मंगलवार, अक्तूबर 09, 2012

का बरखा जब.....

छोटे से एक प्रदेश में एक महीने में ग्यारह बलात्कार के ज्ञात केस, परफ़ार्मेंस  देखकर समझ नहीं आता कि गर्दन नीची होनी चाहिये  या छाती चौड़ी?

ताजातरीन मामले  में सोलह साल की एक लड़की ने उसके साथ हुये बलात्कार के बाद आत्महत्या कर ली। पीड़िता एक दलित परिवार से संबंध रखती थी। पूरी कहानी अभी सामने आई नहीं और शायद आयेगी भी नहीं।

टीवी पर अभी अभी यू.पी.ए. अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गाँधी के पीडि़त परिवार के घर पर किये गये दौरे का  लाईव प्रसारण  देखकर हटा हूँ। उनके साथ हरियाणा के मुख्यमन्त्री श्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और केन्द्रीय मन्त्री सुश्री शैलजा थीं। संवेदनायें जीवित होतीं तो यकीनन मान लेता कि पीड़ित परिवार, समाज और सभ्यता के जख्मों पर मरहम लग गया होगा लेकिन अपने ऊपर वाले माले में  कुछ कैमिकल लोचा जरूर  है, हर चीज में कुछ हटकर लगता है।  ऐसा लगता है जैसे किसी शहीद की मजार पर मेला लगा हुआ था, पुलिस-मीडिया-प्रशासन चाक-चौबंद था। साँस्कृतिक मामलों की  मन्त्री साथ थीं और सूबे के मुख्यमन्त्री महोदय भी साथ थे जिनके अपने कुछ दिन पहले तक के गृहमन्त्री  ऐसा ही एक मामला पहले से  भुगत रहे हैं।

रिपोर्टर बता रहे थे कि प्रशासन पूरी तरह से इस दौरे के लिये तैयार था। सड़क साफ़ करवा दी गई थी क्योंकि सोनियाजी आने वाली थीं। रात दस बजे उस घर में बिजली का कनैक्शन दे दिया गया था क्योंकि सुबह सोनियाजी आने वाली थीं। उस छोटे से घर में गद्दे, दरियाँ तक बिछवा दिये थे प्रशासन ने, क्योंकि..। वैलडन प्रशासन, अगली बार भी ऐसे ही तैयार रहना बल्कि उचित लगे तो एक अलग विभाग ही इस काम के लिये बना देना जो इन दरियों और गद्दों को मैनेज करे, एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा दे।

हमेशा की तरह स्टूडियो से सवाल पूछे जा रहे थे, ’वहाँ  कैसा माहौल है? क्या लगता है वहाँ की जनता को? प्रशासन कुछ सबक लेगा? सोनियाजी के दौरे से इन घटनाओं पर कुछ असर होगा कि नहीं?’ और हमेशा की तरह जनता अपने बयान दे रही थी। बाद में यही लोग इन बाईट्स के स्टिल्स फ़्रेम में सजाकर रखेंगे।

लगता है वो दिन भी दूर नहीं जब मेडिको-टूरिज़्म की तरह सेक्सुअल असाल्टो-टूरिज़्म भी शुरू हो जायेगा। सरकारजी, आईडिया पकड़ो फ़टाफ़ट। तीन दिन और दो रात का पैकेज इतने का और पांच दिन और चार रात का पैकेज इतने का।   डॉलर आयेंगे भाई, जी.डी.पी. बढ़ेगी, देश-प्रदेश  का लोहा-लक्कड़ सारी दुनिया मानेगी। फ़िर इसमें भी विदेशी निवेश आमन्त्रित कर देना। Come on, be a part of the game. Peel the feel, feel the feel by yourself.

स्तब्ध, हतप्रभ,  किंकर्तव्यमूढ़, ठगे हुये जैसा महसूस नहीं कर रहे आप? मैं करता हूँ। चुप रहा नहीं जाता और कुछ कहा भी नहीं जाता। 

दोष किसे देना चाहिये?

नेताओं को?  जो हँसकर कहते हैं कि जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है और वो कुछ दिन में सब भूल जाती है...
या फ़िर  कानून को? जो वो डंडा है जो सबल के हाथ में  निर्बल के लिये है........
बदलती शिक्षा व्यवस्था को? जो परसेंटाईल मूल्य तो सिखाती है लेकिन जीवन के मूल्य आऊट ओफ़ सिलेबस बताकर  स्किप कर जाती है,,,
या खुद को?  जो ये  देखते हैं कि जुल्म के  भागीदार कौन है और उसके बाद ही अपना पक्ष तय करते हैं...
या फ़िर व्यवस्था को? जिसके हम सब पुर्जे हैं...

अजीब अजीब बयान और अजीब अजीब ब्रेकिंग न्यूज़ हैं - ग्यारह  मामलों में से ज्यादातर मामले दलितों से संबंधित बताये जा रहे हैं,  अगर संबंधित दलितों के मामलों की  प्रतिशत कुल जनसंख्या में उनकी आबादी के प्रतिशत के अनुरूप होती तो कोई बात नहीं थी?    

दिमाग भन्नाया रहता है ये सब देख सुनकर। जब दूर बैठे हम लोगों का ऐसा हाल हो सकता है तो जिन पर ये सब बीत रहा है, वो कैसा महसूस कर  रहे होंगे? 

सभी पीड़ित पक्षों और उनके परिवारों के साथ सहानुभूति रखते हुये यही कामना है कि सबको  न्याय मिले और  भविष्य में  ये सब कवायद करने की जरूरत न ही पड़े तो अच्छा। अपराध हो जाये और उसके बाद चाहे UPA अध्यक्षा मरहम लगाने पहुंचे या UNO का जनरल सेक्रेटरी, जो चला गया वो लौटता नहीं।

124 टिप्‍पणियां:

  1. MAARMIK प्रस्तुति बुधवार के चर्चा मंच पर ।।

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  2. जो धन और श्रम सान्तवना के लिए फूंका जाता है वह यदि सुरक्षित वातावरण तैयार करने में लगता तो ऐसी कईं घट्नाएं घटने से रूक सकती थी।

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  3. आ. सञ्जय जी.... आपका लेखन 'नये तरीके से' जागरुकता लाएगा.... समय ने आपको भी 'चिपलूनकर' जैसा पत्रकार बना दिया... इतना बारीकी से देखते हैं हर घटनाक्रम को.... और निकाल लाते हैं उस हकीकत को जो परदे में छिपायी गयी है.

    सुज्ञ जी की बात से सहमती रखता हूँ.

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    1. क्या प्रतुल भाई, कहाँ सुरेश भाऊ और कहाँ मैं? वैसे साल भर पहले एक बार घड़ी दो घड़ी की संगत हो चुकी है, उन्हें पता नहीं याद है कि नहीं लेकिन मैं नहीं भूला। मैं उन जैसा हार्डकोर नहीं लेकिन स्पष्टता से बात कहने की उनकी शैली का कायल हूँ।
      सुज्ञजी से असहमत होना आसान नहीं।

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  4. एक बड़ा सा कोण छुट गया आप से समाज का क्या रवैया है इन घटनाओ के प्रति , इन घटनाओ के बाद खाप पंचायतो ने कहा की वो सरकार से कहेंगे की वो उन्हें १५ साल की लड़कियों की शादी करने की छुट दे उसी के कारण ये घटनाए हो रही है , इसी तरह का नजारा और सोच आप महिलाओ के प्रति लड़कियों के प्रति ब्लॉग जगत में भी देख चुके है , समाज की सोच से कौन सी कानून व्यवस्था लड़ सकती है , दूसरी है दलितों के प्रति समाज की सोच, यहाँ ब्लॉग जगत में मैंने कितनी बार देखा की आप के विद्वान होने ना होने के लिए ये देखा जाता है की आप के नाम के बाद क्या सरनेम लिखा है , कुछ लोगों को इस बात पर अकड़ते हुए देखा है खुद को विद्वान समझते देखा है क्योकि उनके नाम के बाद वो सरनेम है | जब ब्लॉग जगत में जहा सभी पढ़े लिखे समझ रखने वाले लोग है तो ये हाल है सोचिये किसी गांव खेड़े में किसी दलित लड़की के प्रति लोगों की क्या सोच होती होगी | कानून व्यवस्था तो जरुरी है ही उसके बिना तो कुछ भी संभव नहीं है किन्तु उतना ही जरुरी है की समाज, लोगों की सोच महिलाओ के प्रति दलितों के प्रति बदले |

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    1. शत-प्रतिशत सहमत हूँ आपसे अंशु जी. यह भी एक वजह है जिस कारण मैं अब इधर पहले की तरह सक्रीय नहीं हूँ.

