उस दिन कोई सार्वजनिक अवकाश था लेकिन बैंक की शाखायें खुली रखने का सर्कुलर भी आ चुका था, शायद टैक्स भुगतान की आखिरी तारीख जैसा मामला था। सुरक्षा जैसे मुद्दों पर सरकार चाहे कैसा भी समझौता कर ले लेकिन जब पुरखे ’सर्वेगुणा: कांचनमाश्रयंति’ जैसी भविष्यवाणी कर गये हों तो चाहे उनका मान रखने की बात रही हो या फ़िर डूबती अर्थव्यवस्था को कांधा लगाने के लिये यह मजबूरी हो जाती हो, सरकार ऐसे अवसर पर गन्ने का रस निकालने वालों की तरह व्यवहार करती दिखती है। अर्जुन को मछली की आँख दिखती थी, इन अर्जुनों को रस की आखिरी बूँद दिखती है। जिस तरह वो गन्ने को पहले सीधा मशीन में डालता है, उस पार से निकलते कुचले गये गन्ने को दोहरा करके फ़िर मशीन में पेरता है और गन्ने की तह हर बार मुड़ती- बढ़ती जाती है। हम जैसे कुछ भुक्तभोगी सार्वजनिक अवकाश की ऐसी-तैसी होते देखकर करदाताओं के साथ खुद को भी उस मूक गन्ने की तरह ही मानकर रसवान से रसहीन की गति को प्राप्त होते महसूस करते हैं।
और दिनों में तो अक्सर मौका मिलता नहीं, उस दिन संस्था की आंतरिक mail system में इनबाक्स को तसल्ली से देखने का मौका मिल गया। महीनों पुराना एक मैसेज दिखा जिसमें विषय था - ’अपील - स्टाफ़ श्री ............ के बारे में।’ नाम देखते ही ध्यान आया कि हम एक ही बैच के थे। वैसे तो हम बहत्तर प्रतिभागी थे और एक सप्ताह साथ रहने के बाद सब इधर उधर बिखर गये थे और दोबारा मिलना भी नहीं हुआ लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं जो किसी न किसी वजह से दो दशक के बाद याद रह गये थे, यह भी एक ऐसा ही नाम था। अपील पढ़ी तो काफ़ी कुछ पता चला। कैरियर पथ पर भी कमोबेश आसपास ही चल रहा वो साथी उस संदेश के अनुसार एक गंभीर बीमारी से जूझ रहा था और उसकी आर्थिक सहायता के लिये ही ये अपील की गई थी। सब कुछ केन्द्रीयकृत होने के चलते उस संदेश में दिये गये खाते को चैक किया तो मालूम चला कि वो खाता तीन चार महीने पहले ही बंद हो चुका था। स्पष्ट हो गया कि वो साथी अब जा चुके। इस घटना की चर्चा साथियों से की तो लगभग हमेशा की तरह मिश्रित प्रतिक्रियायें मिली। परिचितों में कुछ ऐसे होते हैं जो आपके हर फ़ैसले में और हर राय में आपके साथ होंगे, कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें हमेशा विरोधी राय रखनी होती है और कुछ ’जैसी बहे बयार...’ टाईप के होते हैं। बहरहाल जिन मित्र के बारे में अपील थी, वो जा चुके थे तो बात भी आई गई हो गई वैसे भी किसी के आने या जाने से सबकी दुनिया पर फ़र्क नहीं पड़ता।
बीच में कभी-कभार अकेला होता तो मैं कई पहलुओं पर आकलन करता रहता कि उस दोस्त ने अपनी बीस साल के आसपास की नौकरी में कितनों से परिचय किया होगा, उनमें से कितनों को यह जानकारी मिली होगी, उनमें से कितनों ने इस बारे में कुछ सोचा होगा, उनमें से भी कितने अपनी खुद की परेशानियों के बीच अपने सोचे हुये पर अमल कर पाये होंगे वगैरह-वगैरह। मेरा समवयस्क ही था तो उसके परिवार की स्थिति के बारे में अंदाजा लगाने में बहुत नहीं सोचना पड़ा। कुछ समय के लिये मन में एक कसक सी जरूर रह गई। यह कसक इसलिये और भी ज्यादा थी कि बहुत पहले से, जबसे ग्रुप इंश्योरेंस कंसेप्ट के बारे में पहली बार जाना था, एक अनगढ़ सा विचार अपने दिमाग में आता रहा था। कुछ मित्र ऐसा एक फ़ंड खुद शुरू करें जिसमें एक छोटी सी राशि नियमित रूप से डालते रहें और किसी दुर्घटना या आपद्स्थिति में यह फ़ंड एक कुशन का काम करे लेकिन शायद विचार का बीज कमजोर था या फ़िर ऐसे ही उद्देश्यों को लेकर शुरू हुये कुछ प्रोजेक्ट्स की विफ़लता की जानकारी(अधिकतर मामलों में कर्ताधर्ताओं की नीयत पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे) इसकी वजह थी कि बीज एक वृक्ष का रूप नहीं ले पाया। निष्कर्ष वही कि बात आई-गई हो गई।
