“ये ब्रांच बुढ्ढों की ब्रांच है, सूखी ब्रांच।” जबसे इस ब्रांच
में आया, श्रीमुख से कई बार यह सुन चुका था। पुरानी ब्रांच से पर्सनल फ़ाईल आने के
बाद अपनी जन्मतारीख सुबूत के तौर पर पेश करते हुये हमने निवेदन किया कि ’अभी तो मैं
जवान हूँ’ फ़िर यह आक्षेप क्यों और सूखी और हरी भरी ब्रांच का कैसा वर्गीकरण?
उस्तादजी ने स्पष्ट किया कि इस डायलाग का पूर्वार्ध उनका नहीं है, कोई दूसरा
स्टाफ़ कभी यहाँ आया था और उसने यह रिपोर्ट दी थी। इस डायलाग का उत्तरार्ध भी उनका
नहीं है, लेकिन उनकी सहमति दोनों अर्धांशों से है। हमारी उम्र वाली बात ‘age is
nothing but a figure’ टाईप कुछ डायलाग बोलकर खारिज कर दी गई और सूखी-गीली संबंधी
विषय पर एक और होमवर्क हमें थमा दिया। “बैंक वालों की तरफ़ से सबसे अच्छी कस्टमर
सर्विस कब होती है?” गये थे नमाज पढ़ने और रोज़े गले बँधवा कर उस दिन हम घर लौटे।
रात भर मगजमारी किये और अगले दिन और भी थका हुआ चेहरा लेकर जब बिना जवाब लिये हाजिर
हुये तो हमें पकड़ कर आईना दिखा दिया कि देखो, ये किसी जवान का चेहरा है? फ़िर खुद
ही अपने पिछले दिन के सवाल का जवाब दिया, “बैंक वाले सबसे अच्छी कस्टमर सर्विस दशहरे से दिवाली के बीच देते हैं। और यह जवाब सिर्फ़ इस सवाल का नहीं है बल्कि सूखी
ब्रांच क्या और कैसे होती है, इसका भी है। त्यौहार है कि बस ब्ल्यू लाईन की तरह
सिर पर आने को है और यहाँ कोई पार्टी दिखती ही नहीं है।” हमारे ज्ञान चक्षु खुल
गये।
आज कुछ छिटपुट किस्से इसी विषय पर हो जायें।
आजकल चैक बुक पर नाम, एकाऊंट नंबर आदि प्रिंट होकर आता है। ग्राहक
से चैक बुक रिक्वीज़िशन स्लिप भर कर आ जाने के बाद हम लोग ऑनलाईन डिमांड दे देते है
और लगभग बारह दिन में चैकबुक प्रिंट होकर आ जाया करती है। मुझे हैरानी हुई जब इन
दिनों यह समय सीमा बारह दिन की जगह सात-आठ दिन की हो गई। आश्चर्य व्यक्त करने पर
इसका श्रेय यह कहकर दीवाली को दिया गया कि इन दिनों में मुर्दे भी उठकर ड्यूटी पर
हाजिर हो जाते हैं। जो स्टाफ़ सदस्य शाम के समय घड़ी की सुईयों को देखकर पैक अप कर
लिया करते थे, इन दिनों में स्वेच्छा से देर तक बैठने को तैयार रहते हैं। फ़लस्वरूप
कार्य की गति बढ़ जाती है।
उस्तादजी ने पुराना एक वाक्या बताया कि एक बार एक पार्टी सभी
स्टाफ़ सदस्यों को दीवाली पर सूट लेंग्थ दे गई थी। अभी वो सज्जन ब्रांच में ही थे कि
एक स्टाफ़ सदस्य बोला, “आ गया एक और खर्चा, कपड़ा दे दिया गिफ़्ट में और सिलाई और
टाई?” कस्टमर समझदार था या मौके पर बात कहने वाला, ये फ़ैसला आप करें लेकिन सतना
लिफ़ाफ़ा प्रकरण हमारे उस्तादजी कई साल पहले ही देख\दिखा चुके हैं। मेरी सरल सी
जिज्ञासा कि उस्तादजी वो टोकने वाले सज्जन आप के सिवा …? वैसे हमारे उस्ताद जी मंद
मंद मुस्कुराते हुये बहुत भले दिखते हैं।
ऐसे ही एक और किस्से में उन्होंने बताया कि एक बार इतने पैकेट
इकट्ठे हो गये थे कि मैनेजर साहब से शिकायत करनी पड़ी कि इन डिज़ाईनर पैकेट्स में से
इतने के तो गिफ़्ट नहीं निकलेंगे जितना टैक्सी का किराया जायेगा। मैनेज करना ही तो
मैनेजर का काम है, मैनेज किया मैनेजर साहब ने बल्कि करवाया उस्ताद जी ने।
एक स्टाफ़ जो हरित शाखा से अपेक्षाकृत सूखाग्रस्त शाखा में दीवाली
से दो महीने पहले ही स्थानांतरित हुआ था, पहले तो स्थानांतरण स्थगित करवाने में
जुटा रहा, असफ़ल रहने पर उसने दीवाली वाले सप्ताह में अवकाश ले लिया। ये किस्सा तो
मेरे सामने ही घटा था, अपन समझते थे कि ये उनका प्रोटैस्ट का तरीका है। बाद में पता
