रविवार, दिसंबर 07, 2014

देश-विदेश


मास्टरजी ने बच्चों से पूछा, "अंटार्कटिका कहाँ है?"
बालक चुप।
"एंडीज़ पर्वत श्रृंखला किस किस देश से होकर निकलती है?"
बालक चुप।
"बाल्टिक सागर की लोकेशन बतायेगा कोई?"
बालक चुप।
मास्टरजी ने खूब डाँटा, "सुसरयो, घर में पड़े रहे हो और आँख फ़ोड़ो हो टीवी, कंप्यूटर में। थोड़ी घणी बाहर की जानकारी भी रख्या करो।"
फ़त्तू ने डरते डरते एक प्रश्न पूछने की अनुमति माँगी, "मास्टर जी, आप बता सको हो कि मलखान कौन सै?"
मास्साब ने सोचा और उसीसे पूछा, "कौण सै मलखान?"
फ़त्तू बोला, "मास्साब, गोभी खोदन लग रया सै थारी। थोड़ी-घणी घर की भी जानकारी रख्या करो।"
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नेपाल में ये शानदार स्वागत हुआ, अमेरिका-आस्ट्रेलिया लूट लिया, सारी दुनिया से लोहा मनवा लिया।

कोई शक नहीं कि इससे हमारा भी सिर गर्व से ऊँचा हुआ है लेकिन परधान मास्टर जी, हमारी समझ

में घर का ध्यान पहले रखना चाहिये। कोई शक नहीं कि हमारी सोच और जानकारी और आपकी

सोच और जानकारी एक बराबर नहीं हो सकती। इसमें भी कोई शक नहीं  कि फ़ेसबुक पर हमारे 

लिखने से आप तक ये बात पहुँचने वाली भी नहीं लेकिन आप अपने ’मन की बात’ रेडियो पर कर सकते 

हैं तो हम भी अपने ’मन की बात’ तो यहाँ करेंगे ही। छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले, कश्मीर में

सीरियल अटैक - इन सब पर अमन के दुश्मनों की बौखलाहट, चुनाव में भारी मतदान से उनका चिढ़ना,

भारत को उकसाने की कोशिशोंं जैसे बयान कोई  सांत्वना नहीं पहुँचा रहे हैं। हमारे जवान पहले भी मर

 रहे थे, अब भी मर रहे हैं। इनका जान देना ही नियति है तो फ़िर कोई  सरकार हो, कोई फ़र्क नहीं पड़ना। 

वर्दी पहन लेने भर से कोई किसी का भाई, बेटा, पति, पिता होने से मुक्त नहीं हो जाता।


अपने लोगों की लाशों पर नहीं चाहिये हमें सारी दुनिया का सम्मान और वाहवाही। करिये बहिष्कार 

हर उस सम्मेलन का और हर उस कांफ़्रेंस का जिसमें देश के दुश्मनों की भागीदारी होती हो फ़िर वो

चाहे देश के बाहर के हों या अंदर के। ये सोच सोच कर दिमाग खराब हुआ पड़ा है कि मानवाधिकार क्या

सिर्फ़ आतंकवादियों के होते हैं या इन शहीदों के भी कोई अधिकार होते हैं?

रविवार, नवंबर 23, 2014

बैठे-ठाले

बहुत छोटा था, उन दिनों की बात है कि पिताजी अपना मकान बनवा रहे थे इसलिये चार छह महीने के लिये किराये पर रहने की नौबत आ गई थी। इस झमेले में बड़ों को कितनी भी असुविधा होती हो लेकिन अपने लिये ये एक नई दुनिया थी। स्कूल से लौटकर आता और खाना लेकर छत पर भाग जाता। उस मकान के साथ लगते खेत थे और छत से रेलवे लाईन साफ़ दिखती थी, मुश्किल से दो सौ मीटर दूर।  गाड़ियों की उतनी आवाजाही नहीं थी लेकिन कोयले वाली गाड़ी जब छुकछुक करती आती थी और आसमान में धुंए की लकीर छोड़ती चली जाती तो बहुत अच्छा लगता था। सवारी गाड़ी की जगह जब मालगाड़ी आती थी तो वो ज्यादा अच्छी लगती थी, वजह शायद यह हो कि मालगाड़ी की लंबाई ज्यादा होती है। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि सिर्फ़ छुकछुक की आवाज और आसमान में धुंए की लकीर ही अच्छी लगती थी क्योंकि सबसे अच्छा तब लगता था जब ’रथ’ आता था।  ’रथ’ नाम हमने रखा था पटरी पर चलने वाले उस वाहन का जिसपर लाल रंग की एक झंडी टंगी रहती थी, उसपर कुछ लोग बैठे होते थे और दो लोग दौड़ते हुये धक्का लगाते थे। पटरियों पर पड़ते उनके सधे हुये कदम और रथ के गति पकड़ लेने पर उनका कूदकर रथ पर बैठ जाना बिल्कुल वैसा लगता था जैसे कोई योद्धा तलवार भाँजते-भाँजते सुयोग  देखकर अपने घोड़े पर सवार हो जाते हों। बाद में पता चला कि वो ट्राली थी जिसपर बैठकर रेलवे के इंजीनियर लोग जिन्हें PWI कहा जाता है, रेल पटरी की सुरक्षा जाँच करते थे। "बड़े होकर क्या बनोगे" हमसे ये सवाल किसी ने पूछा ही नहीं वरना मेरा जवाब ’रथ को धक्का देने वाला’ होता और किसी कारणवश इस पद के लिये योग्य न माना गया तो दूसरा विकल्प होता,  ’मालगाड़ी का गार्ड’  -   नो थर्ड ऑप्शन। लेकिन कुछ समय बाद हमारा अपना मकान बन गया और यहाँ से रेलवे लाईन दिखती नहीं थी तो निश्चय धूमिल हो गया।

मेरा ख्याल है कि ’मारुति’ के पदार्पण के बाद ही एक आम आदमी कार मालिक होने का ख्वाब देखने लगा होगा, उससे पहले कार हम लोगों के लिये एक ’आकाशकुसुम’ ही थी।  खैर, हम इतने आम भी नहीं थे इसलिये कार के बारे में बेकार नहीं सोचते थे। कुछ बड़े हो चुके थे, कैरियर के बारे में कभी-कभार सोचने लगे थे। सुनते थे कि नौकरी बहुत मुश्किल से मिलती है, सिफ़ारिश लगवानी पड़ती है या चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है तो हथेली में पसीना आ जाता था।  उन्हीं दिनों अखबार  में कुछ रोचक खबरें पढ़ने के बाद और इधर उधर की हाँकने वाले मित्रों के सौजन्य से मन ही मन यह  निश्चित किया गया कि सरकार ने आराम से  नौकरी दे दी तो ठीक है वरना किसी सेठ के यहाँ ड्राईवरी कर लेंगे। उसीकी गाड़ी, उसी का खर्चा और चलाने का मजा हम लेंगे। मजे का मजा और पैसे के पैसे, आम के आम और गुठलियों के दाम।        लेकिन बिना सिफ़ारिश और बिना चढ़ावे के नौकरी मिल गई और ’ड्राईवरी’ मुल्तवी हो गई।

हमारी नजर में एक ही जासूस हुआ था और वो था 007. एक बार तो सोचा कि चलो हम वही बन जायेंगे, 007 नहीं तो 008 या  009 or whatever it is. लेकिन ये बड़ा कठिन लगा। वैसे तो खुद पर विश्वास था कि जेम्स बांड के द्वारा किये जाने वाले मुश्किल दिखने वाले काम, जिन्हें देखने में ही अभी हमारी साँस रुक जाती हो, उनमें तो अभ्यास से ये जड़मत भी सुजान हो जायेगा लेकिन वो जो कुछ भी खा लेने का और कुछ भी पी लेने वाला काम है, उसे सोचकर हमने मन मसोसकर खुद से कहा कि रहने देते हैं भैया, हमसे न होगा।

जीवन के अलग अलग पड़ाव पर कैरियर के बारे में निर्णय बदलते रहे। कभी शिक्षक बनने की सोची, कभी लाईब्रेरियन बनने की, फ़ौज में जाने की भी इच्छा थी। चार्टर्ड एकाऊंटेंट बनने के तो चांस भी बनने लगे थे, एडमिशन भी ले लिया था और आर्टिकलशिप भी साल भर की हो गई थी कि मंडल-कमंडल के रगड़े में ये गरीब आ गया। कहने का मतलब ये है कि हम बहुत कुछ बन सकते थे मगर ये हो न सका। मगर ये हो न सका और अब ये आलम है कि हमने जो बन गया उसी को मुकद्दर समझ लिया और जो नहीं बना मैं उसको भुलाता चला गया।

मैं छोटा था तो कई लोग कहते थे कि He is too mature, आज मैं पैतालीस के लपेटे में हूँ तो मुझे लगता है कि I am too childish. मुझे खुद पता नहीं रहता कि कब मैं एकदम गंभीर हो जाता हूँ और कब एकदम हल्का। गंभीर चर्चा चल रही होती है और मैं ऐसी प्रतिक्रिया दे बैठता हूँ कि सामने वाला चौंक जाये। कभी हँसी-मजाक में भी गंभीरता का पुट, सामने वाला कह देता है कि यार इतने सीरियस भी मत रहा करो। वो अपना माथा पीटते हैं और पता चलने पर मैं अपना, मेरी नीयत तो साफ़ थी।

यूँ तो मनुष्य की आदत है कि जो मिल जाता है उसका मान नहीं करता और जो नहीं मिला उसके लिये दुखी रहता है। यह स्वाभाविक है लेकिन चिंगारी को यार लोगों ने भी भड़का दिया है, सोच रहा हूँ कि कैरियर स्विच कर लिया जाये। हालाँकि वर्तमान में जिस नौकरी में हूँ, तन्ख्वाह ठीक ठाक है और रिटायरमेंट के हिसाब से अभी तो मैं जवान हूँ।  लेकिन परेशानी ये है कि यहाँ काम करना पड़ता है। काम भी करो और काम भी बिना मजे का, बाज आये ऐसी नौकरी से। अब हम ऐसे काम की तलाश में हैं जिसमें पैसे कुछ कम मिलें लेकिन करने में आनंद आये। कुछ ड्रीम कैरियर मैं ऊपर बता चुका लेकिन उनके लिये आयु सीमा निकल चुकी, कुछ विकल्प नीचे बताता हूँ। आप सुझाव देना चाहें तो स्वागत है, कोई भी विकल्प बता सकते हैं। नौकरी करते रहने का, नौकरी छोड़ने का, ये काम करने का, वो काम बिल्कुल न करने का सुझाव, कुछ भी सुझाव चलेगा। लिस्ट को विस्तार देना चाहें तो साथ में सुझाव देने का आपका औचित्य भी बतायें, डबल आभार अग्रिम में। अब इतने स्वागत करने के बाद, अग्रिम में डबल आभार देने के बाद भी  किसी को माथा पीटना पड़े तो किस्मत उसकी, हमारी नीयत तो एकदम साफ़ है।

१.  चूड़ियां पहनाने का धंधा - सीज़नल है लेकिन सदाबहार धंधा लेकिन अपनी भाषा सुधारनी पड़ेगी।

२.  चाट-पकौड़ी का धंधा     -  ये भी सदाबहार है लेकिन मिर्च-मसाला हमें अपने हिसाब से डालने 
                                             की आदत है।

३.   झोटा पालन                -   मुनाफ़े का काम लेकिन दिल्ली छोड़नी पड़ेगी।

४.   धार लगाने का धंधा     -   चाकू छुरियों पर धार लगाने में आगे अच्छा स्कोप दिखता है लेकिन 
                                             अपने हाथ कटने का डर है।

और विकल्पों पर मंथन जारी है.....

अब इतने स्वागत करने के बाद, अग्रिम में डबल आभार देने के बाद भी  किसी को माथा पीटना पड़े तो किस्मत उसकी, हमारी नीयत तो एकदम साफ़ है जी............

गुरुवार, अक्तूबर 23, 2014

दीपोत्सव

महापर्व के दिन हैं तो पिछले दो तीन दिन से  लौटते समय मेट्रो में बहुत भीड़ हो जाती थी। ’नानक दुखिया सब संसार, सारे दुखिया जमनापार’ के रिमिक्स श्लोक के द्वारा  दिल्ली के जिन जमनापारियों का महिमामंडन दशकों से होता आया हो, उन जमनापार वालों की मेट्रो लाईन पर होने वाली भीड़भाड़ च धक्कामुक्की का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं। सिवाय इसके, एक दो फ़ले फ़ूले से दीवाली गिफ़्ट भी हाथ में थे तो माबदौलत ने कल शाम मेट्रो को तलाक-तलाक-तलाक कहकर धुर तक भारतीय रेल से नाता रखने का निर्णय लिया। दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हाल और भी शानदार था, खुर्जा जाने वाली गाड़ी का इंतज़ार करते हुये देखा तो जमनापार वालों के साथ उत्तम प्रदेश यानि पुत्तर प्रदेश के बाशिदे भी मनसे के साथ ओवैसी की MIM की तरह हाजिर। संजय कुमार, होर वड़ो..., इससे तो मेट्रो ही ठीक नहीं थी?

ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना? ’व्हेन इन रोम, डू एज़ रोमंस डू’ को याद किया और जमनापारियों की तरह डू’ते हुये यानि कि बाजू, कोहनी, कंधों, पैरों के साथ जुबान का भरपूर इस्तेमाल करते हुये हम भी गाड़ी में चढ़ ही गये। हर तरफ़ उत्सव का प्रभाव दिख रहा है, ज्यादातर सहयात्री पुरानी दिल्ली और आसपास के बाजारों में दुकानों पर काम करने वाले लड़के हैं और उनकी बातें मालिक से मिले उपहार और अपनी अपेक्षाओं के अंतर पर केंद्रित। जो अपने मन में, वो उनकी बातों में - हम सब एक हैं :)

रात के नौ बजने वाले हैं, बाहर नजर जाती है तो आसमान में गहरा अंधेरा। अजीब बात है लेकिन अंधेरा मुझे अच्छा लगता है, गहरा अंधेरा और ज्यादा अच्छा। दूर कहीं कोई रोशनी चमकती है तो बहुत बहुत अच्छा लगता है। 

मन ही मन स्वयं  कन्फ़र्म कर रहा हूँ कि  मैं शायद विरोधाभासों से भरा आदमी हूँ, उत्सवप्रिय  नहीं हूँ लेकिन वैसा भी नहीं जैसों के बारे में कहा जाता है कि ’निर्भाग टाबर त्यौहार के दिन रूसयां करैं।’ खुद बहुत उत्साही नहीं हूँ लेकिन दूसरों को उत्साहित देखता हूँ तो अच्छा लगता है, छोटी खुशियों पर उत्साहित देखता हूँ तो और ज्यादा अच्छा लगता है। जिस खुशी से दूसरों को दुख न होता हो, ऐसी खुशी को देखकर बहुत बहुत अच्छा लगता है।

स्टेशन कितनी दूर है, यह अनुमान लगाने के लिये दृष्टि अंधियारे आसमान से जमीन की तरफ़ लाता हूँ तो आम तौर पर अंधेरों में डूबी रेल पटरी के आसपास की कच्ची-पक्की झुग्गियाँ  रंग बिरंगी रोशनी से नहाई हुईं दिख रही हैं। पीछे की कॉलोनियों में छोटे-बड़े मकानों पर बिजली की चमचमाती लड़ियाँ ऐसा लग रहा है कि अंधेरे से रोशनी की लड़ाई थमी नहीं है बल्कि पूरे उत्साह से जारी है। अच्छा अनुभव हो रहा है, बहुत अच्छा लग रहा है। यही तो है दीप पर्व का असली उद्देश्य, जहाँ अंधेरा है वहाँ रोशनी की जरूरत ज्यादा भी और सार्थक भी।

सच ये भी है कि बीच बीच में ऐसे भूखंड भी आ रहे हैं, जहाँ आज सामान्य से भी कम रोशनी और सन्नाटा है। इन इलाकों से वास्ता रहा है तो जानता हूँ कि ये अंधेरा यहाँ आज ज्यादा गहरा क्यों है। ये भी जानता हूँ कि कुछ जगहों पर अंधेरा हमेशा रहेगा भी हालाँकि ’अंधेरों में जो बैठे हैं, नजर उनपर जरा डालो - अरे ओ रोशनी वालों’ वाली गुहार सुनकर कभी भावुक भी मैं ही होता था।   पहले ही मान चुका हूँ कि अंतर्विरोधों से भरा आदमी हूँ :) लेकिन इन अंधेरों से अब परेशानी भी नहीं होती क्योंकि अंधेरे के अभिशप्तों के अंधेरे की उनकी अभ्यस्तता के अधिकार का सम्मान करना समय ने सिखा दिया है। 

स्टेशन से बाहर निकल रहा हूँ। कुछ साल पहले तक यहाँ झुग्गियाँ थीं, अब पक्के मकान बन चुके हैं तो अच्छा लगा। एक औरत ने जो निश्चित ही किसी अंबानी/अडानी परिवार से नहीं है. मेज का जुगाड़ करके उसपर कुछ मोमबत्तियों के पैकेट और सजावटी सामान बेचने के लिये रखे हुये हैं, देखकर बहुत अच्छा लगा। हर कोई उद्यमशीलता की ओर प्रवृत्त होता दिखे तो बहुत बहुत अच्छा लगेगा। 

अंधकार और प्रकाश का यह प्रतिद्वंद्व सतत है और रहेगा। आप किसके पक्ष में है, यह चुनाव आपने करना है।

आप सबको दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें। हम तो इस वर्ष शायद दीपावली न मनायें लेकिन आप सभी पटाखे, आतिशबाजी आदि का प्रयोग करते समय अपनी व दूसरों की सुरक्षा में लापरवाही कदापि न बरतें।  स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें। 

पुनश्च ’शुभ दीपावली’






रविवार, अगस्त 03, 2014

एक गुंडे का कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट


मोबाईल में अब भी वही गाना बज रहा था ’अपने लिये जिये तो क्या जिये,  तू जी ऐ दिल ज़माने के लिये’ और वो साथ साथ गुनगुना रहा था। मेट्रो स्टेशन से बाहर निकले तो उसके आगे एक लड़की थी जिसके कंधे पर डिज़ाईनर बैग और हाथ में बड़ा सा मोबाईल था। वो यूँ ही सोचने लगा कि मैंने अपना सस्ता सा मोबाईल भी जेब में रखा हुआ है और ये लड़की अपने महंगे मोबाईल को भी हाथ में लेकर चल रही है। फ़िर सोचने लगा कि शायद यही महंगे-सस्ते का अंतर ही प्रदर्शन करने और न करने का कारण है। 

रोज का रास्ता है तो वो जानता है कि आये दिन यहाँ मोबाईल छीनने की वारदात होती रहती हैं। बीच में तो एक टुकड़ा ऐसा भी आता है जहाँ स्ट्रीट लाईट भी नहीं जलती। पता नहीं क्यों, बार बार उसे लग रहा था कि इस लड़की के हाथ में लहराता मोबाईल आज कुछ गुल जरूर खिलायेगा। वो भी मन ही मन संभावित मोबाईल झपट को नाकाम करने के लिये खुद को तैयार करने लगा। बरसों पहले पढ़े जासूसी नॉवल्स की यादें,  विज्ञापनों में देखे अक्षय-सलमान के स्टंट्स, कानों में बजता हुआ गाना सब मिलकर नसों में एड्रेनालाईन उत्पादन असर दिखाने लगे थे। रास्ते के एक तरफ़ दीवार थी तो एक साईड तो कवर हो गई, उसने अपनी पोज़ीशन आगे चलती लड़की के थोड़ा सा पीछे और थोड़ी सी दायीं तरफ़ तय कर ली ताकि पीछे से तो कोई झपटमार न ही आ सके। सामने की तरफ़ से आकर किसी ने हरकत की तो उसे रंगे हाथ पकड़ने के लिये ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। 

लड़की की भी छठी इंद्री शायद काम करने लगी थी, बीच बीच में पीछे मुड़कर देख रही थी। हम्म, मतलब ये कि इतनी बेवकूफ़ नहीं है। आंखों ही आंखों में उसने लड़की को आश्वस्त भी किया कि चिंता मत करना, हम साथ-साथ हैं। एकदम से लड़की रुक गई और कोई नंबर मिलाने लगी। वही जगह थी जहाँ अंधेरा ज्यादा था। अजीब घामड़ लड़की है यार, यहीं रुककर फ़ोन करना था? दोनों के बीच गैप ज्यादा तो था नहीं, अगर चलता रहा तो वो लड़की से आगे निकल जायेगा और जमाने के लिये जीने की सारी प्लानिंग धरी रह जायेगी।  वो भी रुककर बहाने से अपनी जेब टटोलने लगा। लड़की चलने लगी, वो भी चलने लगा। धीरे धीरे अंधेरे वाला हिस्सा पार हो गया और सड़क किनारे बैठे सब्जीवाले और मोलभाव करते ग्राहकों की आवाजें बढ़ने लगीं। यूँ ही कुछ देर के बाद खतरे वाला रास्ता खत्म हो गया, उसे भी सड़क छोड़कर दूसरे रास्ते पर मुड़ना था। उसकी चाल अब कुछ धीमी हो गई थी। मन की हालत अजीब सी थी, अंदाजा गलत होने का थोड़ा सा मलाल भी था और इस बात का थोड़ा इत्मीनान भी कि झपटमारी नहीं हुई ।

दिल के बहलाने को उसको ये ख्याल अच्छा लगा कि लड़की उसे एस्कार्ट करने के लिए थैंक्स कह रही है लेकिन इस ख्याल ने कन्फ़्यूज़ भी कर दिया कि जवाब में’मेंशन नॉट’  कहना ज्यादा सही होगा या ’यू आर वेलकम’ कहना। मुड़ने से पहले एक बार फ़िर उधर देखा तो पाया कि चौराहे पर स्थित पुलिस बूथ पर तैनात कर्मियों से कुछ बात कर रही है। वो अपने घर के रास्ते पर मुड़ गया।

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’ओ भाई साहब, ठहरो जरा" पुलिस कर्मी ने पीछे से आकर रोका और उसे अपने साथ पुलिस बूथ पर ले गया। 

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(आधा घंटा बाद का द्रश्य )

उसकी हालत खराब होती जा रही थी। किसी जानपहचान वाले ने देख लिया कि पुलिसवालों ने पूछताछ के लिये रोक रखा है तो उसका कितना अपमान होगा? घर के लोगों को पता चलेगा तो उन्हें भी कितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। बच्चों को कैसे मुँह दिखायेगा? किस किस को सफ़ाई देगा कि लड़की को गलतफ़हमी हुई होगी? ईमानदारी से सोचकर देखा तो लड़की ने कुछ गलत भी नहीं किया। बिना जान पहचान के अगर कोई सधे कदमों से पीछे आ रहा है तो उसे पीछा करना ही माना जायेगा। हो सकता है कि लड़की ये चैक करने के लिये ही रास्ते में ठिठक कर रुकी हो और उसकी खुद की मति खराब हो गई थी जो वो भी रुककर अपनी जेबें टटोलने लगा था। अब वो खुद पर ही खीझने लगा था, और करो भलाई। अपनी जान पहचान के दो तीन सज्जनों का हवाला पुलिसवालों को दे चुका था लेकिन हैरानी की बात ये हो रही थी कि जिनकी सज्जनता का वो और उसकी पहचान वाले दम भरते थे, उन्हें इलाके के पुलिस वाले ही जानने और मानने से इंकार कर रहे थे।

"अरे भैया, कैसे? क्या बात हो गई?"  कार नजदीक ही आकर रुकी और ड्राईविंग सीट पर बैठे बंटी ने पूछा। 

उसने कहा, "कोई बात नहीं, वैसे ही जरा। तू जा यहाँ से।"  मन ही मन बुदबुदाया, ’इसे कहते हैं कोढ़ में खाज’ इन कठोरों को पता चल गया कि ये दस नंबरी अपना रिश्तेदार है तो वारंट कटे ही कटे। ऊपर से ये और खुश होगा कि भैया भी बड़े नाक वाले बनते थे और लड़कियों का पीछा करने का केस दर्ज होने वाला है।’

दरवाजा खोलकर बंटी बाहर निकला और उसके मना करते करते भी बूथ में घुस गया। पांच सात मिनट तक उन लोगों में ’अबे यार, दिमाग खराब है? भों.... के, ...तिया है क्या?’  होती रही, वो भोंचक्का होकर देखता सुनता रहा। वो हैरानी से ये सब देख रहा था कि तभी बंटी ने बूथ इंचार्ज के कान के पास मुँह ले जाकर कुछ कहा और इंचार्ज जोर से हँसने लगा।  बंटी आकर ड्राईविंग सीट पर बैठ गया, साथ वाला दरवाजा खोलकर उसे भी बैठने के लिये कहने लगा। उसने मुड़कर पुलिस वालों की तरफ़ सवालिया निगाहों से देखा तो वो मुस्कुरा रहे थे, "जाओ भाईसाहब और आईंदा से घणा गोपीचंद जासूस मत न बणियो।"

कार में बैठने लगा था कि वो ठिठक गया। बंटी से कहा, "तू जा यार बंटी, मुझे कुछ काम है।" बंटी हँसने लगा, "ठीक है भैया, किसी ने तुम्हें मेरे साथ बैठा देख लिया तो वैसे भी पता नहीं क्या सोचेगा आपके बारे में। जाता हूँ।"

कार चली गई, वो भी घर जाने के लिये तत्पर हुआ। बूथ इंचार्ज को कहा, "ठीक है सर, थैंक्यू।" फ़िर कुछ याद आया तो उसने पूछा, ’सर, ये बंटी आपके कान में क्या कह रहा था?"

इंचार्ज फ़िर से हँसने लगा, "थारी शराफ़त का सुबूत दे रहा था, बतावे था कि वो एक बार  तेरे धोरे  कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट बनवाण गया था और तैंने मना कर दी थी।" 

घर जाते समय वो सारे रास्ते सोच रहा था कि बरसों पहले उसने कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट देने से मना करके सही किया था या गलत?

घर में घुसते ही जब तक बच्चे देरी का कारण पूछें, उससे पहले ही उसने लड़के से कहा, "यार, मेरे मोबाईल में वो गाना डाल दे ’अपना काम बनता, ....   ..... जनता’        कल से वही सुनेंगे। 

मंगलवार, जुलाई 01, 2014

झाड़ू-नमक

मेरे बाँये पैर के अंगूठे के ठीक ऊपर एक मस्सा था जो जन्म से नहीं था बल्कि मेरे कुछ बड़े हो जाने के बाद हुआ था। हालाँकि वो मस्सा आकार में चने के बराबर था लेकिन पैर के अंगूठे पर होने के कारण एकदम से सबका ध्यान नहीं जाता था।  उन्हीं दिनों मेरी गर्दन और छाती पर छोटे छोटे तिल-मस्से निकल आये। परिजनों का ध्यान जाता तो मुझे कहा जाता कि किसी डाक्टर वगैरह को दिखाओ। मैं यही मानता था कि कोई हार्मोन कम ज्यादा होने से ऐसा हो गया होगा, सीरियसली नहीं लिया।

ऐसे ही एक बार रिश्ते के एक भैया  ने इस पर गौर किया और मेरी अच्छे से क्लास लगाई। उन्होंने अपना किस्सा बताया कि उनकी गर्दन पर भी इसी तरह बहुत से मस्से हो गये थे और नौबत ये आ गई थी कि शेविंग करते समय टॉवल खून से सन जाया करता था। बताने लगे कि उन्होंने इसीलिये दाढ़ी रखी थी। हालाँकि जब हमारी बात चल रही थी उस समय वो इस समस्या से मुक्ति पा चुके थे। उनका खुद का आजमाया हुआ आसान सा तरीका उन्होंने मुझे भी बताया, "सहारनपुर में नौ गज़ा पीर की मजार पर एक बार झाड़ू और नमक चढ़ाया जायेगा और ठीक होने पर एक बार फ़िर से यही चढ़ाने की मन्नत माँगी जायेगी, कुछ ही दिनों में तिल और मस्से खुद झड़कर गिर जायेंगे। प्रत्यक्ष प्रमाण तुम्हारे सामने मैं खुद खड़ा हूँ।" चूँकि वो आयु में और रिश्ते में मुझसे बड़े थे और मेरी परवाह भी करते थे, उनकी डाँट मैंने गंभीरता से सुनी। हमेशा की तरह इस बार भी इरादा भी सिर्फ़ सुनने का ही था लेकिन शायद वो भी मेरी भावना समझ गये और सिर्फ़ भाषण और परामर्श देकर चुप नहीं बैठ गये बल्कि एक पारिवारिक एकत्रीकरण में सबके सामने वही आजमाया हुआ नुस्खा क्रियान्वयित करने का आदेश पारित करवा करके माने। पारिवारिक पंचायत के सामने मुझे भी झुकना पड़ा कि जब भी सहारनपुर जाना हुआ. ये काम यकीनन निबटाया जायेगा।

