये एक और छॊटी सी सच्ची कहानी, जो लगभग इसी सिद्धांत को बल देती है, पेश है।
वो थोड़े दूर के रिश्ते में मेरा चाचा लगता है। उम्र उसकी मेरे आसपास होने के कारण हमारा आपस में चाचा-भतीजे की बजाय यारों-दोस्तों वाला रिश्ता था। मुझसे चार-पांच साल बड़ा रहा होगा। शुरू से ही पढ़ाई वगैरह बेकार की बातों से उसे एलर्जी थी और दुनियादारी के दूसरे कामों का शौक। छोटी उम्र में ही कई बड़े शौक पाल लिये थे। घरवाले और दुनिया वाले उसे बिगड़ा हुआ ही मानते थे, आज का समय होता तो ’थ्री-ईडियट्स’ के रैंचो से मिलता जुलता पात्र होने के कारण तारीफ़ पा रहा होता, वही करो जो मन को अच्छा लगे। आमतौर पर मैं छुट्टी वाले दिन अपनी छत से देखता कि सूरज सर पर आ गया है लेकिन वो मुंह पर चादर लेकर अपनी छत पर सो रहा है। मुझे अजीब लगता। पूछने पर कहता, “यार, रात को यार-दोस्तों के साथ बहुत देर तक घूमता रहा, ऐसा समझ कि सुबह तो सोया ही हूँ।" बीड़ी-सिगरेट, सिनेमा, घर से भाग जाना और कई ऐसे काम वो धड़ल्ले से किया करता था कि हम उसकी बुराई भी करते तो इसलिये कि हम वो सब नहीं कर पा रहे थे। लेकिन उसकी ये सभी बुराईयां ऐसी थीं कि वो किसी का नहीं, अपना ही नुकसान कर रहा था। लड़ाई झगड़ा, मारपीट, धोखेबाजी, बदतमीजी जैसी कोई शिकायत कभी नहीं आई। तो उसके घर के लोग और हमारे जैसे शुभचिंतक भी दिल से दुखी हुआ करते थे कि वो खुद को बर्बाद कर रहा है। लेकिन उसे इस सब में मजा आ रहा था। मैं उसके बिगड़ैलपन को एक किस्म का निर्दोष स्वभाव मानता था, जो मन किया वही कर लिया, यही तो आज हमें सिखाया जाता है, बेशक उसे नाम स्वतंत्रता का दे दें या कुछ और। खैर जिंदगी यूँ ही चले जा रही थी।
हम किताबों में उलझे थे, वो जिन्दगी जी रहा था। पढ़ाई, नौकरी के बाद घरवालों ने हमें आबाद भी कर दिया और वो अभी भी ऐश की जिन्दगी गुजार रहा था। उसकी शादी मेरी शादी के बाद हुई। लेकिन शादी के फ़ौरन बाद ही उसमें बहुत अंतर आ गया। सारा समय घर पर ही बीतने लगा, पुरानी बहुत सी आदतें छूट गईं, लेकिन एक आदत नहीं छूटी – देर तक सोने की। खुद कहा करता था कि ये नहीं हो पा रहा।
शादी को पांच छ साल बीत गये, बहुत सुखद गॄहस्थ जीवन चल रहा था। घरवाली ऐसी मिली, जो गरीब घर की थी और पढ़ी लिखी भी नहीं थी लेकिन घर, घरवाले और बच्चों को बहुत अच्छी तरह से संभाल रही थी। एक सुबह, शायद आठ बजे होंगे और वो गहरी नींद में सोया था कि उसकी ससुराल पक्ष की तरफ़ से एक महिला घबराई सी हालत में आई। कोई लड़का सुबह सुबह जबरदस्ती उनके घर में घुस आया था। उसे कमरे में बंद करके वो इसे बुलाने आई थी कि चलकर देखो उसे। मना कर नहीं पाया, कच्ची नींद में ही दौड़ पड़ा। उस घर के पडौस में ही दो भाई रहते थे, जो बचपन से ही इसके हमप्याला, हमनिवाला, हमसफ़र और हमराज रहे थे। उनकी नजर पड़ी तो वो भी चले आये और जब जाकर उस लड़के से गुस्से में बात कर रहे थे तो बात कुछ इस कदर बिगड़ी कि बिगड़ती गई।