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    2. अंशुमाला जी,
      सीमित सोच, सीमित अभिव्यक्ति में बहुत कुछ छूट जाना स्वाभाविक ही है। विस्तार में जाने पर रायता ज्यादा ही फ़ैलने का चांस रहता है। रही बात खाप पंचायतों की तो हर व्यक्ति और हर संस्था अपने अनुभव, अपने ज्ञान, अपने संसाधनों के अनुरूप ही सोचता\सोचती है। जरूरी नहीं कि वो सोच सही ही हो। यही बात समाज और ब्लॉगजगत के सरनेमिया विद्वानों के लिये भी मान सकते हैं। हम तो न इधर के हैं और न उधर के, पर उनकी परवाह भी उतनी ही करते हैं जितने के कोई लायक लगें। गलत सोच बदलनी चाहिये, मैं भी मानता हूँ बस मैं इसे किसी विशेष जाति, धर्म, लिंग में बाँधकर नहीं सोच पाता कि किसी पंजाबी या ठाकुर या पुरुष ने ऐसा कहा है तो मुझे उसका समर्थन ही करना है।

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    3. प्रिय प्रशांत, ’इधर’ से अभिप्राय ब्लॉग जगत से मान रहा हूँ। अगर यह ’इधर’ इस ब्लॉग के लिये है, तब भी कोई दिक्कत नहीं है बस वो उद्धरण क्वोट कर देना जिससे इस वजह को वजन मिला। ये व्यक्तिगत अनुरोध है, क्योंकि अपने तईं मैंने कभी ऐसा किया नहीं।

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    4. पहले मुझे भी यही लगता था कि विशेष जाति लिंग या वर्ग या साहित्य में दखल रखने वाले या हिंदी को बढ़ावा देने की बात करने वालों में ही विद्वता को लेकर घमंड होता है और वो दूसरों को कमतर समझते हैं लेकिन धीरे धीरे ये गलतफहमी दूर हो गई जब देखा कि दूसरों में भी खुद को कोई ऊँची चीज मान लेने का भाव है और वो लोग भी जरा से विरोध पर आपा खो बेठते हैं जो कथित दलित वर्ग से है उन्हें भी जरा असहमति बर्दाश्त नहीं है जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं है और जो हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट के भी विरोधी नहीं बल्कि समर्थक है।वहीं ये भी कोई जरूरी नहीं कि कोई ठाकुर या शर्मा उपनामधारी यदि घमंड कर रहा है तो जरूर इसी वजह से कर रहा है कि वह किसी ऊँची माने जाने वाली जाति से है।कई बार यहाँ ये भी तो होता है कि मुद्दा चाहे जो हो किसी बात पर असहमत होने पर जबरदस्ती उसे दलितवाद के नाम पर उलझाया जाता है और असहमत होने वाले के नाम के पीछे यदि सिंह या शर्मा आदि लगा होता है तो केवल इस वजह से उसे भी दुनिया जहान की बातें सुना दी जाती हैं फिर चाहें विरोध करने वाले के दिमाग में ये बातें हो ही नहीं।मोहल्ला विस्फोट नवभारत जैसी साईट्स पर तो ये अक्सर होता हैं

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    5. राजन, वजह यही है कि अपने पूर्वाग्रहों से हम मुक्त नहीं हो पाते और मौका मिलते ही वैसा व्यवहार करने लगते हैं जिसको हम अनुचित मानते रहे हैं। अपनी नौकरी के दौरान बहुत बार ऐसा देखने को मिला, कभी लिखना है इस विषय पर भी।

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    6. संजय जी

      मुझे नहीं लगता है की आप की सोच सिमित है, खबर आप की नजर में नहीं आई होगी । लोगो को अनदेखा करेंगे तो लोगो की सोच नहीं बदलेगी और ये सब कुछ बार बार होता रहेगा और हम सब बार बार पोस्टे लिखते रहेंगे , जब हम सब मिल कर साफ कहेंगे की ये सब चीजे बर्दास्त नहीं होगी तभी बंद होगा , सोच बदले या न बदले कम से कम ऐसे लोगो का मुंह बंद रहेगा , जो कई बार अपना बड़ा मुंह खोल कर कई अन्य लोगो की सोच को भी प्रभावित करते है और कई डरपोक लोगो को भी ये सब कहने का बढ़ावा दे देते है , यदि हम इतने छोटे से ब्लॉग जगत को ही इन चीजो से दूर नहीं कर पाएंगे तो पुरे समाज और देश से क्या उम्मीद करे , यदि हम सभी अपने छोटे छोटे कार्य क्षेत्रो को थोडा भी बदल दिए तो समाज अपने आप बदल जायेगा , इसलिए कभी कभी विरोध करना जरुरी होता है केवल इसलिए नहीं की हम सामने वाले को पसंद या नापसंद करते है बल्कि इसलिए की वो गलत कह रहा है ।

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    7. राजन जी

      दलितों को ले कर कही गई आप की बात से कुछ हद तक सहमत हूँ कोफ़्त होती है की उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में आम्बेडकर की मूर्ति के टूट जाने से जो दलित वर्ग पुरे देश में गुस्से से भर जाता है तोड़ फोड़ करता है , मुंबई में एक मिल में आम्बेडकर की स्मारक बनाने के लिए आन्दोलन करता है वो दलित वर्ग और उसके तथाकथित नेता ये सब देख कर क्यों नहीं आंदोलित होते है क्यों नहीं आन्दोलन करते है , क्या उन्हें इसमे अपना कोई अपमान नहीं दिखता है । असल में तो दलित महिला समाज के सबसे निचले पायदान पर है जिसकी परवाह उसका अपना समाज भी नहीं करता है और हर वर्ग अपनी सुविधा अनुसार उसका शोषण करता है और उसे इंसाफ दिलाने के लिए कोई भी आगे नहीं आता है ।और पुरे समाज पर गुस्सा इस बात पर आता है की हमें ये कैसा समाज बनाया है जहा एक अपराध से पीड़ित ही समाज से डर कर आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है क्योकि समाज कहता है की हर पुरुष के अन्दर एक जानवर होता है और उसे कोई भड़कायेगा तो जानवर बाहर आएगा ही , मतलब गलती अपराधी की नहीं है गलती पीड़ित की है , और इस तरह का राजनैतिक मजमा लगा कर आप ये दिखाते है की देखिये यही वो अपराधी लड़की है । नतीजा क्या होगा देखिएगा अपराध में तुरंत कमी आएगी क्योकि अब तो रिपोर्ट ही नहीं लिखे जायेंगे ।

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    8. अंशुमाला जी,
      आपकी विरोध वाली बात से सहमत हूँ और मुझे लगता है कि अपने अपने स्तर पर हम ऐसा करते भी हैं, हाँ कुछ विरोध बहुत मुखर नहीं दिखते जिसकी वजह बहुत सी हो सकती हैं। फ़िर से कहता हूँ कि विशेष रूप से यौन शोषण वाले मामले इतने सुलझे हुये नहीं होते और उनको होने से रोकना दो और दो चार जैसा सरल नहीं है। आसान यही है कि किसी के साथ दुराचार हो जाये और उसके बाद हम सब उसपर स्यापा करते रहें, ऐसा हो ही नहीं, इस बात पर सुझाव आते ही हम सब असहिष्णु हो जाते हैं, ये मुश्किल वाला काम है।
      राजन को संबोधित करके आपने जो कुछ कहा है, वो भी सही है और उस पर मेरा मानना ये है कि देश समाज के किसी भी वर्ग के साथ गलत होता है तो ये हम सबकी साझी परेशानी है न कि उस जाति विशेष या लिंग विशेष की।

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  5. जख्म तो जख्म ही रहेगा..मलहम चाहे कोई लगाये.

