भाग एक से आगे....
अब पार्क में पहुंचकर हम सब जॉगिंग शुरू किया करते और वो कहता, “याल, तुसी लदाओ पालक दे चत्तर, मैं वी आंदा हां।”(यार, तुम लगाओ पार्क के चक्कर, मैं भी आता हूँ)। अब हम थे बड़े शरमा जी(बेसरम नहीं थे तब तक) उस समय, अकेले में जो मर्जी मिट्टी पलीद कर दें उसकी लेकिन दूसरों के सामने छवि खराब नहीं करते थे कभी। आंख तरेर कर देखता मैं उसे, और वो मुस्करा कर कहता, “जा याल, तू वी। मैं तै लयां न, मैं त्वाडे पिछे पिछे आंदा पयां।”(जा यार तू भी, मैं कह रहा हूँ न, मैं तुम्हारे पीछे पीछे आ रहा हूँ)। था बदमाश, मेरी शराफ़त का फ़ायदा उठा लेता था। जब हम रनिंग का पहला चक्कर ही पूरा करके आते तब तक तो वो वहीं घास में लेटकर ’आराम शब्द में राम छिपा, जो भव बंधन को खोता है’ में तल्लीन हो चुका होता। उस पार्क में सैक्ड़ों की भीड़ में अकेला वो होता जो खर्राटे लेकर सो रहा होता।
अब पार्क में पहुंचकर हम सब जॉगिंग शुरू किया करते और वो कहता, “याल, तुसी लदाओ पालक दे चत्तर, मैं वी आंदा हां।”(यार, तुम लगाओ पार्क के चक्कर, मैं भी आता हूँ)। अब हम थे बड़े शरमा जी(बेसरम नहीं थे तब तक) उस समय, अकेले में जो मर्जी मिट्टी पलीद कर दें उसकी लेकिन दूसरों के सामने छवि खराब नहीं करते थे कभी। आंख तरेर कर देखता मैं उसे, और वो मुस्करा कर कहता, “जा याल, तू वी। मैं तै लयां न, मैं त्वाडे पिछे पिछे आंदा पयां।”(जा यार तू भी, मैं कह रहा हूँ न, मैं तुम्हारे पीछे पीछे आ रहा हूँ)। था बदमाश, मेरी शराफ़त का फ़ायदा उठा लेता था। जब हम रनिंग का पहला चक्कर ही पूरा करके आते तब तक तो वो वहीं घास में लेटकर ’आराम शब्द में राम छिपा, जो भव बंधन को खोता है’ में तल्लीन हो चुका होता। उस पार्क में सैक्ड़ों की भीड़ में अकेला वो होता जो खर्राटे लेकर सो रहा होता।
कई दिन तक ऐसे ही चलता रहा और एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया कि वो घर से उठकर पार्क तक आ जाता है तो फ़िर वहां आकर क्यों सो जाता है? दिया जी जवाब उसने, और बड़ा जबरदस्त बयान दिया। बड़ा सीरियस होकर कहने लगा, “याल, मैं जदों दौलदा हां ते मेले ढिढ(पंजाबी में पेट को कहते हैं) विच पील हुंदी है बोत ज्यादा। तू उस दिन मैन्नूं जमीन ते डिगाया सी न, उस दिन तों ही दल्द हैगा।”(यार मैं जब दौड़ता हूँ तो मेरे पेट में दर्द होती है, बहुत ज्यादा। तूने उस दिन मुझे जमीन पर गिराया था न, उस दिन से ही दर्द है)। अपराधबोध से भरा मैं और क्या कहता, पूरी छुट्टियों में वो ठाठ करता रहा और हम अपनी करनी पर पर्दे डालते रहे।
टाईम किसके लिये रुकता है जी कभी, गर्मियां गईं और देखते देखते आ गया जन्माष्टमी का पर्व। जहां बाहर अंधेरा घिरा, हम सब उभरती प्रतिभाओं के अंतस में रोशनी छा गई। एक एक दोस्त के घर जाकर उसे बाहर घूमने के लिये इकट्ठा किया। जब किसी के मां-बाप थोड़ा नखरा सा दिखाते अपने लाल को भेजने में, यार लोग मुझे आगे कर देते कि देख लो जी ये भी हमारे साथ जा रहा है। इत्ती रैपूटेशन थी हमारी, शक्ल देखते ही अपने लड़के को हमारे हवाले कर देते थे मां बाप। आज गोविन्दाचार्य की याद आ गई एकदम से, आदमी भला था वो भी बस बोलते समय कन्ट्रोल का बटन नहीं दबाकर रखता था। हमें तो किसी साले ने नहीं कहा कि ये मुखौटा है हमारे ग्रुप का, जब किसी को अपनी शराफ़त का सुबूत देना होता हमें बैकबैंचर से फ़्रंटरनर के रूप में पेश कर देते थे।
