वापिसी में जब कभी गाड़ी देर से आ रही होती तो हमारे एक साथी को चाय की तलब लग जाती थी। हम लोग प्लेटफ़ार्म पर ही स्थित टी-स्टाल पर चले जाते थे। छोटे शहरों में नौकरी करने का सुख भी अलग ही होता है, लोग आईडेंटिफ़ाई करते हैं। स्टाल पर हमें देखकर ठेकेदार खुद मोर्चा संभाल लेता था और स्पेशल चाय विद मट्ठी पेश कर दी जाती थी। सबसे पहली बार तो उसने पैसे लेने से भी मना कर दिया। बहुत झिकझिक हुई, आखिर में उसे समझाया गया कि भाई साहब, हम तो भाव के भूखे हैं। कभी कभार आ जायें तो आपके माथे पर सिलवटें न दिखें कि आ गये फ़्री के भड़ुए, अपने लिये इतनी इज्जत बहुत है। इससे ज्यादा इज्जत अपने से बर्दाश्त भी नहीं होती है। दोबारा बुलाना चाहते हो तो पैसे पकड़ो, तब श्रीमान जी ने पैसे काटे। हफ़्ते - दस दिन में एकाध बार ऐसा मौका बन ही जाता था या फ़िर ऐसा मौका बनता बरसात के दिनों में - अहा, उस दिन मट्ठी की जगह दूसरे प्लेटफ़ार्म से पकौड़े मंगाये जाते और चाय के साथ उनका लुत्फ़ उठाया जाता। धीरे धीरे हुआ ये कि स्टाल के आसपास डेरा जमाये बैठी ताश मंडली के लोग हमें और हम उनको पहचानने लगे।
खैर, ये बात तो शुरुआती दिनों की ही है। ऐसे ही एक दिन हम चाय पी रहे थे कि आँखों पर एक मोटा सा चश्मा चढ़ाये एक पचपन-छप्पन साल का आदमी ताश मंडली से आकर ठेकेदार के पास खड़ा हो गया। हाँ यार, देखा तो है इसे कई बार ताशवालों के पास बैठे हुये लेकिन इतना गौर नहीं किया था। कमीज के एक दो बटन टूटे हुए, हाथ में बीड़ी, चेहरे पर दीनता नहीं लेकिन विनम्रता वाली एक साधारण स्मित बस यूँ मान लीजिये कि संभ्रांत गरीबी वाला एक कैरेक्टर था। ठेकेदार अच्छी ठसक वाला आदमी था लेकिन उस आदमी से बहुत अपनापे से बात कर रहा था। उन दोनों की बातचीत से पता चला कि कुछ दिन पहले ही इस बंदे की पत्नी का देहाँत हो गया है। उसकी पत्नी के नाम से बैंक में एक फ़िक्स डिपाज़िट थी जिसमें उसकी लड़की का नामांकन था, उस बारे में ठेकेदार से कुछ सलाह कर रहा था। ठेकेदार ने गेंद इधर हमारे पाले में डाल दी। अपनी समझ के अनुसार उसको हमने सलाह दी और बिना झिझक के बैंक में आने का न्यौता भी दिया। हो सकता है कि हम लोगों की हमजबानी, जिसे आम भाषा में ताना मारने के लिये गैर पंजाबी लोग ’तुसी-मुसी’ कहते है, इसका भी कुछ योगदान रहा ही हो। ज्यादा शराफ़त का एक दुष्परिणाम भी रहता है कि इंसान बहुत बार अनावश्यक भी सकुचाता रहता है। कहना न होगा, उस आदमी के लिये हम जैसों का इतना सा आश्वासन भी बहुत बड़ा सहारा बन गया, वो एक दिन के बाद अपनी बेटी के साथ और बताये गये दस्तावेज लेकर आया और नियमानुसार सब काम हो गये।
उस दिन के बाद जब जब हम चाय पीने जाते और ताश मंडली के उस स्थायी दर्शक की नजर हम पर पड़ जाती, वो उठकर हमारे पास आता। दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करता, हालचाल पूछता, चाय पिलाने की जिद करता और खुद निहाल होता और हमें शर्मिंदा करता जाता, वही ज्यादा इज्जत बर्दाश्त न होने वाली बात :) ऐसे ही बहुत से दिनों में से एक दिन था, स्टेशन पर ही हमारी दुआ सलाम, हँसी मजाक चल रही थी। हमारे बैंक की एक रेगुलर महिला ग्राहक जो कि प्राध्यापिका थीं और हरियाणा की ही थीं, अपने परिवार के साथ वही गाड़ी पकड़ने के लिये उसी प्लेटफ़ार्म पर पास में ही खड़ी थीं। बल्कि उस समय वो अपने श्रीमान जी से परिचय करवाकर ही हटी थीं कि हमारे ये पंजाबी भाई हाथ जोड़कर प्रगट हुये थे। कुछ देर के बाद टीचरजी हँसते हुये कहने लगीं, "एक बात है संजय जी, आप पंजाबी बहुत अच्छी बोल लेते हैं।"
मैंने कहा, "इसमें कोई बड़ी बात नहीं है, वो इसलिये कि मेरी मातृभाषा पंजाबी ही है।"
बहुत हैरान होते हुये उन्होंने पूछा, "सच बताओ?"