सहारनपुर शहर से बाहर निकलते ही ’नौगजा पीर की मजार’ के नाम से एक स्थल है। विशेषतौर पर जुमेरात को माथा टेकने वालों की खासी भीड़ वहाँ होती है और स्वाभाविक रूप से लगभग सभी हिन्दु मतावलंबी होते हैं।  इस स्थल की मुख्य मान्यता वही है जो ऊपर लिखी, ’अवांछित तिल/मस्सों का सूखकर झड़ जाना।’ बाई-प्रोडक्ट्स के रूप में हिन्दु-मुस्लिम एकता, गंगा जमुनी तहज़ीब वगैरह मुलम्मे तो हैं ही। कुछ दिनों के बाद सहारनपुर जाना हुआ तो हम भी रास्ते का आईडिया लेकर गये और अनमने ढंग से नमक-झाड़ू की रस्म अदायगी कर दी गई। ये किसी धार्मिक मजार की अपनी पहली और आखिरी विज़िट थी।

जब तब मुलाकात होने पर भैया द्वारा मेरी गर्दन और आसपास के इलाके का मुआयना किया जाता। चूँकि पूछे जाने पर मैंने कहा था कि मैं वहाँ हो आया हूँ और झाड़ू-नमक भी चढ़ा आया हूँ तो मुझ पर झूठ बोलने का आरोप तो भैया ने नहीं लगाया लेकिन अंतत: घोषित कर दिया कि मैंने वहाँ सच्चे दिल से मन्नत नहीं माँगी होगी। 

उस विज़िट के दस-बारह साल बाद सन २००७ के एक दिन सर्जन ने दस मिनट के एक ऑपरेशन में मेरे अंगूठे का वो मस्सा काट दिया। 

ज्ञानचक्षु अपने अब भी नहीं खुले, आज से पन्द्रह साल पहले उस समय तो खैर क्या ही खुले होने थे। उस समय अपनी सोच ये थे कि पीर ही सही लेकिन जिसे नौ गजा बताया जा रहा है, उसी अनुपात में उसकी शक्तियाँ बखानी जा रही होंगी। अपने को ज्यादा अजीब सा तब लगा जब पंजाब जाते समय अंबाला के पास भी इसी नाम की एक मजार देखी।  हम तो एक पीरजी के कद को लेकर ही गणित लगा रहे थे और ये दूसरे भी? एक ही बंदे की बेशक वो पीर ही क्यूँ न हो, दो जगह मजार कैसे? और अगर अलग अलग पीरों की मजार है तो ऐसे और कितने होंगे?  हालाँकि बाद में कुछ सूचनावर्धन अवश्य हुआ। जो दिखता है, वही संपूर्ण सत्य नहीं है बल्कि नेपथ्य में बहुत कुछ है। नेट पर देखा तो पाया कि अकेले भारत में ऐसी एक दो नहीं बल्कि हजारों मजारें हैं। 




कुछ दिन से शिर्दी वाले साईं बाबा के बारे में भी कई चर्चे हैं। लोग आक्रामक रूप से पक्ष में हैं या विपक्ष में, वहीं कुछ (बहुत से) लोग किंकर्तव्यमूढ़ से हैं। एक मित्र का फ़ोन आया और वो इस मुद्दे पर मेरी राय जानना चाह रहे थे। उस समय तो टाल दिया लेकिन  मैं क्या राय दे सकता हूँ? इतना जरूर है कि बहुत सी बातें सोचने विचारने वाली  हैं। घटनाओं का पैटर्न देखिये, प्रभाव देखिये।  व्यक्तिगत संबंधों में दिल और दिमाग में दिल को वरीयता देना बहुत बार त्याग का सूचक होता है लेकिन जब किसी गतिविधि का प्रभावक्षेत्र व्यष्टि से समष्टि की तरफ़ होता हो तो अपने दिमाग को कुछ कष्ट देना चाहिये।  दूसरों की राय पर आँख मूँदकर न चलें, सोच विचार कर खुद निर्णय लें। 

मैं किसी धार्मिक पीठ पर विराजमान कोई शख्सियत होता तो निश्चित ही इस बात का विरोध कर रहा होता कि सनातन धर्म पर ये छद्म आक्रमण बंद हों और माँग करता कि किसी दूसरे धर्म वाले को पिछले दरवाजे से मेरे भगवान से बड़ा दिखाना बंद किया जाये।

मैं कोई राजनेता होता तो शायद इस बात का विरोध कर रहा होता कि मेरी आस्था पर चोट किया जाना बंद हो। मेरी त्वरित इच्छापूर्ति की गारंटी या आत्मतुष्टि जिससे मिले मैं वो करने को स्वतंत्र बता रहा होता बेशक मेरा वो कदम राष्ट्र हित को खतरे में डाल रहा हो।

मैं भी व्यावहारिक सा फ़ैशनेबल मनुष्य होता तो जिधर भीड़ जाती दिखे, उधर मुँह उठाकर चल देता।

लेकिन मैं ये सब नहीं हूँ, हो भी नहीं सकता।  

आज अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुये अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले अमर शहीद अब्दुल हमीद का जन्मदिवस है, उन्हें सादर श्रद्धाँजलि।






रविवार, जून 15, 2014

होर वड़ो..

’लाला’ एक ऐसा शब्द है जो कभी किसी जाति का सूचक बन जाता है, कभी किसी व्यवसाय का। पंजाब की तरफ़ हिन्दु परिवारों में घर के मुखिया को लाला कहकर संबोधित किया जाता है और ब्रज में छोटे बच्चे को लाला कहकर बुलाते हैं।  जब कोई काबुली पठान आवाज लगाये ’ओ लाले की जान’ तो पता चलता है कि कानून की तरह लाला की पहुँच भी बहुत लंबी है, सरहद की सीमाओं को पार भी कर जाती है। लेकिन यहाँ हम जिस लाला का किस्सा बताने जा रहे हैं, वो इनमें से किसी से भी संबंधित नहीं। वो खानदानी लाला था, है और रहेगा। पता नहीं कितनी पीढ़ी पहले, क्यों और कैसे ये लेबल उनके साथ लग गया था और हर नई पीढ़ी कर्ण के कवचकूंडल की तरह इस ’लाला’ पदवी के साथ ही अवतार लेती रही।  उसके पिताजी का भी एक भला सा नाम था लेकिन उस नाम से उन्हें कोई नहीं जानता था, ’लाला’ कहने से ही उन्हें पहचान लिया जाता था। इस लड़के का भी सोहणा सा नाम था लेकिन हमारी  मित्र मंडली में ये भी ’लाला’ ही कहलाता था।

दसवीं की परीक्षा हो चुकी थी और हमारी रोड इंस्पेक्टरी चालू थी। बोर्ड परीक्षा की मानसिक थकान उतारने के बहाने किराये पर वीडियो लाकर फ़िल्में देखने का कार्यक्रम बन चुका था। आयोजन स्थल का फ़ाईनलाईज़ेशन चल रहा था। दो सरदार भाईयों के अलावा लगभग सब लड़़कों ने पैसा कंट्रीब्यूट करने की हामी भर रखी थी। उनकी हामी भी उनके दारजी की हामी के इंतज़ार में रुकी हुई थी लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम थी। इस बार जैसे एक एक वोटर को बूथ तक लाकर  वोट प्रतिशत बढ़ाने का अभियान चला था, हमारे ऐसे सामूहिक कार्यक्रमों में एक एक को शामिल किया जाना आर्थिक कारणों से बहुत आवश्यक था।    ऑनलाईन चंदा तो उस समय आता नहीं था, पॉकेटमनी भी इतनी नहीं होती थी कि रोज रोज ये आयोजन किया जा सके इसलिये आज के समय में फ़ालतू सा लगने वाला वो प्रोग्राम हम लोगों के लिये कामनवेल्थ खेलों जैसा आयोजन ही था। पैसा इकट्ठा हो भी गया तो सारी रात वीडियो कहाँ चलेगा, ये सवाल मुँह बाये हम सबके सामने खड़ा था।

जिस दिन दोनों भाईयों के लिये परमीशन और चंदा उगाही के मकसद से हमारा प्रतिनिधिमंडल दारजी की अदालत में पेश हुआ, हमारी तरफ़ से भूमिका वाला तंबू तानने के बाद उनका प्रैक्टिकल सवाल यही था कि वीडियो किसके घर चलाया जायेगा? बिल्ली के गले में घंटी बांधी थी तो  पहली उंगली इस गरीब की तरफ़ उठनी स्वाभाविक ही था। मैंने कहा कि प्रोग्राम बने तो ठीक और न बने तो और ठीक, मेरे भरोसे ये प्रोग्राम न बनाया जाये। मेरे पिताजी को शोर शराबा पसंद नहीं, इसलिये मेरे यहाँ तो वीडियो चल नहीं सकता{ दोस्तों ने कानाफ़ूसी करके और पीठ पर धौल धप्पे मारके मेरे डिप्लोमैटिक न होने पर दुखी होते हुये प्रोग्राम कैंसिल होने की आशंका जताई लेकिन दारजी ने मेरी पीठ ठोकी, "शाबाश, साफ़ कहना सुखी रहना।" दूसरे से यही सवाल किया गया तो उसने अपने घर में अपनी बुआ और उनके बच्चों के आने का हवाला देकर और जगह की तंगी की वजह बताकर मुक्ति पाई। धीरे धीरे ऐसा हुआ कि एक एक करके जगह मुहैया करवाने से सब पीछे हटते गये और फ़िल्में देखने का प्रोग्राम अब धूल धुसरित होता दिखने लगा। दारजी खुस होते जा रहे थे क्योंकि प्रोग्राम कैंसिल तो डबल टिकट के पैसे देने से वो बिना कोई इल्जाम लिये बचने जा रहे थे। एकदम से ’लाला’ बोला, "वीडियो मेरे घर चला लेंगे, उसकी कोई टेंशन नहीं है।" लड़कों में लाले की शावा-शावा, बल्ले-बल्ले हो गई। कईयों ने उसके गाल चूम लिये, बंदा हो तो ’लाला’ जैसा वरना हो ही नहीं। दारजी का मूड ऑफ़ हो गया, कई तरह से उन्होंने ’लाला’ को डिगाने की कोशिश की। "वड्डे लाले से पूछ तो लेता"  लेकिन हमारा दोस्त ’लाला’ एकदम कूल और रिलेक्सड था। "दारजी, कह दिया तो कह दिया। तुस्सी चिंता न करो, बस इन दोनों को परमीशन दे दो और हमें इन दोनो के हिस्से का पैसा, हमने वीडियो बुक करवा देना है।" मायूस होते हुये दारजी को दोनों चीज देनी पड़ीं, परमीशन भी और डबल फ़ीस का वादा भी। 

पूरे सप्ताह लड़कों का उत्साह पूरे जोरों पर रहा। दारजी बीच बीच में हमें भी टोक देते और अपने लड़कों को भी, "इस ’लाले’ दे प्यो नूं मैं बड़ी चंगी तरां जाननां, कट्टी उंगल ते नईं मूत्या उसने ते ऐ भैण दा यार हाँ भर गया? साल्यो अगर ऐ मुकर गया मैं पैसे नईं देणे " (इस लाले के बाप को मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि वो आजतक किसी के काम नहीं आया और ये पता नहीं कैसे जिम्मेदारी ले रहा है? सालों इसने धोखा दिया तो मैंने तुम्हारे पैसे नहीं देने) सारी बच्चा पार्टी दारजी को विश्वास दिलाती कि इसका बाप ऐसा जरूर रहा होगा लेकिन हमारे वाला ’लाला’ धोखा नहीं देगा। रोज ये कहानी छिड़ती, इतना अंतर जरूर आ गया कि अब लाला की इज्जत बहुत होने लगी थी। बैटिंग में उसे अब सेवंथ डाऊन की जगह सैकंड डाऊन पर भेजा जाने लगा, ताड़मताड़ा(गेंद से एक दूसरे को निशाना बनाने का देसी खेल) में जिस लाला के पिछवाड़े को गेंद से सुजाने को लालायित रह्ते थे, लड़के अब उसे बेनेफ़िट ऑफ़ बेनेवोलेंस दे रहे थे। एक दूसरे से छीनकर खाने वाले फ़ल और दूसरे सामान में से लाला को पहले भोग लगवाया जा रहा था, कहने का मतलब ये कि लाला की पांचों घी में थीं और सिर कढ़ाही में था।

नियत दिन से एक दिन पहले दारजी ने अपने दोनों लड़कों की फ़ीस भी चुका दी, अलबत्ता ’लाला’ की हाँ पर उनकी हैरानी अब तक कायम थी।  असल में दारजी को एक बड़ा डर था कि बाल मंडली वीडियो वाला प्रोग्राम कहीं उनके दूसरे प्लॉट पर रखे हमारी कालोनी के सबसे पहले रंगीन टीवी पर देखने का न बन जाये, इसलिये उन्होंने पहले जगह फ़ाईनल करवाई थी और उसके बाद लड़कों का हिस्सा डाला था।

देखते ही देखते कयामत की वो रात आ पहुँची, लाला रिक्शा करके वीडियो लेने चला गया और हम सब लड़के गली के चौक में खड़े होकर इंतज़ार करने लगे कि लाला अपने घर में वीडियो और टीवी की सेटिंग ओके करवाकर आये और फ़िर हम सब उसके घर जायें। घंटे भर बाद लाला आता दिखा, सीधे दारजी के पास गया, "अकलजी सॉरी, मेरा लाला कै रया है कि सारेयां ने बराबर पैसे दित्ते हैं तो  रौला साड्डे घर क्यों पयेगा। या तां तेरे कोल पैसे न लये हुंदे, हुण मैं नईं चलण देना वीडियो ऐत्थे।"(मेरे पिताजी कह रहे हैं कि पैसे सबके बराबर लगे हैं तो शोर शराबा मैं अकेले अपने घर में नहीं होने दूँगा। या तो तुझसे हिस्सा न लिया होता) पीछे रेडियो में मुकेश की आवाज में गाना बज रहा था, "ये न होता तो कोई दूसरा गम होना था’ दारजी  अपने हमउम्र वाले लाले के साथ के अपने पूर्व अनुभव याद कर रहे थे, हम लड़के इस हफ़्ते में लाले को दी हुई रियायतें याद करके पछता रहे थे, वीडियो वाला अलग अल्टीमेटम दे रहा था कि वीडियो चले या न चले वो सुबह तय समय पर वीडियो वापिस ले जायेगा।

डरते डरते दारजी के सामने प्रस्ताव रखा गया कि अब और कोई चारा तो है नहीं, दया करके अपने प्लॉट पर वीडियो देखने की इजाजत दे दें वरना उनकी और हम सबके माँ-बाप की मेहनत से कमाई गई राशि व्यर्थ चली जायेगी। सभी परिवार कमोबेश एक जैसी आर्थिक हालत के थे, जेब तंग लेकिन दिल उतने तंग नहीं। दारजी गुस्से में तो थे ही, कुर्ते की जेब से प्लॉट की चाबी निकालकर अपने लड़कों की तरफ़ फ़ेंकी और बोले, "भैनचोदों, होर वड़ो लाले दी बुंड विच।" 
(होर = और
वड़ो = घुसो)
बाकी तो आप सब विद्वान हैं ही :)

सारी रात हम लड़कों ने दारजी का वो डायलाग उतनी बार दोहराया कि उतनी बार किसी परमात्मा के नाम की माला जपते तो भवसागर से पार पहुँच जाते।

बैंक में आने के बाद एक बार ऐसा हुआ कि किसी दोस्त से मिलने एक छोटे से कस्बे में गये और वहाँ जाकर पता चला कि वो अपने घर गया हुआ है। वापिसी की ट्रेन थी रात साढे तीन बजे। प्लेटफ़ार्म पर अखबार बिछाकर कभी बैठकर और कभी लेटकर हम किस्सा-ए-चार दरवेश का नाटकीय रूपांतरण करते रहे ताकि नींद न आ जाये। ये किस्सा उस दिन दोस्तों को सुना बैठा। सुनाया तो था मजे के लिये, लेकिन उसके बाद से जब कभी हवन करते हाथ जलने जैसा मौका आया और ऐसे मौके तब आते ही रहते थे, तो कोई न कोई दोस्त धीरे से इतना कहता था, ’होर वड़ो..’ कसम से गुस्सा तो बहुत आता था लेकिन खून के घूँट पीकर रहना पड़ जाता था। किस्सा तो आखिर मैंने ही सुनाया था न, पंगा तो मैंने खुद ही लिया था न...

