शुक्रवार, फ़रवरी 07, 2020

अव्यवस्थित

कुछ परिवर्तन के लिए इस बार हिंदी फिल्म देखनी आरम्भ की। मैं एक स्पैल में फिल्म न देखकर टुकड़ों में ही देख पाता हूँ और यह suit भी करता है, अच्छी लगी तो long relish हो गया और अच्छी नहीं लगी तो the end से पहले ही the end की सुविधा। तो इस बार फिल्म चुनी गई, 'बाला'
फिल्म देखते समय मुझे कुछ स्थान पर लगा कि मैं भी नायक की भाँति सोचता हूँ, विशेषकर जब अपने झड़ते बालों वाली समस्या को नायक बचपन में अपने गंजे शिक्षक का उपहास करने से जोड़ता है। 
मैं कर्मफल के सिद्धांत में विश्वास रखता हूँ और यथार्थ में सम्भवतः कुछ करता कम और सोचता अधिक हूँ, इसलिए प्रायः अपनी किसी असफलता या अपने प्रति हुए अन्याय के समय पूर्व में मेरे द्वारा किसी अन्य के साथ किया ऐसा व्यवहार स्मरण करता हूँ और कोई घटना पा भी लेता हूँ। इस सोच को स्वस्थ माना जाए या दिल बहलाने की बात, मेरी असंतुष्टि मिटती है और भविष्य के लिए अपने को सुधारने का एक लक्ष्य मिल जाता है। पढ़ने में यह बात आकर्षक लग भी सकती है किन्तु इसे अपनाने में अपने प्रति कुछ  निर्मम अवश्य होना पड़ता है, आसपास वालों की दृष्टि में aaceptable, presentable और respectable बनना कठिन होता जाता है और अन्य के साथ व्यवहार भी पहले जैसा jolly नहीं रहता।
माफ करना, बड़े लेखकों की नकल करने के चक्कर में मैं भी थोड़ा इधर-उधर निकल जाता हूँ।☺️ उस बात पर आता हूँ, जिसके लिए इतनी भूमिका बाँधी।
प्रतिदिन लगभग सदा ही सार्वजनिक वाहन में यात्रा करता हूँ। ट्रेन में चलता था तो त्रैमासिक सीज़न टिकट रखता था और अब मेट्रो में चलना होता है तो हजार-पांच सौ का रिचार्ज करवाया और कुछ दिन की छुट्टे नोट की समस्या से मुक्ति मिल जाती है। कुछ माह से मेट्रो स्टेशन से कार्यालय और कार्यालय से मेट्रो स्टेशन आते हुए शेयरिंग ई-रिक्शा  का सहारा लेता हूँ। सांयकाल में तो ऐसी कोई शीघ्रता नहीं होती किन्तु सुबह के समय हर एक मिनट कीमती लगता है। प्रायः देखता हूँ कि अनेक लोग ऐसे हैं जो रिक्शा में बैठते ही चलने की जल्दी मचाते हैं किंतु जब रास्ते में उतरते हैं तो किराए के पैसे देते समय इतनी प्रकार और स्टाइलों से अपनी देह को घुमाकर/मरोड़कर, इधर-उधर हाथ डालकर wallet निकालते हैं, सौ या पचास का नोट निकालकर रिक्शावाले को देते हैं, फिर लौटाए गए नोट या सिक्कों को कसौटी पर कसकर लेनदेन सम्पन्न करते हैं। मुझ जैसे अनेक बार समय देखकर सुलगते रहते हैं कि ये लोग हमें देर करवा रहे हैं और वो भी ऐसे कारणों से, जिन्हें इस एक छोटी सी आदत से बदला जा सकता था कि आवश्यक खुले पैसे अपने पास रखे जाएं।
 In short, लोगों की इस आदत से मैं बहुत त्रस्त रहता हूँ और इस पर विस्तृत और उपयोगी चर्चा निंदक जी से भी हो चुकी है, यदि उन्हें स्मरण हो। 
मैं स्वयं बहुत पहले से इस मामले में particular रहा कि जेब में आवश्यकता योग्य फुटकर नोट अवश्य रहें। एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि संयोग वश खुले पैसे नहीं थे तो ऑफिस से निकलते समय मैंने एक स्टाफ से दस रुपए उधार भी लिए कि यार दस रुपए दे दो, मैं कल लौटा दूँगा। लौटाए नहीं, यह अलग बात है किन्तु भावना यही थी कि अपने कारण दूसरों का समय व्यर्थ करने का पाप नहीं करना। अपनी इस उपलब्धि का मैंने अहंकार भी किया है और अनेक मित्रों के सामने गाया भी बहुत है। 
आज कार्यालय से लौटते समय भी यही सब देखता और कुढ़ता आया। गंतव्य पर पहुँचते तक रिक्शा में दो सवारी बचीं, रिक्शा वाले ने भी रिक्शा लगभग सड़क के बीच ही रोक दी। जेब में हाथ डाला तो ₹२००/- वाले दो नोट  ही निकले। मेरी हालत सच में बुरी हो गई, दूसरे यात्री ने तब तक बीस का नोट देकर दस रुपए वापिस सम्भाल लिए थे। सड़क के बीच ई-रिक्शा रुकवाना और झिकझिक करना, मेरे पसीने छूट गए। मैंने उस लड़के से अनुरोध किया कि यदि वह मेरे बदले भी दस रुपए रिक्शा वाले को दे देगा तो मैं उसे अभी खुले करवाकर लौटा दूँगा। लड़का पता नहीं क्या समझा होगा क्योंकि मेरा सम्प्रेषण भी उतना स्पष्ट नहीं रहता किन्तु उसने दस रुपए रिक्शा वाले को दे ही दिए। 
आगे कहानी यह हुई कि वो अपरिचित लड़का बिना इस बात की प्रतीक्षा किए कि उसके दस रुपए मैं लौटा सकूँ, "कोई बात नहीं,  छोड़िए अंकल जी।" कहते हुए दूसरे रिक्शा में बैठकर चला गया। 
चार घण्टे होने को आए हैं, मुझे अब तक लग रहा है जैसे मैं कोई भिखारी हूँ।
घटना साधारण भी लग सकती है और अस्वाभाविक भी, किन्तु सौ प्रतिशत सत्य है।