मंगलवार, फ़रवरी 23, 2016

अपराध

एक लड़का अनेक वर्ष से एकाधिक राज्यों में मोस्ट वांटेड अपराधी था। राजनैतिक और धार्मिक कारणों के चलते निवर्तमान मुख्यमंत्री को मारने की सुपारी उसी लड़के को दिये जाने की अफ़वाह फ़ैल गई। पत्रकारों ने मुख्यमंत्री से पूछा, "हमने सुना है कि आपकी हत्या की सुपारी .......... को दे दी गई है?" नेताजी भी अपने समय के दबंग ही थे, पलटकर बोले, "जाको राखे साईयां मार सकै न कोय" अगले दिन की अखबारों में पहले पन्ने पर मुख्यमंत्री जी का यह इंटरव्यू था। और उससे अगले दिन उसी अखबार में फ़्रंटपेज पर खबर थी -  ’पुलिस के साथ मुठभेड़ में कई वर्षों से फ़रार चल रहा कुख्यात अपराधी ..............  मारा गया’
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एक हाई सिक्योरिटी जेल से कुछ अपराधी सुरंग के रास्ते फ़रार हो गये। सुरक्षा एवं जाँच एजेंसियों के लिये यह जेल और वहाँ का स्टाफ़ प्रतिष्ठा का विषय था। लेकिन फ़रारी हुई है तो कोई तो भीतर का आदमी मिला हुआ होगा ही। जाँच कमेटी अपना काम करती रही, नये कैदी आते रहे और पुराने सजा काटकर जाते रहे। कुछ महीनों के बाद फ़िर से वही कारनामा दोहराया गया, सुरंग के रास्ते फ़रारी। लेकिन इस बार कोई जाँच कमेटी नहीं बनी, फ़रारी के अगले दिन रुटीन पूछताछ हुई और जेल  सुरक्षा में तैनात कुछ सेलेक्टेड कर्मियों को अलग निकाल लिया गया। पता चला कि जिन दो कैदियों को उन्होंने फ़रार होने में मदद की थी वो गुप्तचर विभाग के अधिकारी थे जो मामले की तह तक पहुँचने के लिये कैदी बनकर जेल पहुँचे थे।
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एक कुख्यात वन्य तस्कर व शिकारी कहीं दिल्ली में छुपा है। उस पर अधिकाँश मामले राजस्थान में चल रहे थे। जानकारी थी कि वो अखबार पढ़ने में रुचि रखता है। उंगलियों पर गिनी जा सकने वाले राजस्थान के समाचारपत्र नियमित रूप से दिल्ली में बिक्री के लिये आते थे। अलग-अलग टीमें बनाई गईं और रेकी की गई। छंटनी होते होते ऐसे एक पाठक पर शक गहराने लगा। एक बच्चा आया, उसने अखबार खरीदी और कमीज के अंदर खोंसकर चल दिया। उसके पीछे-पीछे सादी वर्दी में पुलिस। बच्चा पार्क में गया तो फ़ॉलो करने वाला उसके पीछे, किसी दुकान से लेकर बिस्कुट खा रहा है तो उसके पीछे। बच्चा मंदिर में गया तो बाहर खड़े होकर उसका इंतजार, बच्चा फ़िर किसी तरफ़ निकल गया तो उसके पीछे। दोपहर तक यही चलता रहा, गौर किया तो पाया कि अखबार बच्चे के पास नहीं है।
अगले दिन फ़िर वही रुटीन, इस बार मंदिर से आकर बच्चा चला तो किसीने उसका पीछा नहीं किया। पीछा हुआ उसका जो मंदिर में बच्चे द्वारा छोड़ी गई अखबार को उठाकर असली पाठक तक ले जा रहा था। अगले दिन अखबार में वर्षों से फ़रार चल रहे शिकारी और वन्य तस्कर की गिरफ़्तारी की खबर थी।
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पुलिस पार्टी भेष बदलकर तैयार है। आने जाने वालों/वालियों पर पैनी नजर है। इंतजार की ऐसी घड़ियाँ महबूबा के इंतजार की घड़ियों जैसी रुमानी नहीं होतीं। वहाँ ताजमहल बनाने और आसमान से तारे तोड़ लाने की BC करके बिगड़े काम बन जाते  हैं, यहाँ   एक error of judgement आपका कैरियर बिगाड़ भी सकता है और भूत बनने की संभाव्यता अलग। एकदम से चौकस निगाहों ने एक बुर्कानशीन को देखा और साथी को आँखों में इशारा ........................आप भी कहेंगे क्या साहब फ़िल्म गंगाजल का सीन बता रहे हो, हमने भी फ़िल्म देख रखी है। 
नहीं साहब, ये फ़िल्मी दृश्य नहीं बता रहा। राजधानी के एक भीड़ भरे बस स्टॉप पर जब एक सादी वर्दी में पुलिस वाले ने किसी के चेहरे से नकाब उलटा था तो सोच देखिये कि उस नकाब के नीचे ब्लैकमेलिंग के सबसे बड़े मामले के मुजरिम की जगह कोई मोहतरमा निकलती और नकाब उलटने वाले की जगह आप होते तो क्या होता?
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ये चंद उदाहरण हैं कि कैसे हमारे समाज के अपराधियों को पकड़ने में पुलिस और गुप्तचर एजेंसियाँ जी जान लगा देती हैं। सोचिये, एक छोटी सी चूक और सारी मेहनत खराब, एक झूठा इल्जाम और बरसों मुकदमेबाजी में खुद अभियुक्त बनकर जलालत झेलनी पड़ती होगी। मानवधिक्कार वाले अलग से दबाव बनाये रहते हैं।     प्रतिभा, निष्ठा की कोई कमी नहीं है, आवश्यकता होती है शासन की इच्छाशक्ति की।  सही और गलत हर विभाग में हैं, यहाँ भी होंगे। हो सके तो जो सही है उसकी प्रशंसा करें, गलत को बढ़ावा न दें।
वर्दी के दुरुपयोग की बातें तो अखबार वाले और चैनल वाले आपको बताते ही रहते हैं, आज सोचा कि कुछ अच्छा अच्छा मैं बता दूँ। विश्वास बेशक न करियेगा क्योंकि ये कहानियाँ अकल्पनीय ही लगती हैं, यहाँ तक कि इनमें से कुछ प्रकरण विकीपीडिया पर भी दूसरे तरीकों से अंकित हैं।