चला कि वो सप्ताह उन्होंने पुरानी ब्रांच में बिताया।
किसी स्टाफ़ के छुट्टी पर रहने पर उससे जूनियर को अस्थाई रूप से उस
पद पर काम करवाने की परिपाटी रही है, ताकि कार्य में व्यवधान न पड़े। बदले में उस
स्टाफ़ को कुछ अतिरिक्त भत्ता जिसे ऑफ़िशियेटिंग अलाऊंस या विशेष भत्ता कहते हैं,
प्रबंधन की तरफ़ से दिया जाता है। एक शाखा में एक अधिकारी का पद काफ़ी समय से खाली था
और एक दूसरा जूनियर कर्मचारी दो तीन महीनों से उस पद पर ऑफ़िशियेट कर रहा था। कुछ
ग्राहक ऐसे होते हैं जो पद के हिसाब से गिफ़्ट दिया करते हैं, जब उनका गिफ़्ट पैक
उनके मूल पद के हिसाब से मिला तो उन्होंने ये शिकायत मैनेजर से की, और आवाज उठाने
की कीमत केबिन में रखे पैकेट्स की मार्फ़त मनपसंद पैकेट्स से सवाई-ड्यौढ़ी वसूल
की।
बैस्ट फ़ार्मूला लगा अपने को अपने भोला का, दीवाली के मौके पर वो
बना देता है अपना छोटा सा चाईना बाजार, हर माल पचास रुपये। किस डिब्बे से क्या
निकले, इस सब से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। सीधा सा हिसाब, जितने पैकेट X
रु. 50\-. उसमें भी कोई सौ-दो सौ की ऊपर नीचे कर ले तो अगला हिसाब किताब
नहीं रखता था। सैंकड़ों में रकम पहुँचते ही उसका कैल्कुलेटर काम करना बंद कर देता
था।
सबकी बता दी, अपने बारे में तो कुछ भी नहीं कहा। ये सब मैं ही तो
हूँ, मेरी ही मल्टीपल पर्सनैल्टी के अलग अलग रूप अपने पूरे उरूज पर। जिन लोगों के
काल्पनिक किस्से सुना देते हैं, वो सब मेरे ही तो वो रूप हैं जो मैं होना चाहता हूँ
लेकिन कभी किसी का मन रखने के लिये, किसी की नाराजगी के डर से हो नहीं पाता।
अपने सुख, अपने लाभ के लिये कभी उस्ताद जी का रोल प्ले करता हूँ, कभी भोला का,
कभी इसकी तरह व्यवहार करता हूँ, कभी उसकी तरह। जो अच्छा हो गया, उसका श्रेय अपनी
अक्ल को, अपनी हाजिरजवाबी को और जब मनमाफ़िक न हुआ तो किसी दूसरे के सिर पर ठीकरा
फ़ोड़ दिया। और तो और उस ऊपर वाले को भी नहीं बख्शता। तकलीफ़ के समय तो खूब याद कर
लेता हूँ और जरा सा आराम मिलते ही फ़िर यहीं का होकर रह जाता हूँ।
खैर, बहरहाल. anyway जो भी हो अपनी तो पहली सरकारी दिल्ली वाली
दिवाली है, उम्मीद से हैं :)) जुटे हैं उस्ताद जी के कहे अनुसार ’द वैरी
बैस्ट कस्टमर सर्विस’ करने में, जो होगा सिर माथे पर। आगे कभी हो सकता है अपने
भी किस्से कोई सुनाकर अपना और दूसरों का टाईम खोटी करें।
:) फ़त्तू पशु मेले से भैंस लेकर आया। घर तक पहुँचते पहुँचते जिस
किसी से आमना सामना हुआ, खरीद मूल्य बताते बताते दुखी हो गया। दुखी भी ऐसा कि भैंस
बांधते ही कुँए में छलाँग लगा दी। सारा गाँव इकट्ठा होकर फ़त्तू को कुँए से निकलने
की पुकार करने लगा, जैसे ब्लॉग जगत में……...। फ़त्तू ने आवाज लगाई और पूछा, “सारे
गाम आले आ लिये अक कोई सा रै रया है?” जब कन्फ़र्म हो गया कि सब आ लिये तो वो भी
बाहर निकल आया और फ़िर अपना सवाल दोहराया, “सारे गाम आले आ लिये अक कोई सा रै रया
है?” फ़िर से कन्फ़र्मेशन मिल गई तो जोर से बोला, “भैंस आई सै चालीस हजार की, अबके
किसी ने पूछ लिया तो उसने इसी कुँए में गेर दूँगा।”
हैं तो अपन भी कुँए में ही, लेकिन भरोसा है उसपर, जिसने वादा
किया है डूबने न देने का और निभाया भी है। फ़त्तू की तरह सबको एक साथ ही विश कर
देते हैं।
दोस्तों, सारे ब्लॉग मित्रों को और उनके परिवार को ’शुभ
दीपाभली’ :))
भीतर-बाहर का सब अंधेरा दूर हो और चारों तरफ़ खुशियाँ, उल्लास अपना
प्रकाश बिखेरें, दिल से कामना करता हूँ।