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  6. बेहतरीन सोच और प्रस्तुति , पिछले दिनो यूपी में मायावती के राज में किसी दलित की मृत्यू या बलात्कार पर आई जी रैंक के अधिकारी हैलीकाप्टर से उसके घर एक लाख का चैक देने आते थे जबकि हैलीकाप्टर का खर्च तो आपको पता ही होगा ।

    सरकार लोगो से होती है पर यहां तो शायद संवेदन हीन हो गयी है सरकारे

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    1. भाई, ऐसी ही सरकारों को सरकार मानते हैं हम लोग।

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  7. यह हर संवेदनशील लोगों को गहरे व्यथित करता है -और बाद का जमावड़ा मुझे पीपली लाईव की याद दिलाता है !

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    1. ’पीपली लाईव’ का उदाहरण एकदम सटीक है डाक्टर मिश्र,हर हाल में मरण नत्था का ही तय है।

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  8. संजय जी ये "रंडापा टाइप स्यापा " हैं और कुछ नहीं . बलात्कार नहीं होते हैं लडकियां खुद कपड़े उतार कर फंसाती हैं और मज़े लेती हैं . समाज में इतना कुछ अच्छा होता हैं आप को उसको देखना चाहिये , आप को समाज के प्रति संवेदन शील होना चाहिये , ये सब जो आप लिख रहे हैं वो भी "रंडापा टाइप स्यापा " हैं . औरते लडकियां , बच्चियां सब रांड की तरह रोती और अगर क़ोई नारी ये लिख देती हैं तो वो मजमा लगाती हैं लेकिन क़ोई पुरुष लिखता हैं तो संवेदनशीलता होती हैं .
    वैसे खबर में हैं की गाज़ियाबाद की एक लड़की के कपड़े उतारने की कोशिश उसके पुलिसकर्मी पिता ने की हैं , अब देखिये ये भी कितना अच्छा हैं ना , घर की बात घर में रहे , अपनी लड़की , अपने साथ ही सोये , अपने ही बच्चे पैदा करे अपनी ही माँ की सौतन बने , कितना मज़ेदार खेल हैं ना और बाद में छिनाल और रंडी भी वही लड़की कहलाये

    क्या बेकार की समय बर्बादी हैं आप की ये पोस्ट . बिलकुल रंडापा टाइप स्यापा

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    1. @ रंडापा टाइप स्यापा
      हर मामले में व्यंग्य रचना जी ? नाराजगी त्रिवेदी जी पर, और प्रकटीकरण यहाँ , इस विषय में ? मानती हूँ की वहां जो हुआ वह ठीक नहीं था, शब्द को जस्टिफाय करने वाले सब ही जानते थे की शब्द के पीछे मंशा अपमान की थी, ऐसे ही "भोले अर्थों" में शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ था जैसा सब के सब भाषा का खेल rach kar साबित करने में लगे थे, किन्तु उसका इस पोस्ट के विषय से कोई सम्बन्ध नहीं है |

      @ संजय जी
      is post ke liye बहुत अच्छी पोस्ट तो नहीं लिख सकती, हाँ आभार आपका इस विषय से व्यथित होने के लिए, अपनी संवेदनाओं को मर न जाने देने के लिए |

      पता नहीं इस सब का इलाज क्या होगा, कैसे होगा ? राजनीति को लोग किस हद तक ले जा सकते हैं ? कि मौत भी वोट का खेल भर बन जाती है ? राजनीति और पब्लिसिटी स्टंट :(

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    2. रचना जी, आप इसे किसी टाईप का भी स्यापा कह सकती हैं। ये आपको या किसी को भी सुख दुख लेने के लिये नहीं लिखा है, हर कोई अपने तरीके से अपने समय का सदुपयोग करने को स्वतंत्र हैं।

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    3. शिल्पा जी, कृपया पूर्वार्द्ध को इग्नोर कीजिये, मैं भी कर रहा हूं।
      उत्तरार्ध की बात करते हैं तो शाम को टीवी पर विश्व की सबसे शक्तिशाली महिलाओं में से एक का एक और बयान आ रहा था जिसमें हरियाणा को क्लीनचिट देते हुये उन्होंने कहा है कि पूरे देश में ऐसा हो रहा है।
      मेरी पोस्ट के असली मतव्य को हाईलाईट करने के लिये आपका आभार, शायद मैं इसमें चूक गया था।

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    4. रचना जी ,आप भी ना -क्यों हैं ऐसी आखिर आप ??

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    5. जी शिल्पा जी समझा गयी की गिरिजेश , संजय और अनुराग के यहाँ कमेन्ट देने से पहले और उनके ब्लॉग पोस्ट पर अपनी राय देने से पहले आप की आज्ञा लेना जरुरी हैं क्युकी आप स्त्री पुरुष नहीं देखती हैं आप , सही के साथ खडी होती हैं . आप गलत को इग्नोर कर सकती हैं क्युकी आप की ऊर्जा नष्ट होती हैं अगर वो गलत पुरुष का लेखन हैं तो

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    6. रचना जी, आपकी समझदारी को प्रणाम. क्या अनैलिसिस किया है आपने... इस पोस्ट का विषय इतना सीरियस न होता तो स्माइलि होता यहां...

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    7. रचना जी,
      जैसा कि हमेशा से होता आया है, टॉपिक तो अब डाईवर्ट हो ही गया है। मैं पहले से ही मानता हूँ कि पर्सनल अजेंडे यहाँ ज्यादा महत्व रखते हैं। समझ नहीं पाया कि गिरिजेश और अनुरागजी इस सब में क्यों घसीटे गये हैं। समझ ये भी नहीं पा रहा हूँ कि गिरिजेश और अनुराग जी के बीच मुझे स्थान देने को हमेशा की तरह आपकी कृपा मानूँ या इसे व्यंग्य समझूँ। आपकी नजर में बेशक कोई कैसा भी हो, मेरी नजर में इन दोनों का स्तर मुझसे बहुत ऊपर है, इसलिये मैं खुद को odd man out मान रहा हूँ।
      किसी रेगुलर पाठक द्वारा किसी पोस्ट पर या उसपर आये कमेंट पर अपनी राय रखना कोई अचरज की बात तो नहीं, अगर शिल्पाजी ने ऐसा किया भी तो इसमें विशेष क्या है? वैसे मैंने खुद उन्के कमेंट के जवाब में उनसे अनुरोध किया था कि इसे इग्नोर कर दें और उन्होंने यह मान भी लिया था।
      प्रणाम तो खैर पहले भी कर चुका हूँ, फ़िर से प्रणाम पहुँचे।

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    8. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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    9. sanjay ji, and all other readers, i am very sorry for this, and apologise for my role in diverting the issue

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  9. १.बलात्कार हर जगह होते हैं. जिस जगह रपट दर्ज हो जाती है वहाँ अपराधों की संख्या में वृद्धि हो जाती है और फिर बवाल मचता है और इसी बवाल से बचने के कारण न जाने कितने ही बलात्कारों की रपट दर्ज नहीं की जाती.
    २.लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बलात्कार और बलात्कारियों की हिमायत है, जब तक हर एक अपराध की रिपोर्ट दर्ज न हो और उसके बाद कन्विक्शन न हो सके, दोनों ही मामलों में लाचार पर जुल्म है.
    ३.पेशबंदी में भी ऐसे मामले दर्ज कराये जाते हैं, लेकिन फिर इस सब के पीछे भ्रष्ट तंत्र होता है.
    ४.न्यायिक प्रक्रिया में सुधर न जाने कब होंगे.
    ५.बलात्कार के अधिकतर मामलों में पीड़ित के साथ क्या कुछ नहीं होता, पीड़ित तो बलात्कार से शारीरिक रूप से जुल्म सहता है और उसके बाद मानसिक रूप से.
    ६.क्या कभी न्यायिक प्रक्रिया और पुलिस के दृष्टिकोण में सुधार आएगा. भारतीय नागरिक

