बुधवार, दिसंबर 02, 2015

काहे का मर्द?

पहली बार इलेक्शन में ड्यूटी लगी थी, शायद पन्द्रह सोलह साल पहले की बात है। शेड्यूल आया तो इलेक्शन से पहले तीन ट्रेनिंग थी। ट्रेनिंग थी, जिला मुख्यालय में जो कि कार्यस्थल से उतना ही आगे था जितना घर से कार्यस्थल। सीनियर सहकर्मियों ने बताया कि पहली ट्रेनिंग नाममात्र के लिये ही होती है, प्रशासन को एक बेसिक डाटा मिल जाता है कि कितने कर्मचारी ड्यूटी के लिये अनुपलब्ध होंगे और वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके। घर से जल्दी निकलना होगा लेकिन पहली ट्रेनिंग पर जल्दी ही छूट जायेंगे तो कम से कम आधे दिन की फ़र्लो का जुगाड़। छोटी शाखा थी, इंचार्ज महोदय उस दिन अकेले ही रह जाने वाले थे और इस बात से कुछ असहज भी थे लेकिन इलेक्शन ड्यूटी के आड़े कोई आ भी तो नहीं सकता।
अगले दिन वही हुआ, जैसा मित्रों ने बताया था। पोलिंग पार्टी से परिचय हुआ, रजिस्ट्रेशन वगैरह हुआ और ट्रेनिंग खत्म। सिर्फ़ ग्यारह बजे थे, मन में लड्डू फ़ूट रहे थे कि आज गैप पीरियड में कई पेंडिंग काम निबटाने का मौका मिला है। बस स्टैंड पर आया और उसी समय बस आ गई। बस में चढ़ा तो गिनती की तीन-चार सवारी। अरे वाह, हमारे भी अच्छे दिन आ गये?  हालाँकि इन्हीं लगातार अच्छे शगुनों ने चेताया भी क्योंकि जबतक कोई राड़ा हो न जाये  तब तक लगता ही नहीं कि मैं ’मैं’ ही हूँ।
बादशाहों की तरह बस की सब सीटों पर देखा और धूप/हवा/धूल/मिट्टी सब पहलुओं से खिड़की के पास वाली जो सीट सबसे उपयुक्त लगी, तशरीफ़ वाला टोकरा उस पर टिका दिया। कंडक्टर साहब आये तो हमने स्टाईल से कहा, "दिल्ली।" टिकट लेकर जेब में रखी और बैग में से कोई किताब निकालकर पढ़ना शुरू कर दिया।
"एक्सक्यूज़ मी" !!  
एक्सक्यूज़ करने के लिये किताब से नजर हटाकर देखा तो अगली सीट वाली देवी जी खड़ी होकर पीछे मुड़कर और झुककर माबदौलत से मुखातिब थीं। "येस प्लीज़?" हमने अंग्रेजी झाड़ी।
"आप दिल्ली तक जायेंगे?"
"जी हाँ, इरादा तो है।"
"यहाँ आ जाईये, आगे।"
मैं समझ नहीं पाया, दोबारा पूछा तो फ़िर वही बात उधर से दोहराई गई।
मैंने कहा, "जी, मैं यहीं ठीक हूँ। खिड़की वाली सीट जानबूझकर ली है।"
वो बोली, "खिड़की वाली सीट ही ले लेना, आगे आईये तो सही।"
पानी सिर से ऊपर जाने लगा था, मेरा स्वर थोड़ा रुखा हो गया, "आपको मेरे यहाँ बैठने से कुछ तकलीफ़ है?"
खीझते हुये देवीजी अपनी सीट पर बैठ गईं। मैंने अपनी पुस्तक में ध्यान लगाने की कोशिश की लेकिन असफ़ल रहा। क्या कारण हो सकता है कि बार बार मुझे अपनी सीट पर बुलाना चाह रही थी? हमें तो स्कूल में दाखिले के समय, कालेज लाईफ़ के दौरान,  नौकरी के इंटरव्यू वगैरह में रिजेक्शन की आदत है लेकिन आज मैंने किसी की इच्छा को ठुकरा दिया पता नहीं इसका क्या फ़ल भुगतना होगा?  इसी उधेड़बुन में था कि वही शहर आ गया जहाँ मेरी ब्रांच थी, मैंने आव देखा न ताव, टिकट बेशक दिल्ली तक की थी लेकिन मैं वहीं उतर गया और वो भी पिछले दरवाजे से।
बैंक पहुँचा तो कई लोकल साथी भी एलेक्शन ट्रेनिंग भुगताकर उस ब्रांच में पहुँचे हुये थे। मुझे देखकर सबने पूछा, "हमारा तो घर यहीं है इसलिये आये, तू क्यों आ गया? घर जाता आराम से।" मैंने बताया कि सोचा तो यही था लेकिन कुछ ऐसी बात हुई तो रास्ते में उतर गया। अब उन सबने पूरी बात पूछी और मैंने बताई तो सब मेरे ऊपर इतना हँसे कि पूछिये मत। दोस्तों से उस दिन भी लल्लू, बावली बूच, पागल जैसी कई उपाधियाँ मिलीं। ’मर्दों का नाम डुबो दिया’ ’you have no guts' जैसी बातें सुनने को मिली। एक ने तो यह भी बताया कि वो लड़की/महिला मेरे बारे में क्या सोचती होगी।
मैंने सोच लिया कि अभी दो बार और इलेक्शन ट्रेनिंग के लिये वहीं जाना है, वो शायद फ़िर मिले तो उससे कन्फ़र्म करूंगा। गया भी लेकिन वो नहीं मिली। वैसे अगर  मिल भी जाती तो मैं पूछ पाता? शायद नहीं.......सोचता ही रह जाता मैं तो।.

शुक्रवार, नवंबर 13, 2015

हार की जीत


उसकी नींद एकदम से खुल गई थी। उठते ही उसने अपने पैर पर हाथ फ़ेरा, लेकिन उसे हैरानी हुई कि यहाँ तो सब ठीक है। सोने की कोशिश की लेकिन नींद नहीं आई। रह रहकर वो अपने पैर को उसी जगह सहलाकर देखता रहा। फ़िर भी चैन नहीं आया तो उठकर कमरे की लाईट जलाई और गौर से देखा, पैर तो एकदम साफ़ है। अब ध्यान करने की कोशिश की तो नींद में जो अनुभव किया वो क्रमबद्ध तरीके से याद नहीं आ रहा। क्या हुआ था, कैसे हुआ था - कुछ ध्यान नहीं। सिर्फ़ इतना ध्यान आया कि बहुत तरह के जानवरों से घिरा हुआ था और उनके बीच से निकलने के प्रयास कर रहा था। जानवर भी बेतरतीब तरीके से इधर उधर दौड़ रहे थे। लगता था कि जान बचेगी नहीं, रौंद दिया जायेगा। वो किसी तरह उस झुंड से बाहर आ गया। चैन की साँस आई तो उसने अपने आप को व्यवस्थित करना शुरु किया। ओह, ये क्या? उसके पैर पर कुछ लिसलिसा सा लगा हुआ था। क्या हो सकता है? जरूर किसी जानवर का मल-मूत्र होगा। छि: छि:... हाँ, इसी अवसर पर नींद खुल गई थी।
एक बार फ़िर से उसने अपने दोनों पैर चैक किये, सब ठीक था। लेकिन उसका ध्यान बार बार उधर ही जा रहा था। बल्कि उसने एक बार बैठकर झुककर नाक को अपने पैर के जितनी निकट ले जा सकता था, ले भी गया। हालाँकि ऐसा करते हुये उसे ये सोचकर हँसी भी आई कि घर के किसी सदस्य ने उसे ऐसा करते देखा तो समझेंगे कि योग कर रहा है। अगले ही पल लेकिन उसकी हँसी रुक गई। किसी जानवर का मल-मूत्र ध्यान आते ही आंखो के सामने कई तरह की आकृतियाँ आईं। पीली, भूरी, मटमैली और हरापन लिये हुये भी, ठोस भी और तरल भी। नाक एक अजीब सी दुर्गंध से भर गई और एकदम से उठकर उसे वाश बेसिन की तरफ़ भागना पड़ा।
सुबह अनमना सा घर से स्कूल के लिये निकल तो गया लेकिन स्कूल पहुँचा नहीं। सरकारी पार्क में जाकर जूते मोजे उतारकर पैर की उस जगह को घृणा से देखता रहा। मिट्टी से रगड़कर साफ़ किया, बहुत देर तक पानी से पैर धोता रहा लेकिन उसकी नाक से वो गंध नहीं गई।
अब ये उसका लगभग रोज का काम हो गया था। नेट पर मलमूत्र से होने वाली गंदगी और उसके दुष्प्रभाव के बारे में गूगल करता रहता। धीरे धीरे स्कूल से अनुपस्थित होने वाली बात घर में भी पता चल गई। बहुत कुरेदने के बाद उसने सबको बताया कि उसके पैर पर किसी जानवर का मल या फ़िर मूत्र या फ़िर हो सकता है कि दोनों लग गये थे। दिखते नहीं हैं लेकिन गंध बताती है कि उसे जो लगा था वो सही है। 
फ़िर नेट से ली हुई जानकारी उसने घर के सदस्यों को बतानी शुरु की, You old fashioned people, आप लोगों को पता ही नही कि इसके कितने दुष्प्रभाव हो सकते हैं। लेकिन वो क्या करता, घर वाले पुराने विचारों के थे। वो उसकी आशंकायें सुनकर अपना माथा पीटते थे, वो खुद को सीरियसली न लेते देखकर अपना माथा पीटता था। आपस में तर्क होने लगे। दोनों पक्ष अपने तर्कों पर अड़े रहते। एक पक्ष कहता कि माना कि गंदगी लगी थी लेकिन अब तो साफ़ है न? वो कहता कि गंदगी लगी तो थी न? देखो न, बदबू अब तक आ रही है। धीरे-धीरे संवाद कम होता गया। जरूरी काम मशीनबद्ध तरीके से होते जा रहे थे।
समय बीतता रहा। न अब उसके सोने का समय था और न जागने का। पैर के उस हिस्से पर वो कभी झांवा रगड़ता कभी, गीले कपड़े से रगड़ता रहता। फ़िर उसने कहीं से एक चाकू का जुगाड़ किया। अकेला रहने पर धीरे-धीरे उस जगह को उसने चाकू से खुरचना शुरू कर दिया। दर्द होता होगा लेकिन उसकी नाक में रच बस गई गंध इतनी तेज थी कि वो दर्द महसूस नहीं कर पा रहा था। खून रिसता, वो उसे पोंछ देता। घाव गहरा होता रहा, इतना गहरा कि एक दिन उसे अपने पैर की हड्डी दिखने लगी। उत्साहित होकर उसने माँ को आवाज लगाई, "माँ, माँ जल्दी आओ। मेरे पैर पर जो गंदगी लगी थी, उसके दुष्प्रभाव के बारे में मैं ठीक कहता था न? उस गंदगी के कारण पैर काटना पड़ेगा न? मैं ठीक था न, माँ?"

