आज हम अपना पिछला जेंटलमैन प्रॉमिस पूरा कर रहे हैं जी, दस मिनट बनाम दो घंटे वाला। तो साहब, हुआ ये कि मैं अपनी बाईक उठाकर बाज़ार की ओर चल दिया। बाजार के रास्ते में एक तिराहा आता है, जिसका नाम मैंने बारामूडा ट्राईएंगल रखा है। पता है जी कि तिराहे और ट्राईएंगल में फ़र्क होता है, हमने भी अंग्रेजी पढ़ी है(हिंदी माध्यम से), पर ति, TRI से मतलब तीन का ही होता है, इसलिये हमारा रखा नाम बिल्कुल ठीक है। इत्ता बड़ा नाम इसलिये रखा है कि उस तिराहे से निकलते समय हमेशा कुछ न कुछ होने का चांस रहता है, हमारे साथ।
खैर, उस दिन वहां पहुंचे तो सोचा कि यार आज कुछ घटना न घटे, पर सुन रखा था कि ’जहां शेर का डर होता है, वहीं सांझ होती है’। ऐन तिराहे के बीच में अलग अलग रास्तों से आते हुये स्टील के घोड़ों पर सवार दो रण बांकुरे ऐसी मुद्रा में खड़े थे कि तीनों तरफ़ का रास्ता जाम। अब भाई साहब, ये आजकल के मुंडे, सारे के सारे जैज़ी-बी से कम नहीं दिखते। हेयर स्टाईल, दाढ़ी और आभूषण सब एकदम झक्कास। कानों में मुंदरे, हाथों में कड़े, कमीज के बटन खुले। दोनों ने अपनी अपनी बाईक नजदीक करी और ऐसे गले मिले जैसे कुंभ के मेले में बिछड़े हुये दो भाई बरसों के बाद अचानक मिले हों। ये भरत मिलाप देखकर हमारा मनवा तो कश्मीर की कली से गोभी का फ़ूल बन गया कि देखो आज के नफ़रत भरे माहौल में भी कितना प्यार है। काश, ये ब्लॉगर होते!
पूछ ही बैठे पंजाबी में, ’की गल बई, कई सालां बाद मिले हो’?
जवाब आया, “नई जी, रोज मिलदे हां, कट्ठे कॉलेज विच पढ़दे हां। घंटा पहले ही अलग होये सी।”
मैंने कहा, “यार, तुसी तां ऐदां जफ़्फ़ियां पांदे हो जिवें मनमोहन देसाई दी फ़िल्म दे हीरो हो, कब के बिछड़े आज यहां आके मिले।” सुनकर एक जैज़ी बी ने मोटर साईकिल स्टैंड पर लगाई, मेरे पास आया और फ़ूलों की वर्षा शुरू कर दी, “ओये अंकल, थोड़ा ध्यान नाल बोल। sssssss, तू जानदा नहीं सानूं।”
यार, ये पंजाबी भाषा भी कितनी समृद्ध है, फ़िर मुझे चौदह सितंबर को लिया प्रण याद आ गया और राजभाषा का प्रचार प्रसार करने के लिये पंजाबी से हिंदी वाला स्विच ऑन कर दिया। मैंने कहा, “श्रीमान जी, मैंने तो आपसे कुछ भी असंगत नहीं कहा है। आपको मिलना है तो साईड में गाड़ी लगाकर आराम से चाहे हाथ मिलाओ या फ़िर गले मिलो या फ़िर ….., अब तो वैसे भी कोर्ट ने आजादी दे ही दी है, ’मां का लाडला बिगड़ गया’। कम से कम बाकी लोग तो यहां से आराम से गुजर सकें।”
राजभाषा सुनकर जैज़ी बी नं. दो भी आ गया, “अंकल, बाहर दा लगदा है, कुछ बोलन तो पहले देख लिया कर”। और इशारा किया अपनी बाईक की पीछे वाली नं. प्लेट की तरफ़। अब साहब देखा तो दो तलवारें बनी हुई हैं टकराती हुई, और साथ में लिखा है ‘ANYTIME ANYWHERE’| यानी कि, यानी कि ?
