शनिवार, सितंबर 12, 2020

जबसे जनमे चन्दर भान

 मैं बाला साहब ठाकरे का प्रशंसक था। ब्लॉग समय में मेरे अनेक मित्रों ने, जिन्होंने दुनिया मुझसे अधिक देखी है, कहा कि मैं गलत हूँ। मैं सीनियर ठाकरे का प्रशंसक बना रहा। दो कारण थे, 

1. जन्मभूमि आन्दोलन चलाने वाली पार्टी के नेता ढांचा गिरने के बाद आंय-बांय करने लगे थे, बाल ठाकरे ने खुलकर कहा कि यह कार्य उनके लोगों ने किया है।

2. मैं बाल ठाकरे को मुस्लिम गुंडागर्दी को एक सक्षम चुनौती देनेवाले केन्द्र के रूप में देखता था।

पहले बिंदु पर बताना चाहता हूँ कि सद्दाम हुसैन, ओसामा जैसे अनेक ऐसे लोग हुए हैं जिनके उद्देश्यों का विरोधी होते हुए भी मैं प्रशंसक रहा हूँ कि वो जो करना चाहते थे या करते थे, उसे कहते भी थे। मनसा-वाचा-कर्मणा में किसी के मन में क्या चलता है, इसकी थाह लेना कठिन है किन्तु इनके कर्मों व कथनों में एकरूपता थी।

दूसरे बिन्दु पर कहूँगा कि वह सूचनाओं के एकपक्षीय प्रवाह का प्रभाव था। तब के समाचार पत्रों/पत्रिकाओं आदि से जो जानकारी मिलती थी, उसकी पुष्टि का कोई साधन मेरे पास उपलब्ध नहीं था। महाराष्ट्र का कोई मित्र भी नहीं था।

कालांतर में बाल ठाकरे चले गए, नए *चन्दरभानों* ने उनका स्थान ले लिया। इधर संचार-क्रांति के चलते सूचनाओं का प्रवाह बढ़ा, महाराष्ट्र के मित्र मिलते गए, इनकी पृष्ठभूमि आदि के बारे में ज्ञान भी बढ़ा। अपनी मूर्खताओं से ये लोग मन से उतर ही रहे थे, अब संगति के प्रभाव से उन पर केवल मुहर लग रही है।

*नाते में मेरे चाचा लगते एक को देखकर मेरे दद्दू कहा करते थे - 'जबसे जनमे चन्दर भान, चूल्हे अग्ग न मन्जी बान।' मन्जी हमारे यहाँ खाट को कहते थे/हैं। किसी अपने का नाम resemble कर जाए तो इसे संयोग मात्र मान लीजिएगा।*