अब बात ज्यादा पुरानी नहीं, पिछले महीने की। शायद दस तारीख के आसपास की बात है, मेरे एक युवा साथी ने मुझसे पूछा, "सर, ये डेथ रिलीफ़ फ़ंड क्या होता है?" इस महीने की पे-स्लिप में बीस रुपये की नई कटौती इस नाम से दिख रही है।" मेरे जवाब देने से पहले ही स्टाफ़ सदस्यों में अपनी पे-स्लिप देखने की होड़ मच गई। अपन ’पता-नहीं’ कहने से बच गये :) वेतन की तारीख आते-आते ’डेथ रिलीफ़ फ़ंड’ जी कभी दिखते, कभी गायब होते रहे। फ़ाईनल पे-स्लिप में सभी स्टाफ़ सदस्यों के वेतन से एक सौ दस रुपये ’डेथ रिलीफ़ फ़ंड’ में कटे पाये गये। इस बार "सर, ये डेथ रिलीफ़ फ़ंड क्या होता है?" एक व्यक्तिगत प्रश्न न होकर सामूहिक प्रश्न बनकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ। "पहले बीस रुपये दिखा रहा था, महीना खत्म होते-होते एक सौ दस रुपये हो गये" यह एक के साथ दूसरा फ़्री वाला प्रश्न था।
अब अंधा अंधे को क्या रास्ता दिखायेगा? ऐसे में संबल दिया पिछली डेली-पैसंजरी के एक साथी के तकिया कलाम ने। हम ताश खेलते थे, वो दर्शक दीर्घा में होता था। वो कहानी फ़िर कभी, लेकिन जब खिलाड़ी-दर्शकों में से लगभग हर आदमी अपना सपोर्टर होता था और इशारेबाजी करता रहता था तो विरोधी को चिढ़ाने के लिये वो हमेशा कहा करता था कि संजय भाई साहब के बंदे हर विभाग में हैं। अचानक ही वो बात याद आई और मैंने खुद को अकेला नहीं पाया। ध्यान आये वो सब पुराने दोस्त जो बेशक अब दूर दूर हैं लेकिन संपर्क में हैं, याद आये वो नये-नये प्रोबेशनरी ओफ़िसर्स जिनसे कभी किसी ट्रेनिंग या सेमिनार में हल्का-फ़ुल्का परिचय होता और फ़िर किसी ऐसी ही जगह अचानक वो आकर टोक देते हैं, "सर, पहचाना?" मैं जब तक दिमाग दौड़ाऊँ तब तक वो कोई ऐसी बात याद दिला देते कि सर वहाँ भोपाल मे आपने वो अनुभव हम सबके साथ शेयर किया था। दिमाग में बिजली की तरह नाम कौंध जाता था, "भास्कर?" गले लगा लेता हूँ। या फ़िर कभी लोकेश फ़ोन पर बताता है कि मेरी पोस्ट पढ़ते रहते हैं तो खुशी तो होती है कि दूरी बेशक हो लेकिन कुछ लोग भूलते नहीं हैं।
अब इसी बात का एक विस्तार ये है कि उम्र और नौकरी के उस पड़ाव पर हूँ कि नई पीढ़ी और पिछली पीढ़ी नदी के दो तीर की तरह हैं और हम जैसे लोग या तो नदी का पानी हैं या फ़िर पुल। सीनियर लोगों के पास इतराने के लिये उनका अनुभव है और नये लोगों के पास तकनीक। सीनियर पीढ़ी किसी तकनीकी झमेले में उलझते हैं तो अपन अपनी अक्षमता बखूबी जाहिर करके किसी नये वाले का फ़ोन नंबर टिका देते हैं और बता देते हैं कि हमारा रेफ़रेंस दे दीजियेगा और ऐसा ही काम जरूरत पड़ने पर नई पीढ़ी वालों के साथ करते हैं। दोनों का काम हो जाता है, अपनी वाहवाही हो जाती है। इसे मार्केटिंग वाले ’माल मालिकों का, मशहूरी कंपनी की’ भी कहते हैं। रेफ़रेंस वाली जरूरत भी इसलिये पड़ती है कि मैंने पाया है प्राय: दोनों पीढ़ियों में एक दूसरे के साथ कम्पैटिबिलिटी डेवलपमेंट जितना होना चाहिये, उतना नहीं है। एक कॉमनमैन होने से(बेशक वो कॉनमैन ही क्यों न हो:)) दोनों आपस में एक दूसरे पर सहजता से विश्वास कर लेते हैं कि कुछ गड़बड़ हुई तो कान पकड़ने के लिये संजय महाराज तो हैं ही। खैर, इस कहानी का इतना सा मंतव्य है कि ’डेथ रिलीफ़ फ़ंड’ वाले सवाल का जवाब देने के लिये फ़िर नदी के दोनों किनारों को कुछ फ़ोन करने पड़े। सूत्र आधिकारिक नहीं थे लेकिन जो और जितना मालूम चला, उसे ही सच मानते हुये आपके साथ भी साझा कर लेता हूँ।