तो जन्माष्टमी की रात को होली के हुड़दंगियों की टोली निकल पड़ी, नजारे देखने के लिये। हम तो रहते थे सबसे पीछे, इनकी शरारतें देख देखकर हैरान होते थे। हमारा चाचू भी साथ में था। सामने से एक रिक्शा आ रहा था जिसपर तीन मूर्तियां विराजमान थीं। हमारा एक फ़ारवर्ड प्लेयर था जिसे सब ’बकरी’ कहकर बुलाया करते थे, उसे पता नहीं क्या सूझी भागकर गया और उस रिक्शे पर कूदकर चढ़ गया। अचानक हुई इस हरकत से उधर से चीखपुकार मची, इधर से हा हा हू हू और हमारे पसीने छूटे। इन्हीं हरकतों की वजह से इनके साथ आता जाता नहीं था और ये थे कि इमोशनल कर देते थे कसमें खाकर और खिलाकर। खैर, इधर ये सब हुआ और उसी पल एक एम्बैसेडर कार आ कर वहां रुकी। शीशा खोलकर अंदर बैठे बंदे ने मामले की दरियाफ़्त शुरू की और हमारे गैंगलीडर को ये बात बड़ी नागवार गुजरी। उस्ताद हमसे दो तीन साल बड़ा था कालेज में पढ़ता था और खास मौकों पर ही हमारे साथ घूमने निकलता था। अब जब वो गाड़ी वालों से बहस करने लगा तो हम उसे बाहर से पूरा (अ)नैतिक समर्थन दे ही रहे थे। अचानक से ही गाड़ी के चारों दरवाजे लगभग एक साथ खुले और जब वो बंदे बाहर निकले तो हमें ज्ञान प्राप्ति हुई कि सादी वर्दी में पुलिस पार्टी थी। उस्ताद ने जोर से हांक लगाई, हम तो समझे थे कि कहेगा ’टूट पड़ो’ लेकिन जो सुनाई दिया वो था, ’भागो…….. पुलिस्स्स्स्स्स्स्स्स’। जिसे जिधर राह मिली भाग लिये अरबी घोड़ों की तरह। हम सब आगे आगे, पुलिस वाले पीछे हमारे। थोड़ी दूर पर एक तिराहा आ गया, जो सीधा सोचते थे वो सीधी राह पर निकल लिए, जिनका झुकाव लेफ़्ट फ़्रंट की तरफ़ रहता था वे बायीं सड़क पर मुड़ गये और हम ठहरे दक्षिणपंथी, जबसे पता चला था कि दिल वगैरह बेकार की चीजें बायें हिस्से में होती हैं तबसे ही दक्षिणपंथी हो गये थे, हमारे हिस्से में आई हमारे वहां की मशहूर सरकुलर रोड। तिराहे पर जाकर एक बार ठिठके जरूर थे, मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं की कशमकश में, लेकिन फ़िर सोचा अपनी राह ही चलेंगे यानि कि दायें भागेंगे। इतना देखा कि टीम बिखर गई है, लेकिन कौन किधर है इतना सोचने का समय किसे था? देखते थे तो मुड़कर देखते थे कि कितनी दूर रह गये हैं वो जालिम। अपनी जान का डर नहीं था जी हमें तब भी, सोच यही थी कि कहीं इनकाऊंटर वगैरह कर दिया गया हमारा तो बेचारे मानवाधिकार वालों पर और वजन बढ़ जायेगा। नादान थे न, बाद में बड़े होने पर पता चला कि उनके यहां एलिजिबिलिटी क्राईटेरिया कुछ अलग ही होता है।
खैर, लगभग एक किलोमीटर भाग लिये तो पीछे लाईन क्लियर दिखाई दी। अब जाकर ध्यान आया कि सांस धौंकनी की तरह चल रही है, गला सूख रहा है, हाथ-पांव खिंचे पड़े हैं बिल्कुल। एक दुकान के बाहर एक चबूतरा सा बना हुआ था, तशरीफ़ का टोकरा टिका दिया उसपर। और जब बैठ गया तो देखा कि मेरा चाचू पहले ही वहां बैठा अपनी सांसो को व्यवस्थित कर रहा है।
मैंने कहा, “ओये, तू मेरे तों वी पहले आ गया?”