शाम तक जब मैं ऑफ़िस से आया तो सारी बात मालूम चली। वो लड़का अस्पताल में था और रात आते आते चल बसा। केस दर्ज हो गया और तीनों हत्या के जुर्म में पकड़ लिये गये। जिसने चींटी भी नहीं मारी थी, आज वो हत्या के इल्जाम में जेल में था। कई महीने जेल में रहा, उसके बाद जब जमानत पर बाहर आया तो फ़िर उसने ये वाक्या बताया जिसके चक्कर में इतना बड़ा तंबू तान रहा हूँ।
शुरू में बहुत सी बातों के कारण जेल में उससे खाना नहीं खाया जाता था। मन ही नहीं करता था, एक कौर भी गले से नीचे नहीं उतरता था। रोज रोज घर से भी खाना नहीं जा सकता था, बहुत दिक्कत होने लगी थी। सिर्फ़ उतना ही खा पाता था कि जिन्दा रह जाये। बाकी रोटी दूसरे कैदी खा लेते थे। चार पांच दिन में ही वजन बहुत कम हो गया। जो भी मुलाकात करने जाता, उसकी कमजोरी बढ़ते देखकर और भी दुखी होता।
ऐसे में ही एक दिन उसके नाना जी, रहे होंगे अस्सी पिच्यासी साल के, उससे मुलाकात करने गये। देखा तो वो भी उसकी सेहत देखकर हैरान हो गये। उसे समझाने लगे, “जैसे सांसे गिनती की हैं, दाना पानी भी गिनती का है। अगर तेरी किस्मत में ऐसा लिखा है कि तुझे पचास किलो आटा जेल का खाना है तो बेटा, खाना ही पड़ेगा। अब ये तुझ पर है कि उसे पचास दिन में खत्म करता है या पांच सौ दिन में, निबटाये बिना गुजारा नहीं है।” उस बुजुर्ग की इतनी सी बात ने उसका नजरिया बदल दिया। जो सजा काट ली, उसे भूल कर पूरे जोश से बाकी सजा भी काटने को तैयार हो गया और जहाँ एक रोटी खाता था, अब पूरी खुराक खाने लगा ताकि उसके हिस्से का जेल का आटा, दाल जल्दी से जल्दी खत्म हो और वो घर लौटे।
उधर से उसने खोई हिम्मत पाई, तो तबदीर का साथ देने में तकदीर भी क्यों पीछे रहती? कुछ ही दिनों में जमानत मिल गई और वो बाहर आ गया। और पूरे मन से पेरेंट्स, परिवार और बीबी बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य निभा रहा है। अब तो कई बार कहता है कि ये चोट लगनी जरूरी थी, नहीं तो मुझे अपनों की पहचान ही नहीं होती।
जिस दिन ये बात उसने बताई, हम दोनों बैठे हुये अपनी अपनी फ़िक्र को धुयें में उड़ा रहे थे। मैंने भी उसकी बात से कुछ सीख लिया। दुख हो. तकलीफ़ हो, कार्याधिकता हो या कुछ और, जिस दिन ये मान लिया कि ये इस जेल का आटा दाल हैं और इन्हें खत्म करके ही जेल से छुट्टी मिलेगी, उस दिन से हर गम, दुख, घाटा, तकलीफ़ का आगे बढ़कर स्वागत करता हूँ। आओ जल्दी से मेरे पास, जल्दी आओगे तभी तो जल्दी जाओगे और मेरी जमानत होगी। फ़ायदे वाली बात के लिये धक्कामुक्की पहले भी नहीं करता था, अब और ज्यादा निश्चिंत होकर लाईन में सबसे पीछे खड़ा हो जाता हूँ, वो भी अगर लाईन में लगना जरूरी हो। दीगर चीजों के लिये समझिये एवररेडी की बैटरी। एक बात और सीखी कि जल्दबाजी में कोई काम न ही करें तो बेहतर होता है।
