उस दिन जब तक फ़ाईनल ड्राफ़्ट अप्रूव हुआ, रात के सात बज चुके थे। अब कहीं जाकर दिनभर का तनाव कुछ कम हुआ। सुबीर ने बैग समेटा और पैदल ही लौटने का इरादा बनाकर ऑफ़िस से निकल लिया। बिल्डिंग के गेट तक ही पहुंचा था कि पीछे से लगभग दौड़ती हुई शुभ्रा ने आकर उसे रोका, “मैं गाड़ी निकाल रही हूँ, तुम मेरे साथ ही चलोगे।”
“जी, कोई बात नहीं, मैं आराम से चला जाऊँगा।”
“सुनो, अभी तुम ऑफ़िस की हद में हो और मैं तुमसे सीनियर। इट्स ऐन आर्डर. अंडरस्टैंड? यहीं इंतज़ार करो मेरा।” और अपना हैंडबैग उसके हाथ में थमाकर शुभ्रा पार्किंग की ओर लपक ली।
सुबीर की बड़बड़ाहट शुरू हो गई। आठ महीने बड़ी है, मुझसे साल भर पहले ज्वऑयन भी किया है लेकिन देखो कैसे हुकम चला गई और मैं भी मर्दों के नाम पर दाग, कुछ कह नहीं पाया। सच में कितने स्लो रिफ़्लेक्सेज़ हैं मेरे? लेकिन इतना सोचते सोचते जैसे ही हैंडबैग पर ध्यान गया, तो उस हल्के से हैंडबैग ने मानो विचारों का तूफ़ान दबा दिया हो। गेट के पास लगे रात की रानी के झाड़ से उठती महक तेज हो गई हो जैसे।
शुभ्रा ने गाड़ी उसके पास लाकर रोकी, दरवाजा खोला और बोली, “विराजिये, ऋषिवर। निश्चिंत रहिये, मैं कोई मेनका नहीं जो आपका ध्यान भंग करूंगी। बल्कि आपको खुद सोचना चाहिये कि सर्दी की अंधेरी रात में आपकी सहकर्मी जोकि संयोग से आपके पडौस में भी रहती है, सड़क पर अकेली जाये तो ये कहाँ तक ठीक है?”
सुबीर सीट पर बैठ गया और सोचने लगा कि क्या यही वह शुभ्रा है, जिसका एक बोल सुनने के लिये और एक मुस्कान पाने के लिये ऑफ़िस भर के सीनियर-जूनियर ऐसे भागीरथ प्रयास में लगे रहते हैं कि होता कोई और युग तो जाने कितनी गंगायें इस महानगर में अवतरित हो चुकी होतीं? सिर्फ़ अपने नजरिये से सोचता तो उसे लगता कि शुभ्रा उसपर मेहरबान हो रही है, उसका नजरिया जाना तो खुद की सोच पर शर्म आने लगी।
“कितना सोचते हो बाबा तुम, जब देखो ख्यालों में गुम दिखते हो। बीसियों बार कहा है तुमसे कि एक ही ऑफ़िस में काम करते हैं, एक ही कालोनी में रहते हैं, जब मैं गाड़ी लाती ही हूँ तो साथ चला करो लेकिन नहीं। जानते हो मेरे मम्मी-पापा तुम्हारी कितनी तारीफ़ करते हैं, जबकि तुम कभी हमारे घर नहीं आये। कई बार पापा कह चुके हैं कि लड़का शरीफ़ दिखता है, अकेला रहता है कभी खाने पर बुलाओ उसे और मैं हर बार टाल देती हूँ। तुम पता नहीं क्या सोचने लगो।” समय काफ़ी हो चुका था लेकिन सड़क पर निर्माण कार्य के चलते ट्रैफ़िक जैसे रेंग ही रहा था।
शुभ्रा ने ही फ़िर बात छेड़ी, “क्या हुआ तुम्हारे गांव की जमीन के मामले का, बहुत दिन से छुट्टी नहीं ली तुमने?”
“फ़ैसला मेरे हक में हुआ था। उसके बाद मैं सिर्फ़ एक बार और गाँव गया था, लिखापढ़ी करके जमीन भाई के नाम ही कर दी थी। गाँव-जमीन से नाता ही नहीं रहा, अब छुट्टी का क्या काम?”
शुभ्रा हैरत से देखने लगी उसे, “व्हाट? तुम पागल हो एक नंबर के। उसी भाई के नाम कर दी जमीन, जिससे मुकदमा चल रहा था, आर यू मैड?”