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    1. जी सर, इसीलिये मैंने ज्ञात मामले कहा था।
      कानून तो मेरे ख्याल से सक्षम है, उसका implementation & execution सही तरीके से हो जाये तो बात बने।

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  10. अब क्या बताएँ खासकर महिलाओं के प्रति अपराधों को तो मजाक ही बनाकर रख दिया है।पुलिस प्रशासन और समाज तो असंवेदनशील है ही मीडिया भी कुछ देर हल्ला मचाकर सब भूल जाता है(वैसे वो कर भी क्या सकता है जब पूरे कुएँ में ही भाँग पड़ी है)।सोनिया जी ने बात सही कही पर गलत उद्देश्य से कही यह भी असंवेदनशीलता ही है।यहाँ पर वनस्थली विद्यापीठ में छात्राओं के यौन शोषण का जो मामला चल रहा है उसमें जब सांसद महोदय पूछताछ के लिए गए और वहाँ के कुलपति से कुछ सवालों के बाद पूछा कि यहाँ कितनी छात्राओं ने आत्महत्या की है तो कुलपति जी का जवाब सुनिए -देश में हजार पर एक व्यक्ति आत्म हत्या कर रहा है हमारे विद्यापीठ में दस हजार छात्राएँ है इस हिसाब से यहाँ दस आत्महत्याएं होनी चाहिए थी लेकिन यहाँ मात्र दो ही लड़कियों ने आत्महत्या की है।यानी कि आँकड़ा बहुत कम है।इतना सुनकर सांसद महोदय ये कह कर चले गए कि ऐसे आदमी से बात करने का भी क्या फायदा।

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    1. धन्य हैं कुलपति महोदय। ऐसे ही हमारे एक अपने स्टाफ़ थे जो पेंशन विभाग देखते थे। एक कुलीग रिटायर होने के दो तीन महीने में पेंशन के बारे में पूछने जब दूसरी तीसरी बार गया तो वो साहब उदाहरण सहित बताने लगे कि फ़लां तो रिटायर होने के बाद मर गया था तब तक पेंशन नहीं आई थी, तुम अभी दो तीन महीने में ही घबरा रहे हो। असल में जिसे हम सेवा कहते हैं, हम उसे अथारिटी समझने लगते हैं, संवेदनशीलता खुदबखुद घुलती चली जाती है।

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    2. ये खबर देख तो रही थी किन्तु ये बात नहीं पता थी , सोचिये जब कुलपति जी का जिन पर समाज के लोगो को शिक्षा देने की जिम्मेदारी है उनकी सोच ये है तो समझ सकते है की हम कैसे समाज का निर्माण कर रहे है और लोगो को क्या शिक्षा दे रहे है ।

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    3. राजन,
      वनस्थली वाली घटना से वाकिफ़ नहीं था, आपके जिक्र करने के बाद ध्यान में कहीं ये घटना अटकी थी। आज एक लिंक देखा है, सोचा शेयर कर लूँ -
      http://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_9.html

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    4. संजय जी,लिंक के लिए धन्यवाद।इस बात की भी मुझे जानकारी है कि अभी तक इस मामले में कुछ निकलकर नहीं आया है।जाँच जारी है शायद सच्चाई सामने आए।शुरू से ही छात्राओं के दो गुट बने हुए हैं एक न्याय की माँग कर रहा है तो दूसरा कहता है कि ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं।उन दो छात्राओं का नाम किसी छात्रा को नही मालूम फोन पर जिस छात्रा ने इस घटना की शिकायत की उसके बारे में भी कोई नहीं जानता।बताते हैं कि विद्यालय प्रशासन ने दो छात्राओं को कुछ समय के लिए बंधक बनाकर रखा था और उन्हें किसीसे मिलने नहीं दिया गया।पर वास्तव में ऐसा कुछ हुआ भी था या नहीं कुछ नहीं पता।हो सकता है वो छात्राएँ बदनामी के डर से अब सामने न आ रही हो या ये भी हो सकता है ये पूरा मामला एक अफवाह से ज्यादा कुछ न हो।अब ये तो निष्पक्ष जाँच के बाद ही पता चलेगा ।खुद महिला आयोग भी कुछ नहीं बोल रहा है।पर मीडिया को दोष देना गलत है उसने अभी तक तटस्थ दृष्टिकोण ही अपनाया है।मेरी टिप्पणी भी कुलपति जी के बयान पर थी घटना पर नहीं।

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    5. संजय जी,लिंक के लिए धन्यवाद।इस बात की भी मुझे जानकारी है कि अभी तक इस मामले में कुछ निकलकर नहीं आया है।जाँच जारी है शायद सच्चाई सामने आए।शुरू से ही छात्राओं के दो गुट बने हुए हैं एक न्याय की माँग कर रहा है तो दूसरा कहता है कि ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं।उन दो छात्राओं का नाम किसी छात्रा को नही मालूम फोन पर जिस छात्रा ने इस घटना की शिकायत की उसके बारे में भी कोई नहीं जानता।बताते हैं कि विद्यालय प्रशासन ने दो छात्राओं को कुछ समय के लिए बंधक बनाकर रखा था और उन्हें किसीसे मिलने नहीं दिया गया।पर वास्तव में ऐसा कुछ हुआ भी था या नहीं कुछ नहीं पता।हो सकता है वो छात्राएँ बदनामी के डर से अब सामने न आ रही हो या ये भी हो सकता है ये पूरा मामला एक अफवाह से ज्यादा कुछ न हो।अब ये तो निष्पक्ष जाँच के बाद ही पता चलेगा ।खुद महिला आयोग भी कुछ नहीं बोल रहा है।पर मीडिया को दोष देना गलत है उसने अभी तक तटस्थ दृष्टिकोण ही अपनाया है।मेरी टिप्पणी भी कुलपति जी के बयान पर थी घटना पर नहीं।

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  11. मैं तो बहुत पढ़ा लिखा इंसान नहीं इसलिए सिर्फ फिल्मों की ही बातें दिमाग में आती हैं.. न संस्कृत के क्लिष्ट श्लोक न किसी संहिता की ऋचाएँ.. मगर हाँ फ़िल्में भी इसी पोस्ट की तरह होती हैं, इसलिए झकझोरती हैं और याद रहती हैं.. एक बांग्ला फिल्म "अदालते एकटी मेये" अर्थात अदालत में एक औरत..एक ऐसी ही अश्लील फिल्म थी.. अश्लील उस घटना के कारण नहीं, उन दलीलों के कारण जो सत्तर साल का बुड्ढा वकील उस पीडिता के विरुद्ध दे रहा था और मेरा दावा है इतनी अश्लील दलील उस बलात्कार से भी अधिक आत्मा को पीड़ा पहुच्न्हाने वाली थी..
    फिल्म इन्साफ का तराजू का इन्साफ भी शायद यही मांग करता है.. मगर उन अश्लील दलीलों को कम से कम दलील कहा जा सकता था अदालत के अंदर.. इस तरह राजनेताओं द्वारा की जाने वाली नुमाइश नहीं..
    संजय बाऊ जी, मेहरबानी है कि बलात्कार के इस भाग के प्रायोजक थे फलाने ड्रिंक्स के निर्माता और अपने सदी के महानतम बल्लेबाज "आईला" करते हुए वहाँ भी पहुँच जाएँ!!
    राही मासूम राजा साहब के शब्दों में आपकी यह पोस्ट अश्लील है, आज की ज़िंदगी की तरह!!