मान लीजिये मेरी संस्था में लगभग 40000(चालीस हजार) कर्मचारी हैं। यह तय किया जाता है कि पिछले महीने में जितने कर्मचारियों की मृत्यु होती है, हर कर्मचारी के वेतन से दस रुपये प्रति मृत कर्मचारी की दर से कटौती की जायेगी। इस प्रकार प्रत्येक मृत कर्मचारी के परिवार के लिये लगभग चार लाख रुपये (40000 X 10 = 400000) की सहायता राशि एकत्रित हो जायेगी। यह राशि आकस्मिक मृत्यु के दौरान संस्था द्वारा दी जाने वाली अन्य सहायताओं के अतिरिक्त होगी। जाने वाले की कमी पैसे से पूरी नहीं हो सकती लेकिन जीवन की मझधार में रह गये उसके परिवार के लिये यह राशि एक अतिरिक्त सहारा तो बन ही सकती है। दूसरी तरफ़ अंशदान देने वाले कर्मचारी का अंशदान इतना ज्यादा भी नहीं कि उसका खुद का बजट प्रभावित हो और ऐसा इसलिये हुआ कि इस जिम्मेदारी को कुछ चुनिंदा लोगों तक सीमित न रखकर सामूहिक रूप से सबने बाँटा(वैसे तो बँटवाया गया कहना ज्यादा उचित है क्योंकि विकल्प मांगे जाते तो इसमें भी मीनमेख निकालने वालों की कमी नहीं होती)। मुझे इस योजना में फ़िलहाल कोई खोट नहीं दिखा, ब्रांच के मित्रों को जब इसके बारे में विस्तार से बताया तो वो सब भी संतुष्ट दिखे लेकिन इस सूचना के अनुसार एक महीने में ग्यारह लोग वाली बात से कुछ आशंकित भी।
जीवन है तो ये सब तो चलता ही रहेगा लेकिन ऐसी कुछ घटनायें विश्वास बढ़ाती हैं कि अभी सब कुछ चुका नहीं है। मुझे तो पहले भी यही लगता रहा है कि सामूहिक कार्यों के लिये यदि हम सब थोड़ा-थोड़ा योगदान करें तो कुछ लोगों पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ेगा। और यह योगदान स्वेच्छा से हो तो उसका कोई मुकाबला नहीं।
आज मैं सोचता हूँ कि मन में अच्छे और सकारात्मक विचार आयें तो उन्हें किसी शंका या भय से अपने तक सीमित न रखकर सांझा किया जाना चाहिये। an idea can change a lot. आपका एक अच्छा विचार किसीके जीवन से अंधेरा दूर करके प्रकाश फ़ैलाने में सहायक हो सकता है।
अंधेरे और प्रकाश से याद आया कि दीपपर्व आने को है, आप सबको दीप पर्व की अग्रिम शुभकामनायें।
और हाँ, उससे पहले करवाचौथ की शुभकामनायें। अभी जीना है भाई!!(करवाचौथ वाली शुभकामनाओं का ऑफ़र स्वैच्छिक योगदान वालियों/वालों के लिये ही सीमित है:)
संजय बाउजी! बहुत दिनों बाद आया और आटे ही विभागीय पोस्ट देखकर एक अलग सा अपनापन दिखाई दिया.. निदा साहब का एक शे'र है:
जवाब देंहटाएंउम्र होने को है पचास के पार,
कौन है किस जगह पता रखना! (अपनी तो पचास के तीन साल ऊपर निकल गयी)
मै तो नेट पर अपने उन तमाम दोस्तों का पता लगाता रहता हूँ जिनसे जुड़ाव रहा और जो अब रिटायर हो गए.. पेंशनर्स की लिस्ट से उनका अकाउंट नंबर और (थैंक्स टू सी.बी.एस.) उससे उनका फोन नंबर लेकर फोन करना.. पुराने बिछड़े लोगों से संपर्क किया जिनमें से एक केरल में, एक बेलगाम में, कोलकाता में और कई अलग अलग जगह पर हैं..
