आज ऐंवे सी ही कोई याद:))
हमारे से दो तीन महीने के बाद उसने ज्वॉयन किया था। था तो हमारे ही बैच का, लेकिन मैडिकल ग्राऊंड्स पर एक्स्टैंशन ले ली थी। नाम बताया उसने राकेश कुमार, बढि़या पर्सनैलिटी, क्वलिफ़िकेशन भी हम लोगों से ज्यादा ही थी। बड़े हिसाब से बोला करता था, सभ्य लोगों की तरह, ऐसा नहीं कि हमारी तरह अबे तबे करता हो। पारिवारिक पृष्ठभूमि बहुत शानदार बताई उसने अपनी, साथ ही यह भी कह गया कि बैंक की नौकरी तो इसलिये पकड़ी है ताकि शादी अच्छे से हो जाये। हम कम से कम डेढ़ दर्जन जगह पर इसलिये रिजैक्ट हो गये कि अच्छी भली नौकरी छोड़कर बैंक में नौकरी करने चला गया है और ये साहब कहते हैं कि अच्छी जगह शादी हो इसलिये बैंक की नौकरी करना मंजूर किया है, नहीं तो कोई जरूरत ही नहीं थी काम धंधा करने की। अपने को बात खटकी, दिख गया कि फ़्रीक्वैंसी लेवल तो दूर की बात है, बैंड भी अलग अलग है मीडियम वेव और शार्ट वेव की तरह। लेकिन नया नया होने के कारण जब तक उसका कहीं कमरे का इंतजाम नहीं होता, तब तक हम छड़ों के वेहड़े में ही रहेगा, ऐसी इच्छा उसने प्रकट की थी तो अपने भुरभुरे स्वभाव के कारण अपने से मना नहीं किया गया।
यू.पी., हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली के प्रतिनिधि हम पहले से ही थे, ये बिहारी बाबू भी आ विराजे हमारे अड्डे पर। पहले दिन तो परिचय वगैरह में ही शाम रात गुजर गई, अगले दिन सुबह हमारा फ़ौजी भाई जुट गया नाश्ता तैयार करने में, हम सब अपनी अपनी नौटंकियों में व्यस्त थे और राकेश बाबू ने नहा धोकर झक्क सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहनकर अखबार हाथ में लिया और बाहर गली में चलते चलते अखबार बांचने लगे। राजा बोला, “यार, ये अखबार पढ़ने का कौन सा स्टाईल है? हमें तो हिंदी का अखबार भी पढ़ना हो तो बैठकर पढ़ते हैं, इसने आज सुबह अखबार वाले से अंग्रेजी का अखबार भी लिया है और कल से रोज आयेगा, ऐसा भी कह दिया है। ये कोई परमानेंट हिसाब बनाने के चक्कर में तो नहीं? कल से लगा हुआ है हमें इम्प्रैस करने के चक्कर में, अब लग रहा है अपनी सैटिंग बैठनी नहीं है इससे। अब ये गली में घूम घूमकर अखबार पढ़ रहा है।” हमने भी अपना ज्ञान बघारा, “ये अखबार नहीं पढ़ रहा है, कल हमें इम्प्रैस किया है और आज गली वालों को इम्प्रैस कर रहा है। कोई बात नहीं, कर लेने दे।”
इतने में फ़ौजी ने आवाज लगाई कि नाश्ता तैयार है और सारे कैदी अपनी अपनी थाली गिलास लेकर हाजिर। जीतू ने कहा कि यार कोई उस अंग्रेज साहब को भी बुला लो तो राकेश बाबू को भी बुला लिया गया। फ़िल्मी हीरोईनों की सी चाल चलता हुआ आ गया वो भी, नाश्ता देखकर वैसे ही नाम भौं सिकोड़े जैसे हमारी बातचीत सुनकर कल से कई बार कर चुका था। “दूध-परांठा? ये कईसा नास्ता है भाई, भैरी पिक्यूलियर। हम तो पहली बार देखे हैं ये नास्ता।” समझाया उसे कि हमने भी पहली बार ही देखा था यहाँ जब फ़ौजी भाई ने मैस संभाली थी, लेकिन जब बिना किये