रविवार, जनवरी 06, 2013

Tools of your trade....टूल्स ऑफ़ युअर ट्रेड...

कुछ दिन पहले स्टीवन सीगल  की एक फ़िल्म देखी। फ़िल्म में कभी आपराधिक पृष्ठभूमि से जुड़ा लेकिन फ़िलहाल उस शहर से दूर रहने  वाला  नायक स्टीवन अपनी बेटी के कातिल का पता लगाने के लिये  शहर में लौटता है और सुराग ढूँढने में अपनी बेटी के शरीफ़ से मंगेतर(जोकि नायक के प्रतिद्वंदी\जानी दुश्मन  का बेटा भी  है) की मदद लेने के लिये उसे कन्विंस करता है। असली कातिल की तलाश करते करते एक सूत्र उनके हाथ आता है और सही सूचना देने में आनाकानी करने पर स्टीवन उस पर बंदूक तान देता है। इसी गरमागरमी में उसकी बेटी का मंगेतर जोकि पहले अपराध से लगभग घृणा करता था और अब एक मिशन के तहत उसे इसमें सहभागी बनना ही पड़ रहा था, सूत्र को गोली मार देता है। मुझे नहीं पता कि आपने स्टीवन सीगल की कोई फ़िल्म देखी है या नहीं, पसंद की है या नहीं लेकिन बंदे में कुछ बात तो है।  साधारणतया स्टीवन अपनी एक्टिंग, फ़ाईट और यहाँ तक कि रोमांस भी  बिना लाऊड हुये करते हैं। चेहरा भी भावहीन सा, डायलाग भी गिने चुने शब्दों में लेकिन एक बात में बॉलीवुड नायकों के समकक्ष कि हमारे देसी नायकों की तरह ही, मिशन आमतौर पर अकेले दम पर ही पूरा कर लेते हैं। तो हम बता रहे थे कि आपाधापी में इनका would be son-in-law हाथ आये सूत्र से कोई जानकारी पाने से पहले ही उसको गोली मार बैठता है। बेटी के कातिल की तलाश में जूझ रहा बाप गुस्से में भरकर अपनी बेटी के मंगेतर से कहता है, "Learn to respect the tools of your trade."

फ़िल्म का नाम क्या था, नहीं मालूम और मालूम करने की कोशिश भी नहीं की। लेकिन स्टीवन सीगल का बोला गया वो डायलाग मुझे बहुत अच्छा लगा। कोई कानून का रखवाला हो या कानून तोड़ने वाला, उसके हाथ में पकड़ा गया हथियार उसके ट्रेड का एक टूल ही तो है। हथियार हाथ में होने का मतलब उसे हर किसी पर झोंक देने से न उस हथियार का सम्मान है और न ही उसे थामने वाले हाथ का।

कलम, की-बोर्ड या अभिव्यक्ति के दूसरे साधन भी एक हथियार है और उनका सम्मान करना धारक का दायित्व। 

एक संवैधानिक पद पर पदस्थापित शख्सियत का जब बयान देखा कि ’सेक्सी’ होना सुंदरता के लिए एक कंप्लीमेंट है, मुझे वो डायलाग याद आया। 

एक राजनेता ने जब दूसरी पार्टी की एक महिला नेत्री के चरित्र के बारे में टीवी पर कहा कि तुम्हारा चरित्र क्या है,  तब भी वो डायलाग याद आया। 

एक समाचार पत्र समूह द्वारा आयोजित लीडरशिप सम्मिट में एक बॉलीवुड स्टार ने जब कहा कि 'I have two principles, 1. Never kiss an actress   2. Never ride a horse.      
Rather, I would kiss a horse and ride an  act........  तब भी हालीवुड मूवी का वो डायलाग याद आया।

खुद भी  बेटियों के माँ-बाप होने वाले लॉलीपॉप भाषण सुनकर तो और भी बहुत कुछ याद आया।