मेरे हाँ कहने पर जैसे उन्हें बहुत आश्चर्य सा हुआ, कहने लगीं, "इतनी बार आपसे बात होती है, कभी ऐसा लगा ही नहीं। हम तो समझते थे कि आप हम लोगों में से ही हो।"
अपने नहीं बल्कि पराये होने वाली बात पर मैंने कुछ जवाब दिया, हम सब खूब हँसे उस दिन। लेकिन कभी अवकाश के पलों में सोचता हूँ तो ये भी एक यक्ष प्रश्न लगता है - अपना कौन, पराया कौन?
ये भी कुछ पहले ही की बात है, शनिवार का दिन था। पब्लिक डीलिंग का समय खत्म हो चुका था, एक लड़का जो उम्र और बैग वगैरह से कोई कालेज स्टूडेंट दिखता था, रिक्वेस्ट करके बैंक के अंदर आ गया। कहने लगा कि एक ड्राफ़्ट बनवाने के लिये पैसे जमा करवा गया था, वही ड्राफ़्ट लेना है। डीलिंगहैंड से उसकी बातचीत सुनी तो पता चला कि जिस कालेज के पक्ष में उसने ड्राफ़्ट बनवाना था, आवेदनपत्र में उसका नाम स्पष्ट न लिखा होने के कारण आज ड्राफ़्ट नहीं बन पाया और अब कैश का समय समाप्त हो चुका। कभी कभी दूसरों के फ़टे में टाँग फ़ँसाने की आदत के चलते वो आवेदन पत्र देखा, वाकई उसने नाम कन्फ़्यूज़िंग तरीके से लिखा था। नीचे देखा तो आवेदक पाठक सरनेमधारी छात्र था। उम्र में हमसे छोटा था और गरजमंद भी था, इसलिये दो बात सुनाने का अच्छा मौका था। मौके का फ़ायदा उठाकर उसकी कमी बताई और उसे शर्मिंदा किया। बालक ने महसूस किया कि ’कैपिटल अक्षरों में फ़ार्म भरें’ लिखा होने के उपरांत भी उसने कैपिटल अक्षरों में फ़ार्म नहीं भरा था तो गलती उसकी ही है। सोमवार को आने की कहकर चला गया।
सोमवार सुबह आकर पैसे जमा करवाये और शाम को ड्राफ़्ट लेने की कहकर चला गया। शाम को आया तो बैंक वालों ने ड्राफ़्ट गलत जगह के लिये बना दिया था। बात फ़िर से अगले दिन शाम पर गई। तीसरे दिन फ़िर वही कहानी, शाम को आया तो इस बार जगह ठीक थी लेकिन नाम में गलती थी। हर चक्कर में वो लड़का मेरी सीट का काम न होते हुये भी ’नमस्ते सर’ कह जाता था, कोई शिकायत नहीं, कोई शिकवा नहीं। गलती किसी की हो, वो खुद खिसियाया हुआ सा कल फ़िर आने की बात कहकर ’नमस्ते सर’ कहकर चला जाता। चौथे दिन इन नमस्तेओं से हताहत मैंने खुद उस ड्राफ़्ट बनवाने वाले साथी के पास खड़ाकर होकर अपने सुपरविज़न में ड्राफ़्ट बनवाया और चाशनी में लपेटकर इस ड्राफ़्ट के चक्कर में लगने वाले उस लड़के के चक्करों के बारे में सुनाया। साथी ने मुस्कुराते हुये पूछा, "सरजी, कोई अपना है क्या जिसके लिये इतनी फ़िक्र कर रहे हो? ये तो नाम से ब्राह्मण लग रहा है कोई।"
मैंने कहा, "हाँ यार, ये गलती तो बहुत बड़ी हुई। वो ब्राह्मण मैं गैरब्राह्मण, वो हिंदीभाषी और मैं पंजाबी, वो यू.पी या बिहार का और मैं दिल्ली का, अपना तो कहीं से भी नहीं लेकिन दोस्त अगर उसकी जगह तेरा लड़का होता तो.."
