केन्द्रीय राज्यमंत्री डा. शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर थरूर की रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई मृत्यु ने फ़िर से महाभारत का यक्ष-युधिष्ठिर संवाद वाला प्रसंग याद दिला दिया और साथ में फ़िल्म नमकहराम में आलम(रजा मुराद) का बोला वह शेर भी कि -
’जीने की आरज़ू में रोज मर रहे हैं लोग,
मरने की जुस्तज़ू में जिये जा रहा हूँ मैं’
संभावनायें और परिस्थितियाँ इशारा कर रही हैं कि सुनंदा की मृत्यु स्वाभाविक नहीं है। ताजा ट्विटर-विवाद, आईपीएल जैसे प्रकरणों के चलते लगता तो यही है कि यह आत्महत्या या हत्या का मामला हो सकता है। इस रहस्य से पर्दा उठेगा कि नहीं, वीआईपी लोगों का इस प्रकरण से सीधे जुड़े होने के कारण फ़िलहाल तो यह भी एक रहस्य ही है।
मृत्यु किसी भी रूप में आये, परिजनों के लिये क्षति रूप में आती है और मृत्यु का आत्महत्या या हत्या होना इस क्षति की मात्रा और प्रकार को कई तरीकों से बढ़ा देता है। इतना जरूर है कि किसी आम नागरिक के साथ हुई ऐसी दुर्घटना अखबार में चंद लाईनों तक सिमट जाती है और किसी हाई-प्रोफ़ाईल के साथ ऐसा होने पर कई दिन की फ़ुटेज की उपलब्धता निश्चित हो जाती है।
इस मामले में फ़ेसबुक पर लोगों की अलग अलग तरह की प्रतिक्रियायें देखीं। हम हिन्दुस्तानियों को हर मामले में निर्णायक बनने का शौक\लत है सो प्रतिक्रियाओं से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। सेलिब्रिटी होने का एक पक्ष यह भी है कि आपका व्यक्तिगत कुछ भी नहीं रहने दिया जाता। प्रेस\मीडिया\लोग तो किसी की खाँसी को भी व्यर्थ नहीं जाने देते, यहाँ तो एक जान गई थी तो चूकना असंभव था। प्रतिक्रियाओं से तो आश्चर्य नहीं हुआ लेकिन इस बात से आश्चर्य जरूर हुआ कि यह नौबत क्यों आई होगी? किसी कमजोर द्वारा ऐसा कदम उठाना फ़िर समझ आता है लेकिन रूप, धन, पद, शक्ति जैसे भौतिक साधनों से संपन्न लोग जब ऐसा कदम उठाते हैं तो आश्चर्यचकित न होना मुझे अजीब लगेगा।
जीवन कभी भी आसान नहीं रहता। प्राथमिक चिंता रोटी, कपड़ा और मकान की होती है और आर्थिक/सामाजिक स्तर सुधरने के साथ दूसरी चिंतायें इसमें जुड़ती रहती हैं। बहुधा तो हम लोग इन चिंताऒं से जीवन भर जूझते रहते हैं लेकिन सब इतने भाग्यवान भी नहीं होते।वैसे हममें से शायद ही कोई होगा जिसने कभी न कभी आत्महत्या के विकल्प पर विचार नहीं किया होगा। मुझे लगता है कि बहुत बार परिस्थितियाँ इस तरह से प्रतिकूल हो जाती होंगी कि उनसे जूझते हुये जीवन बिताने की अपेक्षा अपने जीवन के अध्याय को स्वयं बंद कर देना कहीं ज्यादा आसान लगने लगता होगा।
अधिकांश और हो सकता है लगभग सभी प्रचलित धर्मों में आत्महत्या को वर्ज्य माना गया है लेकिन मानव सभ्यता कभी भी इससे अछूती नहीं रही होगी। आत्महत्या समस्याओं से मुक्ति नहीं, सिर्फ़ पलायन है। बल्कि ऐसा करके लोग अपने परिजनों को बिल्कुल अकेला कर देते हैं। कुछ लोग या कुछ घटनाओं को जरूरत से ज्यादा महत्व देना कहीं की समझदारी नहीं है। सकारात्मक विचारों और सकारात्मक सोच से इस आत्मघाती सोच से बचा जा सकता है।
आज मैंने कुछ आंकड़े देखे तो पाया कि आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से बहुत ज्यादा है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि कई गुना ज्यादा है।
ज्ञात मामलों की तह में जाने के सीमित प्रयास किये तो पाया कि आत्महत्या करने वाले पुरुषों में अधिकांश संख्या ऐसे लोगों की थी जिन्होंने 'आर्थिक कारणों' के चलते ऐसा कदम उठाया वहीं ऐसा कदम उठाने वाली स्त्रियों के लिये मुख्य वजह 'रिश्ते' रहे। 'आर्थिक कारणों' के चलते आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा होने की वजह तो यह मानी जा सकती है कि अभी तक इस क्षेत्र में आधिपत्य और जिम्मेदारी पुरुषों की ही ज्यादा रही है तो आत्महत्या करने वालों में भी पुरुष ही आगे रहे होंगे लेकिन ’रिश्ते’ वाला कारण तो दोनों के लिये समान महत्व वाला होना चाहिये न?
रिश्तों में तनाव के कारण आत्महत्या करने वालों में पुरुषों से स्त्रियाँ कहीं आगे हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है?
क्या रिश्ते तोड़ने या टूटते रिश्तों से सामंजस्य बिठाने में पुरुष ज्यादा माहिर हैं, ज्यादा प्रैक्टिकल हैं?
समय गुजरने के साथ क्या स्त्रियाँ रिश्ते में स्वयं को पुरुष पर निर्भर और कमजोर मान लेती है? या फ़िर आम धारणा के विपरीत पुरुष भावनात्मक रूप से ज्यादा मजबूत हैं?
अगर किसी रिश्ते को लेकर पुरुष गंभीर नहीं है तो क्या स्त्री के लिये जान दे देना ही सर्वोत्तम उपाय रह जाता है?
बात मृत्यु की और आश्चर्य की हो और मुझे अतिप्रिय प्रसंग का ज़िक्र न आये, बहुत मुश्किल है। और तो और, यहाँ तो लगता है इस श्लोक में पूछे गये चारों प्रश्न और उनके उत्तर आज भी प्रासंगिक हैं।