चाचा, “भैन** पुलिस, हंह हंह..........।
मुझे गुस्सा और हंसी एकदम से आये। सांस मेरी भी फ़ूली हुई थी, लेकिन मौका कैसे चूक जाता, कहा उसी के स्टाईल में, “वाह चाचा, अज्ज तेले ढिढ विच पील नईं हुई, दोल्दे टैम, हंह..हंह……….।(वाह चाचा, आज तेरे पेट में दर्द नहीं हुई, दौड़ते समय?)
चाचा, “ओ याल, भैन** पुलिस……हंह हंह…..पिच्छे….हंह हंह।
आज भी जब दिल्ली जाना होता है तो मिलने पर एक बार उसके ढिढ की पील याद दिलाता हूं और वो हंस कर कहता है, "छड्ड्या कल याल, ऐन्नी पुलानी गल्लां याद दिलांदा है"। जब कभी दूसरे दोस्तों से मिलना होता है तो हमें तो बहुत हंसी आती हैं ऐसी बातों पर, थी शायद हमारी पीढ़ी ऐसी ही। जरा जरा सी बातों पर खुश हो जाने वाली, ठीक भी था उस समय के हिसाब से, इन्तज़ार करते रहते बड़ी खुशियों का तो शायद ही कभी हंस पाते। आज हैं सबके पास बड़ी खुशियां, अच्छे मकान, गाड़ियां, ब्रांडेड क्न्ज़्यूमर गुड्स, बच्चे महंगे स्कूलों में, बस नहीं है तो वो बचपन की बेफ़िक्री जिसमें आपस में लड़ते भी थे, झगड़ते भी थे लेकिन दूसरे ही पल गले लग जाते थे। वो बेलौस ज़िन्दगी को गई है कहीं।
मैंने अपना ब्लॉग खेल खेल में शुरू किया तो सूरदास की लिखी पंक्तियों से चुराकर ’मो सम कौन..?’ रखा, यही मानता था कि अपने से सब ज्यादा पढ़े लिखे हैं समझ ही जायेंगे कि … का मतलब कुटिल, खल, कामी ही है। इससे कम कुटिलता और क्या होगी कि एक लाईन सूरदास की उड़ा ली, प्रोफ़ाईल में चचा गालिब की लिखी चीज डाल दी, और जब खुद लिखने बैठा तो अपनों का ही मजाक बनाने लगा। क्या मैं और हम सब ही ऐसे नहीं हैं कि जिस काम का त्वरित लाभ न होता है, उसे करने में हमारे पेट में दर्द हो जाता है और जब कोई डर हो तो हमें कोई पेट का दर्द याद नहीं रहता? हम सब डंडे के ही यार नहीं हैं क्या? और ले लो मजे, मुझे सर चढ़ाने के। आये होंगे कुछ हंसने हंसाने के लिये और जायेंगे बोझिल मन से। हो जाओ यारों बेशक नाराज, देखी जायेगी…।
:) फ़त्तू तब बालक ही था। एक दिन उसके मास्टरजी ने उसकी हरकतों से तंग आकर उसे कहा, “सुसरे, जवाहर लाल नेहरू जद तेरी उमर का था तो क्लास का मॉनीटर बना हुआ था, एक तू सै कि मुर्गा बनण के अलावा आज तक कुछ और न बण्या सै।
फ़त्तू, “रैण देयो मास्टर जी, घणै एग्जाम्पल न देयो, जवाहर लाल नेहरू जद आपकी उमर में था तो देस का परधानमन्त्री था, आप बालक पीटणिया के सिवा कुछ और न बण सके सो।
सही ऐडवेंचर हुआ यह तो मगर जान बच गयी और जोगिंग वक्त पर काम में आयी.