सोमवार, सितंबर 28, 2015

प्रेज़ेंट सर...

उन दिनों पंजाब में मेरी पोस्टिंग थी जब नेट पर पहली बार काम किया, सन २००९। कुछ दिन तक विभिन्न ब्लॉग पढ़े फ़िर उत्सुकतावश ही create blog पर क्लिक कर दिया और अपनी ब्लॉग गाड़ी सरकने लगी। नया शौक था, समय भी बहुत मिल जाता था और कुछ अच्छे लोगों से वास्ता भी पड़ गया तो लिखना जारी रहा। मस्त समय था वो भी। किसी भी विषय पर कुछ भी लिख लेते थे। कहते हैं न समय अच्छा हो तो मिट्टी को हाथ लगाओ तो वो भी सोना हो जाती है, वैसा ही कुछ था। बहुत कुछ सीखा भी, पाया भी।
जब लिखना शुरु किया तो कुछ बातें बहुत अजीब भी लगती थीं। कमेंट्स/सम्मान/ब्लॉगवाणी पर पसंद ज्यादा लेने के लिये किये जाने वाली तिकड़में देखकर हँसी आती थी। उन दिनों अपने बारे में  कुछ बातें सोची थीं -
१.   हिंदु-मुलिम वाली बातों पर नहीं लिखूंगा। (उन दिनों बाकायदा धर्म के नाम पर ब्लॉग में तगड़ी गुटबाजी चलती थी)
२.  स्त्री-पुरुष वाले विवादों पर नहीं लिखूंगा।
३.   कमेंट्स की संख्या बढ़ाने और सम्मान वगैरह के चक्कर में नहीं पड़ना।
लगभग ६ साल हो गये ब्लॉगिंग में आये। कुछ परिवर्तन आये हैं, ब्लॉग की जगह फ़ेसबुक पर सक्रियता ज्यादा है। दूसरा बड़ा परिवर्तन ये आया है कि अब लिखने की सोचें भी तो ले देकर दो टॉपिक पर ही ध्यान जाता है - प्वाईंट १ या प्वाईंट २।
देखते हैं अगली फ़ुर्सत क्या परिवर्तन लाती है, प्वाईंट ३ से भी इस्तीफ़ा देना होगा या फ़िर से लिस्ट १२३ होती है।

मितरो, कहते हैं कि मनुष्य के भी पूंछ होती थी। इस्तेमाल करना बंद कर दिया तो useless हुई और फ़िर गायब हो गई। दूसरी कहावत है brain is like a muscle, use it or lose it. लिखने का भी ऐसा है, लिखते रहो तो की बोर्ड के धार लगती रहती है, गैप आ जाये तो कीबोर्ड भोथरा हो जाता है।

आज की पोस्ट सिर्फ़ और सिर्फ़ इस फ़ारवर्डड मैसेज को समर्पित।

सब कुशल है सर, अवसर पाते ही लौटकर इन्हीं गलियों में मिलेंगे और वो भी कतई पैनी छुरी के साथ :)
आपका हृदय से आभारी 
संजय

सोमवार, जुलाई 06, 2015

बहुत दिया देने वाले ने मुझको.....

लगभग चार साल पहले की बात है, यह तय था कि मेरा ट्रांसफ़र होने वाला है। मार्च मध्य आते आते बच्चों की परीक्षायें समाप्त हुई और मैंने उन्हें अपने पैतृक घर में शिफ़्ट कर दिया। अपने लिये वहाँ पंजाब में एक कंप्यूटर, मोटरसाईकिल और थोड़ा सा रोजमर्रा काम आने वाला सामान रख लिया और गांव में ही किराये पर मकान लेकर रहने लगा। मेरा ट्रांसफ़र चार महीने बाद हुआ तब तक हर शनिवार दोपहर वहाँ से चलकर दिल्ली आता रहा। 
अब अपनी कुछ अजीब सी आदतें बता दूँ। खुद कच्ची-पक्की बनाकर खाने में या  सड़क पर किसी ठेलीवाले से पूड़ी सब्जी से पेट भरने में कोई परेशानी नहीं लेकिन मकानमालिक या पड़ौसी लाख जोर दे लें तो भी किसी न किसी बहाने से टाल दिया करता था। दूसरे पेय पदार्थों की तुलना में पानी को वरीयता दे दिया करता हूँ लेकिन रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर लगे नल से मुझसे पानी कभी नहीं पिया जाता। कंजूस आदमी हूँ, खरीदकर पानी पीना अय्याशी लगती है तो बहुत समय से एक आदत है कि घर से निकलते समय पानी की बोतल बैग में जरूर रहती है। खैर, जिस बात का जिक्र कर रहा हूँ वो पढ़िये।  
गर्मियाँ शुरु हो चुकी थीं, हर शनिवार दोपहर को जब बैंक से दिल्ली के लिये निकलता तो ठंडे पानी की बोतल बैग में होती। मोटरसाईकिल पर शहर तक आना, फ़िर बस से लुधियाना आना, वहाँ से रेलवे स्टेशन तक आना और गाड़ी का इंतजार करते हुये प्लेटफ़ार्म पर खड़े होना - इस सब में दो घंटे के लगभग तो लग ही जाते थे। यानि घर पहुंचने में अभी सात आठ घंटे बाकी। पूरे विचारमंथन के बाद गाड़ी के प्लेटफ़ार्म पर आते-आते १५-२० रुपये खर्च करके एक ठंडे पानी की बोतल और खरीद ली। सोचा, सीट मिलने के बाद तसल्ली से पानी पिया जायेगा। 
जब सीट भी मिल गई तो बैग में हाथ मारा, दो बोतल। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे अर्जुन भी उतना किंकर्तव्यमूढ न हुआ होगा, जितना मैं हो गया। जो बोतल बैंक से भरकर चला था उसका पानी हल्का सा ठंडा था और जो अभी खरीदी थी उसका पानी एकदम ठंडा। किस बोतल से पानी पहले पिया जाये? मैंने कई बार बैग की चैन बंद की, कई बार खोली और फ़िर बंद की। साथ वाली सीट पर बैठा सवारा भी अजीब तरह से मुझे देख रहा था। मेरे दिमाग में उधेड़बुन चालू थी - अभी हल्की ठंडी बोतल से पानी न पिया तो बाद तक ये एकदम गर्म हो जायेगा। इसे पहले पिया तो जब तक दूसरी का नंबर आयेगा, उसकी भी ठंडक जाती रहेगी। गाढ़ी कमाई के १५-२० रुपये खर्च कर रखे हैं, पेड़ पर तो पैसे लगते नहीं। उधर हलक सूखता जा रहा है।
हर शनिवार को ये समस्या आती रही। मैंने भी सारे उपलब्ध विकल्प अपना लिये। सर्वमान्य हल नहीं निकलना था तो नहीं निकला। एक बार तो घर पहुँचने तक दोनों बोतलें खोली ही नहीं। नौबत ये आ गई कि मुझे शुक्रवार से ही टेंशन होने लग जाती थी। ये तो धन्यवाद है उस परमात्मा का कि मेरा जुलाई में दिल्ली ट्रांसफ़र हो गया नहीं तो मैंने यहाँ आपको दिखना नहीं था, कहीं और ही होता और कर रहा होता ’ओ पड़दी गिड़्गिड़ दी, एंक्स दी बेंध्याना दी’ :)  :)
अभी कुछ दिन पहले तक मैं पलवल में पोस्टेड था। हमारे बैंक का एक ग्राहक आया और नमस्ते करके पीछे बेंच पर बैठ गया। मेरी नजर पड़ी तो मैंने बुलाया, "हाँ ...... जी, क्या काम था?" वो बोला, "कोई खास बात नहीं, अभी आप बिज़ी हो। कर लो काम।" कुछ देर बाद मैंने फ़िर बुलाया और उसका वही जवाब सुना तो सच कहूँ थोड़ा खीझकर कहा कि बताओ यार, भीड़ तो लगी रहेगी। वो अपने साथ अपने MBA किये लड़के को लाया था, कहने लगा कि थोड़ा गाईड कर दो इसे नौकरी वगैरह के बारे में, इसलिये लाया हूँ। क्या गाईड करता उसे? मैं जो चार महीने में सोलह शनिवार तक ये तय नहीं कर पाया कि किस बोतल का पानी पहले पियूँ, मैं गाईड करूंगा उसे? अब ध्यान नहीं उसे क्या उल्टी सीधी पट्टी पढ़ाई कि दोनों बाप-बेटे नमस्ते करके चले गये।
जब तब कोई अपने से ज्यादा पढ़ा लिखा और ज्यादा काबिल दोस्त फ़ोन पर अपनी कोई समस्या शेयर करता है और सलाह मांगता है तो मैं कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा अर्जुन बन जाता हूँ। मेरे हाथ पैर शिथिल होने लगते हैं, पसीने आने लगते हैं मुझे। 
मैं तुम्हें सलाह दूँगा? 
मैं? जो आज तक नहीं समझ पाया कि किस बोतल का पानी पहले पियूँ...................... 
मैं, जो आजतक ये नहीं समझ पाया कि जिंदगी में किस चीज को पहली प्राथमिकता देनी है...
मैं सलाह दूँगा तुम्हें?..........................................................

