रविवार, सितंबर 16, 2018

सबका साथ सबका विकास

हमारा मित्र भोला बताया करता था कि उसके गाँव का एक आदमी हमेशा अपनी दृष्टि नीचे रखता था। उन्हीं दिनों गाँव में पहली बार किसी ने दोमंजिला भवन बनाया था तो यह चर्चा का विषय बना हुआ था। स्वाभाविक रूप से भवनस्वामी के लिए यह एक उपलब्धि थी तो एक दिन भवन स्वामी ने बहुत आग्रह करके उस व्यक्ति को दृष्टि उठाकर अपना नवनिर्मित भवन दिखाया। शाम तक यह भी चर्चा का एक विषय हो गया कि अमुक आदमी ने आज आँख उठाई। सच झूठ की नहीं कह सकता किन्तु भोला बताता था कि अगले दिन उस भवन की छत ढही हुई मिली थी। अब ठीक से स्मरण नहीं लेकिन किसी सन्दर्भ में ये किस्सा मुझे सुनाते हुए ही कहा था। जो भी हो, एक दो बार प्रयास करने के उपरांत भी मुझसे आँखें उठाकर नहीं चला जाता। 
चलते समय मेरी दृष्टि प्रायः नीचे की ओर ही रहती है। आसपास की (और ऊँची भी) बहुत सी सुंदरताएं मैं देख नहीं पाता हूँ, मेरा सारा ध्यान नीचे ही रह जाता है। सीमेंटेड सड़कें तो एकरूपी होती हैं लेकिन जिन सड़क, फुटपाथ या फर्श पर टाईल्स, मार्बल, पत्थर आदि लगे रहते हैं, उनके डिजाइन/रंग आदि पर ध्यान देना मुझे अच्छा लगता है। इस नीरस चर्चा में रस यह है कि अच्छा लगने के लिए मैं कुछ न कुछ खोज ही लेता हूँ ☺
भूतल पर बिछे पत्थर, टाईल्स या लकड़ी के टुकड़े सब निर्जीव ही होते हैं लेकिन उनका आकार, उन पर बने ज्यामितीय पैटर्न आदि इन निर्जीव वस्तुओं को भी किसी प्रजाति की तरह unique बना देते हैं। चलते-चलते मैं इस पर ध्यान देने लगता हूँ कि कितने कदम की दूरी है, धीरे-धीरे पग इन पत्थरों/टाईल्स के साथ सिंक्रोनाइज होने लगते हैं, तारतम्य में आने लगते हैं। यह सम्भव तभी हो पाता है जब दूरी कुछ ज्यादा हो। 
अच्छा, कभी इस पर ध्यान दिया कि मनुष्य खड़ा हो तो सुविधाजनक ढंग से खड़े रहने के लिए कितनी धरती उसे पर्याप्त होगी?  अगर आप किसी ऐसे धरातल पर खड़े हों जिसमें टाईल्स या पत्थर लगे हों तो 1 वर्गफुट कम होगी? कल्पना करिए, सम्भवतः कम नहीं होगी। चलिए अगर च्वॉयस हो तो इस पत्थर को 2X2 फुट का कर लेते हैं। अब तो आराम से इस पर खड़े हो सकते हैं न? अब इस सोच को विस्तार देते हैं और जिस पत्थर पर आप खड़े हैं, उसे एलीवेट करते हैं। बाकी धरातल को यथास्थान रखते हुए जिस पत्थर पर आप बहुत आराम से खड़े थे, उसे एकाध किलोमीटर ऊँचा उठा दिया जाए तो कैसा महसूस होगा? मेरे पैरों का आकार नहीं बढ़ा, वो पत्थर छोटा नहीं हुआ, मैं औरों की अपेक्षा ऊँचा उठा(सब ऊँचा उठने का स्वप्न देखते ही हैं) लेकिन पता नहीं क्यों मेरी हथेलियों और तलवों में पसीने आ जाते हैं। चिकित्साविज्ञान में इसे कोई सा फोबिया बताते हैं। 
जो साथी नीचे रह गए, उनके मनोभाव कुछ और होंगे, उसे भी कोई सा फोबिया कहते ही होंगे।
 फिर मैं सोचता हूँ कि अकेला मैं इस तरह से न उठकर हम सब उठें तो सम्भवतः कोई फोबिया नहीं होगा।
मेरे अकेले के विकास में विनाश होने की संभावना अधिक है, सबका साथ सबका विकास कहीं से गलत नहीं है।

