प्रायः माना जाता है कि सफलता आत्मसंतोष लाती है और असफलता कुण्ठा। मैं इस मान्यता पर प्रश्न नहीं उठाता, मेरा कोई मनोरथ पूरा होने पर मुझे भी प्रसन्नता और आत्मसंतुष्टि मिली लेकिन असफल होने पर(जिसके अवसर भी पर्याप्त मिले) मैंने पाया कि दुःख यदि हुआ भी तो बहुत अल्पकालिक। हिसाब लगाने बैठा जाए तो सफलताओं की दर भी असफलताओं से बहुत कम बैठेगी और जीवन पर उनका प्रभाव भी। समय मिलने पर मैंने इस बात पर मनन किया कि एक ही स्थिति में विभिन्न लोग भिन्न व्यवहार क्यों करते हैं? कुछ हैं जो आपे से बाहर हो आते हैं और कुछ को देखकर लगता ही नहीं कि कुछ विशेष हुआ भी है। मेरी प्रयोगशाला में 'सब्जेक्ट' मैं ही होता हूँ तो मेरे निष्कर्ष भी मुझपर ही आधारित हैं। मैं दो मुख्य कारण समझ पाया और दोनों कारण भी मेरी भांति विरोधाभासी भी हैं, एक कारण तो यह कि मैं लोक व्यवहार, हानि-लाभ, हित-अहित आदि के बारे में अन्यों की भांति स्पष्ट नहीं सोच पाता और दूसरा यह कि बचपन में विद्यालय प्रार्थना के बाद बोले जाने वाले श्रीमद्भागवत गीता के कर्म और फल वाला एकाध श्लोक अवचेतन में कहीं धंसे रह गया। किसी कार्य की सिद्धि के लिए प्रयास करना ही मेरे वश में था, यदि वह मैंने सत्यनिष्ठा से किए थे तो अनुकूल परिणाम न मिलने पर भी मुझे दुःखी रहने का कोई अधिकार नहीं। श्रीमद्भागवत गीता के बारे में उचित ही कहा जाता है कि यह भारत की ओर से विश्व को प्रदत्त सबसे बड़ा उपहार है।
विरोधाभास का सन्दर्भ यह है कि इस ईशवाणी को अत्यंत प्रभावी मानते हुए भी मैं अब तक इसका पूर्ण लाभ नहीं उठा पाया, मनोरंजन को कुछ अधिक ही महत्वपूर्ण मानता रहा।
दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है।
जवाब देंहटाएं"दुखी होने का अधिकार" मार्मिक, गूढ़, विष्मयी विचार।
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