रविवार, जून 21, 2015

संघी *%गी एक दो

हम छोटे ही थे, गली में एक भैया रहते थे जिनपर हर कोई आंख मूंदकर विश्वास करता था। उन्होंने ही हमें शाखा पर ले जाना शुरु किया था। बड़ा शौक तो खेलने का ही था, नये नये खेल खेलने को मिलते और साथ में अच्छी बातें भी सीखने को मिलतीं। राष्ट्र प्रथम - यही सिखाया जाता था। खेलकूद और बौद्धिक के रास्ते  देश, समाज को कुरीतियोंं से मुक्त करके स्वावलंबी और शक्तिशाली बनाने की बातें अच्छी लगती थीं। ये नहीं सिखाया जाता था कि हमारा अतीत स्वर्णिम था इसलिये कुछ करने की आवश्यकता नहीं बल्कि स्वर्णिम अतीत की बातें लुप्तप्राय आत्मगौरव को जगाने के लिये की जाती थीं।  कोई व्यक्ति स्वार्थ, निंदा-स्तुति, प्रलोभन, पूर्वाग्रह से परे नहीं इसलिये केसरिया ध्वज ही सर्वोपरि माना जाता। कौन स्वयंसेवक किस जाति का है, इस बात का कोई अर्थ नहीं। किसके पिता धनवान हैं और कौन निर्धन परिवार से, वहाँ इस बात से कोई अंतर नहीं था। स्वय़ं को और स्वयं के माध्यम से अपने धर्म को भी पुष्ट करने की बातें तो सिखाई जाती थीं लेकिन किसी ने नहीं सिखाया कि दूसरे धर्म वाले हमारे शत्रु हैं और उन्हें कमजोर करना है। हम सब भारतमाता की संतान हैं और उसकी रक्षा करना हमारा प्रथम कर्तव्य, जीवन में अनुशासन लाना, कर्तव्य करने के लिये तत्पर रहना जैसी शिक्षायें ही थीं जो वहाँ सीखने को मिलीं। कम से कम मुझे तो यही समझ आता था।
नहीं समझ आता था तो कुछ उन लोगों का व्यवहार जो शाखा में आने जाने के हमारे रास्ते में हमपर ताने कसते थे। ताने कसे जाते थे 
’संघी  *%गी   एक दो, 
संघ में जाना छोड़ दो’
हम छोटे थे, शुरू में तो समझ ही नहीं आया कि क्या कहा जा रहा है और क्यों कहा जा रहा है। कई दिन तमाशा होता रहा तो हम बच्चों ने भैया से पूछा। जितना हमें समझ आ सकता था, उस दिन भैया ने बताया कि कैसे कुछ जातियों को कुछ लोग नीची जाति मानते हैं इसीलिये संघियों की तुलना उनसे करते हैं। "हम चुपचाप क्यों सुनते  रहते हैं?" इस प्रश्न के उत्तर में सुनने को मिला कि कहने वाले अपनी सोच के हिसाब से ऊंच नीच मानते हैं, हम अपनी सोच के हिसाब से एकीकरण कर रहे हैं। ये हमारे लिये ताना नहीं, हमारे काम की पहचान है। भैया ने सच बोला या झूठ लेकिन हमारी तसल्ली नहीं हुई। तसल्ली तो खैर दूसरी पार्टी की भी नहीं हुई, उनकी हिम्मत बढ़ती गई और बात शब्द बाणों से हाथापाई तक आई। जो हुआ, उधर से पूरी तैयारी से हुआ लेकिन हमारे लिये अप्रत्याशित था। हम बच्चे तो खरोंचों और छोटी मोटी चोटों में निबट गये, भैया के अच्छी खासी चोटें आईं और उनका हाथ भी  फ़्रेक्चर हुआ।  इमरजेंसी हटने के बाद आई जनता पार्टी की सरकार भी अपने आपसी झगड़ों की वजह से जा चुकी थी। दूसरी पार्टी(तब की पहली पार्टी) के हौंसले बुलंद थे, पुलिस और प्रशासन का झुकाव भी हमारे हक में नहीं था। कोई एक्शन नहीं हुआ। टीस उठी थी मन में कि राष्ट्र के लिये सोचने वालों की गलती क्या थी? वो क्या मंसूबे थे जिनमें शाखा पर जाने वाले अड़चन लगा रहे थे? कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, ड्र्ग्स डीलिंग सिखाई जाती थी क्या वहाँ?
भैया से मिलने हम लोग उनके घर गये तो उन्हें शरीर से अस्वस्थ पाया लेकिन हौंसले में कोई कमी नहीं थी। हमें अपराधबोध था कि हम छोटे हैं इसलिये भैया का पूरा साथ नहीं दे पाये और भैया हमें बता रहे थे कि उनकी ये तकलीफ़ कितनी कम है। इमरजेंसी के कुछ भुक्तभोगियों के किस्से उन्होंने बताये। जो भी हो, उस घटना के कारण शाखा में जाना हमने नहीं छोड़ा। वो तो कई साल बाद में छोड़ा।
बाद में अपने परिचय में आये कुछ लोगों के बारे में पता चला कि आपातकाल के दौरान कैसे सरकारी या अर्धसरकारी सेवकों को परेशान किया जाता था। लिखकर दो कि संघ से कोई वास्ता नहीं और आगे भी नहीं रखूँगा लेकिन कितनों ने ही ऐसा मानने की जगह नौकरी छोड़ना मंजूर किया। मजे की बात ये कि ऐसे किस्से सुनाने वाले उनके साथी होते थे या मकानमालिक, शायद उन्हें भी अपराधबोध रहा होगा कि उन स्वयंसेवकों जैसे नहीं बन पाये। मैं खुद इमरजेंसी के दिनों में जिस स्कूल में पढ़ता था, रातोंरात उसे बंद करना पड़ा था। सरकार का दृढ निर्णय था कि एक विचारधारा विशेष को कुचलना ही है। हम तो प्राईमरी कक्षा में ही थे, दूसरे स्कूल में डाल दिये गये थे और नये दोस्तों और नई पढ़ाई में मस्त हो गये   लेकिन उन स्कूलों में काम करने वाले आचार्य और अध्यापिकाओं(जिन्हें हम दीदी कहते थे) पर आये संकट को आज समझ सकता हूँ।      
प्रताड़ित होने वालों में सिर्फ़ कुछ लिख देने और नौकरी छोड़ देने वाले ही नहीं थे, बहुतों को जेल में डाल दिया गया और तरह तरह के अमानुषिक अत्याचार किये गये। अभिनेत्री प्रवीण बॉबी के बारे में कहते हैं कि उनका एक कान कटा हुआ था और इसीलिये वो हमेशा कानों पर बाल रखने के एक स्टायल में दिखती थीं। कभी मौका मिलने पर आज की तारीख का कोई केन्द्रीय मंत्री अक्सर जेबों में हाथ डाले दिखें तो समझ लीजियेगा कि ये भी एक स्टाईल ही है।
तब से अब जमाना बहुत बदल गया है। तकनीक उन्नत हो गई है, सेंसरशिप पहले जैसी संभव भी नहीं और सोशल मीडिया ने सबके हाथ में कलम दे दी है। पिछले एक साल से उसी विचारधारा वाली सरकार है, जिसने उन दिनों में कहर झेला था। स्पष्ट बहुमत वाली ऐसी सरकार देश के इतिहास में पहली बार आई है। स्वाभाविक है कि समर्थक उत्साहित हैं, कुछ अतिउत्साहित भी। अब घुड़की सुनकर बहाने से आँख इधर उधर नहीं बचाते, पलटकर जवाब दे देते हैं। सरकार भी अपनी है, नेटपैक भी अपना ही है। फ़िर भी इतना हमें मालूम है कि क्रिया की प्रतिक्रिया बेशक होती रहे लेकिन किस लेवल तक उतरना है, इतना बोध हमेशा रहेगा ही।
मोदी समर्थकों को ’भक्त’ कहकर संबोधित करने वालों की चिट्ठी को वैसे तो तार ही माना जाये। ये कतई व्यंग्यबाण नहीं है, खीझ है कि कैसे ये टुच्चे लोग सरकार के साथ स्वयं को जोड़ बैठे हैं। जो ’भक्त’ हैं, किसी और वजह से बेशक उनका मोहभंग हो जाये, इतना तो तय है कि  इन व्यंग्यबाणों से आतंकित होकर तो नहीं ही भागेंगे।