मैंने कहा, “मेरी बाईक के पीछे भी देख ले, क्या लिखा है”?
वो घूमकर गया और बोला कि कुछ भी नहीं।
मैंने कहा, “अच्छा,मैंने भी EVERREADY लिखवाया था,मिट गया होगा।यार,तुम ब्लॉगर तो नहीं हो?"(anytime anywhere तो हमारे ब्लॉगजगत की निशानी है, तलवारें तनी ही रहती हैं। ये धर्म-वो धर्म, ये गुट-वो गुट। टिप्पणी कर दी तो क्यूं करी, टिप्पणी नहीं आती तो क्यूं नहीं आती) और हम ठहरे नये-नये ब्लॉगर, सो बात बात पर ब्लॉगिंग-ब्लॉगिंग पुकारते हैं।
इस बीच दूसरे लोगों ने आकर कुछ उन्हें समझाया, हम तो खैर पहले से ही समझ से भरपूर थे, मामला टल गया। चल दिये अपने अपने रस्ते| अब थोड़ी दूर गये तो दिमाग फ़िर हिल गया कि यार एक सूरमे का पिछवाड़ा मतलब उसकी बाईक का पिछवाड़ा तो देख लिया, पर दूसरा तो रह ही गया। अब उस बेचारे ने कितनी मेहनत से सोच समझ कर नम्बर प्लेट पर कुछ लिखवाया होगा, और हमने गौर भी नहीं किया। अब हमारा तो है जी भुरभुरा स्वभाव, लगा दी मोटर साईकिल उसकी मोटर साईकिल के पीछे।पीछा करते करते ये आपका देशी जेम्स बांड पहुंच गया शहर के बाहर, साथ के एक गांव में। अब बीच में ट्रैफ़िक और कोई नहीं था। पंजाबी में हाथ तंग होने के कारण उसकी पीछे वाली नं.प्लेट पर लिखा पंजाबी का डायलाग पढ़ने में एक लीटर पेट्रोल, आधा किलो खून, पाव भर नेत्रों की ज्योति जलाने के बाद जो पढ़ा, उसका हिंदी लिप्यांतरण ये था: “ओखे वेले यार खड़दे, काम्म आंदी नहीं सुणखियां नारां”(मतलब कि मुश्किल समय में यार ही साथ खड़े होते हैं, अच्छे नैन नक्शे वाली नारियां काम नहीं आती)।
वाह बेट्टे, तैने तो वारिस शाह, गालिब, ज़ौक. गुल्ज़ार तक सारे धो दिये। कहां भटक रहा है गांव की गलियों में? तेरी तो जरूरत यहां है, इस ब्लॉग जगत में। फ़िर देख रंग, एक पोस्ट लिख दे इसी शीर्षक की, फ़िर देख तमाशा लकड़ी का, मेरा मतलब लड़्की का, मतलब लैंगिक समानता और स्वतंत्रता का। मैंने उसको ओवरटेक किया और रुकने का इशारा किया। वो भी हैरानी से देख रहा था कि अजीब आदमी से पाला पड़ा है, पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। मैंने उसे समझाना शुरू किया कि भाई, ये जो तूने लिखवा रखा है, ये पढ़ने में तो बहुत अच्छा है लेकिन तर्कसंगत नहीं है। भाई, ये जो तूने लिखवा रखा है सुणखियां नारां वाली बात, हमें कुछ जम सी नहीं रही है। काहे से, कि, ये सुणखियां नारां से बच जाओ तो औखे वेले से खुद ही बचे रहोगे, फ़िर यारों ने खड़े होकर क्या करना है, बैठा ही रहन दो बेचारों को। हमारा जैज़ी-बी हंस पड़ा और कहने लगा कि अंकल जी, बात तो सही है आपकी। तो जी, शॉर्टकट में बात ये है कि बंदे को पटाकर वादा ले लिया उससे कि हमारे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी जरूर करेगा। इसी सारे झंझट में दस मिनट के काम में दो घंटे लग गये थे, पर कोई अफ़सोस नहीं है हमें। हम हैं ’सुखदुखे समेकृत्वा’ टाईप के जीव।