क्लेमर/डिस्क्लेमर/फ़्लेमर और डिस्फ़्लेमर(whatever it is) - वोट के लिये अपना धर्म-ईमान गिरवी रखते और बाद में अपने ही तथाकथित वोटबैंक से जूते खाते किसी नेता से या ऐसी ही किसी मिलती जुलती घटना से इस पोस्ट का कोई संबंध नहीं है। फ़ेसबुक पर या ब्लॉग पर कभी कभी किसी घटना का पता चलता है तो मुझसे बरबस ही लिखा जाता है ’होर वड़ो’ - मेरा लिखा कई बार हिन्दी में होने के बावजूद भी मुझे ही समझ नहीं आता तो इस पंजाबी जुमले ’होर वड़ो.......’ को पढ़कर बाकी लोग कहीं मुझे एकदम से पागल न समझ बैठें, इसलिये खुलासा कर दिया। कहने का मतलब ये है कि असी पागल हैगे लेकिन एकदम वाले पागल नहीं हैगे, समझ रहे हैं न? समझ गये तो ठीक है नहीं तो .......

रविवार, जून 01, 2014

गलती हो गई जी

किसी कर्मचारी के विरुद्ध एक विभागीय जाँच चल रही थी और उस कार्यवाही में मैं भी एक भूमिका निभा रहा था। विभागीय जाँच वगैरह का जिन्हें अनुभव या अनुमान है, वे जानते ही होंगे कि इनका सेटअप भी कुछ औपचारिकताओं को छोड़कर लगभग भारतीय अदालत की तरह ही रहता है। जज साहब की तरह एक जाँच अधिकारी, प्रबंधन की तरफ़ से पब्लिक प्रोसीक्यूटर की तरह एक अधिकारी, आरोपी,  सफ़ाई वकील की तरह ही आरोपी का प्रतिनिधि, दोनों तरफ़ से गवाह. दस्तावेज और सबसे बड़ी समानता - वही तारीख पर तारीख। प्रबंधन जहाँ जल्दी से जल्दी मामले को एक तरफ़ लगाना चाहता है, बचाव पक्ष की तरफ़ से येन-केन-प्रकारेण मामले को लंबा खींचा जाता है। तो बात कर रहा था उस जाँच की, संयोगवश जाँच अधिकारी, बचाव पक्ष के वकील यानि कि यूनियन के नेताजी और मैं हम तीनों कभी एक ही कार्यालय में रह चुके थे। उन दोनों की जन्म कुंडली शुरू से ही नहीं मिलती थी। वर्तमान में जाँच अधिकारी साहब बड़े ऑफ़िस में कार्यरत थे तो ’स्थानं प्रधानम न बलं प्रधानम’ के चलते उनकी अपनी समझ में उनकी तूती बोल रही थी, बोलनी चाहिये थी और नेताजी ऐसी तूतियों को ठेंगे पर रखते थे।

ऐसे ही गर्मी के दिन थे, ब्रांच की छत पर बने एक कमरे में, जहाँ पुराना रिकार्ड रखा जाता था, कार्यवाही चल रही थी। अचानक से नेताजी ने कहा कि यहाँ तो गर्मी बहुत है, अब आज की कार्यवाही खत्म कीजिये और अगली तारीख पर कुछ ज्यादा समय दे देंगे। जाँच अधिकारी ने शुरू में मजाक में, फ़िर आग्रह करते हुये और अंत में धौंस दिखाते हुये जाँच को फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट की तर्ज पर खत्म करने की बात कही। मेरे एक फ़ेवरेट पंजाबी गीत ’सुच्चा सूरमा’ में आये एक वाक्य में कहा जाये तो ’कुंडियों दे सिंग लड़ गये’ यानि मरखनी भैंसों के कुंडलियों जैसे सींग आपस में फ़ँस गये थे। मैं नौकरी में नया-नया था, सच कहूँ तो मुझे तो  इस मुठभेड़ का चश्मदीद गवाह होने में मजा आने लगा था। एक तरफ़ प्रबंधन मद में चूर अधिकारी महोदय, दूसरी तरफ़ सर्वहारा के मसीहा जी। दाँव पर दाँव चले जाने लगे। 

कानून की बहुत ज्यादा समझ न रखने वाले भी जानते हैं कि equity, fair play and justice के नाम पर कानून को कैसे हैंडल किया जा सकता है। नेताजी ने गर्म मौसम, बिजली की दिक्कत, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकता के अभाव का ऐसा भावुक प्रसंग कार्यवाही में लिखवाना शुरू किया कि कोई पढ़े तो उसे ऐसा लगे कि जैसे जाँच के नाम पर इस टीम को थार के मरुस्थल में बिना पानी और बिना किसी सायबान के छोड़ दिया गया हो। कागज़ों में गला सूखना शुरू हुआ फ़िर गला चोक हो गया, पसीने धड़ाधड़ बहने लगे, धड़कने कभी तेज और कभी मंद होने लगीं। नौबत यहाँ तक आने लगी कि नेताजी को अभी अस्पताल भिजवाना पड़ेगा। "अरे भाई, कमाल है। आरोप सिद्ध नहीं है तभी तो जाँच की जा रही है न? और बर्ताव ऐसा कि गोरों ने काला पानी में भी किसी से न किया होगा। पीने के लिये पानी तक की सुविधा नहीं, हद है। ये सब उत्पीड़न सिर्फ़ इसलिये कि हम लोग चुपचाप आरोप स्वीकार कर लें वो भी उस गुनाह के जो हमने किये भी नहीं। मैं कार्यवाही में रिकार्ड करवाना चाहता हूँ कि अगर पानी के अभाव में मुझे या किसी को कुछ  हुआ तो इसे प्रबंधन और जाँच अधिकारी की साजिश माना जाना चाहिये।"

जाँच अधिकारी ने आसपास देखा तो उसी कमरे में पुराने रिकार्ड में से कुछ ढूँढता ब्रांच का चपरासी मनोज दिखाई दिया। बवाल खत्म करने के लिये उन्होंने आवाज लगाई, "अरे, मनोज बेटा।"

"हाँ, साहब?"

"अरे बेटा, तेरी ब्रांच में बैठे हैं और पीने के पानी को तरस रहे हैं।"

मनोज ने हाथ के कागज वहीं रखे और हँसकर बोला, "अभी लाता हूँ साहब।"

मुझे थोड़ी सी मायूसी हुई, इतने जोरदार घटनाक्रम का ऐसा पटाक्षेप :(

मनोज मुड़कर दरवाजे तक पहुँचा था कि नेताजी की आवाज आई, "अरे, मनोज।"

"हाँ, दद्दा?"

"तेरी ड्यूटी कहाँ है रे?"

"नीचे हॉल में है, दद्दा।" मनोज आकर जाँच अधिकारी के सामने रुका और आँखों में आँखें डालकर बोला, "हम पानी नहीं लायेंगे, साहब।" मुझे पंक्तियाँ याद आ रही थीं ’राणा की पुतली फ़िरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था..’

जाँच-अधिकारी ने साम,दाम, दंड, भेद सब तरह की नीति अपना ली लेकिन मनोज से पानी लाने की हाँ नहीं भरवा सके। "सस्पेंड करवा दो साहब, पानी नहीं लाऊँगा। मेरे घर आओ, गरीब आदमी हूँ तो जो बन सकेगा वो सेवा कर दूँगा लेकिन यहाँ अभी पानी नहीं लाऊँगा।"

कुछ देर के बाद सब पूर्ववत होना ही था, कार्यवाही के पन्ने फ़ट गये और नई तारीख नेताजी की शर्तों के आधार पर दी गई। पानी-शानी की फ़ुल्ल सेवा भी हुई वो भी अब की बार बिना कहे। अपने को ये सब देखकर बहुत मजा आया। बाद में मेरे पूछने पर नेताजी ने बताया कि मनोज जैसे चेलों को उनपर और उनकी प्रोटेक्शन पावर पर भरोसा है और वो भरोसा नाहक ही नहीं है।

ये उन नेताजी की कहानी है जो यूनियन के चार-पाँच सौ मेंबर्स के नेता थे। ये नेताजी के इन पाँच शब्दों की ताकत थी "तेरी ड्यूटी कहाँ है रे?" कि एक मामूली सा सदस्य अपनी जमी जमाई नौकरी पर खतरा लेने को तैयार था। हालाँकि मैं जानता हूँ कि शब्द में बहुत ताकत है। वेद, बाईबिल, गुरबाणी, कुरान सबमें शब्द की महिमा गाई गई है। शब्द की महिमा के उस स्तर को हम शायद ही समझ सकें लेकिन किसी खास मौके पर किसी खास व्यक्ति द्वारे कहे गये कुछ शब्द कितने प्रभावशाली हो सकते हैं, इस बात का अनुमान तो हम प्रत्यक्ष कुछ देखकर ही लगा सकते हैं।

अंत में यही कहना चाहता हूँ कि गलती सिर्फ़ लड़कों से ही नहीं होती .......
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रविवार, मई 11, 2014

’भुड़’


बचपन का समय और गर्मियों की छुट्टियों के दिन रात, यानि सोने पर सुहागा। सारा दिन कोई काम नहीं होता था लेकिन इतनी व्यस्तता कि पूछिये मत। न खाने का कोई तय समय था और न सोने का, नियत समय तो खेलने का भी नहीं था लेकिन वो मैनेज कर ही लेते थे और मन फ़िर भी नहीं भरता था। ऐसे ही एक दिन सुबह-सुबह पार्क में थे और एक दोस्त ने घास से कोई बड़ा सा कीड़ा अपनी मुट्ठी में लिया और बड़े प्यार से आकर ’जीते’ की जेब में डाल दिया। पिछली रात देर तक किये धमाल के चलते ’जीता’ अभी पूरी तरह से चैतन्य नहीं था लेकिन चूँकि ये पाकेटभराई की ही इस तरह से गई थी कि उसे पता चल जाये तो अनमने से होकर जब उसने जेब में हाथ डालकर उस कीड़े को बाहर निकाला तो उसकी नींद कोसों दूर भाग गई। जोर से उछलते हुये उस दोस्त को और कीड़े को एक तगड़ी सी गाली दी। कीड़े ने तो कोई प्रतिक्रिया दी नहीं, चुपके से खिसक लिया लेकिन दोस्तों ने बात को नहीं छोड़ा।  दो ग्रुप बन गये, एक का कहना था कि छोटा सा मजाक ही था और गाली देकर ’जीते’ ने गलत किया है। दूसरे ग्रुप ने उस कीड़े को उस समय की हमारी कल्पनाओं की उड़ान में सबसे खतरनाक कीड़ा सिद्ध करके ’जीते’ को विक्टिम और उसकी गाली को विरोध प्रकट करती एक सामान्य प्रतिक्रिया सिद्ध कर दिया। बहरहाल नूरा कुश्ती में टाईम बढ़िया पास हो गया और लुच्चा-पार्टी लौटकर घर को आ गई। इस सब घटनाक्रम में उस कीड़े का नामकरण हुआ, ’भुड़’..