रविवार, जून 07, 2015

रिश्तेदारियाँ

एक स्टाफ़ के घर हमें जाना था, बैंक से लगभग 40 km का रास्ता था।  हमारे मैनेजर साहब ने सुझाव दिया कि उनकी कार में ही चला जाये।  जब हम चार जने तैयार हो गये तो उन्होंने अपनी बात पूरी की, "कॉंट्रीब्यूट कर लेंगे। बस और रिक्शा किराया जितना दोगे,  लगभग उतना ही इधर योगदान बनेगा।" कार में जाने की  हाँ तो खैर हम पहले ही भर चुके थे, योगदान की भी हामी भर दी। उनका मोटरसाईकिल चलाते हुये ३-४ बार एक्सीडेंट पहले हो चुका था। इसका पता हमें कैसे चला, इसकी भी अलग कहानी है। एक बार कद के बारे में उनके दावे को झुठलाने के लिये मुझे और उन्हें अगल-बगल में खड़ा किया गया तो देखने वालों ने बताया कि मैनेजर साहब मुझसे कम से कम २ इंच छोटे हैं। तब उन्होंने ३-४ एक्सीडेंट वाली बात बताई थी कि इत्ते एक्सीडेंट होने के बाद कम से कम ३-४ इंच तो वो डाक्टरों द्वारा छीले छांटे ही जा चुके हैं, इसलिये वो weightage भी लेते हुये उन्होंने खुद के मुझसे बड़े होने का निर्णय सुनाया था। खैर, जाने से पहले  मैंने उनसे पूछा कि क्या कार भी उसी मोटरसाईकिल वाले स्टाईल में चलाते हैं? उन्होंने बताया कि बिल्कुल नहीं, एकदम सेफ़ चलाते हैं। सबूत के तौर पर उन्होंने बताया कि मोटरसाईकिल से कई बार गिरे हैं लेकिन कार से आज तक नहीं गिरे। जैसे तैसे कारवां चल पड़ा।
चलने के तुरंत बाद ही उनकी ड्राईविंग देखकर हम बाकी तीन भक्त प्रह्लाद बन गये।  इस बात पर भी संतोष जताया गया कि हमारे कर्म चाहे जैसे भी रहे हों, ये अच्छा है कि मार्च का महीना चल रहा है। इस महीने में नौकरीपेशा लोगों की  LIC की कोई किस्त बकाया नहीं रहती है। मैनेजर साहब ने पूरे रास्ते हाईवे को अंटार्कटिका और अपनी कार को स्लेज गाड़ी समझ कर चलाया। आगे से और पीछे से आती हरियाणा रोडवेज़ की बसों को यमदूतों की तरह आते देखकर  पीछे बैठे दोनों मित्र चीखते चिल्लाते रहे और हम ये सोचकर मूंगफ़ली खाते रहे  कि मरना तो है ही खा पीकर मरें। कैसे न कैसे रास्ता कट ही गया।
अब वापिसी का सफ़र शुरु हुआ। अंधेरा छाने लगा था और सरजी की बैट्री चार्ज थी, पोज़ीशन हो गई पहले से भी ज्यादा शानदार। एक टाटा 407 से छोटी सी प्यार भरी पप्पी ली/दी लेकिन वो पूरी टक्कर दे नहीं पाया और उसका रोडपतन हो गया। वो साईड में गाड़ी रोककर अपना डैमेज चैक करने लगा और हमारे सरजी ने गाड़ी भगा दी। पीछे वाले साथी अब लिहाज छोड़कर गुस्से में जोर जोर से बोलने लगे। इसके बाद हुआ वो, जिसके लिये आपको ये सब कहानी बताई।
पुलिस का नाका लगा हुआ था, गाड़ी साईड में लगवा ली गई।
"कागज़? इंश्योरेंस?"
"कागज़ तो जी बैंक में रह गये।"
"गाड्डी के कागज़ बैंक में के करें थे?"
"हवलदार साहब, मैं  .......... बैंक में मैनेजर हूँ। जल्दी में कहीं जाना पड़ा तो गलती से कागज वहीं रह गये।"
"लाईसेंस द्खा दयो"
"भाई साब वो भी दराज में ही रखा रह गया।"
"बैंक का आई कार्ड तो होयेगा?"
"वो भी न है जी, अभी तो"
"नीचे उतर आओ, साहब बैठे हैं उनसे ही बात कर लो।"
वो ले गया जी अपने इंचार्ज के पास और जाकर सारी बात बता दी। इंचार्ज साहब शक्ल से ही खूंखार लग रहे थे या फ़िर हमारे बहुत सारे फ़ाल्ट थे इसलिये हमें ऐसे लगे हों। मैनेजर साहब उन इंचार्ज साहब से बात करने लगे और हम तीन ये चर्चा करने लगे कि हमारे कांट्रिब्यूशन में यो खर्चा भी जुडेगा या नहीं। इतने में इंचार्ज साहब की आवाज सुनाई दी, "दारू थमने पी रखी है। गाड्डी का एक कागज़  धोरे कोणया। लाईसेंस भी कोणी। हमने कहो हो कि बैंक मुलाजिम हो, थोड़ा लिहाज करें। करण लाग रहे हां लिहाज मैनेजर साहब, कम ते कम आईकार्ड तो दिखा दे?" 
अब मैनेजर साहब क्या रिक्वेस्ट करते? हमने भी सोचा कि अब तो कम से कम हजार का फ़टका लग गया। मैनेजर साहब फ़िर बोले, "जी, बलबीर सिंह मेरा रिश्तेदार है। इसी थाने में लग रहा है।"
"बलबीर दो सैं म्हारे धोरे, एक जाट सै अर दूसरा ......।  कुण सा बलबीर है थारा रिश्तेदार?"
"जी दूसरे वाला, मुंशी है जो।"
"जाण दे भाई इन्हांने। ध्यान रख्या करो भाई, कागज पत्तर पूरे रख्या करो साथ।"
फ़ोकट में छूटने की हमें बड़ी खुशी हुई लेकिन ऐसा लगा कि उससे ज्यादा हैरानी उस हवलदार को हुई होगी।  इतनी कमियाँ और फ़ोकट में छोड़ देने का इन कड़क साहब का फ़ैसला, उसने थोड़ा झिझकते हुये पूछा, "जाण दूँ साहब?"
"जा लेण दे भाई। पैली बार कोई फ़ेटया(मिला) है जिसने मुंशी को रिश्तेदार बताया है वरना कोई सा छोरी@# डीएसपी से तले की रिस्तेदारी न बताता है। जा लेण दे इन्हांने।"  

थानेदार साहब ने जो कहा, वो सही था या नहीं?  
रेल में, बस में, भीड़ में, मेले में जब कहीं किसी से  थोड़ी लंबी बात हुई तो पता चलता है कि सामने वाले का कोई न कोई अंकल हमारे बैंक में बड़ी ऊंची पोस्ट पर है। आप भी याद करके देखियेगा, आपको पिछली बार कब कोई ऐसा मिला था जो आपके ऑफ़िस के किसी क्लर्क या चपरासी का रिश्तेदार था? गारंटी देता हूँ कोई न मिला होगा। 
नौकरी और ट्रांसफ़र का चोली दामन का साथ है। नौकरी चल रही है, ट्रांसफ़र होते रहते हैं। लोग मिलते रहते हैं, बिछुड़ते रहते हैं। कुछ किस्से हमें याद आते रहते हैं, कभी हमारे किस्से कोई और लिखेगा।  अपना ट्रांसफ़र फ़िर से दिल्ली में हो गया है।  सोचा आपको बता भी दिया जाये और इस बहाने ब्लॉग पर हाजिरी भी लग जायेगी। नोटिस कर लिया न कि अब हम दिल्ली में आ गये हैं? अच्छा किया, वरना आप जान लीजिये कि हमारे एक अंकल ...................................................

