(चित्र flickr.com से साभार)
धम्म से कुछ गिरने की आवाज आई और उसकी नींद खुल गई। आवाज इतनी तेज नहीं थी लेकिन शरीर इस कदर थका हुआ था कि वो हल्की सी आवाज भी ऐसी लगी जैसे एकदम कानों के पास किसी ने बम फ़ोड़ा हो। दो दिन और दो रात लगातार जागने से आंखें मानो जल रही थीं। दीवार पर टंगी घड़ी देखी तो देखा आँख लगे अभी चालीस मिनट ही हुये थे। दीवार पर थोड़ा ऊपर की तरफ़ एक छिपकली दम साधे अपने शिकार को एकटक देख रही थी।
पद्मा दीवार के पास हक्की-बक्की सी खड़ी थी। उसे जाग चुका देखकर बोली, “साहब जी, देखना जरा ये।” आवाज में घबराहट थी। उठकर जाना पड़ा वहाँ तक। सोने से पहले मोबाईल चार्जिंग पर लगाया था, अब देखा तो मालूम चला कि जरूर फ़ोन पद्मा के हाथ से गिरा है, स्क्रीन तो नहीं टूटी थी लेकिन बॉडी के अंजर-पंजर खुल गये थे। चार्जर जरूर टूट गया था। सिर्फ़ देखा था पद्मा की तरफ़ और वो जैसे रोने को हो आई थी। ’साहब जी, हम तो झाड़ू लगा रहे थे कि ये गिर गया। गलती हो गई हमसे।” कहते कहते आँखें भर आई थी।
चार्जर को सॉकेट से निकालकर दोनों चीज लेकर वो फ़िर से बिस्तर पर आ गया। दिमाग और खराब होने लगा था। एक बार तो सोचा कि जो होना था हो गया, पहले नींद पूरी की जाये उसके बाद देखेंगे लेकिन धड़कन से भी ज्यादा जरूरी हो चुके फ़ोन को चैक करना भी जरूरी था। इधर फ़ोन की बॉडी को फ़िर से खोलना- जोड़ना जारी था और उधर पद्मा की गैरजरूरी सफ़ाईयां जारी थीं। दीवार पर शिकारी और शिकार थोड़ा और नजदीक आ चुके थे। छिपकली के शरीर में कोई हरकत नहीं थी, शायद मानसिक रूप से खुद को और तैयार किया जा रहा था और बेचारा शिकार उसे मुर्दा समझने की गफ़लत पाल चुका था।
’साहब जी, ज्यादा नुसकान हो गया?’ रुआँसी पद्मा ने फ़िर पूछा। होता पहले वाला समय तो नुसकान और नुकसान का फ़र्क बताने बैठ जाता वो लेकिन आज चुप रहा। पता नहीं शरीर की थकान ज्यादा थकाती है या मन की थकान? “कोई बात नहीं, जानबूझकर थोड़े ही किया है तुमने। और अब रोने से क्या हो जायेगा?” मन ही मन सोचने लगा कि फ़ोन तो बच गया, शुक्र है। चार्जर जरूर नया लेना पड़ेगा। वो और पास आ गई और हाथ जोड़कर कहने लगी, “हमें माफ़ कर दीजिये, जितना भी नुसकान हुआ है, हम हर महीने कटवा देंगे उसके पैसे।” दीवार पर देखा तो लगा कि शिकार जैसे आज खुद कुर्बान होने पर आमादा हो।
कई साल हो गये हैं पद्मा को उनके घर काम करते हुये, कभी शिकायत का मौका नहीं दिया है उसने। “जाने दो, जो हो गया सो हो गया।” कहकर वो दूसरी तरफ़ मुँह करके सोने की कोशिश करने लगा। “नहीं साहब जी, आपने पहले भी मेरे लिये बहुत किया है। मुझे सजा मिलनी ही चाहिये।” पद्मा ने उसकी बाजू छूकर कहा। पता नहीं क्या हुआ उसे, वो एकदम से पलटा। उधर दीवार पर भी छिपकली और शिकार अपना अपना धर्म निभा रहे थे। एक फ़ना हो रहा था और दूसरे की क्षुधापूर्ति हो रही थी।
फिलम का कोई सीन ही लिख दिया है आपने तो.