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    1. अए भाई, ढेर पढ़े लिखे हमें और हम उन्हें झिलते भी नहीं है। आप कम पढ़े लिखे ही सही और हम तो खैर सिर से पैर तक अश्लील हैं ही,कोई शक नहीं हैं।
      कार्यक्रम के इस भाग के प्रायोजक वाला सीन दस बीस साल में देखने को मिलेगा ही मिलेगा।

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    2. " न संस्कृत के क्लिष्ट श्लोक न किसी संहिता की ऋचाएँ."
      सलिल भाई यह कहे बिना भी आप अपनी बात कह सकते थे -मैं अपमानित महसूस कर रहा हूँ !

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    3. आप इसमें व्यर्थ ही अपमानित महसूस कर रहे हैं। सलिल भाई के इन शब्दों से भी किसी का अपमान हो सकता है, ऐसा कहीं से नहीं लगता।

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    4. @संजय जी,
      विषयांतर का दोषी हूँ !
      सलिल भाई ने निश्चय ही ऐसा कोई मोटिव नहीं रखा होगा -मगर बात में दम है !
      ठीक यही बात शिव कुमार मिश्र जी अक्सर ताने के बतौर मेरे बारे में कहते रहते हैं और अनूप शुक्ल जी भी उसकी पैरवी करते रहते हैं -
      क्या कारण हो सकते हैं ?

      १-लोगों को मेरे श्लोक और चौपाईयां के उद्धरण अनावश्यक रूप से ज्यादा लगते होगें -और यह किंचित कदाचित सही भी हो सकता है .
      २-जो भी यहाँ है उसकी कोई न कोई यू एस पी है -नाम क्या गिनाना-मेरी यही है ...लोग बर्दाश्त करें मुझे बस यही विनय कर सकता हूँ .
      ३-हर एक अच्छे लेखक /ब्लॉगर की अपनी एक सोच ,अपनी एक शैली और इडियोसिनक्रेसी सी है -मेरी यही है श्लोक और चौपाईयां बात बात पर उद्धृत करना ..
      ४-किसी सुधी ब्लॉगर ने एक बार मुझसे पूछा कि क्या वे मुझे याद होती हैं ? जवाब है हाँ अधिकाँश!
      ५-इन आदतों के पीछे लोगों के पारिवारिक संस्कार ,बचपन का पालन पोषण होता है इसलिए मैं दोषी नहीं ...

      हटाएं
    5. अरविंद जी, न तो विषयांतर के लिये और न ही श्लोक चौपाईयां उद्धृत करने के लिये खुद को दोषी न समझें। यह वाकई आपका यू एस पी है(बल्कि कहना चाहिये one of your USPs) और मेरी तरह ही बाकी लोग भी इसे एंजॉय करते ही होंगे। रही बात शिकायत की या तंज की तो कुछ समय पहले तक मैं भी शिकायत करने को बहुत अच्छी आदत नहीं मानता था। हमारे बैंक के एक ग्राहक की तरफ़ से अमूमन छोटी मोटी शिकायतें(अधिकतर खाम्ख्वाह की) होती रहती थीं और हम लोग इस बात से बहुत झल्लाये हुये रहते थे। एक दिन एक उच्चाधिकारी की विज़िट के दौरान भी यह बात निकली तो उन्होंने इसका दूसरा पक्ष दिखलाया। उनका मानना था कि आज के युग में इतने विकल्प रहते हुये भी अगर कोई ग्राहक शिकायत करता ही रहता है और आपके साथ बना भी हुआ है तो वाकई वो आपका शुभाकांक्षी है जो आपकी सर्विस में और सुधार का इच्छुक है वरना दो मिनट में वो आपसे वास्ता खत्म कर सकता था। अपन भी अब शिकायतों को या शिकायतियों को अपना शुभेच्छु ही मानते हैं।

      हटाएं
  12. इस बदजात व्यवस्था पर आपने ज़बर्जस्त तंज़ किया है .सोनिया जी ने वहां जाके कहा -गैंग रैप आज सारे भारत में हो रहे हैं .माननीय इसका अर्थ वैसा ही

    निकलता है जैसा आपकी स्व .सासू जी के उस वक्तव्य का जो उन्होंने भ्रष्टाचार के बारे में व्यक्त किए थे -करप्शन इज ए ग्लोबल फिनोमिना .

    यहाँ अर्थ यह निकलता है -हरियाणा क्यों पीछे रहे जब पूरे भारत में गैंग रैप हो ही रहें हैं तो .

    इन लोगों को पता ही नहीं चलता संजय भाई ये बोल क्या रहें हैं .संवेदन शून्य हैं ये तमाम लोग .कलावती की थाली उड़ाने वाला नदारद है कश्मीर की

    वादियों में हवा बदली के लिए .जय हो .

    जीजा के गले में पड़ा केजरीवाल स्साला घूमें ठंडा पहाड़ .

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    1. वीरू भाई,
      किस किसको याद कीजिये, किस किस को रोईये..

      खैर, ये तो छोटा सा पेड़ था, गिर गया और सोनियाजी चली गईं, धन्य हुये सब।

      हटाएं
  13. यह मानवता को शर्मशार करती घटनाएँ हैं -बाद में जुटने वाली भीड़ बस पिपली लाईव की ध्यान दिलाती है -सुबह अखबार में पढ़ा कि फिर ऐसी घृणित घटना हुयी है और दलित किशोरी को दुष्कर्म के बाद बेहोशी की हालत में गली में फेंक दिया गया ..
    निश्चित ही यह वर्ग संघर्ष और दलितों के प्रति एक घृणित ,त्याज्य भाव का उदाहरण है -केंद्र का हस्तक्षेप अपरिहार्य है !

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    1. केन्द्र के पास जीडीपी, एफ़डीआई, इन्फ़्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट जैसे और बहुत से काम हैं जी।

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  14. आजकल तो नेता प्रतिशत में बात करते हैं। अभी उन्‍हें प्रतिशत कम लग रहा है। जब मोरल रहा ही नहीं तो पढ़ाएंगे क्‍या?

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    1. पढ़ायेंगे भी तो पढ़ेगा कौन, पहले खुद तो पढ़ लें तभी न बात का असर होगा।

      हटाएं
  15. मुझे जब चोट लगती है तो सबसे ज्यादा खलती है झूठी सहानुभूति। इसी तरह मुझे ऐसा लगता है कि बलात्कार से पीड़ित महिला को यह सहानुभूति बलात्कार से भी ज्यादा पीड़ा देती होगी। इतनी हाई लेबिल की ढिंढोरची सहानुभूति तो उसे या तो आत्महत्या के लिए प्रेरित करती होगी या फिर फूलन देवी बनने के लिए। सच्ची सहानुभूति तो यही है कि मरने से पहले बलात्कारी को फाँसी पर लटकते वह अपनी आँखों से देख सके। समाज में जो लोग इसके लिए कम आयु में विवाह की सलाह देते हैं वे अनजाने में परोक्ष रूप से बलात्कारी के पक्ष में वकालत ही कर रहे हैं।
    इस पोस्ट पर रचना जी का कमेंट अच्छा नहीं लगा।

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    1. बिलकुल सहमत हूँ आप से ।

      हटाएं
    2. प्रस्तुत केस में तो ये ढिठाई और भी इस घटना को हल्का रंग देती लगी जब कहा गया कि ऐसा पूरे देश में हो रहा है। शायद वो स्थिति को देशव्यापी बताना चाह रही थीं लेकिन ब्लॉगजगत की तरह राजनीति में भी अपने पराये का मुँह देखकर बयान देने का चलन है।

      हटाएं
  16. is post ne pahli bar padhne pe 100 gm khoon piya.......iska harzana lagega barobar lagega........

    kaisi 'chirkut' baten sochte rahte hain.....kuch majedar-jaikedar pathak logon ke dijiye......

    ishwar agar hamare aankh/kan/munh le leta to sayad, jaisa hai us-se jada achhi duniya hamare liye hota........


    pranam.

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    1. गलती हो तो गई नामराशि, भविष्य में ध्यान रखेंगे।
      आंख, कान, मुंह ढंक लेने वाला बापू वाला फ़ार्मूला है न?