शनिवार, अगस्त 25, 2018

दो निर्णय ..(भाग २)

तो मित्रों, आगे बढ़ते हैं..
दिल्ली वाला डॉ. नारंग कांड कुछ दिन पहले ही घटित हुआ था, दिमाग में वो भी तुरंत कौंध गया। मैंने वहाँ जाकर पूछा कि क्या मामला है तो अंकल जी ने कहा कि इन लोगों को कई बार मना करने के बाद भी ये कूड़े की बोरी हमेशा यहाँ रख जाते हैं। उनकी तरफ देखा तो उनमें से जो आदमी था वो बोरी उठाकर अपनी ठेली पर रखने का उपक्रम करने लगा। मैंने उससे कहा कि दोबारा ऐसा न हो। इधर से अंकल जी को लगा कि अब एक सहायक आ ही गया है तो बोले, "हर दिन का यही काम है इन भैन@# का, पकड़े जाएं तो हाँ जी/अच्छावजी करते हैं लेकिन मानते नहीं है।" उस आदमी ने कुछ नहीं कहा लेकिन उसके साथ की औरत अपनी टूटीफूटी हिंदी में अंकलजी से बहस करती जा रही थी कि कोई इस मकान में रहता नहीं है, दस मिनट के लिए हमारा सामान सामने रख दिया तो इसमें गाली-झगड़ा क्यों वगैरह वगैरह। पता चला कि वो लोग तीन गलियों में कूड़ा इकट्ठा करते हैं और एक गली से कूड़ा एक बड़े बोरे में भरकर वहाँ रखते हैं और दूसरी गली में चले जाते हैं, ऐसे ही तीसरी गली में। और लौटते समय वो दोनों बोरे भी लादकर फाइनली अपने ठिकाने चले जाते हैं। तमाशबीन एकत्रित थे, दोनों पार्टियाँ गर्मागर्मी में बहस कर रहे थे और यह देखकर वहाँ से निकल रहे दूसरे कूड़ा उठाने वाले भी आ खड़े हुए। ड्राईंगरूम में बैठकर घटना के कारण-निवारण पर बौद्धिक तर्क देना अलग चीज होती है, मौके पर घटना का हिस्सा होना अलग। बहस होते-होते अंकल जी ने फिर कोई गाली दी, वो औरत फिर भड़की और अंकलजी ने उसी ठेली पर टाट तानने के काम आने वाला एक बाँस उठाया और मारने को हुए। मैंने उन्हें रोक लिया लेकिन जैसे कहते हैं कि मारते का हाथ रोक सकते हैं पर बोलते की जुबान नहीं तो उन दोनों की जुबानी जंग जारी रही। वो भी अब चार-पांच लोग थे, इतनी हिम्मत तो खैर कर नहीं सकते थे कि हाथ उठा दें लेकिन औरत को गाली देने और मारने की कोशिश का राग शुरू हो ही जाता। मामला बढ़ने नहीं दिया गया, उनके साथियों को वहाँ से भगाया और इन दोनों को भी दोबारा ऐसा न कहने की बात कहकर मैं भी चला आया, घर पर मेरा भी बेसब्री से इंतजार हो रहा था ☺ अंकलजी को बोला कि वो भी चलें लेकिन वो वहीं रुकने की बात पर अड़े रहे।
घर पहुँचा तो सब तैयार ही थे, मुझे देखकर गाड़ी में बैठने लगे। मैंने गली में देखा तो अंकलजी का लड़का उनके घर के बाहर ही दिख गया। वो मुझसे लगभग पाँच वर्ष छोटा है, मैंने आवाज लगाकर बुलाया और उसे शॉर्ट में बात बताई। ये भी कहा कि अभी सब शांत हो गया था लेकिन तेरे पिताजी वहीं हैं और अकेले ही हैं तो वहाँ जाना चाहिए। सुनकर वो चकित रह गया, "झगड़ा कर रहे थे?" कहकर उत्तेजना में आकर एक दो बार ऐसे इधर उधर पलटा जैसे लड़ाई के मैदान में घोड़ा अचानक से कोई निर्णय न कर पा रहा हो। और फिर अपने घर में घुस गया। हमें अपने घर को लॉक करते,  गाड़ी आगे-पीछे करते पाँच-दस मिनट तो लग ही गए होंगे, मेरा ध्यान उधर ज्यादा था कि वो लड़का घर से शायद कोई लाठी-किरपाण लेकर अपने प्लॉट की ओर भागता दिखेगा लेकिन 😢।
हम उस प्लॉट के सामने से ही निकले तो दरवाजा साफ-सुथरा था। कुछ आगे आने पर अंकलजी भी दिख गए जो दुकान से फल वगैरह खरीद रहे थे। 
मुझे पता नहीं क्या सोचकर(कह सकते हैं कि क्या-क्या सोचकर) हँसी आ गई। 
अब आप अपने ड्राईंगरूम में बैठकर दो ये निर्णय कि यह सामान्य सी घटना लिखने-पढ़ने योग्य थी?
जो घटा, उसमें कौन सा पक्ष सही था?
मामला बढ़ जाता तो भी आप ऐसे ही ठंडे दिमाग से सोच रहे होते या वो सोच रहे होते जो चैनल वाले चाहते हैं?
प्रश्न बहुत हैं, पहले इन्हीं दो चार प्रश्नों पर दो निर्णय।