जवाब देंहटाएंशिकारी कहां नहीं..
जवाब देंहटाएंoof......
जवाब देंहटाएंbhaiya pahile ke hee mood me raho......na ....( mahaz ek aagrah )
apane sathee ko kyo chod aae ........usaka batiyana bahut raas aata tha...
man halka hojata tha........
शिकारी खुद यहा शिकार हो गया
जवाब देंहटाएंइस कहानी में शिकारी कौन हैं ?
जवाब देंहटाएंबहुत रहस्य है, जिसे हम शिकार समझते है वो ही शिकारी हो जाता है
dimaag sunn ho gaya
जवाब देंहटाएंटिप्पणी लिखते-लिखते चेतावनी पर ध्यान चला गया, सोच रहा हूँ, लिखूँ कि नहीं।
जवाब देंहटाएं"जितनी देर में आप बहुत अच्छे, शानदार लेख, प्रस्तुति जैसी टिप्पणी यहाँ पेस्ट करेंगे उतना समय किसी और गुणग्राहक पर लुटायें, आपकी साईट पर विज़िट्स और कमेंट्स बढ़ने के ज्यादा चांस होंगे।"
चलो लिख ही देता हूँ: शानदार लघुकथा! (स्वागत है श्रीमान)
यहाँ मानव की कमजोरियों का साहसिक चित्रण ....तुम एक फिल्म क्यों नहीं बनाते यार ....हिट जाओगे ! शुभकामनायें !!
जवाब देंहटाएं:):):)
जवाब देंहटाएं..........no comments..............
pranam.
शिकार हम भी हुए।
जवाब देंहटाएं*
कई बार किसी के अहसान इस हद तक भारी हो जाते हैं कि सब कुछ समर्पित करने का मन करने लगता है। आपकी इस लघुकथा में शायद ऐसा ही कुछ हो रहा है। अब किसका बड़प्पन कहें,अहसान करने वाले का या समर्पित होने वाले का।
*
शिकार हम भी हुए।
सब कुछ अलग- नया स्टाईल...नई शैली...रंग बदला हुआ...
जवाब देंहटाएंसभी शिकार हुए...
सञ्जय जी,
जवाब देंहटाएंआप आर्ट मूवी की ही तरह आर्ट ब्लॉग-लेखन कर रहे हैं.
आपके लेखन में दो साहित्यकारों के एक साथ दर्शन हुए :
— पहले निर्मल वर्मा, जो सूक्ष्मतम अनुभूतियों के यात्रा-संस्मरण लिखा करते रहे ... आपने भी नेपथ्य की घटनाओं को स्वर देकर वर्णन को जीवंत बना दिया है.
— दूसरे विष्णु प्रभाकर, जो मानवीय संवेगों का अपने एकांकी और नाटकों में अच्छा उदघाटन किया करते रहे ..... आपने भी पद्मा के माध्यम से मानवीय क्षुद्रताओं को व्यक्त कर दिया.
kuch naya sa....
जवाब देंहटाएंjai baba banaras.....
संजय भाई, लगता का उनका नुसकान वाकई ज्यादा हो गया था....और फिर भरपाई भी!!