समय सब निकल जाते हैं, अच्छे नहीं रहते तो बुरे भी क्यों रहेंगे भला? प्राथमिकता अपन बुरे समय को ही देते रहे हैं जी, बाद में सुकून से रहेंगे। और अपने लिये ये फ़ार्मूला कामयाब रहा भी है। दूर दूर तक कोई गम नहीं, कोई गम का निशान नहीं, कोई हैं तो हम-बेगम, बस्स। हर तरफ़ रोशनी ही रोशनी है, नजारे ही नजारे हैं। अब तो कई बार गमों को खुद आवाज लगाता हूँ कि यारों, कोई नाराजगी है क्या? तुम तो पक्के साथी थे अपने फ़िर अब क्यों नहीं आते हो? इसका मतलब अपना कोटा लगभग पूरा है।
सलिल-चैतन्य सरद्वय, ये आपकी टिप्पणी के सन्दर्भ में भी है। ये लतीफ़े वगैरह हैं सब बहुत पिछले जमानों के, बस थोड़े से ही बचे हैं अब। यहाँ तो अगर कभी कोई गम की बात किसी को लगी भी तो इसीलिये कि कभी कभी ब्लॉगर होने की कोशिश कर लेते हैं कि कोई सिम्पैथी के चलते ही सही, कमेंट तो कर जाये क्योंकि कमेंट पाना ही यहाँ का सबसे बड़ा लक्ष्य है। कमेंट से ज्यादा की आशा करने लायक अपनी झोली है भी नहीं और आप लोग भी बेवजह ये सोचकर दुखी न हों कि ये बंदा बेचारा दुखी है। कोई दुखी वुखी नहीं हैं जी, थोड़ा सा ड्रामा कभी कभार करना पड़ता है और वो ’मो सम कौन कुटिल खल कामी’ नहीं करेगा तो और कौन करेगा? न यकीन हो तो नीचे अमित की टिप्पणी पढ़ लीजियेगा। सच में, अगर मुझे सहानुभूति और सहारे की जरूरत होती तो क्या मैं ऐसा लिखता या ऐसे छुप छुप कर रहता? इतना तय है कि अपन ड्रामेबाज एक नंबर के हैं, कल को कैरियर स्विच-ओवर करना हो तो रिस्क ले सकते हैं। पब्लिक को बनाना ही तो है, बना लेंगे।
मोटी सी बात – अपने हिस्से का दाना पानी लगभग पूरा है, जाने कब से। अब चैन ही चैन है और सुकून ही सुकून।
आज फ़त्तू की जगह कुछ और चलेगा? बरसों पहले कभी हर सांस के साथ दुहराता था इन्हें। कुछ पंक्तियां एक उस्ताद शायर की, बताईये तो किसकी हैं?
हिम्मत-ए-इल्तिज़ा नहीं बाकी.
ज़ब्त का हौंसला नहीं बाकी।
एक तेरी दीद छिन गई मुझसे,
वरना दुनिया में क्या नहीं बाकी।
अपनी मश्के-सितम से हाथ न खींच,
मैं नहीं या वफ़ा नहीं बाकी।
तेरी चश्म-ए-अलम नवाज़ की खैर,
दिल में कोई गिला नहीं बाकी।
हो चुका खत्म अहद-ए-हिज़्रो-विसाल,
ज़िन्दगी में मज़ा नहीं बाकी।
ज़िन्दगी में मज़ा नहीं बाकी॥
और गाना भी सुनकर बताईये कि मैचिंग मूड़ का है या कंट्रास्ट मूड़ का? हा हा हा...
शनिवार, अक्तूबर 02, 2010
जिन्दा या मुर्दा?
उसकी उम्र उस समय पचास साल के करीब थी। सुविधा के लिये कुछ नाम रख लेते हैं उसका, ’प्रताप’ ठीक रहेगा? सब्ज़ी मंडी में गिने चुने लाईसेंसधारक विक्रेताओं में से एक था, लेकिन घर के हालात के कारण खुद अजीब सी हालत में दिखता था या उसकी उस हालत के कारण ही उसके घर के हालात ऐसे थे, मैं नहीं समझ पाया। उसकी पत्नी कभी तो अलग अलग पैर में अलग तरह की चप्पल पहने दिखती, कभी हम देखते कि उसने सूट या सलवार उलटी तरफ़ से पहन रखा है। हाँ, चेहरे पर हमेशा एक मासूम सी मुस्कुराहत रहती थी। लोग कहते थे, बड़ी सीधी है बेचारी। ये सीधापन तारीफ़ के लायक है या तरस के लायक? बदले में क्या मिलता है इस सीधेपन के – वैसा ही सीधापन या और ज्यादा शातिराना दबंगई?