बुधवार, अगस्त 22, 2018

दो निर्णय

उस दिन हमें सपरिवार कहीं जाना था। सब तैयार हो रहे थे, इस काम में मैं हमेशा फर्स्ट आता हूँ। जो शर्ट सामने पड़ गई वो पहन ली, जो पैंट दिख गई वो चढ़ा ली। न मैचिंग का झंझट और न कंट्रास्ट का। ये वैसे भी अच्छा ही है कि पुरुषों के लिए लिपस्टिक, नेलपॉलिश, बिंदी, चूड़ी आदि-आदि का लफड़ा नहीं है। तो हुआ यह कि मैंने एक काम जानबूझकर पेंडिंग रखा हुआ था, मिठाई खरीदने का। विचार था कि जब अन्य सदस्य तैयार हो रहे होंगे तो मैं उतनी देर में मिठाई खरीद लाऊँगा। मैं गया और मिठाई लाकर लौट रहा था किंतु उससे पहले कुछ और बताना आवश्यक है।
हमारे घर से कुछ ही घर छोड़कर एक परिवार है जिसकी बात यहाँ आएगी। आज से सत्तर वर्ष पहले हमारे यहाँ के सभी निवासी लगभग एक ही आर्थिक और सामाजिक स्थिति के थे, ४७ में उधर से आए हुए। जिसे जो काम समझ आया होगा, उसमें जुट गया। मेरा जन्म सत्तर का है, तब तक लोग आर्थिक रूप से ठीकठाक स्थिति में आ गए थे। मैं तब दसवीं में था तो पता चला कि उस परिवार में से एक भाई ने कुछ दूरी पर एक प्लॉट जिसमें दो कमरे भी बने हैं और खरीद लिया है, तब तक जमीन सोना नहीं बनी थी। किंतु एक बात थी, उस प्लॉट/मकान को उन्होंने खाली ही रख छोड़ा और रहना उसी पुराने पारिवारिक मकान के एक कमरे वाले उनके भाग में जारी रखा जिसमें पहले से रहते आ रहे थे ताकि हिस्सेदारी बनी रहे। ऐसे केस देखने के बाद मुझे पाकिस्तान पर कई बार हँसी जरूर आती है जो हमें कश्मीर छोड़ने को कहता है ☺
जो भी हो, कालांतर में ऐसा हुआ कि इनकी मेहनत से परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी होती गई और उस साझे घर से उनके दूसरे भाई अपना हिस्सा लेकर कहीं और चले गए, पुराना घर भी इनके अकेले के स्वामित्व में आ गया। कुछ समय और बीता तो इसी घर के साथ लगता एक और घर इन्होंने खरीद लिया, दोनों को मिलाकर अच्छे से प्लानिंग करके पुनर्निर्माण करवाया और पूरा परिवार एक साथ इसी घर में रह रहा है। वो जो कुछ दूरी पर प्लॉट/मकान चुपके से खरीदा था, अब भी वैसे ही चुपचाप पड़ा है। कभी-कभी बूढ़े अंकल जी जाते हैं, ताला खोलकर थोड़ी बहुत सफाई जैसी हो पाती है कर आते हैं और पड़ौस वालों को सुनाकर दो चार गालियाँ बोल आते हैं। इस बहाने सब लोगों को पता रहता है कि मकान लावारिस नहीं है।
तो उस दिन मैं मिठाई लेकर लौट रहा था, भाई का फोन आ चुका था कि सब तैयार हैं और वो गाड़ी बाहर निकाल रहा है। रास्ते में वही प्लॉट/मकान पड़ता है जिसकी बात आपको बता चुका हूँ। वहाँ कुछ लोग इकट्ठे थे और  ये जो गलियों में कूड़ा उठाने ठेली रिक्शा वाले आते हैं, उनमें से एक जोड़े से अंकल जी बहुत गुस्से में भिड़े हुए थे, दे गाली-गलौज जारी था। लोग खड़े तमाशा देख रहे थे। मैंने मोटरसाइकिल स्टैंड पर लगाई और मौके पर पहुँच गया.....
चालण दूँ न्यूए अक ..?

गुरुवार, जुलाई 05, 2018

कुछ न समझे ...............