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो एक पाठक के रूप में आपको इस अद्भुत लेखन के लिए बधाई देता हूँ, सच में बहुत अच्छी लगी आपकी लेखनी की दौड़ ....................................... फिर छोटे भाई के रूप में पूछना चाहुंगा की कहीं यह भाभीजी के चले जाने के बाद आपकी आप-बीती तो नहीं है :)) ................. देखिएगा यह अच्छे लक्षण नहीं है............ फिर नार्को-मार्को होने लगे तो हमें दोष ना देना ................हम तो अपना देवर धर्म निभाएंगे भौजी को यह कारनामा बताकर ;))
जवाब देंहटाएंजब फिल्मकार आपसे अपनी फिल्म की कहानी लिखवाये तो हमकी भी सिफारिस कर दीजिएगा कोई छोट-मोट रोल के लिए !!!
जवाब देंहटाएंवैसे आपकी कहानी से दिमाग में यह कीड़ा फिर कुलबुलाने लगा है की, क्या हर अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध के लिए आदमी ही दबाव बनाता है ????
जवाब देंहटाएंया बलात्कार सिर्फ नर ही कर सकता है या मादा भी बलात्कार करती है ?????
कौन है शिकार
जवाब देंहटाएंकौन सैय्याद
कुछ नहीं पता
प्रणाम
Uf! Kuchh samajh me nahee aa raha kya kahun?
जवाब देंहटाएंनुकसान भी हम करें और फिर हर्जाना भी हम वसूल करके हटें वाली लघुकथा लगी मुझे तो । बढिया प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंअनुसरणकर्ताओं में एक की कमी लग रही थी । पूर्ति किए जा रहा हूँ ।
जवाब देंहटाएंबधाई हो अनुसरण कर्ताओं का शतक पूरा होने पर !
जवाब देंहटाएंआप शाइनी आहूजा को डिफेंड कर रहे हैं |
जवाब देंहटाएंमोनोलोंग के दरम्यान ऐसी कहानियां जन्म लेती ही रहती हैं.. मगर जोक्स अपार्ट (इस मुहावरे का सर्वाधिकार मो सम कौन के पास सुरक्षित है)लघुकथा किसी शेर की तरह ख़ूबसूरत है.. जब तक दूसरा मिसरा पढ़ न लें, वाह नहीं निकलती और आपने तो दूसरे मिसरे पर वाह कहने लायक भी नहीं छोड़ा! बचपन की एक कहानी याद आ गई,कभी इत्मिनान से..और आज के शाइनी अहूजा की मजबूरी भी याद आ गई.
जवाब देंहटाएंवैसे बदले हुए तेवर और कलेवर दोनों पसंद आए,संजय बाउजी!!
बिन मारे ही मार डालो आप तो :)
जवाब देंहटाएंsir ji,
जवाब देंहटाएंmonologue ke zamane men aisa colour ! kya baat hai.lizard se pata nahin kyon lizlizahat ka ehsas hota hai.
@ राहुल सिंह जी:
जवाब देंहटाएंइसे खुद के लिये तारीफ़ ही मान रहा हूँ सर, शुक्रिया।
@ भारतीय नागरिक:
शिकार कहाँ नहीं? (एक नजरिया ये भी)
@ Apanatva:
सरिता दी, आग्रह नहीं आदेश है ये और इसका पालन होगा।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}:
बरोबर:)
वाह! बाकी सवेरे कहुँगा!
जवाब देंहटाएं@ दीपक सैनी:
जवाब देंहटाएंवोट गिरवाने पड़ेंगे भाई।
@ रश्मि प्रभा जी:
दिमाग हमेशा ही सही फ़ैसला नहीं करता।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन:
चेतावनी ’शानदार लेख’ टीप देने वालों के लिये है जी, आपने तो ’शानदार लघुकथा’लिखा है, अत: श्रीमान जी धन्य मान रहे हैं खुद को।
@ सतीश सक्सेना जी:
शुभकामनाओं हेतु आभारी।
@ सञ्जय झा:
जवाब देंहटाएं..........no comments...........?