जवाब देंहटाएंफ़त्तू को आज सौ में से दो सौ मार्क्स दिये जाते हैं.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
पंजाबी में लिखी लाइने ठीक से समझ नहीं आयी तो आनन्द कम रहा।
जवाब देंहटाएंअजी आपसे नाराज होकर कहां जायेंगें हम
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा जी जरुरी कामों को हम पीछे धकेलते चले जाते हैं और गैरजरुरी चीजों/विषयों में ही उलझे रहते हैं। लेकिन जब पिछवाडे पे चोट लगती है तभी सही लाईन पकडते हैं।
आपका "फत्तू" और खुशदीप जी का "मक्खन" ब्लागजगत की जान हैं दोनों।
इस सुन्दर गीत के लिये आभार
प्रणाम स्वीकार करें
गज़ब का बयां,मज़ेदार संस्मरण,उत्तम निष्कर्ष!
जवाब देंहटाएंरैण देयो मास्टर जी, घणै एग्जाम्पल न देयो, जवाहर लाल नेहरू जद आपकी उमर में था तो देस का परधानमन्त्री था, आप बालक पीटणिया के सिवा कुछ और न बण सके सो।
जवाब देंहटाएं.... आनंद दायक . बहुत बदिया पोस्ट.
क्या कै रिये हो मियां बिलोग जगत के लोग मो सम कोन सामझ ना पाये. मियां ऐसा ना समझो की यहाँ समझ की कमी है. समझ भोत बिखरी पड़ी है यहाँ कोने कोने में. हम तो पहेले ही जान लिए थे की मो सम कोन सा है.
जवाब देंहटाएंइस बिलोग का मो सम सदाबहार रहता है. हमेशा बढ़िया बढ़िया पोस्ट लगती हैं इस पर ....... हाँ नहीं तो.......
"बेलौस जिंदगी खो गई है कहीं" या शायद खुशियों के मायने बदल गये हैं !
जवाब देंहटाएंआपका संस्मरण और फत्तू दोनों बहुत अच्छे है !
जवाब देंहटाएंसंजय जी,
जवाब देंहटाएंयो - मो सम कौन ? वाला मामला और किसी के काम का हो या न हो लेकिन मेरे बड़े काम का है।
वो ऐसा है कि मैं अपने मोबाईल में कभी कभार जब किसी कमेंट वगैरह को देखता हूँ तो हिंदी सपोर्ट न होने के कारण सब उसमें डब्बा डब्बा दिखता है लेकिन पता चल जाता है कि भई कोई कमेंट वगैरह आया है।
ऐसे में जब आप का कमेट आता है तो वह भी डब्बा डब्बा ही दिखता है लेकिन वो मो सम कौन के बगल में जो प्रश्नचिन्ह ? बना है, वह बड़ा क्लियर दिखता है और समझो कि वो एक तरह का इंडिकेटर है कि आप का ही कमेंट है :)
पोस्ट मजेदार है और वो जो रेप्यूटेशन के नाम पर आप को बाकी लोग आगे कर देते कि देख लो ये भी हमारे साथ है....काफी यूनिक लगा।
के फंजाबी लेन्गुऐज लिखी सै...मजा आ गया मन्ने...... आप तो वाकई में किंग हैं किंग... व्यंग्य के सरताज... अफणा फत्तू तो कमाल का सै........
