समाप्तकर्मा सहित: सुहृ द्भिर्जित्वा सप्तनान् प्रतिलभ्य राज्यम्।
शैलेन्द्र भूयस्तपसे जितात्मा द्रष्टा त्वास्मीति मतिं चकार।।२०।।
(आजगरपर्व, वनपर्व, श्री महाभारते)
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वनवास का ग्यारहवां वर्ष आ चुका था। महाबली भीम, जिसे तथाकथित कलाकर्मियों ने मात्र भोजनप्रेमी और शरीर से बली ही चित्रित किया है, अपने अग्रज युधिष्ठिर को भविष्य के एक वर्षीय अज्ञातवास को ध्यान में रखते हुए अपने तत्कालीन निवास गन्धमादन पर्वतक्षेत्र से स्थान परिवर्तन के लिए प्रवृत्त करते हैं। बुद्धिमान भीम का अभिप्राय जानकर युधिष्ठिर गन्धमादन पर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं। वहाँ के भवनों, नदियों, सरोवरों तथा समस्त राक्षसों से विदा लेते हैं। गन्धमादन पर्वत की ओर देखते हुए उस श्रेष्ठ गिरिराज से प्रार्थना करते हैं, "शैलेन्द्र! अब अपने मन और बुद्धि को संयम में रखनेवाला मैं शत्रुओं को जीतकर अपना खोया हुआ राज्य पाने के बाद सुह्रदों के साथ अपना सब कार्य सम्पन्न करके पुनः तपस्या के लिए लौटने पर आपका दर्शन करूँगा।"
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सब प्रकार से समर्थ किन्तु परिस्थितिवश अपने अधिकारजन्य राज्य से निर्वासित एक पक्ष के चराचर जगत के साथ सामंजस्य, सहअस्तित्व, पर्यावरणप्रेम आदि भाव देखिए। यह भाव, संस्कार बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह छिन गए गौरव, वैभव की पुनर्प्राप्ति में सहायक होंगे।
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