प्रताप का बड़ा लड़का कुछ पढ़ा लिखा था नहीं, ऑटो चलाता था और दिन में लॉटरी खेलता। शाम में पैसे बचे रहते तो जुआ खेलता, दारू पीता और घर आकर बीबी को पीटता और माँ-बाप कुछ कहते तो उन्हें गालियाँ निकालता। छोटा बेटा पढ़ता था और पढ़ने में अच्छा भी था। बारहवीं पार करने के बाद उसका एयरफ़ोर्स में सैलेक्शन हो गया और घर का इकलौता व्यावहारिक सदस्य घर छोड़कर चला गया।
छोटे बेटे के चले जाने के शायद साल दो साल के अंदर ही गॄहिणी दुनिया छोड़कर चली गई और घर में रह गये तीन सदस्य – प्रताप, बड़ा बेटा और पुत्रवधू। छोटे वाला तो अपनी माँ के मरने पर आया था, अब शायद जब मकान में हिस्सा बाँटने की जरूरत महसूस होगी तब आये या एक मौका और हो सकता है, जिसमें एक पंथ दो काज हो जायेंगे। खैर, हालत तो प्रताप की पहले भी बहुत अच्छी नहीं थी, वैसे भी साथ रहते रहते एक दूसरे के गुण इंसान में आ ही जाते हैं। वो भी अपनी बीबी जैसा ही दिखने लगा था। अब लोग उसे बावला कहते थे। घर पर वो भी कभी कभी बेटे के हाथों पिटने का आनंद पाने लगा था। काम धंधे में कुछ तो पूंजी की कमी के चलते और कुछ दूसरे हालात के कारण गुजारे भर लायक कमाता और शाम को लाकर दिन भर की कमाई बेटे या बहू जिसके हत्थे पहले चढ़ जाता, उसकी नजर कर देता बल्कि करनी पड़ती। इसके बदले में सुबह की चाय का पक्का नहीं था, दोपहर को अपने ठिये पर ही कुछ खा पी लेता और रात में तीन रोटी और साथ में दाल या सब्जी पा लेता था। वैसे तो कम खाना, कम सोना, कम बोलना योगियों के लिये अच्छा बताया जाता है लेकिन एक गॄहस्थ आदमी के लिये जो दिन भर बैल की तरह काम में जुटा रहे कम खाना एक सजा से कम नहीं है। प्रताप सो कम ही पाता था क्योंकि सब्जी के काम के चलते अलसुबह ही घर से निकल जाता था, कम बोलना बिल्कुल नहीं हो पाता था, हाँ कम खाना वाली शर्त बेटा बहू पूरी करवा देते थे। यानि कि ग्रेडिंग सिस्ट्म लागू की जाये तो तीन में से दो शर्तें पूरी होती थीं, और हमारा प्रताप एक योगी की कैटेगरी में फ़र्स्ट डिवीज़नर के तौर पर माना जा सकता है।
दुनिया में किसी को आपके दुख दर्द से लेना देना नहीं है, किसे फ़ुरसत है यहाँ कि दूसरे के हालात को समझे। जो ऐसे हैं, अपवाद हैं और उन्हीं के दम पर ये दुनिया टिकी है। सरकार की तरफ़ से एक अपकमिंग प्रोजैक्ट था जिसके तहत सब्जी मंडी को वहाँ से शिफ़्ट किया जाना था। नई जगह पर अलाटमेंट सिर्फ़ लाईसेंसधारक विक्रेताओं या आढ़तियों को ही होनी थी। जब यह योजना अभी फ़ाईलों में ही थी लेकिन फ़ाईनल होने वाली थी, एक स्थानीय राजनैतिक सक्रिय नेता ने प्रताप को हर तरीके से समझाबुझाकर साठ या सत्तर हजार रुपये के बदले वो लाईसेंस अपने नाम करवा लिया। इस बात का खुलासा तो छह महीने के बाद हुआ जब नई जगह एलाट होने की विज्ञप्ति जारी हो गई और लोगों ने प्रताप को बधाई दी कि अब तो उसे काम करने की जरूरत ही नहीं रहेगी क्योंकि उसका लाईसेंस ही तीन से चार लाख में बिक जायेगा। लोग उसे भी अब इज्जत से बुलाने लगे थे, पैसे का प्रताप इस प्रताप से ज्यादा था। तब तक चिडि़या खेत चुग चुकी थी और बात खुलने के बाद वो रकम भी उसके लड़के ने छीन ली, छीनना ठीक शब्द नहीं है, कहना चाहिये विनिमय कर ली। बदले में भरसक गालियाँ और मार दी थी प्रताप को। प्रताप फ़िर से बावला कहलाया जाने लगा।