जवाब देंहटाएंवो बेलौस ज़िन्दगी खो गई है कहीं।
जवाब देंहटाएंसच है, दर्पण देखते हैं तो स्वयं को पहचान नहीं पाते हैं।
पिछली टिप्पणी खारिज... समीर भाई से बड़ा सर्टिफिकेट देने को बोलना होगा विथ डिस्टिंक्शन... आज तो सचमुच अपने पेट में दर्द होने लगा पहले हिस्से में और दिल में टीस उठी (भले ही वामपंथी मानसिकता हो, इस पोस्ट के लिए तो हम वामपंथी होने को भी तैयार हैं) दूसरे हिस्से में.. याल,मजात मजात में तितने तमाल ती बात कल जाते हो आप... अपने पास तो बस एक ही सर्टिफिकेट है फिलहाल देने को… तुस्सी ग्रेट हो!! खुश कित्तईं!
जवाब देंहटाएंमजेदार.
जवाब देंहटाएं@ अनुराग शर्मा जी:
जवाब देंहटाएं-------------
सर, जान एक बार तो बच गई, पर कब तक बची रहेगी ये? वैसे भी ये जान भी कोई जान है क्या?
@ ताऊ:
ताऊ थारा आना ही फ़त्तू के लिये पांच सौ लंबर से कम ना है, आशीर्वाद दिये रहना।
राम राम।
@ अजीग गुप्ता जी:
मैडम, माफ़ी चाहता हूं, सच में मुश्किल आई होगी। एक तो पंजाबी, उसपर थोड़ी तुतलाती आवाज लेकिन चूंकि ये एकदम मौलिक घटना थी, मैंने मौलिकता बरकरार रखना ठीक समझा। आपका विशेष आभारी हूं।
@ अन्तर सोहिल:
------------
अमित, मेरी बात को स्पष्ट करने के लिये धन्यवाद।
@ KtheLeo:
सरजी, नालायकों के बस्ते भारी होती हैं, अपना भी वही हाल है। खुद मियां फ़जीहत और दूजों को नसीहत देने में अपन एक्सपर्ट हैं।
@ दीपक जी:
पहली बार पधारने पर आपका शुक्रिया, सर।
@ विचार शून्य:
अमां, आज तो पूरे सूरमा भोपाली हो रिये हो। और मियां, ऐसे केसे तुम किसी के तकियाकलाम को इस्तेमाल कर रिये हो? अपने साथ हमें भी मरवाओगे, पर कोई बात नहीं मियां देखी जायेगी जेसी बनेगी। हां नहीं तो..।
@ अली साहब:
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हैं जी आप, लेकिन अली साहब, अपन नहीं बदले। आज भी उतने ही बिगड़े हैं जितने शुरू में बिगड़ चुके थे।
@ Coral:
thankx Mrs. Sail.
@ सतीश पंचम जी:
हा हा हा, सतीश भाई। सही पहचान रखी मेरी डिब्बों के बाहर ? चलिये, अपनी पहचान तो बन रही है। शुक्रिया आपका।
@ महफ़ूज़ अली:
महफ़ूज़ भाई, आपकी पोस्ट कहाँ है भाई? मुझे भी तो तारीफ़ करने का मौका दो दोस्त।
@ प्रवीण पाण्डेय जी:
ठीक कह रहे हैं सर, लेकिन चलना ही होगा। आज का अपना गाना भी तो यही कहता है, तुझको चलना होगा। दर्पण चाहे पहचाने या न पहचाने, जीना ही है।
@ सम्वेदना के स्वर:
सुतरिया जी आपता। माबदौलत थुस हुये। हा हा हा।
@ प्रतुल जी:
धन्यवाद कवि मित्र, धन्यवाद।
ये तो बहुत बहुत बेइंसाफी है!! (गब्बर सिंह के साथियों के साथ जो हुई थी उससे भी ज्यादा)... तारीफ हम करें और पता नहीं किसकी माँ की बदौलत आप खुश हो गए!! हमाला कमेंत वापिछ कलो!