धरे पेट भरने को मिल रहा हो तो नखरे नहीं दिखाने चाहियें। अब यही नाश्ता हमें अच्छा लगने लगा है। ये क्या कम है कि फ़ौजी सुबह सुबह पडौस के गांव से अपनी आंखों के सामने दूध निकलवा कर लाता है फ़िर ये मोटे मोटे परांठे सेंककर खिलाता है? लेकिन राकेश बाबू का नखरा दिखाना कम नहीं हुआ। जैसे तैसे गले से नीचे उतारा उसने वो नायाब नाश्ता। राजा मुझे घूर रहा था, बाद में कहा भी उसने कि एकाध बार ना भी कह दिया कर। क्या जरूरत थी इस भूत को घर लाने की? लेकिन ग्रुप में रहते जो एक ने कह दिया, वो मानते सभी थे और यही दोस्ती की पहचान थी। आपस में एक दूसरे को संभालना भी और सुधारना भी, लेकिन एक दूसरे के फ़ैसले का सम्मान भी करना।
कई दिन बीत चले, न वो हमारे बीच रमा और न ही कहीं अपने लिये कमरा देखने की कभी बात करता। गाहे बेगाहे इतना सुना देता कि उसे तो अलग ही रहना है, हाँ और कुछ नहीं बदला। उसके आने से पहले हम लोगों में काम के बंटवारे को या पैसों के मामले में या और भी किसी बात पर कभी कोई मतभेद नहीं हुआ था, लेकिन अब उसकी टोकाटाकी सबको नागवार गुजरने लगी थी। बाकी लोगों के मूड़ को देखते हुये मैंने अकेले में कई बार उसे इशारा किया भी कि जल्दी से जल्दी अपने कमरे का इंतजाम कर ले, वो बात पलट जाता और किसी किसी बात पर मेरी तारीफ़ करने लगता। वो तो बाद में पता चलता कि मजाक करता था और मैं सीरियसली ले लेता था:)
वैसे हम सब इकट्ठे ही ऑफ़िस जाते और एक साथ ही लौटते, बस यूँ समझिये साढे तेईस घंटे का साथ तो था ही। दिन में कई बार उस पिक्यूलियर नाश्ते की बात सुनाई जाती। लौटकर रोज का रुटीन फ़िर से शुरू, वही धौलधप्पा, शरारतें, गाने, गालियाँ वगैरह वगैरह। राकेश बाबू अब भी सबसे अलग दिखने के पूरे प्रयास में थे। मानो किसी मजबूरी में बेचारे हम जैसे लोगों के साथ दिन काटने को मजबूर हों और ये सब करते हुये हम पर एक अहसान कर रहे हों। उस दिन जब ऑफ़िस से लौटे तो कुछ देर के बाद जीतू का ध्यान ताश पर चला गया, “अबे, कितने दिन हो गये इसे हाथ ही नहीं लगाया। चलो रे, तैयार हो जाओ सब, आज दहला पकड़ खेलेंगे। सालो, इतनी मुश्किल से सिखाया था तुम्हें, फ़िर से भूल जाओगे।” अपना दिल टूट गया जी, इसका मतलब अगले पन्द्रह घंटे तक बाहर की ताजी हवा नहीं ले पायेंगे। ताश लेकर बैठ गये तो फ़िर हो गया नगर भ्रमण और स्टेशन भ्रमण। वो प्लेटफ़ार्म, वो बेंचे, पश्चिम एक्सप्रेस – ये सब क्या समझेंगे हमें, बेवफ़ा ही न? ले भाई जीतू, अब तैने कर ही दिया फ़ैसला तो आज की पदयात्रा की छुट्टी।