"अरे लो सरजी, आप तो बात का बतंगड़ बनाने लगते हो। आपकी बात का जवाब तो मैं बहुत अच्छे से दे दूँ लेकिन फ़िर सोचता हूँ कि बाहर वालों के लिये आपस में क्यों बिगाड़ना।"
मैंने हँसते हुये यही कहा कि दोस्त, इसी बात के बतंगड़ में तो हमें मास्टरी है।
हाँ, मैं तबसे इस सवाल को और ज्यादा खोजने में लगा हूँ कि अपना कौन है और पराया कौन है? आपमें से किसी को जवाब मिले तो संभालकर रख लेना, कभी मिलेंगे तभी समझ लूँगा। यहाँ बताने के लिये कह दिया तो हो सकता है एक और विवाद शुरू हो जाये :)
ओह!! तब तो आप मेरे कुनबे के सरदार ठहरे… :)
जवाब देंहटाएंबतंगडी में अपना भी हाथ ठीक-ठाक है। अपने ही हो……
हम भी जहाँ जहाँ जाते है, अक्सर अपने पराए के समीकरण बदलते जाते है।
हम तो अपने ही मानते हैं सुज्ञजी,
हटाएंसब कोई अपना नहीं बेगाना
सरदारी के गुण नहीं हैं, बैक्बेंचर रहने में ही मजा है :)
यह मेरा, यह तेरा, करते पूरा जीवन कट जाता है बस कोई अपना ही नहीं मिलता :(
जवाब देंहटाएंइस अपनेपन को सहेजे रखना संजय भाई !
बधाई !
सब अपने ही मिलते हैं, बड़े भाई। बस वक्त वक्त का फ़ेर है।
हटाएंआपका आशीर्वाद बना रहे छोटों पर।
Bottom line is is we must perform our work professionally irrespective of attention to any one's cast and creed!
जवाब देंहटाएंabsolutely Arvind ji, this is the mantra for a professional approach. i skipped so many details in 2nd incident otherwise it would have initiated another row in this already flooded blogworld.
हटाएंयार मन तो बहुत कर रहा है आज किसी से विवाद करने को मगर चचा गालिब का क्या करें जो हमेशा बेवक्त ही "टंग" अड़ा देते हैं। लो सुनो "फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया" की तर्ज़ पर वीरभूमि से आए उन साहब का कलाम जिन्हें मेरे अलावा सभी "घोड़े साहब" कहते थे, "तुससी पंजाबी में बोम मार सकते हो, त्वाड़ा काम हो जाएगा ..."
जवाब देंहटाएं... तो विवाद कभी फुर्सत के लिए छोड़ देते हैं लेकिन यह तो कहना ही पड़ेगा कि तुस्सी एन्ना इमोशनल कर देन्दे हो कि बचपन से बुढ़ापे और जम्मू से बोस्टन के बीच तक की ज़िंदगी की न जाने कितनी झलकियाँ याद आ जाती हैं ... कोई कहता होगा, "बना रहे बनारस" हम तो यही कहेंगे, "बनी रहे इंसानियत" जय हो!
वड्डे उस्ताद जी, रुमाल पेश कीत्ता जाये? :)
हटाएंअब चूँकि अपनी प्रोफेशन एक है और मेरे ख्याल से अपना नेचर भी एक है.. मेरे एक बड़े अच्छे कस्टमर थे और मेरे पास बैठकर हाल चाल पूछे बिना जाते न थे कभी ऑफिस से.. बातें हमेशा अंग्रेज़ी में ही होती थी उनसे.. मगर कभी उन्होंने ये नहीं पूछा कि मैं कहाँ से हूँ और न मैंने बताने की ज़रूरत समझी..
जवाब देंहटाएंपता नहीं कैसे एक रोज पूछ लिया उन्होंने, "वर्मा जी! बाय द वे, व्हेयर आर यू फ्रॉम?"