आने वाले कुछ दिनों में कभी न कभी उस ’भुड़’ की  बात छिड़ ही जाती थी। हमारा ’जीता’ ज्यादा चलता-पुर्जा लड़का नहीं था तो जब भी उस ’भुड़’ के खतरे बताये जाते थे, वो थोड़ा गंभीर होकर सुनने लगता था। बात काफ़ी पुरानी है, घरों में एसी तो क्या कूलर भी नहीं होते थे। इन्वर्टर का सवाल ही नहीं तो सरकारी वाली बिजली आये या जाये, परवाह नहीं। ले देकर पूरी गली में सिर्फ़ एक कार थी, वो भी बेचारी कितनी जगह घेरती? मतलब मौका भी होता था और दस्तूर भी, खासकर छुट्टियों में बच्चा-पार्टी देर रात तक गली में कभी कबड़ी, खो-खो,  घोड़ी(छोटी घोड़ी और वड्डी घोड़ी, लगभग एक ही खेल के दो अलग अलग फ़ार्मेट) खेला करते, खूब हो-हल्ला मचता, झगड़े होते, चोटें भी लगतीं लेकिन ’शो मस्ट गो-ऒन’ होता रहता। थक हारकर घरों के बाहर बिछाई चारपाईयों पर गिरते और सो जाते थे क्योंकि अगली सुबह फ़िर जल्दी से उठकर किसी खेल के मैदान या पार्क में जाना होता था।

ऐसी ही एक रात थी, ’जीता’ सो गया था लेकिन शेष दोस्त सब जाग रहे थे। उसी भुड़ वाले दोस्त को जैसे कुछ याद आ गया हो, जाकर उसने सोते हुये जीते को झिंझोड़ कर उठाया और उसके कान में बोला, "जीते, तेरी बनियान में भुड़"  हड़बड़ाया हुआ जीता कूदकर खाट से उठा और बनियान उतारकर बाजू उठाकर कभी इधर और कभी उधर उस ’भुड़’ को ढूँढ़्ता रहा जो कहीं थी ही नहीं। हममें से दो-चार वालंटियर भी मौका देखकर हाथ साफ़ कर गये और चली गई, चली गई का नारा भी लग गया।  फ़िर से दो ग्रुप बन गये, एक ग्रुप कह्ता था कि बेचारे ’जीते’ की नींद खराब कर दी जबकि कोई ’भुड़’ थी ही नहीं और दूसरा ग्रुप बताता कि ’भुड़’ बिल्कुल थी, वो तो समय पर लिये गये एक्शन के चलते भगा दी गई, इसलिये थोड़ी सी नींद खराबी कोई महंगा सौदा नहीं है। जो ग्रुप कह रहा होता कि ’जीते’ बेचारे को क्यों परेशान करते हो, वो बुरा बना और जो ग्रुप मजे ले रहा था, ’जीते’ की सहानुभूति और निष्ठा उसी ग्रुप के साथ ज्यादा रही। हम तब बच्चे थे, उसकी हालत देखकर हम हँस-हँसकर दोहरे होते जाते थे। फ़िर गाली-पुराण शुरू हुआ, हम सब उसका श्रवण करते रहे और इस तरह अपनी छुट्टियों का सदुपयोग करते रहे। मजे की बात ये थी कि हर चार-पांच दिन के बाद ये सब दोहराया जाता, ’भुड़’ ने एकाध बार तो अपनी जगह भी बद्ली और ’जीते’ के पाजामें में घुसपैठ कर गई। मुझे तो लगता है कि उस दिन हमारे सीधे-सरल मित्र के पाजामे का नाड़ा खुलने में हुई देर के चलते ही दुनिया में पाजामे में इलास्टिक लगाने का चलन शुरू हुआ होगा।

अब हम हो गये हैं बड़े, बाबे दी फ़ुल्ल किरपा है हमारे ऊपर इसलिये वो सब लुच्ची हरकतें नहीं करते। हमारे बच्चे अब गली में नहीं खेलते। खेलने की जगह भी नहीं और खेलने वाले भी नहीं और अगर हों भी तो हम नहीं खेलने देंगे। मैं तो डर ले मारे उन्हें ये किस्से भी नहीं सुनाता कि कहीं मुझे एकदम से टुच्चा या लुच्चा न समझ बैठें।  ’भुड़’ नाम ही कितना अजीब सा लगता है, अल्पज्ञानी तो इसे गाली ही समझ सकते हैं इसलिए न तो इसका नाम आज तक बच्चों के सामने बोला है और न ही आगे कभी बोलना है। मान लेने को दिल करता है कि जमाना बदल गया है, तरीके बदल गये हैं, तकनीकें बदल गई हैं। 

अब कहीं कोई शरारती बच्चा किसी सीधे-सादे दोस्त को सोते से यह कहकर नहीं जगाता होगा कि तेरी बनियान में ’भुड़’। लेकिन अपने इस कुटिल दिल का कुछ नहीं कर सकता जो देखता है और भाँप लेता है कि अगला कदम क्या होगा जब बच्चे नहीं बल्कि बड़े नामी नेता/ठेकेदार किसी एक ’जीते’ को नहीं बल्कि जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को झिंझोड़कर किसी एक पार्टी या नेता का नाम लेकर डरा रहे होते हैं कि वो आ गया तो ऐसा हो जायेगा और वैसा हो जायेगा। वोट बैंक का वो हिस्सा जैसे नींद से जागकर अपेक्षित क्रियायें करता है और फ़िर दो गुट बन जाते हैं, एक कह रहा होता है कि बेकार में बेचारे को क्यों डराते हो और दूसरा गुट कह रहा होता है कि हमने समय पर चौकन्ना कर दिया, इसलिये बच गया नहीं तो...। ये देखकर मुझे अपने बचपन का ये किस्सा याद आ जाता है, ’जीते’ को हम चिल्लाकर उठा रहे हैं, "जीते, तेरी कमीज में भुड़" 

सच है कि अब के बच्चे ’भुड़’ वाली शरारतें नहीं करते, ये टुच्ची हरकतें हम जैसे लोग ही कर सकते हैं।

शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

गृहस्थ आश्रम

’अपने परिजनों की इच्छा का मान रखने के लिये विवाह किया जाये या अपनी रुचि को ध्यान मे रखते हुये सन्यास लिया जाये’ इस दुविधा से मुक्ति पाने के लिये एक नवयुवक ने कबीर से मार्गदर्शन माँगा। उसकी बात सुनकर कबीर कुछ सोचने लगे और फ़िर अपनी पत्नी को पुकारा, "इतना अंधेरा है, जरा दीपक जलाकर लाओ।" दिन का समय था और पर्याप्त प्रकाश था, युवक हतप्रभ होकर कबीर की तरफ़ देखने लगा। उसे और भी आश्चर्य हुआ जब बिना किसी प्रश्न या उलाहने के उस भरी दोपहरी में जलता हुआ दीपक लाकर उन दोनों के सामने रख दिया गया। अनमना सा होकर वह युवक कुछ देर वहाँ बैठा रहा। अचानक कबीर उठ खड़े हुये और गंगाजी में स्नान करने चलने की कहने लगे। युवक साथ हो लिया। स्नान के बाद दोनों लौट रहे थे तो एक टेकरी के पास रुककर कबीर ने टेकरी पर स्थित मंदिर में रहने वाले एक वृद्ध महात्मा जी को आवाज लगाई, "महाराज, आपके दर्शन की इच्छा है।" वृद्ध महात्मा धीरे-धीरे उतरकर नीचे आये। दर्शन से कबीर भाव-विभोर हुये एवं यथोचित अभिवादन के पश्चात महात्मा जी ऊपर चले गये जबकि कबीर और उनका अनुगामी हुआ वह नवयुवक वहीं खड़े रहे। पर्याप्त कष्ट के बाद महात्मा जब तक टेकरी की चोटी पर स्थित मंदिर तक पहुँचे, कबीर ने फ़िर से वही पुकार लगाई, "महाराज, आपके फ़िर से दर्शन की इच्छा है।" महात्मा फ़िर से नीचे आये और पुन: दर्शन की कबीर की टेक और वृद्ध महात्मा की टेकरी पर चढ़ने-उतरने की यह क्रिया कई बार दोहराई गई। अब तक युवक का धैर्य जवाब देने लगा था। वो तो कबीर से इतने अहम विषय पर सही मार्गदर्शन की अपेक्षा लेकर आया था और उस विषय पर कोई जवाब न देकर कबीर कभी तो भरे दिन को अंधेरा बताकर दीपक जलवा रहे थे और अब बार-बार उस वृद्ध महात्मा को शारीरिक कष्ट देते दिख रहे थे। उसकी मनोस्थिति भाँपकर कबीर ने कहा, "दीपक वाली घटना की तरह जीवनसाथी पर विश्वास रख-पा सको तो विवाह कर लो और दूसरों के सात्विक आनंद के लिये इन महात्मा जैसा धैर्य रख सको तो सन्यास ले लो।"

मित्र सोमेश की एक पोस्ट पर कमेंट किया था और कहानी जानने की उनकी इच्छा के चलते एक उधार सिर पर था, आज चुका पाया हूँ। यूँ तो यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी लेकिन जब बात छेड़ी थी तो उसे पूरा भी करना था, तिस पर ’नरेन्द्र मोदी-जशोदाबेन प्रकरण’ ने भी इस बात के लिये उत्साहित किया कि ’विवाह’ पर कुछ अपने विचार साझे किये जायें। 

विवाह के उद्गम  के बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिलती लेकिन इसका इतिहास रोचक अवश्य है। विवाह हर संस्कृति में प्रचलित हैं, विवाह के प्रकार जरूर अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ लोगों की राय है कि सभ्य होने की प्रक्रिया में समाज का रुझान सामूहिक हित से व्यक्तिगत अधिकार की तरफ़ बढ़ता गया और वर्तमान की विवाह-व्यवस्था उसी से प्रेरित है। 



पुराने समय में जीवन को लगभग चार बराबर हिस्सों में बाँटकर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम के रूप में जीने की परंपरा रही है। मुझे लगता है कि हमारे पुरखे ’ऑप्टिमम यूटिलाईज़ेशन’ सिद्धांत के शानदार मानने वाले रहे होंगे। मानव जीवन को अनमोल मानते हुये इस जीवन-काल में समय और सामर्थ्यानुसार सही दिशा में अपनी शक्ति को लगाने का यह भी एक तरीका रहा होगा।  समय के साथ प्राथमिकतायें भी बदलीं और उसीके अनुरूप परंपरायें भी बदलती रही हैं। 

आज के समय के युवाओं के समक्ष शायद कबीर के प्रसंग वाले नवयुवक जैसी दुविधा नहीं होगी। बिना विवाह के एक साथ रहने की बढ़ती प्रवृत्ति के बावजूद एक साधारण परिवार के पात्र का ’विवाह होना’ एक बहुत ही स्वाभाविक सी रस्म है जिसे देर-सवेर घटित होना ही है और ’विवाह न करना’ एक साधारण परिवार में अस्वाभाविक लगने वाली बात। हालाँकि हमारे इतिहास में ऐसे अनेक चरित्र मिलते हैं जिन्होंने विवाह नहीं किया और वो पर्याप्त सफ़ल भी रहे हैं।

गृहस्थ या सन्यास में से श्रेयस्कर कौन सा है? ये प्रश्न कभी न कभी मन में उठता रहा है। बचपन में पढ़ी एक कहानी और ध्यान आती है जिसमें शरीर के सभी अंग अपना महत्व दूसरे अंग से ज्यादा बताने का दावा करते हैं और अपने-अपने तरीके से अपना विरोध जताते हैं। शरीर अशक्त होने लगता है, अंत तक पहुँचते-पहुँचते यही सिद्ध होता है कि हरेक अंग का औचित्य तभी तक है जब तक सब मिलकर और समन्वयता का पालन कर रहे हैं। गृहस्थ और सन्यास के बारे में भी मेरा ऐसा ही मानना है। 

जिस परिवेश में मैं पला-बढ़ा, उसमें कहीं से भी किसी गृहस्थ को सन्यासी से कम करके आँके जाते नहीं देखा। बल्कि ध्यान आता है कि किसी न किसी तरीके से गृहस्थ-धर्म को सन्यास की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण ही सिद्ध किया गया।  दूसरी तरफ़ देखें तो गृहस्थ में जाने की जगह धर्म, देश या समाज की सेवा के लिये खुद को समर्पित करने वालों को भी कभी हेय दृष्टि से नहीं दिखाया गया। लेकिन इतना मुझे लगता है कि गृहस्थाश्रम को ज्यादा महिमामंडित करना ’मेंटल कंडीशनिंग’ का हिस्सा बिल्कुल हो सकता है। वैसे ही ’हर सफ़ल आदमी के पीछे एक औरत का होना’ भी मुझे इसी कंडीशनिंग प्रक्रिया का हिस्सा लगता है।

नरेन्द्र मोदी के द्वारा नामाँकन पत्र में इस बार अपनी पत्नी का नाम लिखे जाने वाली बात कानूनी या चुनावी मुद्दा हो सकता है लेकिन इस प्रकरण ने एक बार फ़िर से इस प्रश्न को सिर उठाने का मौका जरूर दे दिया है कि अगर कोई व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर अपनी समझ में देश, समाज और/या धर्म के लिये कुछ और करना चाहता है तो विवाह-संबंध इसमें बाधा का काम करता है या नहीं? 

हमेशा की तरह इस संभावना को भरपूर जिंदा रखते हुये कि मेरे विचार गलत हो सकते हैं, मेरे विचारों का पलड़ा ’हाँ’ वाली दिशा में कुछ झुका हुआ है। 










रविवार, अप्रैल 06, 2014

छोड़ो...

एक दिन मुझे और मेरे प्रशासनिक कार्यालय से आई फ़ील्ड ऒफ़िसर को  बैंक के काम से शाखा से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर एक गाँव में जाना था। मोटर साईकिल पर जाना खुद को ही ठीक सा नहीं लगा तो  पहली बार ऐसी सुविधा के लिये कुछ संकोच के साथ एक ग्राहक को जो ग्राहक होने के साथ मित्र श्रेणी में भी आ चुके थे, फ़ोन करके पूछा। कुछ ही देर में वो मित्र कार लेकर प्रस्तुत हो गये। जहाँ तक हो सके अपने राम उपकार और बंधन दोनों से बचते हैं लेकिन समाज में रहते कभी किसी कारण से और कभी किसी बाध्यता से दोनों को ही स्वीकारना पड़ता है। कार में बैठते समय यही सब सोच रहा था। मित्र जब तक कार स्टार्ट करें, मैं सीट-बेल्ट बाँधने का उपक्रम करने लगा। जैसे ही उनका ध्यान गया उन्होंने ग्राहक की विनम्रता से और मित्र की आश्वस्तता से मेरा हाथ पकड़ लिया, "न, सरजी। मैं चालीस-पचास से ऊपर कभी भी नहीं चलाता।" अब ऐसे मित्र तो मन को अच्छे ही लगते हैं जो बंधन से बचायें फ़िर भी मैंने प्रतिवाद किया, "उस डर वाली बात नहीं लेकिन हाईवे है, चैकिंग वगैरह..।"  वो बोले, "उनकी ..(बीप...बीप...बीप) सरजी। हमें बेल्ट लगानी पड़ी तो ये हमारी तौहीन है।" मित्र राजनीति में भी दखल रखते हैं और सामाजिक गतिविधियों में भी काफ़ी सक्रिय हैं, रास्ता भी लंबा नहीं था। हुआ कुछ वैसा ही कि कुछ तो बुआ के मन में जाने की ललक थी और कुछ फ़ूफ़ा लेने आ गये, हमारी सीट-बेल्ट नहीं बंधी।

हाईवे पर कुछ दूर गये थे कि साथ से गुजरती एक कार के शीशे पर लिखे एक जातिसूचक स्लोगन की तरफ़ दिखाकर मित्र ने ज्ञानवर्धन किया, "यहाँ ये और ऐसे स्लोगन चलते हैं सरजी। हमारा ड्राईविंग लाईसेंस, रजिस्ट्रेशन, इंश्योरेंस, सीट-बेल्ट सबकुछ यही है।" मुझे हँसी आ गई, "आई सी, पोल्यूशन भी यही है न?" वो भी हंसने लगे, "सब कुछ यही है जी।" अवसरानुकूल उन्होंने एक सच्चा किस्सा और सुनाया, कोशिश करता हूँ उन्हीं शब्दों में दोहराने की।

