रविवार, मई 11, 2014

’भुड़’


बचपन का समय और गर्मियों की छुट्टियों के दिन रात, यानि सोने पर सुहागा। सारा दिन कोई काम नहीं होता था लेकिन इतनी व्यस्तता कि पूछिये मत। न खाने का कोई तय समय था और न सोने का, नियत समय तो खेलने का भी नहीं था लेकिन वो मैनेज कर ही लेते थे और मन फ़िर भी नहीं भरता था। ऐसे ही एक दिन सुबह-सुबह पार्क में थे और एक दोस्त ने घास से कोई बड़ा सा कीड़ा अपनी मुट्ठी में लिया और बड़े प्यार से आकर ’जीते’ की जेब में डाल दिया। पिछली रात देर तक किये धमाल के चलते ’जीता’ अभी पूरी तरह से चैतन्य नहीं था लेकिन चूँकि ये पाकेटभराई की ही इस तरह से गई थी कि उसे पता चल जाये तो अनमने से होकर जब उसने जेब में हाथ डालकर उस कीड़े को बाहर निकाला तो उसकी नींद कोसों दूर भाग गई। जोर से उछलते हुये उस दोस्त को और कीड़े को एक तगड़ी सी गाली दी। कीड़े ने तो कोई प्रतिक्रिया दी नहीं, चुपके से खिसक लिया लेकिन दोस्तों ने बात को नहीं छोड़ा।  दो ग्रुप बन गये, एक का कहना था कि छोटा सा मजाक ही था और गाली देकर ’जीते’ ने गलत किया है। दूसरे ग्रुप ने उस कीड़े को उस समय की हमारी कल्पनाओं की उड़ान में सबसे खतरनाक कीड़ा सिद्ध करके ’जीते’ को विक्टिम और उसकी गाली को विरोध प्रकट करती एक सामान्य प्रतिक्रिया सिद्ध कर दिया। बहरहाल नूरा कुश्ती में टाईम बढ़िया पास हो गया और लुच्चा-पार्टी लौटकर घर को आ गई। इस सब घटनाक्रम में उस कीड़े का नामकरण हुआ, ’भुड़’..

आने वाले कुछ दिनों में कभी न कभी उस ’भुड़’ की  बात छिड़ ही जाती थी। हमारा ’जीता’ ज्यादा चलता-पुर्जा लड़का नहीं था तो जब भी उस ’भुड़’ के खतरे बताये जाते थे, वो थोड़ा गंभीर होकर सुनने लगता था। बात काफ़ी पुरानी है, घरों में एसी तो क्या कूलर भी नहीं होते थे। इन्वर्टर का सवाल ही नहीं तो सरकारी वाली बिजली आये या जाये, परवाह नहीं। ले देकर पूरी गली में सिर्फ़ एक कार थी, वो भी बेचारी कितनी जगह घेरती? मतलब मौका भी होता था और दस्तूर भी, खासकर छुट्टियों में बच्चा-पार्टी देर रात तक गली में कभी कबड़ी, खो-खो,  घोड़ी(छोटी घोड़ी और वड्डी घोड़ी, लगभग एक ही खेल के दो अलग अलग फ़ार्मेट) खेला करते, खूब हो-हल्ला मचता, झगड़े होते, चोटें भी लगतीं लेकिन ’शो मस्ट गो-ऒन’ होता रहता। थक हारकर घरों के बाहर बिछाई चारपाईयों पर गिरते और सो जाते थे क्योंकि अगली सुबह फ़िर जल्दी से उठकर किसी खेल के मैदान या पार्क में जाना होता था।