रविवार, अप्रैल 26, 2015

KCC - किसान क्रेडिट कार्ड (2)

पिछली पोस्ट  में आपको बैंकोंं द्वारा कृषि ऋण दिये जाने की प्रक्रिया की कुछ जानकारी देने का  प्रयास किया था, बात को थोड़ा और बढ़ाया जाये।  हालाँकि इस बीच किसानों के मामले  में काफ़ी कुछ हो चुका लेकिन अधूरी बात छोड़ने में मजा नहीं।
सरकार के सख्त दिशानिर्देश, कम ब्याज दर, मासिक की जगह छमाही  पुनर्भुगतान सुविधा आदि जैसे पोज़िटिव फ़ैक्टर्स के बावजूद क्या कारण हो सकते हैं कि  कृषि संबंधित ऋण उतने प्रचलित नहीं हो पाये?
आज ही फ़ेसबुक पर विवेक रस्तोगी जी का स्टेटस देखा कि किसान कार्ड बनवाने मेैंं छह महीने लग गये। पब्लिक की दृष्टि से आप लोग  समझिये, बैंकर के दृष्टिकोण से मैं बताने की कोशिश करता हूँ।
बैंकिंग मेरा मनपसंद प्रोफ़ेशन नहीं था लेकिन  अब यहाँ कुछ मजेदार निष्कर्ष निकाले हैं। ऐसा ही एक निष्कर्ष है - "ऋण बाँटने के लिये बैंकवालों के सामने टार्गेट होते हैं, बैंक के पैसे की रिकवरी न होने पर टार्गेट बैंकवाले होते हैं।" अब रिकवरी न होने के कुछ कारण -
- लोन के पैसे का खेती की जगह किसी और उद्देश्य के लिये या किसी अन्य के द्वारा प्रयोग करना,
- ऋण माफ़ी की सरकारी योजनायें  जो आती तो प्रायं चुनावी वर्ष में हैं लेकिन उनका प्रभाव दीर्घगामी,
-  लोगों में वित्तीय अनुशासन की कमी,
-   लोन राशि और बंधक रखी गई जमीन को लेकर लोगों का माईंडसेट। आम धारणा ये है कि पचास लाख की          जमीन बंधक रखकर तीन लाख ही तो लिये हैं, भाग थोड़े ही जायेंगे
- एक अन्य बात है लोक मानासिकता जो क्षेत्रानुसार अलग अलग हो सकती हैं, इस पर बाद में लिखता हूँ।
रिकवरी से जुड़ी एक बहुत बड़ी बात जोकि है तो ग्राहक के हित की लेकिन उसका वांछित लाभ नहीं मिल पाता। अन्य ऋण जहाँ सामान्यतया तीन मासिक किस्तें न चुकाने पर NPA(Non Performing Asset या अनुत्पादक ऋण/Bad debts) हो जाता है, कृषि ऋण में यह समय सीमा मोटे तौर पर तीन छमाही किस्तों तक होती है लेकिन फ़िर भी इस रिकवरी में बैंक वालों के पसीने छूट जाते हैं। अभी जिस क्षेत्र में मैं हूँ, मुश्किल से दस प्रतिशत कृषक ऋणार्थी ऐसे हैं जो बिना याद दिलाये हर छमाही अपने पैसे जमा करवाते होंगे। बाकी सिर्फ़ ब्याज के पैसे जमा करवाते हैं वो भी कई बार संपर्क करने के बाद और वो भी कई बार साल में एक बार। एकाऊंट को ठीक रखने के लिये उस ब्याज राशि में कुल ऋण की राशि जोड़कर जमा दिखाना पड़ता है और फ़िर कुल ऋण राशि की पेमेंट हाथों हाथ दिखानी पड़ती है। ऐसा न करें तो बैंकर कहलायेगा unbecoming of an officer और ऐसा करने पर एक ही दिन में जमा और निकासी के चलते ऑडिटर बताते हैं unfair practices by the encumbant.
छमाही किस्त होने के कारण शायद किसान और बैंकर के बीच वैसे संपर्क और संबंध भी न पनप पाते हों। डेढ साल इस शाखा में हो गया लेकिन मुश्किल से आधे किसान क्रेडिट कार्ड वाले ग्राहक ऐसे होंगे जो राह चलते मुझे या मैं उन्हें पहचान पाऊँ। जब तक सबसे पहचान होगी, वो मेरे मुताबिक ढलेंगे या मैं उनके मुताबिक ढलूंगा तब तक चलाचली की वेला आ चुकी होगी।
थोड़ा स्थिर होकर सोचिये, आज लिये गये ३ लाख तक के कृषि ऋण को यदि आप डेढ़ साल में भी चुका देते हैं तो आप चुकायेंगे ७% वार्षिक की दर से ब्याज और यदि हर छह महीने में सिर्फ़ एक दिन के लिये भी पूरी राशि खाते में जमा करके अगले दिन भी निकाल लें तो आपको ब्याज लगेगा ४% वार्षिक की दर से। बैंक में FD पर ब्याज दर लगभग ९% है।  समझ रहे हैं न? साईं बुल्ले शाह ने शाह इनायत से रब्ब को पाने की विधि पूछी थी तो इनायत शाह उस समय धान के खेत में काम कर रहे थे। उन्होंने सवाल पूछा और धान की जीरी उखाड़ते लगाते ही जवाब दिया, "बुल्लेया रब्ब दा की पाना, एथों पुटना ते उत्थे लाणा’(बुल्ले, खुदा को क्या पाना, ध्यान को इस दुनिया से हटाना और उधर लगाना, मिल गया खुदा) 
इतना ही पर्याप्त नहीं, खाते में संतोषजनक लेनदेन होने पर हर साल आपकी ऋण राशि १०% बढ़ाने की सुविधा है। १००/- पर ब्याज हुआ ७/- या ४/- और आपकी क्रेडिट लिमिट हो गई ११०/-   बुरी डील है?
कृषि ऋण के मामले में आने वाली एक बहुत बड़ी दिक्कत राजस्व रिकार्ड का अतिजटिल होना है। जमीन जिसके नाम थी, उसकी मृत्यु होने के बहुत बाद तक भी जमीन उत्तराधिकारियों के नाम  नहीं होती।  अधिकतर जमीन साझे खातों में होती है। एक ही आदमी राजस्व रिकार्ड में किसी और नाम से दर्ज है और उसके पहचान के दस्तावेज किसी दूसरे नाम से।
ऑडिट और खाते के NPA होने की दशा में ये सब चीजें बैंकर्स के खिलाफ़ जाती हैं।
बैंक शाखाओं में  पर्याप्त कर्मचारियों का न होना भी एक बड़ी वजह है।

कारणों की  इस लिस्ट  के संपूर्ण  और त्रुटिहीन होने का मैं कोई दावा नहीं कर रहा। ये मेरे अपने अनुभव हैं और इनमें मेरे पूर्वाग्रह भी शामिल हो सकते हैं।