“नो, आई एम नॉट। मुकदमा लड़ा था अन्याय का विरोध करने के लिये और स्वेच्छा से जमीन भाई के नाम की है ताकि सारी उम्र उसे इस वजह से भाभी के ताने न सुनने पड़ें। और फ़िर बाबा के जाने के बाद भाभी ने मुझे और मेरी मां को जो रोज गिनकर रोटियाँ खिलाई हैं, उनका हिसाब भी तो बराबर करना था। अब माँ भी नहीं रही, मुझ अकेले का क्या है? मेरी सैलरी बहुत है मेरे लिये।” आज बीच बीच में शुभ्रा के चेहरे की तरफ़ देख लेता था सुबीर।
“आज तुम अकेले हो, हमेशा तो नहीं रहोगे? कल को जिम्मेदारी सर पर आयेगी तो ये जमीन तुम्हें एक्स्ट्रा सपोर्ट देती, ये क्यों नहीं सोचा तुमने? फ़िर पछताओगे अपने फ़ैसले पर।”
“ऐसा मौका नहीं आने वाला है।” फ़िर से देखा उसने नजर चुराकर, रात की रानी मानो फ़िर से जैसे गमक गई हो।
गाड़ी कालोनी के गेट से अंदर घुसी तो सुबीर ने गाड़ी रोकने को कहा।
शुभ्रा ने कहा, ”अब कहाँ रसोई में जाकर खटपट करोगे? मेरे साथ चलो, आज खाना हमारे साथ ही खा लेना।”
सुबीर हँसने लगा, “घर का खाना, गाड़ी की सवारी इतनी ऐय्याशी एक साथ शायद हजम न हो। आदत बिगड़ जाये तो दिक्कत होती है। बहुत बहुत शुक्रिया, लिफ़्ट देने के लिये भी और खाना ऑफ़र करने के लिये भी। बाय, गुडनाईट।”
शुभ्रा हँस दी “यू आर एन ईडियट, स्वीट ईडियट।”। “ठीक है, कल तो छुट्टी है, आराम से सोकर उठना। "गुडनाईट, सुबीर।” और कार आगे बढ़ा दी।
सुबीर देख रहा था कार को जाते हुये और सोच रहा था कि पागल ये बता गई, ईडियट ये बोल गई और मुझे बुरा नहीं लगा। शुभ्रा कहती तो ये थी कि वो मेनका नहीं है, तो क्या झूठ भी बोलती है ये? आज ये सुगंध पीछा क्यों नहीं…..
जारी..
खुशबू यहां तक आ रही है..
जवाब देंहटाएंवापस जा-जा कर देखना पड़ा कि किस ब्लॉग पर हूं, क्या सचमुच मो सम ... पर.
जवाब देंहटाएंदादा दास्ताँ बड़ी दिलचस्प है. पर अब फिर वही सवाल उठाएंगे सब-
जवाब देंहटाएं"कहानी है या संस्मरण?" :)
वैसे मैं तो कहानी मान कर ही पढ़ रहा हूँ. अगले भाग का इंतज़ार है.
ये कहानी आज उनके ज़िक्र से
जवाब देंहटाएंमोगरे की यार डाली हो गई!!
(नीरज जी के शेर पर थोडी कलाकारी मेरी है)
सच है, ख़ुशबू यहाँ तक आ रही है.
@"घर का खाना, गाड़ी की सवारी इतनी ऐय्याशी एक साथ शायद हजम न हो। आदत बिगड़ जाये तो दिक्कत होती है।"
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बहुत कुछ याद दिला दिया, उनके घर जाकर ज़मीन पर बैठना, सोफ़े पर कभी नहीं. ज़िद करने पर जवाब ,"ज़मीन की आदत रही,तो सोफा आराम देगा.. मगर सोफे की आदत पड गई और ज़मीन पर बैठना पड़े तो बहुत तकलीफ़ होगी. आदत बिगड़ जाए तो बहुत परेशानी होती है."
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........................ क्रमशः
वाह जी बल्ले बल्ले आज तो फत्तू की ग़ैरहाज़री भी नहीं खली :)
जवाब देंहटाएंभाई आपने तो बहुत ही सुंदर लिख दिया है आज...और कहीं हटकर भी.
हम ख़ामोश रहेंगे सरजी ! बस बार बार पढेंगे इसको और तब तक पढेंगे जब तक आप की ओर से "समाप्त" का टैग नहीं लगेगा। वैसे "स्टार्टर" ने जो लुत्फ़ दिया है उस से "डिनर" के स्वाद का अन्दाज़ा बखूबी लगाया जा सकता है। और हमें बड़ी जोर की भूख लग आयी है :)
जवाब देंहटाएंकहानी अच्छी चल रही है .फत्तू भाई गैरहाजिर नहीं, शायद कहानी पढने में व्यस्त हो.