हमने तकिया चादर ली और टैलीपैथी के अभ्यास में लग गये और बाकी मंडली ताश लेकर दहला दबोचने के चक्कर में। राकेश बाबू आज थोड़े से उत्साहित दिखे, “क्या खेल रहे हैं, ये कौन सा खेल है?” बताया किसी ने उसे, आज बैठ गया पास आकर उनके। लेकिन बाकी सब जमीन पर जमे थे वो अब भी कुर्सी लेकर बैठा। दो चार बार उसने टोकाटाकी भी की, तो उसे सलाह दी गई कि देखे चुपचाप, समझ आ जायेगा। लेकिन आदत जो पक जाती है, इतनी आसानी से जाती नहीं। खुद को सुपीरियर दिखाने की आदत जाती नहीं थी उसकी। बोला, “हटाईये ये सब, कुछ और खेलते हैं, हम भी खेलेंगे।” बाकी सबको उसी में रस आ रहा था, कोई नहीं माना। उधर हमारी टैलीपैथी साधना चल रही थी, बीच बीच में उनकी आपस की बातचीत भी। मजे की बात ये कि बाकी सब का आपस में जोर जोर से हंसना, लड़ना भी कानों को बुरा नहीं लग रहा था और राकेश बाबू का बीच बीच में बोला जाने वाला एकाध वाक्य ध्यान भंग किये जाता था, शायद मैं भी अब तक उससे बायस्ड हो चुका था। जब उसने कई बार खेल बदलने को कहा और साथी लोगों ने ध्यान नहीं दिया तो कह उठा, “जाने ई जनाना खेल में का मजा आता है आपसब को? अरे खेलना ही है तो मर्द लोगों वाला खेल खेलिये न, फ़्लैश जैसा कुछ।”
.......जारी......
भई आपकी तो किस्मत ही जाग गयी जो ऐसे महानुभाव के चरण कमल आपके द्वार पर पडे। अब पढके लगता है अपनी भी किस्मत चमकने वाली है। यार यह दहलापकड तो कभी मुझे भी आता था लेकिन आज याद ही नहीं आ रहा कि कैसे खेलते थे।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंओफ्फो .... !
अब पता चला कि अक्सर अचानक बिना आपका ब्लॉग देखे किसी और का ब्लॉग पढ़ते पढ़ते, आपकी याद कैसे आ जाती थी ! आँखें खोलें गुरुदेव हम आपके सामने उपस्थिति हैं ! यह रही टिप्पणी ....
और कुछ करना हो वह आदेश भी संप्रेषित कर देना !
( क्या करें इन बाबाओं का भी पहले दीपक और अब यह संजय बाबा .....)
जय हो ...
लेकिन जब बिना किये धरे पेट भरने को मिल रहा हो तो नखरे नहीं दिखाने चाहियें।
जवाब देंहटाएंhaanji....bilkul sahi baat hai ;)
जाने ई जनाना खेल में का मजा आता है आपसब को? अरे खेलना ही है तो मर्द लोगों वाला खेल खेलिये न, फ़्लैश जैसा कुछ।”
ha ha ha.....awesome....!!! wah re angrez.....kya baat hai rakesh babu ki....unhe meri taraf se gudmorning kahiyega...hihihi
aur jyaadaa janne ka utsuk
जवाब देंहटाएंये राकेश बाबू ऐंवे ही याद आ गये ?
जवाब देंहटाएंआदमी ठीक नही लग रहे..... जरा बचके भाईसाहब
अगले पार्ट का इन्तजार हो रहा है राकेश बाबू को पूरी तरहा जानना है आखिर वें है क्या चीज
Ha,ha,ha! Subah,subah padhke mood achha ho gaya!
जवाब देंहटाएंऐंवे ही है? होगी, पर ऐंवे ही होना अधिक अच्छा है, मेरे लिए तो है।
जवाब देंहटाएंयाद बहुत रोचक (पिक्यूलियर नहीं)है।
एक दोस्त परसों सीखा रहा था दहलापकड़, बिचारे को संगत नहीं मिल रही है, जिसे देखो उसे पकड़/पकड़ा रहा है। इस बल्लापकड़ दिमाग में कुछ कुछ तो घुसा है :)
As usual शिकायत:
माना ऐसा लिखना हमारे बस का रोग नहीं है, लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि आप हमेशा 'जारी' वाला अत्याचार करेंगे।
ऊपर से आपका ५-६ दिन वाला व्रत भी है। तो १-२ दिन के discount की चाहना है।
flash ke throgh flash-back ki tayari......dekhna
जवाब देंहटाएंfinally aap impres ho jaoge.....
intresting.......
pranam.