एक टाईम था, जब कोई नंबर पूछता था तो घर का नंबर बताते थे, फ़िर टेलीफ़ोन पर आये और फ़िर मोबाईल नंबर बताने लगे। आज की तारीख में आलम ये है कि उस दिन अपायंटमेंट लेकर एक डाक्टर के यहां गये, रिसेप्शन पर बैठी सुणखी नार ने पूछा, “सर, आपका नंबर?” हमारे मुंह से सीधा अपने ब्लॉग का एड्रैस निकल गया। आय हाय, किस नजर से देखा जालिम ने, जैसे कोई ऐलियन देख लिया हो। अब मंजर ये हुआ पड़ा है कि रिक्शे वाले, पान वाले, सैलून वाले, दूध वाले गरज ये कि जिसने भी राम राम कर ली, हम तो उससे टिप्पणी का वादा ले लेते हैं, तभी जान छोड़ते हैं। अब तो इतनी दहशत होती जा रही है अपनी कि सड़क पर आते हैं तो सड़क जान पहचान वालों से सुनसान हो जाती है, कि कहीं टिप्पणी पुराण न शुरू हो जाये।
क्या से क्या हो गया, यार मैं भी। आये थे बनने बड़े ब्लॉगर, रह गये मंगते बनकर। मुझे याद आ रहा है वो छोटा सा शिकारा।
:) फ़त्तू ने ट्रेन पकड़नी थी, स्टेशन पहुंचा तो ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी थी। फ़िम्मत करके फ़त्तू आखिरी डिब्बे में लटक गया। अंदर गया तो पता चला कि एक विवाह पार्टी का रिज़र्व कोच है। बैठ गया, एक सीट के कोने पर अपनी तशरीफ़ का टोकरा थोड़ा सा टिकाकर। थोड़ी देर में बारातियों में से कोई पूरी, कचौड़ी बांटता हुआ आया और फ़त्तू को छोड़कर सबको परोस कर चला गया। कुछ देर बाद लड्डू बंटे, फ़त्तू के अलावा सबको बंटे। इसी तरह इमरती बंटीं और बाहरी आदमी होने के कारण फ़त्तू फ़िर छूट गया। फ़त्तू ने जोर जोर से ऊपर वाले से प्रार्थना करनी शुरू की, “हे भगवान, इस डिब्बे का डिरेलमेंट हो जाये, इस डिब्बे में बम फ़ट जाये, ये भी न हो तो इस डिब्बे में आग लग जाये, आदि आदि।” एक बूढ़ा बाराती बोला, “बावले, ये सब हो गया तो तू बच जायेगा?” फ़तू बड़े कान्फ़ीडेन्स से बोला, “हां।” बूढ़े ने पूछा, “तू अकेला क्यूंकर बच जायेगा।” फ़त्तू ने कहा, “क्यों, जब यहां पूरी, कचौड़ी, लड्डू, जलेबी बंटे थीं, तब नी बच ग्या था, न्यूंऐ बच जांगा।”
वाई बात सै जी, बांट ल्यो थम सारै आपस में टिप्पणियां, मैं बच रया सूं, काल नै जद गूगल महाराज ने सारे ब्लॉग बंद कर दिये न, मैं फ़ेर बच जांगा, मानते हो? नहीं मानते तो लगे रहो ऐसे ही, अपना क्या है, बाकी भी ऐसे ही कट जायेगी।