क्षेत्रानुसार मानसिकता की ऊपर बात की थी, इस बारे में शेयर करना चाहूँगा कि पंजाब के मेरे अनुभव बेहद अच्छे रहे। लोगों में आज भी आपस में एक दूसरे के सहयोग की भावना अधिक देखने को मिली। ऐसा होता था कि फ़सल के दिनों में ग्राहक आता था और ब्याज सहित सारे पैसे जमा करवाकर सत श्री अकाल बुलाई और चला गया। अगले दिन वो आयेगा, अपने खाते से लिमिट के पैसे निकालेगा और अपने किसी दूसरे साथी के खाते में जमा करवा देगा। अगले दिन दूसरा आयेगा, पैसे निकाले और वही पैसे तीसरे के खाते में जमा। चक्र चलता रहता है। सबके ऋण खाते भी  रेगुलर हो गये, बैंकर  की भी रिकवरी न होने की चिंता खत्म।
मानसिकता के बारे में बात करना अब मेरा भी मनपसंद शुगल हो गया है। लड़कियों के साथ कुछ हो तो मैं भी अब कह देता हूँ, ’मानसिकता बदलनी चाहिये।’   अब किसानों की बात चली तो फ़िर वही कह रहा हूँ, ’मानसिकता बदलनी चाहिये।’ लेकिन इस बार न किसी को हँसाने के लिये और न किसी को सताने के लिये कह रहा हूँ। गंभीरता से कह रहा हूँ, अपनी सुविधा के लिये मात्र सरकार को या दूसरों को दोष न देकर हम अपने क्रिया-कलाप में अनुशासन ले आयें तो  ऐसा कोई कारण नहीं कि हम सम्मान और स्वाभिमान से अपना जीवन न व्यतीत कर सकें।

विषय मुझे भी बहुत रोचक नही  लगता लेकिन  रुचिकर होना ही  तो सबकुछ नहीं, कभी कभी  समसामयिक चर्चा भी कर लेनी चाहिये।  किसानों की बात हो गई, सब्सिडी को लेकर भी कभी आपका समय लिया जायेगा। बचाकर रखियेगा वरना जबरदस्ती करनी भी हमें आती है :)

शनिवार, अप्रैल 11, 2015

KCC - किसान क्रेडिट कार्ड

भारत सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक के नियमों के अनुसार हर भारतीय बैंक को अपने द्वारा दिये जा रहे ऋणों में से कम से कम १८% ऋण कृषि कार्यों के लिये दिये जाने आवश्यक हैं। यह लक्ष्य पूरा न हो पाने की स्थिति में बैंक रिज़र्व बैंक और भारत सरकार के सम्मुख जवाबदेह भी होते हैं और गैप राशि का निवेश उन्हें Rural Infrastructure bonds(जिसपर रिटर्न या कहिये ब्याज दर लगभग नगण्य होती है) में करना होता है। कोई भी जिम्मेदार बैंक ऐसी स्थिति से बचना चाहेगा इसलिये बैंकों की ग्रामीण और अर्धशहरी शाखाओं से उच्चाधिकारियों की इस बारे में विशेष अपेक्षा भी रहती है। इसके बावजूद अनेक बैंक इस न्यूनतम लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाते हैं।
कृषि ऋण में सर्वाधिक प्रचलित ऋण को ’किसान क्रेडिट कार्ड’ या संक्षेप में KCC कहा जाता है। कृषि व संबंधित गतिविधियों के लिये यह ऋण स्वीकृत किया जाता है और यह ओवरड्राफ़्ट की सुविधा होती है। यानि कृषक के द्वारा जोती जाने वाली भूमि के आधार पर ऋणसीमा निर्धारित कर दी जाती है जिसे किसान एक साथ या  आवश्यकतानुसार टुकड़ों में निकाल सकता है। हर जिले के लिये प्रशासन, नाबार्ड व लीडबैंक की एक समिति उस क्षेत्र में उगाई जाने वाली फ़सलों का प्रति एकड़ अनुमानित व्यय तय करती हैं, जिसे ऋण सीमा निर्धारण करने के लिए एक आधार माना जाता है। गौर करने की बात यह है कि यह व्यय राशि ऋण सीमा नहीं है बल्कि उसका आधार है, इसमें और भी कई फ़ैक्टर जोड़कर ऋण सीमा तय की जाती है। पुनर्भुगतान भी फ़सल बिकने के बाद, मोटे तौर पर कहें तो आज लिमिट लेने के बाद लगभग छह महीने में आपको राशि ब्याज सहित चुकानी होती है। और आज जमा करने के बाद अगले दिन फ़िर आप समस्त राशि अपने लिमिट खाते से लगभग बिना किसी औपचारिकता के उठा सकते हैं। अपने अनुभव के आधार पर बता सकता हूँ कि जिस कार्य के लिये यह ऋण योजना बनी है, उसके लिये यह राशि अपर्याप्त नहीं होती। छोटे व सीमांत किसानों के लिये सरकार/RBI अनुदान देती हैं जिससे ३ लाख तक की KCC लिमिट कृषक को 7% वार्षिक की दर से उपलब्ध हो जाती है।         यही नहीं, रेगुलर भुगतान करने वाले कृषकों को सरकार प्रतिवर्ष अतिरिक्त अनुदान देती है। पिछले दो साल से मुझे ध्यान आता है कि यह अतिरिक्त अनुदान 3% था यानि कृषक को अपनी फ़सल उगाने के लिये 4% सालाना की दर से ऋण उपलब्ध हो सकता है। इतनी सस्ती ब्याज पर बैंक के स्टाफ़ को भी ऋण नहीं मिलता है। और याद दिला दूँ कि बैंक आपके बचत खाते में जमा राशि पर जो ब्याज देते हैं, उसकी दर भी 4% वार्षिक ही है।
यह सब बताने का एक उद्देश्य यह है कि सरकार कृषि क्षेत्र को एकदम उपेक्षित मानती है, ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि ये सब अभी की सरकार ने किया है, यह स्कीम काफ़ी पहले से ही है। फ़िर क्या वजह हो सकती है कि यह लक्ष्य पूरे नहीं हो पाते?
सरकार का डंडा बैंकों पर, बैंक उच्चाधिकारियों का डंडा शाखाओं पर, ब्याज की दर इतनी कम, एक बार लिमिट बनाने की औपचारिकतायें होने के बाद अगले पांच साल तक कोई अतिरिक्त औपचारिकतायें नहीं, पैसा कभी भी निकालने की सुविधा  और जमा करने के लिये अधिकतम फ़सल बिक्री तक का समय। इतनी सुविधाओं के बावजूद प्रचलन में ये है कि अधिकतर कार्डहोल्डर साल में एक बार सिर्फ़ ब्याज चुकाते  हैं, एक दिन के लिये भी पूरी राशि जमा नहीं करते। और ये सब करने के बाद भी नतीजा ये निकलता है कि अधिकतर जगह कृषि ऋण के टार्गेट पूरे नहीं होते।
क्या कारण हो सकते हैं कि यह लक्ष्य पूरे नहीं हो पाते? किसकी मानसिकता इस सबके लिये जिम्मेदार है, बैंक वालों की या ग्राहकों की?
विस्तार आप देंगे तो अच्छा है, मुझे राय बनाने में सुविधा होगी नहीं तो हम तो अपनी बात कहेंगे ही। जारी रहेगा अगली कड़ी में भी।
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अगली कड़ी में पंजाब का अपना संबंधित अनुभव बताता हूँ। पहले भी कई बार सोचा था लेकिन बात आई गई हो जाती थी। कुछ दिन पहले सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी जी के एक फ़ेसबुक स्टेटस पर कुछ बात निकली तो सोचा कि इस बारे में शेयर किया जा सकता है।

रविवार, अप्रैल 05, 2015

दीवार

टीवी पर मैडम जी ने सिखलाया था,
एक होती है अच्छी दीवार
और एक होती है बुरी दीवार।
और ये भी, कि
तोड़ देनी चाहिये हर बुरी दीवार।
जो आज्ञा सरकार,
अब हमने ठान लिया है
कि आपकी ये बात भी मानेंगे।
दीवार टूटेगी, और 
तय है कि जब भी टूटेगी
बुरी दीवार ही टूटेगी।
क्योंकि जो नालायक 
अपनी दीवार न बचा पाया
वो क्या खाकर सिद्ध करेगा कि
उसकी दीवार अच्छी थी?

पड़ौसी देश के लीडर ने  बयान दिया
कि गुड तालिबान और बैड तालिबान
में कोई फ़र्क नहीं होता।
ये अलग बात है कि ये इलहाम 
लीडर को देर से हुआ। 
तब हुआ, जब अपने चिराग से
घर रोशन हुआ लेकिन जलकर।
हमने तालियाँ बजाईं, 
देखा, बजा फ़रमाया हुज़ूर ने।

फ़िर आया दौर ’माय च्वॉयस’ का,
कपड़े पहनने न पहनने की च्वॉयस
से लेकर बिंदी लगाने न लगाने की च्वॉयस
बच्चा पैदा करने या न करने की च्वॉयस
से लेकर सेक्स शादी से पहले, बाद
या बाहर करने की च्वॉयस।
कहते हैं कि इससे आधी आबादी
जो अब तक दबी कुचली थी,
मजबूत हो जायेगी।
औरत और मर्द के बीच की
दीवार टूटेगी।

इतनी बड़ी अभिनेत्री
करोड़ों में फ़ीस लेने वाली
जो ब्रांडेड कपड़ों और मेकअप
से हरदम लकदक करती हो,
झूठ थोड़े ही  कहती होगी?