जवाब देंहटाएं...फिर क्या हुआ..।
जवाब देंहटाएंओहो, बहुत बढ़िया. आगे? आज ही निपटा दिए होते.
जवाब देंहटाएंइतनी भीनी भीनी महक वाली कहानी पढ़ ली, अभी तक बसी है, मन में।
जवाब देंहटाएंआह और वाह....और कुछ नहीं.......
जवाब देंहटाएंदूसरी और तीसरी टिप्पणी में अपनी हुंकारी के भी स्वर हैं :)
जवाब देंहटाएं@“ऐसा मौका नहीं आने वाला है।” Awesome!!!
@"रात के सात बज चुके थे।" क्या कहूँ? काश या आमीन? आमीन कहूँगा। :)
@सुबीर देख रहा था कार को जाते हुये और सोच रहा था....
ये नायक ही हमेशा सोचते हैं या सोचने वाले ही हमेशा नायक होते हैं?
अजीब प्रश्न है, उत्तर नहीं चाहिए, लेकिन मैं उत्तर सोच रहा हूँ :)
रातरानी की खुशबू वाकई है इसमें।
इन्तजार अच्छा है, कर लेंगे।
tareef karne ka to matlab hi nahin banta...bachkani si harkat lagti hai...few things are beyond comment. to main bas haaziri laga kar jaa rahi hoon.....
जवाब देंहटाएंbas ek smile for u...hope u hav a great day
:)
@“कितना सोचते हो बाबा तुम,
जवाब देंहटाएंहा मै भी यही पूछने वाली थी की ये नायक नायिका इतनाखुद से ही बाते क्यों करते है |
@इतनी ऐय्याशी एक साथ शायद हजम न हो
हमें भी एक साथ ज्यादा अच्छाईहजम नहीं होती |
@पागल ये बता गई, ईडियट ये बोल गई
इतनी गाली तो चलेगी :))
एक आखरी बात ( मानेगे नहीं ये पता है ) यदि कहानी का अंत ( मालूम है लिख चुके होंगे और क्या लिखा है ये भी अंदाजा है ) नहीं लिखा है अभी तक तो वो अंत मत दीजियेगा जो आप हर बार देते है | :))
शुरुआत अच्छी है, ये सीनियर फीमेल बॉस वाला मुद्दा भी अच्छा उठाया है आपने |
जवाब देंहटाएंमुकदमा लडा था अन्याय का विरोध करने के लिये………॥
जवाब देंहटाएं(सुबीर जरुर बडा भाई होगा)
लगता है ये खूशबू अब पीछा नहीं छोडेगी
हाय! काश हमें भी कोई पागल और इडियट बोलता :)
पिछली कहानी की तरह इस इंतजार का ज्यादा इंतजार ना करवाईयेगा।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
पढके दिल बल्लियों उछल रहा है ! बस एक ख्याल कि अपने मो सम कौन ? साहब के साथ ऐसा वक़्त भी गुजरा है ! वाह ! खूब ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंदूसरा ख्याल ये कि जमीन / झगडे / मुकदमेबाजी वगैरह वगैरह के ज़िक्र कथानक में नाटकीयता को बढ़ाने की गरज़ से ही डाले गए होंगे ? मतलब ये सारे ट्विस्ट ?
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जवाब देंहटाएंसर जी,
जवाब देंहटाएंअगले भाग के इंतज़ार में....
@ भारतीय नागरिक:
जवाब देंहटाएंआशा है खुशनुमा ही लगी होगी:)
@ राहुल सिंह जी:
इतनी बेयकीनी क्यों सर?
@ सोमेश सक्सेना:
शाबाश राजा, आने वालों को राह दिखा दी संस्मरण की। अब हर कोई छेड़ेगा तुम्हारे दादा को। कोई बात नहीं प्यारे, देखी जायेगी,,,
@ चला बिहारी...:
सलिल भैया, लगता है फ़िर कोई चोट मोहब्बत...:)
@ काजल कुमार जी:
आभारी हैं अपके, काजल भाई।
@ रवि शंकर:
जवाब देंहटाएंअनुज, ज्यादा लजीज की उम्मीद मत रखा करो यार:)
@ उपेन्द्र ’उपेन’:
आप ने चेतावनी दी थी न पिछली बार फ़त्तू को? शायद...