जिस समस्या की ओर आपने इशारा किया वो सचमुच वाजिब है.. हम दोनों तो इस तरह की कई समस्याओं और उसके समाधान के बारे में सोचते विचारते रहते हैं.. लेकिन अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा..
और हाँ मैंने पढकर ही यह कमेन्ट किया है (आपकी तरह बिना पढ़े लाइक नहीं किया :)
फिर लापता होना है, पारिवारिक परेशानी है... दीपावली की अग्रिम शुभकामनाएँ!!
सलिल भैया,
हटाएंआपसे अपना वास्ता ही इस आपकी इस खोज-खबर लेने वाली आदत के चलते बढ़ा था, ऐसा मुझे ध्यान है।
’ऑफ़कोर्स आप दोनों एक सेंस में अकेला चना ही हैं लेकिन फ़िर भी अकेले नहीं हैं, बस बहुत से विचार सतह पर नहीं आ पाते लेकिन हर बीज तुरंत ही धरती नहीं फ़ोड़ देता? विचारते रहिये और शेयर करते रहे, यही आग्रह है।
मैं भी आजकल नेट पर बहुत कम सक्रिय रह पाता हूँ। जमाने के बाद फ़ेसबुक पर आपके ब्लॉग-सन्नाटा टूटने की झलक दिखी तो लाईक तो करना ही था और बताना भी जरूरी था कि बिना पढ़े लाईक किया है, तदापि ’क्षमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात’ याद रखिये :)
आपकी यात्रा शुभ हो, यही कामना करता हूँ।
विचारणीय प्रश्न है। हमारे यहाँ एक मिलती-जुलती योजना थी - RAM (रूपी अ मंथ) जोकि महंगाई बढ़ाने पर TRAM (दो रुपये मास) हो गई थी। सलिल जी बता पाएंगे कि अब ऐसा कुछ बचा है कि नहीं। "ग्रोइंग टू सर्व" का मेरा प्रिय आदर्शवाक्य तो नए नीले त्रिकोण बनाने वाले पेंटर/ठेकेदार ने मिटा दिया ...
हटाएंज्योतिपर्व की बधाई आपको भी!
यही एकता कार्पोरेट कर्मचारी और सरकारी कर्मचारी को अलग करती है, कार्पोरेट में आपका अपना दोस्त भी आपकी पीठ में छुरा घोंप सकता है, और किसी भी सहयोग के लिये कह सकता है कि मैं उसके लिये तो मेहनत नहीं करता हूँ, मानवीय मूल्य यहाँ शून्य हैं, हर चीज / बात के लिये कारण चाहिये और एस्क्यूजेस की कोई कमी नहीं है ।
जवाब देंहटाएंपीठ और छुरी का साथ इधर भी ऐसा ही है विवेक जी, असर कम या ज्यादा हो सकता है। फ़िर भी आपकी बात में दम है।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंWhen a man converts, it's the religion that changes, the man does not change. {most of the time}
हटाएंPower does not corrupt, it only exposes the man.
पता नहीं क्या कहूँ इस पोस्ट पर। मन उदास भी हो गया और एक सुकून भी हुआ इस फंड पर। सच ही- ऐसे आइडिया आएं तो उन्हें बांटना चाहिए। क्या जाने किसके जीवन में कितना फर्क पद जाए।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन संग्रहणीय
जवाब देंहटाएंसामूहिकता से कई कार्य सम्भव है लेकिन आज हम अकेले ही चलने के आदी बनते जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंपढ़ते हुए लगा कि दुर्घटनाएं और उनसे जुडी संवेदनाएं बेहतरीन व्यवस्था के अवसर प्रदान करती है। उत्तम विचार है !
जवाब देंहटाएं"ईशावास्यमिदंसर्वम्" यहॉ हमारा कुछ भी नहीं है । सबै भूमि गोपाल की । " तेनत्यक्तेन् भुँञ्जीथा: " त्याग के साथ हमें उपभोग करना है और यही हमारा है । भाव-पूर्ण आलेख ।
जवाब देंहटाएंसामूहिक कार्यों के लिये यदि हम सब थोड़ा-थोड़ा योगदान करें तो कुछ लोगों पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ेगा। और यह योगदान स्वेच्छा से हो तो उसका कोई मुकाबला नहीं।
जवाब देंहटाएंसंजय बाऊजी आप की बात एक दम सोलह आने सत्य है लकिन हमारे देश मैं कुछ भी शुरु करो सेक्युलर टाइप कीड़े उसमे मीन मेख जरुर निकाले गे आप की बात मैं दम है हम सब आप के साथ है ....