तय है कि दीवार फ़िर टूटेगी
और ये भी तय है कि 
बुरी दीवार ही टूटेगी।
हम नालायक, जो अपनी दीवार न बचा सके
क्या खाकर सिद्ध करेंगे कि
हमारी दीवार बुरी नहीं थी?
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रविवार, मार्च 15, 2015

चलें?

उन दिनों हम कालेज में पढ़ते थे और ताजे-ताजे बालिग हुये थे मतलब बालिगपने का पहला ही साल था। हमारे बचपन का एक साथी था जो आठवीं के बाद ही शिक्षा से मुक्ति पाकर अपने पिता की कपड़ों की दुकान पर हाथ बँटाने लगा था। हाथ बँटाने के बदले नियमित रूप से दुकान पर हाथ भी साफ़ करता था जिसकी औपचारिक पुष्टि इस घटना के दौरान ही हुई थी। उसकी निजता की सुरक्षा के लिये उसकी पहचान तो नहीं बताऊंगा लेकिन आप लोगों की सुविधा के लिये उसका कुछ नाम तो रखना ही पड़ेगा। उसे इस घटना में नेता के नाम से ही जान लेते हैं। तब तक तीन या चार बार वो सत्य एवम ज्ञान की खोज करने गौतम बुद्ध की तरह गृहत्याग कर चुका था लेकिन  बोधि-वृक्ष के तले पहुँचने से पहले ही जालिम माँ-बाप और दूसरे रिश्तेदार उसे कभी मुंबई से और कभी मसूरी से दुनियादारी में खींच लाते थे। हर बार उसके लौट आने पर हम उसे छेड़ते थे, "हाँ भई, चलें ?"   और एक दो महीने बाद वो हमें पूछता था, "चलें?"
सन 1988 की ठंड का मौसम शुरु हुआ, नेता ने एक दिन मुझे घेरा और मित्र-मंडली के साथ दिल्ली से बाहर कहीं घूमने जाने का वादा लेकर ही छोड़ा। ऐसा नहीं था कि हम बहुत घनिष्ठ मित्र थे, बात सिर्फ़ इतनी थी कि एक तो हमसे जल्दी से ’न’ नहीं कहा जाता था और उससे बड़ी बात ये कि हमारी छवि थोड़ी ठीक-ठाक सी ही थी, जिस ग्रुप में हमारा नाम होता था उस ग्रुप का पेरेंटल पासपोर्ट/वीज़ा अपेक्षाकृत आसानी से जारी हो जाता था। तो साहब लोगों, नेता ने ’चलें’ कहकर फ़ूलप्रूफ़ प्लान तैयार किया और जम्मु स्थित श्री वैष्णो देवी जाने का प्रोग्राम फ़ाईनल कर दिया। उसने बताया कि उसके साथ उसका एक मित्र भी होगा जो स्वाभाविक है उसके जैसा ही था, और किसी को ले जाना है तो मेरी मर्जी और मेरी ही जिम्मेदारी। गंतव्य-स्थान के एक जाने-माने धार्मिक स्थल होने और साथ में मेरे होने के उसके प्लान के चलते उसके माँ-पिताजी ने भी टूर अप्रूव कर दिया। उसके पिताजी ने परमात्मा के आगे हाथ जोड़कर इतना जरूर कहा, "चलो,  मांयवे ने पूछा तो सही।" 
यहाँ तक तो सब हँसी-मजाक  में ही हो गया, अब सोच मुझे होने लगी। संजय कुमार, तू इस नेता की बातों में आकर फ़ँस गया बच्चू। ये दोनों एक जैसे हो गये, अब तेरी रेल बननी पक्की समझना। थोड़ी सी जुगत हमने भी भिड़ाई और अपने जैसा दो साथी और तैयार कर लिये। बंदे हो गये पाँच और छब्बीस दिसंबर को हम पाँच जम्मु के लिये घर से रवाना हो गये। नेता और उसके साथी के घरवालों को बहुत ज्यादा चिंता नहीं थी लेकिन हम तीनों(संयोग से हम तीनों के ही नाम संजय थे/हैं) के परिवार वाले फ़िक्रमंद थे क्योंकि तीनों पहली बार घर से दूर अकेले जा रहे थे। हम लोगों ने अपने परिवार वालों को आश्वस्त किया कि हम 30 या फ़िर ज्यादा से ज्यादा 31 दिसंबर तक घर लौट आयेंगे और रेडी स्टेडी गो हो लिये।
आनन फ़ानन का प्रोग्राम था, कोई रिज़र्वेशन नहीं। शालीमार एक्सप्रेस का नाम सुन रखा था, वही पकड़ने के लिये जब प्लेटफ़ार्म पर पहुँचे तो भीड़ देखकर दम फ़ूल गया। फ़ौजी डिब्बे में चढ़कर और थोड़ी सी अंग्रेजी बोलकर फ़ौजियों के दिल में और कोच में थोड़ी सी जगह बना ही ली लेकिन कष्ट बहुत हुआ। 27  की दोपहर कटरा पहुँचकर पहला काम किया वापिसी की टिकट बुक करवाने का। टिकट मिले 29 तारीख के। मंदिर के दर्शन करके 28 की दोपहर तक हम कटरा लौट आये। नेता उदास होकर कहने लगा, "भैनचो पहली बार घरवालोंं से पूछकर घर से बाहर भी आये और मजा भी नहीं आया। ऐसा लग रहा है जैसे अभी आज ही घर से आये थे और आज ही वापिस पहुँच जायेंगे।  कहीं और चलें?"
अगले दो घंटों में उसने चलें? चलें? लगाकर हमारी हालत खराब कर दी। पैसे तो सिर्फ़ वैष्णो देवी तक के लिये ही लाये थे, घरवालों से तो सिर्फ़ यहीं तक का पूछा था जैसी सारी ओब्जेक्शन नेताजी ने ओवररूल कर दीं। कसम खिलाकर हमसे पूछा गया कि सच बताओ undisclosed पैसे कितने हैं? हम तीनों संजयों के पास शायद मिलाकर बारह तेरह सौ रुपये निकले। नेता अकेले ने कच्छे के नेफ़े में से दो हजार रुपये निकालकर सब इकट्ठे कर दिये, हिसाब बाद में होता रहेगा। इतने पैसे देखकर हमें हैरानी हुई भी तो उसने दुकान पर हाथ बँटाने वाली बात स्वीकार कर ली। "बापू तो जितना मर्जी पीट ले, कबूल नहीं करवा सकता लेकिन दोस्तों से हम कोई राज नहीं रखते।"  यारी की ताकत देखकर हम भी इमोशनल हो गये और  हमने भी कह दी कि चलो।
लो जी, बन गया कश्मीर का कार्यक्रम। तब इतना ही पता था कि जम्मु और कश्मीर एक ही राज्य है। हमारे दिमाग में था कि जम्मु से दो-तीन घंटे की दूरी पर ही कश्मीर होगा।  वापिसी वाली कन्फ़र्म टिकट रिश्वत देकर कैंसिल करवाई और रिज़र्वेशन वाले सरदारजी ने चार्ट देखकर बताया कि अगली उपलब्ध टिकट हैं 2 जनवरी की। अब उंगली नेता को पकड़ा ही चुके थे, क्या करते?  इस बार नया साल कश्मीर में मनेगा। मेरे घर पर टेलीग्राम कर दिया गया कि इस तरह से प्रोग्राम थोड़ा बदल गया है और हम दो जनवरी के आसपास घर पहुंच पायेंगे।
बड़ी लंबी दास्तान है कि कैसे हम लोग कदम-कदम पर ठगे गये। जम्मु से श्रीनगर तक पहुंचने में हम अपनी लाईफ़ किंगसाईज़ जिये। और जब तक श्रीनगर पहुँचे तो पूंजी के नाम पर हम पांच लोगों के पास शायद दो सौ रुपये भी नहीं बचे थे। अगले ही दिन वो भी खत्म और फ़िर  दिल्ली का ही एक और ग्रुप वहाँ मिला जिनसे उधार हमारे नेताजी मैनेज करते थे और उनकी उधारी लौटने के भी तीन महीने बाद चुका पाये। क्या क्या मुसीबतें उस यात्रा में हम पर न आईं लेकिन आज जब अपने प्रिय मित्र संजय के साथ कभी उस टूर की बात होती है तो बहुत हँसी आती है। 
हम लौटकर दिल्ली पहुँचे थे 5 जनवरी को। पिताजी नई दिल्ली स्टेशन पर ही दिख गये, हमें तलाश करने आये  थे। डर और शर्म के मारे उनसे आँख भी नहीं मिला पाया था मैं। एक ही बस में घर तक लौटे लेकिन आपस में एक भी बात न हुई। घर लौटा तो देखा कि मजमा लगा हुआ है, रोना पीटना मचा हुआ है। माँ रो रही हैं, रिश्तेदार महिलायें और पड़ौसिनें उन्हें घेरकर बैठी हैं और सांत्वना दे रही हैं।
हालात सामान्य होने में कई घंटे लगे। टेलीग्राम मिला ही नहीं था और न ही मेरी टेलीग्राम भेजने वाली बात पर किसी को विश्वास आ रहा था। अब ध्यान आ रहा है कि माँ  मेरी पसंद का खाना खिला रही थीं और बता रही थीं कि मिलने आने वाली औरतें कैसे आजकल के खराब माहौल के बारे में बताती जाती थीं और कैसे उनका दिल और ज्यादा घबराता जाता था। मैं गर्दन झुकाये खाना खा रहा था। अभी खीर की कटोरी उठाई ही थी कि डाकिये ने लाकर टेलीग्राम दिया। मेरी गर्दन कुछ डिग्री ऊपर तो उठ ही गई थी।
नेता मिल जाता है अब भी कभी-कभी। हम में से जिसका मौका लग जाता है, वही पूछ बैठता है, "चलें?"  पता दोनों को है कि अब जाना नहीं हो पायेगा।
आम परिवार से होने का ये फ़ायदा तो समझ आता है कि गुमशुदगी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन जाती।