कम कोई नहीं है, न ये पार्टी न वो पार्टी, न वो न हम। एक से बढ़कर एक सुझाव पढ़ने को मिल रहे हैं - 
कहीं इस सबके लिये सिर्फ़ प्रशासन और पुलिस जिम्मेदार,
कहीं इस सबके लिये सिर्फ़ पुरुष जिम्मेदार,
कहीं इस सबके लिये सिर्फ़ नारी जिम्मेदार,
कहीं इस सबके लिये सिर्फ़ भारतीय संस्कृति जिम्मेदार,
कहीं इस सबके लिये सिर्फ़ पाश्चात्य संस्कृति जिम्मेदार,
कहीं इस सबके लिये सिर्फ़ समाज की मानसिकता जिम्मेदार,
कहीं इस सबके लिये सिर्फ़ खाप-पंचायतें जिम्मेदार,  वगैरह वगैरह।
 
चलिये, जिम्मेदारी पर तो सबके सुझाव जान लिये, अब  सवाल ये है कि  आज की परिस्थितियों में हम लोगों के पास, समाज के पास आगे करने के लिये क्या-क्या विकल्प उपलब्ध हैं। मुझे  फ़िलहाल जो विकल्प या समाज के आने वाले पड़ाव दिख  रहे हैं,  वो कुछ ऐसे हैं -

1. अपराधमुक्त समाज एक कल्पना है लेकिन समुचित न्याय की व्यवस्था अपराध की मात्रा को कम जरूर  कर सकती है। देश, धर्म और समाज के पुरोधा इच्छाशक्ति का सदुपयोग करके व्यवस्था में  ऐसा परिवर्तन सुनिश्चित करेंगे।                          

 2. अन्य देशों के मुकाबले युवा वर्ग का जनसंख्या में प्रतिशत भारत में ज्यादा है। वर्जनाओं और संयम\नियमों से उकताकर और कुछ घटनाओं से उद्वेलित होकर यह युवा वर्ग सरकारी तंत्र और प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को धता बताकर एक फ़्री  सोसाईटी देश को दे देगा। फ़्री सोसाईटी मतलब free in all respects.

3.  हम ऐसे ही  लाशों पर राजनीति करते रहेंगे।

मैंने अपनी बात आपसे साझी कर ली,  आप भी  चाहें तो अपने अपने हथियार का सम्मान रखते हुये सुझाव दे सकते हैं  कि व्यावहारिक रूप से आपको क्या विकल्प दिख रहे हैं, आने वाले समय में क्या होगा। 

Till then,  'Hope for the best and prepare for the worst.'

 

31 टिप्‍पणियां:

  1. Aapka lekhan baad me padhungee...pahle naye saal kee badhayee sweekar karen!

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  2. जिन्हें राजनीति करनी है, वह अपने नियम जानता है और सुविधानुसार बदल भी लेता है।

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    1. ये सब कर सकने वाला ही राजनीति के योग्य है।

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  3. Hope,यानि आशा , पर वो है किससे , मुझे इस देश के सिस्टम से कोई आशा नही है , ऐसा नही है कि मै आशावादी नही पर यहां वोटो के लिये भीडतन्त्र को खुश करने में जो आपाधापी मची है उसने तो बलात्कार से भी ज्यादा शर्मसार कर दिया है ।
    आपने सही कहा किस किस की नही सुनी पर उन सब बातो में राजनीति थी

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    1. इसीलिये hope रखने के साथ prepared रहना भी जरूरी है।

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  4. @ व्यवस्था में ऐसा परिवर्तन सुनिश्चित करेंगे।
    आमूलचूल व्यवस्था परिवर्तन के लिए शुरुआत होनी चाहिए , माहौल बनाना पडेगा !
    फिलहाल शुभकामनायें कि अब अशुभ न दिखे ..

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    1. शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद सतीश भाईजी, विश्वास है कि कभी तो असर लायेंगी ही।

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  5. .
    .
    .
    @ कलम, की-बोर्ड या अभिव्यक्ति के दूसरे साधन भी एक हथियार है और उनका सम्मान करना धारक का दायित्व। आप भी चाहें तो अपने अपने हथियार का सम्मान रखते हुये सुझाव दे सकते हैं कि व्यावहारिक रूप से आपको क्या विकल्प दिख रहे हैं, आने वाले समय में क्या होगा।

    संजय जी,

    कलम, की-बोर्ड या अभिव्यक्ति के दूसरे साधनों/हथियारों का सम्मान नहीं रखा जा रहा है, एक बीमार मानसिकता वाले वहशी दरिंदों के झुंड के द्वारा किये अपराध के विरोध में एक वर्ग समूचे तंत्र व व्यवस्था को ही धता-बता रहा है, वह भी बिना कोई विकल्प दिये... हमेशा की तरह ही अपने पुराने हिसाब चुकता करने को बेताब भी हैं कुछ...