      हटाएं
  17. अब तो संवेदना कुंद होती सी लगती है ... आपका लेख विचोरोत्तेजक है ... पर समाज न बदला है न बदलेगा ... बदलाव आये भी तो स्थिति और खराब ही होगी ... मेरा यही मानना है ... मुझे नहीं लगता है कि कुछ भी सुधरने वाला है ... कहीं अंदर तक कुछ सड़ा हुआ है ... मान्यताएं, सोच ... रोम रोम मे घटियापन भरा पड़ा है ...
    जब रजा ही सबसे बड़ा लुटेरा है तो प्रजा को कहाँ से सुरक्षा मिलेगी ?

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  18. no comment ....nahi to kuch log ander tak sulag .....


    jai baba banaras...

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  19. संजय जी,

    ये तुलसी बाबा भी ना... "का बरखा जब..." के बाद "बरखा विगत शरद ऋतु..." भी लिख मारे है. लेकिन "बरखा विगत..." से पहले बालि का वध नितांत आवश्यक है.

    संवेदना मर सी नही गयी है बल्कि मर ही गयी है. अब अंदर कुछ सालता नही है. उद्वेलित, या यूँ कहिए कि उतना उद्वेलित नही होता हूँ. पैंतीसे को पार करने के बाद अगर इतना भी नही सीखा तो क्या जिया इतने साल?

    आशावादिता अभी तक नही मरी है...बाबा कबीर जो कह गये... बस यही एक डर सताता हैकि, "वो सुबहा कभी तो आएगी" गाते-गाते, "जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं..." गाने की नौबत न आ जाए

    बाकी.. "सौ बातों की एक बात यही है... क्या भला औ क्या बुरा, कामयाबी में जिंदगी है" और सोनिया जी कामयाब हैं आज की तारीख में.

    "Come on, be a part of the game. Peel the feel, feel the feel by yourself."

    क्या क्या पील करेंगे और क्या क्या फील करेंगे... नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या???

    सादर

    ललित

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    1. ललित भाई,
      पैंतीसा पार करते करते इतना सीख लिये, आगे और भी सीख जायेंगे। इस हिसाब से तो हम साढ़ेसाती बेशी हैं।

      हटाएं
  20. कभी-कभी तो ये सब देखकर लगता है कि यार ये हम किस युग में रह रहे हैं जहां आदिम शिकारियों की तरह कोई भी किसी को भी जब चाहे उठा लेता है, दुष्कर्म करता है और फिर जंगल में छोड़ जाता है बाकी के शिकारीयों के लिये ताकि अब वे नोचें, खसोटें इस शिकार को कभी अदालती पूछ पछोर के नाम पर तो कभी राजनीतिक हुकअप के नाम पर. जाने पीड़िता के मन पर क्या कुछ बीत रहा हो इस तरह की घटना और उससे उपजे राजनीतिक, मानसिक दंश से.

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    उत्तर
    1. पीड़ित पीड़िता पर जो बीते, मुद्दा तो बना, यही बड़ी बात है आजकल। हमारी तरफ़ एक कहावत है -
      कोई मरे कोई जीये,
      सुथरा घोल बताशे पीये।
      वही पी रहे हैं भाई लोग।

      हटाएं
  21. ek naye yug ki suruat ho gayee hai see a link http://www.facebook.com/photo.php?fbid=439193322803708&set=a.177389378984105.44633.120674037988973&type=1&theater

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    उत्तर
    1. क्या कौशल भाई, बेसिरपैर की खबर है। अपने पास देशी खबर है दो साल पुरानी, देखता हूँ कहीं सेव हुई तो मेल करता हूँ।

      हटाएं
    2. bhai khabar to khabar hai aap is ko kaise lete hai yeh aap ke uper hai...hamara kahane ka matlab hai ki dunia badal rahi hai badlaw ke liye tayaar rahe....

      jai baba banaras...

      हटाएं
    3. कौशल जी, आपका ईमेल आईडी नहीं है वरना एक पुरानी खबर अपने इंडिया की भेजता।

      हटाएं
  22. स्तब्ध, हतप्रभ, किंकर्तव्यमूढ़, ठगे हुये जैसा महसूस नहीं कर रहे आप? मैं करता हूँ। चुप रहा नहीं जाता और कुछ कहा भी नहीं जाता।
    दिमाग भन्नाया रहता है ये सब देख सुनकर। जब दूर बैठे हम लोगों का ऐसा हाल हो सकता है तो जिन पर ये सब बीत रहा है, वो कैसा महसूस कर रहे होंगे?

    सच कहूँ तो अपने आप पर गुस्सा आता है...घृणा होती है अपनी अकर्मण्यता पर...

    नीरज

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    उत्तर
    1. अकर्मण्यता? क्या करना चाहिये नीरज भाई? क्या कर सकते हैं खिसियाने के सिवा?

      हटाएं
  23. जब तक बलात्कारियों के लिए फांसी की सजा के कड़े कानून नहीं बनेंगे लोग कभी नहीं डरेंगे ये सब चलता ही रहेगा और तमाशा भी बनता रहेगा

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    उत्तर
    1. एक ब्लॉग पर इस बारे में बहस हो चुकी है राजेश जी और वरिष्ठ ब्लॉगर घूघूती जी ने इस पर बहुत सारगर्भित राय दी थी। फ़िलहाल मेरे पास वो लिंक नहीं है तो अपनी याद्दाश्त के हिसाब से बताता हूं। उनका कहना था कि ऐसे कानून की स्थिति में पीड़िता के लिये जान का खतरा अवश्यंभावी बन जायेगा क्योंकि बलात्कारी हर हाल में सुबूत मिटाने की कोशिश करेगा। पीड़िता जीवित रही तब भी तो बलत्कारी को फ़ाँसी का डर रहेगा। ये इतने सरल समाधान वाला मामला नहीं है।
      कड़ी सजा तो होनी ही चाहिये, इस बात से सभी सहमत हैं।

      हटाएं
  24. सज़ा देना तो कानून का काम है। हम तो सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि लोगों की संवेदनायें भर ज़िन्दा रहनी चाहिये जोकि नहीं हैं। अभी शायद कल की ही ख़बर है ....छेड़छाड़ का विरोध करने पर युवक को इतना गुस्सा आया कि उसने सरे आम लड़की के कपड़े फाड़ दिये। पुलिस ने रिपोर्ट लिखने में भी आनाकानी की, कहती रही कि आपस में समझौता कर लो। बाद में दबाव डालने पर रिपोर्ट लिखी गयी। यह संवेदनहीनता किसी दिन पूरे समाज को पैरालाइज़्ड कर देगी।

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    उत्तर
    1. सच कह रहेह् हैं. आप,

      यही संवेदनहीनता हमारे सामाजिक पतन का मुख्यकारण. है .

      हटाएं
  25. संजय जी
    तीन नाम इस लिये लिये क्युकी पहले दो नाम के लिये शिल्पा जी मुझे टोक चुकी हैं और अब आप तीसरे हुए . सो आगे से ध्यान रखूंगी . तीन नाम वो हैं जिन्हे शिल्पा जी ना केवल पढ़ती हैं अपितु रेगुलर पाठक होने के नाते उन ब्लॉग पर अपना अधिकार मानती हैं सो आगे दे उनके अधिकार को नमन करते हुए ध्यान रखूंगी .

    और प्रणाम कहा हैं तो आशीर्वाद देना तो बनता हैं ,

    आप की पोस्ट का मुद्दा डाइवर्ट कहां हुआ हैं , वही हैं

    पहली दो लाइन देख ले अपनी ही पोस्ट की @गर्दन नीची होनी चाहिये या छाती चौड़ी? और आये हुए अनाम कमेन्ट भी और फिर छाती चौड़ी हुई या नहीं , अगर हुई होंगी तो अनाम कमेन्ट बरक़रार रहेगे , और गर्दन नीची हुई होंगी तो इन कमेंट्स का अस्तित्व विलीन किया जाएगा .