........जरा बचके भाईसाहब
जवाब देंहटाएंजब दिल दिखाई पड़ेगा तो उस पर भी टिप्पणी देंगे अभी तो सिर्फ चेहरा ही दिखा है तो उसके लिए ये एक ऐंवे सी ही टिप्पणी.
जवाब देंहटाएंहममममममममममममम बहुत खूब मुझे लगता था कि बस मै ही स्टेशन पर घूमक्कडीकरता हूं आपको पाकर अच्छा लगा , आगे क्या हुआ का इंतजार ।
जवाब देंहटाएंमर्द वाला खेला ? अगले अंक को पढकर ही टिपियायेंगे !
जवाब देंहटाएंaage kya hua atisheeghra bataiyega intzar kathin hai...
जवाब देंहटाएंई जारी वाला गोली दागने से आप लोग बाज नहीं आईयेगा! जिधर देखिये वहीं अजकल जारी और क्रमशः का फैसन चल गया है...का सोमेस जी, का अनुराग जी... अब ई त हमरा कहानी है इसलिये अगिला एपिसोड में पाँच दिन बाद जब आप भेद खोलियेगा तब देखा जाएगा... कोनो गहरा बात निकलेगा इसके अन्दर.. इसलिये बंद मुट्ठी पर सर्त नहीं लगाते हुए हम जारी से बेजार होकर इंतज़ारी करते हैं!!
जवाब देंहटाएं- सलिल
हमको ऐसा कोई क्यों नहीं मिला :) आगे देखते हैं कैसी रही आपकी यारी.
जवाब देंहटाएंदसनंबरी को कोई पकड़ पाया है, फ्लैश मारने से क्या होगा।
जवाब देंहटाएंआज का जारी तो हमे भी बहुत खटक गया। जाइए इसी बात पर हम कमेण्ट नहीं करेंगे इस पोस्ट पर।
जवाब देंहटाएंरोचक।
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी का इंतज़ार।
@ स्मार्ट इंडियन:
जवाब देंहटाएंसर जी, हमें बनाने बिगाड़ने में महानुभावों के चरण कमलों का ही प्रताप हैं, वरना हम किस खेत के बैंगन हैं? दहला पकड़ तो हमें भी जब अच्छा लगता था तभी लगता था, डेली पैसेंजरी शुरू की तो बेगम पकड़ .., वो कहानी फ़िर सही:)
@ सतीश सक्सेना जी:
बड़े भाई, कभी तो बख्श दिया करो। और क्या पब्लिक में ये कहते कि चादर ओढ़कर किसी को याद कर रहे थे? एक तो वैसे ही बड़ी साफ़ सुथरी छवि है, कुछ गोलमोल कहने लगें तो भी आप सब उगलवा ही लेते हो। हम कोई बाबा वाबा नहीं हैं जी..
@ saanjh:
unhen good morning? जो चला गया वो चला ही गया और जो यहाँ रह गया, रह गया। बहुत कम लोग हैं जिनसे ट्यूनिंग नहीं जमी, और राकेश बाबू उनमें से एक हैं, so sorry this time.
@ धीरू सिंह:
हम भी बताने को उत्सुक हैं, धीरू भाई।
@ दीपक सैनी:
दीपक, आदमी तो ठीक ही रहे होंगे, बस बैंड अलग अलग थे हमारे:)
ऊफ ये "जारी" की आरी
जवाब देंहटाएंजारी.......