- गूगल मैप्स पर देखा, मेट्रो स्टेशन से दूरी लगभग नौ किलोमीटर दिखा रहा था। उस दिन मेरा face भी शायद index of mind हुआ रखा था, बाहर निकलते ही ऑटो वालों ने घेर लिया। उनमें से एक ने तिलक लगा रखा था, मैंने उसे जगह बताई तो वो पूछने लगा कि लौटना भी है क्या?
मैंने कहा, "हाँ, मुझे वहाँ मुश्किल से दस मिनट लगेंगे।"
उसने कहा, "दो सौ रुपए दे देना, सर। वहाँ से आपको वापिस आने के लिए ऑटो आसानी से मिलेगा भी नहीं।" मैं भी कहने को हुआ कि तुम्हे भी वहाँ से सवारी आसानी से नहीं मिलेगी लेकिन चुप रह गया।
चले तो सावधानी के लिए मैंने GPS लगा रखा था। पहले सिग्नल पर लालबत्ती थी तो मैंने कहा कि यार GPS तो राइट टर्न बता रहा है। उसने तुरंत फोन निकालकर किसी से कन्फर्म किया और बत्ती हरी होने पर राइट टर्न लिया। बोला, "सर, मैं गलत एड्रेस समझ गया था। ये तो मेरे सोचे से कम से कम डबल दूरी पर है।" 
मैंने कहा, "मतलब वहीं जाना होता तो तुम मुझसे डबल से भी ज्यादा किराया चार्ज कर रहे होते? खैर, अपना नुकसान मत करो यार। मीटर स्टार्ट कर लो, जितना बनेगा उससे बीस रुपये ज्यादा दे दूँगा।"
अनमना सा वो बोला, "नहीं सर, अब मीटर क्या चालू करना।"
वापिस आकर जब दो सौ रुपए दे दिए तो रिक्वेस्ट सा करते हुए बोला, "सर, बीस रुपये और दे देते तो ..।"
मैंने दे दिए, बेमन से। साथ ही इतना जरूर कहा कि तुम अपनी वेशभूषा के साथ न्याय नहीं कर रहे हो।
- पिछले कई वर्षों से किसी कारण से रास्ते में नाईयों की पंद्रह-बीस दुकानें छोड़कर एक विशेष दुकान पर जाता हूँ। मालिक मर चुका, बच्चे नाई का काम कर रहे हैं लेकिन बेमन से। मैं अब भी वहीं जाता हूँ लेकिन अब मन से नहीं जाता। मरे मन वाले कब तक जिएंगे?