साँप की मणि छिन जाये तो तेज कहाँ से रहेगा? दिन में रोटी मिलने का टाईम तो एक ही रहा, रोटियाँ कम हो गईं और गालियाँ मारपीट बढ़ गई। कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा और एक दिन प्रताप घर का बिजली का बिल जमा करवाने जा रहा था तो एक पडौसी ने हाथ में बिल देखकर बुलाया। एक कप चाय पिलाई और अपना बिल भी थमा दिया। अब हक क्या सिर्फ़ नमक का ही अदा किया जाता है? ले लिया उसने बिल और चल दिया। लौटा तो कोई और ही प्रताप था। उस दिन के बाद से मोहल्ले वालों को बिजली, पानी, टेलीफ़ोन के बिल, गैस बुक कराने जैसे कामों से निजात मिल गई है। एक बिल के बदले दस रुपये लेता है, इतना तो लोगों का पार्किंग में लग जाता था। उभय पक्ष खुश हैं। प्रताप इन दस रुपयों के बदले प्री एंड आफ़्टर सेवायें भी मुफ़्त में देता है। हर घर के हर बिल का रुटीन उसे मालूम है, संभावित तारीख से पहले ही जाकर याद करवा देता है लोगों को, कि बिजली का बिल आने वाला है, किसी किसी का तो एकाध दिन के उधार पर अपने पास से भी जमा करवा देता है, आदि आदि। रोज के दस बीस बिल तो हो ही जाते हैं, अपने पायजामे की जेब में एक पोलीथीन रखी है, एक एक घर में जाता है, बिल और पैसे लेकर उसमें रखता है और चल देता है अगले दरवाजे पर। खाता पीता बाहर ही है लेकिन अब लड़के की और बहू की गालियाँ और मार नहीं खाता।
हमारे घर के बिल भी वही जमा करवाता है। मेरे पिताजी पेंशन की बेशक परवाह न करते हों, एक सामान्य पेंशनर की तरह पासबुक में एंट्री करवाने की उन्हें भी ज़िद सी रहती है। मैंने कई बार उनसे कहा कि एंट्री की ज्यादा चिंता न करें, छह महीने बाद भी जायेंगे तो बैंक वाले पासबुक अपडेट कर देंगे, एक दिन कहने लगे कि यार तू क्यों परेशान होता है? मैं कौन सा खुद जाता हूँ, प्रताप के दस रुपये बन जाते हैं मेरा काम हो जाता है। समाज में ऐसे ही एक दूसरे के काम आते हैं हम। इसका मतलब हमारा प्रताप भी बिज़जेस एक्सपैंड कर रहा है, बैंक के काम भी पकड़ लिये हैं उसने।
लेकिन अब आ गया है ईज़ीबिल, हाथों हाथ कम्प्यूटर की रसीद लें। क्या इज़ीबिल जैसी तकनीक प्रताप के रोजगार को खा जायेंगी? नहीं, मुझे तो लगता है कि चलती रहेगी हमेशा – ये ’लड़ाई दिये की तूफ़ान की’ और चलती रहनी भी चाहिये।
एक दिन मेरा एक दोस्त किसी बात पर बोला, “इसे देख, पैंसठ साल की उम्र है, लेकिन पैसे के लिये इधर भाग उधर भाग, क्या जीना है ये भी?”
मैंने कहा, “मेरी नजर में तो इसका जीना ही जीना है।”
मैं कन्फ़्यूज्ड हूँ, प्रताप जिंदा है या मुर्दा?
:) फ़त्तू अपने छोरे से बोल्या, “मेरे दादा ने शादी की और पछताया, मेरे बाबू ने शादी की और पछताया। और तो और मन्ने भी शादी की और पछताऊँ सूं, तेरा के प्रोग्राम सै?”
छोरा बोल्या, “बाबू, चिंता मत न कर। खानदान की रीत कत्ती नी तोडूँगा। शादी करूँगा, फ़ेर पछता ल्यूँगा।”
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