रविवार, मार्च 28, 2010

अड़ौस-पड़ौस

काश, टाईम मशीन नाम की कोई चीज वास्तव मे होती। शर्तिया बात है कि हर व्यक्ति बचपन मे लौटना चाहता।जगजीत साहब तो शान से ऐलान कर ही चुके  कि वो समय वापस बुलाने के बदले मे दौलत, शोहरत, जवानी और पता नही क्या-क्या देने को तैयार है।  तो साहब, हमने कौन सा गधी के हाथ लगा रखा है जो हम वो गुजरा जमाना बचपन का वापिस लेने के चक्कर मे पता नही क्या-क्या न लौटा सकें?   क्योकि दौलत, शोहरत और जवानी वैसे भी कौन सी अपने पास है, और ’पता नहीं’ का तो पता भी नही कि है भी तो क्या है और कितना है। और फ़िर वैसे भी खाली बोलना ही तो है कौन सा सचमुच में लौटाना है, सो अपनी भी बाय-बैक ऑफर जारी है।

बचपन की जो चीज सबसे ज्यादा याद आती है वो  है बेफ़िक्री, निश्चिन्तता और अल्हड़पन जो अब तो कहानी जैसा ही लगता है। हमारे पड़ौस मे एक सिख परिवार रह्ता था जिसमे पति और पत्नी के अलावा उनके पांच पुत्र, नहीं जी, पांच पुत्तर एक कमरे के मकान मे रह्ते थे। वो एक कमरा उस परिवार का निवास होने के साथ कर्मभूमि, रंगभूमि और रणभूमि सब कुछ था। हाँ,  रणभूमि बेशक हम सब नौनिहालों का भी था। उनका व्यवसाय कुछ इस प्रकार का था कि आज के समय के हिसाब से वो एक फ़ूड प्रोसैसिंग युनिट थी जो उसी एक कमरे से संचालित होती थी यानि कि क्लीनिंग, प्रोसेसिंग एंड मैन्युफ़ैक्चरिंग सब वही सम्पन्न होता था। कमरे की हालत का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है। लेकिन वह कमरा हम लड़कों के लिये ताजमहल या जन्तर-मन्तर से कम महत्व नही रखता था, हमारा तो संसद भवन, विधान सभा भी वही था। गली, मोहल्ले, शहर, देश और दुनिया की सभी खबरें, स्कीमें, सभी प्रकार की समीक्षायें, आलोचनायें वही सुबह ११ बजे तक सम्पन्न होती थी क्योंकि वडडे सरदारजी जोकि काम के सिलसिले मे रोज सुबह ५ बजे घर से निकलते थे, उनकी वापिसी का समय ११ बजे के बाद किसी भी पल हो सकता था और हम बच्चो से कितना भी प्यार वो क्यों न करते हों काम मे अड़चन उन्हे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं थी, जैसे वड्डे परधानजी को आर्थिक सुधार, विकास दर आदि में कोई समझौता बरदाश्त नहीं है। खुद भी अव्वल दर्जे के मेहनती थे और अपने परिवार से भी पूरी मेहनत करवाते थे, हम बच्चों की भाषा में ’न खुद चैन लेते थे न किसी को लेने देते थे’, जोकि बड़े होने के कारण उनका हक था।

हम मासूम बालकों की समस्या ये थी कि उनके बड़े दो साहबजादे हमारे हमउम्र, हमदम, हमप्याला(चाय एंड लस्सी ओनली), हमनिवाला, हमसफ़र और हमराज थे और हमारी किसी भी मल्टी टास्क टीम के स्टार प्लेयर थे फ़िर चाहे वो क्रिकेट टीम हो, हाकी टीम हो या फ़ुटबाल टीम हो। सरदार जी सुबह जाते समय अपने लड़कों के लिये काम का वो टार्गेट फ़िक्स कर के जाते थे जो आज के मैनेजमेन्ट गुरु महंगी से महंगी सेमिनार अटैन्ड करवाके भी न कर सकें।  शर्त वही कि काम पूरा होगा तो खेलने की सोचना वरना खैर नहीं। इधर जैसे-जैसे टोली के लड़के सुबह नींद से जागते, सब का रुख उसी मीटिंग पाईन्ट की तरफ़ होता। जाते ही पहले तो हमारे स्टार प्लेयर वार्निंग देते कि ’यार आज भापाजी काम बोत ज्यादा दस गये ने ते साडा ता खेडना कैन्सल’(आज पिताजी बहुत काम बताकर गये हैं, आज खेलना कैन्सिल) और फ़िर बोरी के नीचे से चाकू या दराती निकालकर हमारे हाथो में थमा दिया जाता(साथी हाथ बढ़ाना)। आने वाले दिनों में चाकू छुरियां भी हम अपने आप खोज लेते(तभी तो हमें अब चाकू, बरछी, छुरियों से डर नहीं लगता) और फ़िर शुरु होता मौसमी फ़लों या सब्जियों का सामूहिक कत्ल-ए-आम, नतीजा – टारगेट अचीवड बिफ़ोर डेड्लाईन। उसी सुनहरे समय के कुछ झूठे-सच्चे, खटटे-मीठे वाकयात आज भी तबीयत हरी कर देते हैं।