- रात को घर लौटते समय रोज देखता हूँ कि तथाकथित सम्भ्रान्त दिखने वाले/वालियाँ उन लोफरों की ठेलियों से सब्जी खरीद रहे हैं जो महिलाओं को देखकर जानबूझकर आपस में भद्दी भाषा बोलने लगते हैं, अश्लील इशारे कर रहे होते हैं लेकिन महिला ग्राहकों के साथ 'आप' तो ले ही लीजिए', 'जो मर्जी दे दीजिए' जैसे वाक्य बोलते हैं। ग्राहक खुश होती हैं कि कि लड़के बदतमीज हैं लेकिन हमारी तो इज्जत करते हैं, सब्जी भी सस्ती देते हैं और वैसे भी गाली गलौज हमसे थोड़े ही करते हैं...
- कुछ दिन से मैं देख रहा हूँ कि डेयरी प्रोडक्ट्स की एक नई रिटेल चैनशॉप्स दिखने लगी हैं। जबरदस्त डिस्काउंट और ऑफर्स, और सरनेम राजपूतों का है। जरूर चल निकलेगी। थोड़ी सी छूट देकर तो हमें कोई भी अपना गुलाम बना ले। दूध, घी, पनीर में कुछ रुपए बच जाएं तो कुछ बुरा है? समझेंगे कि मूवी देखने जाएंगे तो एक पॉपकॉर्न इस बचत का। ए बचत, तुझे सलाम। पासपोर्ट प्रकरण के बाद तो समझ आना चाहिए कि संविधान अपनी पसंद का नाम/कुलनाम लगाने की छूट देता है भाई, तू कायकू इतना सोचेला है? 
हाहाहा इतना तो तुम भी मानोगे कि राजपूती नाम तुमसे बहुत ऊँचा है।
- प्रभाष जोशी ने एक बार भारत पाकिस्तान के हॉकी मैच के बारे में, जिसमें भारत पूरे मैच में आगे चल रहा था लेकिन अंतिम क्षणों में धड़ाधड़ गोल खाकर हार गया था, लिखते समय परिणाम को दोनों टीम की किलर इंस्टिंक्ट से जोड़ा था। और, उस किलर इंस्टिंक्ट को अलग-अलग कौम की 'आत्मा के आवागमन' और 'बस, यही एक जिंदगी' मान्यताओं से जोड़ा था। उनके लिखे को सही या गलत बताने वाला न्यायकार मैं नहीं लेकिन तब वो लेख मेरी अपनी सोच को व्यवस्थित ढंग से लिखा हुआ लगा था। जिन्हें समझ आता है कि यह चक्र अनन्त है वो समय के साथ प्रवाहमान हो लेते हैं और जिनके लिए यह 'करो या मरो' है वो नियम/नैतिकता सब ताक पर रखकर हासिल करने में जुट जाते हैं।
- - मैं दूर तक देखने की कोशिश करता हूँ तो पास का सब ओझल होता दिखता है। I hope कि जो पास का देखते हैं, उन्हें दूर का भी सब साफ दिखता होगा.....