..........no problem, नामराशि।
@ राजेश उत्साही:
एकदम सही पकड़ा राजेश भाई। लेकिन ’शिकार हम भी हुये’ में कोई राज दिखता है:)
@ Archana ji:
change is the rule of nature, शुक्रिया जी।
@ प्रतुल वशिष्ठ:
पार्टी कहाँ लेकर मानोगे बन्धु? :))
@ Poorviya:
जवाब देंहटाएंकौशल जी, धन्यवाद।
जय बाबा बनारस।
@ SKT:
त्यागी साहब, नुसकान भरपाई उनकी हुई लेकिन अपना तो फ़ायदा ही होता दिखता है, आप हाईबरनेशन से बाहर तो निकले। गुजारिश मानने का शुक्रिया, प्रोफ़ैसर साहब।
@ अमित शर्मा---Amit Sharma:
टिक जा छोरे, लच्छन तो थारे ठीक न दीखते हैं।
दोष तो खैर तुम्हें नहीं ही दूंगा, मेरे कर्मों का ही है। धन्य हो देवर जी, ये भूल गये कि भाई का भी कोई धर्म होता है।
सिफ़ारिश के मामले में हमारे भरोसे मत रहना, हम खुद ही चमगादड़ हैं। जैसे हम लटकेंगे(उल्टे), वैसे ही हमारे दोस्त रिश्तेदार:) कीड़े के सवाल पर अभी हम खुद ही कन्फ़्यूज़्ड हैं।
@
@ अन्तर सोहिल:
जवाब देंहटाएंहमको कुच्छ नहीं मालूम(शोले में गब्बर सिंह)
@ kshama ji:
मुझी भी समझ नहीं आता बहुत बार।
@ सुशील बाकलीवाल:
आपका लगना सही लग रहा है सर। आपके पधारने का शुक्रिया और कमी पूर्ति करने का भी। आभारी हूँ सर, लेकिन एक की कमी तो हमेशा रहने वाली है, सदा का भूखा-प्यासा हूँ:)
@ अमित शर्मा:
जवाब देंहटाएंबधाई? हुंअ, देख लूंगा तुम्हें।
@ नीरज बसलियाल:
सतवचन भाई। लोग तो अगज़ल गुरू, कसाब, और पता नहीं किसे किसे डिफ़ेंड कर रहे हैं, हमने भी सोचा कि हाथ धो लें:)
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने:
चलिये सलिल भैया, इस इत्मीनान का भी इंतजार रहेगा।
wah.....kathy or shilp dono hi bejod...badhai....
जवाब देंहटाएं@ अभिषेक ओझा:
जवाब देंहटाएंअमां हम तो खुदै मरे हुये हैं भाई कबके।
@ prkant:
प्रोफ़ैसर साहब, अजित साहब से परिचय है नहीं, वरना पुष्टि कर लेते कहीं lizard शब्द की उत्पत्ति लिज़लिज़ाहट से ही तो नहीं हुई।
@ ktheLeo:
वो सुबह कभी तो आयेगी..
@ योगेन्द्र मौदगिल जी:
धन्यवाद, दादा।
पहले तो नयी बातें:
जवाब देंहटाएं१) नया template बहुत सुन्दर है, रंग भी इसका।
२) चित्र बहुत खतरनाक है, और बिलकुल उपयुक्त।
और लघुकथा पर गुणीजन ऊपर कह ही गए हैं, सहमति के स्वर मेरे भी है।
हर शब्द नाप के रखा हुआ है अपनी जगह।
शानदार!!
पटकथा संवाद, कोई हीरो सोचा है इसके लिये।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंexcellent pictorial narration...
जवाब देंहटाएंbhai sahab
जवाब देंहटाएंfollowers ki century ke liye mubarkan
bilkul agal si lagi laghukatha. behatarin aur bavpurn laghukatha...... sunder prastuti.
जवाब देंहटाएंवाह भाई वाह!
जवाब देंहटाएंआज गुड फ्राई डे क अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं आपको !!
कैसा शिकारी और कैसा शिकार....