    कोई आमूलचूल बदलाव आयेगा, ऐसा तो नहीं लगता... ऐसे बदलाव के लिये जमीन अभी तक तैयार नहीं है... दुख हो रहा है यह कहने में, पर अपने आज की यही हकीकत है... :(


    ...

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    1. प्रवीण भाई, चलिये न हम भी मानसिकता बदल लेते हैं फ़िर सब ठीक हो जायेगा:)

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  6. हर हाल में समाज में माँ , बहन , बेटी सुरक्षित रहें और यह न केवल बाहर हो घर में भी यही स्थिति बने . नियम कड़े बनें और उनका पालन सख्ती से हो , पालन में गड़बड़ करने वाले पर सख्त कार्यवाही वह भी त्वरित और न्याय सगत हो विधि में तुरंत सुधार हो . रही बात सामाजिक या मानसिक बदलाव की तो उसमें समय लगेगा . आपसे एक अनुरोध या सलाह दिल्ली प्रकरण पर एक सही पहलू मेरे दिमाग में आया आपसे मेल द्वारा साझा करूँगा .पोस्ट लिखना मुरखता होगी। मैं भी कई बार दिल्ली रह चूका हूँ जिस आधार पर आँखों देखि बातें हैं।

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    1. आपकी भेजी मेल का इंतज़ार रहेगा सिंह साहब।

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  7. अपराध मुक्‍त समाज ना कभी था और ना कभी होगा। लेकिन वर्तमान में बढते प्रतिशत से देश के नागरिकों की साख ही दांव पर लगी है। कठिनाई यह है कि लोग नागरिकों को दूषित बताने के स्‍थान पर देश को ही दूषित बताने लगते हैं।

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    1. नागारिक को दोष देंगे तो वो या उसका कोई शुभचिंतक पलटकर चार दोष हमारे बता सकता है, इसलिये देश को या संस्कृति को दोष देना आसान है।

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  8. आप के पोस्ट लीखने तक एक और कारण इस रेप का आशाराम बाबु ने दे दिया , की यदि लड़की उनमे से किसी के पांव में गिर कर गिडगिडा कर उन्हें भाई बना लेती तो बच जाती , गलती एक तरफ से नहीं होती । आप को लगता है की ऐसे सोच वाले समाज और संत के रहते आप के और हमारे किसी भी बातो को समझा जायेगा या किसी की सोच भी बदलेगी , जब एक तरफ ये केस को ले कर इतना हल्ला मचा था , तो दूसरी तरफ नोयडा की पुलिस किसी घरवालो को रात में ताने दे कर टरका रही थी की जाऊ अपनी जवान लड़की को खुद देखो कही भगा गई होगी , जिसकी अगली सुबह रेप के बाद हत्या की लाश मिली , कोई सुनने वाला समझने वाला और खुद को बदलने वाला नहीं है , समय कहने नहीं कुछ करने का सक्रिय होने का है ।

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    1. लगभग हर विवादास्पद बयान की तरह इस विवाद पर भी कई अपडेट्स आ चुके हैं, आपको मालूम ही होगा।
      अपनी क्षमता भर की (अ)सक्रियता तो चलती ही रहती है।

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    1. हर बात से या हरेक से इत्तेफ़ाक हो भी नहीं सकता, होना भी नहीं चाहिये। वैसे मैंने तीनों प्वाईंट्स के ऊपर लिखा यही है कि ’विकल्प या समाज के आने वाले पड़ाव’
      ये आपने सही कहा कि सिर्फ़ युवक नहीं बल्कि अधेड़ उम्र वाले ज्यादा ऐसी बातों में लिप्त नज़र आते हैं। युवक हों या अधेड़, लिप्तता के दोषी तो सिर्फ़ पुरुष ही हैं न?
      चोरी करने या घूस लेने को अनुचित मानभर लेने से हमें इनसे बचने के प्रयास नहीं करने होंगे, इस देश समाज में इतनी औदार्यता अभी नहीं आई है। अभी किसी ब्ल~ऒग पर देखा था कि ब्लॉगर ने सवारी को अपने सामान का ध्यान रखने की बात कही थी, फ़ौरन उसपर कमेंट आ गया कि आप नारी को सामान कह रहे हैं। जय हो।
      तेजी से सभ्य होते समाज का संयम और अनुशासन मैं रोज मेट्रो में, पार्क में और हर जगह देखता हूँ और जो देखा है उसी आधार पर ’फ़्री सोसायटी’ वाले विकल्प\पड़ाव की बात की थी और अपनी बात\अपनी आशंका पर मैं कायम हूँ।

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  10. कुछ कहने की स्थिति नहीं है ...