    मर्ज़ी भी आप की हैं , ब्लॉग भी आप का हैं , समाज भी आप का हैं , देश भी आपका हैं . कहां से सुधार संभव हैं सोचियेगा जरुर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रचना जी,
      व्यक्तिगत आक्षेप करते हुये अनाम कमेंट्स हटा दिये हैं, ऐसे (सु)नाम कमेंट्स नहीं हटा रहा।

      हटाएं
  26. बनाना कंट्री में मेंगो पीपुल !

    जवाब देंहटाएं
  27. आत्मा दुखती है, यह सब पढ़-सुन कर।

    जवाब देंहटाएं
  28. आपकी पोस्‍ट सामान्‍य पोस्‍ट थी। अतिसामान्‍य। राजनेताओं द्वारा मुद्दों को भुनाने का प्रयास करना पुरानी परम्‍परा है, लेकिन इस कीच में हाथ डालने के साथ ही आपने इसे फैलाने का प्रबंध कर दिया। आपकी पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे छोटी कक्षाओं में पढ़ा वह पैराग्राफ याद आ जाता है

    "...और सम्राट अशोक ने अपने राज्‍य के विस्‍तार के लिए जंगलों की सफाई कराई और दलदली क्षेत्रों में कीचड़ को निकालकर मैदानों फैला दिया। इससे राज्‍य को अच्‍छी मात्रा में उपजाऊ भूमि प्राप्‍त हुई"

    कभी कभी ठीक लगता है कि कीच अधिक से अधिक फैलना चाहिए, ताकि सूखे...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सिद्धार्थ जी आपका दृष्टांत बेहद पसंद आया।

      हटाएं
    2. सिद्धार्थ जी,
      एक अतिसामान्य व्यक्ति से अतिसामान्य की अपेक्षा ही श्रेयस्कर है, बाकी तो सब दाता के हाथ है।

      हटाएं
  29. आपके शब्दों में अपने मनोभाव को प्रतिध्वनित पाया है...

    इतने मार्मिक व प्रभावशाली ढंग से विषय को रेखांकित करने हेतु साधुवाद आपका...

    जवाब देंहटाएं
  30. पोस्ट पढ़ बहुत देर तक सन्न वाली स्थिति रही..क्योंकि ऐसी स्थितियों में पीडिता और बाद में उसका पूरा परिवार क्या कुछ भोग रहा होता है, यह अनुमान ही हिलाकर रख देने वाला, निःशब्दता की स्थिति में पहुंचा देने वाला होता है..

    खैर, पोस्ट पढ़ टिपण्णी कर फिर अन्य टिप्पणियों को पढ़ा...

    अत्यंत खेदजनक स्थिति है भाया..अपने आपको प्रबुद्ध, कलमकार, प्रगतिशील, समाजसेवी समझने और जानते वाले लोग यदि ऐसे और इतने असंवेदनशील हो सकते हैं तो उनसे(राजनीतिज्ञ) क्या अपेक्षा की जा सकती है, जिन्होंने मानव मूल्यों, संवेदनशीलता को पहले ही अपने शौचालय में फ्लश कर अपनी राजनितिक दुकानदारी सजाई है..

    बहुत बहुत अफसोसनाक...!!!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रंजना जी,
      मैं तो शुरू से ही हल्के-फ़ुल्के विषयों पर लिखा करता था, जिसे सिंपली टाईमपास कह सकते हैं। इस पोस्ट जैसी पोस्ट्स खुश होकर तो लिखी नहीं जाती, खिन्नता ही ऐसा कुछ लिखवा देती है लेकिन फ़िर इसके बाद जो ये हूतूतू शुरू होती है ये भी हम लोगों की मानसिकता का दर्पण ही होती है।
      आप जैसों का प्रोत्साहन संबल देता है।

      हटाएं
    2. कितने दुःख की बात है कि न केवल ऐसी अपराधी मानसिकता वाले खुलेआम घूमते हैं बल्कि जिन घटनाओं के बारे में सुनने भर से सर शर्म से झुक जाये उनमें भी व्यक्तिगत राजनीतिक लाभ उठाने की बात सोचने वाले निहित स्वार्थी और असम्वेदनशील लोग हमारे बीच विचरते हैं। कानून व्यवस्था की कमी देश की बड़ी समस्या है।

      हटाएं
    3. यह व्यक्तिगत लाभ की मानसिकता ही हमारे समाज को इतने गहरे गह्वर में लिए जा रही है ।

      हमें किसी का दुःख तो खैर दुःख, अकाल मृत्यु तक नहीं दिखती । सिर्फ अपनी वाहवाही, अपनी अहंकार तुष्टि और "भला उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे" ही दीखता है ।

      और इससे भी दुखद यह है कि , हम जीतने की मानसिकता से, अपनी कमीज़ को सफ़ेद बनाने के प्रयास करने के बजाय, aksar दूसरे की कमीज़ को मैला करने के प्रयास करते हैं । :( :( :(

      हटाएं
  31. संजय जी,
    कृप्या शक्ति सिंह का कमेन्ट हटा दें।
    प्लीज !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. राजन जी, कौन क्या-क्या कर सकता है ... क्रोध में, संतुलन बिगड़ने पर, द्वैष वश .... सबको पता होना चाहिए ... शक्ति सिंह की मानसिक शक्ति उनके कहे 'अपशब्दों' से प्रकट हो रही है। कमेन्ट हटाने से हल नहीं होगा ... यह कमेन्ट तब तक नहीं हटना चाहिए जब तक वे स्वयं इन अपशब्दों के लिए मन में पछतावा न ले आयें। मुझे भरोसा है कि वे ऐसा करेंगे ...

      जहाँ तक रचना जी की अप्रासंगिक टिप्पणी करने का प्रश्न है वे एक मनोस्तर से की गयी जान पड़ती है। जब पूर्व की कोई सभा बिना समाधान के समाप्त हुई हो ... उस मुद्दे पर लौटा लाने की कोशिश पर उनसे शालीनता से बात की जा सकती थी। उनके बारे में इतना तो निश्चित हो जाना चाहिए कि वे बिना विशेष कारण व प्रयोजन के विषयांतर बात तो नहीं कहेंगी।

      पोस्ट का विषय हम सभी की संवेदना को झकझोरता है ... किसी की संवेदना त्वरित प्रतिक्रिया करती है तो किसी की कुछ विलम्ब से।

      स्त्री की लुटी अस्मिता पर एक सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया आक्रामक हो सकती है। विशेष व्यक्ति की संवेदना 'नौटंकी' कर सकती है। अति विशेष व्यक्ति की संवेदना घड़ियाली आँसू बहा सकती है। लेकिन 'उसी वर्ग से आयी आवाजें उसका ठोस समाधान चाहती हैं।' हमें इस बात को समझना चाहिए।

      हटाएं
    2. @ राजन सिंह,
      कमेंट हटाने में हुई देरी के लिये मुझे खेद है। दिन में साढ़े बारह बजे एक मित्र ने पहले मैसेज करके और फ़िर फ़ोन करके इस बारे में बता दिया था, मेरी विवशता नेट से दूरी थी जिस कारण इतनी देर हुई।

      हटाएं
    3. @ प्रतुल भाई,
      एक बात मैं मानता हूँ कि हम आजादी के लिये परिपक्व नहीं हैं। पहले भी एकाध बार कमेंट मॉडरेशन लगाया था लेकिन मित्रों को और मुझे भी बंधन सा ही लगता था, इसलिये हटा दिया था। चाहता यही था कि सहमति हो या असहमति, लोग इस फ़्री स्पेस का सही उपयोग ही करें लेकिन आजादी का मतलब स्वच्छंदता ही नहीं होता। अशालीन भाषा के लिये लोगों को अपने प्लेटफ़ार्म का ही इस्तेमाल करना होगा।
      अपकी भावना समझ पा रहा हूँ लेकिन ये कमेंट हटा रहा हूँ, आशा है आप भी हमेशा की तरह मेरी भावना मुझ से ज्यादा ही समझेंगे।