जवाब देंहटाएंहाहाहाहा एक साथ कई चीजां दी याद दिला दित्ती यार हैहैहहै घना
जवाब देंहटाएंहा-हा... थैंक गौड, जो आप दाहिनी तरफ़ भागे , मै तो एक बारी पढ्ते-पढ्ते सिहर उठा था कि दक्षिण पन्थी महोदय कही कुछ उल्टा सीधा न कर बैठे क्योकि दक्षिण का आशय अक्सर नीचे की डाइरेकशन मे होता है :)
जवाब देंहटाएं@ सम्वेदना के सर:
जवाब देंहटाएंवो ओल होंदे जी जो वापिछ दे देते होंदे लेतर. हम नहीं देंदे - कल्लो आपछे जो तिया जाये।
@ boletobindas:
बॉस गुजरे तो सब इन्हीं राहों से हैं, कोई बता देता है कोई हंस देता है। खुशामदीद यारा, ते थैंक्यू वी।
@ गोदियाल जी:
गोदियाल जी, गज़ब का सेंस ऑफ़ ह्यूमर है आपका भी। शुक्रिया सर।
सूरदास की लिखी पंक्तियों से चुराकर ’मो सम कौन..?’ रखा, यही मानता था कि अपने से सब ज्यादा पढ़े लिखे हैं समझ ही जायेंगे कि … का मतलब कुटिल, खल, कामी ही है। इससे कम कुटिलता और क्या होगी कि एक लाईन सूरदास की उड़ा ली, प्रोफ़ाईल में चचा गालिब की लिखी चीज डाल दी, और जब खुद लिखने बैठा तो अपनों का ही मजाक बनाने लगा। क्या मैं और हम सब ही ऐसे नहीं हैं कि जिस काम का त्वरित लाभ न होता है, उसे करने में हमारे पेट में दर्द हो जाता है और जब कोई डर हो तो हमें कोई पेट का दर्द याद नहीं रहता? हम सब डंडे के ही यार नहीं हैं क्या?
जवाब देंहटाएंहंसी रुके तो कुछ कहूं मैं भी.. अभी तो रोकना ही बड़ी चुनौती हैगी जी...
हम भी पढ़ चले।
जवाब देंहटाएं" क्या मैं और हम सब ही ऐसे नहीं हैं कि जिस काम का त्वरित लाभ न होता है, उसे करने में हमारे पेट में दर्द हो जाता है और जब कोई डर हो तो हमें कोई पेट का दर्द याद नहीं रहता? हम सब डंडे के ही यार नहीं हैं क्या?"
जवाब देंहटाएंहैं सर जी, बेशक हैं. सच ही कहा आपने...बल्कि एक सटीक और साधा हुआ सन्देश दिया आपने..
आपको सर नहीं चढ़ाया सर जी, आँखों बिठाया है लोगों ने. हँसी हँसी में कोई ऐसी बात यूँ ही तो नहीं कह पाता...आपका शिल्प तो है ही अच्छा और विनम्र तार जोड़ के सन्देश देना इसे और बेहतर बना गया...
किसी ने कहा था...
"The best comedy show is the one from where you leave the auditorium with few Kgs less from the heart and few drops less from your gloomy eyes."
आपका संस्मरण ऐसा ही था आज....देर से आया,उसके लिए माफी...
@ दीपक मशाल:
जवाब देंहटाएंजवान छोरा है, कर लेगा चुनौती को पार, हमें भरोसा है अपने याड़ी पर।
@ राजेश उत्साही जी:
आभारी हूँ श्रीमान जी का।
@ अविनाश:
माफ़ी काहे की भाई, मेरी तरफ़ से धन्यवाद बहुत सारा(पार्टी शार्टी लेना पसंद करोगे, इतनी तारीफ़ कर देते हो यार? :)
अब हमाले लिए तुच्छ हो तो तहें...याल हंछ्ते हंछ्ते हमाले बी ढिढ विच पील हुंदी है बोत ज्यादा...हा हा हा ..