मेरा सिंपल सा जवाब, "आय'म् फ्रॉम बिहार!"
और उसके बाद उनके चेहरे की रंगत देखने लायक थी..
"डोंट फील एम्बैरेस्ड, सर!"
मगर वो बेचारे अपनी निराशा छिपा नहीं पा रहे थे.. बिहारी का बिहारी होना उनके लिए बड़ी सदमे की बात हो गयी..
बहुत अपनापन था उनसे, लेकिन उस दिन के बाद कुछ परायापन सा आ गया हमारे बीच!!
समझ रहा हूँ सलिल भाई, गांठ पड़ी तो फ़िर पड़ ही जाती है।
हटाएंGHAR MAIN JO APNA HOTA HAI WAH PARAYA LAGATA HAI...
जवाब देंहटाएंAUR PARDESH MAIN PARAYA BHEE APNA LAGNE LAGTA HAI...
JAI BABA BANARAS...
गज़ब मन्तर बता दिया कौशल भाई,
हटाएंजय बाबा बनारस.
अपना वो होता हैं जिसे अपने असमय में आवाज आवाज देने का मन होता हैं
जवाब देंहटाएंअगर उस आवाज को जवाब नहीं मिलता हैं तो आप ने अपने को नहीं पराये को बुलाया था
ये पैमाना भी सही है रचना जी।
हटाएंआप धन्यवाद ले लो, आपके ब्लॉग के बहाने हम भी जर्मनी तक वोट पहुंचा आये:)
jaa kae daala kyaa :)
हटाएंबिल्कुल, उनके लिंक पर जाकर ही डाला :)
हटाएंlo bolo ham to samjhae they via nepal germany gaye they :)
हटाएंअपने लिए तो जिनसे सोच मिले , वो ही अपने :)
जवाब देंहटाएंलिखते रहिये…
जिनसे सोच मिले, वो ही अपने
हटाएंजब तक सोच मिले, तब तक ही अपने:)
अपने पराये के भेद ने तो देश में इतने छेद कर दिये हैं।
जवाब देंहटाएंअपना ही अपराध है सरजी.
हटाएंयही तो सबसे बड़ी गड़बड़ है.
जवाब देंहटाएंगड़बड़ तो है ही सरकार,
हटाएंइसी से तो बड़े मन से आपकी पोस्ट पढ़ता हूं..आता हूं आराम से ताकि दो तीन पोस्ट एक साथ पढ़ने को मिल जाए...पराएपन अपनेपन की परवाह ज्यादा करता नहीं ..पर देखा जरुर है इसका असर। अपन तो राष्ट्र को ज्यादा उंचा समझते हैं...इसलिए क्षेत्रवाद के सख्त खिलाफ हूं...क्षेत्र का विकास होना जरुरी है पर राष्ट्र की कीमत पर नहीं...जिन चीजों को मिलाकर हम लोगो में प्यार बढ़ना चाहिए उन्हीं बातों को लेकर समाज में घृणा बढ़ी है। जैसे ये गर्व की बात है कि हिंदी की पहली डिक्शनरी जिसने बनाई वो मराठी भाषी थे..पर आज राज ठाकरे जैसे लोग हिंदी विरोध का नारा बुलंद किए हुए हैं...यही हाल बंगाल का है.पहले जहां बिहारी के दोहे औऱ कवित अक्सर सुनाई देते थे...वहां टैगोर के उद्भव के बाद बिहारी को हमेशा के लिए निकाला मिल गया ....ऐसे कितने उदारहण हैं...जो अपने औऱ पराएपन को बढावा देते हैं...लेकिन आप औऱ हम जैसे लोग हैं जो दूसरों के फटे में टांग अड़ाते रहते हैं...,तुसी मुसी हो...हमार बंगाला हो..या कुछ भी...हमें तो सब अपने लगते हैं. औऱ लगते रहेंगे.
जवाब देंहटाएंजियो राज्जा, सब अपने लगते हैं और लगते रहेंगे और लगते रहने चाहियें।
हटाएंइसी से तो भाई की टिप्पणी का इंतज़ार रहता है, दिल की बात बोले तो बिंदास.
पिछली पोस्ट पर टिप्पणी इसलिए नहीं ज़ड़ी क्योंकि...समझ ही गए होंगे आप...