जय बाबा बनारस....
व्यक्ति के लिए राज्य इसी काम के लिए तो अस्तित्व में आया था। अब राज्य और संप्रभुता जैसे शब्द घोटालों के साथ जुड़कर रह गए हैं और सामूहिक सोच एक निजी समूह तक सिमटने लगी है।
जवाब देंहटाएंबहुत खतरनाक है यह दौर... अविश्वास और असुरक्षा से भरा :(
sachhi me.....
हटाएंpadhniya...........man-niya.......anukarniya post..........
pranam.
बहुत ही उत्तम है आपका ये सुझाव और विचार। सारे कार्यालयों में इसे लागू हो जाना चाहिये।चाहे वे सरकारी हों यै निजी। आपको प्रकाश पर्व की अनेक शुभ कामनायें।
जवाब देंहटाएंIn my mind rests a belief that some day wise-thinking men will devise a plan to insure against death whereby many men pay in but a trifling sum regularly, the aggregate making a handsome sum for the family of each member who passeth to the beyond. This do I see as something desirable and which I could highly recommend.
जवाब देंहटाएं-George S. Clason (The Richest Man in Babylon, a must-read for every bread-winner)
अपने जीवन के बारे में सोचना है और उनके भी जीवन की सुध लेनी है जिनके निकट वाले चले गये।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी आईडिया आपने साझा की -आभार!
जवाब देंहटाएंबात सही है बिलकुल, मेरी वर्तमान संस्था और पिछली संस्था में भी ये था और इसका सीधा फायदा होते हुए भी एक साल पहले देखा है मैंने। अच्छी बात ये हैं कि जितना आपके वेतन से कटता है, संस्था उसके ठीक बराबर का योगदान अपनी तरफ से देती है। अच्छा होते रहना अच्छा है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल दुरुस्त फऱमाया....हमारी कंपनी में पहले सबको ऐसे हालात में कोई कर्मचारी या चपरासी सबकी टेबल पर जाकर अंशदान की रकम एक रजिस्टर में लिखने को कहता था....बाद के दिमों में कंपनी ने एक अनिवार्य बीमा चालू कर दी....इससे अपने ही फंड से परिवार को सहायता के लिए बहुत रकम मिल जाती है..
जवाब देंहटाएंजरा-जरा सी मदद कई बार बहुत बड़ी सहायता बन जाती है। बड़े संस्थानों में इसी तरह बीस-पचास रुपए किसी एक कर्मचारी के वेतन में से कटकर उसी संस्थान के एक जरूरतमंद साथी को बड़ी राहत पहुंचाते हैं। आपकी बात से बिलकुल सहमत, अगर कोई सकारात्मक विचार किसी के दिमाग में आए तो बिना किसी संकोच के उसे सबको बता देना चाहिए। और हाँ आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं....
जवाब देंहटाएंबूंद बूंद करके घडा भर जाता है
जवाब देंहटाएंसही आइडिया
अच्छा विचार है लेकिन क्या ये फंड करने की बजाय ग्रुप इंश्योरेंस स्कीम लेना ज्यादा फायदेमंद नही रहेगा ? क्योकि बीमा कम्पनिया ग्रुप इंश्यारेंस में कम पैसे में ज्यादा सुविधाये देती हैं । हमारे भी 81 रूपये कटते हैं एक लाख के रिस्क कवर के लिये ।
जवाब देंहटाएंदेखा जाये तो मार्केट में केवल रिस्क कवर इतने में ही उपलब्ध है । मै अपनी और श्रीमति जी की पालिसी भरता हूं केवल 2500 रूपये साल दस लाख के रिस्क कवर के लिये । यानि 200 रूपये महीना मात्र । देानो के मिलाकर 400 रूपये । अब ये मत कहियेगा कि ये इतनी बडी रकम है कि इसे हर कोई अफोर्ड नही कर पायेगा । ये बीमा टर्म बीमा होता है और हर कम्पनी करती है पर लोगो को ज्ञान नही है । कुछ जिम्मेदारी तो खुद भी उठानी चाहिये गृहस्थ व्यक्ति को सब कुछ समाज के या कम्पनी या नियोक्ता के भरोसे ही नही छोडना चाहिये