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2016

बसंत पंचमी - हकीकत

अपनी कुशाग्र बुद्धि, मेधा और संस्कारित व्यवहार के कारण जहाँ वह मदरसे के अपने सहपाठियों व शिक्षकों में लोकप्रिय था, वहीं हिन्दु होने के कारण बहुतों की आँखों में खटकता भी था। एक दिन उसके साथ पढ़ने वाले बच्चों ने हिन्दुओं की आराध्या ’दुर्गा’ के बारे में अपशब्द कहे और मजाक उड़ाया। उस बालक ने आपत्ति की तो मानना तो दूर रहा, उसे चिढ़ाने के लिये सब उन्हीं अपशब्दों को बार-बार  दोहराने लगे। उत्तेजित होकर उसने कहा, "ऐसी ही बातें अगर तुम्हारे पैगंबर की बेटी के बारे में कही जायें तो कैसा लगेगा?" उसके यह कहते ही ईस्लाम की तौहीन हो गई। मदरसे के उस्ताद तक बात पहुँची और वहाँ से इंसाफ़ की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई शहर काजी तक। एक काफ़िर के द्वारा पैगंबर की बेटी की तौहीन कैसे बर्दाश्त की जा सकती थी? विकल्प दो ही थे - गुनाहगार ईमान लाये और जिन्दा रहे या सिर कलम। जबरन मुसलमान बनने से उसने साफ़ इंकार कर दिया तो शरीयत के मुताबिक सबके सामने उसका सिर कलम कर दिया गया।
किसी न्यूज़ चैनल पर यह समाचार आपको नहीं दिखेगा, फ़िर मैं ये सब क्यों लिख रहा हूँ?
इसका उत्तर ये है कि जिस समय की यह बात है, उस समय यह भाँड चैनल नहीं हुआ करते थे।(अब ये मत पूछियेगा कि मालदा के समय ये चैनल थे तो इन्होंने क्या किया?) 
यह घटना लगभग १७४० ईस्वी की है। वीर बालक का नाम हकीकत राय था, घटना लाहौर की है।
आप सोच सकते हैं कि आज यह सब क्यों लिख रहा हूँ?
उत्तर ये है कि वीर बालक हकीकत राय का सिर कलम बसंत पंचमी के दिन ही किया गया था।
आप सोच सकते हैं कि ३०० साल पहले के जख्मों को कुरेदने की क्या जरूरत है?
उत्तर ये है कि रेत में मुँह गाड़ने से तूफ़ान आने बंद नहीं होते। आज भी देवी दुर्गा को अपमानजनक विशेषणों से पुकारने का काम खत्म नहीं हुआ, सरकारी ग्रांट पर पल रहे जे एन यू जैसे संस्थान के किसी छात्र से बात करके देखियेगा, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसे काम धड़ल्ले से चल रहे हैं। हममें से किसी ने पलटकर जवाब दिया तो असहिष्णुता, असुरक्षा, भय का माहौल हो जाता है।   मालदा, पूर्णिया, बिजनौर, इंदौर के भीड़ एकत्रीकरण और दंगों की थोड़ी सी तह में जाने की कोशिश करेंगे तो पता चल जायेगा कि दूसरे धर्म की तौहीन हो जाती है।  न पैटर्न बदला है और न नीयत, न उनकी और न हमारी। बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा करने की परंपरा रही है। मध्य प्रदेश के धार स्थित भोजशाला में सरस्वती पूजा की जाती थी, बसंत पंचमी कभी-कभी शुक्रवार को आ जाती है इसलिये पूजा पर रोक लग जाती है। हम सोच लेंगे कि वहाँ नहीं तो कहीं और कर लेंगे, भगवान तो कण-कण में व्याप्त है। दस-बीस साल बाद सिमटते सिमटते घर में करने लगेंते तो अगरबत्ती का धुँआ और फ़ूलों की खुशबू से भावनायें आहत होंगी। तूफ़ान आने बंद नहीं होंगे।
पिछले साल बसंत पंचमी के दिन फ़ेसबुक पर एक मित्र ने दुखी होते हुये कहा था कि वीर हकीकत राय को हमने भुला दिया। उनकी भावुकता से सहमत होते हुये भी मैंने कहा था, "न भूले हैं और न भूलने देंगे।" 
बसंत पंचमी के अवसर पर  बलिदानी वीर हकीकत राय को नमन।