जवाब देंहटाएंन, नहीं समझा :)
हटाएंमैं अकेला मस्त चलता हं...औऱ कारवां बनता है या नहीं...परवाह करता नहीं....यानि हम तो छड़े हैं और मस्त हैं अब तक ..इसलिेए वो चाय तो अपन को मिले न मिले कलम तो चलती रहती है हाहहाहाहा.
हटाएंआप अपने ही लगे...
जवाब देंहटाएंयानि कि-यानि कि आप भी तुस्सी-मुस्सी हो? :)
हटाएंये भी एक यक्ष प्रश्न लगता है - अपना कौन, पराया कौन?
जवाब देंहटाएंविचारणीय और शायद नहीं भी
इस सोच विचार से ऊपर उठ गये, फ़िर तो कोई बात ही नहीं राजेश जी।
हटाएंकौन अपना है, क्या बेगाना है,
जवाब देंहटाएंक्या हकीकत है, क्या फ़साना है ....ये जमाने में किसने जाना है .... (शायद दिल है के मानता नहीं का गीत है )
कोई अपना इसलिए की वह पंजाबी है ? कोई बेगाना इसलिए कि वह नहीं .... :(
अपना वह है जिसके हम अपने हो जाएँ ।
साथ हम दें तो बदले में यह अपेक्षा न रखें कि वह हमारा साथ दे ही । होता अक्सर उल्टा है - दुसरे की मदद के समय हम चुप्पी लगा जाते हैं और अपने समय अपेक्षा रखते हैं कि दुसरे सब काम परे रख कर साथ देने दौड़ पड़ें । दुसरे भी आखिर कब तक एक तरफा किसी का साथ देते रहेंगे ?
हमें तो लगता है कि सब अपने हैं और सब ही बेगाने भी हैं ।
अपने धर्म / कर्त्तव्य / कर्म को पूरी निष्ठा से किया जाए, जिस बात की अंतरात्मा गवाही दे वह किया जाए, जिस बात पर अंतरात्मा रोके वह न किया जाये। जहां तक हो सके सच की राह पर चला जाए, जितना बने किसी के जायज़ काम में साथ दिया जाए । किसीने मदद को पुकारा हो, और अपने बस में हो, तो मदद कर दें, न उसकी बात सही लगे तो न भी करें, लेकिन किसी के काम को कम से कम और कठिन न करें ।
भाषण देने जैसा लग रहा है क्या ? यह टिप न छापूँ ? देखि जायेगी - आप तो समझ ही जायेंगे और जो नहीं समझेंगे वे वैसे ही मेरी टिप को पढेंगे नहीं ।
भाषण जैसा तो है लेकिन अच्छा वाला भाषण।
हटाएंदेखी क्या जायेगी, देखी ही जा रही है अब:)
धन्यावद शिल्पा जी अपने विचार यहाँ त्यागने के लिए मुझे जरा भी जोर नहीं लगाना पढ़ा। अपने पहले से ही सब कर दिया। (भावार्थ है की आपने मेरे मुहँ की बात छीन ली )
हटाएं:)
हटाएंमैं मेरा तू तेरा में दुनिया फंस जाती है कुछ लोग उबर जाते हैं इस जंजाल से जो भी इस माया से बाहर निकला वह संजय की भांति दिव्य दृष्टि प्राप्त कर सन्देश प्रसारित करता है शेष तो हमारी भावनाओं पर निर्भर करता है ....
जवाब देंहटाएंये तेरा मेरा से परे कुछ लोग देखे हैं सिंह साहब, लेकिन ये भी देखा कि दुनिया ने उनकी ऐसी की तैसी करके रख दी। हालाँकि इससे उन्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा, लेकिन उनके अपनों ने बहुत भुगता। आपका बहुत बहुत आभार।
हटाएं:) वल्लाह, क्या बात है!
हटाएंहम हैं राहि प्यार के सब किसी के हो लिए
जवाब देंहटाएंजो भी प्यार से मिला, आप उसी के हो लिये:)
हटाएंन जाने क्यों ये भेद तो बहुत पहले से ही हम सबके मन में जगह पा लेता है ...और फिर हर और यही देखने को मिलता है
जवाब देंहटाएंये भी एक तरह का आई फ़्लू है मोनिका जी, आंखों से ही फ़ैल जाता है।
हटाएंतू तू मैं मैं - वर्चस्व की लड़ाई - अपने पराये - आज दुनिया में सब इसी के बीच पिस कर रह गए हैं | भेद भाव सर्वोत्तम और मानवता गई नाली के रस्ते | सुन्दर शब्दों और भावों से सजाया लेखन | आभार |
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
जीवन के अनेक अनुभव बताते हैं अपने पराये का फर्क , मगर उस दौर से गुजर जाने के बाद इंसान फिर वही ढूंढता फिरता है ...बड़ी घनचक्करी है इस अपने पराये के प्रश्न में , स्त्रियों के लिए तो और भी भयंकर :)
जवाब देंहटाएंछड्डो , तुसी तो एवे ही टांग अडाते रहो जी भला करण दे वास्ते !