गुरुवार, मई 31, 2018

What is there in a (nick) name .....


कॉलेज समय में हमारा एक नया बना मित्र कई दिन अनुपस्थित रहा। तब मोबाइल फोन होते नहीं थे, लैंडलाइन उसके घर था नहीं और उसका घर हमने देखा नहीं था। जो कुछ छोटी मोटी निशानियां उसने अपने निवासक्षेत्र की बता रखी थी,, उसी आधार पर हम उसे खोजने निकल पड़े। zeroing करते करते एक गली तय की गई कि रविन्द्र रहता है तो इसी गली में। एक माताजी एक घर से निकलती दिखीं, हमने जाकर नमस्ते की और उनसे पूछा कि रविन्द्र का घर कौन सा है। माताजी ने रविन्द्र के पिता का नाम पूछा, वो हमें ज्ञात नहीं था। वो क्या काम करते हैं, वो भी जानकारी नहीं थी। किनमें से है, पीछे कहाँ से है आदि प्रश्नों के उत्तर भी हमारे पास नहीं थे। इस बीच हमारा इंटरव्यू भी होता रहा। १५-२० मिनट के वार्तालाप के बाद भी रविन्द्र के बारे में वो नहीं जान/बता सकीं लेकिन वो हमारी भावनाओं से प्रसन्न थीं कि कॉलेज के एक नए बने मित्र की कुशलता जानने के लिए प्रयास कर रहे थे। अंत में उन्होंने कहा कि रुको, मैं अपने लड़के से पूछती हूँ वो भी तुम लोगों की उम्र का ही है और किसी कॉलेज में ही पढ़ता है। वहीं दरवाजे से उन्होंने आवाज लगाई, "ओ गुल्लू, एक मिनट को बाहर आइयो।" अंदर से रविन्द्र आया और हमें देखकर बहुत खुश हुआ। माताजी थोड़ी अप्रसन्न अवश्य हुईं कि हमने सीधे-सीधे गुल्लू के बारे में क्यों नहीं पूछा। खैर, माताओं का गुस्सा बालकों पर कहाँ भारी पड़ता है, हम उस घटना को अब भी याद करते हैं।
जो भी हो, अब कहानी चल दी है पुकारू नामों की। नाम पर कई पोस्ट पढ़ी हैं, पुकारू नाम या निकनेम पर ऐसा ध्यान नहीं आता। वैसे देखें तो इन नामों के रखने के पीछे कोई बहुत माथापच्ची नहीं होती होगी, बेबो/लोलो/जूजू/डूग्गू मने कुछ भी लेकिन ये भी सार्वभौमिक सत्य नहीं।
हम में से अधिकतर का घर का नाम उनके सरकारी नाम से अलग होगा, जिनका है वो भी बताएं और अपनी जानकारी में आए ऐसे नाम भी बताएं जो आपको किसी कारण से याद रहे हों। चाहें तो अनुमान भी लगा सकते हैं कि फलाने मित्र का निकनेम यह होगा या यह होना चाहिए। 
मुझे अब तक मेरे परिचितों में सबसे मजेदार दो नाम याद आए, चूचू और डोडो। संयोग की बात है कि दोनों लगभग समवयस्क ही थे और दोनों पंछी देहपिंजर से मुक्त हो चुके।
कल रात फोन की बैटरी डाउन हो गई और अचानक ही इस ओर ध्यान चला गया, बहुत सी बातें सोचते हैं लेकिन बाद में किसी कारण से वो लिखी नहीं जाती। अक्षरशः वैसी तो अब भी नहीं लिखी गई जैसी तब नाजिल हो रही थीं पर सोचा था कि इसपर कुछ लिखना अवश्य है तो लिख डाला। 
लिखना था तो लिख डाला
लाइफ न्यूए बनेगी झिंगालाला 😊
वैसे मैं बता दूँ, मेरा कभी कोई निकनेम नहीं रहा।