रविवार, फ़रवरी 08, 2015

सकारात्मक नजरिया बोले तो ’Positive Attitude’ ...

वंस अपॉन अ टाईम दी गल्ल है जी, हम क्रिकेट के खेल के शौकीन हुआ करते थे।  इस नाचीज के सिवा गली के लगभग सब हमउम्र लड़के एक ही स्कूल में पढ़ते थे। हमारे बालपन के समय में बाप सचमुच के बाप होते थे, औलाद को खिलाते थे जमाई की तरह और देखते थे कसाई की तरह। कान पकड़कर जिस स्कूल में दाखिल करवा दिया, वहीं पढ़ना पड़ता था। अब उनका स्कूल अलग्, हमारा अलग। उनके कोर्स अलग, हमारे अलग। उनकी परीक्षाओं का शेड्यूल अलग, हमारा अलग। जैसे तैसे टाईम मैनेजमेंट करके काशी और काबा दोनों को साधे रखने में सारा बचपन गुजर गया :(   मुझ मासूम का नन्हा सा दिल गली के लड़कों की मस्तियाँ देखकर अपने स्कूल के संस्कार वगैरह भूल जाने को मचलता था, खूब कल्पनायें करता था कि कुछ ऐसा चमत्कार हो जाये कि मुझे भी पिताजी उसी सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दें तो दिन रात इन लड़कों का साथ नसीब हो जाये। मगर होनी को ये मंजूर नहीं था तो नहींं था। खींचतान करके शाम का जो थोड़ा सा समय उन समव्यस्कों के साथ निकल पाता था, उसीमें गुजारा करना पड़ता था। कोढ़ में खाज तब पड़ी जब पता चला कि जिन दिनों में क्रिकेट शृंखला होनी है, उन्हीं दिनों में सद्दाम हुसैन के देशी संस्करण(हमारे तत्कालीन प्रिंसिपल साहब ने) पता नहीं कौन सी परीक्षाओं का कार्यक्रम बना रखा था। हमारा पक्का विश्वास था कि ये हमें वक्त के साथ न चलने देने की हिन्दुत्व वालों की साजिश थी।  लेकिन जैसा उस समय के बाप लोगों के बारे में ऊपर बताया, उस समय के प्रिंसिपल भी सचमुच के प्रिंसिपल होते थे इसलिये मन मारने के सिवा कोई चारा नहीं था।

दोस्तों के साथ व्यतीत किये जाने वाले समय में बहुत कटौती हो गई थी। कभी कभार राह चलते टकरा जाने पर छुटपुट जानकारी मिल भर जाती थी। पता चल रहा था कि हमारी टीम में सारे ही खिलाड़ी उस समय कारनामे दिखा रहे थे। यशपाल शर्मा, बिन्नी, मदन लाल, कपिल देव, अमरनाथ - कहने का मतलब ये कि हर मैच में कोई न कोई ऐसा काम कर जाता कि भारतीय टीम की नैया डूबते डूबते भवसागर पार कर ही जाती थी। गली के सब लड़कों ने कोई न कोई अपना फ़ेवरेट क्रिकेटर बाँट रखा था और हर नये मैच के लिये इस खिलाड़ी की परफ़ोर्मेस को लेकर बहसें छिड़ी रहती थीं।

’होर वड़ो’ वाले दारजी  के लड़के आपस में भले ही हर समय लड़ते भिड़ते रहते हों, एक मामले में दोनों एकमत थे - फ़ेवरेट खिलाड़ी दोनों ने एक ही फ़िक्स कर रखा था और वो था बलविंदर सिंह संधू। एक बहुत ही इंपोर्टेंट मैच होने वाला था और दोनों सिंह साहबान इस बात
 पर अडिग थे कि इस बार संधू ने कमाल करना ही करना है। "ओये तुस्सी नईं जानदे, संधू एकल्ला ही सामने वाल्यां दी ऐसी तैसी कर देगा, चरस बो देगा।" उनकी बात को वजन इसलिये भी दिया जाता था कि जिस रेडियो पर सब मैच सुनते थे, वो उनका ही था।  लड़के उन्हें बहुत छेड़ते थे कि संधू के नाम में सिंह न होता तो तुमने कभी उसका समर्थन नहीं करना था और दोनों वीर कभी भी इस बात से सहमत नहीं होते थे। संयोग की बात ये हुई कि जिस दिन वो मैच होना था, मेरी आखिरी परीक्षा उसी दिन थी। शाम को अपन रिलेक्स थे, मन में थोड़ी सी उत्कंठा थी तो संधू की परफ़ोर्मेंस और उस पर आने वाली प्रतिक्रियाओं की। पता चला कि संधू ने आते ही पहली गेंद पर चौका लगाया और दूसरी गेंद पर आऊट। मंडली में सिंह शावकद्व्य अभी आये नहीं थे और असिंह लड़के भन्नाये बैठे थे कि हमारे देसी सिंह उसकी इतना तारीफ़ करते थे और सरदार चार रन बनाकर आऊट हो गया।

राह तकते रहे और दोनों वीर प्रकट हुये। जैसे मौसम वाले सुनामी की पूर्वसूचना दे देते हैं, उन्हें भी सूचना मिल गई थी कि आज लड़के भड़के बैठे हैं और संधू ने सामने वाली टीम की ऐसी-तैसी नहीं की इसलिये आज इनकी ऐसी-तैसी होनी तय है। उनके आते ही माचो और भैंचो जैसे सामूहिक स्वस्तिवचन बोले गये और जी भरके भड़ास निकाली गई। दोनों वीर चुपचाप खड़े रहे। जब लड़कों का गुस्सा कम हो गया तो फ़िर बड़े वाले ने कहा, "एक गल्ल त्वानूं सब्नूं मननी पऊगी कि साड्डे संधू ने वनडे मैच दे मह्त्व नूं पूरी तरां समझ्या सी। आंदे ही चौका मारया ते अगली गेंद ते आऊट हो गया, साड्डे शेर ने गेंदां खराब नईं कीत्तियां।" हम सब फ़िर से एकबार हँसते-हँसते गुत्थमगुत्था हुये और फ़िर अगले मैच की बातें शुरु हो गईं। बंदे का सकारात्मक नजरिया जान समझकर लाईव मैच न सुन पाने का अपना सारा अफ़सोस धुल गया।

सीधी सी बात ये है कि नजरिया सकारात्मक होना चाहिये। अब देखिये, दिल्ली के चुनाव हो चुके और एग्ज़िट सर्वे भी आ चुके। चुनाव तो दिलचस्प थे ही, रिज़ल्ट आने के बाद एक बार भसड़ मचनी तय है।   हमें इंतजार रहेगा हारने वालों के पोज़िटिव एटिच्यूड की। अपना बता दूँ कि हमने वोट उसे दिया है जिसे exit polls में बहुमत से बहुत पीछे दिखाया जा रहा है। हम हार गये तो यह सोचकर दिल को बहलायेंगे कि पानी फ़्री, बिजली का बिल आधा, इसके अलावा महीने में डेढ से दो हजार तो नेट का खर्चा ही बचना तय है। आगे के लिये अपने बच्चों को भी यही सिखायेंगे कि मुफ़्तखोरी के जो सबक सीखने में तुम्हारे बाप को पैंतालीस साल लगे, लोकतंत्र के इस महत्व को समझने में तुम गेंदें खराब मत करना। हथेली फ़ैलाना समय से सीख लो, इससे बड़ी ईमानदारी और कोई नहीं।

है न पोज़िटिव एटीच्यूड ?