"कुछ दिन पहले की बात है, इसी शहर के एक व्यापारी बंधु अपनी कार से दिल्ली से लौट रहे थे। बार्डर पर भीड़ तो आपने देखी ही होगी, जाम लगा हुआ था और इनके ड्राईवर ने मौका मिलते ही एक दूसरी कार के आगे अपनी गाड़ी फ़ंसा दी और इस तरह उस दूसरी कार से पहले बार्डर पार कर लिया। जाम में फ़ँसे होने पर यही चलन है, जिसका मौका लगे वही कार का अगला हिस्सा फ़ंसा देता है और निकल लेता है।  चूँकि इन्हें उस जाम में थोड़ा सा मार्जिन मिल गया था तो इनकी कार बार्डर से करीब तीस किलोमीटर आगे पहुँच चुकी थी जब उस दूसरी कार ने इन्हें ओवरटेक करके रोका। कुछ समझने से पहले ड्राईवर और उसे बचाने और वजह समझने तक व्यापारी बंधु दुनियाभर की गालियाँ और लात घूँसे खा चुके थे। मौखिक और शारीरिक क्रियाओं के विश्लेषण से अंतत: वो समझ गये कि गाड़ी के पीछे लगे बड़े से स्टिकर ’गुप्ताजी’ने उनकी जाति और उनकी कार की पहचान तो पक्केकी करवा ही दी थी, जवानों के जातीय अभिमान को उकसाया भी था कि बनिया होके हमारी गाड़ी से जबरदस्ती आगे निकलेगा, ये मजाल? घर लौटते ही गुप्ताजी ने फ़टे कपड़े बाद में बदले, मरहम-पट्टी भी बाद में करवाई पहले वो स्टिकर खुरच खुरच कर उतारा जिसने ये हालत करवाई।"

पिटने वाले हम नहीं थे इसलिये किस्सा सुनकर बहुत हँसी आई, ऐसा ही चलन है जी आजकल। मैं पिटा तो बिना कारण और मैंने पीटा तो कुछ तो कारण रहा ही होगा।  बता चुका हूँ कि मित्र पोलिटिकल रुचि वाले हैं तो इस बारे में और पहलुओं पर भी चर्चा हुई। परंपरागत प्रचलित वर्णव्यवस्था में जो क्रम हैं, उसके अनुसार प्रस्तुत घटना में पीटने वाले और पिटने वालों की जाति बदल दी जाये तो केस बहुत मजबूत हो जाता और मारपीट के अलावा और कई गैरजमानती धारायें जुड़ जातीं। मगर ये हो न सका और गुप्ताजी स्टिकर खुरचकर चुपचाप गम पी गये।

ऐसे ही मेरा एक साथी था जो बैंक के समीप एक फ़ोटोस्टेट की दुकानवाले को हमेशा ’ओ बाहमण के’ कहकर पुकारा करता था। 

एक दिन मैंने पूछा, "ऐसे क्यों बुलाते हो?" 

उसने मुझसे प्रतिप्रश्न किया, "क्यों, ये बाहमण का है नहीं?"

क्या बहस करता उससे? फ़िर प्यार से समझाया कि इसका कोई नाम भी तो है, नाम से पुकार लिया कर। तेरे तर्कों पर चलेगा तो ये भी तो तेरी भाषा में जवाब दे सकता है कि ’हाँ, बोल ....... के। उस स्थिति में क्या होगा?" साथी का चेहरा एक बार तो जोर से तमतमाया लेकिन फ़िर सहज हो गया, मामला सुलट गया।  खैर, आभारी हूँ ऐसे साथियों का जो कटु लगने वाली बातें भी सह लेते हैं और मेरे द्वारा कुछ गलती करने पर मुझे भी कह लेते हैं।

ऐसे सवाल कुछ सोचने पर मजबूर तो करते ही हैं कि कब ऐसा होगा जब हम इन बातों से ऊपर उठ सकेंगे। अभी के हालात तो ऐसे ही हैं कि एक की गुंडागर्दी को रोकने के नाम पर परिवर्तन लाने के प्रयास होते हैं और कानून या समाज से समर्थन मिलने पर दूसरा वही गुंडागर्दी करने लगता है। जो शोषित है, अवसर मिलते ही वो शोषक की भूमिका निभाने लगता है।  इस बात में कोई शक नहीं कि अभी वांछित परिवर्तन नहीं दिखता लेकिन धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है।  बसपा जैसी जाति आधारित पार्टी अब उतनी कट्टर नहीं दिखती, कभी सवर्णों की पर्याय और ब्राह्मणों के द्वारा नियंत्रित कही जाने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व देखिये तो पता चलेगा कि परिवर्तन आ रहा है।       

जो भी हो, उस समय के आने की आस लगाना गलत तो नहीं कि हर नागरिक के पास बिना किसी विशेष जाति, धर्म, लिंग. वर्ग के प्रमाणपत्र के भी स्वयं को सिद्ध करने के पर्याप्त अवसर होंगे। जब हम देश और समाज से सबकुछ पाने की जगह अपनी तरफ़ से कुछ योगदान करने के लिये तत्पर होंगे। 

आप भी कहेंगे कि चुनावी मौसम में कैसे बेमौसमी तराना छेड़ दिया लेकिन ये एकदम बेमौसमी तराना नहीं है। नेता लोग भी हमेशा तो आग उगलने वाली बात नहीं कहते, कभी कभी ये सब भी भाषण में कहते ही हैं :) 

गाना सुनिये, काफ़ी पुराना है और जाहिर है कि देखे हुये ख्वाबों की मंज़िल अभी भी दूर ही है लेकिन सकारात्मकता का संचार तो करता ही है।

                                                                        

सोमवार, मार्च 17, 2014

होली

                                                 

                                                          
                                                    (चित्र गूगल से साभार)               

पिछले तीन दिन से बहुत से मित्रों के होली से संबंधित खूबसूरत, रंग बिरंगे. चित्रमय, गद्यमय शुभकामना संदेश मिल रहे हैं। अच्छा भी लग रहा था और थोड़ा सा अजीब सा अहसास  भी हो रहा था। अच्छा इसलिये कि यारों की मेलिंग लिस्ट में अपना नाम शुमार है और दूसरा मूड बनने के पीछे वही भावना था कि ’तेरी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद क्यूँ?’  तस्वीर. शेर, दोहे, कविता ये सब अपने बूते के नहीं, इसीलिये न इतने बढ़िया बढ़िया संदेशे और पोस्ट लिख रहे हैं सारे? मुझे अहसास-ए-कमतरी करवाने के मंसूबे बांध रखे हैं सबने। सारी दुनिया दुश्मन हुई पड़ी है मेरी। देख लूँगा सबको एक एक करके और दिखा भी दूँगा, वक्त आने दो:)

इतने पर भी बस नहीं की यारों ने,  कल ही बहुत से अग्रजों ने आदेश\अनुरोध किया कि होली पर कोई तड़कती फ़ड़कती पोस्ट लिखो(कहा तो दो ही बंधुओं ने था लेकिन बहुत से इसलिये लिखा है ताकि आप लोग इम्प्रैस हो जाओ कि अपनी भी डिमांड है:))     सोच रहा हूँ अपने प्रोफ़ाईल में ये लाईन बोल्ड करके लिख ही दूँ, “यहाँ आर्डर मिलने पर तड़कती फ़ड़कती पोस्ट लिखी जाती हैं:)”  माना एकाध बार ऐसा हो चुका है, और हमने चढ़ाई में आकर कुछ लिख भी दिया था लेकिन इत्ते  फ़रमायशी गीतमाला भी नहीं हुये हैं अभी कि फ़ट से  फ़रमायश मान लें। नहीं लिखेंगे, बिल्कुल नहीं लिखेंगे। रखनी है यारी रखो, नहीं रखनी है तो मत रखो।  जैसे फ़त्तू उस दिन अपने मुलाजिमों को मुखातिब हो रहा था, “Do do, not do not do. Eat your husband & lie in oven. What my goes? Your goes, your father’s goes.”  पंजाबी तर्जुमा  (करना है करो, नहीं करना ते ना करो। खसमां नू खाओ ते चूल्हे विच जाओ। मेरा की जांदा है? त्वाडा जांदा है, त्वाडे प्यो दा जांदा है) मैं भी कह दूंगा, “Keep keep, not keep not keep….”

कन्फ़्यूज़न था कि भारी हुआ जा रहा था कि अब कैसे रेसपांड किया जाये। जवाब  न दिया जाये तो  भी फ़ंसे और जवाब दें तो ऐसे अच्छे अच्छे संदेश कहाँ से लेकर आयें?  अच्छा फ़ंसा इस नगरी में आके, गुड़ खाने का मन भी करता है और ..।      

हंसी मजाक एक तरफ़, दो तीन बार ऐसा हो चुका है कि मैं इधर अपनी कोई पोस्ट लिख रहा हूँ, या इधर उधर कमेंट्स कर रहा हूँ  और फ़ौरन बाद मालूम चला कि अभी अभी कोई त्रासदी होकर हटी है। दो घटनायें तो मुझे याद हैं ही, एक दंतेवाड़ा में नक्सलवादियों के उत्पात की खबर जब मालूम चली और अभी जापान वाली आपदा का जब मालूम चला तो इस बात का इल्म होने के बावजूद कि मेरे या हमारे पोस्ट लिखने, हँसी मजाक करने से इन बातों का कोई लेना देना नहीं है लेकिन फ़िर भी कहीं एक चीज मन को कचोटती है कि मैं इधर हँसी ठिठोली में लगा हूँ और उधर हम जैसे ही मनुष्य जीवन-मौत के बीच झूल रहे हैं। फ़िर सोचता हूँ तो दुनिया का नजरिया बेहतर लगने लगता है कि इन त्रासदियों को नहीं रोक सके तो फ़िर इन उत्सवों, राग-रंग को क्यों रोका जाये?  हो सकता है मुश्किलों से जूझने का जोश  इन्हीं से मिल जाये। फ़िर आपका ही बना बनाया मूड क्यों बिगाड़ा जाये।

दोस्तों, आप सबके शुभकामना संदेशों के लिये दिल से आभारी।   फ़त्तू एंड असोसियेट्स की तरफ़ से आप सबको, आपके परिवार को, दोस्तों-दुश्मनों को, परिचितो-अपरिचितों को रंगों के इस त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाये।

:)) फ़त्तू एक बार घर गृहस्थी के जंजाल से घबराकर बाबाजी बन गया था। घूमते भटकते एक गांव में पहुंचा और मंदिर में रुक गया। किसी ने खाना खिला दिया तो अगले दिन भी वहीं रुका रहा। देखते देखते अच्छी सेवा होने लगी(जैसे मुझे कमेंट्स देते हो आप सब:)) एक दिन गांव वालों ने सोचा कि ये तो मुटियाता जाता है जरा इसका दम खम भी तो देखा जाये। कुछ लोगों ने जाकर पूछा, “बाबाजी, कई दिन हो गये यहाँ डेरा डाले हो। हमसे जो कुछ हो सकता है,  सेवा कर रहे हैं। ये बताओ कल को हमारे भी कुछ काम आ जाओगे कि नहीं? कुछ सिद्धि-विद्धि भी है या यूँ ही ये बाना पहन रखा है?” फ़त्तू ने किसी भी समस्या से निपटने का भरोसा भी दिया और साथ में अपनी दो शर्तें भी बता दीं। पहली ये कि, “गांव की सामूहिक समस्या होनी चाहिये।”    और दूसरी ये  कि,  “साल में एकाध बार वो यानी बाबाजी  भड़भड़ा(सही शब्द तो कुछ और ही है, शायद याद नहीं आ रहा:)) जाते हैं। ब्लॉगजगत के लोगों को, सॉरी गाँववालों को तसल्ली हो गई। समस्यायें आतीं लेकिन बाबाजी की वही शर्त कि सांझी समस्या होनी चाहिये, आड़े आ जाती। कई साल बीत गये, एक बार गांव पर टिड्डी दल का भारी हमला हो गया। लोगों को कुछ न समझ आया तो भागकर फ़त्तू के पास गये और गुहार लगाई। लोगों ने कहा कि बाबाजी ये तो गांव सांझली समस्या है, आपकी पहली शर्त पूरी हो गई, कुछ उपाय करो।
फ़त्तू बोला, “भाई, इब तुम दूसरी शर्त याद कर ल्यो, साल में एकाध बार…. वाली।  आज तो बस यूँ समझ ल्यो कि बाबाजी  भड़भड़ा रहे हैं।”

पुनश्च: - सभी को होली की बहुत बहुत बधाई।


(मूल पोस्ट तीन साल पहले की है।) 

शनिवार, मार्च 01, 2014

चलो एक बार फ़िर से..

"आप खुद को ईमानदारी के इक्कीसवीं सदी के अवतार के समकक्ष तो नहीं समझते जो उनकी हर प्रेस कान्फ़्रेंस की तरह अपनी लगभग हर पोस्ट में कोई न कोई सवाल पूछ लेते हो?"  इस आरोप की प्रबलतम संभावना के बावजूद ये प्रश्न पूछ रहा हूँ, "पोस्ट के शीर्षक से आपको क्या लगता है?"