जवाब देंहटाएं@ Avinash Chandra:
जवाब देंहटाएंहे युवा गुणीजन, 'Beauty lies in the eyes of beholder' उपयुक्त मानने और सहमति के लिये भी धन्यवाद।
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
सरजी, आप भी मजे लेने लगे हैं। लगे रहिये:)
@ अदा जी:
रकसंसौ, त्राहिमाम देवी, त्राहिमाम..
जवाब देने का काम या तो डाक्टर करते हैं या विशिष्टजन। मुझ अल्पज्ञ से तो उत्तर भी ऐसे मिलेंगे कि कपार पीटने का मन करेगा आपका:)
A.1. पुरुष भी छिपकली को छिपकली ही कहते हैं, और
A.2. पुरुष रूपी छिपकली को भी पुरुष ही कहते हैं(आजकल):)
@ अमित श्रीवास्तव जी,
thanks Amit ji for encouraging.
@ दीपक सैनी:
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाई।
@ उपेन्द्र ’उपेन’
धन्यवाद उपेन्द्र जी।
@ मदन शर्मा जी:
आपको भी शुभकामनायें।
@ Udan Tashtari:
जैसा शिकारी वैसा शिकार..।
अब तक सबसे उपयुक्त टिप्पणी लगी अविनाश जी की,,और उपयुक्त जबाब लगा अदाजी की टिप्पणी पर...
जवाब देंहटाएंBahut Badhiya Sanjay...Afasos hai ki pahle kyun nahi aaya aapke site pe...bahut badhiya likha hai...nafa nuksaan se jyada jaruri hota hai bhawnaon ki kadra...
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार! विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जवाब देंहटाएंदो समानांतर रेखाएं कभी नहीं मिलतीं, लेकिन आपकी लेखनी ने दो समानांतर आगे बढ़ रही घटनाओं को एक ही मुकाम पर पहुंचा दिया।
जवाब देंहटाएंगहन और सूक्ष्म अंतर्दृष्टि ऐसे लेखन की जननी होती है।
हुकुम !
जवाब देंहटाएंपहले तो इस बेहद खूबसूरत और मेरे पसंदीदा रंग के टेम्पलेट पर ……"सुभान-अल्लाह" !
और यूँ कलम से कत्ल-ए-आम पर क्या कहें। इतना कुछ आया जेहन में कहने को कि कुछ भी कह नहीं पा रहे हम।
बस बेहतरीन से भी बेहतर !
नमन !
@ विजय रंजन जी:
जवाब देंहटाएंअफ़सोस कैसा सर, आपके आने से मैं अनुग्रहीत हुआ। अब भी न आते तो क्या कर लेता मैं? :))
@ Vivek Jain:
thanks Vivek Ji.
@ mahendra verma Ji:
वर्मा साहब, आप जैसे सुधीगणों से ही कुछ सीख रहा हूँ। देखिये, कितना आत्मसात कर पाऊंगा।
@ Ravi Shankar:
अनुज, अच्छे लोगों का साथ मिले तो बहुत बार क्रेडिट बिना वजह भी मिल जाता है। सब तुम लोगों के साथ का असर है, पार्टी शार्टी ले लो यार कभी मेरे से एक:)
नया स्टाईल...नई शैली.
जवाब देंहटाएंलघुकथा बहुत सुन्दर और अद्भुत है ... आपकी लेखन शैली तो है ही कमाल की ... लघुकथा पढकर मन में बहुत सारे सवाल खड़े हो गए ... और लगा कि सच में बहुत बढ़िया रचना है ... वो रचना ही क्या जो मन को न छुएं ...
जवाब देंहटाएंमुझे तो यह कौतुहूल है कि आपको इस कहानी का विचार कैसे आया। कहीं आप भी तो कभी...
जवाब देंहटाएं@ सोमेश सक्सेना:
जवाब देंहटाएंकह लो, तुम न कहोगे तो कोई पराये थोड़े ही कहेंगे:))
ओह...!!
जवाब देंहटाएं