रविवार, फ़रवरी 08, 2015

सकारात्मक नजरिया बोले तो ’Positive Attitude’ ...

वंस अपॉन अ टाईम दी गल्ल है जी, हम क्रिकेट के खेल के शौकीन हुआ करते थे।  इस नाचीज के सिवा गली के लगभग सब हमउम्र लड़के एक ही स्कूल में पढ़ते थे। हमारे बालपन के समय में बाप सचमुच के बाप होते थे, औलाद को खिलाते थे जमाई की तरह और देखते थे कसाई की तरह। कान पकड़कर जिस स्कूल में दाखिल करवा दिया, वहीं पढ़ना पड़ता था। अब उनका स्कूल अलग्, हमारा अलग। उनके कोर्स अलग, हमारे अलग। उनकी परीक्षाओं का शेड्यूल अलग, हमारा अलग। जैसे तैसे टाईम मैनेजमेंट करके काशी और काबा दोनों को साधे रखने में सारा बचपन गुजर गया :(   मुझ मासूम का नन्हा सा दिल गली के लड़कों की मस्तियाँ देखकर अपने स्कूल के संस्कार वगैरह भूल जाने को मचलता था, खूब कल्पनायें करता था कि कुछ ऐसा चमत्कार हो जाये कि मुझे भी पिताजी उसी सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दें तो दिन रात इन लड़कों का साथ नसीब हो जाये। मगर होनी को ये मंजूर नहीं था तो नहींं था। खींचतान करके शाम का जो थोड़ा सा समय उन समव्यस्कों के साथ निकल पाता था, उसीमें गुजारा करना पड़ता था। कोढ़ में खाज तब पड़ी जब पता चला कि जिन दिनों में क्रिकेट शृंखला होनी है, उन्हीं दिनों में सद्दाम हुसैन के देशी संस्करण(हमारे तत्कालीन प्रिंसिपल साहब ने) पता नहीं कौन सी परीक्षाओं का कार्यक्रम बना रखा था। हमारा पक्का विश्वास था कि ये हमें वक्त के साथ न चलने देने की हिन्दुत्व वालों की साजिश थी।  लेकिन जैसा उस समय के बाप लोगों के बारे में ऊपर बताया, उस समय के प्रिंसिपल भी सचमुच के प्रिंसिपल होते थे इसलिये मन मारने के सिवा कोई चारा नहीं था।

दोस्तों के साथ व्यतीत किये जाने वाले समय में बहुत कटौती हो गई थी। कभी कभार राह चलते टकरा जाने पर छुटपुट जानकारी मिल भर जाती थी। पता चल रहा था कि हमारी टीम में सारे ही खिलाड़ी उस समय कारनामे दिखा रहे थे। यशपाल शर्मा, बिन्नी, मदन लाल, कपिल देव, अमरनाथ - कहने का मतलब ये कि हर मैच में कोई न कोई ऐसा काम कर जाता कि भारतीय टीम की नैया डूबते डूबते भवसागर पार कर ही जाती थी। गली के सब लड़कों ने कोई न कोई अपना फ़ेवरेट क्रिकेटर बाँट रखा था और हर नये मैच के लिये इस खिलाड़ी की परफ़ोर्मेस को लेकर बहसें छिड़ी रहती थीं।

’होर वड़ो’ वाले दारजी  के लड़के आपस में भले ही हर समय लड़ते भिड़ते रहते हों, एक मामले में दोनों एकमत थे - फ़ेवरेट खिलाड़ी दोनों ने एक ही फ़िक्स कर रखा था और वो था बलविंदर सिंह संधू। एक बहुत ही इंपोर्टेंट मैच होने वाला था और दोनों सिंह साहबान इस बात
 पर अडिग थे कि इस बार संधू ने कमाल करना ही करना है। "ओये तुस्सी नईं जानदे, संधू एकल्ला ही सामने वाल्यां दी ऐसी तैसी कर देगा, चरस बो देगा।" उनकी बात को वजन इसलिये भी दिया जाता था कि जिस रेडियो पर सब मैच सुनते थे, वो उनका ही था।  लड़के उन्हें बहुत छेड़ते थे कि संधू के नाम में सिंह न होता तो तुमने कभी उसका समर्थन नहीं करना था और दोनों वीर कभी भी इस बात से सहमत नहीं होते थे। संयोग की बात ये हुई कि जिस दिन वो मैच होना था, मेरी आखिरी परीक्षा उसी दिन थी। शाम को अपन रिलेक्स थे, मन में थोड़ी सी उत्कंठा थी तो संधू की परफ़ोर्मेंस और उस पर आने वाली प्रतिक्रियाओं की। पता चला कि संधू ने आते ही पहली गेंद पर चौका लगाया और दूसरी गेंद पर आऊट। मंडली में सिंह शावकद्व्य अभी आये नहीं थे और असिंह लड़के भन्नाये बैठे थे कि हमारे देसी सिंह उसकी इतना तारीफ़ करते थे और सरदार चार रन बनाकर आऊट हो गया।

राह तकते रहे और दोनों वीर प्रकट हुये। जैसे मौसम वाले सुनामी की पूर्वसूचना दे देते हैं, उन्हें भी सूचना मिल गई थी कि आज लड़के भड़के बैठे हैं और संधू ने सामने वाली टीम की ऐसी-तैसी नहीं की इसलिये आज इनकी ऐसी-तैसी होनी तय है। उनके आते ही माचो और भैंचो जैसे सामूहिक स्वस्तिवचन बोले गये और जी भरके भड़ास निकाली गई। दोनों वीर चुपचाप खड़े रहे। जब लड़कों का गुस्सा कम हो गया तो फ़िर बड़े वाले ने कहा, "एक गल्ल त्वानूं सब्नूं मननी पऊगी कि साड्डे संधू ने वनडे मैच दे मह्त्व नूं पूरी तरां समझ्या सी। आंदे ही चौका मारया ते अगली गेंद ते आऊट हो गया, साड्डे शेर ने गेंदां खराब नईं कीत्तियां।" हम सब फ़िर से एकबार हँसते-हँसते गुत्थमगुत्था हुये और फ़िर अगले मैच की बातें शुरु हो गईं। बंदे का सकारात्मक नजरिया जान समझकर लाईव मैच न सुन पाने का अपना सारा अफ़सोस धुल गया।

सीधी सी बात ये है कि नजरिया सकारात्मक होना चाहिये। अब देखिये, दिल्ली के चुनाव हो चुके और एग्ज़िट सर्वे भी आ चुके। चुनाव तो दिलचस्प थे ही, रिज़ल्ट आने के बाद एक बार भसड़ मचनी तय है।   हमें इंतजार रहेगा हारने वालों के पोज़िटिव एटिच्यूड की। अपना बता दूँ कि हमने वोट उसे दिया है जिसे exit polls में बहुमत से बहुत पीछे दिखाया जा रहा है। हम हार गये तो यह सोचकर दिल को बहलायेंगे कि पानी फ़्री, बिजली का बिल आधा, इसके अलावा महीने में डेढ से दो हजार तो नेट का खर्चा ही बचना तय है। आगे के लिये अपने बच्चों को भी यही सिखायेंगे कि मुफ़्तखोरी के जो सबक सीखने में तुम्हारे बाप को पैंतालीस साल लगे, लोकतंत्र के इस महत्व को समझने में तुम गेंदें खराब मत करना। हथेली फ़ैलाना समय से सीख लो, इससे बड़ी ईमानदारी और कोई नहीं।

है न पोज़िटिव एटीच्यूड ?