किसी को फ़िल्मी गाना याद आयेगा, किसी को हीरो या हीरोईन, किसी को साहिर और किसी को इस गाने से जुड़ा एक सांझा फ़ैसला लेकिन इतनी आसानी से हम अपनी खोपड़ी में उपजी बात बता दें तो फ़िर हमें पूछेगा ही कौन? एल्लो, य तो एक और सवाल हो गया :) 

चलिये बहुत दिन हो गये मुद्दों पर उल्टी सीधी बातें करते, आज पुरानी बातें करते हैं। और रिलेक्स रहिये, दिमाग पर ज्यादा जोर देने की कोई जरूरत नहीं, सवाल का जवाब हम खुद ही दिये देते हैं लेकिन देंगे अपने तरीके से, जान लीजिये। वैसे भी आजकल है चुनाव का समय और सब उलझे हैं सरकार बनाने में और हम ठहरे हमेशा से बेमौसमी बात करने वाले, तो आप ये लिंक देखिये तो समझ ही जायेंगे साड्डे  इस ’चलो एक बार फ़िर से’ दा मतबल :)

अब इस मुद्दे पर एक दो बातें वो जो अब तक लिखी नहीं थीं। लिंक में दिये किसी प्रशिक्षण कार्यक्रम में एक बार अमृतसर के एक बहुत सीनियर साथी मिले, ’थापर साहब’ जिनकी रिटायरमेंट में साल भर ही बचा था। बड़े जिन्दादिल आदमी हैं, हर मौके पर पहली प्रतिक्रिया उन्हींकी होती थी। प्रशिक्षण के पहले सेशन से ही मैंने महसूस किया कि उन्हें लगभग सभी फ़ैकल्टी मेंबर बाकायदा नाम से जानते थे। चायकाल के दौरान मैंने जब उनसे पूछा कि क्या वो पहले ट्रेनिंग सेंटर में रहे हैं तो उन्होंने मना कर दिया। मैंने फ़िर पूछा कि यहाँ का हर स्टाफ़ फ़िर आपको कैसे जानता है? उन साहब ने बताया कि  बड़ी शाखा होने के चलते प्राय: उनकी शाखा से किसी न किसी को ट्रेनिंग के लिये नामांकित किया ही जाता रहता है और उनकी शाखा में अधिकतर महिलायें ही कार्यरत हैं। वो ट्रेनिंग पर जाना असुविधाजकन समझती हैं, सर्विस रूल्स के अनुसार प्रशिक्षण में जाने से मना करना या न जाना एक प्रतिकूल आचरण समझा जाता है। स्टाफ़ की जाने में अनिच्छा और न जाने के लिये झूठे-सच्चे बहाने बनाने की दुविधा के बीच सर्वमान्य हल एक निकलता था - थापर साहब। ब्रांच मैनेजर को कन्विंस करके प्रजातंत्र की दुहाई देते थे कि जैसे प्रजातंत्र में दिमाग नहीं सिर गिने जाते हैं, वैसे ही ट्रेनिंग के लिये व्यक्ति विशेष से मतलब नहीं बल्कि नग गिने जाते हैं।   वो खुद बताने लगे कि ऐसे ही एक मौके पर महिला समूह की तरफ़ से एक बार तो मज़ाक में ये भी कहा गया, "थापर साब चले जाणगे, ऐत्थे रहके वी ऐनां ने करना की हुंदा है?(थापर साहब चले जायेंगे, वैसे भी यहाँ रहके भी इन्होंने करना क्या होता है?)"  सब अपने अपने हिसाब से मतलब निकालकर हँसते रहते हैं और थापर साहब की चिट्ठी तैयार हो जाती है। यही राज बताया थापर साहब ने अपनी पॉपुलैरिटी का। लगे हाथों यह भी स्पष्ट कर दूँ कि ट्रेनिंग पर जाने के अनिच्छुक सिर्फ़ महिलायें ही नहीं होती बल्कि बहुत से पुरुष मित्र भी ऐसे देखे हैं जिनकी ट्रेनिंग की खबर आते ही वो बीमार हो जाते हैं, वहीं बहुत से कर्मचारी ऐसे भी होते हैं जो विभिन्न कारणों से ट्रेनिंग कार्यक्रमों में जाना पसंद करते हैं। मैं किस कैटेगरी में आता हूँ, ये नहीं बताऊँगा वरना मेरी इस बात का भी दूसरा मतलब निकाल जायेगा :) 

ऐसी ही एक और ट्रेनिंग की बात है कि भोपाल जाना हुआ था। रात को साढ़े ग्यारह बजे होंगे कि उस्तादजी का फ़ोन आ गया(हमारे पाले उस्तादजी को तो पुराने पाठक जानते ही हैं)। समय के हिसाब से थोड़ा अजीब लगा, हालचाल पूछा तो वो अपनी कुछ न बताकर मेरे ही हालचाल अलग-अलग कोण से पूछते रहे। जब मैंने इतनी देर से फ़ोन करने की वजह पूछी तो कहने लगे, "थोड़ी देर पहले टीवी पर देखा कि आज भोपाल में बंटी चोर पकड़ा गया है। ध्यान आया कि आपने भी आज ही वहाँ पहुँचना था। अब टीवी पर शक्ल तो उसकी दिखाई नहीं, मैंने सोचा कि कहीं संजय जी..............हिच,.हिच.."  उधर से मैं हैल्लो, हैल्लो करता रहा लेकिन लाईन में शायद कुछ दिक्कत आ गई थी। बाद में लौटकर मैंने पूछा भी कि क्या वाकई मैं उन्हें इस सम्मान के लायक लगा था कि बंटी चोर के समकक्ष समझा जाऊँ? कहाँ वो इतना बड़ा नाम और कहाँ मैं एक साधारण सा बैंककर्मी? उनकी सोच से असहमति जताई और ये भी जताया कि उनके ऐसा सोचने से मेरी जगह कोई और होता तो उसे बुरा भी लग सकता था। ये भी कि कैसे उनकी इस असंभव सी संभावना ने मेरी सेल्फ़-एस्टीम का बंटाधार कर दिया है। उस्तादजी तो ठहरे उस्तादजी, बोले,  "जिसे बुरा लग सकता था, उसकी छोड़ो।  उस दिन आपसे फ़ोन पर बात हो पाई यानि कि आप वो नहीं निकले जो मैंने सोचा था। उससे मुझे कितना बुरा लगा था, ये आपने सोचा? मैं रिश्तेदारी में, रिपोर्टर्स को  सबको बता रहा होता कि इस आदमी को इतना नजदीक से जानता था लेकिन ये हो न सका, बल्कि मेरी सोच का बंटाधार आपने कर दिया।"

बाद में कभी उस ट्रेनिंग कार्यक्रम की बात होने पर उसको हम ’ऑपरेशन बंटाधार’ कहकर याद करते रह्ते थे। 

बताने का मतलब ये है कि हम अब आपसे सप्ताह भर बाद मिलेंगे - बोले तो बंटाधार तो पहले ही हो चुका, अब शायद ’ऑपरेशन धुंआधार’ के बाद। तब तक एक एकदम सेक्यूलर लेकिन शायद कैपिटलिस्टिक सैल्यूटेशन - ’ओके टाटा, बाय-बाय’ या ’ओके टाटा, होर्न प्लीज़’ या फ़िर ’एज़ यू प्लीज़’ क्योंकि ट्रेनिंग हो या जिंदगी, ब्लॉगिंग हो या फ़ेसबुकिंग, खुश हों या दुखी हों,  "ये  तो न्यूए चालैगी" :)

मंगलवार, फ़रवरी 11, 2014

बंद आँखों का सुकून

हमेशा की तरह मैं खिड़की वाली सीट पर बैठा था और पंकज मेरे साथ। वो अपने ऑफ़िस की बातें बता रहा था और मैं हमेशा की तरह उल्टी-सीधी सलाह दे रहा था। मेट्रो में और गाड़ी में सफ़र करते समय यदि बैठने की सीट मिल जाये तो उस्तादजी की बात अब मानने लगा हूँ, सीट मिलते ही आँखें बंद कर लेता हूँ। उस्तादजी ने सिखाया था कि   सारा झंझट ही खुली आँखों का है। आँखें खुली रखोगे तो किसी बुजुर्ग या महिला को सीट देनी पड़ेगी, इसलिये सीट मिलते ही आंखें मूंद लेनी चाहियें। पंकज जैसा साथी मिल गया तो और भी आसानी हो गई क्योंकि स्टेशन आने पर वो ही बता देता है कि स्टेशन आ गया है और अब आँख खोलने में कोई दिक्कत नहीं।

आवाजों से सुनाई पड़ा कि बीच के किसी स्टेशन से शायद फ़रीदाबाद से एक बूढ़ा-बुढ़िया और उनका लड़का हमारे साथ वाली सीट पर बैठे हैं। लड़का पिछले साल से दिल्ली में रह रहा है और किसी सेठ के यहाँ ड्राईविंग करता है, माँ-बाप पहली बार उससे मिलने आये थे और आज लौट रहे हैं। लड़का उन्हें ट्रेन में छोड़ने जा रहा था, उसकी पहचान का किशन नाम का कोई लड़का गाँव जा रहा था और नई दिल्ली स्टेशन से आगे गाँव तक वो इन्हें ले जायेगा। गाड़ी में चढ़ते ही बुढ़िया ने लड़के को समझाईश देनी शुरू की थीं, हर माँ के लिये उसके बच्चे हमेशा छोटे ही रहते हैं। गाड़ी अभी फ़रीदाबाद से चली ही थी कि लड़के के मोबाईल पर उसके मालिक का फ़ोन आ गया कि कहीं अर्जेंट जाना है, अभी के अभी वापिस लौटने का हुक्म हुआ। लड़के ने दो तीन घंटे की मोहलत भी मांगी कि अकेले बूढ़े माँ-बाप दिल्ली की भीड़ में दुखी हो जायेंगे और वो गाड़ी चलने तक नही रुकेगा बल्कि अपनी पहचान के लड़के तक माँ-बाप को पहुँचाकर फ़ौरन लौट आयेगा लेकिन इजाजत नहीं मिली। फ़ोन कट गया, आवाज से पता चल रहा था कि लड़का गुस्से में है। विवशता वाला गुस्सा भी अजीब सा होता है, जवान लड़के की आवाज रुँआसी सी लग रही थी और बूढ़ों की आवाज सांत्वन देती सी। लड़का बार-बार फ़ोन मिलाने लगता था कि ऐसी नौकरी गई भाड़ में, दो चार दिन में कहीं और नौकरी मिल जायेगी और बूढ़े माँ-बाप उसे अर्थ का शास्त्र समझा रहे थे और भरोसा दिला रहे थे कि उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी, वो किसी से पूछकर सही प्लेटफ़ार्म तक पहुँच जायेंगे। लड़के के पास तर्क थे उनको दिल्ली से अनजान मानने के और माँ-बाप के पास अनुभव वाले तर्क थे अपने लड़के को जिन्दगी से अनजान मानने के। समझा बुझाकर तुगलकाबाद आते तक लड़के को वापिस भेज दिया गया। गाड़ी चलने तक दोनों पक्ष एक दूसरे को निर्देश देते रहे कि ऐसे करना और वैसे मत करना।

पंकज और मेरी बातें इस बीच रुकी हुई थीं। पंकज ने उन लोगों से बातचीत करना शुरु कर दिया, हर तरह की बात  जिसमें लड़के की मजबूरी की बात भी थी और उसके सेठ की संभावित मजबूरी की बात भी, गाड़ी की बात भी और सवारी की बात भी। बहुत बोलता है यार ये पंकज, उस्तादजी इसे जानते होते तो कान बंद रखने की सलाह भी दे चुके होते।

हमेशा की तरह पंकज ने तान लगाई, ’जागो मोहन प्यारे’ और प्यारे मोहन जान गये कि ट्रेन नई दिल्ली पहुँच गई है। हमेशा हम इकट्ठे ही मेट्रो स्टेशन तक जाते हैं, आज मैंने पूछा, ’चलें मेट्रो?’ वो कहने लगा, "सर, आप चलो। मुझे कुछ काम है।" मुझे पहले ही पता चल चुका था कि आज इसे मेरे साथ नहीं जाना। "कोई बात नहीं भाई, आज मुझे भी जल्दी नहीं तो मैं तुम्हारे साथ ही चलूँगा। एक काम करते हैं कि पहले इन लोगों को इनके किशन तक पहुँचा देते हैं।" तब तक पंकज के साथ बातचीत करके सहज हो चुके बूढ़े-बुढ़िया के चेहरे पर राहत दिखी और पंकज के चेहरे पर वही मुस्कान, जिसपर उसके दोस्त फ़िदा होते हैं।  उतरते समय पंकज ने एक हाथ में बुढ़िया का हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ में उसका बैग, इधर उधर से पूछा और सही प्लेटफ़ार्म पर किशन तक सवारियों को पहुँचा दिया। 

चलने की सोच रहे थे कि बुढ़िया ने किशन से अपने लड़के को फ़ोन लगाने को कहा ताकि वो भी निश्चिंत हो जाये। किशन ने फ़ोन लगाया और बताया कि माँ-पिताजी उसे बहुत आराम से मिल गये हैं, हमारे बारे में भी इशारा किया।  फ़िर स्पीकर ऑन करके फ़ोन उसने बुढ़िया को पकड़ा दिया। हर माँ की तरह बुढ़िया ने अपने लड़के को खूब आशीर्वाद दिये और फ़िर पंकज के बारे में बताया कि कैसे उसके कारण उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। लड़के की आवाज सुनाई दी, "ए माई, बैग का सामान और पॉकेट अच्छे से जाँच लेअब। ई दिल्ली के मनई बहुत खराब बा।" 

अगले दिन लौटते समय ट्रेन में सीट पर बैठे तो मैंने पंकज को छेड़ा, "ओ दिल्ली के खराब मनई, दोबारा वैसी नेकी करेगा?" 