@ kshama ji:
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा मैडम, कि हम मूड फ़्रेशनर भी हैं:) शुक्रिया आपका।
@ Avinash Chandra:
ओ बल्लापकड़ जी, अब प्रोमोशन लीजिये:)
जारी लिखकर हम तो मौका देते हैं घूंट भरने का। भलाई का जमाना ही नहीं रहा, हा हा हा।
@ सञ्जय झा:
चलिये, देखेंगे कौन होता है इम्प्रैस।
@ संजय भास्कर:
अच्छा भाई साहब, वैसे हमने क्या लाल कमीज पहनी है जो सभी हमें बचके भाईसाहब की सलाह दे रहे हैं:)
@ विचारशून्य:
बन्धु, हम ऐंवे से ही बंदे हैं सो काम चलेंगा अपना।
लगता है की कश्मीर हाथ से जा रहा है अब कश्मीर बस कभी कभी घूमने के लिए मिलता है तभी तो एक पोस्ट में बात खत्म नहीं कर पाते या लोगो को इंतजार करवाने की आदत हो गई है |
जवाब देंहटाएंजारी.........
@ Mithilesh dubey:
जवाब देंहटाएंकुछ मामलों में हम तुम शायद एक जैसे ही हैं, मिथिलेश। खग समझे खग...।
@ अली साहब:
हम भी तभी जवाब देंगे:)
@ शालिनी कौशिक:
धन्यवाद आपका, कोशिश करेंगे इंतजार निरर्थक न जाये।
@ सम्वेदना के स्वर:
राकेश बाबू बिहारी था, इससे कहानी आपकी हो गई? का सलिल भैया, आप भी बस्स..
@ अभिषेक ओझा:
आप ऐसे नहीं हैं, इसलिये कोई आप को ऐसा नहीं मिला।
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
जवाब देंहटाएंकोशिश ही न करें, वो भी कहाँ तक ठीक है?
@ सोमेश सक्सेना:
मत करो यार तुम भी कमेंट, देखी जायेगी..!
@ मनोज कुमार जी:
धन्यवाद मनोज जी।
@ anshumala ji:
ये जारी की आरी आप भी खूब चलाती हैं, हम तो लिहाज करते हैं आप सबका। मौका देते हैं कि पसंद न आये तो पूरा टाईम खोटी करने की बजाय बाकी बचा समय तो बचाईये। रही बात कश्मीर की, तो पैकेज की ऑफ़र दी तो है हमने भी, देखिये क्या होता है।
मजा तो पूरी कहानी पढ़ने पर ही आयेगा..
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी में जान जायेंगे राकेश बाबू की कहाँ फंसे है !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ... आगे की कहानी का इंतजार है .
जवाब देंहटाएंgayab the..lo pragat ho gaye... ab aapki kahani padhte hain...
जवाब देंहटाएंबचपना का दहला पकड खेल याद आगया, आगे की कडी का इंतजार करते हैं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
@ भारतीय नागरिक:
जवाब देंहटाएंदेखते हैं सर, मजा आता है कि जाता है।
@ वाणी गीत:
म्हारी तो रैपूटेशन खराब ही मान रखी है आपने:)
@ शिवकुमार ( शिवा ):
कहानी सुंदर लगी आपको, आभार:)
@ Anand Rathore:
वैलकम बैक जी, हमने तो कई बार पुकारा, फ़िर चुप बैठ गये थे। लौटे तो अच्छा लगा।
@ ताऊ रामपुरिया:
ताऊ ने तो जरूर खेलया होगा, बेरा था मन्ने।
राम राम:
अब ल्यो और धसाओ खट्पति जीव को, मोट्यार से लुगाई जात खै दीन्यो बात ही बात में ...................... बेगा बताओ अब यो मर्दानो खेल कस्यो छै ;-)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया रचना.जारी है ..............का इंतज़ार कब ख़त्म होगा.
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ.बहुत ही बढ़िया पोस्ट पढने को मिली.
आपका अनुसरण नहीं हो रहा है.कोई ताला तो नहीं लगा रखा है आपने राकेश जी से मिलने के बाद.
बहुत ही रोचक शैली में लिखते हैं आप.
आपकी कलम को सलाम.
