मंगलवार, फ़रवरी 11, 2014

बंद आँखों का सुकून

हमेशा की तरह मैं खिड़की वाली सीट पर बैठा था और पंकज मेरे साथ। वो अपने ऑफ़िस की बातें बता रहा था और मैं हमेशा की तरह उल्टी-सीधी सलाह दे रहा था। मेट्रो में और गाड़ी में सफ़र करते समय यदि बैठने की सीट मिल जाये तो उस्तादजी की बात अब मानने लगा हूँ, सीट मिलते ही आँखें बंद कर लेता हूँ। उस्तादजी ने सिखाया था कि   सारा झंझट ही खुली आँखों का है। आँखें खुली रखोगे तो किसी बुजुर्ग या महिला को सीट देनी पड़ेगी, इसलिये सीट मिलते ही आंखें मूंद लेनी चाहियें। पंकज जैसा साथी मिल गया तो और भी आसानी हो गई क्योंकि स्टेशन आने पर वो ही बता देता है कि स्टेशन आ गया है और अब आँख खोलने में कोई दिक्कत नहीं।

आवाजों से सुनाई पड़ा कि बीच के किसी स्टेशन से शायद फ़रीदाबाद से एक बूढ़ा-बुढ़िया और उनका लड़का हमारे साथ वाली सीट पर बैठे हैं। लड़का पिछले साल से दिल्ली में रह रहा है और किसी सेठ के यहाँ ड्राईविंग करता है, माँ-बाप पहली बार उससे मिलने आये थे और आज लौट रहे हैं। लड़का उन्हें ट्रेन में छोड़ने जा रहा था, उसकी पहचान का किशन नाम का कोई लड़का गाँव जा रहा था और नई दिल्ली स्टेशन से आगे गाँव तक वो इन्हें ले जायेगा। गाड़ी में चढ़ते ही बुढ़िया ने लड़के को समझाईश देनी शुरू की थीं, हर माँ के लिये उसके बच्चे हमेशा छोटे ही रहते हैं। गाड़ी अभी फ़रीदाबाद से चली ही थी कि लड़के के मोबाईल पर उसके मालिक का फ़ोन आ गया कि कहीं अर्जेंट जाना है, अभी के अभी वापिस लौटने का हुक्म हुआ। लड़के ने दो तीन घंटे की मोहलत भी मांगी कि अकेले बूढ़े माँ-बाप दिल्ली की भीड़ में दुखी हो जायेंगे और वो गाड़ी चलने तक नही रुकेगा बल्कि अपनी पहचान के लड़के तक माँ-बाप को पहुँचाकर फ़ौरन लौट आयेगा लेकिन इजाजत नहीं मिली। फ़ोन कट गया, आवाज से पता चल रहा था कि लड़का गुस्से में है। विवशता वाला गुस्सा भी अजीब सा होता है, जवान लड़के की आवाज रुँआसी सी लग रही थी और बूढ़ों की आवाज सांत्वन देती सी। लड़का बार-बार फ़ोन मिलाने लगता था कि ऐसी नौकरी गई भाड़ में, दो चार दिन में कहीं और नौकरी मिल जायेगी और बूढ़े माँ-बाप उसे अर्थ का शास्त्र समझा रहे थे और भरोसा दिला रहे थे कि उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी, वो किसी से पूछकर सही प्लेटफ़ार्म तक पहुँच जायेंगे। लड़के के पास तर्क थे उनको दिल्ली से अनजान मानने के और माँ-बाप के पास अनुभव वाले तर्क थे अपने लड़के को जिन्दगी से अनजान मानने के। समझा बुझाकर तुगलकाबाद आते तक लड़के को वापिस भेज दिया गया। गाड़ी चलने तक दोनों पक्ष एक दूसरे को निर्देश देते रहे कि ऐसे करना और वैसे मत करना।