      हटाएं
  32. रचना जी, कुछ भी कहें ... वे परोक्ष रूप से 'स्त्री के साथ हो रहे सामाजिक भेदभाव' पर ब्लॉगजगत के वरिष्ठ ब्लोगर्स के छिपे मस्तिष्क को उजागर कर ही रही हैं।

    कुछ का मानना हो सकता है कि 'स्त्री-पुरुष' कभी एक समान हो ही नहीं सकते। उनमें भिन्नता प्राकृतिक है।

    कुछ का मानना हो सकता है कि 'स्त्री-पुरुष' कुछ सामाजिक और मानवीय अधिकारों में एक सामान होने चाहिए।

    और कुछ ऐसे भी हो सकते हैं कि 'स्त्री और पुरुष' को आपसी समझ बनाकर स्वस्थ परम्पराओं का निर्वाह करना चाहिए।


    .......... रचना जी को जहाँ तक मैंने जाना है वे 'ठोस समाधान' चाहती हैं। बातचीत को प्रस्तुत करने का तरीका हमारा परिवेशजन्य होता ही है ... यह हर सभासद को समझना चाहिए।

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    उत्तर
    1. Edit:
      और कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो सोचें कि ... 'स्त्री और पुरुष' को आपसी समझ बनाकर स्वस्थ परम्पराओं का निर्वाह करना चाहिए।

      हटाएं
    2. हमारी कामना इसी EDIT: वाली है।

      हटाएं
    3. (:(:(:


      SAHI BAAT HAI......PAHLE VICHAR ME EDIT HOGA TABHI BYAVHAR ME BHI HO SAKEGA.......

      A N D .......... ANY 'ISM' KNOWN ITSELF AS 'CRITICISM'....

      PRANAM

      हटाएं
  33. ऐसे दुखद और गम्भीर विषय पर सभी के इगो (मान-कषाय) उत्पन्न होना दुर्भाग्यपूर्ण है।

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  34. Shame !
    Ek film aayi thi "No mans land" uski ending yaad aa rahi hai...

    जवाब देंहटाएं
  35. ..बहरहाल. आपने अपनी पोस्ट कुछ बहुत ही गंभीर और सही मुद्ददे उठाये है. कभी कभी तो लगता है अगर जनता के हाथ वोट की ताकत न होती तो ये व्यवस्था कच्चा खा जाती और डकार भी नहीं लेती.आपकी ये पंक्तिया आम जनता की सही कहानी कह रही "स्तब्ध, हतप्रभ, किंकर्तव्यमूढ़, ठगे हुये जैसा महसूस नहीं कर रहे आप? मैं करता हूँ। चुप रहा नहीं जाता और कुछ कहा भी नहीं जाता। "

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    उत्तर
    1. जिस दिन वोट की सही ताकत पह्चान लेंगे हम, उस दिन शायद..।
      ये शायद भी कितने सपने जगाये रखता है न उपेन्द्र जी?

      हटाएं
    2. जब तक चुनाव की आखिरी रात को पौवे और नोट का जोर रहेगा तबतक वोट बेचारा कमजोर ही रहेगा। आजतक वोट की ताकत को न पहचानना ही इस हालत के लिए जिम्म्मेदार है। उम्मीद है की वो दिन जरुर आयेगा ...

      हटाएं
  36. प्रतुल जी,
    कोई भी घटिया कमेन्ट किसीका नाम लिए बगैर किया गया हो तो उसे रखा भी जा सकता है और उसका विरोध भी किया जा सकता है लेकिन इस तरह के कमेन्ट को हटा देना ही सही है जिसमें किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेकर कीचड़ उछाला गया हो यदि उनमें थोड़ी भी इंसानियत और संवेदनशीलता होगी तो अभी भी अपने किए पर लज्जित होंगे और दुबारा ऐसा नहीं करेंगे बाकी आपकी सभी बातों से सहमत हूँ।
    संजय जी,
    कई बार जब एक पोस्ट पर गुच्छे के रुप में कई कमेन्ट आते रहते है तो पोस्ट लेखक सभी टिप्पणियों को नहीं पढ़ पाता बल्कि समय मिलने पर ही उन्हें एक साथ पढ़ता है।एक बार मुझसे भी गलती से एक कुछ ऐसा ही कमेन्ट प्रकाशित हो गया था जबकि मैंने मॉडरेशन भी लगाया हुआ था।फिर उसे मैंने रात को पढते ही हटा दिया।मुझे लगा शायद आपसे भी यह टिप्पणी छूट गई है ।बहरहाल उस टिप्पणी को हटाने के लिए धन्यवाद।
    यह टिप्पणी ऊपर प्रकाशित नहीं हो पा रही इसलिए यहाँ दे रख रहा हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  37. प्रतुल जी,
    कोई भी घटिया कमेन्ट किसीका नाम लिए बगैर किया गया हो तो उसे रखा भी जा सकता है और उसका विरोध भी किया जा सकता है लेकिन इस तरह के कमेन्ट को हटा देना ही सही है जिसमें किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेकर कीचड़ उछाला गया हो यदि उनमें थोड़ी भी इंसानियत और संवेदनशीलता होगी तो अभी भी अपने किए पर लज्जित होंगे और दुबारा ऐसा नहीं करेंगे बाकी आपकी सभी बातों से सहमत हूँ।
    संजय जी,
    कई बार जब एक पोस्ट पर गुच्छे के रुप में कई कमेन्ट आते रहते है तो पोस्ट लेखक सभी टिप्पणियों को नहीं पढ़ पाता बल्कि समय मिलने पर ही उन्हें एक साथ पढ़ता है।एक बार मुझसे भी गलती से एक कुछ ऐसा ही कमेन्ट प्रकाशित हो गया था जबकि मैंने मॉडरेशन भी लगाया हुआ था।फिर उसे मैंने रात को पढते ही हटा दिया।मुझे लगा शायद आपसे भी यह टिप्पणी छूट गई है ।बहरहाल उस टिप्पणी को हटाने के लिए धन्यवाद।
    यह टिप्पणी ऊपर प्रकाशित नहीं हो पा रही इसलिए यहाँ दे रख रहा हूँ।

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    1. राजन, जिस समय कमेंट पब्लिश हुआ उस समय मॉडरेशन नहीं था और मैं नेट से दूर। खैर, धन्यवाद की कोई बात नहीं है दोस्त।

      हटाएं
  38. अफ़सोस इस तरह की घटनायें आम हो गयी हैं। उसके बाद उस तरह के बयान भी।

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    उत्तर
    1. यही लगता है कि धीरे धीरे इनकी भी आदत डालनी होगी, जैसे और बहुत कुछ अब सामान्य लगता है।

      हटाएं
  39. हे भगवान् ! कितना बवाल है आपके ब्लॉग पर | हम तो भाग चले |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अपनापन ही इतना है अमित जी कि मत पूछिये। वैसे अब बवाल का केन्द्र बदल गया है।

      हटाएं
  40. समाज जितना बदलता है, उतना ही वैसा बना रहता है!

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  41. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  42. बाऊजी नमस्ते!
    सोशल कमेंट्री!?
    आज कानपुर की एक ख़बर है, ऐसी ही।
    मैंने संवेदनाओं को छुट्टी पे भेज दिया है, आप क्यूँ ओवरटाईम करा रहे हो?

    --
    ए फीलिंग कॉल्ड.....

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  43. अपन भी अब शिकायतों को या शिकायतियों को अपना शुभेच्छु ही मानते हैं।

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  44. मतलब कानून-व्‍यवस्‍था किसी के जीते जी बने-रहे तो बात बने।

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  45. कानून व्यवस्था जितनी जल्दी हो ,ठीक हो जाये वरना अगर युवा लोग खड़े हो गए तोह १ साल में वो काम हो जयगा जो १० साल में नहीं हुआ।
    https://news4social.com

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  46. आठ वर्ष बाद भी कमोबेश स्थिति वही है , वही हाहाकारी मीडिया कवरेज,संवेदनाओं का बाज़ारीकरण और नेताओं का "सेक्सुअल असाल्तटो " टूरिज्म ।

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