स्त्रियों के लिये तो हर घनचक्करी और भी भयंकर होती है।
हटाएंमार सुट्ट्या वाणी जी :)
संस्मरण के माध्यम से अच्छा प्रश्न उठाया है। असल में हमने अपने मैं को इतना संकुचित कर लिया है कि वह केवल खुद तक ही सीमित हो गया है। कभी भाषा के माध्यम से हम "मैं" का विस्तार करते हैं और कभी देश के माध्यम से। लेकिन इस चक्कर में दूसरे पराए हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएंदूसरे? कई विद्वान तो अपनों को भी पराया करने के लिये ही कमर कसे दिखते हैं - वह देश ऐसा, वह धर्म ऐसा, वह पार्टी ऐसी आदि कहकर हम जाने-अनजाने ही उन्हें भी पराया करते जाते हैं जो कभी पराये थे ही नहीं ...
हटाएंकमजोर का जोर अपनों पर ही चलता है सरजी.
हटाएंपोस्ट पर कमेंट्स दें या फिर टीप को पढ़ कर ज्ञान प्राप्त कर आभार ज्ञाप्त करें....
जवाब देंहटाएंअपने पराये की इसी उलझन में चल दिया मैं... यही सोच कर कि चलो शब्द पराये ही सही, पर भावनाएं तो अपनी हैं.
उलझन में मत रहो बाबाजी, शब्द भी आपके ही हैं और भावनायें भी आपकी।
हटाएंओए मेरी इकलोती टीप गवाच गई, दूंढ के लाओ जी.
जवाब देंहटाएंये ढूंढना भी कोई ढूंढना है बाबाजी? ढूंढना तो वो था -
हटाएंhttps://www.youtube.com/watch?v=MCIkNAbW5r4
:)
एक बार एचटी में करण थापर का एक लेख पढा था जिसमें उन्होंने बताया कि मेरे कुछ देशी और विदेशी प्रशंसकों में अंतर यह है कि भारतीय जिसे पसंद करते हैं उस पर अपना अधिकार सा समझने लगते हैं।भारतीय प्रशंसक कोई बात पसंद न आने पर रात को बाहर बजे भी मेरे घर पर फोन कर मुझे डाँट देते हैं कि हमें आपसे ये उम्मीद नहीं थी।मानो वो मेरे घर के सदस्य हैं उन्हें लगता ही नहीं कि मैं बुरा मान जाऊंगा।और अगली बार कुछ लिखा पसंद आ गया तो यही लोग पिछली बातें भूल तारीफ भी खूब कर देते हैं।उन्होंने बताया कि उनकी यही बात मुझे बहुत पसंद है कि भारतीय कोई औपचारिकता का प्रदर्शन नहीं करते।पर आपकी पोस्ट पढ़कर लगता है कि हम जितनी जल्दी किसको अपना बनाते हैं उतनी ही जल्दी पराया भी कर देते हैं।
जवाब देंहटाएंसही लिखा करण थापर जी ने, मुझे भी लगता है कि हमें ’at par' रहने की आदत नहीं है बल्कि बहुत ज्यादा इन्वोल्व होकर रहने की आदत सी है। दोस्त आपस में कहते हैं - पार्टी दे दे या ले ले और मैं पंजाब के एक शहर में था तो मिनी बस में उसने इसी बात का एक स्टीकर भी लगा रहा था (skipping 'party')
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइसीलिये तो छलकाए जा रहे हैं जी :)
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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हटाएंकोई सबको अपना मान लेते हैं।
जवाब देंहटाएंकोई सबको पराया मान कर जीते हैं।
कुछ लोग परायों को अपना कर लेते हैं।
तो
कुछ अपनों को पराया कर देते हैं .....
कर भला, हो भला.
जवाब देंहटाएंpost padhkar kuch dino tak man sufiyana ho jata hai.....
जवाब देंहटाएंjai ho.
pranam.