जवाब देंहटाएंहँसते हँसते यहाँ तक पहुँचा हूँ।
जवाब देंहटाएंमहराज, पंजाबी का गर अनुवाद दे देते तो बढ़िया होता। मुझे कम आन्दी है।
अले छोली 'आप छम कोन' छाहब जी,
जवाब देंहटाएंग़लती छे मिछ्तेक हो दया ''याल'' लिथ दिया...ये टोपी पेस्ट दा मामला हैगा जी....
तोई कन्फुसियन असी नहीं चांदे जी..ताईं वास्ते लिख रहे हन...
@ अदा जी:
जवाब देंहटाएंदेवी, आश्वस्त हुआ कि आपने पिछले कमेंट के मजाक को अन्यथा नहीं लिया। वैसे यहाँ मेरी कोई दुर्भावना थी भी नहीं। पुन: आभारी हूँ आपका।
@ गिरिजेश राव जी:
गलती तो हो गई सर। आगे से ऐसा कुछ लिखा तो विशेष ध्यान रखूँगा।
@ अदा जी:
जवाब देंहटाएंहा हा हा, मजा आ गया।
इतनी जल्दी क्या थी जी क्लैरोफ़िकेशन देने की? एकाध दिन तो कान में फ़्यून्जन होने देना चाहिये था। क्या समझीं आप कि कल को मैं कोई बखेड़ा ही न खड़ा कर दूँ कि आपने एक बार एक टिप्पणी में मुझे ’याल’ कहा था। हा हा हा।
बेफ़िक्र रहिये जी आप,आज तक तो पैर जमीन पर और सर कंधे पर रहा है।
अपनी पहुँच और काबिलियत के बारे में कोई मुगालता नहीं है जी मुझे।
और भी ज्यादा भारी, सॉरी, आभारी हो गया हूँ।
वैसे एकाध दिन तो...हा हा हा।(अब जितना बिगड़ चुका हूँ, उतना तो रहूँगा ही, छेड़ाखानी प्रशिक्षण संस्थान से जुड़ा हूँ न।)
आप के लिखने का इस्टाइल के त हम फैन हैं...हमको काहे सर्मिंदा करते हैं...आपका आना बहुत अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंmajedar!
जवाब देंहटाएं....bahut achha laga !
आपकी टिप्पणी के लिए शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंइन्द्रनील अभी काम के सिलसिले में बाहर गए है!
बड्डे बड्डे कम्मल करदे हो जी ...
जवाब देंहटाएंहांसी विच फांसी छुपा कर ...!
@ सलिल साहब:
जवाब देंहटाएंहमारे कारण बहुत लोगों को शर्म झेलनी पड़ी है जी, आपका नाम भी शुमार कर लेते हैं। वैसे भी पिटते को चार और लग जायें तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
आपका बहुत आभारी हूँ जी, आपकी एक्दम शुरुआती पोस्ट्स में(जब तक आपने आपका परिचय गोपन रखा था)अपने अनाड़ीपने के चलते हौंसला बढ़ाने जैसी कोई टिप्पणी दे आया था,जब आपका परिचय मिल गया तभी से अंदेशा था कि ये शर्म वाली बात कभी म कभी किसी न किसी रूप में सुननी होगी। हा हा हा
आभारी हूँ सर, अन्यथा मत लीजियेगा। बंदर के हाथ उस्तरा लगा है, अपना लिखा देखने में मजा आता है, अंट शंट लिखते हैं और जो कसर रह जाये उसे कमॆंट्स या प्रत्युत्तर में निकाल लेते हैं। शीयर थ्रिल, नथिंग एल्स।
@ Mr.PK Singh:
पधारने का और सराहने का बहुत बहुत धन्यवाद जी।
@ Coral:
शुक्रिया मिसेज सैल,इन्द्रनील जी को फ़त्तू की तरफ़ से नमस्ते कहियेगा। और आपके आने का शुक्रिया जी।
@ वन्दना अवस्थी दुबे जी:
आपको भी रक्षा बन्धन पर्व की शुभकामनायें।
@ Humming words publishers:
ha ha ha.
@ वाणी गीत जी:
बहुत दिन बाद सुना जी ये ’हांसी विच फ़ांसी’, धन्यवाद।
@
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