ऐसी ही एक रात थी, ’जीता’ सो गया था लेकिन शेष दोस्त सब जाग रहे थे। उसी भुड़ वाले दोस्त को जैसे कुछ याद आ गया हो, जाकर उसने सोते हुये जीते को झिंझोड़ कर उठाया और उसके कान में बोला, "जीते, तेरी बनियान में भुड़"  हड़बड़ाया हुआ जीता कूदकर खाट से उठा और बनियान उतारकर बाजू उठाकर कभी इधर और कभी उधर उस ’भुड़’ को ढूँढ़्ता रहा जो कहीं थी ही नहीं। हममें से दो-चार वालंटियर भी मौका देखकर हाथ साफ़ कर गये और चली गई, चली गई का नारा भी लग गया।  फ़िर से दो ग्रुप बन गये, एक ग्रुप कह्ता था कि बेचारे ’जीते’ की नींद खराब कर दी जबकि कोई ’भुड़’ थी ही नहीं और दूसरा ग्रुप बताता कि ’भुड़’ बिल्कुल थी, वो तो समय पर लिये गये एक्शन के चलते भगा दी गई, इसलिये थोड़ी सी नींद खराबी कोई महंगा सौदा नहीं है। जो ग्रुप कह रहा होता कि ’जीते’ बेचारे को क्यों परेशान करते हो, वो बुरा बना और जो ग्रुप मजे ले रहा था, ’जीते’ की सहानुभूति और निष्ठा उसी ग्रुप के साथ ज्यादा रही। हम तब बच्चे थे, उसकी हालत देखकर हम हँस-हँसकर दोहरे होते जाते थे। फ़िर गाली-पुराण शुरू हुआ, हम सब उसका श्रवण करते रहे और इस तरह अपनी छुट्टियों का सदुपयोग करते रहे। मजे की बात ये थी कि हर चार-पांच दिन के बाद ये सब दोहराया जाता, ’भुड़’ ने एकाध बार तो अपनी जगह भी बद्ली और ’जीते’ के पाजामें में घुसपैठ कर गई। मुझे तो लगता है कि उस दिन हमारे सीधे-सरल मित्र के पाजामे का नाड़ा खुलने में हुई देर के चलते ही दुनिया में पाजामे में इलास्टिक लगाने का चलन शुरू हुआ होगा।

अब हम हो गये हैं बड़े, बाबे दी फ़ुल्ल किरपा है हमारे ऊपर इसलिये वो सब लुच्ची हरकतें नहीं करते। हमारे बच्चे अब गली में नहीं खेलते। खेलने की जगह भी नहीं और खेलने वाले भी नहीं और अगर हों भी तो हम नहीं खेलने देंगे। मैं तो डर ले मारे उन्हें ये किस्से भी नहीं सुनाता कि कहीं मुझे एकदम से टुच्चा या लुच्चा न समझ बैठें।  ’भुड़’ नाम ही कितना अजीब सा लगता है, अल्पज्ञानी तो इसे गाली ही समझ सकते हैं इसलिए न तो इसका नाम आज तक बच्चों के सामने बोला है और न ही आगे कभी बोलना है। मान लेने को दिल करता है कि जमाना बदल गया है, तरीके बदल गये हैं, तकनीकें बदल गई हैं। 

अब कहीं कोई शरारती बच्चा किसी सीधे-सादे दोस्त को सोते से यह कहकर नहीं जगाता होगा कि तेरी बनियान में ’भुड़’। लेकिन अपने इस कुटिल दिल का कुछ नहीं कर सकता जो देखता है और भाँप लेता है कि अगला कदम क्या होगा जब बच्चे नहीं बल्कि बड़े नामी नेता/ठेकेदार किसी एक ’जीते’ को नहीं बल्कि जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को झिंझोड़कर किसी एक पार्टी या नेता का नाम लेकर डरा रहे होते हैं कि वो आ गया तो ऐसा हो जायेगा और वैसा हो जायेगा। वोट बैंक का वो हिस्सा जैसे नींद से जागकर अपेक्षित क्रियायें करता है और फ़िर दो गुट बन जाते हैं, एक कह रहा होता है कि बेकार में बेचारे को क्यों डराते हो और दूसरा गुट कह रहा होता है कि हमने समय पर चौकन्ना कर दिया, इसलिये बच गया नहीं तो...। ये देखकर मुझे अपने बचपन का ये किस्सा याद आ जाता है, ’जीते’ को हम चिल्लाकर उठा रहे हैं, "जीते, तेरी कमीज में भुड़" 

सच है कि अब के बच्चे ’भुड़’ वाली शरारतें नहीं करते, ये टुच्ची हरकतें हम जैसे लोग ही कर सकते हैं।