@ अमित शर्मा:
जवाब देंहटाएंठावस राखो महाराज:)
@ अदा जी:
देवी जी, सरलता को ब्लैकमेल किया जाता है और कुटिलता को आप व्हाईटमेल कर रही हैं। जब हम लिखें कहानी, आप कहती हैं कि ये कहीं से कहानी नहीं है बल्कि संस्मरण है और जब हम लिखें संस्मरण तो आप फ़रमाती हैं कहानी है। क्षेत्रवादिता की भली कही, जिसने कभी कमेंट नहीं किया उसके लिये हमसे गिला सिर्फ़ भूगोल के चलते..क्या कहने हैं। बिहारी तो खुद हमें सताने पर जुटे हैं, सलिल साहब ने हमें पब्लिकली रहस्यमयी बता दिया और आप तो हमारा मुँह ही बंद किये दे रही हैं, मंजूर है जी ये भी। वैसे बाई द वे ये ’दूसरी एक्स-बिहारिन’ कौन है? हाँ नहीं तो..!!!
@ sagebob:
स्वागत है आपका। ताला तो हमारे घर में भी नहीं लगाते हम, क्या है जो कोई ले जायेगा कोई? और साहब, ये सलाम-वलाम के लायक नहीं हम, हैल्लो ही बहुत रहती:))
उफ्फफ्फ्फ़ .... मैं भी कम नहीं हूँ ब्लॉग पर बार बार आ कर भी जाता रहा ..सोचा ...... लेख लम्बा है बाद में पढेंगे और वही हुआ जो हर बार होता है .....एक बार डूबकी लगा दी . बस समझिये वहीँ पहुँच गए जहां ये सब घट रहा है .. लेख के अंत "..जारी ...." देख कर फिर से बैचैनी हो गयी ... अब लग रहा है चाहे मीटरों लम्बा लेख होता पर पूरा होता .. सच्ची .... एक सांस में पढ़ डालता (मतलब १५-२० साँसों में पर एक साथ :))
जवाब देंहटाएंअब कहानी के मुख्य पात्र पर एक बात
दिल की बात बोलूं तो मुझे लगता है हम सब कभी ना कभी पूरी तरह या आंशिक रूप से ऐसे हो जाते हैं इससे बचने का सबसे बेहतर इलाज है सोने से पहले एक बार पूरे दिन की गतिविधयों का आलोचनात्मक अध्ययन ...
... जारी ... :)))
बढ़िया मज़ा आ रहा है पढ़ने में ... आगे का इंतज़ार रहेगा ...
जवाब देंहटाएं@ Global Agrawal:
जवाब देंहटाएंकम कहाँ हो यार, ग्लोबल हो गये हो और लगे रहे तो जल्दी ही यूनिवर्सल हो जाओगे, शुभकामनायें।
दिल की बात पर एक बात कहानी के मुख्य पात्र की तरफ़ से तो नहीं, कैरेक्टर आर्टिस्ट यानि हमारी तरफ़ से, ये फ़ंडा बहुत अच्छा है और हम इसका प्रयोग करते भी हैं, कभी तो फ़ायदा होगा ही।
शुक्रिया।
@ Manpreet Kaur:
aapka bloug bhi bouth he aacha...i visited it yesterday. thanx.
@ Indranil Ji:
धन्यवाद सैल साहब।
ाब क्या करें अगली कडी का इन्तजार तो बहुत मुश्किल लग रहा है। रोचक पोस्ट। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंरोचक। आगे की कहानी का इंतजार है|
जवाब देंहटाएं@ निर्मला कपिला जी:
जवाब देंहटाएंआशीर्वाद बनाये रखने के लिये आपका आभार।
@ Patali-The-Village:
धन्यवाद जी।
कमेन्ट……… जारी……… :P :P
जवाब देंहटाएंkya bhaijee.....hamra to dil toot gaya.....khair,
जवाब देंहटाएंaise barbole se apna bhi sabka ho chuka hai.....so
man ne me koi galfat nahi......lekin ummed alag si
thi......rochakta banaye rakha apne....sadhuwad..
pranam.