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    1. अपना अपना नजरिया है सरजी, कुछ के लिये कुछ भी कहने की स्थिति है ये।

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  11. बाऊ जी नमस्ते!
    तबियत ठीक है?

    --
    थर्टीन रेज़ोल्युशंस

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    1. नमस्ते जी,
      तबियत बल्ले-बल्ले है, चढ़दी कलाओं में है जी:)

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  12. दादा हम लोग स्वतंत्रता और स्वछंदता के महीन अंतर को भूलते जा रहे हैं....लोग मांग कर रहे हैं कि उन्हें कैसे भी जीने का अधिकार चाहिए..जो संभव नहीं है..दूसरी मुसीबत ये है कि तंत्र को चलाने वाले आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं...सरकार चलाने वाले सराकर बचाने और विदेशी मुद्रा के लिए कुछ भी करने में मशगूल हैं..सो ये हाल राजधानी का है...जब राजधानी बेहाल है तो देश की बात करना बेकार है....कानून को सख्त करने से ज्यादा जरुरत है कानून को सही समय पर सही तरीके से अमल में लाना.....औऱ इसको करने के लिए किसी वोट बैंक की चिंता करने की जरुरत नहीं है..जो ऐसा सोचते हैं वो भी आधा सच कहते हैं...दरअसल मुश्किल यै है कि हाकिम कुछ करना नहीं चाहते...औऱ कोतवाल को अपनी कुर्सी बचाने से फुर्सत नहीं....न ही कोतवाल के पास सौ फीसदी साधन हैं.....

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    1. इच्छाशक्ति की जरूरत तो हम सबको है रोहित, जनता को भी और हाकिम को भी और व्यवस्था के पुर्जों को भी। जो भी है, है तो बहुत कन्फ़्यूज़िंग ये सब।

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  13. यह पीपली लाईव का देश है -ऐसा चलता ही रहेगा मगर एक बेहतर भविष्य के लिए हमें प्रयास भी करते रहना होगा !

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    1. सही बात है आपकी, प्रयास यही है कि ऐसा कम से कम हो।

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  14. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    1. हम वही समझते हैं जो समझना चाहते हैं, वही और उतना ही देखते सुनते हैं जो देखना सुनना चाहते हैं। इस दुर्घटना की प्रतिक्रिया में मैंने हर कहीं यही देखा कि हर पुरुष बलात्कारी है चाहे वो पिता हो, पति हो या कोई अनजान हो। मेरे कमेंट में आपने ये देखा कि पुरुषों का कोई दोष नहीं है।
      बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की मैंने या किसी भी पुरुष ने वकालत की हो, कम से कम मैने नहीं देखा। बाकी अपनी राय रखने के लिये हर कोई स्वतंत्र है, हम भी यही मानते हैं कि किसी पर भी अपनी सोच थोपना अच्छी बात नहीं है।

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  15. jo hammai achha nai lagta .......... basss wahi aacharan hum band
    kar den to sayad hi kuch aur karne(nivaran) ke liye bachega......


    pranam.

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  16. समाज नागरिकों से ही तो बनता है, सब अपने आप को सुधारने का ही ज़िम्मा ले ले तो समाज अपने आप सुधर जायेगा ! बाहर परिवर्तन से पहले खुद के अंदर परिवर्तन करना जरुरी है

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  17. जो बन सके वह करना ही पड़ेगा... खासकर एक काम सब को करना चाहिए, पैसे के पीछे दौड़ते समय कुछ वक़्त परिवार के लिए भी निकालें... वरना बेटे निकम्मे निकल जायेंगे.. उन्हें टीवी, कंप्यूटर और इन्टरनेट के भरोसे नहीं छोडें....

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