@ राजेश उत्साही जी:
फ़िर वही हुआ जी, जो न होता तो अच्छा होता।
@ अभिषेक ओझा:
वाह जी, जमानों को लम्हों में कैसे बांध दें?
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
हमारा लोहा कूटना सार्थक हो गया सरजी, शुक्रिया।
@ boletobindas:
जवाब देंहटाएंवाह न मिले लेकिन यारों की आह बहुत मायने रखती है, है न रोहित?
@ अविनाश चन्द्र:
उत्तर सोच लो तो बताना मुझे भी:)
@ saanjh:
शुक्रिया।
@ anshumala ji:
पता है नहीं मानने वाला मैं, फ़िर भी फ़रमाईश? ताकि शिकायत का मौका मिल जाये और अच्छे अच्छे कमेंट न करने पड़ें आपको, देखी जायेगी...))
@ नीरज बसलियाल:
सही में, ये भी एक नजरिया है। थैंक्स नीरज।
@ अन्तर सोहिल:
जवाब देंहटाएंप्रिय अमित, हमेशा बड़ा ही नहीं भुगतता। मैं खुद बड़ा हूँ, और मेरा छोटा भाई मुझसे कहीं ज्यादा जिम्मेदार है। मैं ऐश कर रहा हूँ और वो जिम्मेदारियाँ भुगत रहा है। हमारी कहानी का नायक सुबीर भी छोटा है। और यारा, इस काश में हमें भी साथ ही समझना, अकारथ गई दिखती है अपनी भी ये जिन्दगी:))
@ अली साहब:
बालक तो उत्पात करते ठीक लगते हैं, आप सरीखे भी मोहर लगा देंगे तो ’मो सम’ को बेघर देखना पड़ेगा:)
पहले खयाल को समेटकर दूसरे ख्याल को ही उन्वान करें, मेहरबानी बनाये रखें। याद रखिये पिछली पोस्ट पर दिल से दुआ दी थी आपने:))
@ अदा जी:
ऐसे हमारे नसीब? सपना है या सच?
ये आज्ञा वगैरह हमारे शब्दकोष में नहीं है, बल्कि ऐसा कहकर शर्मिंदा न करें। आप तो कर ही डालिये जी फ़टाफ़ट से रिकार्ड, कहीं इरादा न बदल जाये आपका(अगर ये सीरियस वाला मजाक नहीं है तो):))
गीत में ताल, राग जो भी है लेकिन आपके कमेंट में अतिशयोक्ति अलंकार जरूर है। लिखने के मामले में किशोर जी अपनी फ़ील्ड में अप्रतिम हैं।
इतनी व्यस्तता में आपने समय निकाला, आभारी तो मैं हूँ जी आपका।
सदैव आभारी।
@ prkant:
मुझे भी इंतज़ार है, प्रोफ़ैसर साहब:)
आदरणीय दादा
जवाब देंहटाएंजब आपने बालक कहकर उत्पात की छूट दे ही दी है तो फिर अब जमकर उत्पात मचाया जाएगा। अब शिकायत मत कीजिएगा कि मेरी वजह से आपको छेड़ा जा रहा है।
वैसे सालों बाद किसी ने बालक कहा है मजा आ गया। :)
भाई साहब प्रणाम,
जवाब देंहटाएंदेरी के क्षमा, क्या करू पहले BSNL और अब PCL (power corporation ltd.) मेरी ब्लोगिंग के दुश्मन हो रहे है।
कहानी एक मस्त है, जैसे ऊपर महानुभवो ने कह ही दिया है कि “खूश्बू यहा तक आ रही है“
सच कहानी मन को छू गयी बड़ा बेसब्री से इंतजार है इसके अगले पार्ट का (डर है कही साल भर इंतजार ना करना पडे)
आज फत्तू की कमी नही खली
@ सोमेश सक्सेना:
जवाब देंहटाएंभाई, अपनों को मजा आ जाये, और क्या चाहिये?
@ दीपक सैनी:
ये क्षमा जैसी औपचारिकता मत करो यार, ऐसे तो मैं हरदम ही माफ़ियाँ माँगता रहूँगा। आये, अच्छा लगा। पसंद आया तो और भी अच्छा लगा, कुछ सुधार भी कभी बताओगे तो बहुत अच्छा लगेगा।
kuchh gol-mal hai.......क्या स्वप्न भी सच्चे होतें है ?...भाग-५.,यह महानायक अमिताभ बच्चन के जुबानी.
जवाब देंहटाएंbahut khoob .
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