रविवार, जनवरी 26, 2020

तुम ले के रहना आज़ादी

15 अगस्त,1947 से कुछ माह पहले तक यह स्पष्ट होने लगा था कि धर्म/भाषा के आधार पर देश का विभाजन होगा। इस अनुमान की स्पष्टता सबसे अधिक उन लोगों के समक्ष थी जो राजनीतिक स्तर पर सक्रिय या कहें कि जागरूक थे, उनके बाद उन लोगों के समक्ष जो आज के भारत-पाक बॉर्डर के निकटवर्ती क्षेत्रों के निवासी थे। विभाजन से प्रभावित हुए सब लोग राजनीतिक स्तर पर बहुत जागरूक नहीं थे, सब लोग इन क्षेत्रों के निवासी भी नहीं थे। अधिसंख्य हिन्दू मोहनदास करमचंद गाँधी के आभामण्डल से इतने सम्मोहित थे कि मन ही मन 'विभाजन मेरी लाश पर होगा' को ब्रह्मवाक्य माने बैठे थे। यह सम्मोहित होना एक प्रकार की निर्भरता का प्रतीक है कि हमने तुमपर अपना दायित्व सौंपकर अपना कर्तव्य कर दिया है। गाँधी की यह छवि सबको suit भी करती थी, अंग्रेजों और मुसलमानों को भी। विभाजन हुआ और कितना शांतिपूर्ण या रक्तरंजित हुआ, यह हम जानते हैं।
धर्म के आधार पर अलग जमीन किसकी माँग थी? वह माँग पूरी होने के बाद भी कौन  सा पक्ष असन्तुष्ट रहा और कौन सा पक्ष इसे एक दुःस्वप्नन मानकर आगे बढ़ने को प्रतिबद्ध रहा? 
मुझे लगता है कि अभी तक हठधर्मिता दोनों पक्षों की लगभग एक समान रही है। वो सदा असन्तुष्ट रहने पर अड़े रहे हैं और हम लुट पिटकर भी सन्तुष्ट होने पर अड़े रहे हैं। दोनों पक्षों की भीड़ की इस मानसिकता, मनोविज्ञान को सबसे अधिक उन लोगों ने समझा है जो जानते हैं किन्तु मानते नहीं। जानते हैं कि दोनों पक्षों में अपेक्षाकृत उत्तम कौन है इसलिए उसे त्यागते नहीं, जानते हैं कि दोनों पक्षों में अपेक्षाकृत निकृष्ट कौन है इसलिए उसे अप्रसन्न नहीं करते। उस पक्ष के लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुखौटा चढ़ाकर AMU में हिंदू की कब्र खुदने की बात कहते हैं, खिलाफत 2.0 के आगाज़ के नारे लिखते हैं, असम को देश से काटने की बात कहते हैं, देश के कानून को न मानने की बात कहते हैं, कश्मीर की आज़ादी मांगते हैं, बंगाल की आज़ादी मांगते हैं और हमारे बीच के 'जानने किन्तु न मानने वाले' हमें बताते हैं कि इन्हें प्यार से समझाया जाना चाहिए, बैठाकर इनसे बात की जानी चाहिए। 
हर नए दिन यह और अधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि अंततः हठधर्मिता हमें ही त्यागनी होगी, हम ही त्यागेंगे। तुम अपने नारों, बयानों पर टिके रहना। इस बार तुम्हारी ताल से ताल मिलाई जाएगी -
तुम ले के रहना आज़ादी,
हम दे के रहेंगे आज़ादी...