वो चेहरे पर वही मुस्कान लाकर बोला, "अपना अपना नजरिया है सरजी। आपको लड़के की बात याद रही और मुझे आते समय उस बुढ़िया के हाथ का वो स्पर्श, बिल्कुल मेरी अपनी माँ के हाथ के स्पर्श जैसा।" 

सौ सूरज भी इतना नहीं चमकते होंगे, जितनी एक अच्छे आदमी की मुस्कान। उस्तादजी सही कहते थे, ऐसे मौके पर आँखें बंद कर लेनी चाहियें। कसम से, बंद आँखों से बहुत सुकून मिलता है।

रविवार, फ़रवरी 02, 2014

बसन्त पंचमी

आने वाली चार तारीख को बसन्त पंचमी है।  बसन्त पंचमी से आपको क्या याद आता है? कुछ नहीं, कुछ-कुछ, बहुत कुछ?  कोई उत्सव, कोई गाना, कोई भूली बिसरी याद, कोई  नई-पुरानी घटना यहाँ तक कि कोई दुर्घटना भी,  साझा करना चाहें तो स्वागत है।

मेरे प्रिय पाठक-पाठिकाओं पर नकल का आरोप न लगे, इसलिये इस पोस्ट पर कमेंट कूछ समय के अंतराल में पब्लिश होंगे।

रविवार, जनवरी 19, 2014

यक्ष प्रश्न

केन्द्रीय राज्यमंत्री डा. शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर थरूर की रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई मृत्यु ने फ़िर से महाभारत का यक्ष-युधिष्ठिर संवाद वाला प्रसंग याद दिला दिया और साथ में फ़िल्म नमकहराम में आलम(रजा मुराद) का बोला वह शेर भी कि -

’जीने की आरज़ू में रोज मर रहे हैं लोग,
मरने की जुस्तज़ू में जिये जा रहा हूँ मैं’

संभावनायें और परिस्थितियाँ इशारा कर रही हैं कि सुनंदा की मृत्यु स्वाभाविक नहीं है। ताजा ट्विटर-विवाद, आईपीएल जैसे प्रकरणों के चलते लगता तो यही है कि यह आत्महत्या या हत्या का मामला हो सकता है। इस रहस्य से पर्दा उठेगा कि नहीं, वीआईपी लोगों का इस प्रकरण से सीधे जुड़े होने के कारण फ़िलहाल तो यह भी एक रहस्य ही है। 

मृत्यु किसी भी रूप में आये, परिजनों के लिये क्षति रूप में आती है और मृत्यु का आत्महत्या या हत्या होना इस क्षति की मात्रा और प्रकार को कई तरीकों से बढ़ा देता  है। इतना जरूर है कि किसी आम नागरिक के साथ हुई ऐसी दुर्घटना अखबार में चंद लाईनों तक सिमट जाती है और किसी हाई-प्रोफ़ाईल के साथ ऐसा होने पर कई दिन की फ़ुटेज की उपलब्धता निश्चित हो जाती है। 

इस मामले में फ़ेसबुक पर लोगों की अलग अलग तरह की प्रतिक्रियायें देखीं।  हम हिन्दुस्तानियों को हर मामले में निर्णायक बनने का शौक\लत है सो प्रतिक्रियाओं से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। सेलिब्रिटी होने का एक पक्ष यह भी है कि आपका व्यक्तिगत कुछ भी नहीं रहने दिया जाता। प्रेस\मीडिया\लोग तो किसी की खाँसी को भी व्यर्थ नहीं जाने देते, यहाँ तो एक जान गई थी तो चूकना असंभव था। प्रतिक्रियाओं से तो आश्चर्य नहीं हुआ लेकिन इस बात से आश्चर्य जरूर हुआ कि यह नौबत क्यों आई होगी? किसी कमजोर द्वारा ऐसा कदम उठाना फ़िर समझ आता है लेकिन रूप, धन, पद, शक्ति जैसे भौतिक साधनों से संपन्न लोग जब ऐसा कदम उठाते हैं तो आश्चर्यचकित न होना मुझे अजीब लगेगा। 

जीवन कभी भी आसान नहीं रहता। प्राथमिक चिंता रोटी, कपड़ा और मकान की होती है और आर्थिक/सामाजिक स्तर सुधरने के साथ दूसरी चिंतायें इसमें जुड़ती रहती हैं। बहुधा तो हम लोग इन चिंताऒं से जीवन भर जूझते रहते हैं लेकिन सब इतने भाग्यवान भी नहीं होते।वैसे हममें से शायद ही कोई होगा जिसने कभी न कभी आत्महत्या के विकल्प पर विचार नहीं किया होगा। मुझे लगता है कि बहुत बार परिस्थितियाँ इस तरह से प्रतिकूल हो जाती होंगी कि उनसे जूझते हुये जीवन बिताने की अपेक्षा अपने जीवन के अध्याय को स्वयं बंद कर देना कहीं ज्यादा आसान लगने लगता होगा।

अधिकांश और हो सकता है लगभग सभी प्रचलित धर्मों में आत्महत्या को वर्ज्य माना गया है लेकिन मानव सभ्यता कभी भी इससे अछूती नहीं रही होगी। आत्महत्या समस्याओं से मुक्ति नहीं, सिर्फ़ पलायन है। बल्कि ऐसा करके लोग अपने परिजनों को बिल्कुल अकेला कर देते हैं।  कुछ लोग या कुछ घटनाओं को जरूरत से ज्यादा महत्व देना कहीं की समझदारी नहीं है। सकारात्मक विचारों और सकारात्मक सोच से इस आत्मघाती सोच से बचा जा सकता है। 

आज मैंने कुछ आंकड़े देखे तो पाया कि आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से बहुत ज्यादा है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि कई गुना ज्यादा है।


ज्ञात मामलों की तह में जाने के सीमित प्रयास किये तो पाया कि आत्महत्या करने वाले पुरुषों में अधिकांश संख्या ऐसे लोगों की थी जिन्होंने 'आर्थिक कारणों' के चलते ऐसा कदम उठाया वहीं ऐसा कदम उठाने वाली स्त्रियों के लिये मुख्य वजह 'रिश्ते' रहे। 'आर्थिक कारणों' के चलते आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या ज्यादा होने की वजह तो यह मानी जा सकती है कि अभी तक इस क्षेत्र में आधिपत्य और जिम्मेदारी पुरुषों की ही ज्यादा रही है तो आत्महत्या करने वालों में भी पुरुष ही आगे रहे होंगे लेकिन ’रिश्ते’ वाला कारण तो दोनों के लिये समान महत्व वाला होना चाहिये न?

रिश्तों में तनाव के कारण आत्महत्या करने वालों में पुरुषों से स्त्रियाँ  कहीं आगे हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है?

क्या रिश्ते तोड़ने या टूटते रिश्तों से सामंजस्य बिठाने में पुरुष ज्यादा माहिर हैं, ज्यादा प्रैक्टिकल हैं? 

समय गुजरने के साथ क्या स्त्रियाँ रिश्ते में स्वयं को पुरुष पर निर्भर और कमजोर मान लेती है? या फ़िर आम धारणा के विपरीत पुरुष भावनात्मक रूप से ज्यादा मजबूत हैं?  

अगर किसी रिश्ते को लेकर पुरुष गंभीर नहीं है तो क्या स्त्री के लिये जान दे देना ही सर्वोत्तम उपाय रह जाता है? 



बात मृत्यु की और आश्चर्य की हो और मुझे अतिप्रिय प्रसंग का ज़िक्र न आये, बहुत मुश्किल है। और तो और, यहाँ तो लगता है इस श्लोक में पूछे गये चारों प्रश्न और उनके उत्तर आज भी प्रासंगिक हैं।




रविवार, जनवरी 05, 2014

टीवी-बीवी भाषण-राशन

"यार, पेरेंट्स ने वाईफ़ को यहाँ लाने की इजाजत तो दे दी है लेकिन अब हमें खुद को सोच विचार हो रही है।"
"क्यों, अब क्या चिंता है? मैं तो कहूँगा कि एक परंपरागत परिवार से होते हुये भी तुम्हारे पेरेंट्स ने काफ़ी एडवांस सोच रखी है ।"

"ये तो है, लेकिन मेरी वाईफ़ शुरू से ही गाँव में रही है और उसकी भाषा यहाँ की हिन्दी से बहुत अलग है। अड़ौस-पड़ौस में परिवार तो बहुत हैं लेकिन बातचीत ठीक से न हो पाये तो उसे बहुत अटपटा लगेगा।"

उस समय के हमारे राय मशविरे ब्लॉग बहस की तरह नहीं होते थे कि अपने ज्ञान और तर्क शक्ति की कैटवॉक करके दिखा दी, उसके बाद तुम अपनी जगह और हम अपनी जगह। वैसे भी संत तुलसीदास ’तिनहीं बिलोकत पातक भारी’ लिखकर धमकिया ही चुके थे तो हमने मित्र के रज समान दुख को मेरू समाना मानते हुये नई बीवी की आवभगत नये टीवी से करने की राय दी ताकि हमारी भाभीश्री को एकदम से अकेलापन न महसूस हो। उसी मकान में नीचे के हिस्से में एक पोर्शन राजा बाबू एवं उनकी श्रीमती की गृहस्थी के लिये  फ़ाईनल कर लिया गया। 

फ़ैसला होने के बाद मित्रमंडली में यह खुशखबरी बांट दी गई कि इस छड़ा महल में दूसरी तरह की चहल पहल आने वाली हैं -  टीवी और उसके कुछ दिन बाद ही राजा बाबू की बीवी। राजा का विचार था कि चूँकि इन चीजों से उसका वास्ता नहीं रहा है तो टीवी पहले खरीद लिया जाये। जब तक शादी होगी और बीवी को लाने का समय आयेगा, तब तक टीवी का सिस्टम समझ आ जायेगा वरना एक साथ दो नई चीजें साधने में कहीं दिक्कत न हो जाये। ये प्रस्ताव भी एकमत से पास हुआ क्योंकि इस मदों में जो खर्च होना था वो राजा का ही था तो शुभस्य शीघ्रम।  एकाध दिन में सब दोस्त राजा के साथ जाकर टीवी खरीदवा लाये। पुराने समय की बात है,  ऊंचे ऊंचे एंटीना लगे करते थे और सीमित समय के लिये गिने चुके दो चैनल आते थे एक दूरदर्शन राष्ट्रीय और शायद एक प्रादेशिक राजधानी से। पहले दिन राजा की गृहस्थी का सामान सेट करते और टीवी का एंटीना फ़िट करते कराते प्रसारण समय समाप्त हो चुका था, फ़िर भी टीवी को बार बार चलाकर देखा गया, ब्राईटनेस\कंट्रास्ट और शूँSSSSSS की आवाज करते वॉल्यूम के बटन को भी घुमा घुमाकर चैक किया गया।

वहाँ रहते हुये तब तक दो साल हो गये थे लेकिन कभी टीवी की कमी नहीं महसूस हुई थी, आपस में हँसते-बोलते, लड़ते-झगड़ते कैसे समय बीत जाता था इस बात का पता भी नहीं चलता था। आज टीवी आ गया था तो रह रहकर बात टीवी से शुरू होती थी। आज राजा को जबरदस्ती नीचे भेजा गया कि अब हमसे अलग दूसरे कमरे में सोने की आदत डाल। वो था कि जा नहीं रहा था, उसका कहना था कि जब बीवी आयेगी तो जाना ही होगा लेकिन अभी क्यों अपने से दूर कर रहे हो?  हम अपने इरादों के पक्के, देर रात उसे उसके कमरे में भेजकर ही माने। उसे समझाया गया कि बीवी के आने से पहले तू भी टीवी की आदत डाल लेगा तो दोनों का समय अच्छे से बीतेगा। बहरहाल राजा अच्छा लड़का रहा, मान जाता था। अगले दिन उससे पूछा कि कल रात टीवी चलाया था तो पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे उसने माना कि हाँ चलाया था, कुछ प्रसारण तो नहीं आ रहा था लेकिन सब बटन वटन चैक करता रहा ताकि सब मैकेनिज़्म समझ आ जाये। हम सबने हँसते हुये उसकी पीठ थपथपाई कि ऐसे ही गहरे पानी पैठता रहियो, सब मैकेनिज़्म समझ आ जायेंगे :)

अगले दिन दिनभर ऑफ़िस में भी बात-बेबात टीवी का चर्चा चलता रहा। शाम को ड्यूटी ऑफ़ का टाईम हुआ तो सब घर चलने को तैयार हुये जबकि पहले ड्यूटी के बाद वहीं ऑफ़िस में बैठकर कैरमबोर्ड पर ब्लैक एण्ड व्हाईट खेला करते थे। जल्दी-जल्दी घर पहुँचे और टीवी चलाया तो स्क्रीन ब्लैंक थी।  पता चला कि तीन या पांच दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया जा चुका था और नेपथ्य में शोक ध्वनि चल रही थी। बड़ा धोखा हुआ हमारे साथ।

आने वाले दिन भी यही कार्यक्रम दोहराया गया और उसके अगले दिन भी। अब लौटकर यंत्रवत एक बार टीवी चलाते थे, वही मातमी धुन सुनते थे और टीवी बंद कर देते थे। रिपीट मोड में यह कार्रवाई हर घंटे दो घंटे में दोहराई जाती हालाँकि नतीजा मालूम था। ऐसे ही एक बार टीवी चलाया तो मरहूम  का दूरदर्शन पर एक पुराना इंटरव्यू दिखाया जा रहा था। रेगिस्तान में पानी को तरसते मुसाफ़िर को पानी की थोड़ी सी भी मात्रा मिल जाये तो जो उसकी हालत होगी, वैसे ही कुछ हमें महसूस हुआ - इंटरव्यू ही सही, कुछ तो देखने को मिला। करीब आधे घंटे का वो इंटरव्यू देखने में हमें बहुत मजा आया। सारा इंटरव्यू न बताकर उसका सबसे मस्त पोर्शन आपको बताता हूँ -

साक्षात्कार ले रही महोदया ने पूछा, "सर, आपके भाषण बहुत पॉपुलर होते थे और लोग बहुत शौक से सुनते थे। आपने यह कला कहाँ से सीखी?"

जवाब मिला, "मैं मिडल(या हाई) स्कूल में पढ़ता था तो एक बार देश के बारे में स्टेज पर कुछ बोला। मेरे एक मास्टरजी थे, उन्हें मुझमें कुछ  संभावना दिखाई दी। फ़िर उन्होंने बाकी टिप्स के अलावा सबसे मुख्य टिप ये दी कि आजकल सर्दियों का समय है, सुबह जल्दी उठकर गाँव से बाहर खेतों की तरफ़ घूमने जाना चाहिये। आजकल किसानों ने खेतों में गोभी लगा रखी है। सुबह सुबह खेत में घुसकर गोभियों के बीच खड़े होकर भाषण देना शुरू कर दें। गोभियों के बीच खड़ा भाषण देता आदमी अजीब दिखेगा और शुरू में खुद उसे भी अजीब सा लगेगा लेकिन धीरे धीरे उसके दिमाग में यह बात बैठ जाती है कि जब वो भाषण देता है तो उसके सामने मनुष्य नहीं, गोभी के फ़ूल हैं जिन्हें कोई प्रतिक्रिया नहीं देनी। इस अभ्यास से आत्मविश्वास आ जाता है और फ़िर जब वो स्टेज पर जाकर जनता के बीच कुछ कहना शुरू करता है तब भी इसके दिमाग में यही होता है कि सामने जो सिर दिख रहे हैं, वो गोभी के फ़ूल हैं।"

उस समय हम सब बहुत हँसे थे और उस इंटरव्यू को बहुत एंटरटेनिंग माना था लेकिन उन्होंने जो कहा वो हमारा एंटरटेनमेंट करने के लिये नहीं कहा था बल्कि सादगी से कही गई सच्चाई  थी। हम सब हैं गोभी के फ़ूल ही, लेकिन थोड़ा एडवांस टाईप के। कुछ भाषण सुनकर तालियाँ पीट लेते हैं, कुछ सिर पीट लेते हैं और कुछ अपने अपने मतलब की लकीर पीटते रहते हैं और भाषण देनेवाला किसी दूसरे खेत में गोभी के फ़ूलों को संबोधित करके कह रहा होता है - भाईयो और बहनों,............ 

मजेदार\विवादित भाषणों के अपने अनुभव शेयर करना चाहें तो ये गोभी का फ़ूल भी आपका स्वागत करता है। 

डिस्क्लेमर -  ये पोस्ट किसी की अवमानना के उद्देश्य से नहीं लिखी गई है।