पंकज और मेरी बातें इस बीच रुकी हुई थीं। पंकज ने उन लोगों से बातचीत करना शुरु कर दिया, हर तरह की बात  जिसमें लड़के की मजबूरी की बात भी थी और उसके सेठ की संभावित मजबूरी की बात भी, गाड़ी की बात भी और सवारी की बात भी। बहुत बोलता है यार ये पंकज, उस्तादजी इसे जानते होते तो कान बंद रखने की सलाह भी दे चुके होते।

हमेशा की तरह पंकज ने तान लगाई, ’जागो मोहन प्यारे’ और प्यारे मोहन जान गये कि ट्रेन नई दिल्ली पहुँच गई है। हमेशा हम इकट्ठे ही मेट्रो स्टेशन तक जाते हैं, आज मैंने पूछा, ’चलें मेट्रो?’ वो कहने लगा, "सर, आप चलो। मुझे कुछ काम है।" मुझे पहले ही पता चल चुका था कि आज इसे मेरे साथ नहीं जाना। "कोई बात नहीं भाई, आज मुझे भी जल्दी नहीं तो मैं तुम्हारे साथ ही चलूँगा। एक काम करते हैं कि पहले इन लोगों को इनके किशन तक पहुँचा देते हैं।" तब तक पंकज के साथ बातचीत करके सहज हो चुके बूढ़े-बुढ़िया के चेहरे पर राहत दिखी और पंकज के चेहरे पर वही मुस्कान, जिसपर उसके दोस्त फ़िदा होते हैं।  उतरते समय पंकज ने एक हाथ में बुढ़िया का हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ में उसका बैग, इधर उधर से पूछा और सही प्लेटफ़ार्म पर किशन तक सवारियों को पहुँचा दिया। 

चलने की सोच रहे थे कि बुढ़िया ने किशन से अपने लड़के को फ़ोन लगाने को कहा ताकि वो भी निश्चिंत हो जाये। किशन ने फ़ोन लगाया और बताया कि माँ-पिताजी उसे बहुत आराम से मिल गये हैं, हमारे बारे में भी इशारा किया।  फ़िर स्पीकर ऑन करके फ़ोन उसने बुढ़िया को पकड़ा दिया। हर माँ की तरह बुढ़िया ने अपने लड़के को खूब आशीर्वाद दिये और फ़िर पंकज के बारे में बताया कि कैसे उसके कारण उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। लड़के की आवाज सुनाई दी, "ए माई, बैग का सामान और पॉकेट अच्छे से जाँच लेअब। ई दिल्ली के मनई बहुत खराब बा।" 

अगले दिन लौटते समय ट्रेन में सीट पर बैठे तो मैंने पंकज को छेड़ा, "ओ दिल्ली के खराब मनई, दोबारा वैसी नेकी करेगा?" 

वो चेहरे पर वही मुस्कान लाकर बोला, "अपना अपना नजरिया है सरजी। आपको लड़के की बात याद रही और मुझे आते समय उस बुढ़िया के हाथ का वो स्पर्श, बिल्कुल मेरी अपनी माँ के हाथ के स्पर्श जैसा।" 

सौ सूरज भी इतना नहीं चमकते होंगे, जितनी एक अच्छे आदमी की मुस्कान। उस्तादजी सही कहते थे, ऐसे मौके पर आँखें बंद कर लेनी चाहियें। कसम से, बंद आँखों से बहुत सुकून मिलता है।

रविवार, फ़रवरी 02, 2014

बसन्त पंचमी

आने वाली चार तारीख को बसन्त पंचमी है।  बसन्त पंचमी से आपको क्या याद आता है? कुछ नहीं, कुछ-कुछ, बहुत कुछ?  कोई उत्सव, कोई गाना, कोई भूली बिसरी याद, कोई  नई-पुरानी घटना यहाँ तक कि कोई दुर्घटना भी,  साझा करना चाहें तो स्वागत है।

मेरे प्रिय पाठक-पाठिकाओं पर नकल का आरोप न लगे, इसलिये इस पोस्ट पर कमेंट कूछ समय के अंतराल में पब्लिश होंगे।