रोज-रोज की एक कहानी थी, उन  दोनो भाईयो की आपसी नोंक-झोंक। जैसा कि आम तौर पर होता है, बड़ा भाई काफ़ी नरम था और छोटा खासा गरम। दोनो खेलते हमेशा एक दूसरे की विरोधी टीम की तरफ़ से और छोटा बेईमानी पर जरूर आता ही आता, जैसे समझ लो जी अपने भारत और पाकिस्तान है। छोटे की बेईमानी का बड़े द्वारा विरोध करने पर हमेशा झगड़ा और मारपीट।  अब एक ही उदाहरण बार बार देंगे तो जी आप हमें भड़काऊ समझेंगे, इसलिये छोटे मोटे अंदाजे खुद लगाईये। 

अब साहब, हथियार हमेशा होता छोटे के हाथ मे और पिटता रोज बड़ा भाई। कभी-कभी डोज ज्यादा होने पर बड़ा भी अपने हथियार चमका देता लेकिन अपने छोटे पर कभी वार नही करता बस यही कह्ता जाता ’ आन दे भापाजी नू, आन दे भापाजी नू’ (पिताजी को आने दे, पिताजी को आने दे)। गृहमंत्री बनने के उसमें पूरे गुण थे शुरू से ही  और छोटा कहता ’आन दे, मै वी वेख लान्गा’(आने दे पिताजी को भी, देख लूँगा मैं) और मौका देखकर वार पर वार करता जाता।  उधर घडी मे ११ बजते और छोटा अपने हाथ के अस्त्र फ़ेंककर उसके जफ़्फ़ी डाल लेता और सिर्फ़ इतना कहता, ’तू मेरा वड्डा वीर है के नही- छोटे दी मार पुआयेंगा भापाजी तों’(तू मेरा बड़ा भाई है कि नहीं? अपने छोटे भाई की मार लगवायेगा पिताजी से?)  माहौल बदल जाता, वड्डा वीर सेन्टीमेन्टल होकर कहता, ’कल तो तां नही मारेगा?’ (कल से तो नहीं मारेगा न?) लो जी हो गया शिमला समझौता, अमेरिका या ब्रिटेन के आने के पहले, सॉरी भापाजी के आने से पहले। 

और ये कहानी रोजाना दोहराई जाती जैसे हमारा देश हर घटना के बाद अपने छोटे वीर को धमकाता है कि अब हम कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे, सख्ती से निबटेंगे, आतंकवाद का सर कुचल दिया जायेगा आदि आदि। और भापाजी के आने से पहले ही वार्ता फ़िर शुरू हो जाती है।

शायद हमारे नेताओ के ऐसे पड़ौसी नहीं रहे होंगे नही तो हम रोज रोज कतई न पिटते।

नोट:- ऐसी खबर है कि हिंदी ब्लॉग जगत मैच्योरिटी(बोल्डनेस) की तरफ़ बढ़ने ही वाला है। बढ़ जायेगा तो दुबारा यही पोस्ट(मसाला मार के) झेलने के लिये तैयार रहना, हम तो थक गये ये शरीफ़ों की भाषा में लिख कर। खुशी के मारे दिल काबू में नहीं है, कब आयेगा वो स्वर्णिम दिन।

8 टिप्‍पणियां:

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  2. आपके सभी लेख पढ़े । मो सम कौन कहने का अधिकार आपका ही है।

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  3. संजय बाउजी! फ्लैश बैक (बचपन की भी और पोस्ट की भी) का अपना आनंद है!!
    और बचपन की यादों के साथ मैच्योरिटी के ख्वाब पालने की बात से तो याद आया कि एक निर्माता ने एक बच्चों की फिल्म बनाई जो "एडल्ट" सर्टिफिकेट वाली थी!
    जो बीत गया सों तो गया, कब आएगा ब्लॉग जगत का वो स्वर्ण युग, जिसकी झलक, आस, उम्मीद, सूरत आपने लाल रंग के नोट में लपेट के दिखा डी है!!

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  4. अरे ये अप्रूवल फिर चालू!!
    कैरी ऑन!! (बकौल गोपी नाथ गंडोत्रा, हवलदार शैतान चौकी मातहत चंद्रमुखी चौटाला)

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  5. घर-घर की कहानी, संदर्भ भी किस तरह उचट कर फिट हो जाता है.

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  6. लगा आज लिखी पोस्ट.....सबकुछ सेम टू सेम ...इतने साल बाद भी ....

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